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भगवान मुनि-दशा में
अर्थात् हवा से उड़ी हुई उनकी अस्त व्यस्त जटायें ऐसी जान पड़ती थों मानो समीचीन ध्यान रूपी अग्नि से जलते हुए कर्म के धूम की पंक्तियां ही हों। आचार्य जिनसेन ने इस बात की पुष्टि करते हुए 'हरिबंश पुराण' में इस सम्बन्ध में इस प्रकार कहा है
'सप्रलम्वजटाभारभ्राजिष्णुजिष्णुरावभौ ।
रूढापारोह शाखाग्रो यथा न्यग्रोधपादपः ।। ६ । २०४।। अर्थात् लम्बी-लम्बी जटामों के भार से सुशोभित आदि जिनेन्द्र उस समय ऐसे सुशोभित हो रहे ये मानो वटवक्ष से शाखाओं के पाये लटक रहे हों।
जटामों सम्बन्धी इस प्रकार के वर्णन अन्य किसी तीर्थकर के सम्बन्ध में किसी अन्य में नहीं मिलते। यही कारण है कि अन्य तीर्थकरों की प्रतिमानों के सिर पर घुघराले कुन्तल मिलते हैं, किन्तु भगवान ऋषभदेव की अनेक प्राचीन प्रतिमाओं पर विभिन्न शैलियों की जटायें और जटा-जुट मिलते हैं। इस विषय में देवगढ़ स्थित आदिनाथ-प्रतिमाओं का केश-विन्यास उल्लेखनीय है। वहां ऋषभदेव की प्रतिमाओं पर संभवतः मनुष्य की कल्पना में आसकने वाली जटाओं की बिविध शलियां उपलब्ध होती हैं। स्कन्धों पर लहराती जटायें, कटिभाग तक बलसाजी जा, पर सोमयागे, बटाला, नटा-जुट, शिखराकार जटाये, जुल्फों वाली जटायें, पृष्ठ भाग विहारिणी जटायें। लगता है, कलाकारों की कल्पनामों की उड़ान केश-विन्यास और केश-प्रसाधनों के सम्बन्ध में जितनी दूरी तक जा सकती थी, उनके अनुसार उन्होंने पापाण पर अपनी छैनी-हथौड़ों की सहायता से उकेरी हैं। संभवत: इस क्षेत्र में स्त्रियों की आधुनिक केश-सज्जा भी उनसे स्पर्धा करने में सक्षम नहीं है। ऐसी प्रतिमानों के लांछन (चिह्न) को देखे बिना ही वेवल जटायों के कारण ऋषभदेव की प्रतिमानों की पहचान की जा सकती है। किन्तु यहां आकर देवगढ़ के कलाकारों ने अपनी सीमाओं का भी उल्लंघन कर दिया है। उन्होंने केवल ऋषभदेवप्रतिमाओं को ही जटाओं से अलंकृत नहीं किया, अपितु अन्य तीर्थंकर-प्रतिमानों पर भी जटाओं का भार लाद दिया है। यदि उन प्रतिमानों को चरण-चौकी पर उन तीर्थंकरों के लांछन अंकित न होते तो उन्हें ऋषभदेव की प्रतिमा ही मान लिया जाता । किन्तु यह तो स्वीकार करना ही होगा कि भारतीय मूति-विज्ञान के क्षेत्र में जटाओं की इस परिकल्पना ने एक.नये शिल्प-विधान और एक नये सौन्दर्य-बोध की सृष्टि की है। केश कला के इस वैविध्य ने मूतियों के प्रकरण को एक नई दिशा प्रदान की है, इसमें कोई सन्देह नहीं है।
भगवान ऋषभदेव तपस्या में लीन थे। उन्होंने अन्तरंग और बहिरंग सभी प्रकार का परिग्रह और ममत्व का त्याग कर दिया था । ऐसी ही स्थिति में एक दिन कच्छ और महाकच्छ के पुत्र नमि और विनमि भगवान के
_निकट याये । वे बड़ी भक्ति से भगवान के चरणों में लिपट गये और बड़ी दीनतापूर्वक कहने विद्याधर जाति पर लगे-हे स्वामिन् ! आपने अपना साम्राज्य अपने पुत्रों-पौत्रों को बांट दिया, अापने हम दोनों प्राधिपत्य को भुला ही दिया। हम भी तो आपके ही हैं। अब हमें भी कुछ दीजिये।'
उस समय भगवान ने अपने मन को ध्यान में निश्चल कर लिया था। किन्तु भगवान के तप के प्रभाव से धरणेन्द्र (भवनवासी देवों की एक जाति नागकुमार के इन्द्र) का प्रासन कम्पित हुमा। उसने अवधिज्ञान से सब बातें जान लीं। वह उठा और पूजा की सामग्री लेकर भगवान के समीप पहुंचा। उसने पाकर भगवान को प्रदक्षिणा दी, उन्हें प्रणाम किया और उनकी स्तुति की। फिर अपना वेश छिपाकर दोनों कुमारों से कहने लगा'भद्र पुरुषो! तुम लोग भगवान से वह वस्तु मांग रहे हो जो उनके पास नहीं है । भगवान तो भोगों से निस्पह हैं और तुम उनसे भोग मांग रहे हो। तुम पत्थर पर कमल उगाना चाहते हो। यदि तुम्हें भोगों की इच्छा है तो भरत के पास जाप्रो । वही तुम्हारी इच्छा पूर्ण कर सकता है । भगवान तो निस्पृह हैं उनके पास तुम व्यर्थ ही धरना देकर बैठे हो।'
धरणेन्द्र के वचन सुनकर दोनों कुमार उत्तेजित हो गये। वे क्षोभ में भरकर कहने लगे-'आप तो भद्र तीत होते हैं, फिर भी आप दूसरों के कार्य में बाधा डालने को तत्पर दिखाई देते हैं, यह बड़े माश्चर्य की बात है। क्या भगवान को प्रसन्न करने में भी आपको अनौचित्य दिखाई पड़ता है। भगवान के चरणों में माज की