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भगवान का अष्टापद पर निर्वा
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श्रवगाहन, सूक्ष्मत्व और मव्यावाध। ये गुण आठ कर्मों के विनाश द्वारा उत्पन्न हुये थे। वे इस शरीर को छोड़ कार तनु वात बलय में जा विराजे । वे लोक के अग्रभाग पर स्थित हो गये। वे निर्मल, निरावरण, निष्कलंक शुद्ध मात्म रूप में स्थित हो गये। वे जन्म-मरण से रहित हो गये, कृतकृत्य हो गये। सिद्ध परमात्मा हो गये । उनके साथ १००० मुनि भी मुक्त हुये ।
कल्याणक
भगवान का निर्वाण हो गया, यह जान कर सब देव और इन्द्र वहाँ प्राये भगवान का शरीर पारे के समान बिखर गया था। तीर्थकर के शरीर के परमाणु अन्तिम समय बिजली के समान क्षणभर में स्कन्ध पर्याय को छोड़ देते हैं । इन्द्र ने सब देवों के साथ भगवान के निर्वाण कल्याणक की पूजा की। भगवान का निर्माण करके कुत्रिम शरीर को पालकी में विराजमान किया। फिर इन्द्र ने तोन प्रग्नि कुण्ड स्थापित किये । एक मग्निकुण्ड भगवान के लिये, दूसरा श्रग्निकुण्ड गणधरों के लिये दायीं ओर तथा तीसरा प्रति कुण्ड गणधरों के अतिरिक्त अन्य सामान्य केवलियों के लिये arat मोर स्थापित किया। फिर उन कुण्डों में मग्नि स्थापित की, गन्ध-पुष्प यादि से पूजा करके चन्दन, अगुरु, कपूर, केशर मादि सुगन्धित पदार्थों और घी, दूध प्रादि द्वारा उस अग्नि को प्रज्वलित किया और उस शरीर को उसमें रख दिया। अग्नि ते थोड़े ही समय में शरीर का वर्तमान श्राकार नष्ट कर दिया। उन्होंने शेष मुनियों के शरीर का भी इसी प्रकार संस्कार किया ।
फिर इन्द्रों ने पंच कल्याणकों को प्राप्त होने वाले भगवान वृषभदेव के शरीर की भस्म उठाकर 'हम लोग भी ऐसे ही हों' यह सोचकर बड़ी भक्ति से अपने ललाट पर दोनों भुजाओं में, गले में और ललाट पर लगाई । फिर सबने मिलकर मानन्द नाटक किया और अपने-अपने स्थानों को चले गये ।
भगवान का निर्माण होने पर भेद विज्ञानी भरत चक्रवर्ती को मोह उत्पन्न हुआ और वे शोक सन्तप्त हो गये । उस समय वृषभसेन गणधर ने उन्हें संसार का स्वरूप बताते हुये समझामा, जिससे चक्रवर्ती का मोह भंग हो गया और गणधर देव के चरणों में नमस्कार करके वे अयोध्या नगरी को वापिस लौट गये ।
सिद्धक्षेत्र कैलाश (प्रष्टापन ) - भगवान ऋषभदेव का निर्वाण अष्टापद पर्वत से हुआ । म्रष्टापद को ही अनेक स्थानों पर कैलाश पर्वत भी कहा गया । इसलिए कैलाश और अष्टापद दोनों स्थान भिन्न-भिन्न न होकर एक ही हैं 1
कैलाश पर्वत सिद्ध क्षेत्र है। यहां से अनेक मुनियों ने निर्वाण प्राप्त किया है। भगवान ऋषभदेव के प्रतिरिक्त भरत मादि भाइयों ने भगवान अजितनाथ के पितामह त्रिदशंजय, व्याल, महाव्याल, प्रच्छेद्य, अभेद्य, नागकुमार, हरिवाहन, भगीरथ नादि असंख्य मुनियों ने कैलाश पर्वत पर माकर तपस्या की औौर कर्मों को नष्ट करके यहीं से मुक्त हुए ।
भगवान ऋषभदेव की स्मृति में भरत चक्रवर्ती ने ७२ जिनालय बनवाये और उनमें रत्नों की प्रतिमायें विराजमान करायी । ये प्रतिमायें और जिनालय सहस्रों वर्षों तक वहां विद्यमान रहे । सगर चक्रवर्ती के प्रादेश से उनके साठ हजार पुत्रों ने उन मन्दिरों की रक्षा के लिये उस पर्वत के चारों मोर परिखा खोद कर गंगा को वहां बहाया। बाली मुनि यहीं तपस्या कर रहे थे। रावण उन्हें देखकर बड़ा क्रुद्ध हुमा मौर जिस पर्वत पर खड़े वे तपस्या कर रहे थे, उस पर्वत को ही उलट देना चाहा। तब वाली मुनि ने सोचा- चक्रवर्ती भरत ने यहां जो जिन मन्दिर बनवाये थे, वे इस पर्वत के विचलित होने से कहीं नष्ट न हो जायें, यह विचार कर उस पर्वत को उन्होंने अपने पैर के अंगूठे से दबा दिया, जिससे रावण उस पर्वत के नीचे दबकर रोने लगा । इन घटनाओं से यह सिद्ध होता है कि भरत द्वारा निर्मित ये मन्दिर मौर मूर्तियां रावण के समय तक तो भवश्य ही थीं।
लामाको प्राकृति- कैलाश की माकृति ऐसे लिंगाकार की है जो षोडशदल कमल के मध्य खड़ा हो । इन सोलह दल वाले शिखरों में सामने के दो शिखर भुक कर लम्बे हो गये हैं। इसी भाग से कैलाश का जल गौरीकुण्ड में गिरता है। कैलाश इन पर्वतों में सबसे ऊंचा है। उसका रंग कसौटी के ठोस पत्थर जैसा है। किन्तु बर्फ