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जैत-धर्म का प्राचीन इतिहास
अर्थात् हे विष्णुदत्त परीक्षित 1 यज्ञ में महर्षियों द्वारा इस प्रकार प्रसन्न किये जाने पर श्री भगवान महाराज नाभि का प्रिय करने के लिए उनके रनिवास में महारानी मेरुदेवी के गर्भ से वातरशना ( दिगम्बर) श्रमण ऋषियों और ऊर्ध्वरेता मुनियों का धर्म प्रगट करने के लिए शुद्ध सत्त्वमय विग्रह से प्रगट हुए ।
इस उल्लेख से यह निष्कर्ष निकलता है कि ऋषभदेव की मान्यता और पूज्यता के सम्बन्ध में जनों और हिन्दुओं में कोई मतभेद नहीं है । जैसे वे जैनियों के प्रथम तीर्थंकर हैं, उसी प्रकार वे हिन्दुओं के लिए साक्षात् विष्णु भगवान के अवतार हैं। दूसरी बात यह है कि प्राचीनता की दृष्टि से ऋषभदेव का अवतार राम श्रीर कृष्ण से भी प्राचीन माना गया है। और इस अवतार का उद्देश्यता कम मुनियों के धर्म को प्रगढ़ करना बतलाया गया है | भागवत पुराण में यह भी बताया गया है कि
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'प्रथमवतारो रजसोपप्लुतकं वस्योपशिक्षणार्थः ॥ ५।६।१२ ।।
ग्रर्थात् भगवान का यह अवतार रजोगुण से भरे हुये लोगों को कंबल्य की शिक्षा देने के लिये हुआ था । जिन वातरशना और ऊर्ध्वरेता श्रमण मुनियों के धर्म को प्रगट करने और कैवल्य की शिक्षा देने के लिये ऋषभदेव का अवतार हुआ वे यांतरशना मुनि यहाँ अत्यन्त प्राचीन काल से विद्यमान थे। उनका उल्लेख भारत के प्राचीनतम माने जाने वाले ग्रन्थ वेदों में भी मिलता है। एक सूक्त में वातरशना मुनियों की कठोर साधना का इस प्रकार वर्णन किया गया है ।
'मुनयो वातरशमाः पिशंगा वसते मला । वातस्यामु भाजि यन्ति यह वासो प्रविक्षत ।। उन्मदिता मौनेयेन वाता श्रातास्थिमा वयम् । शरीरेवस्माकं पूयं मर्तासो अभि पश्यम ||
अर्थात् श्रतीन्द्रियार्थदर्शी वातरशना मुनि मल धारण करते हैं जिससे वे पिंगल वर्ण दिखाई देते हैं। जब ये वायु की गति को प्राणोपासना द्वारा धारण कर लेते हैं अर्थात् रोक लेते हैं, तब वे अपनी तप की महिमा से दीप्यमान होकर देवतास्वरूप को प्राप्त हो जाते हैं । सर्व लौकिक व्यवहार को छोड़ करके हम मौन वृत्ति से उन्मत्तवत् वायु भाव को प्राप्त होते हैं और तुम साधारण मनुष्य हमारे बाह्य शरीरमात्र को देख पाते हो, हमारे सच्चे श्राभ्यंतर स्वरूप को नहीं ( ऐसा वे वातरशना मुनि प्रगट करते हैं ।
ऋग्वेद ने इन ऋचाओं के साथ केशी की स्तुति की गई हैं
'केश्यग्न केशी विषं केशी विर्भात रोदसी । केशी विश्यं स्वयं शे केशीवं ज्योतिरुच्यते ॥
- ऋग्वेद १०।१३६।२-३
- ऋग्वेद १०।१३६।१
अर्थात् केशी अग्नि, जल, स्वर्ग और पृथ्वी को धारण करता है। केशी समस्त विश्व के तत्त्वों का दर्शन करता है । केशी ही प्रकाशमान ज्योति कहलाता है ।
जहाँ वातरशना मुनियों की स्तुति की गई है, वहीं केशी की यह स्तुति की गई है । ऐसा लगता है कि केशी इन वातरशना मुनियों के प्रधान थे । ऋग्वेद के वातरशना मुनि और भागवत के वातरशना श्रमण ऋषि एक ही हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है । और यह भी असंदिग्ध तथ्य है कि ऋग्वेद के वातरशना मुनियों में श्रेष्ठ केशी और भागवत के सब ओर लटकते हुये कुटिल, जटिल, कपिश केशों वाले ऋषभदेव भी एक ही व्यक्ति हैं । वेद में उन्हें केशी कहा है और उससे उनकी जटाओं की ओर संकेत किया है। भागवत में ऋषभदेव के कुटिल, जटिल, कपिश केशों का भार बताया है। खोर जैन पुराणों में उन्हें लम्बी जदानों के भार से सुशोभित बताया है ।
१. श्रीमद्भागवत ५६०३१
२. पद्मपुराण ३२५८ हरिवंश पुराण ६।२०४