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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
महारानी मेरुदेवी के सुनते हुए उसके पति से इस प्रकार कहकर भगवान अन्तर्धान हो गये । उस यज्ञ में महर्षियों द्वारा इस प्रकार प्रसन्न किये जाने पर श्रीभगवान महाराज नाभि का प्रिय करने के लिये उनके रनिवास में महारानी मेरुदेवी के गर्भ से दिगम्बर संन्यासी और ऊर्ध्वरेता मुनियों का धर्म प्रगट करने के लिये शुद्ध सत्वमय विग्रह से प्रगट हुए ।
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- पंचम स्कन्ध तृतीय अध्याय
'राजन् ! नाभिनन्दन के अंग जन्म से ही भगवान विष्णु के वव-कुश यादि चिह्नों से युक्त थे। समता, शान्ति, वैराग्य और ऐश्वर्य आदि महाविभूतियों के कारण उनका प्रभाव दिनों दिन बढ़ता जाता था। यह देखकर मन्त्री श्रादि प्रकृति वर्ग प्रजा, ब्राह्मण और देवताओं की यह उत्कट अभिलापा होने लगी कि ये ही पृथ्वी का शासन करें। उनके सुन्दर और सुडौल शरीर, विपुल कोर्ति, तेज, बल, ऐश्वर्य, यश, पराक्रम और शूरवीरता आदि गुणों के कारण महाराज नाभि ने उनका नाम 'ऋषभ (श्रेष्ठ) रखखा ।
एक बार भगवान इन्द्र ने ईर्ष्यावश उनके राज्य में वर्षा नहीं को तब योगेश्वर भगवान ऋषभ ने इन्द्र की मूर्खता पर हंसते हुए अपनी योग माया के प्रभाव से अपने वयं अजनाभखण्ड ने खूब जल बरसाया। महाराज नाभि अपनी इच्छानुकूल श्रेष्ठ पुत्र पाकर अत्यन्त आनन्दमग्न हो गये। और अपनी ही इच्छा से मनुष्य शरीर धारण करने वाले पुराण पुरुष श्रीहरि का सप्रेम लालन करते हुए, उन्हीं के लीला विलास से मुग्ध होकर 'वत्स ! तात !' ऐसा गद्गद् वाणी से कहते हुए बड़ा सुख मानने लगे ।
जब उन्होंने देखा कि मन्त्रिमण्डल, नागरिक और राष्ट्र की जनता ऋषभदेव से बहुत प्रेम करती है तो उन्होंने उन्हें धर्म मर्यादा की रक्षा के लिये राज्याभिषेक करके ब्राह्मणों की देखरेख में छोड़ दिया। आप अपनी पत्नी मेरुदेवी के सहित बदरिकाश्रम को चले गये। वहां अहिंसा वृत्ति से, जिससे किसी को उद्वेग न हो, ऐसी कोशपूर्ण तपस्या और समाधियों के द्वारा भगवान वासुदेव के नर-नारायण रूप की आराधना करते हुए समय आने पर उन्ही के स्वरूप में लीन हो गये ।
भगवान ऋषभदेव ने अपने देश यजनाभखण्ड को कर्म भूमि मानकर लोकसंग्रह के लिये कुछ काल गुरुकुल में वास किया। गुरुदेव को यथोचित दक्षिणा देकर गृहस्थ में प्रवेश करने के लिये उनकी आज्ञा ली । फिर लोगों को गृहस्थ धर्म की शिक्षा देने के लिये देवराज इन्द्र की दी हुई उनकी कन्या जयन्ती से विवाह किया तथा श्रौतस्मार्त दोनों प्रकार के शास्त्रोपदिष्ट कर्मों का आचरण करते हुए उसके गर्भ से अपने ही समान गुण वाले सौ पुत्र उत्पन्न किये। उनमें महायोगी भरतजी सबसे बड़े और सबसे अधिक गुणवान् थे । उन्हीं के नाम से लोग इस अजनाभखण्ड को भारतवर्ष कहने लगे। उनसे छोटे कुशावर्त इलावर्त, ब्रह्मावर्त, मलय, केतु, भद्रसेन इन्द्रस्पृक्, विदर्भ, और कीकट ये नौ राजकुमार शेष नव्वे भाइयों से बड़े एवं श्रेष्ठ थे। उनसे छोटे कवि, हरि, अन्तरिक्ष, प्रवुद्ध, पिप्पलायन, श्राविर्होत्र द्र मिल, चमस और करभाजन ये नौ राजकुमार भागवत धर्म का प्रचार करने वाले बड़े भगवद्भक्त थे। भगवान की महिमा से महिमान्वित और परम शान्ति से पूर्ण इनका पवित्र चरित्र हम नारद-वसुदेव संवाद के प्रसंग से भागे (एकादश स्कन्ध में) कहेंगे । इनसे छोटे जयन्ती के इक्यासी पुत्र पिता की श्राज्ञा का पालन करने वाले, प्रति विनीत, महान् वेदश, निरन्तर यज्ञ करने वाले थे । वे पुण्य कर्मों का अनुष्ठान करने से शुद्ध होकर ब्राह्मण हो गये थे ।
भगवान ऋषभदेव यद्यपि परम स्वतन्त्र होने के कारण स्वयं सर्वदा ही सब प्रकार की अनर्थ परम्परा से रहित, केवल श्रानन्दानुभव स्वरूप धौर साक्षात् ईश्वर ही थे तो भी अज्ञानियों के समान कार्य करते हुए उन्होंने काल के अनुसार प्राप्त धर्म का माचरण करके उसका तत्व न जानने वाले लोगों को उसकी शिक्षा दी। साथ हो सम, शान्त, सुहृद् और कारुणिक रहकर धर्म, अर्थ, यश, सन्तान, भोग सुख और मोक्ष का संग्रह करते हुए गृहस्थाश्रम में लोगों को नियमित किया । महापुरुष जैसा जैसा प्राचरण करते हैं, दूसरे लोग उसी का अनुकरण करने लगते हैं। यद्यपि वे सभी धर्मों के सार रूप वेद के गूढ़ रहस्य को जानते थे। तो भी ब्राह्मणों की बतलाई हुई विधि से साम-दानादि नीति के अनुसार ही जनता का पालन करते थे। उन्होंने शास्त्र और ब्राह्मणों के उपदेशानुसार भिन्न