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अन्नमयकोण-अपर्णा
अन्नमय कोष-उपनिषदों के अनुसार शरीर में आत्मतत्त्व अपराजितासप्तमी.-भाद्र शुक्ल सप्तमी को इसका व्रत प्रारम्भ पाँच आवरणों से आच्छादित है, जिन्हें 'पञ्चकोष' कहते किया जाता है। इसमें एक वर्ष तक सूर्य-पूजन होता है। हैं । ये है अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, भाद्र शुक्ल की सप्तमी को अपराजिता कहा जाता है । चतुर्थी विज्ञानमय कोष और आनन्दमय कोष । यहाँ 'मय' का को एक समय भोजन पञ्चमी को रात्रि में भोजन तथा प्रयोग विकार अर्थ में किया गया है । अन्न (भुक्त पदार्थ) षष्ठी को उपवास करके सप्तमी को पारण होता है। दे० के विकार अथवा संयोग से बना हुआ कोष 'अन्नमय' कृत्यकल्पतरु, व्रतकाण्ड, १३२-१३५, हेमाद्रि का व्रतकहलाता है । यह आत्मा का सबसे बाहरी आवरण है। खण्ड, ६६७-६६८।। पशु और अविकसित मानव भी, जो शरीर को ही आत्मा अपराजिता--युद्ध में अपराजिता अर्थात् दुर्गा । दशमी (विशेष मानता है, इसी धरातल पर जीता है। दे० 'कोष' तथा कर आश्विन शुक्ल पक्ष की दशमी) को अपराजिता की 'पञ्चकोष'।
पूजा का विधान है: अन्नाद्य-अथर्ववेद तथा ऐतरेय ब्राह्मण में उद्धृत 'वाजपेय दशम्यां च नरैः सम्यक् पूजनीयापराजिता । यज्ञ' एक प्रकार के राज्यारोहण का ही अङ्ग बताया गया मोक्षार्थ विजयार्थञ्च पूर्वोक्त विधिना नरैः ।। है। किन्तु इसके उद्देश्य के बारे में विविध मत है। इसके नवमी शेष युक्तायां दशम्यामपराजिता । विविध उद्देश्यों में से एक 'अन्नाद्य' है, जैसा कि शाङ्खायन
ददाति विजयं देवी पूजिता जयवद्धिनी ।। के मत से प्रकट है। अधिक भोजन (अन्न) की इच्छा वाला
मोक्ष अथवा विजय के लिए मनुष्य पूर्वोक्त विधि से इस यज्ञ को करता है । 'वाजपेय' का अर्थ उन्होंने भोजन
दशमी के दिन अपराजिता देवी की अच्छे प्रकार से पूजा
करे । वह दशमी नवमी से युक्त होनी चाहिए। इस पान माना है।
प्रकार करने पर जय को बढ़ाने वाली देवी विजय प्रदान अन्यपूर्वा-जिसके पूर्व में अन्य है वह कन्या। वचन आदि के
करती है । ] द्वारा एक को विवाहार्थ निश्चित किये जाने के बाद किसी
अपराजिता दशमी--आश्विन शुक्ल दशमी को यह व्रत होता अन्य के साथ विवाहित स्त्री को अन्यपूर्वा कहते हैं। ये
है । विशेषतः राजा के लिए इसका विधान है । हेमाद्रि तथा सात प्रकार की होती हैं :
स्मृतिकौस्तुभ के अनुसार श्री राम ने उसी दिन लंका पर सप्तपौनर्भवाः कन्या वर्जनीयाः कुलाधमाः ।
आक्रमण किया था। उस दिन श्रवण नक्षत्र था। इसमें वाचा दत्ता मनोदत्ता कृतकौतुकमङ्गला ॥
देवीपूजा होती है। दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, पृष्ठ ९६८ से उदकस्पर्शिता या च या च पाणिग्रहीतिका ।
९७३। अग्नि परिगता या तु पुनभू प्रसवा च या ।।
अपराधशत व्रत-मार्गशीर्ष द्वादशी से इसका प्रारम्भ होता इत्येताः काश्यपेनोक्ता दहन्ति कुलमग्निवत् ।।
है। इसमें विष्णु की पूजा होती है। सौ अपराधों की (उद्वाहतत्त्व)
गणना भविष्योत्तर पुराण (१४६.६-२१) में पायी जाती सात पुनर्भवा कन्याएँ कुल में अधम मानी गयी हैं।
है। उपर्युक्त अपराध इस व्रत से नष्ट हो जाते हैं। इनके साथ विवाह नहीं करना चाहिए । वचन से, मन से, अपरोक्षानभति--(१) बिना किसी बौद्धिक माध्यम के विवाह मङ्गल रचाकर, जलस्पर्श पूर्वक, हाथ पकड़ कर,
साक्षात् ब्रह्मज्ञान हो जाने को ही अपरोक्षानुभूति कहते हैं। अग्नि की प्रदक्षिणा करके पहले किसी को दी गयी तथा
(२) 'अपरोक्षानुभूति' शङ्कराचार्य के लिखे फुटकर एक पति को छोड़कर दुबारा विवाह करने वाली स्त्री से
ग्रन्थों में से एक है। इस पर माधवाचार्य ने बहुत सुन्दर उत्पन्न कन्या-ये अग्नि के समान कूल को जला देती
टीका लिखी है जिसका नाम अपरोक्षानुभूतिप्रकाश है। हैं । ऐसा काश्यप ने कहा है।
अपर्णा-जिसने तपस्या के समय में पत्ते भी नहीं खाये, अन्वयार्थप्रकाशिका-यह 'संक्षेप शारीरक' के ऊपर स्वामी ___वह पार्वती अपर्णा कही गयी है । यह दुर्गा का ही पर्याय है : रामतीर्थ लिखित टीका है। इसका रचनाकाल सत्रहवीं
स्वयं विशीर्णद्रुमपर्णवृत्तिता शताब्दी है।
परा हि काष्ठा तपसस्तया पुनः ।
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