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ऋषभदेव द्वारा लोक व्यवस्था
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कोई तामा नहीं था सकती। इसके विपरीत यदि एक स्त्री के अनेक पति हों तो पिण्डशुद्धि नहीं हो सकती, बल्कि जो सन्तान होगी, वह संकर रक्त की होगी। इसी प्रकार पर स्त्री-त्याग की अपनी धार्मिक महत्ता तो है ही, किन्तु उसकी अपनी सामाजिक उपयोगिता भी है। और वह उपयोगिता है रक्त शुद्धि की। विवाह सामाजिक संरचना को अनुशासित, नियमित और संयमित रखने का महत्वपूर्ण उपाय है। विवाह एक नैतिक बन्धन है। इस बन्धन को स्वीकार कर लेने पर पुरुष स्त्री, पति-पत्नी समाज के स्वरूप और शुद्धि को अक्षुण्ण रखने के दायित्व को स्वेच्छा से श्रोढ़ लेते हैं। संभवत: इसी उद्देश्य से भगवान ने विवाह प्रथा का आविष्कार किया था ।
भोगभूमि के मनुष्यों की आवश्यकतायें सोमित थीं, सब समान थे। आवश्यकता पूर्ति के साधन प्रचुर थे । अतः आवश्यकताओं की पूर्ति सुगमता से हो जाती थी। किसी के मन में कोई महत्वाकांक्षा नहीं थी। इसलिये मनुष्यों में अपराध-वृत्ति ने जन्म नहीं लिया था । कर्म भूमि प्रारम्भ होने पर श्रावश्यकता पूर्ति के साधन सुलभ नहीं रहे, बल्कि अपनी बुद्धि और पुरुषार्थ के द्वारा उन साधनों को जुटाना पड़ता था । बुद्धि और पुरुषार्थ सबके समान नहीं थे । अतः स्वभावतः प्रसमानता बढ़ने लगी । एक के पास आवश्यकता के साधन प्रचुर परिमाण में संग्रह होने लगे और दूसरे को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति में कठिनाई अनुभव होती थी । इस सामाजिक असमानता ने जहां परस्पर ईर्ष्या को जन्म दिया, वहां महत्वाकांक्षा भी जागृत हुई। इससे मनुष्यों में अपराध वृत्ति भी जागृत हुई। कुलकरों ने 'हा मा, धिक् रूप जिस दण्ड व्यवस्था को स्थापित करके समाज को प्रभावशाली ढंग से नियन्त्रित रक्खा था, वह व्यवस्था कर्म भूमि में श्राकर प्रभावहीन सिद्ध होने लगी ।
दण्ड व्यवस्था
भगवान ने विचार किया कि यदि अपराध-वृत्ति को नियन्त्रित रखने के लिये दण्ड व्यवस्था स्थापित नहीं की गई तो समाज में मत्स्य न्याय चल पड़ेगा प्रर्थात् जिस प्रकार बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है, उसो प्रकार दुष्ट बलवान पुरुष निर्वल पुरुष को निगल जायगा । ऐसी दशा में समाज में जिसकी लाठी में जोर होगा, वही भैंस हांक ले जायगा । इससे समाज में अव्यवस्था, कलह, शोषण और अत्याचार पनपेंगे । अतः दण्ड-व्यवस्था आवश्यक है । दण्ड के भय से लोग कुमार्ग की ओर नहीं दौड़ेंगे। किन्तु दण्ड देने का अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को तो नहीं दिया जा सकता, दण्ड केवल राजा हो दे सकता है । अतः राजा की नियुक्ति करनी चाहिये ।
इधर भगवान का यह चिन्तन चल रहा था, उधर प्रजा अपराध बढ़ते जाने से परेशान थो। तब एक दिन प्रजाजन इकट्ठे होकर भगवान के पास आये और उन्हें अपनी कष्ट-गाथा सुनाई। भगवान ने कहा- ग्रपराव दण्ड व्यवस्था से ही नियन्त्रित हो सकते हैं और दण्ड देने का अधिकार केवल राजा को ही है ।
प्रजाजन बोले- देव ! हम तो आपको हो अपना राजा मानते हैं । आप यह पद स्वीकार कर लीजिये । भगवान सुनकर मौन हो गये। पिता नाभिराज के होते हुए वे स्वयं कैसे राजपद स्वीकार कर सकते थे । उन्होंने अपनी कठिनाई प्रजाजनों को बताई तो वे लोग नाभिराज के पास गये और उनकी स्वीकृति लेकर फिर भगवान के पास आये। तब भगवान ने भी अपनी स्वीकृति दे दी ।
उस शुभ अवसर के अनुकूल अयोध्यावासियों ने महान उत्सव किया। अयोध्या पुरी खूब सजाई गई। मकानों पर पताकायें बांधी गई। राजमन्दिर में आनन्द भेरियां बज रही थीं। वारांगनायें मंगल गान गा रही थीं । मिट्टी की एक बहुत बड़ी वेदी बनाई गई । उसके ऊपर श्रानन्द-मण्डप बनाया गया। उसमें रत्न- चूर्ण से विचित्र चौक पूरे गये। पुष्प विकीर्ण किये गये । मण्डप में रेशमी वस्त्रों के चन्दोबेताने गये। उनमें मोतियों की झालरें टांगी गई । सधवा स्त्रियाँ मंगल द्रव्य लिये हुए मार्ग में खड़ी थीं । सेवक स्नान और प्रसाधन की सामग्री लिये हुए खड़े थे। वेदी में एक सिहासन के ऊपर पूर्वदिशा की ओर मुख करके भगवान को बंठाया। उस समय इन्द्र भी देवताओं के साथ इस श्रानन्दोत्सव में सम्मिलित होने आया गन्धर्व, किन्नर और देवियां भगवान की स्तुति में मधुर गान कर रहे थे। मनुष्य अनेक नदियों का जल लाये देवलोग भी पद्म सरोवर, नन्दोत्तरा वापिका, लवण समुद्र, क्षीर समुद्र, नन्दीश्वर समुद्र, ओर स्वयंभूरमण समुद्र का पवित्र जल लाये मनुष्यों ने भगवान का अभिषेक किया । इन्द्रों और देवां ने भी उनका
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भगवान का राज्या
भिषेक