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भगवान ऋषभदेव का जन्म
से तृप्ति नहीं हुई । तब उसने हजार भुजाय बना ली और एक साथ हजार कलशों से भगवान का अभिषेक किया। इसके पश्चात् अन्य इन्द्रों और देवों ने भगवान का अभिषेक किया।
भगवान स्वयं ही पवित्र थे। उनके पवित्र अंगों का म्पर्श पाकर वह जल भी पवित्र हो गया और वह जहां जहां वहा, वह समस्त धरातल भी पवित्र हो गया ।
अभिषेक के एरनात गोपन्त ने जगत की शान्ति के लिए शान्ति मन्त्र का पाठ किया। देवों ने बड़ी भक्ति से उस गन्धोदक को अपने मस्तकों पर लगाया, फिर सारे शरीर पर लगाया और प्रवशिष्ट गन्धोदक को स्वर्ग ले जाने के लिये रख लिया। फिर सब इन्द्रों ने मन्त्रों से पवित्र हए जल, गन्ध, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल और अर्घ इन प्रष्ट द्रव्यों से भगवान की पूजा की 1 पश्चात् मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा दी।
उस समय सुगन्धित पवन बह रहा था। प्राकाश से सुगन्धित जल की वर्षा होरही थी। देव विभिन्न प्रकार के बाजे बजा रहे थे । इन्द्राणी ने तब भगवान को प्रपनो गोद में लेकर सुगन्धित व्रव्यों का अनुलेपन करके दिव्य वस्त्राभूषण पहनाये। मस्तक पर तिलक लगाया और कल्पवृक्ष के पुष्पों का मुकुट पहनाया। उनके मस्तक पर चड़ामणि रत्न रखा। नेत्रों में अंजन लगाया, कानों में कुण्डल पहनाये, गले में रत्नहार पहनाया। बाजूबन्द, अनन्त, करधनी, धुंघरू आदि अनेक रत्नाभरण पहनाये। फिर भद्रशाल, नन्दन, सौमनस और पाण्डक वन के पुष्पों को माला पहनाई । श्री, शची, कोर्ति और लक्ष्मी देवियों ने भगवान को इस तरह प्रलंकृत किया कि इन्द्राणी भी 'भगवान की रूप-सज्जा को देखकर विस्मित रह गई। इन्द्र तो भगवान को रूप माधुरी को हजार नेत्र बनाकर देखता रह गया । फिर सबने मिलकर भगवान की स्तुति की।
इस प्रकार जन्माभिषेक का उत्सव मनाकर इन्द्र और देव भगवान को लेकर अयोध्या वापिस पाये। इन्द्र भगवान को लेकर कुछ देवों के साथ महाराज नाभिराज के महलों में पहुंचा और श्रीगृह के प्रांगन में सिंहासन पर भगवान को विराजमान किया। नाभिराज बाल भगवान को देखकर अत्यन्त हर्षित हो रहे थे । इन्द्राणी ने माया मयी निद्रा दूर कर माता मरुदेवी को सचेत कर दिया, तबमाता भी अपने पुत्र को अत्यन्त वात्सल्य के साथ देखने लगी। इन्द्र ने महाध्य रत्नाभरणों और मालाओं से माता-पिता की पूजा-स्तुति को-हे नाभिराज! पाप ऐश्वर्य शाली उदयाचल हैं और रानी मरुदेवी पूर्व दिशा है क्योंकि यह पूत्र रूपो ज्योति प्रापसे ही उत्पन्न हुई है । आज आपका यह घर हम लोगों के लिये जिनालय के समान पूज्य है और पाप जगत्पिता के भी माता-पिता हैं। इसलिये हम लोगों के लिये सदा पूज्य हैं।'
इन्द्र ने माता-पिता को जन्माभिषेक की सारी कथा सुनाई, जिसे सुनकर दोनों ही बड़े प्रसन्न हुए। फिर इन्द्र की सहमति से माता-पिता ने भगवान का जन्म महोत्सव किया । प्रजा ने भी विविध प्रकार के उत्सव किये। नगरवासियों को मानन्द विभोर होते हुए देखकर मौधर्म इन्द्र भी अपने प्रानन्द को न रोक सका। उसने
प्रानन्द नाटक किया। संगीत विद्या में निपुण गन्धवों ने विविध वाद्यों के साथ संगीत करना इन द्वारा प्रारम्भ किया। इन्द्र द्वारा किया गया नाटक अलौकिक था। सर्व प्रथम उसने भगवान का मानन्द नाटक गर्भावतरण नाटक किया। उसके पश्चात जन्माभिषेक सम्बन्धी नाटक दिखाया। इसके बाद
उसने भगवान के पिछले दश जन्मों का नाटक किया, जिसे दशावतार नाटक भी कहा जाता है। सर्व प्रथम इन्द्र ने मंगलाचरण किया । फिर पूर्वरङ्ग दिखाया । पूर्वरङ्ग दिखाते समय उसने पुष्पांजलि क्षेपण करके ताण्डव नृत्य किया। ताण्डव नृत्य के प्रारम्भ में उसने नान्दो मंगल किया। फिर रंगभूमि में प्रवेश किया । रंग-भूमि में प्रवेश करते समय वह पुष्पांजलि विकीर्ण कर रहा था। फिर उसने विभिन्न लयों और मुद्रामों में ताण्डव नृत्य किया । देव पाकाश से पुष्पवर्षा करने लगे । इन्द्र ने नृत्य में क्रमश: शुद्ध पूर्वरंग, करण मोर पङ्गहार का प्रयोग करते हुए प्रदभत रस-सष्टि की। उसकी भजायें नाना प्रकार की भंगिमात्रों में चंचल गति से चल रही थीं। उसके पदक्षेपों पर दर्शकों की दृष्टि ठहर नहीं पाती थी। तड़ित गति के कारण कभी वह एक रह जाता था, कभी भनेक हो जाता था । क्षण में वह निकट दिखाई देता था और क्षण में यह दूर चला जाता था। देव नर्तकियां भी उसकी होड नहीं कर पा रही थी। उसके नत्य का रस, भाव, अनुभाव और चेष्टायें उसकी आत्मा के साथ एकाकार