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भगवान ऋषभदेव से पूर्वकालीन परिस्थिति
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वृक्ष हैं । इनके मसाले बनाकर अन्न को स्वादिष्ट बनाया जा सकता है। ये लम्बे लम्बे इक्षु- वृक्ष हैं । इन्हें दांतों से अथवा यंत्र से पेरकर स्वादिष्ट रस मिल सकता '
इसके पश्चात् नाभिराज ने गोली मिट्टी को हाथी के गण्डस्थल पर रखकर उससे थाली शादि पात्र बनाने की शिक्षा दी । इस प्रकार नाभिराज ने कल्पवृक्षों के नष्ट होने पर प्रजा की सम्पूर्ण कामनाओं की पूर्ति की। इसलिये प्रजा के लिये वे ही कल्पवृक्ष वन गये ।
सृष्टि के कर्मयुग के प्रारम्भ और भोगयुग के अन्त की इस सन्धि-बेला में नाभिराज ने मानव-जीवन को नवीन व्यवस्था का प्रारम्भ करके एक नये युग का प्रारम्भ किया। अतः वे युग प्रवर्तक माने जाते हैं ।
प्रतिश्रुति से लेकर नाभिराज तक चौदहों कुलकर क्षायिक सम्यग्दृष्टि थे । इनमें से कुछ को जातिरमरण ज्ञान था। कुछ को अवधिज्ञान था । इसलिये अपने विशिष्ट ज्ञान द्वारा उन्होंने प्रजा के समक्ष आये हुए नये नये प्रश्नों के उत्तर दिये, नई नई समस्याओं के समाधान दिये।
ये सभी प्रजा के जीवन का उपाय जानते थे । इसलिये ये मनु कहलाते थे । तत्कालीन प्रजा को कुल की भांति इकट्ठा रहने का उपदेश दिया था । इसलिये वे कुलकर कहलाते थे। उन्होंने नवीन वंश-परम्परा स्थापित की थी। इसलिये वे कुलवर कहलाते थे । तथा युग की आदि में हुए थे, इसलिए इन्हें युगादि पुरुष भी कहा जाता था। ऋषभदेव और भरत को भी इसी अर्थ में कुलकर कहा गया है ।
भोगभूमि में, कल्पवृक्षों के सुविधा काल में मनुष्य वनों में इधर उधर कबीलों के रूप में रहते थे । कुलकरों ने उन्हें समूहबद्ध करके एक स्थान में रहना और उगे हुए धान्यों से जीवन निर्वाह करना सिखाया । नाभिराज ने मिट्टी के बर्तन बनाना सिखाकर मानव-सभ्यता की आधारशिला रक्खी।
२. भगवान ऋषभदेव का जन्म
सूर्य उदित होता है, उससे पूर्व ही उसकी प्रभा अन्धकार का नाश कर देती है। तीर्थंकर प्रसाधारण ओर लोकातिशयी महापुरुष होते हैं । वे उत्पन्न होते हैं, उससे पूर्व ही उनका पुण्य असाधारण और लोकातिशयी कार्य करना प्रारम्भ कर देता है। तीर्थकर भगवान ऋषभदेव का जन्म नाभिराज के यहाँ होने वाला है, यह विचार कर सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र ने कुबेर को आज्ञा दी -- तीर्थंकर भगवान के गौरव के अनुकूल नगरी की तुरन्त रचना करो।' श्राज्ञा मिलते ही कुदेर आज्ञापालन में जुट गया । स्वयं इन्द्र ने शुभ मुहूर्त, शुभ नक्षत्र में सर्व प्रथम मांगलिक कार्य किया और अयोध्यापुरी के बीच में जिन मंदिर की रचना की। फिर चारों दिशाओं में भी जिन मंदिरों की रचना की। अनेक उत्साही देवों ने भक्ति मौर उत्साह के साथ इस कार्य में स्वेच्छा से योग दिया और स्वर्ग की सामग्री से एक अद्भुत नगरी की रचना की । यह नगरी ऐसी लगती थी, मानो इस पृथ्वी पर स्वर्गपुरी की ही रचना की गई हो ।
उस नगरी के बीचों बीच सुन्दर राजमहल बनाया था। इस नगरी की इतनी सुन्दर रचना का कारण बताते हुए श्राचार्य जिनसेन कहते हैं—उस नगरी की रचना करने वाले कारीगर स्वर्ग के देव थे, उनका अधिकारी सूत्रधार इन्द्र था और मकान वगैरह बनाने के लिये सम्पूर्ण पृथ्वी पड़ी थी, तब वह नगरी प्रशंसनीय क्यों न हो !' देवों ने उस नगरी को वप्र ( मिट्टी के बने हुए छोटे कोट), प्राकार (चार मुख्य दरवाजों से युक्त पत्थर के बने हुए मजबूत कोट) और परिखा (खाई) यादि से सुशोभित किया था ।
उस नगरी का सार्थक नाम 'अयोध्या' था । कोई भी शत्रु उससे युद्ध नहीं कर सकता था, इसीलिये तो
देवों द्वारा प्रयोध्या की रचना