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ऋषभदेव द्वारा लोक-यत्रस्था
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आजीविका नहीं करता था, इसलिए वर्ण और कार्य दोनों में संकरता नहीं आने पाती थी। उस समय ससार में जितने पापरहित माजीविका के उपाय थे, वे सब भगवान ऋषभदेव की सम्मति से ही प्रवृत्त हए थे ।
जो शस्त्र धारण कर आजीविका करते थे, जो क्षतत्राण अर्थात् विपत्ति से रक्षा करते थे, वे क्षत्रिय कहलाये। जो खेती, व्यापार तथा पशुपालन के द्वारा जीवन निर्वाह करते थे, वे वैश्य कहलाते थे। जो शिल्प द्वारा माजीविका करते थे तथा दूसरों की सेवा करते थे, वे शूद्र कहे जाते थे ।
इन तीनों वर्ण-धर्मों में क्षात्र धर्म सर्व प्रथम बताया था। इसीलिए महाभारत के शान्ति पर्व (१२२६४।२०) में ऋषभदेव को, जिन्हें प्रादिदेव भी कहा जाता है, क्षात्रधर्म का आदि प्रवर्तक स्वीकार किया है--
क्षात्रो धर्मों ह्यादिदेवात् प्रवृत्तः ।
पश्चादन्ये शेषभुतादच धमा: ।। अर्थात् प्रादिदेव से क्षात्र धर्म प्रवृत्त हुआ और अन्य शेष धर्म बाद में प्रवृत्त हुए।
वायुपुराण, पूर्वार्ध, ३३।५०-५१ में ऋषभदेव को नरेशों में श्रेष्ठ और सम्पूर्ण क्षत्रियों का पूर्वज कहा है
"ऋषभं पार्थिवश्रेष्ठं सर्वक्षत्रस्य पूर्वजम् ।।" इसी बात को ब्रह्माण्ड पुराण २०१४ में स्वीकार किया गया है । युगलिया काल में लोग छुट पुट रूप में इधर उवर बनों में रहा करते थे। प्रशन बसन भूषण व्यंजन सब
कुछ उन्हें वृक्षों से ही प्राप्त होता था। फिर ऐसा काल पाया कि वृक्षों की संख्या घटने लगी। कबीलों से नागर जहां वृक्ष शेष रह गये, वहां लोग कवीले बनाकर रहने लगे । वृक्षों की अल्पता के कारण जब सभ्यता की मोर वृक्षों के लिए सीमांकन किया गया, तब पुरुष और स्त्रियों ने अपने अपने परिकर बना लिए।
भविष्य के कवीलों का यह प्रादिम रूप था। भगवान ने विचार करके इन्द्र की सहायता से ग्राम, नगर, खेट, खर्बट, मडम्ब, पत्तन, द्रोणमुख, संवाह प्रादि की रचना की। उन्होंने ५२ जनपदों की रचना की। उनके नाम इस प्रकार हैंसकोशल, अवन्ती, पुण्ड, उण्ड, अश्मक, रम्यक, कुरु, काशी, कलिंग, अंग, वंग, सुह्य, समुद्रक, काश्मीर, उशोनर, मानत, वत्स, पंचाल, मालव, दशार्ण, कच्छ, मगध, विदर्भ, कुरुजांगल, करहाट, महाराष्ट्र, सुराष्ट्र, प्राभीर, कोंकण, बनवास, आंध्र, कर्णाट, कोशल, चोल, केरल, दारु, अभिसार, सौवीर, शूरसेन, अपरान्तक, विदेह, सिन्ध, गान्धार,. - यवन, चेदि, पल्लव, काम्बोज, प्रारट्ट, वाल्हीक, तुरुष्क, शक और केकय ।।
इन जनपदों का नगरों, ग्रामों आदि में विभाग किया । उनको परिभाषाय निश्चित की। जिसमें घरों के चारों ओर बाड हों, जिसमें बगीचे और तालाव हों तथा जिसमें अधिकतर शूद्र और किसान रहते हों; वह गांवकहलाता था । जिसमें सौ घर हों वह छोटा गांव कहलाता था। छोटे गांवों की सीमा एक कोस की होती थी। जिसमें पांच सौ घर हों और किसान धन संपन्न हों, वह बड़ा गांव कहलाता था। ऐसे गांवों की सोमा दो कोस की रक्खी गई थी । नदी, पहाड़, गुफा, श्मशान अथवा पेड़, वन, पुल प्रादि से गांवों की सीमा निर्धारित की जाती थी।
जिसमें परिखा, गोपुर, अटारी, कोट, और प्राकार हों, जिसमें अनेक भवन बने हुए हों, जिसमें प्रधान परुष रहते हों, वह पुर या नगर कहलाता था।
जो नगर नदी और पर्वत से घिरा हुआ हो, उसे खेद कहते थे। जो केवल पर्वत से घिरा हा हो, उसे खर्वट कहा जाता था। जो पांच सौ गांवों से घिरा हुआ हो, उसे मडम्ब पुकारा जाता था। जो समुद्र के किनारे बसा हुअा हो अथवा जहाँ नावों से आवागमन होता हो, उसे पत्तन कहा जाता था। जो किसी नदी के किनारे बसा हुया हो, उसे द्रोणमुख कहते थे। जहां मस्तक के बराबर चे धान्य के ढेर लगे हों, उसे संवाह कहते थे। एक राजधानी में पाठ सी मांग होते थे। एक द्रोणमुख में चार सौ गांव होते थे। एक खर्बट में दो सौ गांप