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ऋषभदेव का वैराग्य और दीक्षा
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६. ऋषभदेव का वैराग्य और दीक्षा एक दिन भगवान ऋषभदेव राजदरबार में सिंहासन पर विराजमान थे। अनेक माण्डलिक राजा अपने योग्य आसनों पर बैठे हुए थे। तभी इन्द्र अनेक देवों और अप्सरानों के साथ पूजा की सामग्री
सेवा के लिए राजदरबार में माया । इन्द्र की माशा से नृत्य-गान में कुशल गन्धवों और नीलांजना का अप्सरानों ने नृत्य करना प्रारम्भ किया। उस नत्य को देखकर उपस्थित जन ही नहीं, नस्य और मृत्यु भगवान भी अनुरक्त हो गये। तभी इन्द्र ने अपने अवधिज्ञान से जाना कि भगवान के वैराग्य
का समय निकट आ पहुंचा है। अतः उसने नत्य करने के लिए ऐसे पात्र को चुना, जिसको प्राय समाप्त होने वाली थी। उसकी आज्ञा से अत्यन्त सुन्दरी नीलांजना (नीलांजसा) नाम की देवनर्तको नृत्य करने लगी। नीलांजना इन्द्र-सभा में सदा ही नृत्य करती आई थो, किन्तु आज तो जैसे बुझते हुए दोपक को लौ अधिक प्रदीप्त हो उठती है, ऐसे ही उसकी बझतीहई प्राय के समय उसकी नत्य-कला और भी गई। उसके कुसुम कोमल गात्र में एक ज्वालामुखी फूट पड़ा। वह पारिजात-कुसुम-गुच्छ को भांति शोभाधारिणी अनिंद्य सुन्दरी देवांगना आत्म विभोर होकर असाधारण नत्य करने लगी। उसके चरण मानों पबन को लहरों पर थिरक रहे थे । स्वर्ण मणाल सी उसकी कोमल भूजलताय सपिणी की भांति हवा में लहरा रही थों। वह इस पृथ्वी पर आज अपनी दिव्य कला को मूर्तिमती कर रही थी। एक अलौकिक रस को सृष्टि हो रही थी। उस राजदरबार में उपस्थित सभी जीवित प्राणी उस रस धारा में अपनी सुधबुध खोकर बहे जा रहे थे । शायद उस देव नर्तकी ने अपनी कला की चरम परिणति ही कर दी थी प्राज!
दीपक में स्नेह समाप्त हो गया । बत्ती बझ गई। उस देव नर्तकी की आयु समाप्त हो गई। और वह क्षणभर में अदृश्य हो गई। उसके समाप्त होते ही इन्द्र ने, रस भंग न हो, इसलिए उसके स्थान पर उसी के समान प्राचरण वाली दूसरी देवी खड़ी कर दी, जिससे नृत्य ज्यों का त्यों चलता रहा। इस घटना को किसी ने नहीं जाना। सब तन्मय होकर रस-पान करते रहे। किन्तु निमिष मात्र में जो इतनी बड़ी घटना हो गई, वह ऋषभदेव से छिपी नहीं रह सकी। स्थान वही था, नृत्य वही था, किन्तु नृत्यकारिणी वह नहीं थी, इस अन्तर को प्रभु ने देख लिया और नीलांजना की उस मत्य को भी। देखते ही प्रभ की भाव-धारा में अचानक ही महान परिवर्तन प्रा गया। चर्म चक्षयों से देखने वाले वह नहीं देख पाते, जो अन्तर की चक्षों से देखने वालों को दिखाई देता है।
प्रभु के मन में भावधारा उमड़ पड़ी। नत्य होता रहा और प्रभ के मन में नृत्य के रस-संचार के स्थान में संसार के वास्तविक स्वरूप का संवेदन प्रबल वेग से जागृत हमा-कितना नश्वर और चंचल है संसार का यह रूप।
मनुष्य के मन में एक अद्भुत सामान्य अहंकार दबा रहता है-मैं सदा जोवित रहूंगा। वह भगवान का वैराग्य दिन रात देखता है कि दिन-रात प्राणी मर रहे हैं। सबको ही मरना है । किन्तु यह तत्त्व
दर्शन दूसरों के लिए ही होता है, अपने लिए नहीं। वह स्वयं तो सदा काल जीवन को माकांक्षा संजोये रहता है और हर कार्य ऐसे ही करता है मानो उसे सदा जीवित रहना है, मरना नहीं है। यह कितने पाश्चर्य की बात है। यहां तक कि एक दिन मृत्यु आकर उसका द्वार खटखटाती है, उस समय भी वह जीवित रहने का ही प्रयत्न करता है। किन्तु उसकी यह जीवित रहने की इच्छा और प्रयत्न क्या सफल हो पाता है । जो उत्पन्न हुआ है, उसकी मृत्यु निश्चित है। लेकिन वह ऐसा प्रयत्न नहीं करता कि मृत्यु के पश्चात् उसे पुन: जीवन धारण न करना पड़े। शरीर के त्याग को ही वह मृत्यु समझता है। शरीर को अपना मानता है, इसलिए वह मृत्यु से भयभीत होता है। किन्तु शरीर से ममत्व करके तो वह प्रतिपल मृत्यु का वरण कर रहा है, वह इस तथ्य को नहीं समझता, समझना भी नहीं चाहता।
मैंने इस मानव-पर्याय के इतने लम्बे बहुमूल्य क्षण सांसारिक भोगों के क्षणिक सुख में व्यतीत कर दिये। मेरे सम्पूर्ण प्रयत्न इस शरीर के सुख के लिये ही थे। किन्तु अपनी अविनश्वर आत्मा के चिरंतन, अविनाशी सुख के लिए प्रयत्न नहीं किये । शरीर प्रात्मा नहीं है। प्रात्मा वह नहीं है जो बाहर से दिखाई पड़ता है। प्रात्मा प्रखण्ड