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ऋषभदेव का लोकव्यापी प्रभाव
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उस कमल से प्रजापतियों के अधिपति ब्रह्माजी उत्पन्न हुए। इन्हीं से सारे अवतार प्रगट हुए 1 कुल अवतारों की संख्या चौबीस थी-१. सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार ये चार ब्राह्मण २. शूकरावतार ३. नारद ४. नर-नारायण ५. कपिल ६. दत्तात्रय ७. यज्ञावतार ८. ऋषभदेव ६. पृथु १०. मत्स्यावतार ११. कच्छपावतार १२. धन्वन्तरि १३. मोहिनी १४, नरसिंह १५. वामन १६. परशुराम १७. व्यास १८. राम १६. बलराम २०. श्रीकृष्ण २१. बुद्ध २२. कल्कि
श्रीमदभागवत में चौबीस अवतार स्वीकार किये हैं, किन्तु नाम उपयुक्त बाईस अवतारों के ही दिये हैं। कुछ विद्वान हंस और हयग्रीव नामक दो अवतार और मानते हैं और इस प्रकार अवतारों की चौबीस संख्या की पति करते हैं। कुछ अन्य विद्वान् चौबीस की संख्या पूर्ति इस प्रकार करते हैं-रामकृष्ण के अतिरिक्त तो उपयुक्त हैं ही। शेष चार अवतार श्रीकृष्ण के ही अंश हैं । स्वयं श्रीकृष्ण तो पूर्ण पुरुष हैं । वे अवतार नहीं, अवतारी हैं। प्रतः श्रीकृष्ण को अवतारों में नहीं गिनते। उनके चार अंश इस प्रकार हैं.-१. केश का अवतार २. सुतपा तथा पृश्नि पर कृपा करने वाला अवतार ३. संकर्षण बलराम ४. परब्रह्म ।।
इस महापुराण में भगवान ऋषभदेव का वर्णन कई स्थलों पर किया है। यहां उन स्थलों से लेकर ऋषभ देव-वरित्र ज्यों का त्यों (हिन्दी भाषा में) दिया जा रहा है। इससे ऋषभदेव के चरित्र पर तो प्रकाश पडता ही है, उनकी महानता के भी दर्शन होते हैं। इससे कुछ नये तथ्यों का उद्घाटन भी होता है
"राजा नाभि की पत्नी मेरुदेवी के गर्भ से ऋषभदेव के रूप में भगवान ने आठवां अवतार ग्रहण किया। इस रूप में उन्होंने परमहंसों का वह मार्ग दिखाया जो सब पाश्रमों के लिये वन्दनीय हैं।"
-श्रीमदभागवत १।३।१३ "राजा नाभि की पत्नी सुदेवी के गर्भ से भगवान ने ऋषभदेव के रूप में जन्म लिया। इस अवतार में समस्त प्रासक्तियों से रहित रहकर, अपनी इन्द्रियों और मन को अत्यन्त शान्त करके एवं अपने स्वरूप में स्थित होकर समदर्शी के रूप में उन्होंने जड़ों की भांति योगचर्या का प्राचरण किया । इस स्थिति को महषि लोग परमहंस पद अर्थात अवधूतचर्या कहते हैं।
-श्रीमद्भागवत २।७।१० स्वायम्भुव मनु के पुत्र प्रियव्रत थे। उन्हें परमार्थ तत्व का बोध हो गया था। वे निरन्तर ब्रह्माभ्यास में लीन रहते थे। पिता ने उन्हें राज्य-भार सौंपना चाहा, किन्तु उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया। तब ब्रह्माजी द्वारा समझाने पर उन्होंने राज्य स्वीकार किया। राज्य शासन करते हुए भी देहादि उपाधि की निवृत्ति हो जाने से उनकी आत्मा की सम्पूर्ण जीवों के आत्मभूत प्रत्यगात्मा में एकीभाव से स्थिति हो गई।
उन्होंने अपने रथ पर चढ़कर पृथ्वी की सात परिक्रमायें दीं। उस समय उनके रथ के पहियों से जो लीक बनी वे ही सात समुद्र हए । उनसे पृथ्वी में सात द्वीप बन गये। उनके नाम क्रमशः जम्ब, प्लक्ष, शाल्मलि, कश, कौञ्च, शाक और पुष्कर द्वीप हैं । इनमें से पहले-पहले की अपेक्षा मागे-आगे के द्वीप का परिमाण दूना है और ये समुद्र के बाहरी भाग में पृथ्वी के चारों ओर फैले हुए हैं । सात समुद्र क्रमशः खारे जल, ईख के रस, मदिरा, घी, दूध, मठे और मीठे जल से भरे हुए हैं।
प्रियव्रत के सात पुत्र थे-अग्नीध्र, इध्मजिह्व, यज्ञबाहु, हिरण्यरेता, धृतपृष्ठ, मेधातिथि और वीतिहोत्र। इन पुत्रों को एक-एक द्वीप का राज्य दे दिया। प्राग्नीध्र जम्बूद्वीप के राजा बने । उनके नौ पुत्र हुए-नाभि, किम्पुरुष, हरिवर्ष, इलामृत, रम्यक हिरण्मय, कुरु, भद्राश्व और केतुमाल । प्राग्नीध्र ने जम्बूद्वीप के विभाग करके उन्हीं के समान नाम वाले नौ वर्ष (भूखण्ड) बनाये और उन्हें एक-एक पुत्र को सौंप दिया।
पिता के परलोक गमन करने पर नौ भाइयों ने मेरु की नौ कन्याओं से विवाह कर लिया। नाभि ने मेरुदेवी से विवाह किया ! बहुत समय तक नाभि के कोई सन्तान नहीं हुई। तब दम्पति ने श्रद्धापूर्वक विशुद्ध भाव से भगवान की माराधना की। तब भगवान ने प्रसन्न होकर वरदान दिया- 'मैं स्वयं ही अपनी अंशकला से अग्नीघ्रनन्दन नाभि के यहां अवतार लूंगा क्योंकि अपने समान मुझे कोई और दिखाई नहीं देता।'