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भगवान मुनि-दशा में भगवान की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए वे विविध प्रकार के उपायन-भेंट लाकर भगवान के चरणों में चढा देते थे। कोई वस्त्राभूषण लाता, दूसरा कोई गन्ध, माल्य, विलेपन, रत्न, मुक्ता, गज, अश्व या रथ लाकर भगवान की भट चढाता । किन्तु भगवान उन वस्तुओं की ओर देखे बिना ही आगे बढ़ जाते थे। इससे लोग अपनी कोई कल्पित भूल या कमी का अनुभव करके बड़े खिन्न हो जाते । किन्तु उन्हें एक सन्तोष भी था कि माज हमें भगवान के दर्शन हो गये।
भगवान विहार करते हुए हस्तिनापुर नगर पहुंचे। भगवान को निराहार विहार करते हुए छह माह व्यतीत हो चुके थे। हस्तिनापुर के राजा सोमप्रभ थे और उनके लघु भ्राता राजकुमार श्रेयान्स थे। ये दोनों बाहुवली के यशस्वी पुत्र थे। कुमार थेयान्स ने रात्रि के अन्तिम प्रहर में शुभ स्वप्न देखे। स्वप्न में उसने चन्द्रमा, इन्द्र की ध्वजा, सुमेरु पर्वत, बिजली, कल्पवृक्ष, रत्नद्वीप, विमान और भगवान ऋषभदेव देखे ।
हरिवंश पुराण के इस स्वप्न-वर्णन से आदि पुराण के स्वप्न-विवरण में कुछ अन्त प्रादि पुराण के अनुसार श्रेयान्स ने स्वप्न में सुवर्णमय सुमेरू पर्वत, आभूषणों से सुशोभित कल्पवृक्ष, प्रयालों वाला सिंह, सूर्य, चन्द्र, समुद्र, और अष्टमंगल द्रव्य धारण किये हुए व्यन्तरों की मूर्तियां देखीं। एक अन्तर यह भी है कि प्रादिपुराण के अनुसार ये स्वप्न केवल श्रेयान्स ने देखे थे, जबकि हरिवंश पुराण के अनुसार ये स्वप्न दोनों भाइयों ने देखे थे।
श्रयान्सकुमार प्रातःकाल उठे और ये अपने भाई के पास गये । उन्होंने उनसे अपने स्वप्नों की चर्चा की। राजपुरोहित ने स्वप्न सुन कर उनका यह फल बताया-सुमेरु देखने से यह प्रगट होता है कि सुमेरु के समान उन्नत पोर सुमेरु पर्वत पर जिसका अभिषेक हुआ है, ऐसा कोई देव बाज अवश्य ही हमारे घर पावेगा। अन्य स्वप्न भी उसके गुणों को प्रगट करते हैं। आज हमें जगत में प्रशंसा और सम्पदा प्राप्त होगी।
ये लोग स्वप्न-चर्चा कर रहे थे, उसी समय भगवान ने हस्तिनापुर नगर में प्रवेश किया। नगरवासी भगवान के दर्शनों के लिए एकत्रित होने लगे। लोग आपस में कह रहे थे हम लोग जगत के पालनका पितामह भगवान ऋषभदेव का नाम बहुत दिनों से सुनते पा रहे थे, आज वे हमारा पालन करने के लिए वन छोड़कर हमारे इस नगर में साक्षात् पधारे हैं । अाज हमारा पुण्योदय हुआ है कि हम अपने नेत्रों से उन भगवान के दर्शन करेंगे।
कुछ लोग भक्तिबश, कुछ लोग उत्सुकतावश भगवान के दर्शनों के लिए एकत्रित हो गये। जनता की भीड़ के कारण राजमार्ग और राजमहल तक भर गये। किन्तु भगवान मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भावनामों का विचार करते हुये चार हाथ प्रमाण भूमि को देखते हुए मन्थर गति से जा रहे थे। इस प्रकार भगवान चर्या के लिये गृहस्थों के घरों में प्रवेश करते हुए राजभवन में पहुंचे।
सिद्धार्थ नामक द्वारपाल ने राजा सोमप्रभ और राजकुमार श्रेयान्स को राजभवन में भगवान के प्राने का समाचार दिया। सुनते ही वे दोनों अन्तःपुर की रानियों, मंत्रियों मोर राजपुरुषों के साथ प्रांगन में पाये। उन्होंने भक्तिपूर्वक भगवान को नमस्कार किया। भगवान के चरणों को जल से धोकर अयं चढ़ाया और उनकी प्रदक्षिणा दी। उनके मन में भक्ति और हर्ष का अद्भुत उद्रेक हो रहा था।
तभी एक अद्भुत घटना हुई। भगवान का रूप देखते ही श्रेयान्सकुमार को जाति स्मरण ज्ञान हो गया तथा पूर्वजन्म में मुनियों को दिये हये पाहार की विधि का स्मरण हो पाया। उसे श्रीमती प्रौर वनजंघ के भव सम्बन्धी उस घटना का भी स्मरण हो गया, जब चारण ऋद्धिधारी दो मुनियों को माहार दान दिया था। जाति स्मरण होते ही उसने श्रद्धा, शक्ति, भक्ति, विज्ञान, प्रक्षोभ, क्षमा और त्याग इन सात गुणों से युक्त होकर -जो एक दान देने वाले के लिये आवश्यक हैं-निदान आदि दोषों से रहित होकर 'भो स्वामिन् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ, पाहार जल शुद्ध है' इस प्रकार मुनिराज को पडगाह कर उन्हें उच्च प्रासन पर विराजमान किया। उनके । चरणों का प्रक्षालन किया, उनकी पूजा की, उन्हें नमस्कार किया, अपने मन-बचन-काय की विशुद्धिपूर्वक आहार, शद्धि का निवेदन किया। इस प्रकार नवधा भक्तिपूर्वक श्रेयान्स'कुमार ने दान के विशिष्ट पात्र भगवान को प्रासूक भाहार का दान दिया। अकिंचन भगवान ने खड़े रह कर हाथों में ही (पाणि पात्र होकर) आहार ग्रहण किया।