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जाभिराय और मरुदेवी
११. नाभिराय और मरुदेवी
जिल के
जंन पुराणों में नाभिराय का जो वर्णन मिलता है, उसके अनुसार वे अन्तिम मनु थे। वे तेरहवें भनु प्रसेनपुत्र थे। वे भरतक्षेत्र में विजयावं पर्वत से दक्षिण की भोर मध्यम मायें खण्ड में उत्पन्न हुये थे । उनका विवाह अत्यन्त सुन्दरी मरुदेवी से हुआ था। उस समय कल्पवृक्ष रूप प्रासाद उस क्षेत्र में नष्ट हो गये थे किन्तु केवल नाभिराय का ही कल्पवृक्ष प्रासाद बाकी बच्चा था जो ८१ खण्ड का था। इसका नाम सर्वतोभद्र प्रासाद था । इन्द्र ने उनके लिये अयोध्यानगरी की रचना की। उसमें उनके लिये और त्रिलोकीनाथ तीर्थङ्कर भगवान के उपयुक्त प्रासाद की रचना की और बादर सहित उनको उस प्रासाद में पहुंचा दिया। उनके यहां भादि तीर्थंकर ऋषभदेव
न पुराणों में नाभि राम और मरदेवी
का जन्म हुआ ।
"जब ऋषभदेव राज्यभार का दायित्व संभालने योग्य हुए तो महाराज नाभिराज ने उनका राज्याभिषेक कर दिया। यथा
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'नृपा मूर्धाभिषिक्ता ये नाभिराजपुरस्सरा । राजबद् राजसिंहोऽयमभ्यसिध्यत तैः समम् ।।
- आदि पुराण १६।२२४. भारत में राजपद के योग्य है, ऐसा मानकर नाभिराज प्रादि
अर्थात् सब राजाओ में श्रेष्ठ यह 'राजाटों ने उनका एक साथ अभिषेक किया ।
इसके पश्चात् जब तीर्थंकर ऋषभदेव ने दीक्षा ली, उस समय भी महाराज नाभिराज और महारानी मरुदेवी ग्रन्थ लोगों के साथ तपकल्याणक का उत्सव देखने के लिये पालकी के पीछे चल रहे थे । मया समं नाभिराजो राजशतं सः । तस्थौ तदा दृष्टुं विक्रमोत्सवम् ॥
श्रीमद्भागवत में मामिराज और मदवेधी
- आदिपुराण १७३१७८
अर्थात् उस समय महाराजा नाभिराज भी मरुदेवी तथा संकड़ों राजाओं से परिवृत्त होकर प्रभु ऋषभदेव के तप कल्याणक का उत्सव देखने के लिये उनके पीछे जा रहे थे ।
उस समय का दृश्य बड़ा विचित्र था। एक ही समय में विविध रसों का परिपाक हो रहा था ।
red नबरसा जाता नृत्यदप्सरसां स्फुटाः । नामेयेन विमुक्तानामभः शोक रसोऽभवत् ।।
- हरिवंश पुराण ६।६१
- ऊपर तो अप्सराम्रों के नृत्य से नौ रस प्रगट हो रहे थे और नीचे पृथिवी पर तीर्थकर ऋषभदेव द्वारा छोड़े हुए जन शोक रस से अभिभूत हो रहे थे ।
प्राचार्य रविषेण के अनुसार ऋषभदेव ने वन में पहुंच कर 'माता-पिता' भोर मम्बुजनों से माज्ञा लेकर 'णमो सिद्धाणं' कहकर पंच मुष्टि लोच करते हुए श्रमण दिगम्बर दीक्षा लेली। यथा
'पुच्छर्ण ततः कृत्वा पित्रोर्वन्धु जनस्य च।
'नमः सिद्धेभ्य' इत्युक्त्वा धामभ्यं प्रत्यपद्यत ॥ - पद्म पुराण ३३२८२ उपर्युक्त अवसरणों से यह तो स्पष्ट ही है कि तीर्थकर ऋषभदेव के दीक्षा कल्याणक के समय उनके माता-पिता विद्यमान थे। किन्तु इसके बाद में दोनों कितने दिन जीवित रहे अथवा उन्होंने अपना शेष जीवन किस प्रकार और कहां व्यतीत किया, इसके सम्बन्ध में जैन साहित्य में अभी तक कोई स्पष्ट उल्लेख हमारे देखने में नहीं माया । किन्तु इस विषय में हिन्दू पुरान 'श्रीमद्भागवत' में महर्षि शुकदेव ने जो विवरण प्रस्तुत किया है, वह अत्यन्त महत्वपूर्ण है । इसके लिये हम महर्षि शुकदेव के विर ऋणी हैं। महर्षि मिलते हैं