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ऋषभदेव का लोकव्यापी प्रभाव
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किशोरावस्था और यौवन बिताया। इसी में रहकर उन्होंने सृष्टि में कर्म का प्रचलन किया, इसी में रहकर संसार की सम्पूर्ण व्यवस्थायें प्रचलित करें। भगवान का सम्पर्क पाकर अयोध्या पावन तोथं बन गई। लोग यहाँ माते और श्रद्धा से उसकी रज उठाकर माथे से लगाते । संभव है, उस रज में भगवान को चरण रज मिलो हो । लोक के लिये अयोध्या का कण-कण पवित्र और बन्दनीय था । जगत्पति भगवान का सम्पर्क पाकर अयोध्या तोर्थभूमि बन गई । लोहा पारस का स्पर्श पाकर सोना बन जाता है। महत्व पारस का है, लोहे का नहीं । ऋषभदेव के कारण योध्या तीर्थ बन गई । और जन्म-तिथि महान् पर्व हो गई । महत्व ऋषभदेव का है। लोग श्रयोध्या जाते हैं तो भक्ति की शान पर चढ़कर उनकी कल्पना तेज हो उठती है और अयोध्या के गली कूचों और खण्डहरों में भगवान के जन्म-काल की नाना लीलाओं के दर्शन होने लगते हैं । उनकी कल्पित छवि मानस चक्षुओं के श्रागे श्राकार ग्रहण करके नावने लगती है और श्रद्धा से मस्तक उनके चरणों में स्वतः झुक जाता है। संसार के प्रपंच पीर मोह में फंसा अपने आपको भूल जाता है, उन प्रपंचों को भूल जाता है और भगवान के चरणों में स्वयं को समर्पित पाता है।
प्रभु ऋषभदेव ने एक दिन प्रयोध्या का त्याग कर दिया, अयोध्या के मोह का त्याग कर दिया। वे संसार, शरीर और भोगों से विरक्त हो गये और दीक्षा लेलो। छह माह के उपवास का नियम ले लिया। उसके बाद वे महार के लिये निकले । उनके प्रति लोगों में अपार श्रद्धा-भक्ति तो थी किन्तु भाहार दान की विधि का थोड़ा सा भी ज्ञान नहीं था । छह माह तक वे घूमते रहे । रत्न, कन्यायें हाथी, घोड़े, वस्त्र, मलंकार तो ले-लेकर लोग भाये, किन्तु आहार कोई नहीं दे सका। यह सौभाग्य मिला राजकुमार श्रेयान्स को । हस्तिनापुर के पुण्य जागे, श्रेयान्स के पुण्य 'जागे | भगवान विहार करते हुए हस्तिनापुर पधारे। भगवान को देखते ही कुमार श्रेयान्स को पहले जन्म की वह घटना स्मरण आई, जब उसने मुनि को ग्राहार-दान दिया था। आदर से वह उठा, भक्ति से उसने भगवान को यथाविधि पड़गाहा और श्रद्धा से उसने आहार दिया। उस समय इक्षु-रस के कलश भरे हुए रक्खे थे यहाँ । श्रात्मविभोर होकर उसने भगवान को आहार में वही इक्षु-रस दिया। भगवान ने अनासक्त भाव से वही लिया । तीर्थंकर भगवान का यह प्रथम प्रहार था । कर्मभूमि में एक मुनि को दिया गया यह प्रथम आहार था । कुमार श्रेयान्स प्रथम दाता था, भगवान इस दान के प्रथम पात्र थे । हस्तिनापुर भगवान को दिये श्राहार दान का प्रथम स्थान था । देवताओं ने इस प्रथम दान की सराहना की, राजकुमार श्रेयान्स का जय-जयकार किया, भगवान की स्तुति को । किन्तु जनता ने इस घटना की स्मृति को अमिट बना दिया हस्तिनापुर को महान् तीर्थ मानकर और श्राहार-दान की उस तिथि को प्राषाढ़ कृष्णा तृतीया को पर्व मानकर । तृतीया तो वर्ष में चौबीस मातो हैं, किन्तु यह तृतीया तो असाधारण थी, अपूर्व थी, अदृष्टपूर्व थी, अश्रुतपूर्व थीं। इस तृतीया को तो भगवान का निमित्त पाकर श्रेयान्स कुमार ने, सोमप्रभ ने, लक्ष्मीमतो ने और समस्त दर्शकों ने प्रक्षय पुण्य संचय किया था। इसलिये इस तिथि को पर्व मानकर ही जनता को सन्तोष नहीं हुमा । इस तृतीया को अक्षय तृतीया मानकर उसको विशेष गौरव प्रदान किया। किस बुद्धिसागर महामानव ने यह नाम दिया इस तिथि को प्राज से लाखों करोड़ों वर्ष पहले । उस भज्ञात मनीषी को हमारे प्रणाम हैं। 'अक्षय' इस एक शब्द में ही उसने पर्व का सारा इतिहास लिख दिया ।
भगवान तो निरीह थे, वीतराग थे। माहार लिया और चल दिये । मौन धारण किये एक हजार वर्ष तक ध्यान और बिहार करते रहे। तब वे एक दिन पुरिमताल नगर के बाहर उद्यान में पहुंचे। एक वटवृक्ष के नीचे एक शिला पर पद्मासन लगाकर ध्यानस्थ हो गये। उनकी सारी इन्द्रियाँ सिमट कर मन में समा गई। मन श्रात्मा में तिरोहित हो गया । उन्हें विमल केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। 'समस्त लोकालोक के ज्ञाता दृष्टा बन गये । बे सर्वश- सर्वदर्शी बन गये । भगवान ऋषभदेव के जीवन का यह ज्वलन्त अवसर था। सही मायनों में वे अभी भगवान बने थे । इससे भी बड़ी और महत्वपूर्ण एक घटना और घटी यहाँ पर देवों ने इसी स्थान पर समवसरण की रचना की। भगवान का उसमें प्रथम धर्मोपदेश हुआ । एक हजार वर्ष से स्वेच्छा से लिया मौन प्रथम वार भंग हुआ। भगवान ने यहां पर ही धर्म चक्र प्रवर्तन किया।
भगवान को जिस स्थान पर केवलज्ञान हुआ मोर प्रथम दिव्य ध्वनि खिरी, उस पुरिमताल को लोग