________________
८८
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
सेना थी। सबसे आगे पदाति सेना चल रही थी। उसके पीछे क्रमश: अश्व, रथ और हाथियों पर मारूढ़ सेना थी। सेना की प्रत्येक टुकड़ी की अपनी अलग ध्वजा थी। जब महाराज भरत नगर में होकर निकले, उस समय मकानों के गवाक्षों से सुन्दरियों ने उन पर पृष्प और लाजा की वर्षा की। चारों ओर महाराज का जय जयकार हो रहा था। सेना के प्रागे मागे सूर्य मण्डल के समान देदीप्यमान और देवों द्वारा रक्षित चक्ररत्न चल रहा था। सारी सेना चक्र रत्न के पीछे पीछे चल रही थी। चक्ररत्न और दण्डरत्न दोनों ही एक-एक हजार देवों से रक्षित दिव्य अस्त्र होते हैं।
सबसे पहले वे पूर्व दिशा की ओर गये। सेना के आगे-आगे सेनापति दण्ड रत्न की सहायता से मार्ग को सुगम और समतल बनाया जा रहा था। उन्होंने नदी के तट पर पदाव डाला । मार्ग में जितने राजा मिले, वे रत्नों का उपहार और यौबनवती कन्याओं को लेकर सम्राट् की सेवा में उपस्थित हुए।
दूसरे दिन महाराज भरत विजय पर्बत नामक हाथी पर सवार होकर चले। सेनापतियों ने राजमुद्राहित आदेश सारी सेना में प्रचारित किया कि आज समुद्र-तट पर चलकर ही विश्राम करना है, इसलिए सेना को शीघ्रतापूर्वक प्रयाण करना है।' इस आदेश के प्रचारित होते ही सेना ने त्वरित गति से प्रयाण किया। मार्ग में अनेक भयभीत राजाओं ने आकर भरत महाराज को प्रणाम किया और उनकी अधीनता स्वीकार की। कोई राजा महाराज भरत से युद्ध करने का साहस नहीं करता था, इसलिए इन्हें किसी से सन्धि, विग्रह, यान, प्रासन, द्वधीभाव और ग्राश्रय नहीं करने पड़ते थे। भरत ने न तो कभी तलवार पर अपना हाथ लगाया और न कभी धनुष पर प्रत्यंचा ही चढ़ाई । अनेक म्लेच्छ राजाओं ने उन्हें हाथी दांत, गज मुक्ता, चमरी गाय के बाल और कस्तुरी भेंट की। मार्ग में सेनापति ने महाराज की प्राज्ञा से अन्तपालों के सहस्रो किलों को अपने अधिकार में किया । अन्तपालों ने रत्न, सुवर्ण आदि भेंटकर भरत की प्राज्ञा स्वीकार की । इस प्रकार मार्ग के सभी राजाओं को अपने वशवर्ती बनाते हुए गंगासागर के तट पर पहुंचे। वहां गंगा के उपवन की वेदिका के उत्तर द्वार से प्रवेश करके वन में पहंच कर सेना ने विश्राम किया।
भरत महाराज सेना को सेनापति के सुपुर्द करके अकेले ही, दिव्य अस्त्रों से सुसज्जित होकर प्रजितंजय रथ में बैठकर समुद्र विजय के लिये चल दिए । उनका रथ स्थल और जल सर्वत्र समान रूप से चल सकता था। उन्होंने सारथी को जल में रथ को चलाने का पादेश दिया। उनके आदेशानुसार सारथी ने समुद्र में रथ बढ़ाया। रथ वारह योजन तक समुद्र में चला गया। तब भरत ने एक दिव्य वाण धनुष पर सन्धान किया, जिस पर लिखा हुमा था कि 'मैं वृषभदेव तीर्थकर का पुत्र भरत चक्रवर्ती हैं। इसलिए मेरे उपभोग के योग्य क्षेत्र में रहने वाले सब व्यंतर देव मेरे अधीन हों।' वह वाण सनसनाता हुआ मागध देव के महल के प्रांगन में जाकर गिरा ! उसे देखते हो सम्पूर्ण व्यन्तरों मे पातक व्याप्त होगया । भयभीत मागध देव व्यन्तरों के परिकर सहित उस वाण को रत्न मंजूषा में रखकर भागा हुमा भरत के निकट पाया और उन्हें अनर्थ्य रत्न भेंटकर उनकी ग्राधीनता स्वीकार की। इसके पश्चात् भरत पूनः अपने स्कन्धावार में लौटे।
अगले दिन सेना ने प्रस्थान किया। सेना महाराज के प्रादेशानसार समुद्र के किनारे-किनारे चली। चक्रवर्ती का प्रागमन सुनकर राजा लोग छत्र-मुकुट त्याग कर चक्रवर्ती का स्वागत करने अपने राज्य को सीमा पर भेट लिए उपस्थित हो जाते । जो भोगी विलासी राजा थे, भरत ने उन्हें सत्ताच्युत करके उनके स्थान पर कुलीन पुरुषों को राज्य शासन सोंपा । अनेक राजा भय के कारण राज्य छोड़कर भाग गए। जिसने तनिक भी शत्रुता प्रदर्शित की, भारत ने उनके राज्य, धन, संपत्ति छीन ली। कोई अन्यायी राजा बच नहीं सका । मनुकूल राजाओं को अभय देकर भरत ने सम्मानित किया।
सेनापति ने बिना किसी प्रतिरोध के अंग, बंग, कलिंग, कूरु, प्रवन्ती, पांचाल, काशी, कोशल, विदर्भ, कच्छ, चेदि,वत्स, सुह्म, पुण्ड, प्रोण्ट्र, गौड़, दशाणं, कामरूप, कश्मीर, उशीनर, और मध्यदेश के राजामों को अपने वश में कर लिया। उसने कालिन्द, कालकट, भिल्ल देश और मल्लदेश में पहुंच कर उनसे अपनी भाशा मनबाई। उसकी सेना के हाथियों ने हिमवान पर्वत के निचले भाग से लेकर भार पौर गोरबगिरि पर स्वच्छन्द विचरण