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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
जाते हैं । कहीं कहीं स्वतन्त्र रूप से धमंत्र की रचना मिलती है । पाषाण स्तम्भों, द्वार के तोरण और चैत्यों पर धर्मचक्र अंकित मिलते हैं। इससे प्रतीत होता है कि जैन धर्म में धर्म-वक्र को कितना महत्व दिया गया है। यद्यपि चक्र चक्र का प्रचलन प्राचीन भारत में युद्ध के एक अमोघ शस्त्र के रूप में रहा है। नक्रवर्ती और नारायण के आयुधों में को प्रमुख स्थान प्राप्त था, किन्तु आध्यात्मिक जगत में शत्रु का संहार करने वाले और हिंसा, विजय और अधिकार के प्रतीक उस चक्र को मान्यता नहीं दी गई है। किन्तु विश्व मंत्री, अहिंसा और जगत्कल्याण के प्रतीक धर्मचक्र को तीर्थकरों की आध्यात्मिक विजय का भौतिक रूप माना गया है। धर्म चक्र भी संसार से पाप - विजय और कषायों के विनाश के लिये तीर्थंकर के आगे-आगे चलता है। इसका प्राशय और प्रयोजन यह है कि तीर्थंकर का जहाँ भी धर्म-विहार होता है, वहीं तीर्थंकर के पहुंचने से पूर्व ही ऐसा आध्यात्मिक वातावरण निर्मित हो जाता है, जिससे वहां के मनुष्यों, यहाँ तक कि तियंचों तक के मन से विद्वेष, हिंसा और अनाचार के भाव दूर होने लगते हैं, उन्हें में शान्ति का अनुभव होने लगता है और वाह्य प्रकृति में सब प्रकार की अनुकूलतायें परिलक्षित होने लगती हैं। प्राणियों की भावनाओं और प्रकृति के बाह्य रूप में यह परिवर्तन तीर्थंकर के माध्यात्मिक प्रभाव का अनिवार्य परिणाम है ।
श्रन्तर
समवसरण के द्वार पर अथवा गन्धकुटी के चारों ओर, तीर्थंकर के आसपास धर्म चक्रों की उपस्थिति का श्राशय यह है कि तीर्थकर के चारों ओर का वातावरण इतना धर्ममय होता है कि जो प्राणी समवसरण में प्रवेश करता है, उसके विचारों और भावनाओं पर ऐसा प्रभाव स्वतः ही पड़ने लगता है कि उसके मन में धर्म के अंकुर प्रस्फुटित होने लगते हैं। उसके विचारों में से हिंसा, विद्वेष और अन्य कुत्सित भावनायें तिरोहित हो जाती हैं और जब वह तीर्थंकर के समीप पहुंचता है तो चहुं ओर धर्म की बहती हुई पावन गंगा में अवगाहन करने लगता है। उसके जन्म-जन्मान्तरों के विकृत संस्कारों में एक अद्भुत क्रान्ति होने लगती | तीर्थंकर धर्म के साकार, सजीव रूप हैं । वे मूर्तिमान धर्म हैं । वे उपदेश देते हैं, तभी धर्म जागृत होता है, ऐसी बात नहीं हैं। बल्कि जब वे मौन विराजमान हों, तब भी वे हो धार्मिक किरण विकीणं होती रहती हैं, जिनमें ऐसी श्रद्भुत शक्ति होती है कि प्राणियों के अन्तकरण शुद्ध, पावन हो जाते हैं । समवसरण के द्वार पर चारों दिशाओं मानस्तम्भ होते हैं, जिन्हें देखते ही प्राणी के मन से स्तम्भ की तरह ऊँचा और कठोर अभिमान भी गलित । जाता है । इसका भी आशय यही है कि कोई प्राणो मन में अभिमान संजो कर समवसरण में प्रवेश नहीं कर सकता, उसके मन पर वहां के धर्ममय वातावरण का ऐसा प्रभाव पड़ता है कि उसके मन से अभिमान के दाग-धब्बे स्वतः ही धुल पुंछ जाते हैं, मन में कोमलता जाग उठती है और अत्यन्त विनय और भक्ति तरंगित होने लगती है ।
धर्म-चक्रों के सम्बन्ध में भगवज्जिनसेनाचार्य ने विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। आदि पुराण में अनेक स्थलों पर ऐसा वर्णन मिलता है
तो पीठिकामसचक्र : भ्रष्ट मंगलसंपदः ।
धर्म चक्राणि षोढरग्नि प्रांशुभिर्यक्षमर्धभिः ॥ २२।२६२
- उस पीठिका की अष्टमंगल द्रव्य रूपी संपदाएं और यक्षों के ऊँचे-ऊँने मस्तकों पर रक्खे हुए धर्म चक्र अलंकृत कर रहे थे ।
सहस्राराणि ताम्मुद्रत्न रश्मीनि रेजिरे ।
भानुबिम्बा निवोद्यसि पीठिकोवय पर्वतात् । २२२६३
- जिनमें लगे हुए
रत्नों की किरणें ऊपर की ओर उठ रही हैं, ऐसे हजार-हजार भारों वाले वे धर्मचक्र ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो पीठिका रूपी उदयाचल से उदय होते हुए सूर्य के बिम्ब ही हों ! सहस्रारस्फुद्धमंचरत्नपुरः सरः ।। २५/२५६
:- भगवान जब बिहार करते हैं, उस समय हजार श्रारों वाला धर्मचक्र भगवान के आगे-आगे चलता है । इसी प्रकार आचार्य जिनसेन ने हरिवंशपुराण में इन धर्मचक्रों का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है