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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
''प्रयाग' कहने लगे और उसे तीर्थभूमि मान लिया । जिस वट वृक्ष के नीचे बैठकर भगवान ने तपस्या की, केवल ज्ञान हुग्रा और धर्म चक्र प्रवर्तन किया, जनता ने उस वट वृक्ष को प्रणाम किया और उसके सम्मान को सुरक्षित रखने के लिये उसे अक्षय वट कहने लगे । महान् प्रभु के अल्पकालिक सम्पर्क ने उस वट वृक्ष को भी महान बना दिया । और फागुन सुदी एकादशी का दिन पर्व बन गया, जिस दिन भगवान को केवलज्ञान हुआ था ।
केवल ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् भगवान ने सम्पूर्ण देश में विहार किया। गृहस्थ दशा में उन्होंने लोक को बदला था, लोक-व्यवस्था को बदला था। अब वे लोकमानस को बदलने के लिये उपदेश देने लगे । गृहस्थ थे तो जनता का श्राहार-विहार बदला था, सर्वशों बन गये, साविवार बदल दिया, सोचने की दृष्टि बदल दी | पहले शरीर के लिये सब कुछ किया, अब आत्मा के लिये सब कुछ करने लगे । पहने कर्म-व्यवस्था बनाई, अब धर्म व्यवस्था बनाने लगे । कौन-सा देश था, जहाँ वे नहीं गये । कौन सा क्षेत्र था, जहाँ उनको दिव्य गिरा में लोगों ने श्रवगान नहीं किया। धर्म की उस पावन मन्दाकिनी में आलोडन करके जन-जन के मन में शुद्धि प्रस्फुटित हो उठी । हिमालय के उत्तुंग शिखर उनके गम्भीर नाद से गूंज उठे। मैदानों में उनके उपदेशों को शीतल बयार बहने लगी। वे पार्य देशों में गये, अनार्य देशों में गये । उनके समवसरण में गरीब श्राते थे, अमीर श्राते थे । रंक प्राते थे सम्राट् लाते थे । गाय भी श्राती थी और शेर भी आते थे; चूहे भी प्राते थे, बिल्ली भी आती थी। उनका समवसरण समाजवाद का सच्चा केन्द्र था; विभिन्न मतों और विरोधी जीवों के सह अस्तित्व का अद्भुत स्थान था। विभिन्नता में एकता और विरोधों में समन्वय का एक अलौकिक मंच था। प्रशान्त मन वहां जाकर शान्ति पाता था, क्रूरता की श्रम पर सौहार्द का शीतल जल बरस कर उसे शान्त कर देता था । भगवान की आत्मा जानम्य और शान्ति की निधान थी । उनके चारों ओर का वातावरण उसी मानन्द मोर शान्ति से व्याप्त हो जाता था। उनके सान्निध्य में पहुंचकर अनुभव होने लगता था कि मानो जोवन में मशान्ति मोर दुःख के सारे दाग ल पुंछ गये है। वे मुख से नहीं बोलते थे, उनके रोम-रोम से शान्ति मौर प्रेम बोलता था। उनका व्यक्तित्व अलौकिक था, उनका उपदेश अलौकिक था और उनका प्रभाव अलौकिक था ।
भगवान बिहार और उपदेश करते हुए एक दिन कैलाश पर्वत पर जा पहुँचे । वे कैलाश के उत्तुंग शिखर पर खड़े होकर ध्यानलीन हो गये। उनके निकट एक हजार मुनि भी ध्यान लगाकर लड़े हो गये । चक्रवर्ती भरत और प्रसंख्य जनमेदिनी हाथ जोड़े हुए भगवान के दिव्य रूप का दर्शन कर रही थी । कैलाश के निर्भरणों का कलकल करता हुआ शीतल जल बहकर गौरीकुण्ड में गिर रहा था। सारा पर्वत हिम के कारण रजत के समान श्वेत घन हो रहा था । भगवान के मुख की दोप्ति निरन्तर बढ़ती जा रही थी। यह दीप्ति बढ़ते-बढ़ते सूर्य-प्रभा जैसी हो गई, किन्तु शीतल और स्निग्ध । कुछ काल के बाद करोड़ों सूर्य मानों एक स्थान पर भा गरे । फिर वह तेजपुंज जल-थल को, प्राकाश-पाताल को लोक प्रलोक को प्रकाशित करता हुआ अदृश्य हो गया। निर्माण हो गया ।
भगवान का कैनाश धन्य हो गया, जो भी वहां थे वे धन्य हो गये, सारा लोक धन्य हो गया। देव मोर देवेन्द्रों ने मिलकर मानन्दोत्सव किया। चक्रवर्ती भरत ने वहाँ स्वर्ण मन्दिर और स्तूप निर्मित कराये । लोक ने कैलास को महान् तीर्थं घोषित किया और उस तिथि को मात्र कृष्णा चतुर्दशी को महान् पर्व स्वीकार किया ।
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भगवान का पार्थिव रूप नहीं रहा, किन्तु उनकी स्मृति संजोये ये तीर्थ और पर्व लाखों करोड़ों वर्ष के अन्तराल को पारकर बाज तक जन-जन के मन में भगवान को जीवित रक्खे हुए हैं। भगवान का भौतिक शरीर नहीं रहा, किन्तु उनका यशः शरीर तब तक रहेगा, जब तक ये बांद सितारे प्राकाश में चमकते रहेंगे ।
श्रीमद्भागवत पुराण भक्ति का अमर ग्रन्थ माना जाता है। वैष्णव सम्प्रदाय में जितने परम वैष्णव और महाभागवत हुए हैं, उनको विष्णु-भक्ति की प्रेरणा इसी ग्रन्थ से मिली थी। रामानुजाचार्य, बल्लभाचार्य, मध्वाचार्य, निम्वाचार्य, चैतन्य महाप्रभु मादि की भक्ति-साधना का मूलाधार श्रीमद्भागवत ही था । इस ग्रन्थ में भगवान विष्णु के चौबीस अवतारों का विस्तृत वर्णन मिलता है । इस ग्रन्थ के मनुसार चौबीस अवतारों के नाम इस प्रकार हैं-नाभि सरोवर में से एक कमल उत्पन्न हुआ ।
श्रीमद्भागवत में
देव