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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
व्याख्या सर्व प्रथम फागुन सुदी एकादशी को हुई थी, धर्म की स्थापना का यह प्रथम दिवस था। इसलिये यह तिथि पवित्र तिथि मानी गई, यह स्थान पवित्र तीर्यक्षेत्र माना गया, वह वट वृक्ष अक्षय वट कहलाने लगा ।
विष्य ध्वनि - तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि का क्या रूप होता है, इस सम्बन्ध निम्न गाथायें ध्यान देने
योग्य हैं
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प्रट्ठरस महाभासा खुल्लनासाथ समाई सल तहा। अक्खर मणक्खरप्पय सण्णीजीवाण सयलभासा ॥ दादु भासा तालु ववतोट्ठकंड वावारे । परिहरिय एक्ककालं भव्वजणे विश्वभासित || पगदी क्वलिम्रो संभत्ति दयम्मि णवमुत्ताणि । जिस्सरदि णिरुवमाणो दिव्यभुणी जाव जोयणमं ॥ अवसेस काल समये गणहर देविव चक्कवट्टीणं । पहा मत्थं दिव्यभुणी श्र सप्तभंगी हिं ।।
अर्थात् अठारह महाभाषा, सात सौ छोटी भाषा तथा संज्ञीजीवों की और भी जो अक्षरात्मक अनक्षरात्मक - भाषायें हैं, उन सभी भाषाओं में तालु, दांत, ओठ, कंठ को बिना हिलाये चलाये भगवान की वाणी भव्य जीवों के लिये प्रगट होती है। भगवान की वह दिव्य ध्वनि स्वभाव से ( तीर्थंकर प्रकृति के उदय से वचन योग विना इच्छा के ) स्पष्ट अनुपम तीनों सन्ध्या कालों में ६ मुहूर्त निकलती है और एक योजन तक जाती है। शेष समय में गणधर इन्द्र तथा चक्रवर्ती के प्रश्न करने पर भी सात भंगमय दिव्यध्वनि खिरती है ।
से,
आचार्य जिनसेन ने हरिवंश पुराण में दिव्य ध्वनि को विशेषतायें बताते हुए कहा है-
तत्प्रश्नानन्तरं धातुश्चतुर्मुख विनिर्गता । चतुर्मुखकला साथ चतुर्वर्णाश्रमाश्रया || ५८ ॥ ३ चतुरस्रानुयोगानां चतुर्णामेकमातृका । चतुविध कथावृत्तिश्चतुर्गति निवारिणी ।। ५८४ समन्ततः शिवस्थानायोजनाषिक मण्डले ।
वा व वृत्तति तत्र तत्रास्ति तावृशी ।। ५८८ मधुर स्निग्धगंभीर दिव्योवात स्फुटाक्षरम् । वर्ततेऽनन्य वृत्तका तत्र साध्वी सरस्वती ॥५८६ अनानास्मापि तं नाना. पात्र गुणाश्रयम् । सभायां दृश्यते नाना दिव्यमम्बु यथावनौ ॥ ५८१५ सावधान सभास्थं ध्वान्तं सावरणं ध्वनिः ।
जनोत्यर्को भिन्नद्दिव्यो विश्वात्मेत्यादि भासनः ॥५८ | १६
अर्थात् गणधर के प्रश्न करने पर भगवान की दिव्यध्वनि खिरने लगी। भगवान की वह दिव्य ध्वनि चारों दिशाओं में दिखने वाले चार मुखों से निकलती थी, चार पुरुषार्थ रूप चार फलों को देने वाली थी, सार्थक थी, चार वर्ण और चार आश्रमों को श्राश्रय देने वाली थी, चारों पोर सुनाई पड़ती थी, चार अनुयोगों की माता थी, प्रक्षेपणी-विक्षेपणी-संवेगिनी और निवेदिनी इन चार कथामों को वर्णन करने वाली थी, चार गतियों का निवारण करने वाली थी। जहाँ भगवान विराजते थे, वहाँ से चारों ओर एक योजन तक इतनी स्पष्ट सुनाई देती थी जैसे यहीं उत्पन्न होरही हो। वह दिव्य ध्वनि जैसी उत्पत्ति स्थान में सुनाई पड़ती थी वैसी ही एक योजन के घेरे में सुनाई पड़ती थी। वह मधुर, स्निग्ध, गम्भीर, दिव्य, उदात्त और स्पष्ट अक्षरों से युक्त थी, मनन्य रूप थी, एक थी और अत्यन्त निष्कलंक थो। जिस प्रकार आकाश से बरसा पानी एक रूप होता है परन्तु पृथ्वी पर पड़ते ही नाना रूप दिखाई देने लगता है, उसी प्रकार भगवान की वह वाणी यद्यपि एक रूप थी तथापि सभा में पाक के