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भगवान ऋषभदेव का लोक-व्यापी प्रभाव
इस प्रकार ऋषभदेव और शिवजी के रूप में जो अद्भुत समानता दिखायी पड़ती है, वह संयोग मात्र अथवा पाकस्मिक नहीं है। बल्कि लगता है, दोनों व्यक्तित्व पृथक-पृथक नहीं हैं, एक ही हैं। इन्दीर आदि कई म्यूजियमों में योगलीन शिव मूर्तियों और ऋषभदेव की ध्यानलीन मूर्तियों को देखने पर कोई अन्तर नहीं दिखाई पडता । ऐसा प्रतीत होता है कि शिव जी के चरित्र का जो कवित्व की भाषा में प्रालंकारिक वर्णन किया गया है। यदि उस परत को हटा कर चरित्र की तह में झांके तो वे ऋषभदेव दिखाई देने लगमे । ऋषभदेव ने तपस्या करते हए कामदेव पर पूर्ण विजय प्राप्त की थी, शिवजी ने कामदेव का संहार किया था। क्या अन्तर है दोनों में? शिवजी के जिस तृतीय नेत्र और उनके संहारक रुप की कल्पना की गई है, वही ऋपभदेव का मात्मज्ञान रूप ततीय नेत्र है, जिसके द्वारा उन्होंने राग-द्वप-मोह का संहार किया।
अतः यह असंदिग्ध रूप से स्वीकार किया जा सकता है कि ऋषभदेव और शिवजी नाम से ही भिन्न हैं. वस्तुत: भिन्न नहीं हैं। इसीलिए शिवपुराण ७२१९ में ऋषभदेव को शिव के प्रवाईस योगावतारों में नौवां अवतार स्वीकार किया गया है। विष्णुपुराण हिन्दू पुराणों में विशिष्ट स्थान रखता है । इसके रचयिता थी पराशरजी हैं। इसके प्रथम
अंश अध्याय चार से छह में ब्रह्माजी की उत्पत्ति और लोक-रचना का विशद वर्णन किया गया ऋषभदेव और ब्रह्मा है। इसमें बताया है कि ब्रह्माजी नाभिज हैं। उनकी पुत्री सरस्वती है। बे चतुर्मुख हैं
अर्थात् उनके चार मुख हैं। उन्होंने इस सृष्टि की रचना को, सृष्टि की रचना में भगवान तो केवल निमित्त मात्र ही हैं। क्योंकि उसकी प्रधान कारण तो सज्य पदार्थों की शक्तियां ही हैं। वस्तूत्रों की रचना में निमित्त मात्र को छोड़कर और किसी बात को प्रावश्यकता भी नहीं है क्योंकि बस्तु तो अपनी ही शक्ति से वस्तुता को प्राप्त हो जाती है।
ब्रह्माजी ने चातवार्य व्यवस्था की। उन्होंने कृत्रिम दर्ग, पर तथा खर्बट आदि स्थापित किये । कृषि आदि जीविका के साधनों के निश्चित हो जाने पर प्रजापति ब्रह्मा जी ने प्रजा के स्थान पीर गुणों के अनुसार मर्यादा, वर्ण और आश्रमों के धर्म तथा अपने धर्म का भली प्रकार पालन करने वाले समस्त वर्गों के लोक आदि की स्थापना की।
जैन पुराणों के अनुसार ऋषभदेव भी नाभिज अर्थात नाभिराज से उत्पन्न हुये थे। उनकी पुत्री का नाम ब्राह्मी था। ब्राह्मो और सरस्वती पर्यायवाची शब्द हैं। ऋषभदेव जब समवसरण में विराजमान होते थे तो उनके चारों दिशाओं में मुख दिखाई देते थे। उन्होने कृषि प्रादि पट्कों का उपदेश दिया, ग्राम-नगर, खेट आदि की स्थापना की, वर्ण-व्यवस्था स्थापित की।
एक उल्लेख योग्य वात यह है कि प्रादि ब्रह्मा के अनेकों नाम पुराणों और कोशों में मिलते हैं जैसे हिरण्यगर्भ, प्रजापति, चतुरानन, स्वयम्भू, प्रात्मभू, सुरश्रेष्ठ, परमेष्ठी, पितामह, लोकेश, अज आदि | जैन पुराणों में ऋषभदेव के लिये भी इन नामों का प्रयोग प्रचरता से मिलता है। ब्रह्मा के नामों में परमेष्ठी शब्द हमारा ध्यान सबसे अधिक आकर्षित करता है । जैन परम्परा का तो यह पारिभाषिक शब्द है, जो अर्हन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और मुनियों के लिये प्रयुक्त होता है और जो इस युग की प्रादि में सर्व प्रथम ऋषभदेव के लिये ही प्रयुक्त हुआ था।
उपर्युक्त विवरण के अनुसार ब्रह्मा और ऋषभदेव के नामों और कामों को समानता देख कर यह विश्वास करना पड़ता है कि ब्रह्मा और ऋषभदेव एक ही व्यक्ति के दो नाम हैं।
वैदिक साहित्य के बातरशना तथा केशो और भगवान ऋषभदेव-श्रीमद्भागवत में ऋषभावतार के उद्देश्य के सम्बन्ध में जो स्पष्ट विवरण दिया है जैसा कि पूर्व में निवेदन किया जा चुका है, वह विशेषरूप से ध्यान देने योग्य है । उसमें बताया है
पहिषि तस्मिन्नेव विष्णुदत्त भगवान् परमषिभिः प्रसारितो नामः प्रियचिकीर्षया तदवरोधायने मेरुदेव्यां पर्मान्वयितुकामो वातरशनानां श्रमणानामृषीणामूवमन्धिना शुक्लया तमुवावततार॥ ५॥३१२०