Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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द्रव्यार्थिक दृष्टि से जीव शाश्वत है, यह जीव का ऊर्ध्वतासामान्य है।
गणधर गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर के समक्ष जिज्ञासा प्रस्तुत की—'द्रव्य कितने प्रकार का है ?' समाधान की भाषा में भगवान् ने कहा—'द्रव्य के जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य ये दो प्रकार हैं। पुनः जिज्ञासा प्रस्तुत की—'अजीव द्रव्य कितने प्रकार का है ?' समाधान के रूप में कहा गया—'वह रूपी और अरूपी के भेद से दो प्रकार का है।' पुनः जिज्ञासा उभरी-'अजीव द्रव्य संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ?' समाधान दिया गया—'वे अनन्त हैं, चूंकि परमाणु पुद्गल अनन्त हैं, द्विप्रदेशी स्कन्ध अनन्त हैं यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्ध अनन्त हैं।' उसी तरह जीव द्रव्य के सम्बन्ध में जो गौतम ने पृच्छा की कि वह संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? समाधान दिया गया—जीव अनन्त हैं, क्योंकि नैरयिक, चार स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय, असंज्ञी मनुष्य तथा देव ये सभी प्रत्येक पृथक्-पृथक् असंख्यात हैं। संज्ञी मनुष्य संख्यात हैं। वनस्पतिकायिक जीव और सिद्ध अनन्त हैं। अत: समस्त जीव द्रव्य की अपेक्षा से अनन्त हैं।
__ इसी प्रकार भगवतीसूत्र शतक १४, उद्देशक ४ में जीवपरिणाम और अजीवपरिणाम के सम्बन्ध में प्रकाश डाला गया है। शतक १७, उद्देशक २ में जीव और जीवात्मा ये दोनों पृथक् नहीं हैं, ऐसा स्पष्ट किया गया है, शतक ७, उद्देशक ८ में हाथी और कुंथुआ दोनों की काया में अन्तर है तो क्या उनके जीव समान हैं या असमान हैं ? इस जिज्ञासा का समाधान करते हुए भगवान् ने फरमाया कि दोनों में जीव समान है, जैसे दीपक का प्रकाश स्थान के अनुसार छोटा और बड़ा होता है वैसे ही शरीर के अनुसार आत्मप्रदेश संकुचित और विस्तृत होते हैं। शतक १, उद्देशक २ में जीव स्वयंकृत कर्म का वेदन करते हैं या परकृत कर्म का वेदन करते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने बतलाया कि जीव स्वकृत कर्म का ही वेदन करता है, परकृत कर्म का नहीं।
जैन आगमसाहित्य का गहराई से पर्यवेक्षण करने पर सहज परिज्ञात होता है कि उसने अद्वैतवादियों की भाँति जगत् को वस्तु अवस्तु अर्थात् माया में विभक्त नहीं किया है अपितु यह प्रतिपादित किया है कि संसार की प्रत्येक वस्तु में स्वभाव और विभाव सन्निहित हैं । वस्तु का स्वभाव वह है जो परिनिरपेक्ष हो और विभाव वह है जो परसापेक्ष हो । आत्मा का चैतन्य, ज्ञान, सुख प्रभृति का जो मूल रूप है वह उसका स्वभाव है और अजीव का स्वभाव है जड़ता। आत्मा की मनुष्य, देव आदि गति रूप जो स्थिति है वह विभाव दशा है । स्वभाव और विभाव दोनों अपने-आप में सत्य हैं। हाँ, तद्विषयक हमारा ज्ञान मिथ्या हो सकता है, लेकिन वह भी तब जब हम स्वभाव को विभाव समझें या विभाव को स्वभाव। तत में अतत का ज्ञान होने पर ही ज्ञान में मिथ्यात्व की संभावना रहती है।
विज्ञानवादी बौद्धों का यह मन्तव्य है कि प्रत्यक्ष ज्ञान ही वस्तुग्राहक और साक्षात्कारात्मक है और उसके अतिरिक्त जितना भी ज्ञान है वह अवस्तुग्राहक, भ्रामक, अस्पष्ट और असाक्षात्कारात्मक है। जबकि जैन आगम-साहित्य में प्रत्यक्ष ज्ञान उसे कहा है जो इन्द्रियनिरपेक्ष हो और आत्मसापेक्ष हो तथा साक्षात्कारात्मक हो। परोक्ष उसे कहा है जो ज्ञान इन्द्रिय और मनसापेक्ष हो तथा असाक्षात्कारात्मक हो । प्रत्यक्षज्ञान से ही स्वभाव और विभाव का सही परिज्ञान हो सकता है। जो ज्ञान इन्द्रियसापेक्ष है उससे वस्तु के स्वभाव और विभाव का स्पष्ट
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आगमयुग का जैनदर्शन पृ. १२७-१२८, पं. दलसुख मालवणिया
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