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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
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सारा जगत विनत है। भगवान वन में आ गये हैं तो इससे क्या उनका प्रभुत्व नहीं रहा। आप भरत के पास जाने का परामर्श दे रहे हैं । किन्तु जब कल्पवृक्ष सामने विद्यमान हो तो क्या कोई विवेकी पुरुष उसे छोड़कर अन्य सामान्य वृक्ष के पास जायगा !
कुमारों के भक्ति भरे वचन सुनकर घरणेन्द्र अत्यन्त सन्तुष्ट हुआ और अपना पसली रूप प्रगट करके अपना परिचय देकर बोला- 'मैं भगवान का साधारण सेवक हूं। आप लोगों की इच्छा पूर्ण करने के लिये हो यहां आया हूं।'
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धरणेन्द्र के वचन सुनकर दोनों कुमारों को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने अनुभव किया कि भगवान हमारे ऊपर प्रसन्न हैं। फिर धरणेन्द्र उन्हें अपने साथ विजयाघं पर्वत पर ले गया । कुमार पर्वत की शोभा देखकर प्रसन्न हो रहे थे । वृक्ष फल-फूलों से आच्छादित थे । कहीं भरने भर रहे थे, कहीं जल प्रपात घोर गर्जना करते हुए पहाड़ से गिर रहे थे । प्रपात के गिरने से फेनिल जल बहुत ऊंचाई तक उछलता और उसके जल-सीकर वायु में मिलकर वर्षा की फुहारों का आनन्द देते थे। पर्वत के वन में नाना जाति के पशु विचरण कर रहे थे । अनेक विद्याधर और विद्याधरियाँ वन विहार या जल कीड़ा करती हुई दिखाई दे रही थीं। उन्हें देखकर यह भ्रम उत्पन्न हो जाता था कि ये कहीं स्वर्ग के देव देवियां तो नहीं हैं - वैसा ही अप्रतिम रूप, वैसा ही स्वच्छन्द विचरण, वैसी ही श्रानन्दकेलि श्रीर वैसा ही मुक्त हास्य कुमार यह सब देखकर मुग्ध हो गये ।
धरणेन्द्र उन्हें लेकर पर्वत पर उतरा और रथनूपुर चक्रवाल नामक नगर में प्रवेश किया। फिर धरणेन्द्र ने विद्याधरों को बुलाकर उनसे कहा- 'जगद्गुरु भगवान ऋषभदेव ने इन कुमारों को यहाँ भेजा है। ये आज से तुम्हारे स्वामी हैं । यह कुमार नमि दक्षिण श्रेणी का अधिपति होगा और कुमार विनमि उत्तर श्रेणी पर राज्य करेगा ।
विद्याधरों ने धरणेन्द्र की यह आज्ञा स्वीकार कर ली। तब घरणेन्द्र ने उन दोनों कुमारों का राज्याभिषेक किया और राज सिंहासन पर बैठाया। उसने उन दोनों को गान्धारपदा श्रौर पन्नगपदा विद्यायें दीं। फिर अपना कार्य पूरा करके वह वहाँ से चला गया । विद्याधरों ने दोनों कुमारों को सिर झुकाकर नाना प्रकार की भेटें दी । यद्यपि वे कुमार जन्म से विद्याधर नहीं थे, किन्तु उन्होंने वहां रह कर अनेक विद्यायें सिद्ध कर लीं। इस प्रकार नमि दक्षिण श्रेणी के पचास नगरों का स्वामी हुआ और विनमि उत्तर श्रेणी के साठ नगरों का स्वामी हुआ । नमि श्रपने बन्धुजनों के साथ रथनूपुर में रहने लगा और विनमि नभस्तिलक नामक नगर में रह कर राज्य करने लगा ।
भगवान् ने निराहार रह कर प्रतिमायोग धारण कर छह मास तक तपस्या करने का जो नियम लिया था वह पूर्ण हुआ । निराहार रहने से न तो भगवान का शरीर कृश हुआ और न उनके तेज में ही अन्तर पड़ा । ये चाहते तो बिना आहार के ही आगे भी तपस्या करते और इसका उनके शरीर पर भी कोई प्रभाव न पड़ता, किन्तु उन्होंने विचार किया कि वर्तमान में अथवा भविष्य में मोक्षप्राप्ति के उद्देश्य से जो लोग तप करेंगे, यदि वे श्राहार नहीं करेंगे तो प्रहार के प्रभाव में उनकी शक्ति क्षीण हो जायेगी । मोक्ष, अर्थ और काम का साधन धर्म पुरुषार्थं है । धर्म का साधन शरीर है और शरीर बन्न पर निर्भर है। अतः परम्परा से प्रन्न भी धर्म का साधन है | अतः इस भरत क्षेत्र में शासन की स्थिरता और मनुष्यों की धर्म में आस्था बनाये रखने के लिये मनुष्यों को निर्दोष आहार ग्रहण करने की विधि दिखानी होगी । यतः परोपकार के लिए उन्होंने गोचर विधि से अन्न ग्रहण करने का विचार किया ।
राजकुमार श्रन्यास द्वारा दान तीर्थ
की प्रवृत्ति
भगवान अपना ध्यान समाप्त करके आहार के लिए निकले। उन्होंने केवल ज्ञान प्राप्त होने तक मौन व्रत ले लिया था। वे चान्द्री चर्या से विचरण करते हुए मध्यान्ह के समय किसी नगर या ग्राम में चर्या के लिए जाते थे । प्रजाजन मुनिजनोचित आहार की विधि नहीं जानते थे, न उन्होंने कभी किसी को मुनि को माहार देते हुए देखा-सुना था । किन्तु भगवान में उनकी अपार श्रद्धा थी। भगवान का दर्शन पाकर वे हर्षित हो जाते थे मौर