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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
ग्रहो मुचं वृषभ याजिमानां विराजन्तं प्रयममध्यराणाम् । अपां न पातमश्विना हुये घिय इन्द्रियेण इम्ब्रियंवत्तभोजः ॥
अथर्ववेद १६१४२१४ सम्पूर्ण पापों से मुक्त तथा अहिंसक वत्तियों के प्रथम राजा, मादित्य स्वरूप श्री ऋषभदेव का मैं आवाहन __ करता हूँ। वे मुझे बुद्धि एव इन्द्रियों के साथ बल प्रदान करें। अनर्वाणं वृषभं मन्द्र जिह्व वृहस्पति वर्धया नव्यमकं ।
ऋग्वेद मण्डल १ सूक्त १६० मन्त्र १० मिाट भाषी, ज्ञानी, स्तुतियोग्य ऋषभ की पूजा साधक मन्त्रों द्वारा वधित करो। वे स्तोता को नहीं छोड़ते। एव वभ्रो षभ चेकितान यथा हेव न हृणीषे न हति ।।
ऋग्वेद १३३१५ हे शुद्ध दीप्तिमान सर्वज्ञ वृषभ ! हमारे ऊपर ऐसी कृपा करो कि हम कभी नष्ट न हों।
इसी प्रकार प्राय: सभी हिन्दू पुराणों में ऋपभदेव का चरित्र वर्णन किया गया है और उन्हें भगवान का अवतार माना है। ब्रह्माण्ड पुराण २।१४ में उन्हें राजाओं में श्रेष्ठ और सब क्षत्रियों का पूर्वज कहा है
'ऋषभं पार्थिव श्रेष्ठं सर्व क्षत्रस्य पूर्वजम् ।' महाभारत (शान्ति पर्व १२६४।२०) में उन्हें क्षात्रधर्म का आद्य प्रवर्तक बताया है
'क्षात्रो धर्मो ह्यादि देवात् प्रवृत्तः पश्चादन्ये शेषभूताश्च धर्माः ।' श्रीमद्भागवत्र में एक स्थान पर परीक्षित ने कहा है
धर्म अनीषि धर्मश धर्मोऽसि वृषरूपधक् ।। यवधर्मकृतः स्वानं सूचकस्थापि तद्भवेत् ।।
श्रीमद्भागवत १।१७।२२ अर्थात हे धर्मज्ञ ऋपभदेव! पाप धर्म का उपदेश करते हैं। आप निश्चय से वषभ रूप से स्वयं धर्म हैं। अधर्म करने वाले जो नरकादि स्थान प्राप्त होते हैं, वे ही स्थान प्रापकी निन्दा करने वाले को मिलते हैं। इसी शास्त्र में ऋषभदेव एक स्थान पर अपने नाम की सार्थकता बताते हुए कहते हैं
इवं शरीरं मम दुर्विभाध्यं सत्वं हि मे हदयं यत्र धमः ।
पृष्ठे वृतो मे यवधर्मपाराय प्रतो हि मामृषभं प्राहुराः ॥ ५।५।१६ अर्थात मेरे इस अवतार शरीर का रहस्य साधारण जनों के लिये बुद्धिगम्य नहीं है। शुद्ध सत्व ही मेरा हृदय है और उसी में धर्म की स्थिति है। मैंने अधर्म को अपने से बहुत दूर पीछे की ओर धकेल दिया है। इसी से सत्यपुरुष मुझे 'ऋषभ' कहते हैं। वौद्ध साहित्य में भी ऋषभदेव की चर्चा बड़े प्रादरसूचक शब्दों में की गई है
'प्रजापतेः सुतो नाभिः तस्यापि सुतमुध्यते। नाभिनी ऋषभ पुत्रो , सिद्धकर्म-दवसः ।। तस्यापि मणिचरो यक्षः सिबो हेमवते गिरौ । ऋषभस्य भरतः पुत्रः।
आर्यमन्जु श्री मूल श्लोक ३६०-६२ अर्थात् प्रजापति के पुत्र नाभि हुए । उनके पुत्र ऋषभ थे जो कृतकृत्य पोर दृढ़यती थे। मणिचर उनका यक्ष था। हिमवान् पर्वत पर वे सिद्ध हुए. उनके पुत्र का नाम भरत था।
इसी प्रकार 'धम्मपद' ४२२ में ऋषभदेव को 'उस पवरं वीर' अर्थात सर्वश्रेष्ठ र कहा है।