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भगवान द्वारा वर्म-चक्र प्रवर्तन
गुणों के अनुसार वह नानारूप दिखाई दे रही थी। संसारक समस्त पदार्थो को प्रकाशित करने वाली भगवान की वह दिव्यध्वनि सूर्य को पराजित करने वाली थी तथा सावधान होकर बैठी हुई सभा के अन्तःकरण में स्थित प्रावरण सहित अशानान्धकार को खण्ड-खण्ड कर रही थी। सी. भगवजिमोलाचार्य ने दिव्यध्वनि का स्वरूप विस्तार पूर्वक बताया है
'दिध्यमहाध्वनिएरस्थ मुखाबजाम्मेघरवान कृतिनिरगच्छत । भन्यमनोगतमोहसमोन्धन अवयवेष यथैव तमोरि० प्राधि पु०२३६९ 'एकतयोऽपि च सर्वनृभाषाः सोन्तर नेष्ट वहश्च कुभाषाः । अप्रतिपत्तिमपास्य च तत्वं बोधयति स्म जिनस्य महिम्ना ॥ प्रादि पु० २३१७० एकतयोऽपि तव जलौघश्चित्ररसो भवति त मभेवात् । पात्र विशेष वशाच्च तथायं सर्वविदो ध्वनिराप बहुत्वम् ॥२३७१ एकतयोऽपि यथा स्फटिकाश्मा यद्यबुपाहितमस्य विभासम् । स्वच्छतया स्वयमप्यनुवत्त विश्ववुषोऽपि तथा ध्वनिरुच्चैः ॥२३॥७२ देवकृतो ध्वनिरित्यसदेतत् देवगुणस्य तथा वित्तिः स्यात् ।
साक्षर एव च वर्णसमूहान्नव विनार्थगतिजंगति स्यात् ।।२३।७३ अर्थात् भगवान के मुखकमल से वादलों की गर्जना का अनुकरण करने वाली अतिशय युक्त महा दिव्य ध्वनि निकल रही थी और वह भव्यजीवों के मन में स्थित मोह रूपी अन्धवार को नष्ट करती हुई सूर्य के समान सुशोभित हो रही थी। यद्यपि वह दिव्यध्वनि एक प्रकार की थी तथापि भगवान के माहात्म्य से समस्त मनुष्यों की भाषाओं और अनेक कुभाषाओं को लेकर सर्वभाषारुप परिणमन कर रही थी और लोगों का अज्ञान दूर कर उन्हें तत्वों का बोध करा रही थी। जिस प्रकार एक ही प्रकार का जल का प्रवाह वृक्षों के भेद से अनेक रस वाला हो जाता है, उसी प्रकार सर्वज्ञ देव की वह दिव्य ध्वनि भी पात्रों के भेद से अनेक प्रकार की हो जाती थी । अथवा जिस प्रकार स्फटिक मणि एक ही प्रकार की होती है तथापि उसके पास जो जो रंगदार पदार्थ रख दिये जाते हैं, वह अपनी स्वच्छता से अपने माप उन उन पदार्थों के रंग को धारण कर लेती है, उसी प्रकार सर्वज्ञ भगवान की उत्कृष्ट दिव्य ध्वनि भी यद्यपि एक प्रकार की होती है तथापि श्रोताओं के भेद से वह अनेक रूप धारण कर लेती है। कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि वह दिव्य ध्वनि देवों के द्वारा की जाती है परन्तु उनका यह कहना मिथ्या है क्योंकि ऐसा मानने पर वह भगवान का गुण नहीं कहलायगा, देवकृत होने से देवों का कहलायगा। इसके सिवाय वह दिव्यध्वनि अक्षर रूप ही है क्योंकि अक्षरों के समूह के बिना लोक में अर्थ का परिज्ञान-नहीं होता।
इस प्रकार भगवान की वाणी और उपदेश को दिव्य ध्वनि कहा जाता है । भगवान की सभी बातें अलौकिक और दिव्य होती हैं, उनकी वाणी भी दिव्य होती है और वह संसार का कल्याण करने वाली होती है।
धर्मचक्र जैन धर्म का एक आवश्यक चिन्ह है । जैन मन्दिरों की रचना समवसरण को अनुकृति होती है। समवसरण में तीर्थकर भगवान स्वयं विराजमान होते हैं । मन्दिर में उन तीर्थंकरों को प्रतिमायें विराजमान की
जाती हैं । समवसरण की रचना देवों द्वारा की जाती है, जबकि मंदिरों की रचना मनुष्यों धर्मचक्र द्वारा होती है। किन्तु समवसरण के प्रावश्यक अंगों की रचना मंदिरों में लघु रूप में यथा
संभव की जाती है। समवसरण में धर्मचक्रों की रचना होती है, देव और मनुष्य उनकी पूजा करते हैं। समवसरण के द्वार पर, श्रीमण्डप की पीठिकानों पर, यक्षेन्द्रों के मस्तकों पर धर्म-चक सुशोभित रहते हैं। तीर्थकर भगवान का जब धर्म-बिहार होता हे तो धर्म-चक्र आगे आगे चलता है, सर्वाह यक्ष धर्म-चक्र को मस्तक पर धारण कर भगवान की पोर पीठ किये बिना पागे चलता है। इतना ही नहीं; तीर्थंकर देव तीर्थ की स्थापना और उदभावना करते हैं तथा उनका सर्वप्रथम जो, केवलज्ञान के अनन्तर, प्रथम धर्मोपदेश होता है और लोक कल्याणी दिव्य ध्वनि प्रगट होती है, उसे 'धर्म-चक्र प्रवर्तन' कहा जाता है।
मन्दिरों में भी धर्म-चक्रों का अंकन रहता है। वेदी पर, भगवान के सिंहासन पर धर्म-चक्र उत्कीर्ण किये