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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
वह 'अयोध्या' कहलाती थी। उस नगरी को 'साकेत' भी कहते थे क्योंकि उसमें सुन्दर-सुन्दर मकान बने हए थे। वह नगरी सुकोशल देश में थी, अतः उसे 'सुकोशला' भी कहा जाता था। उस नगरी में अनेक विनीत शिक्षित सभ्य मनुष्यों का निवास था, अत: उसका नाम 'विनीता' भी पड़ गया।
अयोध्या नगरी के बनने पर देवों ने शुभ दिन, शुभ मुहूर्त. शुभ योग और शुभ लग्न में पुण्याह वाचन किया। 'भगवान ऋषभ देव उत्पन्न होंगे यह सोचकर इन्द्र ने नाभिराज और उनकी पत्नी मरुदेवी का अभिषेक करके पूजा की । तब उन्होने अयोध्या में अपने लिए हर प्रासाद में प्रवेश किया और वहां रहने लगे। इसके पश्चात देवों ने इधर-उधर रहने वाले मनुष्यों को लाकर उस नगरी में बसाया और उन्हें हर प्रकार की सुविधा दी। नाभिराज की पत्नी मरुदेवी थी। जब नाभिराज के साथ मरुदेवी का विवाह हुआ, उस समय इन्द्र
की प्रेरणा से देवों ने उनका विवाहोत्सब धूमधाम के साथ मनाया। मरुदेवी अपने अनिद्य नाभिराज की पत्नी रूप, बुद्धि, धु ति और विभूति से इन्द्राणी को भी मात करती थी। उस समय नाभिराज और मरुदेवी मरुदेवी के समान पुण्यवान् दूसरा कोई नहीं था। जिनके स्वयंभू भगवान जन्म लेने वाले
थे, उनके पुण्य की स्पर्धा संसार में कौन कर सकता था। भगवान गर्भ में प्राये, इससे छह माह पहले से कुबेर ने इन्द्र की आज्ञा से अयोध्या में रलवर। की। यह रत्नवर्षा भगवान के जन्म तक अर्थात् पन्द्रह माह तक हुई। रत्नवर्षा दिन में तीन बार हाट यी और एक बार में साढे तीन करोड़ रत्नों की वर्षा होती थी।
एक दिन मरुदेवी अपने प्रासाद में कोमल शय्या पर सो रही थीं। उन्होंने सोते हुए रात्रि के अन्तिम प्रहर मादेवी का स्वत्न दर्शन में निम्नलिखित शुभ सोलह स्वप्न देखे
१-उन्होंने इन्द्र का ऐरावत हाथी देखा, जिसके कपोलों से मद बह रहा है। २--दूसरे स्वप्न में एक वृषभ (बैल) देखा। बैल का वर्ण श्वेत था और गम्भीर शब्द कर रहा था। ३-तीसरे स्वप्न में एक सिंह देखा। उसका वर्ण चन्द्रमा के समान श्वेत था और कन्धे लाल वर्ण के थे । ४-चौथे स्वप्न में कमलासन पर विराजमान लक्ष्मी को देखा और हाथी अपनी सूडों में स्वर्ण-कलश
लिये हुए उनका अभिषेक कर रहे हैं। ५-पांचवें स्वप्न में पृष्पमालायें देखीं, जिन पर भौंरे गुजार कर रहे हैं। ६-छठे स्वप्न में पूर्ण चन्द्र देखा। चांदनी छिटक रही है। चारों ओर तारा गण हैं। ७-सातवं स्वप्न में उदयाचल से उदित होता हा सूर्य देवा।। ८-आठवें स्वप्न में कमलों से ढंके हए दो स्वर्ण कलश देखे। है--नौवें स्वप्न में कमलों से सुशोभित तालाब में किलोल करती दो मछलियां देखी। १०-दसवें स्वप्न में जल से भरा तालाब देखा, जिसमें कमल तैर रहे हैं। ११–ग्यारहवें स्वप्न में उत्ताल तरंगों वाला, गंभीर गर्जन करता समुद्र देखा। १२-बारहवें स्वप्न में रत्नजटित स्वर्ण का सिंहासन देखा। १३-तेरहवें स्वप्न में रत्नों से देदीप्यमान स्वर्ग का विमान देखा। १४-चौदहवें स्वप्न में पृथ्वी से निकलता हया नागेन्द्र का भवन देखा, १५-पन्द्रहवें स्वप्न में तेजस्वी किरणों वाली रत्न-शशि देखो। १६-सोलहवें स्वप्न में जलती हुई धम रहित अग्नि देखी।
इसके पश्चात् उन्होंने स्वर्ण वर्ण वाले और ऊँचे स्कन्ध वाले एक वृषभ को अपने मुख में प्रवेश करते देखा।
१. श्वेताम्बर परम्परा १४ स्वप्न मानती है-गज, वृषभ, सिंह लक्ष्मी, पुष्पमाला, चन्द्र, सूर्य, ध्वजा, कुम्भ, पद्मसरोवर, सीर समुद्र, विमान, रत्नराशि पौर निघून अग्नि ।
कल्पसूत्र, सूत्र ३३