________________
भगवान ऋषभदेव का लोकव्यापी भाव
७७
भिन्न देवताओं के उद्देश्य से द्रव्य, देश, काल, आयु, श्रद्धा और ऋत्विज श्रादि से सुसम्पन्न सभी प्रकार के सी-सी यज्ञ किये | भगवान ऋषभदेव के शासन काल में इस देश का कोई भी पुरुष अपने लिये किसी से भी अपने प्रभु के प्रतिदिन-दिन बढ़ने वाले अनुराग के सिवा और कभी किसी वस्तु की इच्छा नहीं करता था। यही नहीं आकाश कुसुमादि श्रविद्यमान वस्तु की भांति कोई किसी को वस्तु की घोर दृष्टिपात भी नहीं करता था ।
- श्रीमद्भागवत पंचम स्कन्ध, चतुर्थ अध्याय ऋषभदेवजी केसी पुत्रों में भरत सबसे बड़े थे । वे भगवान के परम भक्त और भगवद्भक्तों के परायण थे । ऋषभदेव जी ने पृथ्वी का पालन करने के लिए उन्हें राजगद्दी पर बैठा दिया और स्वयं उपशमशील निवृत्ति परायण महामुनियों के भक्ति, ज्ञान और वैराग्य रूप परमहंसोचित धर्मों की शिक्षा देने के लिए बिलकुल विरक्त हो गए। केवल शरीर मात्र का परिग्रह रक्खा और सब कुछ घर पर रहते ही छोड़ दिया। अब वे वस्त्रों का भी त्याग करके सर्वथा दिगम्बर हो गये, उस समय उनके बाल बिखरे हुए थे । उन्मत्त का सा वेष था । इस स्थिति में a श्राहवनीय (अग्निहोत्र की) अग्नियों को अपने में ही लीन करके सन्यासी हो गये। और ब्रह्मावर्त देश से बाहर निकल गये । वे सर्वथा मौन हो गये थे। कोई बात करना चाहता तो बोलते नहीं थे। जड़, अन्धे, बहरे, गूंगे, पिशाच और पागलों की सी चेष्टा करते हुए वे अवधूत बने जहाँ-तहां विचरने लगे। कभी नगरों और ग्रामों में चले जाते, कभी खानों, किसानों की बस्तियों बगीचों, पहाड़ों, गांवों, सेना की छावनियों, गोशालाओं, अहीरों की बस्तियों और यात्रियों के टिकने के स्थानों में रहते । कभी पहाड़ों, जंगलों और ग्राथमों में बिचरते । वे किसी भी रास्ते से निकलते तो जिस प्रकार बन में विचरने वाले हाथी को मक्खियाँ सताती हैं, उसी प्रकार मूर्ख और दुष्ट लोग उनके पीछे हो जाते और उन्हें तंग करते । कोई घमकी देते, कोई मारते, कोई पेशाब करते, कोई चूक देते, कोई ढेला भारते, कोई विष्ठा और धूल फेंकते, कोई अधोवायु छोड़ते और कोई खोटी-खरी सुना कर उनका तिरस्कार करते । किन्तु वे इन सब बातों पर ध्यान नहीं देते। इसका कारण यह था कि भ्रम से सत्य कहे जाने वाले इस मिथ्या शरीर में उनकी श्रहंता - ममता तनिक भी नहीं थी। वे कार्य-कारण रूप सम्पूर्ण प्रपञ्च के साक्षी होकर अपने परमात्म स्वरूप में ही स्थित थे। इसलिए प्रखण्ड चित्त वृत्ति से अकेले ही पृथ्वी पर विचरते रहते थे । यद्यपि उनके हाथ, पैर, छाती, लम्बी-लम्बी बाहें, कन्धे, गले, और मुख आदि अंगों की बनावट बड़ी सुकुमार थी । उनका स्वभाव से ही सुन्दर मुख स्वाभाविक मधुर मुस्कान से और भी मनोहर जान पड़ता था। नेत्र नवीन कमलदल के समान बड़े ही सुहावने, विशाल एवं कुछ लाली लिये हुए थे। उनकी पुतलियाँ शीतल एवं सन्तापहारिणी थीं । उन नेत्रों के कारण वे बड़े मनोहर जान पड़ते थे। कपोल, कान और नासिका छोटे-बड़े न होकर समान एवं सुन्दर थे तथा उनके अस्फुट हास्ययुक्त मनोहर मुखारविन्द की शोभा को देखकर पुर-नारियों के चित्त में कामदेव का संचार हो जाता था तथापि उनके मुख के आगे जो भूरे रंग की लम्बी-लम्बी घुंघराली लटें लटकी रहती थीं, उनके महान् भार और अवधूतों के समान धूलि धूसरित देह के कारण वे ग्रहग्रस्त मनुष्य के समान जान पड़ते थे ।
जब भगवान ऋषभदेव ने देखा कि यह जनता योग साधन में विघ्न रूप है और इससे बचने का उपाय वीभत्स वृत्ति से रहना ही है, तब उन्होंने अजगर वृत्ति धारण कर ली । ये लेटे ही लेटे खाने-पीने, चबाने और मलमूत्र त्याग करने लगे । वे अपने त्यागे हुए मल में लोट-लोट कर शरीर को इससे खान लेते । किन्तु उनके मल में दुर्गन्ध नहीं थी, बड़ी सुगन्ध थी और वायु उस सुगन्ध को लेकर उनके चारों ओर दस योजन तक सारे देश को सुगन्धित कर देती थी । इसी प्रकार गौ, मृग और काकादि की वृत्तियों को स्वीकार करके उन्हीं के समान कभी चलते हुए, कभी खड़े-खड़े, कभी बैठे हुए और कभी लेटे-लेटे ही खाने-पीने और मल-मूत्र का त्याग करने लगते थे ।
परीक्षित ! परमहंसों को त्याग के आदर्श की शिक्षा देने के लिये इस प्रकार मोक्षपति भगवान ऋषभदेव ने कई तरह की योगचर्यानों का आचरण किया। वे निरन्तर सर्वश्रेष्ठ महान् श्रानन्द का अनुभव करते रहते थे । उनकी दृष्टि में निरुपाधिक रूप से सम्पूर्ण प्राणियों के प्रात्मा में अपने मात्मस्वरूप भगवान बासुदेव से किसी प्रकार का भेद नहीं था। इसलिये उनके सभी पुरुषार्थ पूर्ण हो चुके थे। उनके पास ग्राकाश गमन, मनोजवित्व ( मन की गति के समान शरीर का भी इच्छा करते ही सर्वत्र पहुंच जाना ) अन्तर्धान, परकाय प्रवेश, दूर की बातें सुन लेना