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भगवान ऋषभदेव का जन्म
तभी प्रभात-जागरण के मंगल वाद्य बजने लगे और बन्दी जन मंगल गान करने लगे। तब मरुदेवी शुभ स्वप्नों के स्मरण से ग्रानन्दित होतो हई उठीं। उन्होंने मंगल स्नान करके वस्त्राभूषण धारण किये और प्रमुदित मन से अपने पति नाभिराज के पास पहंची। वहां समुचित विनय के साथ नाभिराज की बाई ओर सिंहासन पर बैठ गई । नाभिराज ने पत्नी की समुचित अभ्यर्थना को । तन मरुदेवी ने रात में देखे हुए स्वप्नों का वर्णन करते हुए पूछा-देव ! इन स्वप्नों का क्या फल है, यह जानने की मेरी अभिलाषा है।
तय अवधिज्ञान से स्वप्नों का फल विचार कर नाभिराज बोले-'देवि ! मैं इन स्वनों का फल बताता है।
हाथी के देखने से तेरे उत्तम पुत्र होगा । बैल देखने से यह समस्त लोक में श्रेष्ठ होगा। सिंह के देखने से वह अनन्त बल से युक्त होगा । मालाए देखने से वह सत्य धर्म का प्रवर्तक होगा। लक्ष्मी देखने से सुमेरु पर्वत पर देव उसका अभिषेक करेंगे। पूर्ण चन्द्र को देखने से वह लोक को मानन्द देने वाला होगा। सूर्य दर्शन का फल वह अनन्त तेज का धारी होगा । दो कलश देखने का फल वह अनेक निधियों का स्वामी होगा। मीन-युगल का फल वह सूखी रहेगा। सरोवर देखने से वह १००८ शुभ लक्षणों का धारक होगा । समुद्र दर्शन का फल वह सर्वज्ञ केली बनेगा । सिंहासन देखने से वह जगद्गुरु का पद प्राप्त करेगा । देवों का विमान देखने से वह स्व होगा । नागेन्द्र का भवन देखने से वह जन्म से अवधिज्ञान का धारी होगा । रत्नों की राशि देखने से वह अनन्त गुणों का निधान होगा। और निधूम अग्नि देखने से वह कर्म रूप ईधन को जलाने वाला होगा। तुम्हारे मुख में वृषभ ने प्रवेश किया है, उसका फल यह है कि तुम्हारे गर्भ में वृषभनाथ अवतार लेंगे।
___ अपने ज्ञानवान पति से अपने स्वप्नों का फल सुनकर मरुदेवी प्रानन्द विभोर हो गई। उनके नेत्रों में हर्ष के प्रश्रकण चमकने लगे। वे अपने पति को नमस्कार करके अपने महल में चली गई । उन्हें यह जानकर अपार हर्ष हा कि मेरे गर्भ में तीन लोक के नाथ तीर्थकर प्रभु ने अबतार लिया है।
प्राषाढ़ कृष्णा द्वितीया' के उत्तराषाढ़ नक्षत्र में सर्वार्थ सिद्धि विमान से वजनाभि अहमिन्द्र आय पूर्ण करके मरुदेवी के गर्भ में प्रवतरित हुया । देवों और इन्द्रों ने अपने अपने विमानों में होने वाले चिन्हों से
भगवान का गर्भावतार जानकर प्रभु के दर्शनों के लिए प्रस्थान किया और वे अयोध्या नगर भगवान का
में पाये। उन्होंने नगर की प्रदक्षिणा दी। फिर माता-पिता को नमस्कार किया और गर्भावतरण गर्भस्थ प्रभु का गर्भ कल्याणक महोत्सव मनाया। नाना संगीत, वाद्य और नत्य से वातावरण
मखरित हो उठा। उत्सव मनाकर सभी देव और इन्द्र अपने अपने स्थान को चले गए। इन्द्र की प्राज्ञा से श्री. ही, धति, कीति, बुद्धि और लक्ष्मी नामक षट् कुमारी देवियां माता की सेवा में रह गई। दिक्कुमारियों ने गर्भ-शोधन का कार्य किया।
गर्भस्थ प्रभु के कारण माता को कोई कष्ट नहीं हुआ। प्रभु के भक्त एक आचार्य ने कल्पना की है कि माता मरुदेवी स्वयं भी गौरव से युक्त थीं, फिर तीनों जगत के गुरु (भारी तथा श्रेष्ठ) जिनेन्द्र देव को धारण कर रही थीं, फिर भी बे शरीर में लघुता (हल्कापन) अनुभव करती थीं। माता के गर्भ में भगवान का निवास ऐसा था, जैसा जल' में प्रतिबिम्बित सूर्य का होता है।।
देवियाँ जगन्माता की नाना भांति सेवा करती थीं और उनका मनोरंजन करती थीं। कभी वे माता से प्रश्नोत्तर करती थीं, कभी गूढार्थक काव्य-चर्चा करती थीं। कभी गीत-नत्य करती थीं।
माता मरुदेवी त्रिलोकीनाथ भगवान को अपने गर्भ में धारण किए हुए थी, अत: भगवान के तेजपज से वे भी उदभासित हो रही थीं और समस्त जन उन्हें नमस्कार करते थे। नाभिराज और उनका परिवार भी मरुदेवी माता की सुख-सुविधा का बराबर ध्यान रखते थे।
इस प्रकार दिनों दिन गर्भ बढ़ता गया।
१. श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार भगवान का गर्भावतरण आषाढ़ कृष्णा चतुर्थी को हुआ था-प्रायश्यक निक्ति , गाथा १८२