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भगवान द्वारा धर्म-चक्र-प्रवर्तन
महा प्रभाव सम्पम्नास्तत्र शासन देवताः।
नेमुश्चाप्रचिकाचा पृषभ धर्मचक्रिनं ॥२२२ -उस समवसरण में महाप्रभाव से सम्पन्न प्रतिचक आदि शासन देवता धर्मचक्र के धारक भगवान वृषभदेव को निरन्तर नमस्कार करते रहते थे।
पोठानि श्रोणि भास्वन्ति चतुविक्ष भवन्ति तु।
चत्वारिक सहस्राणि धर्मचक्राणि पूर्व के ।। ५७।१४० -समवसरण में चारों दिशाओं में तीन पीठ होते हैं, उनमें पहले पीठ पर चार हजार धर्मचक्र सुशोभित हैं।
सह हा सहसकिरणद्युति ।
धर्मचक्र जिनस्याग्ने प्रस्थानास्थानयोरभात् ॥ ३।२६ -भगवान चाहे विहार करते हों, चाहे खड़े हों, प्रत्येक दशा में उनके प्रागे मूर्य के समान कान्तिवाला तथा अपनी दीप्ति से हजार पारे वाले चक्रवर्ती के चक्ररत्न की हँसी उड़ाता हुआ धर्मचक्र शोभायमान रहता था।
धर्मचक्र १२,२४ या १००० पारे वाले होते हैं। भगवान की धर्म-सभा और धर्मोपदेश की विज्ञप्ति और कनर्वसिंग देवलोग करते हैं। वे लोगों को
समवसरण में चलने की प्राग्रहपूर्वक प्रेरणा करते हैं। देवों की प्रेरणा पाकर असंख्य मनुष्य भगवान के प्रचारक और स्त्रियाँ समवसरण में जाकर भगवान का उपदेश सुनते हैं और प्रारम-कल्याण करते हैं।
इस रहस्य पर प्राचार्य जिनसेन ने हरिवंश पुराण में प्रकाश डाला है।
धर्मवानं जिनेन्द्रस्य घोषयन्तः समन्ततः।
माहानं वकिरेऽन्येवां वा देबेग शासनात ॥३२८ -इन्द्र की प्राज्ञा से देव लोग चारों प्रोर जिनेन्द्र देव के धर्मदान की घोषणा करते हुये अन्य लोगों को बुलाले थे। भगवान कुछ दिन पुरिमताल नगर के शकटास्य वन में पर्व को मन्दाकिनी बहाते रहे । एक दिन सौ
धर्म इन्द्र ने सहस्र नामों द्वारा भगवान की स्तुति की जो बाद में सहस्रनाम स्तोत्र के भगवान का श्रम- रूप में जगत में प्रसिद्ध हुआ 1 स्तुति करने के बाद इन्द्र ने प्रार्थना की-'हे भगवन् ! बिहार विभिन्न क्षेत्रों के भव्य जीव रूपी चातक प्रापकी धर्मामत-वर्षा के लिये उत्सुकतापूर्वक
प्रतीक्षा कर रहे हैं। प्रभो ! अब मोक्षमार्ग का उपदेश देने का समय पा गया है। भव्य जीव प्रापकी शरण हैं । माप उन्हें
ने की दया कोजिये । पाप ही चराचर के स्वामी हैं। धर्म का प्रवरुद्ध मार्ग खोलने का यह उपयुक्त समय पाया है । संसार के दुखी प्राणियों का प्राप उदार फीजिये।'
उस समय भगवान स्वयं ही बिहार करना चाहते थे। तभी इन्द्र ने बिहार करने की प्रार्थना करके मानों भव्य जीवों की इच्छा का ही प्रतिनिधित्व किया । तब तीनों लोगों के स्वामी पौर धर्म के पधिपति भगवान ऋषभदेव ने धर्म-बिहार करना प्रारम्भ किया। इन्द्रदेव पोर असंख्य जनसमूह भगवान के साथ च जहां भी जाते, तीनों सन्ध्यामों को उनका दिव्य उपदेश होता था। वे जब विहार करते थे, शीतल सुगन्धित वायु चलने लगती थी, वक्ष फल फूलों से भर जाते थे, एक योजम तक की भूमि को पवनकुमार देव झाड़ बुहार देते, पृथ्वी दर्पण के समान निर्मल हो जाती । मेषकुमार देव सुगन्धित जल की वर्षा करके पृथ्वी को घूल रहित बना देते थे। जहां भगवान के चरण पड़ते, वहीं २२५ स्वर्ण कमलों की रचना हो जाती। किन्तु भगवान तो भूमि से चार अंगल ऊपर ही चलते थे, कमलों पर उनके चरण नहीं पड़ते थे। भगवान के भागे हजार प्रारों वाला धर्म चक्र, प्रष्ट मंगल द्रव्य और धर्म-ध्वज चलते पे । देव दुन्दुभि-नाद और पुष्प वर्षा कर रहे थे। भेरी-ताड़न हो रहा था। देवांगनाएँ प्राकाश में भक्ति नृत्य करती चल रही थी। किन्नर गा रहे थे, गन्धर्व पौर विद्याधर वीणा बजाते चल रहे थे। भगवान के पित्य प्रभाव के कारण चारों मोर सुमिमा हो गया पा, समस्त प्रकार का मानन्द,