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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
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होते थे। दस गांवों के बीच एक बड़ा गांव होता था। वहां मण्डी होती थी। जहां अधिकतर अहीर रहते थे, उसे घोष कहते थे। जहां सोने, चांदी श्रादि की खानें होती थी, वह आकर कहलाता था ।
इन्द्र भगवान की आज्ञा से इधर उधर बिखरे हुए लोगों को इन गांवों श्रादि में लाकर बसाया । इन गांवों ग्रादि की संरचना में इन्द्र का बड़ा भारी योगदान था, अतः तभी से उसका नाम पुरन्दर पड़ गया ।
वृक्षों का श्रावास छोड़ कर मानव ने प्रथम वार भवनों में अपने चरण रक्खे थे । यह काल वन्य जीवन की समाप्ति और नागरिक सभ्यता का प्रारम्भिक काल था । आदिब्रह्मा ऋषभदेव ने यह नवीन सृष्टि की रचना की थी। इसे ही कृतयुग कहा गया है। इस कृतयुग का प्रारम्भ आपाद कृष्णा प्रतिपदा को हुआ था। तब से भगवान वृषभदेव को लोग ब्रह्मा, प्रजापति आदि नामों से पुकारने लगे ।
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युगलिया काल में प्रकृति में एक अद्भुत बात देखी जाती थी कि स्त्री के युगल सन्तान उत्पन्न होती थी । इस युगल में एक कन्या होती थी और दूसरा पुत्र होता था । ये सहजात भाई-बहन ही बड़े विवाह व्यवस्था होने पर पति-पत्नी के रूप में आचरण करने लगते थे। उस समय समाज में विवाह नाम की कोई प्रथा नहीं थी । विवाह का प्रारम्भ तो ऋषभदेव का नन्दा सुनन्दा के साथ हुए विवाह स हुआ था। किन्तु साधारण लोगों ने इसे अपने श्रद्धास्पद कुमार ऋषभदेव का एक असाधारण कार्य समझा । उनके कार्यों को नकल या अनुकरण करने की भावना तक तत्कालीन समाज में जागृत नहीं हुई थी। उसका कारण यह था कि तत्कालीन मनुष्य समाज अपने हर सुख-दुःख, हर समस्या में ऋषभदेव की मुखापेक्षी था। जब तक ऋषभदेव न कहें तब तक परम्परा विरुद्ध कोई कार्य करने का साहस और बुद्धि किसी में नहीं थी। उन्हें यह विश्वास अवश्य था कि हमारे हित में कोसी बात होगी पदेष उये अवश्य बतायेंगे।
जब कुमार ऋषभदेव ने षट् कर्मों का प्रचलन कर दिया, उन कर्मों के आधार पर समाज रचना और वर्ण-व्यवस्था की स्थापना कर दी और नगरों-गांवों का निर्माण कर नागर जीवन का प्रारम्भ कर दिया, तब उन्होंने समाज-व्यवस्था और विवाह व्यवस्था को और अपना ध्यान दिया । उन्होंने विवाह सम्बन्धी नियम इस दृष्टिकोण से बनाये, जिसमे वर्ण-व्यवस्था में संकरता न आजाय और एक अनुशासित समाज को व्यवस्था की जा सके। वर्ण व्यवस्था का उद्देश्य समाज के प्रत्येक व्यक्ति के लिये कार्य सुलभ करना और उन्नति के समुचित अवसर प्रदान करना था तथा समाज की सभी आवश्यकतायें जुटाना था। यदि लोग अपना कार्य छोड़कर दूसरे वर्ण का कार्य करने लगे तो उसे दण्डनीय अपराध घोषित किया गया क्योंकि इससे समाज की आवश्यकताओं को पूर्ण करने में वाधा आती और इस प्रकार वस्तुओं की कभी हो सकती थी । तत्कालीन समाज की संरचना को सुस्थिर रखने के लिये अपने अपने वर्ण के दायित्वों को पूर्ण करना आवश्यक था । इससे अधिकार की अपेक्षा कर्तव्य को महत्व दिया गया था । वर्ण व्यवस्था को सुरक्षित रखने के लिये भगवान ने विवाह की व्यवस्था की और उसके लिये आवश्यक नियम निर्धारित किये। इन नियमों के अनुसार शूद्र शुद्र-कन्या के साथ ही विवाह कर सकता था। वह क्षत्रिय और वैश्य कन्या के साथ विवाह नहीं कर सकता था। इसी प्रकार वैश्य वैश्य कन्या तथा शूद्र-कन्या के साथ विवाह करने का अधिकारी घोषित किया गया । क्षत्रिय क्षत्रिय - कन्या, वैश्य कन्या और शूद्र-कन्या के साथ विवाह कर सकता था । बाद में जब चक्रवर्ती भरत ने ब्राह्मण वर्ण की स्थापना की, तब उसके लिये विवाह सम्बन्धी यह नियम बनाया कि ब्राह्मण ब्राह्मण कन्या के साथ ही विवाह करे, परन्तु कभी किसी देश में वह क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कन्या के साथ भी विवाह कर सकता है। उच्च वर्णं वालों को अपने से निम्न वर्ण की कन्या के साथ विवाह करने का तो अधिकार दिया गया, किन्तु निम्न वर्ण वालों को उच्च वर्ण की कन्या से विवाह करने की अनुमति नहीं दी गई।
इन विवाह सम्बन्धी नियमों की भाषा और उनकी भावना को यदि हम गहराई से समझने का प्रयत्न करें तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि विवाह के विषय में पुरुष और स्त्री को समान अधिकार नहीं दिये गये थे । इन नियमों की रचना के कुछ काल पश्चात् ही पुरुषों के बहु विवाह प्रचलित हो गये थे, किन्तु स्त्रियों को बहु "विवाह करने की न कभी अनुमति मिल सकी और न कभी श्रार्य लोगों में इसका प्रचलन ही हुआ । वस्तुतः इस प्रश्न को श्रायं लोगों ने कभी स्त्री-पुरुषों के समानाधिकार का प्रश्न नहीं बनाया, किन्तु इसके मूल में पिण्डशुद्धि अर्थात् रक्त शुद्धि की दृष्टि प्रधान रही। यदि एक पुरुष के अनेक स्त्रियां हों तो उनकी सन्तानों की रक्त-शुद्धि में