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भगवान गृहस्थाश्रम में
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को भी सहन नहीं करती थी। ये अपने मुख की कान्ति तलवार में देखा करती थी, किन्तु वह तलवार में पड़ने वाली अपनी प्रतिकूल छाया को भी सहन नहीं कर पाती थीं।
महादेवी के ऊपर गर्भ के चिन्ह स्पष्ट दिखाई देने लगे थे— दोहला उत्पन्न होना, श्राहार में रुचि का मन्द होना, भालस्य सहित गमन करना, शरीर को शिथिल कर जमीन पर सोना, गालों तक मुख का सफेद पड़ जाना, आलस भरे नेत्रों से देखना, अधरोष्ठ का कुछ सफेद और लाल होना और मुख से मिट्टो जैसी सुगन्ध आना आदि । नौ माह व्यतीत होने पर महादेवी यशस्वती ने देदीप्यमान तेज से परिपूर्ण और महापुण्यशाली पुत्र उत्पन्न किया। भगवान ऋषभदेव के जन्म के समय जो दिन, लग्न, योग, चन्द्र और नक्षत्र आदि पड़े थे, वे ही शुभ दिन आदि पुत्र के जन्म के समय भी पड़े। यह कैसा सुखद प्राश्चर्य था । वही चैत्र कृष्णा नौमो का दिन, मीन लग्न, ब्रह्म योग, धन राशि का चन्द्रमा और उतराषाढ़ नक्षत्र । इस शुभ वेला में सम्राद् के लक्षणों से सुशोभित पुत्र उत्पन्न हुप्रा । वह पुत्र अपनी दोनों भुजाओं से पृथ्वी का आलिंगन कर उत्पन्न हुआ था। यह देखकर निमित्त ज्ञानियों ने भविष्य बताते हुए कहा था कि बालक समस्त पृथ्वा का अधिपति बनेगा। बालक के उत्पन्न होने पर सबसे अधिक हर्ष दादा-दादी को हुआ। सौभाग्यवती स्त्रियां माता यशस्वती को आशावाद दे रहो थों- 'तू इस प्रकार के शत पुत्रों को जन्म दे ।'
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पुत्रोत्पत्ति की खुशी में राजमहल में विविध उत्सव होने लगे। तुरही, दुन्दुभि, झालर, शहनाई, सितार, शंख, काहल और ताल आदि नाना प्रकार के बाजे बज रहे थे। प्रकृति भी अपना हर्ष प्रकट करने में पीछे नहीं रहो । माकाश से पुष्प वर्षा हो रही थी। सुगन्धित जल कणों से युक्त पवन बह रहा था । देव आकाश में जय ध्वनि कर रहे थे और देवियां विविध प्राशीर्वचन उच्चारण कर रही थीं। नर्तकियां नृत्य कर रही थीं । नगर की वीथियों और राजमार्गों पर सुगन्धित जल का छिड़काव किया गया। सारा नगर तोरणों आदि से सजाया गया । चतुष्पथों पर रत्नचूर्ण से चौक पूर कर मंगल कलश रखे गए। निर्धनों को मुक्तहस्त दान दिया जा रहा था। सारी अयोध्या हर्षोत्सवों से व्याप्त थी। बन्धुजनों ने भरतक्षेत्र के अधिपति होने वाले बालक का नाम 'भरत' रक्खा। बालक के चरणों में चक्र, छत्र, तलवार, दण्ड आदि चौदह रत्नों के चिन्ह बने हुए थे ।
बालक धीरे-धीरे युवावस्था को प्राप्त हुया । भरत की जन्म तिथि, नक्षत्र यादि ही अपने पिता ऋषभदेव की जन्म तिथि आदि से समानता नहीं रखते थे, भरत का गमन, शरीर, मन्द हास्य, वाणी, कला, विद्या, द्युति, शील, विज्ञान यादि भी अपने पिता के समान था ।
महादेवी शस्वती ने जब पुत्र भरत को जन्म दिया, तब उसके साथ ब्राह्मी नामक पुत्री को भी जन्म दिया | 'इस प्रकार भरत और ब्राह्मी युगल उत्पन्न हुए थे। इसके बाद यशस्वती ने क्रमशः ६६ पुत्रों को जन्म दिया। ऋषभदेव की दूसरी रानी सुनन्दा से बाहुबलो पुत्र और सुन्दरी नामक पुत्री उत्पन्न हुई। बाहुबली सर्वश्रेष्ठ रूप सम्पदा के धारक थे । वे इस काल के चौबीस कामदेवों में प्रथम कामदेव थे । बाहुबली का जैसा रूप था, वैसा रूप अन्यत्र कहीं, नहीं दिखाई देता था । युवा होने पर स्त्रियां उनके रूप को देखकर ठगी सी रह जाती थीं और वे उन्हें मनोभव, मनोज, मनोभू, मन्मथ, अंगज, मदन श्रीर श्रनन्यज आदि नामों से पुकारती थीं ।
श्वेताम्बर परम्परा में ऋषभदेव की स्त्रियों के नाम सुनन्दा और सुमंगला बताये हैं । सुमंगला ने भरत और ब्राह्मी तथा सुनन्दा ने बाहुबली और सुन्दरी को युगल रूप में जन्म दिया। पश्चात् सुमंगला ने युगल रूप से ४२ बार में
पुत्रों को जन्म दिया ।
दिगम्बर ग्रन्थों में भगवान ऋषभदेव के सो' पुत्र होने का तो वर्णन मिलता है, किन्तु उन पुत्रों के नाम भगवान के सौ पुत्र नहीं मिलते। केवल थोड़े से नामों का ही उल्लेख मिलता है। जैसे भरत, बाहुबली, वृषभसैन, मनन्त विजय, अनन्तवीर्य, अच्युत, वीर, वरबीर ।
किन्तु प्रभिधान राजेन्द्र कोष ( उसम प्रकरण, पृष्ठ ११२९) में इन सौ पुत्रों के नाम मिलते हैं। जो इस
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१. आचार्य जिनसेन कृत आदि पुराण १६२६ में एक सौ एक पुत्र बताये हैं ।