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भगवान गृहस्थाश्रम
पुत्रियों के समान पुत्रों को भी अनेक कलाओं का ज्ञान दिया। जिस पुत्र को जिस कला का ज्ञान दिया उसके लिये उस कला से सम्बन्धित शास्त्र की विस्तृत रचना की। अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को पुत्रों को विविध विस्तृत अध्यायों से युक्त अर्थशास्त्र और प्रकरण सहित नृत्य शास्त्र पढ़ाया। वृषभसेन पुत्र के कलाओं का प्रशिक्षण लिये सौ से अधिक अध्यायों वाले गन्धवं शास्त्र का व्याख्यान किया । अनन्तविजय पुत्र के लिये सैकड़ों अध्यायों वाली चित्रकला सम्बन्धी विद्या का उपदेश दिया। इसके अतिरिक्त इस पुत्र को सुत्रधार तथा स्थापत्य कला का भी उपदेश दिया। पुत्र बाहुबली को कामशास्त्र, सामुद्रिक शास्त्र, आयुर्वेद, धनुर्वेद, प्रश्व-विद्या, गज-विद्या, रत्न- परीक्षा प्रादि के शास्त्र पढ़ाये। इसी प्रकार शेष पुत्रों को द्यूतविद्या, वार्तालाप करने की कला, नगर-संरक्षण, पासा फेंकना, मिट्टी के बर्तन, अनोत्पादन, जल शुद्धि, वस्त्र-निर्माण, शय्या निर्माण, संस्कृत कविता रचना, प्रहेलिका-निर्माण, छन्द निर्माण, प्राकृत गाथा रचना, श्लोक रचना, सुगन्धित पदार्थ - निर्माण, षट्रस - व्यंजन-निर्माण, अलंकार-निर्माण और उनके धारण करने की विधि, स्त्री-शिक्षा की विधि, स्त्रियों के लक्षण, पुरुष- लक्षण जानने की विद्या, गाय वृषभ-लक्षण जानने की विद्या कुक्कुट लक्षण जानने की विद्या, मेढ़े के लक्षण जानने की विद्या, चक्र लक्षण जानने की विद्या, छत्र लक्षण जानने की विद्या, दण्ड- लक्षण, तलवार लक्षण, मणिलक्षण, काकिणी- लक्षण, चर्म-लक्षण, चन्द्र-लक्षण, सूर्य लक्षण जानने की विद्या, राहु-गति, ग्रह-गति की कला, सौभाग्य पौर दुर्भाग्य लक्षण, रोहिणी प्रज्ञप्ति आदि विद्या सम्बन्धी ज्ञान, मन्त्र-साधन विधि, गुप्त वस्तु को जानने को विद्या, प्रत्येक वस्तु का ज्ञान, सैन्य-ज्ञान, व्यूह-रचना, सेना को रण क्षेत्र में उतारने की कला, सेना का पड़ाव, नगर का प्रमाण जानने की कला, वस्तु का प्रमाण जानने की कला, प्रत्येक वस्तु के रखने की कला, नगर-निर्माण, थोड़े को बहुत करने की कला, तलवार आदि की मुठ बनाने की कला, हिरण्य पाक, सुवर्ण-पाक, मणि-पाक, धातु-पाक, वाहु युद्ध, दण्ड युद्ध, मुष्टियुद्ध, यष्टि युद्ध, युद्ध-नियुद्ध युद्धाति-युद्ध करने की कला, सूत बनाने, नली बनाने, गेंद खेलने वस्तु-स्वभाव जानने, चमड़ा बनाने की कला, पत्र छेदन, कड़ग छेदन की कला, संजीवन-निर्जीवन कला, पक्षी के शब्द से शुभाशुभ जानने की कला की शिक्षा दी ।
इस प्रकार पुत्र-पुत्रियों को विविध कलाओं और विद्याओं की शिक्षा देकर एक प्रकार से उन्हें जन-जन में प्रचार करने के लिये तैयार किया । भोग-युग से कर्म युग की ओर जन-मानस को तैयार करने और जन-जन का जीवन कर्म - स्फूर्त करने के लिये सर्वप्रथम शिक्षकों और कार्यकर्ताओं को तैयार करने की श्रावश्यकता थी। भगवान ने इस कार्य के लिये अपने परिवार को ही प्रशिक्षित किया। यह असाधारण ज्ञान, विवेक, धैर्य और अध्यवसाय का कार्य था । सम्पूर्ण जन-जीवन को एकबारगी ही बदल देना सरल नहीं था, किन्तु ऋषभदेव ने भोग-युग की सम्पूर्ण व्यवस्था और बिना कार्य किये ही जीवन-यापन का स्वभाव बदल कर कर्म-युग की व्यवस्था चालू करने में कितना श्रम, पुरुषार्थ और समय लगाया होगा, यह श्राज हम नहीं ग्रांक सकते 1
५. ऋषभदेव द्वारा लोक व्यवस्था
प्रकृति में तेजी से परिवर्तन हो रहे थे । भोग-युग के समय दस प्रकार के कल्पवृक्ष होते थे । उनसे मनुष्य अपनी जीवन सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति कर लेते थे। किन्तु अब काल के प्रभाव से कल्प वृक्ष, महौषधि, दीप्तौषधि तथा सब प्रकार की प्रौषधियां शक्तिहीन हो गई थीं। बिना बोये हुए धान्य पहले खूब फलते थे, किन्तु वे भी अब बहुत कम उगते थे और उतने नहीं फलते थे । कल्पवृक्ष रस, वीयं प्रौर विपाक से रहित हो गये। मनुष्य इस समय कच्चा यन्न खाते थे अथवा कोई कोई कल्पवृक्ष कहीं रह भी गया था, उसके फल खाते थे। उससे उन्हें नाना प्रकार के रोग होने
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वय संस्कृति से कृषि संस्कृति तक