Book Title: Kasaypahudam Part 11
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतवर्षीय दि० जैन संघ चौरासी मथुरा द्वारा प्रकाशित क सा य पा ह डं (जयधवल, महाधवल)। श्रीवीरसेनाचार्यविरचिता जयधवला टीका भाग-ग्यारह सम्पादको विदवतरन्न स्त० श्री ५० फलचन्द्र विद्वतरल स्व० श्री पं0 कैलाशचन्द्र प्रकाशक भारतवर्षीय दि० जैन संघ, चौरासी मथुरा (उत्तर प्रदेश Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतवर्षीय दि० जैन संघ चौरासी मथुरा द्वारा प्रकाशित श्रीयतिवृषभाचार्यरचितचूर्णिसूत्रसमन्वितम श्रीभगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीतम् क सा य पा ह डं (जयधवल, महाधवल) तयोश्च श्रीवीरसेनाचार्यविरचिता जयधवला टीका [सप्तमोऽधिकारः वेदकअनुयोगद्वारम् ] भाग-11 (एकादशो दलः) विद्वतरत्न स्व० श्री पं0 फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री, सिद्धान्ताचार्य सम्पादक जय महाबन्ध सहसम्पादक, जयधवल सम्पादको विद्वतरत्न स्व० श्री पं0 कैलाशचन्द्र सिद्धान्तरत्न, सिद्धान्तशास्त्री, न्यायतीर्थ प्रधानाचार्य स्याद्वाद महाविद्यालय काशी प्रकाशक भारतवर्षीय दि० जैन संघ, चौरासी-मथुरा (उत्तर प्रदेश) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [2] [2] . प्रकाशक भारतवर्षीय दि० जैन संघ चौरासी, मथुरा कार्यालय दूरभाष : 0565 - 420711 प्रथम संस्करण 1968 (वीर निर्वाण 2495) द्वितीय संस्करण 2000 (वीर निर्वाण 2526) मूसंशयित मूल्य 250/- रुपये मुद्रकः नरूला ऑफसेट प्रिन्टर्स शाहदरा, दिल्ली Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [3] प्रथम संस्करण के प्रकाशन पर सम्पादक द्वारा अग्रलेख. शरम कसायपाहुड के पाँचवें भाग अनुभाग विभक्ति को एक वर्ष पश्चात् ही प्रकाशित करते हुए हमें हर्ष होना स्वाभाविक है। यह भाग भी डोंगरगढ़ के उदारमना दानवीर सेठ भागचन्द्र जी | के द्वारा दिये गये द्रव्य से ही प्रकाशित हुआ है और आगे के भाग भी उन्हीं के द्रव्य से प्रकाशित हो रहे हैं इसके लिये सेठ जी व उनकी धर्म पत्नी सेठानी नर्वदाबाई जी दोनों धन्यवाद के पात्र हैं। सम्पादन आदि का भार पूर्ववत् पं० फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री और हम दोनों ने वहन किया है। प्रेस सम्बन्धी सब झंझटों को पं० फूलचन्द्र जी ने उठाया है। एतदर्थ मैं पंडितजी का भी आभारी हूँ। काशी में गङ्गा तट पर स्थित स्व० बाबू छेदीलाल जी के जिन मन्दिर के नीचे के भाग में जयधवला कार्यालय अपने जन्म काल से ही स्थित है और यह स्व० बाबूसाहब के सुपुत्र बाबू गणेशदास जी और पौत्र बा० सालिगराम जी तथा बा० ऋषभचन्दजी के सौजन्य और धर्म प्रेम का परिचायक है, अतः मैं उनका भी आभारी हूँ। नया संसार प्रेस के स्वामी पं० शिवनारायण जी उपाध्याय तथा उनके कर्मचारियों ने इस भाग का मुद्रण बहुत शीघ्र करके दिया, एतदर्थ वे भी धन्यवाद के पात्र हैं। जयधवला कार्यालय भदैनी, काशी दीपावली - 2495 कैलाशचन्द्र शास्त्री मंत्री साहित्य विभाग भा. दि. जैन संघ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [4] भारतवर्षीय दिगम्बर जैन संघ संक्षिप्त इतिहास सन् 1933 में महामनीषी विद्वान स्व० पं० राजेन्द्र कुमार जी न्यायतीर्थ के अदम्य उत्साह और विलक्षण सूझबूझ ने एक नयी संस्था को जन्म दिया। नाम था शास्त्रार्थ संघ। इस संघ में स्व० लाला सिब्बामल जैन का सहयोग था। 1933 में अम्बाला में स्थापित इस संस्था के द्वारा देश के अनेक नगरों में धर्म-संरक्षण की भावना से जैन धर्म के आलोचकों से सार्वजनिक शास्त्रार्थ किये गये । उसका परिणाम यह हुआ कि आलोचकों ने जैन धर्म की आलोचना बन्द कर दी। शास्त्रार्थ संघ को सबसे बड़ी विजय तब मिली, जब आलोचकों के प्रमुख सन्यासी स्वामी कर्मानन्द जी ने जैन धर्म को स्वीकार कर लिया और जैन धर्म की प्रमाणिकता में "ईश्वर मीमांसा' नाम की एक पुस्तक लिखी, जिसका प्रकाशन संघ ने किया है। सन् 1940 के लगभग, संघ का स्थान अम्बाला की जगह मथुरा में हो गया। चौरासी स्थित भगवान् जम्बू स्वामी की निर्वाण स्थली के समीप पं० राजेन्द्र कुमार जी और उनके सहयोगियों के द्वारा भव्य-भवन का निर्माण किया गया और संघ का नाम "शास्त्रार्थ-संघ" के स्थान पर "भारतवर्षीय दिगम्बर जैन संघ" रखा गया। अब संघ का कार्य धर्म प्रचार था। उस समय संघ भवन में हर समय 10-12 विद्वान रहा करते थे और पूरे देश में होने वाले सामाजिक, धार्मिक उत्सवों में उन विद्वानों को आमंत्रित किया जाता था। उन्हीं दिनों संघ में एक प्रकाशन विभाग की स्थापना हुई, जिसके द्वारा अनेक समाजोपयोगी एवं धार्मिक पुस्तकों का प्रकाशन हुआ, जिनमें कैलाशचन्द्र जी शास्त्री द्वारा लिखी गयी "जैन धर्म" नाम का ग्रन्थ अब सातवें संस्करण के रूप में छप गया है। इन्हीं के द्वारा "तत्वार्थ सूत्र" की गौरवपूर्ण हिन्दी टीका लिखी है, जिसका तीसरा संस्करण प्रकाशित हो चुका है। सन् 1950 के आस-पास संघ ने स्व. पंडित हीरालाल जी शास्त्री, अमरावती (महाराष्ट्र) ए. एन. उपाध्ये की प्रेरणा से "कसायपाहुडं" (जयधवल, महाधवल) ग्रंथराज के प्रकाशन की योजना बनायी। आर्थिक अभावों के होते हुए भी स्वर्गीय पं० फूलचन्द्र जी और पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री के श्रम और सूझ-बूझ से मूल ग्रन्थ का हिन्दी में सरलीकरण किया गया। जिसे संघ ने 16 भागों में प्रकाशित कराया है। उपरोक्त महाग्रन्थ के दो संस्करण हम कुछ वर्ष पूर्व प्रकाशित करा चुके हैं, और अब 10 भागों का पुर्नसंस्करण प्रकाशित करा रहे हैं। हमारे वर्तमान अध्यक्ष श्री स्वरूप चन्द जी मारसंस, आगरा का इन प्रकाशनों में हमें भरपूर सहयोग मिला है। हमारे अन्य दातारों का भी हमें आर्थिक सहयोग प्राप्त हुआ है। आज संघ संस्थापक पं० राजेन्द्र कुमार जी तथा उनके सहयोगी पं० फूलचन्द्र जी, पं० कैलाशचन्द्र जी, पं० जगमोहन लाल जी नहीं है और अब संस्थाओं के संचालन में वो उत्साह भी नहीं रहा, फिर भी हमारी भावना है कि संघ-भवन और उसके प्रकाशन विभाग को किसी न किसी प्रकार संचालित रखा जाये। संघ का मुख पत्र "जैन सन्देश" पिछले 6 दशक से निरन्तर प्रकाशित हो रहा है। हमारी भावना है कि समाज के उत्साहीजनों का निरन्तर सहयोग मिलता रहे और संघ भवन से यह आलोक निरन्तर प्रकाशमान होता रहे। प्रधानमंत्री ताराचन्द जैन 'प्रेमी' भारतवर्षीय दिगम्बर जैन संघ चौरासी, मथुरा Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [5] - - - -: आभार : श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन संघ, चौरासी, मथुरा को प्रमुख आर्ष ग्रन्थ "कसायपाहुडं" जयधवल महाधवल को सोलह भागों में प्रकाशित करने का गौरव प्राप्त हुआ है। इसके प्रकाशन का शुभारंभ 6 दशक पूर्व हो गया था, जिसके अन्तिम दो भाग 15 और 16 को प्रकाशित करवाने में अर्थाभाव की कमी महसूस की गई। बाद में सोलहवां भाग का प्रकाशन ब्र० श्री हीरालाल खुशालचन्द दोशी, मांडवे (सोलापुर) के आर्थिक सहयोग से किया गया। 16 भागों का वितरण क्रमशः न होने के कारण प्रथम दो और चार भाग को मथुरा में ही पुनर्प्रकाशन कराना पड़ा। अब जयधवला के 10 भागों का प्रकाशन अनिवार्य समझ कर श्री रतनलाल जी जैन, वन्दना पब्लिशिंग हाउस, अलवर (राज.) के सहयोग और परामर्श से इनका पुनर्प्रकाशन किया जा रहा है। इनके प्रकाशन में आर्थिक योगदान के लिये हमारे निम्न दानदाताओं ने उदारतापूर्वक दान देकर इस कार्य में अपना अमूल्य सहयोग दिया है इसके लिए संघ इन सभी सधर्मी बन्धुओं का आभार प्रकट करता है। 1. श्री बलवंत राय जैन, भिलाई (म. प्र.) 2. श्री स्वरूप चन्द जैन (मारसंस), आगरा (उ. प्र.) 3. श्री रतन लाल जैन, अलवर (राज.) श्री ताराचन्द जैन, अलवर (राज.) 5. श्री ओम प्रकाश जैन, कोसीकलाँ (उ. प्र.) 6. श्री भोलानाथ जैन, आगरा (उ. प्र.) 7. श्री निर्मल कुमार जैन, आगरा (उ. प्र.) 8. श्री प्रदीप कुमार जैन, आगरा (उ. प्र.) 9. श्री ज्ञानचन्द जी खिन्दूका, जयपुर (राज.) 10. कान्ता बहन मनुभाई शाह, सोजीत्रा (गुजरात) 11. श्री मनुभाई छगन लाल शाह, सोजीत्रा (गुजरात) प्रधानमंत्री ताराचन्द जैन 'प्रेमी' Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [6] विषय परिचय वेदक महाधिकारके मुख्य अनुयोग द्वार चार हैं- प्रकृतिउदीरणा, स्थितिउदीरणा, अनुभागउदीरणा और प्रदेशउदीरणा । इनमेंसे प्रकृति उदीरणा और स्थितिउदीरणाका स्पष्टीकरण पहले ( भागं १० में ) कर आये हैं। शेष दोका स्पष्टीकरण यहाँ अवसर प्राप्त है। उनमेंसे सर्वप्रथम अनुभागउदीरणाका स्पष्टीकरण करते हैं १. मोहनीय अनुभाग उदीरणा वेदक महाधिकारकी दूसरी गाथाका दूसरा पाद है— को व के य अणुभागे।' इसमें इतना ही कहा गया है कि 'कोन जीव किस अनुभागमें मिथ्यात्व आदि कमका प्रवेशक है'।' इसका विशेष व्याख्यान करते हुए आचार्य यतिवृषभने अपने चूर्णिसूत्रों में 'उदीरणा' की व्याख्या करते हुए बतलाया है कि 'जो अनुभाग प्रयोगसे अपकर्षितकर उदयमें दिया जाता है वह उदीरणा है । जो अनुभाग वर्तमानमें पक्व नहीं है, प्रयोग विशेषसे उसे पचाना उदीरणा है यह इसका तात्पर्य है । 'प्रयोग' का अर्थ प्रकृतमें परिणामविशेष है । जीवका जो परिणामविशेष प्रकृत उदीरणाका अविनाभावी होता है वह उस उदीरणाका बाह्य निमित्त कहलाता है । इस विषयको स्पष्टरूपसे समझनेके लिए जयघवला भाग १० पृ० १२३ - १२४ के इस वचन पर दृष्टिपात करना चाहिए कसायोवसामणादो परिवदिदो उवसंतदंसणमोहणीयो दंसणमोहउसंतद्धाए दुचरिमादिहेट्ठिमसमएसु जई आसाणं गच्छइ तदो तस्स सासणभावं पडिवण्णस्स पढमसमए अणंताणुबंधीणमण्णदरस्स पवेसेण बावीसपवेसट्ठाणं होइ । कुदो तत्थाणंताणुबंघीणमण्णदरपवेसणियमो ? ण, सासणगुणस्स तदुदयाविणाभावित्तादो । कथं पुव्वमसंतस्साणंताणुबंधिकसायस्स तत्थुदयसंभवो ? ण, परिणामपाहम्मेण सेसकसायदव्वस्स तक्कालमेव तदायारेण परिणमिय उदयदंसणादो । कषायोपशामनासे गिरता हुआ उपशान्त दर्शनमोहनीय जीव दर्शनमोहके उपशामनाके कालके अन्तर्गत द्विचरम आदि अधस्तन समयोंमें यदि सासादन गुणस्थानको प्राप्त होता है तो सासादनभावको प्राप्त होनेवाले उस जीवके प्रथम समयमें अनन्तानुबन्धियोंमेंसे किसी एक प्रकृतिका प्रवेश होनेसे बाईस प्रकृतिक प्रवेशस्थान होता है । शंका-वहाँ अनन्तानुबन्धियोंमेंसे किसी एक प्रकृतिके प्रवेशका नियम क्यों है ? समाधान- - नहीं, क्योंकि सासादन गुण उसके उदयका अविनाभावी है । शंका- पूर्व में ( उदय कालके पूर्व में ) सत्तासे रहित अनन्तानुबन्धी कषायका वहाँ पर उदय कैसे सम्भव है ? समाधान - नहीं, क्योंकि परिणामोंके माहात्म्यवश शेष कषायोंका द्रव्य उसी समय उस रूपसे परिणमकर उसका उदय देखा जाता है । इससे स्पष्ट है कि जीव शास्त्रमें जीवके जिस सासादन गुणका अनन्तानुबन्धी चतुष्कमेंसे अन्यतम कषायकी उदीरणा अविनाभाव सम्बन्धवश बाह्य निमित्त कही गई है । यहाँ कर्मशास्त्र में उसी कारणवश वही परिणामविशेष अनन्तानुबन्धीचतुष्कमेंसे अन्यतम कषायकी उदीरणाका बाह्य निमित्त कहा गया है । इसका नाम बाह्य-निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है, जिसका विवक्षाके अनुसार अदल-बदलकर कथन किया जाता है । जहाँ संयोगी जीव परिणामको कार्यरूपसे विवक्षा होती है वहाँ उसका अविनाभावी कर्मोदय Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [7] उदीरणा उसका बाह्य निमित्त कहा जाता है और जहाँ कर्मोदय उदीरणाको कार्यरूपसे विवक्षा होती है वहाँ उसका अविनाभावी जीवपरिणाम तथा यथासम्भव अन्य बाह्य सामग्री उसका बाह्य निमित्त कहा जाता है । यह बात उक्त उल्लेखसे तो स्पष्ट है ही, कषाय- प्राभृतकी गाथा ५९ 'कदि आवलियं पवेसेइ' इत्यादिके 'खेत्तभवकाल-पोग्गल' इत्यादि वचनसे भी स्पष्ट है । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि जहाँ भी न्याय - शास्त्र में कार्य-कारणके मध्य क्रमभावी अविनाभाव सम्बन्धका उल्लेख किया गया है वहाँ वह उपादन उपादेयभावको ध्यान में रखकर ही किया गया है, बाह्य निमित्त नैमित्तिक भावको ध्यानमें रखकर नहीं, क्योंकि बाह्य निमित्त नैमित्तिकभावका उल्लेख उन एकाधिक द्रव्योंकी ऐसी विवक्षित पर्यायोंमें किया जाता है जिनका एक कालमें होनेका नियम है । जैसे क्रोध कर्मका उदय और क्रोध भाव एक ही कालमें होते हैं, इसलिए क्रोध-कर्मके उदयको बाह्य निमित्त कहते हैं और क्रोध भावको उसका नैमित्तिक । इसी प्रकार सत्र र्वजानना चाहिए । अनुभाग फलदान शक्तिका दूसरा नाम है। उदय उदीरणाकालके पूर्वतक यह द्रव्यरूपमें रहती है । किन्तु उदय उदीरणाकालके प्राप्त होते ही वह पर्यायरूपसे प्रगट हो जाती है जो पर्यायगत अपने-अपने, अविभागप्रतिच्छेदों के द्वारा परिलक्षित होती है । यहाँ द्रव्यशक्ति पदसे मात्र त्रैकालिक योग्यताको ग्रहण न कर योग और कषायको निमित्तकर प्रतिसमय कर्मबन्धके कालमें प्राप्त होनेवाली ऐसी योग्यता ली गई है जो यथायोग्य उत्तरकालमें फलदान सामर्थ्य से सम्पन्न होती है । प्रकृतमें उदीरणाका प्रकरण होनेसे यहाँ विचार यह करना है कि स्पर्धकगत उस योग्यता में से किस योग्यता सम्पन्न स्पर्धकोंका अपकर्षण होता है और किन स्पर्धकोंका नहीं होता ? इसी प्रश्नका समाधान करते हुए यहाँ पर बतलाया है कि प्रथम स्पर्धक से लेकर जघन्य निक्षेप और जघन्य अतिस्थापनाप्रमाण अनन्त स्पर्धकोंका अपकर्षण नहीं होता । इसके आगे अन्य जितने भी स्पर्धक हैं उनका अपकर्षण होनेमें कोई बाधा नहीं है । यहाँ अपकर्षणके योग्य जो अनुभाग अपकर्षित होकर अन्य जिस अनुभागरूप परिणम जाता है उसकी निक्षेप संज्ञा है और अपकर्षणके योग्य अनुभाग तथा निक्षेपरूप अनुभागके मध्य जो अनुभाग रहता है उसकी अतिस्थापना संज्ञा है । २. मूल प्रकृति अनुभाग उदीरणा यह अर्थपद है । इसके अनुसार अनुभाग उदीरणा दो प्रकारकी है— मूल प्रकृति अनुभाग उदीरणा और उत्तरप्रकृति अनुभाग उदीरणा । यहाँ सर्व प्रथम मूल प्रकृति अनुभाग उदीरणाका अनुगम करते समय ये तेईस अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं। संज्ञा, उत्कृष्ट उदीरणा, अनुत्कृष्ट उदीरणा, जघन्य उदीरणा, अजघन्य उदीरणा, सर्व उदीरणा, नोसर्व उदीरणा, सादि उदीरणा, अनादि उदीरणा, ध्रुव उदीरणा, अध्रुव उदीरणा, स्वामित्त्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, एक जीवकी अपेक्षा अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व तथा भुजगार, पदनिक्षेप वृद्धि और स्थान । मोहनीय कर्म के प्रत्येक अनुभागकी निश्चित संज्ञा है यह बतलानेके लिए संज्ञा अनुयोगद्वारका निर्देश. किया है । वह संज्ञा दो प्रकारकी है-धातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा । उनमें से प्रत्येक जघन्य और उत्कृष्टके भेदसे दो दो प्रकारकी है । उनमेंसे अपने अवान्तर भेदोंके साथ घातिसंज्ञाका विचार करते हुए बतलाया है कि सामान्यसे मोहनीयकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा नियमसे सर्वघाति है तथा अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा सर्वघाति और देशघाति दोनों प्रकारकी है । इसी प्रकार मोहनीयकी जघन्य अनुभाग उदीरणा नियमसे देशघाति है । और अजघन्य अनुभाग उदीरणा देशघाति और सर्वघाति दोनों प्रकारको है । स्थानसंज्ञाका निरूपण करते हुए बतलाया है कि सामान्यसे मोहनीय की उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा नियमसे चतुःस्थानीय है तथा अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा चतुःस्थानीय है, त्रिस्थानीय है, द्विस्थानीय है और एक स्थानीय भी है। इसी प्रकार मोहनीयकी जघन्य अनुभाग उदीरणा नियमसे एक स्थानीय है तथा अजघन्य अनुभाग Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [8] . .... उदीरणा एक स्थानीय है, द्विस्थानीय है, त्रिस्थानीय है और चतुःस्थानीय भी है। इसका विशेष विचार महाबन्ध और कर्मकाण्ड आदि सिद्धान्त ग्रन्थोंके आधारसे कर लेना चाहिए। यह सामान्यसे मोहनीय कर्मकी अनुभाग उदीरणाको ध्यानमें रखकर चूर्णसूत्र और उच्चारणाके अनुसार स्यष्टीकरण किया गया है । आगे सर्व और नोसर्व आदि अनुयोगद्वारोंका आलम्बन लेकर इसीका उच्चारणाके अनुसार विशेष व्याख्यान किया गया है। ३. उत्तर प्रकृति अनुभाग उदीरणा यहाँ मोहनीय उत्तर प्रकृति अनुभाग उदीरणाका विचार २४ अनुयोगद्वारोंका आलम्बन लेकर किया गया है । पूर्वोक्त २३ अनुयोगद्वारोंमें एक सन्निकर्षके मिला देने पर कुल २४ अनुयोगद्वार होते हैं। उनमेंसे सर्व प्रथम संज्ञाका विचार करते हुए उसके दो भेदोंका निर्देश किया गया है। वे ये हैं-घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा । . घातिसंज्ञाके दो भेद है-सर्वघाति और देशघाति । स्थानसंज्ञा लतासदृश आदिके भेदसे चार प्रकारको है। उत्तर प्रकृतियोंमेंसे कौन प्रकृति किसरूप है इसका स्पष्टीकरण करते हुए बतलाया है कि मिथ्यात्व और प्रारम्भको बारह कषायोंकी अनुभाग उदीरणा सर्वघाति है । इन प्रकृतियोंकी अनुभाग उदीरणा द्वारा सम्यक्त्व और संयमका निरवशेष विनाश होता है, इसलिए वह सर्वघाति है । यद्यपि प्रत्याख्यान कषायोंकी अनुभाग उदीरणा के होने पर भी संयमासंयम गुणकी प्राप्ति होती है, फिर भी वह सकल संयमको प्रतिबन्धी होनेके कारण सर्वघाति ही है। इनकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा नियमसे चतु:स्थानीय होती है तथा अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा चतुःस्थानीय, त्रिस्थानीय, और द्विस्थानीय होती है। जिस प्रकार मिथ्यात्वको अनुभाग उदीरणासे सम्यक्त्व संज्ञावाली जीव पर्यायका अत्यन्त उच्छेद होता है उस प्रकार सम्यक्त्व प्रकृतिको अनुभाग उदीरणा द्वारा उसका अत्यन्त उच्छेद नहीं होता, इसलिये सम्यक्वकी अनुभाग उदीरणा देशघाति तथा एकस्थानीय और द्विस्थानीय है । किन्तु सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुभाग उदोरणा द्वारा सम्यक्त्व संज्ञावाली जीवपर्यायका अत्यन्त उच्छेद हो जाता है, इसलिए वह सर्वघाति और द्विस्थानीय है। चार संज्वलन और तीन वेदोंकी अनुभाग उदीरणा देशघाति और सर्वघाति दोनों प्रकारकी है, क्योंकि इनको उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा नियमसे सर्वघाति है, जघन्य अनुभाग उदीरणा नियमसे देशघाति है तथा अजघन्य और अनुष्कृष्ट अनुभाग उदीरणा दोनों प्रकारकी है। तात्पर्य यह है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक उक्त कर्मोंकी अनुभाग उदीरणा संक्लेश परिणामवश सर्वघाति होती है और विशुद्धिरूप परिणाम वश देशघाति होती है। तथा संयतासंयतसे लेकर आगे सर्वत्र अपने-अपने उदीरणा स्थल तक नियमसे देशघाति होती है। वहाँ इनको सर्वघाति अनुभाग उदीरणाके होनेका विरोध है । इस प्रकार इनको अनुभाग उदीरणाके देशघाति और सर्वघाति दोनों प्रकारको होनेके कारण वह यथासम्भव एकस्थानीय, द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय और चतुःस्थानीय होती है। अन्तरकरण करनेके बाद नियमसे एकस्थानीय होती है । तथा गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंमें द्विस्थानीय होती है और मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय तथा चतुःस्थानीय होती है . अब रहीं छह नोकषाय सो इनकी अनुभाग उदीरणा भी देशघाति और सर्वघाति दोनों प्रकारकी होती है, क्योंकि चौथे गुणस्थान तक तो इनकी अनुभाग उदीरणाकी देशघाति और सर्वघाति दोनों प्रकारसे प्रवृत्ति देखी जाती है। मात्र पाँचवें गुणस्थानसे लेकर उसकी प्रवृत्ति देशघातिरूपसे ही होती है। इनकी अनुभाग उदीरणा एकस्थानीय तो बन नहीं सकती, क्योंकि अपूर्वकरण गुणस्थान तक ही इनको उदयउदोरणा होती है । अतः वह द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय और चतुःस्थानीय होती है । देशसंयत गुणस्थानसे लेकर आगेके गुणस्थानोंमें तो वह देशघाति द्विस्थनीय ही होती है । मात्र पिछले चारों गुणस्थानोंमें वह यथासम्भव देशघाति और सर्वघाति दोनों प्रकारकी पाई जानेके कारण द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय और चतु:स्थानीय तीनों Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघसंस्थापक स्व० श्री राजेन्द्र कुमार जी न्यायतीर्थ स्व० श्री पं० फूलचन्द्र जी सिद्धान्त शास्त्री Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं० कैलाश चन्द जी शास्त्री सिद्धान्त शास्त्री पं0 जगन्मोहन लाल जी शास्त्री, कटनी Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [9] प्रकारको सम्भव है । यहाँ यह स्पष्ट रूपसे जानना चाहिए कि प्रारम्भके चारों गुणस्थानों और सभी जीवसमासोंमें चार संज्वलन और नौ नोकषायोंकी यह अनुभाग उदीरणा देशघाति और सर्वघाति रूपसे दोनों प्रकारकी बन जाती है, क्योंकि संक्लेश और विशुद्धि रूप परिणामोंका ऐसा ही माहात्म्य है। इस प्रकार संज्ञा और उसके अवान्तर भेदोंका तथा उच्चारणाके अनुसार उत्कुष्ट आदि अनुयोगद्वारोंका निरूपण करनेके बाद चूर्णिसूत्रों द्वारा मिथ्यात्व आदि सभी कर्मों की उत्कृष्ट और जघन्य अनुभाग उदीरणाके स्वामित्वका विचार करते समय एक महत्त्वपूर्ण विषयकी चर्चा की गई है। बात यह है कि मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाका स्वामी ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवको बतलाया गया है जो सब पर्याप्तयोंसे पर्याप्त है और उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला है। अब प्रश्न यह है कि उक्त जीवके यह उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मवाले जीवके ही होती है या अनुत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मवाले जीवके भी हो सकती है ? यदि मात्र उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मवाले जीवके ही मानी जाती है तो जो जीव स्थावरका से आकर त्रसोंमें उत्पन्न हुआ है उसके तो प्रारम्भमें उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मका सद्भाव बनेगा ही नहीं, उसके तो मात्र अनुत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्म ही होता है, क्योंकि वह द्विस्थानीय है । और संज्ञी पञ्चेन्द्रिय होकर ज्यों ही सत्कर्मको उदीरणा करता है तब उसके चतुःस्थानीय अनुत्कृष्ट अनुभागका ही बन्ध होता है। अब यदि इस चतुःस्थानीय अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकके उत्कृष्ट संक्लेश परिणाम नहीं माने जाते हैं तो वह कभी भी उत्कृष्ट अनुभागके बन्धके योग्य नहीं हो सकता, और जब वह उत्कृष्ट संक्लेशरूप परिणामोंके अभावमें उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध ही नहीं करेगा. तो वह उसके अभावमें उत्कृष्ट संक्लेशरूप परिणामोंका अविनाभावी उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक कैसे हो सकेगा अर्थात् त्रिकालमें नहीं हो सकेगा। इसलिए यह सिद्ध हुआ कि १. जो संज्ञी पन्चेन्द्रिय चतुःस्थानीय अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है उसके भी उत्कृष्ट संक्लेशरूप परिणाम हो सकते हैं। २. जब कि उसके उत्कृष्ठ संक्लेशरूप परिणाम हो सकते हैं तो वह जहाँ उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध कर सकता है वहां वह अनुत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्ममें से भी उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा कर सकता है। इतना अवश्य है कि यह अनुत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्म उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणाके योग्य होना चाहिए। समग्र कथनका तात्पर्य यह है कि जो उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मवाला या तत्प्रायोग्य अनुत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मवाला उत्कृष्ट संक्लेश परिणामोंसे युक्त संज्ञी मिथ्यादृष्टि जीव है वह मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाका स्वामी है। इसी प्रकार यथायोग्य सब प्रकृतियोंके भी उत्कृष्ट और जघन्य अनुभाग सत्कर्मके स्वामीका विचार चूर्णिसूत्रोंके अनुसार कर लेना चाहिए। इस विषयमें अन्य विशेष वक्तव्य नहीं होनेसे यहाँ अलगसे स्पष्टीकरण नहीं कर रहे हैं यहाँ हमने संज्ञा और स्वामित्व अनुयोगद्वारोंका संक्षेपमें स्पष्टीकरण किया है। इनके सिवाय अन्य जितने भी अनुयोगद्वार और भुजगारादि अधिकार हैं उन सबका स्पष्टीकरण इस अधिकारमें विस्तारसे किया हो गया है, इसलिए यहां उनका अलग-अलग स्पष्टीकरण नहीं किया है। इतना अवश्य है कि एक जीवकी अपेक्षा काल और अन्तर तथा अल्पबहुत्व इनका विचार जहाँ चूर्णिसूत्रोंमें किया गया है वहाँ इन सहित सभी अनुयोगद्वारोंका स्पष्ट खुलासा उच्चारणाके अनुसार किया गया है। मात्र एक जीवको अपेक्षा अन्तर प्ररूपणाका कथन करनेके बाद एक चूणिसूत्र अवश्य आया है जिसमें नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, सन्निकर्ष और अल्पबहुत्व इन अधिकारों की सूचना मात्र की गई है। तथा २४ अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणाके समाप्त होनेके बाद एक चूर्णिसूत्र और है, जिसमें भुजगार, पदनिक्षेप और वृद्धि इन तोन अनुयोगद्वारों के जाननेकी सूचना की गई है। ४. मोहनीय प्रदेशउदीरणा इसके बाद मोहनीय प्रदेश उदीरणाका प्रकरण प्रारम्भ होता है । इस प्रकरणमें मोहनीयके प्रदेशोंको Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [10] उदीरणाका यथासम्भव अनुयोगद्वारोंका आलम्बन लेकर विस्तारसे विचार किया गया है । इस दृष्टि से विचार करते हुए उसके मूलप्रकृति प्रदेश उदीरणा और उत्तर प्रकृति प्रदेश उदीरणा ये दो भेद किये गये हैं । ५. मूल प्रकृति प्रदेशउदीरणा उनमें से मूल प्रकृतिप्रदेश उदीरणाका परामर्श करते हुए चूर्णिसूत्रमें मात्र उसकी सूचना की गई है । इस सम्बन्धी समस्त विवरण उच्चारणाके अनुसार २३ अनुयोगद्वारों तथा भुजगार आदि अधिकारों द्वारा निबद्ध किया गया है । २३ अनुयोगद्वार वे ही हैं जिनका नाम निर्देश मूल प्रकृति अनुभाग उदीरणाका परिचय कराते समय कर आये हैं । यहाँ यह बात विशेष रूपसे ध्यान देने योग्य हैं कि मोहनीय यह अप्रशस्तं कर्म है, इसलिए जो तत्प्रायोग्य जीव इसकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा करता है उसके इसकी प्रदेशउदीरणा प्रायः जघन्य होती है और जो जीव इसको जघन्य अनुभाग उदीरणा करता है उसके इसकी प्रदेशउदीरणा उत्कृष्ट होती है । यह तथ्य इनके उत्कृष्ट और जघन्य स्वामित्वं पर दृष्टिपात करनेसे भले प्रकार विदित हो जाता है । उदाहरणार्थ जो क्षपक सूक्ष्मसाम्परायिक जीव अपने कालमें एक समय अधिक एक आवलि काल शेष रहने पर मोहनीयके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है वही जीव मोहनीयके उत्कृष्ट प्रदेशोंकी उदीरणा करता है । इसी प्रकार उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा और उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाके विषय में भी यथासम्भव जान लेना चाहिए। इसका कारण यह है कि जहाँ मोहनीयकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा उत्कृष्ट संक्लिष्ट तत्प्रायोग्य जीवके होती है वहाँ उसकी जघन्य अनुभाग उदीरणा क्षपकके अन्तिम अनुभाग उदीरणाके समय होती । किन्तु इसके विपरीत जहाँ मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा क्षपकके अन्तिम प्रदेश उदीरणाके समय होती है वहीं इसकी जघन्य प्रदेश उदीरणा सर्वसंक्लिष्ट या तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट मिथ्यादृष्टि होती है । प्रकृति उदीरणामें तो इस प्रकारसे उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्यका भेद है नहीं, इसीलिए उसकी प्ररूपणा करते समय इस अपेक्षासे विवेचन नहीं किया गया है। हाँ स्थिति उदीरणा में ये उत्कृष्टादि भेद अवश्य ही सम्भव हैं सो वहीं इसके विचारका आधार कुछ भिन्न प्रकारका है। बात यह है कि मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका सम्बन्ध उत्कृष्ट स्थितिबन्धके साथ है। जो जीव मोहनीयका उत्कृष्ट स्थिति • बन्ध करता है वही जीव एक आवलि काल जाने पर उसकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है । उस समय वह उत्कृष्ट संक्लिष्ट है या नहीं यह विचार यहाँ मुख्य नहीं है। हाँ उसकी जघन्य स्थिति उदीरणाका स्वामी वही जीव है जो उसकी जघन्य अनुभाग उदीरणाका स्वामी है। कारण स्पष्ट है । बात यह है क्षपकश्रेणिमें विशुद्धि वश जैसे अप्रशस्त प्रकृतियोंके अनुभागमें उत्तरोत्तर हानि होती जाती है उसी प्रकार सब कर्मों की स्थिति में भी उत्तरोत्तर हानि होती जाती है। इसलिए जो सामान्यसे मोहनीयकी जघन्य अनुभाग उदीरणाका स्वामी है वही जघन्य स्थिति उदीरणाका भी स्वामी है। किन्तु मोहनीयकी सभी उत्तर प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति उदीरणाको प्राप्त करनेके लिए यह नियम नहीं लागू करना चाहिए। उसका कारण अन्य है, जिसका विशेष स्पष्टीकरण उत्तर प्रकृति प्रदेश उदीरणाका विवेचन करते समय करेंगे । यह तो हम पहले ही बतला आये हैं कि मोहनीयकी प्रदेश उदीरणाका विवेचन जिन २३ अनुयोगद्वारों और भुजगार आदि अधिकारों द्वारा किया गया है उनका विशेष ऊहापोह उन उन अधिकारोंमें किया ही है, इसलिए वहाँसे जान लेना चाहिए। विशेष वक्तव्य न होनेसे यहाँ हम पृथक् पृथक् स्पष्टीकरण नहीं कर रहे हैं । ६. उत्तरप्रकृति प्रदेश उदीरणा उत्तर प्रकृति प्रदेश उदीरणाका विचार भी पूर्वोक्त २४ अनुयोगद्वार और भुजगार आदि अधिकारोंके द्वारा किया गया है । यहाँ स्वामित्वके सम्बन्धमें विचार करते समय अनुभाग- प्रदेश उदीरणा सम्बन्धी जिन Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [11] तुलनात्मक विशेषताओंका उल्लेख मूल प्रकृति प्रदेश उदीरणाका स्पष्टीकरण करते समय कर आये हैं उनको यहां भी जान लेना चाहिए । इसी तथ्यको आगे कोष्ठक द्वारा स्पष्ट किया जाता है प्रकृति उत्कृष्ट अनु० उदो० का स्वामी जघन्य प्रदेश उदोरणाका स्वामी मिथ्यात्व उत्कृष्ट संक्लिष्ट संज्ञी पर्याप्त मिथ्यादृष्टि । उत्कृष्ट संक्लिष्ट या ईषत मध्यमरिणाम वाला संज्ञी मिथ्यादृष्टि १६ कषाय स्त्री-पुरुषवेद सर्व संक्लिष्ट ८ वर्षका ऊँट । । नपुंसकवेद, अरति । सर्व संक्लिष्ट सातवें नरकका नारकी शोक, भय, जुगुप्सा हास्य, रति सर्व संक्लिष्ट शतार-सहस्रार कल्पका देव ।। सर्व संक्लिष्ट मिथ्यात्वके अभिमुख हुआ | सर्व संक्लिष्ट या ईषत् मध्यमपरिणामसम्यक्त्व अन्तिम समयवर्ती असंयत सम्यग्दष्टि। वाला मिथ्यात्वके अभिमुख हुआ अन्तिम समयवर्ती सम्यग्दृष्टि । सम्यग्मिथ्यात्व सर्व संक्लिष्ट मिथ्यात्वके अभिमुख हुआ | सर्व संक्लिष्ट या ईषत् मध्यम परिणामअन्तिम समयवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टि। | वाला मिथ्यात्वके अभिमुख हुमा अन्तिम । समयवर्ती सम्यग्मिथ्यादष्टि । यह मोहनीयकी सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा और जघन्य प्रदेश उदीरणाकेस्वामीका ज्ञान करानेवाला कोष्ठक है। इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि जो मोहनीयकी सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा करता है प्रायः वही उनको जघन्य प्रदेश उदीरणा करता है। यहाँ यद्यपि नो नोकषायोंकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाके स्वामी अलग-अलग जीवोंको बतलाया है किन्तु ऐसा भेद उनकी जघन्य प्रदेश उदीरणाके स्वामियोंमें दृष्टिगोचर नहीं होता, पर इससे उक्त सामान्य नियमको स्वीकार करनेमें इसलिए अन्तर नहीं पड़ता, कारण कि जिनके स्त्रीवेद आदि नोकषायोंकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा होती है उनके भी उन नोकषायोंकी जघन्य प्रदेश उदीरणा हो सकती है । इतना अवश्य है कि स्त्रीवेद आदि नोकषायोंकी जघन्य प्रदेश उदीरणा सर्व संक्लिष्ट या ईषत् मध्यम परिणामवाले संज्ञी मिथ्यादृष्टि अन्य जीवोंके भी हो सकती है । एक विशेषता तो यह है और दूसरो विशेषता यह है कि सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा सर्व संक्लिष्ट परिणाम वालेके हो होती है। जब कि जघन्य प्रदेश उदीरणा सर्व संक्लिष्ट परिणामवालेके होकर भी ईषत् मध्यम परिणामवालेके भी होती है। यह तो मोहनीयको सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा और जघन्य प्रदेश उदीरणाके अधिकारी प्रायः कैसे समान हैं इसका विचार है। अब मोहनीयको जघन्य अनुभाग उदीरणा और उत्कृष्ट प्रदेश उदोरणाके अधिकारी एक कैसे हैं इसका ज्ञान करानेके लिए दूसरा कोष्ठक देते हैंप्रकृति ज० अनु० उदीरणाका स्वामी उ० प्रदेश उदी० का स्वामी। मिथ्यात्व संयमके अभिमुख हुआ अन्तिम समय- संयमके अभिमुख हुआ अन्तिम समय वर्ती सर्वविशुद्ध मिथ्यादृष्टि। वर्ती मिथ्यादृष्टि । सम्यक्त्व जिसके दर्शनमोहनीयकी क्षपणामें एक | जिसके दर्शनमोहनीयकी क्षपणामें एक समय अधिक एक आवलिकाल शेष है | समय अधिक एक आवलिकाल शेष है वह। वह। सम्यग्मिथ्यात्व । सम्यक्त्वके अभिमुख हुआ अन्तिम समय- | सम्यक्त्वके अभिमुख हुआ अन्तिम समय | वर्ती सर्वविशुद्ध सम्यग्मिथ्यादृष्टि । वर्ती सर्वविशुद्ध सम्यग्मिथ्यादृष्टि । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [12] नेद अनन्तानुबन्धी ४ संयमके अभिमुख हुआ अन्तिम समय- | संयमके अभिमुख हुआ अन्तिम समय वर्ती सर्वविशुद्ध मिथ्यादृष्टि । वर्ती सर्वविशुद्ध मिथ्यादृष्टि । अप्रत्याख्यान ४ संयमके अभिमुख हुआ अन्तिम समय- | संयमके अभिमुख हुआ अन्तिम समयवर्ती सर्वविशुद्ध असंयतसम्यग्दृष्टि । वर्ती सर्वविशुद्ध या ईषत् मध्यम परि णामवाला असंयतसम्यग्दृष्टि।। प्रत्याख्यान ४ संयमके अभिमुख हुआ अन्तिम समय- संयमके अभिमुख हुआ अन्तिम समयवर्ती सर्वविशुद्ध संयतासंयत । वर्ती सर्वविशुद्ध या ईषत् मध्यम परि णामवाला संयतासंयत । संज्वलन ४ और तीन | अपने-अपने वेदककालमें एक समय | अपने-अपने वेदककालमें एक समय अधिक एक अवलिकाल शेष रहने पर | अधिक एक आवलि काल शेष रहने पर क्षपकके । क्षपकके। छह नोकषाय क्षपक अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें। |क्षपक अपर्वकरणके अन्तिम समयमें । ओधसे यह मोहनीयकी सब प्रकृतियोंको जघन्य अनुभाग उदीरणा और उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाके अधिकारीका ज्ञान करानेवाला कोष्ठक है। इससे यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि जिस अवस्थासे युक्त जो-जो जीव मोहनीयकी मिथ्यात्व आदि प्रकृतियोंकी जघन्य अनुभाग उदीरणा करता है उसी अवस्थासे युक्त वहो वही जीव उनकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है। इस तथ्यको ठीक तरहसे समझनेके लिए उपशमना प्रकरण और क्षपणा प्रकरण पर सम्यकपसे दृष्टिपात करना चाहिए। वहाँ बतलाया है कि अपूर्वकरणके प्रथम समयसे ही स्थितिकाण्डकघात, अप्रशस्त कर्मोका अनुभागकाण्डकघात, गुणश्रेणि और गुणसंक्रम ये चार विशेषताएं प्रारम्भ हो जाती है। ये विशेषताएं आगे भी चालू रहती है । इससे स्पष्ट है कि प्रत्येक समयमें वहाँ अप्रशस्त कर्मोकी अनुभाग उदीरणा उत्तरोत्तर कम होती जाती है और प्रदेश उदीरणा बढ़ती जाती है। यही कारण है कि मिथ्यात्व आदि कर्मोकी जघन्य अनुभाग उदीरणाका जो जीव स्वामी होता है वही जीव उनको उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका भी स्वामी होता है। अर्थात् जो जीव मिथ्यात्व या अन्य कर्मको जघन्य अनुभाग उदीरणा करता है वही जीव उस कर्मको उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा भी करता है । यह नियम मोहनीयके सब अवान्तर भेदों पर लागू होता है। __ यह तो अनुभाग उदीरणा और प्रदेश उदीरणाके सम्बन्धका विचार है। किन्तु मोहनीयके सब अवान्तर भेदोंकी उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति उदीरणाका विचार भिन्न प्रकारका है। बात यह है कि जिनकी बन्धसे उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती है उनकी तो उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होनेके एक आवलि बाद उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा होती है और जो संक्रमसे उत्कृष्ट स्थितिवाली प्रकृतियाँ हैं उनकी संक्रमसे अपने-अपने योग्य उत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त होनेके एक आवलि बाद उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा सम्भव है । मात्र सम्यकत्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा ऐसे वेदक सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिके होती है जो मिथ्यादृष्टि मिथ्यात्वका उत्कृष्ट बन्ध कर उसका घात किये बिना अन्तर्मुहर्तमें वेदक सम्यग्दृष्टि हो जाता है उसके दूसरे समयमें सम्यकत्वकी और उसीके अन्तर्मुहर्तमें सम्यग्मिथ्यादृष्टि हो जाने पर सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा होती है। यह सब प्रकृतियोंको उत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका विचार है। जघन्य स्थिति उदीरणाके विषयमें ऐसा समझना चाहिए कि अनन्तानुबन्धी आदि बारह कषाय और छह नोकषाय इनकी जघन्य स्थिति उदीरणा एकेन्द्रिय जीवोंमें ही सम्भव है, अन्यत्र नहीं। कारण कि इनके उदयके साथ इनकी जघन्य स्थिति वहीं पर सम्भव है, अन्यत्र नहीं । मिथ्यात्व, सम्यकत्व, तीन वेद और चार संज्वलन इन कर्मोंकी जघन्य स्थिति उदीरणा एक स्थितिवाली यथासम्भव उपशमना या क्षपणाके समय बन जाती है। मात्र सम्यग्मिथ्यात्वको जघन्य स्थिति उदीरणा ऐसे सम्थग्मिथ्यादष्टिके बनती है जो मिथ्यादष्टि वेदक-प्रायोग्य जघन्य स्थिति सत्कर्मके साथ सम्यग्मिथ्यादृष्टि होकर उसके अन्तिम समयमें अवस्थित है। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [13] इस तुलनासे ज्ञात होता है कि उक्त प्रकारसे जो जीव मिथ्यात्व, तीन वेद और चार संज्वलनोंकी जघन्य अनुभाग उदीरणाका और उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका स्वामी है वह तो इनकी जघन्य स्थिति उदीरणाका स्वामी हो ही सकता है, साथ ही अन्य प्रकारसे भी इन प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति उदीरणा बन जाती है। पात्र सम्यकत्वकी जघन्य स्थिति उदीरणाका वही जीव स्वामी है जो इसकी जघन्य अनुभाग उदीरणा और उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका स्वामी है। यह तुलनाके साथ सामान्यसे स्वामित्वका विचार है। इसी प्रकार अन्य सब प्ररूपणाका विचार कर लेना चाहिए। उसका विशेष विचार उस उस अनुयोगद्वारमें किया ही है, इसलिए यहां अलगसे ऊहापोह नहीं किया गया है। ७. चूलिका कषायप्राभृतमें इस चूलिका अधिकारके पूर्व तक विभक्ति, संक्रम और वेदक इन महाधिकारोंका विवेचन हुआ है । इस चूलिका अधिकारका इन तीनोंसे सम्वन्ध है । इसमें मोहनीयको २८ प्रकृतियोंके उदय, उदीरणा, बन्ध, संक्रम और सत्त्व इन पांच पदोंका अवलम्बन लेकर अल्पबहुत्वका सविस्तर विचार किया गया है। यहाँ अन्य सब कथन तो सुगम है। मात्र उक्त पांच पदोंके आश्रयसे जघन्य स्थिति अल्पबहुत्वका विचार करते हुए जो यत्स्थितिका निरूपण हुआ है वह अवश्य ही विचारणीय है। स्थिति दो प्रकारको हैएक निषेकस्थिति और दूसरी कालस्थिति । कालकी अपेक्षा जहाँ जिस कर्मको जो जघन्य स्थिति प्राप्त होती है उसकी यत्स्थिति संज्ञा है और वहां जितने निषेक हों तत्प्रमाण स्थिति ही निषेकस्थिति जाननी चाहिए । इस विषयका विशेष खुलासा हमने यथास्थान किया ही है । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय १. अनुभाग उदीरणा अनुभाग उदीरणा मूल गाथासूत्रानुसारी है इसकी सूचना पूर्वक उसके कथनकी प्रतिज्ञा अन्य विषय में अर्थ पदका निर्देश अनुभाग प्ररूपणाका स्वरूप निर्देश उसके समर्थन में आगमप्रमाण २. मूलप्रकृति अनुभाग उदीरणा मूलप्रकृति अनुभाग उदीरणामें २३ अनुयोगद्वारोंकी सूचना संज्ञाके दो भेदोंका निर्देश घाति संज्ञा के दो भेद ३ जघन्य अतिस्थापना और जघन्य निक्षेपप्रमाण स्पर्धकोंका अपकर्षण नहीं होता इस बातका निर्देश शेष सब स्पर्धकोंका अपकर्षण होता है, इसका निर्देश ३ अनुभाग उदीरणाके दो भेदों का निर्देश ४ उत्कृष्ट घातिसंज्ञा जघन्य घातिसंज्ञा स्थान संज्ञाके दो भेद उत्कृष्ट स्थान संज्ञा जघन्य स्थान संज्ञा सर्व उदीरणा-नो सर्वउदीरणा सादी आदि ४ स्वामित्व - उत्कृष्ट और जघन्य एक जीव की अपेक्षा काल उत्कृष्ट और जघन्य एक जीवकी अपेक्षा अन्तर- उत्कृष्ट और जघन्य नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय भागाभागानुगम परिमाण - उत्कृष्ट और जघन्य क्षेत्र - उत्कृष्ट और जघन्य स्पर्शन• उत्कृष्ट और जघन्य काल- उत्कृष्ट और जघन्य अन्तर- उत्कृष्ट और जघन्य भावानुगम अल्पबहुत्व- उत्कृष्ट और जघन्य भुजगार १३ अनुयोगद्वारोंकी सूचना समुत्कीर्तना स्वामित्व [ 14 ] विषय-सूची एक जीवकी अपेक्षा काल एक जीवकी अपेक्षा अन्तर पृष्ठ १. २ २ २ ४ ४ ४ ४ ५ ५ ५ ५ ६ ६ ७ ८ १० १३ १३ १४ १४ १५ १८ १९ १९. २० २० २० २० २१ २१ नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय भागाभाग परिमाण क्षेत्र स्पर्शन काल अन्तर भाव अल्पबहुत्व ३ अनुयोगद्वारोंकी सूचना समुत्कीर्तना- उत्कृष्ट और अघन्य स्वामित्व - उत्कृष्ट और जघन्य अल्पबहुत्व - उत्कृष्ट और जघन्य वृद्धि १३ अनुयोगद्वारोंकी सूचना समुत्कीर्तना स्वामित्व काल अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय भागाभाग परिमाण क्षेत्र स्पर्शन निक्षेप काल अन्तर भाव अल्पबहुत्व अनुभाग उदीरणास्थान ३. उत्तर प्रकृति अनुभाग उदीरणा उसमें २४ अनुयोगद्वार और भुजगार आदि की सूचना संज्ञा उसके दो भेद दोनो संज्ञाओंका एक साथ सकारण निरूपण सर्व नोसर्व उदीरणा उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट उदीरणा जघन्य - अजघन्य उदीरणा सादि आदि ४ * * x x x 2 2 2. २३ २३ २४ २४ २४ २५ २६ २७ 2228 २७ २७ २७ २९ 생생생생 생 ३० ३० ३२ ३२ ३३ ३३ ३३ ३४ ३५ ३५ ३५ ३६ ३६ ३७ ३७ ४५ ४५ ४५ ४५ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामित्व - उत्कृष्ट और जघन्य उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मवाले और अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मवाले दोनोंके होती है इसका ऊहापोह सर्वत्र उत्कृष्ट संक्लेशसे बहुत अनुभागकी हानि नहीं होती उसका खुलासा मनुष्यगति और देवगतिमें उत्कृष्ट वेदरूप संक्लेश नहीं होता इसका सप्रमाण समर्थन सम्यग्मिध्यादृष्टि संयमको सीधा प्राप्त नहीं होता इसका सप्रमाण समर्थन एक जीवकी अपेक्षाकाल - उत्कृष्ट और जघन्य अनुभागबन्धाध्यवसाय स्थानोंकी दृष्टिसे उत्कृष्ट संक्लेशसे च्युत हुआ जीव एक समयके अन्तरसे पुनः उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला हो सकता है इसका सप्रमाण समर्थन एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल- उत्कृष्ट और जघन्य नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय आदि शेष अनुयोगद्वारोंके कथन करनेकी चूर्णिसूत्र द्वारा मात्र सूचना नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय- उत्कृष्ट और जघन्य भागाभाग - उत्कृष्ट और जघन्य परिमाण - उत्कृष्ट और जघन्य क्षेत्र - उत्कृष्ट और जघन्य स्पर्शन - उत्कृष्ट और जघन्य काल- उत्कृष्ट और जघन्य अन्तरकाल - उत्कृष्ट और जघन्य सन्निकर्ष - उत्कृष्ट और जघन्य अल्पबहुत्व- उत्कृष्ट और जघन्य भुजगार भुजगारके विषयमें १३ अनुयोगद्वारोंकी सूचना समुत्कीर्तना स्वामित्व एक जीवकी अपेक्षा काल एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय भागाभाग परिमाण क्षेत्र स्पर्शन काल अन्तरकाल ४६ ४७ ४९ ५१ ५४ ६२ ६५ ७४ ८७ ८७ ८८ ८९ ९१ ९१ ९८ १०१ १०५ १२३ १३५ १३५ १३६ १३७ १३८ १४६ १४५ १४५ १४६ १४६ १४९ १५१ [15] भाव अल्पबहुत्व पदनिक्षेप पदनिक्षेपके विषय में ३ अनुयोगद्वारों की सूचना १५५ समुत्कीर्तना- उत्कृष्ट और जघन्य स्वामित्व - उत्कृष्ट और जघन्य १५५ १५६ अल्पबहुत्व- उत्कृष्ट और जघन्य १६२ वृद्धि इसमें १३ अनुयोगद्वारोंकी सूचना समुत्कीर्तना स्वामित्व एक जीवकी अपेक्षा काल एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नाना जीवों की अपेक्षा भंग विचय भागाभाग परिमाण क्षेत्र स्पर्शन काल अन्तरकाल भाव अल्पबहुत्व स्थानप्ररूपणा ४. प्रदेश उदीरणा प्रदेश उदीरणाके दो भेद मूलप्रदेश उदीरणा मूल प्रकृति प्रदेश उदीरणाके २३ अनुयोगद्वारोंकी सूचना समुत्कीर्तना- उत्कृष्ट, जघन्य सर्व नोसर्व उदीरणा उत्कृष्ट- अनुत्कृष्ट उदीरणा जघन्य - अजघन्य उदीरणा सादि आदि ४ स्वामित्व - उत्कृष्ट, जघन्य काल- उत्कृष्ट, जघन्य अन्तर- उत्कृष्ट, जघन्य नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय १५३ १५३ उत्कृष्ट, जघन्य भागाभाग - उत्कृष्ट, जघन्य परिमाण- उत्कृष्ट, जघन्य १६३ १६३ १६४ १६५ १६६ १६८ १६९ १७० १७० १७० १७३ १७५ १७७ १७७ १८० १८१ १८१ १८१ १८२ १८२ १८२ १८२ १८३ १८४ १८७ १९० १९१ १९२ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [16] १९३ १९४ २७० २७४ २८८ १९७ १९८ २०० २०० क्षेत्र- उत्कृष्ट, जघन्य स्पर्शन- उत्कृष्ट, जघन्य काल- उत्कृष्ट, जघन्य अन्तर- उत्कृष्ट, जघन्य भाव अल्पबहुत्व उत्कृष्ट, जघन्य भुजगारप्रदेश उदीरणा १३ अनुयोग द्वारोंकी सूचना समुत्कीर्तना स्वामित्व एक जीवकी अपेक्षा काल एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय भागाभाग परिमाण 900 २०० अन्तर उत्कृष्ट, जघन्य सन्निकर्ष उत्कृष्ट, जघन्य भाव अल्पबहुत्व उत्कृष्ट, जघन्य चूर्णिसूत्र और उच्चारणामें आनेवाले मतभेदका समाधान . भुजगारप्रदेश उदीरणा समुत्कीर्तना स्वामित्व एक जीवोंकी अपेक्षा काल एक जीवोंकी अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय भागाभाग परिमाण क्षेत्र- स्पर्शके जानेकी सूचना काल अन्तर ३०२ ३०३ २०१ २०२ ३०९ ३१० २०४ ३११ २०४ २०५ २०५ २०६ २०६ २०७ भाव ३१६ ३१६ ३१७ २०७ २०८ ३१८ २०८ २०८ २०९ अल्पबहुत्व पदनिक्षेप और वृद्धिके जाननेकी सूचना वेदक अनुयोगद्वारकी दूसरी गाथाके उत्तरार्धका विषयनिर्देश वेदक अनुयोगद्वार की तृतीय गाथा भुजागार उदीरणासे प्रतिबद्ध है इसकी सूचना वेदक अनुयोगद्वारकी चौथी गाथा का विषयनिर्देश बन्धादि पाँच पदोंके प्रकृति आदि चारकी अपेक्षा उत्कृष्टका उत्कृष्टके साथ और जघन्यका जघन्यके साथ अल्पबहुत्वसूचन प्रकृति की अपेक्षा बन्धादि पाँच पदोंका अल्पबहुत्व स्थिति की अपेक्षा बन्धादि पाँच पदोंका अल्पबहुत्व अनुभागकी अपेक्षा बन्धादि पाँच पदोंका अल्पबहुत्व उत्कृष्ट जघन्य प्रदेशोंकी अपेक्षा पाँच पदोंका अल्पबहुत्व ३२१ स्पर्शन काल अन्तर भाव अल्पबहुत्व - पदनिक्षेप और वृद्धि को जाननेकी सूचना उत्तरप्रदेश उदीरणा समुत्कीर्तनादि २४ अनुयोगद्वारोंकी सूचना समुत्कीर्तना- उत्कृष्ट जघन्य सर्वउदीरणा आदि ६ अनुयोगद्वारोंके जाननेकी सामान्य सूचना सादि आदि ४ अनुयोग द्वार स्वामित्व- उत्कृष्ट, जघन्य एक जीवकी अपेक्षा काल उत्कृष्ट, जघन्य एक जीवकी अपेक्षा अन्तर उत्कृष्ट, जघन्य नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय उत्कृष्ट, जघन्य भागाभाग उत्कृष्ट, जघन्य परिमाण उत्कृष्ट, जघन्य क्षेत्र उत्कृष्ट, जघन्य स्पर्शन उत्कृष्ट, जधन्य काल उत्कृष्ट, जघन्य २०२ ३२२ ३२४ २३९ ३३९ ३४१ ३४८ २५४ २५४ २५५ २५७ २५७ २६६ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि-जइवसहाइरियविरइय-चुण्णिसुत्तसमण्णिदं सिरि-भगवंतगुरगहरभडारोवइलैं क सा य पा हु डं तस्स सिरि-वीरसेणाइरियविरइया टोका जयधवला तत्थ वेदगो णाम सत्तमो अत्याहियारो + 8:+ * 'को व केय अणुभागे ति अणुभागउदीरणा कायध्वा । १. को व केय अणुभागे ति वेदगमहाहियारपडिबद्धविदियगाहाए विदिया * 'को व केय अणुभागे' इस सूत्र वचनके अनुसार अनुभाग उदीरणा का कथन करना चाहिए। १. 'को व केय अणुभागे' यह वेदक महाधिकारसे सम्बन्धित दूसरी गाथाका Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ वयवभूदं जमत्थपदं तमवलंवगं कादणाणुभागउदीरणा इदाणि विहासियव्वा त्ति भणिदं होइ । संपहि अणुभागुदीरणाए सरूवविसेसजाणावणट्ठमट्ठपदं परूवेमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ * तत्थ अट्ठपदं। २. तत्थाणुभागुदीरणावसरे अट्ठपदं ताव कस्सामो। किमट्टपदं णाम ? जत्तो सोदाराणं पयदत्थविसए सम्ममवगमो समुप्पज्जइ तमट्ठस्स वाचयं पदमट्ठपदमिदि भण्णदे। * तं जहा। * अणुभागा पयोगेण ओकड्डियूण उदये दिज्जति सा उदीरणा। $ ३. एदस्स सुत्तस्स अत्थो वुच्चदे—अणुभागा मूलुत्तरपयडीणमणंतभेयभिण्णफद्दयवग्गणाविभागपलिच्छेदसरूवा पयोगेण परिणामविसेसेण ओकट्टियूण अणंतगुणहीणसरूवेण जमुदए दिज्जति सा उदीरणा णाम | कुदो ? 'अपक्वपाचनमुदीरणे त्ति' वचनात् । तदो अणुभागुदीरणा ओकड्डणाविणाभाविणि त्ति कट्ट ओकड्डणाविसयमेत्थ किंचि अत्थपदं परूवेमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ दूसरा अवयवभूत अर्थपद है। उसका अवलम्बन कर इस समय अनुभाग उदीरणाका व्याख्यान करना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब अनुभाग उदीरणा के स्वरूप विशेषका ज्ञान करानेके लिए अर्थपद की प्ररूपणा करते हुए आगेके सूत्र प्रबन्धको कहते हैं * उस विषयमें यह अर्थपद है। $ २. वहाँ अनुभाग उदीरणाके अवसर पर सर्वप्रथम अर्थपदका कथन करते हैं। शंका-अर्थपद किसे कहते हैं ? समाधान--जिससे श्रोताओंको प्रकृत अर्थके विषयमें सम्यक् ज्ञान उत्पन्न होता है अर्थके वाचक उस पदको अर्थपद कहते हैं। * यथा* प्रयोगवश अनुभाग अपकर्षित कर उदयमें दिये जाते हैं वह उदीरणा है। ३. अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं-मूल और उत्तर प्रकृतियोंके अनन्त भेदोंको प्राप्त स्पर्धक, वर्गणा और अविभागप्रतिच्छेदस्वरूप अनुभाग प्रयोग वश अर्थात् परिणाम विशेषके कारण अपकर्षित कर अनन्तगुण हीनरूपसे जो उदयमें दिये जाते हैं उसकी उदीरणा संज्ञा है, क्योंकि अपक्वपाचनको उदीरणा कहते हैं ऐसा आगमवचन है । इसलिए अनुभाग उदीरणा अपकर्षणकी अविनाभाविनी है 'ऐसा समझकर यहाँ अपकर्षणाविषयक थोड़ेसे अर्थपदका प्ररूपण करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलपयडिअणुभाग उदीरणा * तत्थ जं जिस्से आदिफद्दयं तं ण ओकड्डिज्जदि । $ ४. कुदो ? तत्तो ट्ठा अणुभागफद्दयाणमसंभवादो । * एवमताणि फद्दयाणि ण ओकडिज्जति । ९५. कुदो ? णिरुद्धफद्दयादो हेट्ठा जहण्णा इच्छावणा-णिक्खेवमेत्तफहएहिं विणा ओकडणाए संभवाणुवलंभादो । * केत्तियाणि ? जत्तिगो जहण्णगो णिक्खेवो जहरिणा च अइच्छावणा तत्तिगाणि । गा० ६२ ] $ ६. अनंताणि फहयाणि ण ओकडिज्जति त्ति पुव्वसुत्ते परूविदं । तांणि केत्तियाणि त्ति पुच्छिदे जहण्णाइच्छावणा-णिक्खेवमेत्ताणि त्ति तेसिं पमाणणिदेसो कदो । एवमेदेण सुत्तेण जहण्णाइच्छावणा-णिक्खेवमेत्ताणं फहयाणमोकडणा णत्थि ति पदुपाहय संपहि एत्तो उवरिमफद एस ओकडणाए पडिसेहो णत्थि त्ति पदुप्पायणमुत्तरं सुत्तमाह * आदीदो पहुडि एत्तियमेत्ताणि फद्दयाणि अइच्छिण तं फद्दयमोडज्जदि । * वहाँ जो जिस कर्म प्रकृतिका आदि स्पर्धक है उसका अपकर्षण नहीं होता । $ ४. क्योंकि उससे नीचे अनुभाग स्पर्धकोंका होना असम्भव है । * इसी प्रकार अनन्त स्पर्धक नहीं अपकर्षित होते । $ ५. क्योंकि विवक्षित स्पर्धकसे नीचे जघन्य अतिस्थापना और जघन्य निक्षेपमात्र स्पर्धकोंके बिना अपकर्षण होना सम्भव नहीं है । * वे (अपकर्षणके अयोग्य स्पर्धक ) कितने हैं ? जितना जघन्य निक्षेप है और जघन्य अति स्थापना है उतने हैं । ६. अनन्त स्पर्धक नहीं अपकर्षित होते हैं यह पूर्व सूत्रमें कहा है । वे कितने हैं ऐसा पूछने पर वे जघन्य अतिस्थापना और जघन्य निक्षेप प्रमाण हैं, इस प्रकार इस सूत्र द्वारा उनका प्रमाणनिर्देश किया है। इस प्रकार इस सूत्रद्वारा जघन्य अतिस्थापना और जघन्य निक्षेपप्रमाण स्पर्धकोंका अपकर्षण नहीं होता ऐसा कथन करके अब इनसे ऊपर के स्पर्धकोंमें अपकर्षणका प्रतिषेध नहीं है इसका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * आदि स्पर्धकसे लेकर इतने स्पर्धकोंको उल्लंघन कर जो स्पर्धक है उसका अपकर्षण होता है । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ ७. सुगम * तेण परमपडिसिद्धम् । $८. सुगम * एदेण अट्ठपदेण अणुभागुदीरणा दुविहा-मूलपयडिअणुभागउदीरणा च उत्तरपयडिअणुभागउदीरणा च । ६९. एदेणाणंतरपरूविदेण अद्रुपदेण जा अणुभागउदीरणा अहिकीरदे सा दुविहा होइ मूलुत्तरपयडिविसयाणुभागुदीरणाभेदेण । तत्थ ताव मूलपयडिअणुभागुदीरणा पुव्वं विहासियव्वा त्ति परूवणमुत्तरसुत्तमाह * एत्थ मूलपयडिअणुभागउदीरणा भाणियब्वा।। ६ १०. संखेवरुइसत्ताणुग्गहट्टमेदं सुत्तं पयट्टं । तदो एदस्स वित्थारपरूवणमुच्चारणाइरियोवएसबलेण पयासहस्सामो । सं जहा-मूलपयडिअणुभागुदीरणाए तत्थ इमाणि तेवीसमणियोगद्दाराणि-सण्णा सव्वुदीरणा जाव अप्पाबहुए त्ति । भुजगारो पदणिक्खेवो वड्डिउदीरणा चेदि । ११. तत्थ सण्णा दुविहा-घादिसण्णा ठाणसण्णा च । घादिसण्णा दुविहा-जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० उक्क० $ ७. यह सूत्र सुगम है। * उससे आगे प्रतिषेध नहीं है। $ ८. यह सूत्र सुगम है। * इस अर्थपदके अनुसार अनुभाग उदीरणा दो प्रकारकी है-मूल प्रकृति अनुभाग उदीरणा और उत्तर प्रकृति अनुभाग उदीरणा । .. ९. पूर्व में कथित इस अर्थपदके द्वारा जो अनुभाग उदीरणा अधिकृत की गई है वह मूल और उत्तर प्रकृतिविषयक अनुभाग उदीरणाके भेदसे दो प्रकारकी है। उसमें सर्वप्रथम मूल प्रकृति अनुभाग उदीरणाका व्याख्यान करना चाहिए इसका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं___* यहाँ मूल प्रकृति अनुभाग उदीरणा का व्याख्यान करना चाहिए । १०. संक्षेप रुचिवाले जीवोंका अनुग्रह करनेके लिए यह सूत्र प्रवृत्त हुआ है । इसलिए इसका विस्तारसे कथन करनेके लिए उच्चारणाचार्यके उपदेशके बलसे उसका प्रकाशन करते हैं । यथा-मूल प्रकृति अनुभाग उदीरणाके विषयमें ये २३ अनुयोगद्वार हैं-संज्ञासे लेकर अल्पबहुत्वतक तथा भुजगार, पदनिक्षेप और वृद्धि उदीरणा। ११. उनमें से संज्ञा दो प्रकार की है-घाति संज्ञा और स्थान संज्ञा। घातिसंज्ञा दो प्रकारकी है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्ट का प्रकरण है-निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] मूलपयडिअणुभाग उदीरणा सव्वघादी । अणुक्क० सव्वघादी वा देसघादी वा । एवं मणुसतिए । सेसगदीसु उक्क० अणुक्क० सव्वघादी । एवं जाव० । १२. जहण्णए पयदं । दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० जह० अणुभागुदी० देसघादी० । अजह० देसघादी वा सव्वधादी वा । एवं मणुसतिए । सेसगदीसु जह० अजह० अणुभागुदी० सव्वघादी । एवं जाव० ।। १३. ठाणसण्णा दुविहा-जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० उक्क० अणुभागुदी० चउट्ठाणिया । अणुक्क ० चउट्ठाणिया वा तिहाणिया० दुट्ठाणिया० एयवाणिया वा । एवं मणुसतिए । आदेसेण णेरइय० मोह० उक्क० अणुभागुदी० चउट्ठाणिया । अणुक० अणुभागु० चउट्ठा० तिहाणिया० विट्ठाणिया वा । एवं सव्वणेरइय-सव्वतिरिक्ख-मणुसअपज०-देवा भवणादि जाव सहस्सारा त्ति । आणदादि सव्वट्ठा ति मोह० उक्क० अणुक्क ० अणुभागुदी० विट्ठाणिया । एवं जाव। $ १४. जहण्णए पयदं। दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० जह० अणुभागुदी० एगट्ठाणिया। अजह० एगट्ठा० बिट्ठा. तिट्ठा० चउट्ठाणिया आदेश । ओघसे मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा सर्वघाति है। अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा सर्वघाति है और देशघाति है। इसीप्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। शेष गतियोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा सर्वघाति है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ६ १२. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभाग उदीरणा देशघाति है । अजघन्य अनुभाग उदीरणा देशघाति है और सर्वघाति है । इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। शेष गतियोंमें जघन्य और अजघन्य अनुभाग उदीरणा सर्वघाति है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ६ १३. स्थानसंज्ञा दो प्रकारकी है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा चतुःस्थानीय है। अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा चतुःस्थानीय है, त्रिस्थानीय है, द्विस्थानीय है और एकस्थानीय है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा चतुःस्थानीय है । अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा चतुःस्थानीय है, त्रिस्थानीय है और द्विस्थानीय है । इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें जानना चाहिए। आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरण द्विस्थानीय है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ...$ १४. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीय कर्मकी जघन्य अनुभाग उदीरणा एकस्थानीय है। अजघन्य अनुभाग उदीरणा Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ वा । एवं मणुसतिए । आदेसेण णेर० मोह० जह० विट्ठाणि । अजह० बिट्ठाणि. तिट्ठा० चउट्ठा० । एवं सव्वणेरइय-सव्वतिरिक्ख-मणुस-अपज्ज०-देवा भवणादि जाव सहस्सारा त्ति । आणदादि सव्वट्ठा त्ति जह० अजह० अणुभागुदी० बिट्ठाणिया । एवं जाव०। १५. सव्वुदीरणा-णोसव्वुदीरणा उक्क० उदी० अमुक्क० उदी० जह० उदी० अजह० उदी० अणुभागविहत्तिभंगो। १६. सादि०-अणादि०-धुव०-अद्धवाणु० दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण उक्क० अणुक्क० जह० अणुभागुदी० किं सादि० ४ १ सादि० अद्भुवा । अजह० अणुभागु० किं सादि ४ १ सादिया वा अणादिया वा धुवा वा अद्भुवा वा । आदेसेण सव्वगदीसु उक्क. अणुक्क० जह० अजह• अणुभागुदी० किं सादि० ४ १ सादि० अद्धवा० । एवं जाव०।। एकस्थानीय है, द्विस्थानीय है, त्रिस्थानीय है और चतुःस्थानीय है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। आदेशसे नारकियोंमें मोहनीय कर्मको जघन्य अनुभाग उदीरणा द्विस्थानीय है । अजघन्य अनुभाग उदीरणा द्विस्थानीय है, त्रिस्थानीय है और चतुःस्थानीय है। इसी प्रकार सब नारको, सब तिर्यश्च, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें जानना चाहिए। आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें जघन्य और अजघन्य अनुभाग उदीरणा द्विस्थानीय है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। $ १५. सर्वउदीरणा और नोसर्व अनुभाग उदीरणाकी अपेक्षा उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा, अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा और अजघन्य अनुभाग उदीरणाका भंग अनुभाग विभक्ति के समान है। $ १६. सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रु व अनुभाग उदीरणाकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य अनुभाग उदीरणा क्या सादि है, अनादि है, ध्रुव है या अध्रव है ? सादि और अध्रुव है। अजघन्य अनुभाग उदीरणा क्या सादि है, अनादि है, ध्रुव है या अध्रुव है ? सादि है, अनादि है, ध्रुव है और अध्रुव है । आदेशसे सब गतियोंमें उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य अनुभाग उदीरणा क्या सादि है, अनादि है, ध्रुव है या अध्रुव है ?. सादि औरअ ध्रुव है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। . विशेषार्थ--उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मवाला जो जीव उत्कृष्ट संक्लेश परिणामसे मोहनीय की अनुभाग उदोरणा कर रहा है उसके उस समय मोहनीयको उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा होती है । यतः यह कादाचित्क है, इसलिए इसे तथा इस पूर्वक होनेवाली अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाको ओघसे सादि और अध्र व कहा है। क्षपकौणिमें सकषाय जीवके एक समय अधिक एक आवलि काल शेष रहने पर मोहनीयकी जघन्य अनुभाग उदीरणा होतो है, इसलिए ओघसे इसे भी सादि और अध्रुव कहा है। किन्तु इसके पूर्व एक तो अनादि कालसे अजघन्य अनुभाग उदोरणा पाई जाती है। दूसरे उपशमश्रेणिसे गिरनेवाले जीवके वह सादि Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] मूलपयडिअणुभाग उदीरणाए सामित्त $ १७. सामित्ताणु० दुविहो०-जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णिओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० उक्क० अणुभागुदी० कस्स ? अण्णद० उक्कस्साणुभागसंतकम्मियस्स उक्कस्ससंकिलिट्ठस्स तस्स उक्क० अणुभागुदी० । एवं चदुगदीसु । णवरि पंचिं०-तिरिक्खअपज्ज०-मणुसअपज्ज० मोह० उक्क० अणुभागुदी० कस्स ? अण्णद० मणुसस्स वा मणुसिणीए वा पंचिं० तिरिक्खजोणियस्स वा उक्कस्साणुभागं बंधिऊण अपज्जत्तएसु उवज्जिय तप्पाओग्गसंकिलिट्ठस्स । आणदादि उवरिमगेवजा त्ति मोह० उक्क० अणुभागुदी० कस्स ? अण्णद० जो दव्यलिंगी तप्पाओग्गउक्कस्साणुभागसंतकम्मिओ अप्पप्पणो देवेसु उववजिऊण तप्पाओग्गसंकिलिट्ठो जादो तस्स । अणुद्दिसादि सव्वट्ठा ति मोह उक्क० अणुभागुदी० कस्स ? अण्ण० जो वेदयसम्माइट्ठी तप्पाओग्गउक्कस्साणुभागसंतकम्मिओ अप्पप्पणो देवेसु उववण्णो तस्स तप्पाओग्गसंकिलिट्ठस्स । एवं जाव० । १८. जहण्णए पयदं । दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० जहण्णाणु-भागुदी० कस्स० ? अण्णद० खवगस्स समयाहियावलियसकसायिस्स । होती है। साथ ही अभव्योंके ध्रुव और भव्योंके वह अध्रुव होती है, इसलिए ओघसे मोहनीयकी अजघन्य अनुभाग उदीरणा सादि, अनादि, ध्रुव और अध्र व चारों प्रकारकी कही है । शेष कथन सुगम है। ___१७. स्वामित्वानुयोगद्वार दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? जो अन्यतर उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मवाला जीव उत्कृष्ट संक्लेशसे युक्त है उसके मोहनीयकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा होती है। इसी प्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मोहनीय कर्मको उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? जो अन्यतर मनुष्य या मनुष्यिनी या पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिक जीव उत्कृष्ट अनुभाग बाँधकर अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न हो तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामोंसे युक्त है उसके मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा होती है । आनत कल्पसे लेकर उपरिम वेयक तकके देवोंमें मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मवाला जो अन्यतर जीव अपनेअपने योग्य देवोंमें उत्पन्न होकर तत्प्रायोग्य संक्लेशपरिणामोंसे यु है उसके मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा होती है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवों में मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मवाला जो अन्यतर वेदकसम्यग्दृष्टि जीव अपने-अपने योग्य देवोंमें उत्पन्न हुआ तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाले उस जीवके मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा होती है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। १८. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीय कर्मकी जघन्य अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? जिस सकषाय जीवके क्षपक Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ एवं मणुसतिए । आदेसेण रइय० मोह० जह० अणुभागुदी० कस्स० १ अण्णद० सम्माइट्ठिस्स सव्वविसुद्धस्स । एवं सव्वणेरइय-सव्वदेवाणं । तिरिक्खेसु मोह० जह० अणुभागुदी० कस्स० ? अण्णद० संजदासंजदस्स सव्वविसुद्धस्स । एवं पंचिंदियतिरिक्खतिए । पंचि० तिरिक्खअपज्ज०-मणुसअपज्ज० मोह० जह• अणुभागुदी. कस्स० ? अण्णद० तप्पाओग्गविसुद्धस्स । एवं जाव० । $ १९. कालो दुविहो-जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० उक्क० अणुभागुदी० केव० ? जह० एगस०, उक्क० बेसमया । अणुक्क० जह० एगस० उक्क० अणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । एवं तिरिक्खा । अं णिमें एक समय अधिक एक आवलिकाल शेष है उस अन्यतर जीवके मोहनीय कर्मकी जघन्य अनुभाग उदीरणा होती है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। आदेशसे नारकियोंमें मोहनीय कर्मकी जघन्य अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि सर्वविशुद्ध नारकीके होती है। इसी प्रकार सब नारकी और सब देवोंमें जानना चाहिए। तिर्यञ्चोंमें मोहनीय कर्मको जघन्य अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? अन्यतर संयतासंयत सर्वविशुद्ध तिर्यञ्चके होती है । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें जानना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मोहनीय कर्मकी जघन्य अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? अन्यतर तत्प्रायोग्य विशुद्ध उक्त जीवोंके होती है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए। १९. काल दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीय कर्मके उत्कृष्ट अनुभाग उदीरकका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनके बराबर है। इसी प्रकार तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। विशेषार्थ--उत्कृष्ट संक्लेशका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। इसलिए यहाँ मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय कहा है । अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाका जघन्य काल एक समय इसलिए है, क्योंकि जो जीव उत्कृष्ट अनुभागबन्धके योग्य उत्कृष्ट संक्लेश परिणामसे परिणमकर उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करके परिणाम वश एक समय तक अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा करता है उसके मोहनीय कर्मकी अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। यद्यपि उत्कृष्ट संक्लेशसे प्रतिभग्न हुआ जीव अन्तमुहूर्त हुए बिना पुनः उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त नहीं होता ऐसा नियम है। परन्तु अनुभागबन्धाध्यवसान स्थानोंमें इस प्रकारका नियम नहीं है, इसलिए यहाँ अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाका जघन्य काल एक समय बन जाता है । इसका उत्कृष्टकाल असंख्यात पुद्गल परिवर्तनके बराबर अनन्त काल है यह स्पष्ट ही है, क्योंकि संज्ञी पञ्चेन्द्रियोंके योग्य उत्कृष्ट संक्लेशके विना इतने काल तक एकेन्द्रियोंमें परिभ्रमण देखा जाता है। तिर्यञ्चोंमें यह ओघप्ररूपणा अविकल घटित हो जाती है, इसलिए उनमें ओघके समान जाननेकी सूचना की है। आगे आदेशप्ररूपणाको भी उक्त नियमोंको ध्यानमें रखकर Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] मूलपयडिअणुभाग उदीरणाए कालो $ २०. आदेसेण णेरइय० मोह० उक्क० अणुभागु० जह० एयस०, उक्क० वे समया । अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमं । एवं सव्वणेरइय० । णवरि सगढिदो । पंचिदियतिरिक्खतिय-मणुसतियम्मि मोह. उक्क० अणुभागु० जह ० एयस०, उक्क० वे समया । अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० सगहिदी । पंचिंदियतिरिक्खअपज०-मणुसअपज्ज० मोह. उक्क० अणुभागुदी जह० एगस०, उक्क० बे समया । अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । देवेसु मोह० उक्क० जह० एगस० उक्क० बे समया । अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० । एवं सव्वदेवाणं । णवरि सगढिदी । एवं जाव । ६ २१. जह० पयदं । दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० जहण्णाणुभाग० जह० उक्क० एगस० । अजह० तिण्णि भंगा । जो सो सादिओ सपज्जवसिदो जह० अंतोमु० । उक्क० उवड्ढपोग्गल० । मणुसतिये मोह० जह० अणुभाग० जह० उक्क० एगस । अजह० जह० एग० उक्क० सगढिदी । सेसगदीसु घटित कर लेना चाहिए। मात्र अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाके उत्कृष्ट कालको अपनी-अपनी गतिके उत्कृष्ट कालको ध्यानमें रखकर घटित कर लेना चाहिए । अन्य कोई विशेषता न होनेसे यहाँ हम उसका अलगसे निर्देश नहीं कर रहे हैं। २०. आदेशसे नारकियोंमें मोहनीय कर्मके उत्कृष्ट अनुभाग उदीरकका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। इसी प्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। पञ्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिक और मनुष्यत्रिकमें मोहनीय कर्मके उत्कृष्ट अनुभाग उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरकका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल अपनी-अपनी स्थिति प्रमाण है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभाग उदीरकका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल दो समय है। अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। देवोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभाग उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। इसी प्रकार सब देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए । इसी प्रकार अनाहाक मार्गणा तक जानना चाहिए। २१. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मोहनीयके जघन्य अनुभाग उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य अनुभाग उदीरकके तीन भंग हैं। उनमेंसे जो सादि-सान्त भंग है उसका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्टकाल उपार्ध पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। मनुष्यत्रिकमें मोहनीयके जघन्य अनुभाग उदीरकका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है। अजघन्य अनुभ उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी स्थिति प्रमाण है। १ त० प्रतौ जह• उक्क० इति पाठः। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ उक्कस्सभंगो । एवं जाव० । २२. अंतरं दुविहं-जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० उक्कस्साणुभागुदी. अंतरं जह० एगस०, उक्क. अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । अणुक्क० जह• एयस०, उक्क० अंतोमु० । शेषगतियोंमें उत्कृष्टके समान भंग है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ-मोहनीयकी जघन्य अनुभाग उदीरणा क्षपकौणिमें सकषाय भावके एक समय अधिक एक आवलि काल शेष रहने पर एक समय तक होती है, इसलिए इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। जो जीव उपशमश्रेणिपर आरोहणकर अन्तमुहूर्त कालके बाद पुनः क्षपकश्रेणिपर आरोहण करता है उसके मोहनीयकी अजघन्य अनुभाग उदीरणाका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त देखा जाता है और जो जीव उपशम श्रेणिसे उतरते हुए अजघन्य अनुभाग उदीरणाका प्रारम्भकर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन काल तक अजघन्य अनुभाग उदीरणा ही करता रहता है उसके कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन काल तक अजघन्य अनुभाग उदीरणा देखी जाती है, इसलिए ओघसे इसका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण कहा है। मनुष्यत्रिकमें मोहनीयकी जघन्य अनुभाग उदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट एक समय काल ओघके समान ही घटित कर लेना चाहिए। अजघन्य अनुभाग उदीरणाके कालमें विशेषता है। बात यह है कि मनुष्यत्रिकमें से कोई एक जीव उपशम श्रेणिपर चढ़ा। पुनः वहाँसे उतरते हुए एक समय तक उसने मोहनीय कर्मकी अजघन्य अनुभाग उदीरणा की। इसके बाद मर कर वह देव हो गया। इस प्रकार इस तथ्यको ध्यानमें रखकर मनुष्यत्रिकमें मोहनीयकी अजघन्य अनुभाग उदीरणाका जघन्य काल एक समय कहा। उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी स्थिति प्रमाण है यह स्पष्ट ही है। शेष गतियोंमें जैसे उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल घटित कर आये हैं उसी प्रकार जघन्य और अजघन्य अनुभाग उदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल घटित कर लेना चाहिए। २२. अन्तर दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभाग उदीरकका जघन्य अन्तर काल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर काल अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनके बराबर है। अनुत्कृष्ट अनुभागउदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है। विशेषार्थ—पहले ओघसे मोहनीयकी अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाका जो जघन्य और उत्कृष्ट काल बतला आये हैं वही यहाँ उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाका क्रमसे जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल जानना चाहिए। तथा ओघसे मोहनीयकी अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा अपने स्वामित्वको देखते हुए कमसे कम एक समयके अन्तरसे और अधिकसे अधिक अन्तमुहूर्त कालके अन्तरसे हो यह सम्भव है, इसलिए यहाँ उसका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है। खुलासा इस प्रकार है कि मोहनीयकी अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा करनेवाला जो जीव एक समय तक उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा करके एक समयके बाद पुनः अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा करने लगा उसके तो मोहनीयकी अनुत्कृष्ट Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] मूलपयडिअणुभाग उदीरणाए अंतरं २३. आदेसेण णेरइय० मोह० उक्क० अंतरं केव० १ जह० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० बे समया । एवं सव्वणेरइय० । णवरि सगहिदी देसूणा । तिरिक्खेसु मोह० उक्क० अणुभागुदी० जह० एगस० उक्क० अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० बे समया। पंचिंदियतिरिक्खतिये मोह० उक्क० अणुभागुदी० जह० एगस, उक्क० पुवकोडिपुधत्तं । अणुक्क० जह० एयस० । उक्क० बे समया । एवं मणुसतिए । णवरि अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज०-मणुसअपज्ज. मोह० उक्क० अणुभागुदी० जह० एयस०, उक्क० अंतोमुहुत्तं । अणुक्क०, जह० एगस०, उक्क० बे समया । देवेसु मोह० उक्क० अणुभागुदी० जह० एगस०, उक्क० अट्ठारससागरो० सादिरेयाणि । अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० बे समया । एवं भवणादि जाव सव्वट्ठा त्ति । णवरि सगट्ठिदी देसूणा । एवं जाव० । अनुभाग उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय प्राप्त होता है तथा अनुत्कष्ट अनुभाग उदीरणा करनेवाला जो जीव उपशमणिपर आरोहण कर और वहाँसे उतरकर पुनः अनुत्कष्ट अनुभाग उदीरणा करने लगता है उसके अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। २३. आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभाग उदीरकका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागर है । अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल दो समय है। इसी प्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। तिर्यञ्चोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभाग उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कष्ट अन्तरकाल अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनके बराबर है। अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल दो समय है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभाग उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटि पृथक्त्व प्रमाण है। अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल दो समय है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभाग उदोरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है। अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल दो समय है। देवों में मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभाग उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक अठारह सागर है। अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल दो समय है। इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ २४. जह० पयदं । दुविहो णिद्देसो—ओघेणआदेसेण य । ओघेण मोह० जह० अणुभागुदी० णत्थि अंतरं । अज० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । एवं मणुसतिए । णवरि अजह० जह० उक्क० अंतोमु० । २५. आदेसेण सव्वणेरइय०-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुसअपज्ज० उक्कस्सभंगो। देवेसु मोह० जह० अणुभागुदी० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । अजह० अणुक्कस्सभंगो । एवं भवणादि जाव सव्वट्ठा त्ति । णवरि सगढिदी देसूणा । तिरिक्खेसु मोह० जह० अणुभागुदी. जह• एगस०, उक्क० उवड्ढपोग्गलपरियढें । अजह० जह० एगस०, उक्क० बे समया । एवं जाव० । विशेषार्थ—ओघसे मोहनीयकी अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाका जो अन्तरकाल बतला आये हैं वह मनुष्यत्रिकमें बन जानेसे उस प्रकार घटित कर लेना चाहिए । सामान्यसे देवोंमें उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध बारहवें स्वर्ग तक ही सम्भव है, इसलिए उनमें मोहनीयकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक अठारह सागर कहा है। शेष कथन सुगम है। $ २४. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयके जघन्य अनुभाग उदीरकका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य अनुभाग उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अजघन्य अनुभाग उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूते है। विशेषार्थ अजघन्य अनुभाग उदीरणा करनेवाला जो जीव उपशमश्रेणिपर चढ़कर और एक समयके लिए उसका अनुदीरक होकर दूसरे समयमें मरकर देव हो जाता है उसके मोहनीयकी अजघन्य अनुभाग उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय बन जानेसे वह उक्त काल प्रमाण कहा है। इसका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है यह स्पष्ट ही है। कारण कि उपशमश्रेणिमें इसका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त देखा जाता है । मनुष्यत्रिकमें इसका जघन्य अन्तर एक समय नहीं बनता। इसलिए इनमें मोहनीयकी अजघन्य अनुभाग उदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है । शेष कथन सुगम है। ६ २५. आदेशसे सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्य अपर्याप्तकों में उत्कृष्टके समान भंग है। देवोंमें मोहनीयके जघन्य अनुभाग उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागर है। अजघन्य अनुभाग उदीरकका भंग अनुत्कृष्टके समान है। इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए । तिर्यञ्चोंमें मोहनीयके जघन्य अनुभाग उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्ध पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । अजघन्य अनुभाग उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल दो समय है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] मूलपयढिअणुभाग उदीरणाए भागाभागो १३ ___ २६. णाणाजीवेहि भंगविचओ दुविहो जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० उक्कस्साणु० सिया सव्वे अणुदीरगा, सिया अणुदीरगा च उदीरगो च, सिया अणुदीरगा च उदीरगा च । अणुक्कस्सियाए अणुभागुदी० सिया सव्वे उदीरगा, सिया उदीरगा च अणुदीरगो च, सिया उदीरगअणुदीरगा च । एवं चदुगदीसु । णवरि मणुसअपज्ज. उक्क० अणुक्क० अणुभागुदी० अठ भंगा । एवं जहण्णयं पिणेदव्वं । एवं जाव० ।। २७. भागाभागाणु० दुविहं-जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहोणिओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० उक्क० अणुभागुदी० सव्वजी० केवडिओ भागो ? अणंतभागो। अणुक्क० अणुभागुदी० अणंता भागा । एवं तिरिक्खा० । आदेसेण णेरइय० मोह० उक्क० अणुभागुदी० सव्वजी० केव० १ असंखे० भागो। अणुक्क० असंखेजा भागा । एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुस-मणुसअपज०-देवा भवणादि जाव अवराजिदा त्ति । मणुसपञ्ज०मणुसिणी-सव्वट्ठदेवा मोह० उक्क० अणुभागुदी. विशेषार्थ-अपने-अपने जघन्य अनुभाग उदीरणाके स्वामित्वको जानकर यह अन्तरकाल घटित कर लेना चाहिए । विशेष वक्तव्य न होनेसे यहाँ हम उसका अलगसे स्पष्टीकरण नहीं कर रहे हैं। ६ २६. नाना जीवोंकी अपेक्षा भंग विचय दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मोहनीयको उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाके कदाचित् सब जीव अनुदीरक हैं, कदाचित् नाना जीव अनुदीरक हैं और एक जीव उदीरक है तथा कदाचित् नाना जीव अनुदीरक हैं और नाना जीवउ दीरक हैं। अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाके कदाचित् सब जीव उदीरक हैं, कदाचित् नाना जीव उदीरक हैं और एक जीव अनुदीरक है तथा कदाचित् नाना जीव उदीरक है और नाना जीव अनुदीरक हैं । इसी प्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि मनुष्य अपर्यातकोंमें उत्कृष्ट तथा अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाकी अपेक्षा आठ भंग होते हैं। इसी प्रकार जघन्यकी अपेक्षा भी जानना चाहिए । इस प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए । $ २७. भागाभागानुगम दो प्रकारका है जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? अनन्तवें भागप्रमाण हैं। अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीव अनन्त बहुभाग प्रमाण हैं। इसी प्रकार तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए । आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीव असंख्यात बहुभाग प्रमाण हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, सामान्य मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें जानना चाहिए। मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? संख्यातवें भाग प्रमाण हैं । अनुत्कृष्ट अनुभागके Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ सव्वजी० केव० ? संखे भागो । अणुक्क० अणुभागुदी० संखेज्जा भागा । एवं जाव० । एवं जहण्णयं पि णेदव्वं । २८. परिमाणं दुविहं-जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० उक्क० अणुभागुदी० केत्तिया ? असंखेज्जा' । अणुक्क० के० ? अणंता । एवं तिरिक्खा० । आदेसेण णेरइय० उक्क० अणुक्क० अणुभागुदी० केत्ति० १ असंखेज्जा। एवं सव्वणेर०-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुसअपज्ज०-देवा भवणादि जाव. अवराजिदा त्ति । मणुसेसु मोह० उक्क० अणुभागुदी० केत्तिया ? संखेज्जा । अणुक्क० अणुभागुदी० केत्ति० ? असंखेज्जा । मणुसपज्ज०-मणुसिणीसव्वट्ठदेवा मोह० उक्क० अणुक्क० अणुभागुदी० केत्ति० संखेज्जा । एवं जाव० । $ २९. जहण्णए पयदं । दुविहो णिद्देसो--ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह: जह० अणुभागुदी० केत्ति ? संखेजा । अजह० के० १ अणंता । चदुगदीसु उक्कस्सभंगो। एवं जाव०। ३०. खेत्ताणु० दुविहं-जह० उक्क० । उक्क० पयदं । दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण उक्क० अणुभागुदी० केवडि खेत्ते ? लोगस्स असंखे० भागे । उदीरक जीव संख्यात बहुभाग प्रमाण हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । तथा इसी प्रकार जघन्य भी ले जाना चाहिए। $ २८. परिमाण दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं इसी प्रकार तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। आदेशसे नारकियोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव तथा भवनवासियोंसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें जानना चाहिए। मनुष्योंमें मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। २९. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मोहनीयके जघन्य अनुभागके उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। अजघन्य अनुभागके उदीरक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। चारों गतियोंमें उत्कृष्टके समान भंग है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ३०. क्षेत्रानुगम दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे उत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र है। अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीवोंका १ ता० प्रती संखेजा इति पाठः । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] मूलपयडिअणुभाग उदीरणाए पोसणं अणुक्क० सव्वलोगे । एवं तिरिक्खा० । सेसगदीसु मोह० उक्क० अणुक्क० केवडि० लोग० असंखे० भागे । एवं जाव० । एवं जहण्णयं पि णेदव्वं । ३१. पोसणं दुविहं-जह• उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि.--ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० उक्क. अणुभागुदी० केवडि खेत्तं पोसिदं ? लोग० असंखे० भागो अट्ठ-तेरह चोइस भागा । अणुक्क० सव्वलोगो। $३२. आदेसेण रइय० मोह० उक्क० अणुक्क० लोगस्स असंखेभागो छ चोद्दस० । एवं विदियादि सत्तमा त्ति । णवरि सगपोसणं । पढमाए खेत्तं । तिरिक्खेसु मोह० उक्क० अणुभागुदी० केव० खेत्तं पो० ? लोग० असंखे० भागो छ चोइस० । अणुक्क० सव्वलोगो। एवं पंचिं० तिरिक्खतिये । णवरि अणुक्क० लोग० असंखे० भागो सव्वलोगो वा । पंचिं० तिरिक्खपज्ज०-मणुसअपज्ज. मोह० उक्क० अणुक्क० अणुभागुदी० लोग० असंखे० भागो सव्वलोगो वा । कितना क्षेत्र है ? सर्वलोक प्रमाण क्षेत्र है। इसी प्रकार तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए । शेष गतियोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। इसी प्रकार जघन्यको भी जानना चाहिए। ३१. स्पर्शन दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग तथा सनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम तेरह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीवोंने सर्वलोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेषार्थ-यहाँ नीचे कुछ कम छह राजु और ऊपर कुछ कम सात राजु मिलाकर त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम तेरह राजु स्पर्शन ओघसे मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीवोंका जान लेना चाहिए । उत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीवोंका शेष दो प्रकारका जो स्पर्शन बतलाया है वह सुगम है। ३२. आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम छह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसी प्रकार दूसरीसे लेकर सातवीं पृथ्वी तकके नारकियोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अपना-अपना स्पर्शन जानना चाहिए। प्रथम पृथ्वीमें क्षेत्रके समान भंग है। तिर्यञ्चोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीवोंने सर्वलोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अनुत्कृष्ट अनुभाग के उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्वलोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्वलोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ $ ३३. मणुसतिए मोह ० उक्क० अणुभागुदी० लोग० असंखे० भागो । अणुक्क० लोग • असंखे० भागो सव्वलोगो वा । देवेसु मोह० उक्क, अणुक्क० अणुभागुदी • लोग • असंखे ० भागो अट्ठ णव चोदस० दे० । एवं भवणादि जाव अच्चुदा ति । णवरि सगपोसणं । उवरि खेत्तभंगो । एवं जाव० । ० १६ $ ३४. जहणए पदं । दुविहो णि० - - ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० जह० अणुभागुदी ० लोग • असंखे० भगो । अजह० केवडि० पोसिदं ? सव्वलोगो । आदेसेण णेरइय० मोह० जह० अणुभागुदी ० केव० पोसिदं ? लोग ० असंखे ० भागो । अजह० लोग • असंखे ० भागो छ चोदस० । एवं बिदियादि जाव सत्तमा ति । णवरि सगपोसणं । पठमाए खेत्तं । तिरिक्खेसु मोह० जह० अणुभागुदी • लोग० असंखे • विशेषार्थ – सामान्यसे नारकियोंका मारणन्तिक समुद्घातकी अपेक्षा त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम छह भाग प्रमाण स्पर्शन बन जानेके कारण इनमें मोहनीयके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीवोंका उक्त स्पर्शन कहा है। इसी प्रकार तिर्यञ्चत्रिक में मोहनीय उत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीवोंकी अपेक्षा स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए । शेष कथन सुगम है । $ ३३. मनुष्यत्रिक मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यात भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्वलोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसी प्रकार भवनवासियों से लेकर अच्युत कल्पतकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपना-अपना स्पर्शन कहना चाहिए । आगे क्षेत्रके समान भंग है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ – यहाँ सर्वत्र अपने-अपने स्वामित्व और स्पर्शनको जानकर यह स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए । अन्य कोई विशेषता न होनेसे अलग से स्पष्टीकरण नहीं किया है । $ ३४. जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश | ओघ मोहनीयके जघन्य अनुभागके उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभागके उदीरक जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आदेशसे नारकियों में मोहनीयके जघन्य अनुभागके उदीरक जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभागके उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसी प्रकार दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपना-अपना स्पर्शन जानना चाहिए। पहली पृथिवीमें क्षेत्रके समान भंग है । तिर्यञ्चों में मोहनीयके जघन्य अनुभागके उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०६२] मूलपयडिअणुभागउदीरणाए पोसणं भागो छ चोदस०, अजह० सव्वलोगो । एवं पंचिंदियतिरिक्खतिए । णवरि अजह० लोग० असंखे भागो सव्वलोगो वा। $३५. पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज०-सव्वमणुस० जह० खेत्तं । अजह० लोग० असंखे० भागो सबलोगो वा । देवेसु मोह० जह० अणुभागुदी० लोग० असंखे०भागो अट्ठचोदस० । अजह• लोग० असंखे०भागो अट्ठ णव चोइस० । एवं सोहम्मीसाण । भवण-वाण-०-जोदिसि० मोह० जह० लोग० असंखे० भागो अद्धट्ट अट्ठ चोदस० । अजह० लोग० असंखे० भागो अट्ठ अट्ठ णव चोदस० । सणक्कुमारादि जाव सहस्सार ति मोह० जह० अजह० अणुभागुदी. लोग० असंखे०भागो अट्ट चोदस० । आणदादि अच्चुदा त्ति जह• अजह० लोग० असंखे०भागो छ चोदस० । उवरि खेत्तभंगो । एवं जाव । चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभागके उदीरक जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अजघन्य अनुभागके उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेषार्थ-यहाँ अपने-अपने स्वामित्वको देखते हुए सामान्य तिर्यञ्चों और पञ्चेद्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें मोहनीयके जघन्य अनुभागके उदीरक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण बन जानेसे वह उक्तप्रमाण कहा है । शेष कथन सुगम है। ३५. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और सब मनुष्योंमें मोहनीयके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवोंमें मोहनीयके जघन्य अनुभागके 'उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अजघन्य अनुभागके उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और बसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सौधर्म और ऐशान कल्पमें जानना चाहिए। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें मोहनीयके जघन्य अनुभागके उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम साढ़े तीन और कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभागके उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम साढ़े तीन, कुछ कम आठ और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सनत्कुमार कल्पसे लेकर सहस्रार कल्पतकके हनीयके जघन्य और अजघन्य अनुभागके उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आनत कल्पसे लेकर अच्युत कल्पतकके देवोंमें मोहनीयके जघन्य और अजघन्य अनुभागके उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आगे क्षेत्रके समान भंग है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे - [ वेदगो ७ ३६. कालो दुविहो—जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं। दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० उक्क० अणुभागुदी० केवचिरं ? जह० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो। अणुक्क० सव्वद्धा । एवं चदुगदीसु । णवरि मणुसतिए मोह० उक्क० अणुभागुदी० जह० एगस०, उक्क० संखेज्जा समया । अणुक्क० सव्वद्धा । एवं सवढे । मणुसअपज्ज० मोह० उक्क० जह० एयस०, उक्क० आवलि० असंखे भागो। अणुक्क० जह• एयस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। एवं जाव०। ___३७. जह० पयदं । दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० जह० अणुभागुदी० जह० एगस०, उक्क० संखेज्जा समया। अजह० सव्वद्धा । एवं मणुसतिए । सेसगदीसु उक्कस्सभंगो । एवं जाव० । ३६. काल दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीवोंका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीवोंका काल सर्वदा है । इसी प्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि मनुष्यत्रिकमें मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीवोंका काल सर्वदा है। इसीप्रकार सर्वार्थसिद्धिमें जानना चाहिए । मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ—मनुष्यत्रिक और सर्वार्थसिद्धिके देव संख्यात हैं। इसलिए इनमें मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरक नाना जीवोंका उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है, क्योंकि अत्र ट्यत सन्तानकी अपेक्षा इनमें नाना जीव यदि निरन्तर उत्कृष्ट अनभागकी उदीरणा करे तो उस कालका जोड़ संख्यात समय ही होगा । ओघसे और आदेशसे शेष गतियोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरक नाना जीव असंख्यातसे अधिक नहीं हो सकते, इसलिए इनमें उक्त न्यायके अनुसार उत्कृष्ट अनुभागके उदीरक नाना जीवोंका उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। मनुष्य अपर्याप्त यह सान्तर मार्गणा है, इसलिए इसमें मोहनीयके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरक नाना जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण बन जानेसे उक्त कालप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है। ३७. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयके जघन्य अनुभागके उदीरक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अजघन्य अनुभागके उदीरक जीवोंका काल सर्वदा है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। शेष गतियोंमें उत्कृष्टके समान भंग है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ गा. ६२] मूलपयडिअणुभागउदीरणाए अंतरं ३८. अंतरं दुविहं-जह० उक्क० । उक्क० पयदं। दुविहो णि.-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० उक्क० अणुभागुदी० जह० एयस०, उक्क० असंखेज्जा लोगा । अणुक्क० णत्थि अंतरं । एवं चदुगदीसु। गवरि मणुसअपज्ज० अणुक्क० अणुभागुदी० जह० एयस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । एवं जाव० । 5 ३९. जहण्णए पयदं । दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० जह० अणुभागुदी० जह० एयस०, उक्क० छम्मासं । अजह० णत्थि अंतरं । एवं मणुसतिए । णवरि मणुसिणी० वासपुधत्तं । सेसगदीसु उक्कस्सभंगो । एवं जाव० । ४०. भावाणु० सव्वत्थ ओदइओ भावो । विशेषार्थ-अधिकसे अधिक संख्यात जीव ही क्षपक श्रेणिमें पाये जाते हैं, इसलिए नाना जीव यदि लगातार मोहनीयके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करें तो उस कालका कुल योग संख्यात समय ही होगा, इसलिए ओघसे मोहनीयके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है। शेष कथन सुगम है। ३८. अन्तर दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है । अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीवोंका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्य अपर्याप्तकोंमें अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ--यहाँ जो मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण बतलाया है, उसका इतना ही तात्पर्य है कि यदि नाना जीव निरन्तर उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा न करें तो उक्त काल तक नहीं करते। इतने कालके बाद एक या नाना जीव नियमसे मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरक हो जाते हैं । शेष कथन सुगम है। ३९. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयके जघन्य अनुभागके उदीरक जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है। अजघन्य अनुभागके उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि मनुष्यनियोंमें जघन्य अनुभागके उदीरिकोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्वप्रमाण है। शेष गतियों में उत्कृष्टके समान भंग है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ-झपक श्रेणिका उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना प्रमाण होनेसे यहाँ ओघसे तथा मनुष्यत्रिकमें मोहनीयके जघन्य अनुभागके उदीरक नाना जीवोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना कहा है । मात्र कोई भी मनुष्यनी जीव यदि आपकनेणि पर आरोहण न करे तो अधिकसे-अधिक वर्षपथक्त्वकाल तक नहीं करता ऐसा नियम है, इसलिए इसमें मोहनीयके जघन्य अनुभागके उदीरक नाना जीवोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व प्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है। ४०. भावानुगमकी अपेक्षा सर्वत्र औदयिक भाव है। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ ४१. अप्पाबहुप्राणु० दुविहं-जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि०ओषेण आदेसेण य । ओघेण सव्वत्थोवा मोह० उक्क० अणुभागुदी० । अणुक्क ० अणुभागुदी० अणंतगुणा । एवं तिरिक्खा० । आदेसेण णेरइय० सव्वत्थोवा मोह० उक० अणुभागुदी० । अणुक्क० अणुभागुदी० असंखे०गुणा । एवं सव्वणेरइय०सव्यपंचिंदियतिरिक्ख-मणुस-मणुसअपज०-देवा भवणादि जाव अवराजिदा त्ति । मणुसपज०-मणुसिणी-सव्वट्ठदेवा सव्वत्थो० मोह० उक्क० अणुभागुदी० । अणुक० अणुभागुदी० संखेजगुणा । एवं जाव० । एवं जहण्णयं पि णेदव्वं ।। $ ४२. भुजगारउदीरणाए तत्थ इमाणि तेरस अणियोगद्दाराणि-समुक्कित्तणा जाव अप्पाबहुए त्ति । समुक्कित्तणाणु० दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण अत्थि भुज०-अप्प०-अवट्ठि-अवत्त । एवं मणुसतिए । आदेसेण णेरइय० अस्थि सुज०-अप्प०-अवढि० । एवं सव्वणेरइय-सव्वतिरिक्ख-मणुसअपज०-सव्वदेवा त्ति । एवं जाव० । ४३. सामित्ताण. दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण भुज-अप्प०. अवट्ठि० कस्स ? अण्णद० सम्माइट्ठि० मिच्छाइट्ठिस्स वा । अवत्त० कस्स ? अण्णद. उवसामगस्स परिषदमाणगस्स पढमसमयदेवस्स वा । एवं मणुसतिए । णवरि पढमसमय $ ४१. अल्पबहुत्वानुगम दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीव अनन्तगुणे हैं। इसी प्रकार तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीव सवसे स्तोक हैं। उनसे अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार सव नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, सामान्य मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें जानना चाहिए। मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागके उदरीक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। इसी प्रकार जघन्यका भी कथन करना चाहिए । ४२. भुजगार उदीरणाका प्रकरण है। उसमें ये तेरह अनुयोगद्वार होते हैं-समुकीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तक। समुत्कीर्तनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य अनुभागके उदीरक जीव हैं। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। आदेशसे नारकियोंमें भुजगार, अल्पतर और अवस्थित अनुभागके उदीरक जीव हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त और सव देवोंमें जानना चाहिए । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । ४३. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे भुजगार, अल्पतर और अवस्थित अनुभागकी उदीरणा किसके होती है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टिके होती है । अवक्तव्य उदीरणा किसके होती है ? अन्यतर गिरनेवाले उपशामकके या उपशामकके मरने पर प्रथम समयवर्ती देवके होती है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] मूलपयडिअणुभागउदीरणाए कालो देवस्से त्ति ण भाणिदव्वं । आदेसेण णेरइय० भुज-अप्प०-अवट्ठि० ओघं । एवं सव्वणेरइय-तिरिक्खतिय-देवा भवणादि जाव णवगेवजा त्ति । पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज०मणुसअपज्ज०-अणुदिसादि सव्वट्ठा ति सव्वपदा कस्स ? अण्णद० । एवं जाव । ४४. कालाणु० दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण भुज०-अप्प० जह०' एयस०, उक्क० अंतोमु० । अवढि० जह० एयस०, उक्क० संखेजा समया। अवत्त० जह० उक्क० एगस० । आदेसेण णेरइय० भुज-अप्प०-अवढि० ओघं । एवं सव्वणेरइय०-सव्वतिरिक्ख-मणुसअपज-सव्वदेवा त्ति । मणुसतिये ओघं । एवं जाव० । ४५. अंतराणु० दु० णि०-ओघेण आदेसेण य। ओघेण मोह० भुज०-अप्प० चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें 'प्रथम समवर्ती देवके होती है' यह नहीं कहलाना चाहिए । आदेशसे नारकियोंमें भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार सब नारकी, तिर्यञ्चत्रिक, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर नौ वेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। पञ्चेन्द्रिय तियेच अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त तथा नौ अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सब पद किसके होते हे ? अन्यतरके होते हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए। $ ४४. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे भुजगार और अल्पतर अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। अवस्थित अनुभागके उदीरकका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अवक्तव्य अनुभागके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल समय है। आदेशसे नारकियोंमें भुजगार, अल्यतर और अवस्थित अनुभागके उदीरकका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त और सब देवोंमें जानना चाहिए। मनुष्यत्रिकमें ओघके समान भंग है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ—कोई एक जीव यदि मोहनीयके अनुभागकी भुजगार और अल्पतर उदीरणा करता है तो परिणामप्रत्यय वश कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक अन्तमुहूर्तकाल तक करता है, इसलिए इन पदोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है। मात्र अवस्थित उदीरणा अधिकसे अधिक संख्यात समय तक सकती है, इसलिए इस पदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है। अवक्तव्य उदीरणा उपशमश्रोणिसे उतरते समय एक समय तक ही होती है या उपशमश्रेणिमें मोहनीयका अनुदीरक होकर मरकर देव होने पर प्रथम समयमें एक समय तक होती है, इसलिए इसकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। यह ओघसे कालका विचार है। इसी प्रकार यथासम्भव गति मार्गणाके अवान्तर भेदोंमें जान लेना चाहिए। ४५. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयके भुजगार और अल्पतर उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट १. आ. प्रतौ भुज० जह० इति पाठः । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [वेदगो७ जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । अवट्ठि० जह० एयस०, उक्क० असंखेजा लोगा । अवत्त० जह० अंतोमु०, उक्क ० उवड्डपोग्गलपरियट्ट । एवं तिरिक्खेसु । णवरि अवत्त० णत्थि । ४६. आदेसेण रइय० भुज०-अप्प० ओघं । अवढि० जह० एगस०, उक. तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । एवं सव्वणेरइय० । णवरि सगढिदी देसूणा । पंचिंदियतिरिक्खतिये भुज-अप्प० ओघं। अवढि० जह० एयस०, उक्क० सगढि० दे० । पंचिं०तिरिक्खअपज०-मणुसअपज भुज-अप्प०-अवढि० जह० एयस०, उक० अंतोमु० । मणुसतिए पंचिंदियतिरिक्खभंगो । णवरि अवत्त० जह० अंतोमु०, उक्क० पुव्वकोडिपुधत्तं । देवेसु भुज०-अप्प० ओघं । अवट्टि० जह० एयस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । एवं भवणादि जाव सव्वट्ठा त्ति । णवरि सगढिदी देसूणा । एवं जाव० । अन्तरकाल अन्तमुहर्त है । अवस्थित पदके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है। अवक्तव्य पदके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्ध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। इसी प्रकार तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पद नहीं है। विशेषार्थ—प्रत्येक जीवके मोहनीयकी भुजगार और अल्पतर उदीरणा कमसे कम एक समयके अन्तरसे और अधिकसे अधिक अन्तमुहूर्त के अन्तरसे नियमसे होती रहती है, इसलिए इन पदोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण कहा है। किन्तु अवस्थित पद यदि न हो तो अधिकसे अधिक असंख्यात लोकप्रमाण काल तक नहीं होता, इसलिए अवस्थित उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। तथा एक जीवकी अपेक्षा उपशम श्रेणिके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालको ध्यानमें रखकर अवक्तव्य उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्ध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण कहा है। तिर्यञ्चोंमें उपशम श्रेणिका होना सम्भव नहीं, इसलिए इनमें अवक्तव्य उदीरणाका निषेध किया है। ४६. आदेशसे नारकियोंमें भुजगार और अल्पतर उदीरणाका भंग ओघके समान है । अवस्थित उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरप्रमाण है। इसी प्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें भुजगार और अल्पतर उदीरणाका भंग ओघके समान है। अवस्थित उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है । पञ्चेन्द्रिय तियञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें भुजगार, अल्पतर और अवस्थित उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है । मनुष्यत्रिकमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटि पृथक्त्वप्रमाण है । देवोंमें भुजगार और अल्पतर उदीरणाका भंग ओघके समान है। अवस्थित उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागर है। इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धितफके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] मूलपयडिअणुभागउदीरणाए णाणाजीवेहिं भंगविचयाणुगमो २३ ४७. णाणाजीबेहिं भंगविचयाणु० दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण भुज०-अप्प०-अवट्ठि० णियमा अत्थि, सिया एदे च अवत्तव्वगो च, सिया एदे च अवत्तव्वगा च । एवं तिरिक्खा० । णवरि अवत्तव्वं गत्थि । आदेसेण णेरइय० भुज०-अप्प० णियमा अत्थि, सिया एदे च अवविदगो च, सिया एदे च अवविदगा च । एवं सव्वणेरइय०-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख०-सव्वदेवा त्ति । मणुसतिये भुज०-अप्प० णिय० अस्थि, सेसपदा भयणिजा । मणुसअपज० सव्वपदा भयणिज्जा । एवं जाव। ___४८. भागाभागाणु० दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण भुज-उदी० सव्वजी० केव० भागो ? दुभागो सादि० । अप्प० दुभागो देसूणो । अवढि० असंखे०भागो। अवत्त० अणंतभागो। एवं सव्वणेरइय०-सव्वतिरिक्ख-मणुसअपज०-देवा भवणादि जाव अवराजिदा ति । णवरि अवत्त० णत्थि । एवं सव्वढे । गवरि अवढि० संखे० भागो। मणुसेसु भुज० दुभागो सादिरे० । अप्प० दुभागो देसू० । अवढि०-अवत्त० विशेषार्थ—यहाँ सर्वत्र, यथायोग्य अपनी-अपनी कायस्थिति और भवस्थितिको जानकर अवस्थित उदीरणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल घटित कर लेना चाहिए। शेष कथन सुगम है। $ ४७. नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगवि वयानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदके उदीरक जीव नियमसे हैं, कदाचित् ये नाना जीव हैं और एक अवक्तव्य पदका उदीरक जीव है, कदाचित् ये नाना जीव है और नाना अवक्तव्य पदके उदीरक जीव हैं। इसी प्रकार तिर्यश्चोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पदके उदीरक जीव नहीं हैं। आदेशसे नारकियोंमें भुजगार और अल्पतर पदके उदीरक जीव नियमसे हैं, कदाचित् ये नाना जीव हैं और एक अवस्थित पदका उदीरक जीव है, कदाचित् ये नाना जीव हैं और नाना अवस्थित पदके उदीरक जीव हैं । इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च और सब देवोंमें जानना चाहिए । मनुष्यत्रिकमें भुजगार और अल्पतरपदके उदीरक जीव नियमसे हैं, शेष पद भजनीय हैं। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब पद भजनीय हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए । ३८. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे भुजगार पदके उदीरक जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? साधिक द्वितीय भागप्रमाण हैं। अल्पतरपदके उदीरक जीव कुछ कम द्वितीय भागप्रमाण हैं । अवस्थित पदके उदीरक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । अवक्तव्य पदके उदीरक जीव अनन्तवें भागप्रमाण हैं । इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्ज, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव तथा भवनवासियोंसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें जान लेना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पद नहीं है। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवस्थित पदके उदीरक जीव संख्यातवें भागप्रमाण है। मनुष्योंमें भुजगार पदके उदीरक जीव साधिक द्वितीय भागप्रमाण है। अल्पतर पदके उदीरक जीव कुछ कम द्वितीय भागप्रमाण है। अवस्थित और अवक्तव्य पदके उदीरक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनु Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वैदगो ७ असंखे० भागो । एवं मणुसपञ्ज० - मणुसिणीसु । णवरि संखेज्जं कायव्वं । एवं जाव० । $ ४९. परिमाणाणु ० दुविहो णि० - ओघेण आदेसेण य । ओघेण भुज० - अप्प ० - अवट्टि • केत्तिया ? अनंता । अवत्त० केत्तिया १ संखेज्जा । एवं तिरिक्खा ० । णवरि अवत्त० णत्थि । आदेसेण णेरइय० सव्वपदा केत्ति ० १ असंखेजा । एवं सव्वणेरइयसव्व पंचिंदियतिरिक्ख- मणुसअपज्ज० - देवा जाव अवराइदा ति । मणुसेसु अवत्त० केत्ति० ? संखेज्जा | सेसपदा केत्ति ० १ असंखेजा । मणुसपज ० - मणुसिणी - सव्वट्ठदेवा० सव्वपदा० केत्ति ० १ संखेजा । एवं जाव० । ० - अवडि $ ५०. खेत्ताणु० दुवि० णि० - ओघे० आ० | ओघेण भुज० - अप्प ० -२ केव० खेत्ते ० ? सव्वलोगे । अवत्त० लोगस्स असंखे ० । एवं तिरिक्खा ० णवरि अवत्त ० त्थ । सगदी सव्वपदा० केव० १ लोगस्स असंखे० । एवं जाव० । । $ ५१. पोसणागुगमेण दुविहो णिदेसो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण भुज०अप्प० - अवट्टि० केवडि० पोसिदं । सव्वलोगो । अवत्त० केवडि० पोसिदं १ लोग० असंखे० भागो । एवं तिरिक्खा० । णवरि अवत्त ० णत्थि । यिनियों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि असंख्यातवें भागके स्थान में संख्यातवां भाग करना चाहिए । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । $ ४९. परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश | ओघसे भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदके उदीरक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं । अवक्तव्य पदके उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । इसी प्रकार तिर्यञ्चों में जानना चाहिए। इतनी विशेपता है कि इनमें अवक्तव्य पदके उदीरक जीव नहीं हैं। आदेशसे नारकियोंमें सब पदोंके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और अपराजित विमान तकके देवोंमें जानना चाहिए। मनुष्यों में अव 1 व्यपदके उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। शेष पदोंके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी और सर्वार्थसिद्धिके देवों में सब पदोंके उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । $ ५०. क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदके उदीरक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सर्वलोकप्रमाण क्षेत्र है । अवक्तव्य पदके उदीरक जीवोंका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है । इसी प्रकार तिर्यञ्चों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पद नहीं है । शेष ग़तियोंमें सब पदोंके उदीरक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । $ ५१. स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे भुजगार, अल्पतर और अवस्थित अनुभागके उदीरकोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया | अवक्तव्य अनुभागके उदीरकोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसी प्रकार तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पद नहीं है । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] मूलपयडिअणुभागउदीरणाए पोसणं २५ ० $ ५२. आदेसेण णेरइय० सव्वपद० केवडि० पोसिदं ? लोग • असंखे ० भागों छ चोइस० । एवं विदियादि जाव सत्तमा ति । णवरि सगपोसणं । पढमाए खेत्तं । सव्वपंचि०तिरिक्ख- मणुसअपज्ज० सव्वपद० लोग० असंखे० भागो सत्र्वलोगो वा । एवं मणुसतिये । णवरि अवत्त ० लोग० असंखे ० भागो । देबेसु सव्वपद० लोग ० असंखे० भागो अट्ठ णव चोदस० । एवं सोहम्मीसाणेसु । भवण ० - वाण ०० - जोदिसि ० सव्वपद० लोग० असंखे०भागो अद्भुट्ठा वा अट्ठ णव चोइस० | सणकुमारादि जाव सहस्सारे त्ति सव्वपद० लोग० असंखे० भागो अट्ठ चोहस० । आणदादि जाव अच्चुदा ति सव्वपद० लोग० असंखे ० भागो छ चोदस० । उवरि खेत्तं । एवं जाव० । $ ५३. कालानुगमेण दुविहो णिसो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण अवत्त ० जह० एस ०, उक्क० संखेज्जा समया । सेसपदा० सव्वद्धा । आदेसेण णेरइय० भुज० अप्प ० सव्वद्धा । अवट्ठि० जह० एयस०, उक्क० आवलि० असंखे ० भागो । एवं 01 $ ५२. आदेशसे नारकियोंमें सब पदोंके उदीरक जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसी प्रकार दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपना-अपना स्पर्शन कहना चाहिए। पहली पृथिवीमें क्षेत्र के समान भंग है । सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्य अपर्याप्तकों में सब पदोंके उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पदके उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवोंमें सब पदोंके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सौधर्म और ऐशान कल्पके देवोंमें जानना चाहिए । भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें सब पदोंके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम साढ़े तीन भाग, कुछ कम आठ भाग और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें सब पदों के उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आनतसे लेकर अच्युत कल्पतकके देवोंमें सब पदोंके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । ऊपर क्षेत्रके समान भंग है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ – स्पर्शन विषयक स्पष्टीकरण सुगम है, इसलिए अलग से खुलासा नहीं किया है । तात्पर्य यह है कि जहाँ जो स्पर्शन है उसे ध्यानमें रखकर स्पष्टीकरण कर लेना चाहिए । $ ५३. कालानुगमको अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । अवक्तव्य पदके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । शेष पदोंके उदीरकोंका काल सर्वदा है। आदेशसे नारकियोंमें भुजगार और अल्पतर पदों के उदीरकोंका काल सर्वदा है । अवस्थित पद के उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, ४ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ सव्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-देवा' भवणादि जाव. अवराइदा त्ति । तिरिक्खा० सव्वपदा० सव्वद्धा । मणुसेसु णारयभंगो । णवरि अवता० जह० एयस०, उक्क संखेजा समया । एवं मणुसपज०-मणुसिणी० । णवरि संखेज़ कादवं । एवं सवढे । णवरि अवत्त० णत्थि । मणुसअपज० भुज०-अप्प० जह० एयस०, उक्क पलिदो० असंखे०भागो । अवढि० जह० एयस०, उक्क० आवलि० असंखे भागो । एवं जाव० । ५४. अंतराणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण भुज०अप्प०- अवढि० |ि अंतरं । अवत्त० जह• एयस०, उक्क. वासपुधत्तं । एवं तिरिक्खा० । णवरि अवत्त० णत्थि । आदेसेण णेरइय० भुज०- अप्प० गत्थि अंतरं । अवढि० जह० एगस०, उक्क० असंखेजा लोगा। एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-सव्वदेवा त्ति । मणुसतिये णारयभंगो । णवरि अवत्त० ओघं । मणुसअपज. देव और भवनवासियोंसे लेकर अपराजित विमान तकके देवों में जानना चाहिए। तिर्यञ्चोंमें सब पदोंके उदीरकोंका काल सर्वदा है । मनुष्योंमें नारकियोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य पदके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि आवलिके असंख्यातवें भागके स्थानमें संख्यात समय कहना चाहिए । इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पद नहीं है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें भुजगार और अल्पतर पदके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवस्थित पदके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ यहाँ एक जीवकी अपेक्षा काल और ओघ तथा आदेशसे अपने-अपने परिमाणको जानकर नाना जीवोंकी अपेक्षा कालका विचार कर लेना चाहिए। विशेष वक्तव्य न होनेसे अलगसे स्पष्टीकरण नहीं किया है। ६५४. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदके उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है । अवक्तव्य पदके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्वप्रमाण है। इसी प्रकार तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्यपद नहीं है। आदेशसे नारकियोंमें भुजगार और अल्पतर पदके उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है। अवस्थित पदके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च और सब देवोंमें जानना चाहिए । मनुष्यत्रिकमें नारकियोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पदके उदीरकोंका भंग ओघके समान है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें भुजगार और अल्पतर पदके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अव १० ता०प्रत्योः तिरिक्खतिय देवा इति पाठः । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] मूलपयडिअणुभागउदीरणाए अप्पाबहुअं पदणिक्खोवो च २७ भुज-अप्प० जह० एयस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। अवठि० जह० एयस०, उक्क० असंखेजा लोगा । एवं जाव । ५५. भावाणुगमेण सव्वत्थ ओदइओ भावो । ५६. अप्पाबहुआणु० दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण सव्वत्थोवा अवत्त० । अवढि० अणंतगुणा । अप्प० असंखे०गुणा । भुज० विसेसा० । एवं सव्वणेरइय-सव्वतिरिक्ख-मणुसअपज्ज०-देवा भवणादि जाव अवराजिदा त्ति । णवरि अवत्त० पत्थि । मणुसेसु सव्वत्थोवा अवत्त० । अवढि० असंखेगुणा । अप्प० असंखे०गुणा । भुज० विसेसा । एवं मणुसपन्जा-मणुसिणी । णवरि संखेज्जगुणं कायव्वं । एवं सव्वढे । णवरि अवत्त० णत्थि । एवं जाव० । ५७. पदणिक्खेवे त्ति तत्थ इमाणि तिण्णि अणियोगद्दाराणि-समुक्त्तिणा सामित्तं अप्पाबहुए त्ति । समुक्कित्तणं दुविहं—जह० उक्क० । उक्स्से पयदं । दुविहो णि०--ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० अस्थि उक्क० वड्डी हाणी अवट्ठा० । एवं चदुगदीसु । एवं जहण्णयं पि णेदव्वं । एवं जाव । ५८. सामित्ताणु० दुविहं-जह. उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि०स्थित पदके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ६ ५५. भावानुगमकी अपेक्षा सर्वत्र औदयिक भाव है। ५६. अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे अवक्तव्य पदके उदोरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थितपदके उदीरक जीव अनन्तगुणे हैं। उनसे अल्पतर पदके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे भुजगारपदके उदीरक जीव विशेष अधिक हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पद नहीं है। मनुष्योंमें सबसे स्तोक अवक्तव्य पदके उदीरक जीव हैं। उनसे अवस्थित पदके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अल्पतरपदके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे भुजगारपदके उदीरक जीव विशेष अधिक हैं। इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणेके स्थानमें संख्यातगुणा करना चाहिए। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पद नहीं है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ५७ पदनिक्षेपका प्रकरण है। उसमें ये तीन अनुयोगद्वार हैं-समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व । समुत्कीर्तना दो प्रकारकी है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मोहनीयकी उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थान अनुभागके उदीरक जीव हैं । इसी प्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिए। इसी प्रकार जघन्यको भी जान लेना चाहिए । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ६५८. स्वामित्वानुगम दो प्रकारका है जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ ओघेण ओदेसेण य । ओघेण मोह० उक्क० वड्ढी कस्स ? अण्णद० जो उक्कस्साणुभागसंतकम्मि० उक्कस्ससंकिलेसं गदो, तदो उक्कस्साणुभागमुदीरिदो तस्स उक्क० वड्डी । उक्क० हाणी कस्स ? अण्णद० देवो उक्कस्साणुभागमुदीरेमाणो मदो एइंदिओ जादो, तदो तस्स पढमसमयउदीरगस्स उक्क ० हाणी । उक्क० अवट्ठाणं कस्स ? अण्णद० उक्कस्साणुभागमुदीरेमाणो तप्पाओग्गजहण्णयमुदीरिदो तस्स से काले उक्क० अवट्ठा० । ६५९. आदेसेण णेरइय० उक्क० वड्डी ओघं । उक्क० हाणी कस्स ? अण्णद० उक्क० अणुभागमुदीरेमाणो तप्पाओग्गविसोहीए पडिभग्गो तस्स उक्क० हाणी । तस्सेव से काले उक्कस्सयमवट्ठाणं । एवं सव्वणेरइय०-सव्वतिरिक्ख-सव्वमणुससव्वदेवा त्ति । णवरि पंचिं०तिरिक्खअपज्ज०-मणुसअपज्ज०-आणदादि सव्वट्ठा त्ति तप्पाओग्गसंकिलेसो भाणियव्यो । एवं जाव० ।। • ६६०. जहण्णए पयदं । दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओषेण मोह० जह० वड्डी कस्स ? अण्णद० जो उवसमसेढीदो ओदरमाणगो विदियसमयउदीरगो तस्स जह० वड्डी । जह० हाणी कस्स ? अण्णद० खवगस्स समयाहियावलियसकसायस्स तस्स जह० हाणी। जह० अवट्ठाण० कस्स ? अण्ण० अधापवत्तसंजदस्स अणंतभागेण वड्डिदूणाव द्विदस्स तस्स जह० अवट्ठाणं । एवं मणुसतिये । निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? उत्कृष्ट अनुभागके सत्कर्मवाला जो जीव उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ, उसके बाद उसने उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा की ऐसा जीव उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है। उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला जो अन्यतर देव मरा और एकेन्द्रिय हो गया, तदनन्तर प्रथम समयमें उदोरणा करनेवाला वह जीव उत्कृष्ट हानिका स्वामी है। उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी कौन है ? उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला जो अन्यतर जीव तत्प्रायोग्य जघन्य अनुभागकी उदीरणा करने लगा वह तदनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी है । ५९. आदेशसे नारकियोंमें उत्कृष्ट वृद्धिका भंग ओघके समान है। उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला जो अन्यतर नारकी तत्प्रायोग्य विशुद्धिसे प्रतिभग्न हुआ वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है। तथा वही तदनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी है । इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, सब मनुष्य और सब देवों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त और आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें तत्प्रायोग्य संक्लेश कहना चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। - $६०. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? उपशमश्रेणिसे उतरनेवाला जो अन्यतर जीव द्वितीय समयमें उदीरक है वह जघन्य वृद्धिका स्वामी है। जघन्य हानिका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर क्षपक एक समय अधिक एक आवलि कालके शेष रहने पर सकषायभावसे स्थित है वह जघन्य हानिका स्वामी है। जघन्य अवस्थानका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर अधः Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] मूलपयडिअणुभागउदीरणाए अप्पा बहुअं १० जह० $ ६१. आदेसेण णेरइय० मोह० जह० वड्डी कस्स ? अण्णद० सम्माइट्ठिस्स तप्पाओग्गअनंतभागेण वड्डिऊण वड्डी, हाइदूण हाणी, एगदरत्थावट्ठाणं । एवं सव्वणेरइय ० - सव्वदेवा० । तिरिक्खेसु मोह ० जह० वड्डी कस्स ? अण्णद० संजदासंजदस्स तप्पाओग्गअनंतभागेण वड्डिण वड्डी हाइदूण हाणी एगदरत्थावट्ठाणं । एवं पंचिंदियतिरिक्खतिए । पंचि०तिरि० अपज्ज० - मणुस अपज्ज० मोह ० कस ? अण्ण० तप्पा ओग्गअनंतभागेण वडिदूण वड्डी हाइदूण हाणी एगदरत्थमवट्ठाणं । एवं जाब० । $ ६२. अप्पा बहुआणु० दुविहं- जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि०ओघेण ओदेसेण य । ओघेण सव्वत्थोवा मोह ० उक्क० वड्डी । उक्क० अवट्ठाणं विसे० । उक्क हाणी विसे० । आदेसेण णेरइय० सव्वत्थोवा उक्क० वड्ढी । हाणी अवट्ठा० दो विसरिसा विसेसा० । एवं सव्वणेरइय० - सव्वतिरिक्ख ० - सव्वमणुस - सव्वदेवाति । एवं जाव० । 11 २९ ९६३. जह० पयदं । दुविहो णि० - ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह ० सव्वत्थोवा जह० हाणी । जह० वड्डी अणंतगुणा । जह० अवट्ठा० अनंतगुणं । एवं प्रवृत्तसंयत जीव अनन्त॒वें भाग वृद्धि करके अवस्थित है वह जघन्य अवस्थानका स्वामी है । इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए । $ ६१. आदेशसे नारकियों में मोहनीयकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो अन्य - तर सम्यग्दृष्टि नारकी तत्प्रायोग्य अनन्तवें भागरूपसे वृद्धि करता है वह जघन्य वृद्धिका स्वामी है, उतनी ही हानि करता है वह जघन्य हानिका स्वामी है तथा इनमेंसे किसी एक जगह अवस्थान होने पर जघन्य अवस्थानका स्वामी है। इसी प्रकार सब नारकी और सब देवोंमें जानना चाहिए। तिर्यञ्चोंमें मोहनीयकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर संयतासंयत जीव अनन्तवें भागरूपसे वृद्धि करता है वह जवन्य वृद्धिका स्वामी है, उतनी ही हानि करता है वह जघन्य हानिका स्वामी है तथा इनमेंसे किसी एक जगह अवस्थान होने पर जघन्य अवस्थानका स्वामी है । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें जानना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में मोहनीयकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर तत्प्रायोग्य अनन्तवें भागरूपसे वृद्धि करता है वह जघन्य वृद्धिका स्वामी है, उतनी ही हानि करता है वह जघन्य हानिका स्वामी है तथा इनमेंमें किसी एक जगह अवस्थान होने पर जघन्य अवस्थानका स्वामी है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । § ६२. अल्पबहुत्वानुगम दो प्रकारका है— ज — जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी उत्कृष्ट वृद्धि सबसे स्तोक है । उससे उत्कृष्ट अवस्थान विशेष अधिक है। उससे उत्कृष्ट हानि विशेष अधिक है। आदेशसे नारकियोंमें उत्कृष्ट वृद्धि सबसे स्तोक है। उससे उत्कृष्ट हानि और अवस्थान दोनों ही समान होकर विशेष अधिक हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, सब मनुष्य और सब देवोंमें जानना चाहिए । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । $ ६३. जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश | Ha मोहनीयकी जघन्य हानि सबसे स्तोक है। उससे जघन्य वृद्धि अनन्तगुणी है। उससे जघन्य Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ मणुसतिये । आदेसेण णेरइय० जह० वड्डी हाणी अवट्ठाणाणि तिण्णि वि सरिसाणि । एवं सव्वणेरइय०-सव्वतिरिक्ख-मणुसअपज्ज०-सव्वदेवा त्ति । एवं जाव० । $ ६४. वड्डिअणु भागुदीरणाए तत्थ इमाणि तेरस अणिओगद्दाराणि-समुक्कित्तणा जाव अप्पाबहुए त्ति । समुक्कित्तणाणु० दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण अत्थि छवड्ढि-छहाणि-अवढि०-अवत्त अणुभागुदी० । एवं मणुसतिए । एवं चेव सव्वणेरइय-सव्वतिरिक्ख-मणुसअपज्ज०-सव्वदेवा त्ति । णवरि अवत्त० णत्थि । एवं जाव०। ___$ ६५. सामित्ताणु० दुविहो णि०–ओघेण आदेसेण य । ओघेण अस्थि छवडिहाणि-अवट्ठाणं कस्स ? अण्णद० सम्माइट्ठिस्स मिच्छाइडिस्स वा । अवरा० भुज०भंगो। एवं मणुसतिए । एवं सव्वणेरइय-सव्वतिरिक्ख-सव्वदेवा गि । णबरि अवन. णत्थि । पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज०-मणुसअपज्ज०-अणुद्दिसादि सव्वट्ठा चि छवडि-हाणि-अवट्ठि० कस्स ? अण्णद० । एवं जाव० । ६६. कालाणु० दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण पंचवडिहाणि० जह० एगसमओ, उक्क० आवलि० असंखे भागो। अणंतगुणवड्डि-हाणि. अवस्थान अनन्तगुणा है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। आदेशसे नारकियोंमें जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान तीनों ही समान हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त और सब देवोंमें जानना चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ६४. वृद्धि अनुभाग उदीरणाका प्रकरण है। उसमें ये तेरह अनुयोगद्वार हैंसमुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तक । समुत्कीर्तनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओघ और आदेश । ओघसे छह वृद्धि, छह हानि, अवस्थित और अवक्तव्य अनुभाग उदीरणा है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च मनुष्य अपर्याप्त और सब देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य अनुभाग उदीरणा नहीं है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए। ६५. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे छह वृद्धि, छह हानि और अवस्थानका स्वामी कौन है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि जीव स्वामी है। अवक्तव्य पदका भंग भुजगारके समान है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च और सब देवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पद नहीं है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त तथा अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें छह वृद्धि, छह हानि और अवस्थित पदका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव स्वामी है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। $ ६६. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे पाँच वृद्धि और पाँच हानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असं. Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०६२] मूलपयडिअणुभागउदीरणाए कालो अंतरं च जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अवढि० जह० एगस०, उक्क० संखेज्जा समया । अवन० जह० उक्क० एगसमओ । एवं मणुसतिये । एवं सत्रणेरइय-सव्वतिरिक्खमणुसअपज्ज०-सव्वदेवा त्ति । णवरि अवन० णत्थि । एवं जाव० । ६७. अंतरांणु० दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण पंचवड्डि-हाणिअवडि. जह० एगस०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। अगंतगुणवडि-हाणि० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । अवच० भुज. भंगो । एवं तिरिक्खा० । णवरि अवच० पत्थि । ६८. आदेसेण णेरइय० पंचवड्डि-हाणि-अवढि० जह० एगस०, उक्क० तेचीसं सागरो० देसूणाणि । अणंतगुणवड्डि-हाणि ओघं । एवं सव्वणेरइय० । णवरि सगद्विदी देसूणा। पंचिंदियतिरिक्खतिये पंचवड्डि-हाणि-अवढि० जह० एगस०, उक्क. सगहिदी देसू० । अणंतगुणवड्डि-हाणि. ओघं । एवं मणुसतिए । णवरि अवन० भुज भंगो। पंचि०तिरिक्खअप०-मणुसअप० छवड्डि-हा०-अवढि० जह ख्यातवें भागप्रमाण है। अनन्त गुणवृद्धि और अनन्तगुणहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थित पदका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । अवक्तव्य पदका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए । इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त और सब देवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पद नहीं है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। - $ ६७. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे पाँच वृद्धि, पाँच हानि और अवस्थितपदका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है। अनन्त गुणवृद्धि और अनन्त गुणहानिका जघन्य पन्तर काल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्य पदका भंग भुजगारके समान है। इसी प्रकार तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पद नहीं है। ६८. आदेशसे नारकियोंमें पाँच वृद्धि, पाँच हानि और अवस्थित पदका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरप्रमाण है । अनन्त गुणवृद्धि और अनन्तगुणहानिका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी-अपनी स्थिति करनी चाहिए । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें पाँच वृद्धि, पाँच हानि और अवस्थित पदका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है । अनन्त गुणवद्धि और अनन्त गुणहानिका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्यपदका भंग भुजगारके समान है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें छह वृद्धि, छह हानि और अवस्थितपदका अपन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । देवोंमें नारकियोंके Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ एग०, उक्क० अंतोमु० | देवाणं णारयभंगो । एवं सव्वदेवाणं । णवरि अप्पप्पणो ट्ठिी देखणा । एवं जाव० । $ ६९. णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमेण दुविहो णिद्देसो – ओघेण आदेसेण य । ओघेण छवडि- हाणि - अबट्ठि ० णियमा अत्थि, सिया एदे च अवतव्वगो च, सिया एदे च अवचव्वगा च । एवं तिरिक्खा ० । णवरि अवच० णत्थि । आदेसेण णेरइय० अनंतगुण वड्डि- हाणि ० णिय० अत्थि, सेसपदाणि भयणिज्जाणि । एवं सव्वणेरइयसव्वपंचिंदियतिरिक्ख- मणुसतिय सव्वदेवाचि । मणुस अपज्ज० सव्वपदा भयणिज्जा । एवं जाव० । $ ७०. भागाभागानुगमेण दुविहो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण अनंत गुणवडि० दुभागो सादिरेगो । अनंतगुणहाणि० दुभागो देसूणो । अवच० अनंतभागो । सेसपदा असंखे ० भागो । एवं सव्वणेरइय- सव्वतिरिक्ख - मणुसअपज ०- देवा जाव अवराजिदा ति । णवरि अवत्त० णत्थि । एवं मणुसेसु । णवरि अवत्त० सव्वजीव० के ० १ असंखे ० भागो । एवं मणुसपजः - मणुसिणीसु । णवरि संखेजं कायव्वं । एवं सव्वट्टे । णवरि अवत्त० णत्थि । एवं जाव० । समान भंग है । इसी प्रकार सब देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चारिए । $ ६९ नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगमका अवलम्बन लेकर निर्देश दो प्रकार - का है - ओघ और आदेश । ओघसे छह वृद्धि, छह हानि और अवस्थित अनुभागके उदीरक जीव नियमसे हैं, कदाचित् ये नाना जीव हैं और एक अवक्तव्य अनुभागका उदीरक जीव है । कदाचित् ये नाना जीव हैं और नाना अवक्तव्य अनुभागके उदीरक जीव हैं । इसी प्रकार तिर्यञ्चों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य अनुभागके उदीरक जीव नहीं हैं। आदेशसे नारकियोंमें अनन्त गुणवृद्धि और अनन्त गुणहानि अनुभाग के उदीरक जीव नियमसे हैं, शेष पद भजनीय है। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्यत्रिक और सब देवों में जानना चाहिए । मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब पद भजन हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । $ ७० भागाभागानुगमको अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश | ओघसे अनन्त गुणवृद्धि अनुभागके उदीरक जीव साधिक द्वितीय भागप्रमाण हैं । अनन्त गुणहानि अनुभागके उदीरक जीव कुछ कम द्वितीय भागप्रमाण हैं । अवक्तव्य अनुभागके उदीरक जीव अनन्तवें भागप्रमाण हैं। शेष पदसम्बन्धी अनुभागके उदीरक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त और सामान्य देवोंसे लेकर अपराजित विमान तक देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्यपद नहीं है । इसी प्रकार मनुष्योंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य अनुभागके उदीरक जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें असंख्यातवें भागके स्थानमें संख्यातवाँ भाग करना चाहिए । इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धि में जानना चाहिए । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] मूलपयडिअणुभागउदीरणाएं परिमाणादिअणियोगद्दाराणि ३३ ० $ ७१. परिमाणाणु दुविहो णि० ओघेण आदेसेण ये । ओघेण छवड्ढि - हाणिअवट्टि • ति० ? अनंता । अवत्त० केति० ? संखेजा । एवं तिरिक्खा० । णवरि अवत्त० णत्थि । आदेसेण सव्वणिरय- सव्वपंचिदियतिरिक्ख- मणुस अपज०- देवा जाव अवराजिदा ति सव्वपदा० केत्ति० ! असंखेजा । एवं मणुसेसु । णवरि अचत्त केत्ति० ? संखेञ्ज । पञ्जत-मणुसिणी-सव्वदेवा० सव्वपदा० केत्ति०' । संखेजा। एवं जाव० । $ ७२. खेत्ताणु दुविहो णि० - ओषेण आदेसेण य । ओघेण छवढि हाणिअवट्ठि ० के ० १ सव्वलोगे । अवत्त० लोग० असंखे० भागे । एवं तिरिक्खा । णवरि अवत्त णत्थि । सेसंगदीसु सव्वपदा० लोग असंखे० भागे । एवं जाव० । ९ ७३. पोसणाणु ० दुविहो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण य। औषण अवत्त० लोग • असंखे० भागो । सेसंपदा सव्वलोगो । एवं तिरिक्खा। णवरि अवत्त० णत्थि । आदेसेण रहय० सव्वपदा० लोग असंखे० भागो छ चोदस भागा । एवं विदियादि सत्तमा ति । णवरि सगपोसणं । पढमाए खेतं । सव्वपंचि०तिरिक्ख- मणुस अपज • ० इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पद नहीं है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए | $ ७१. परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश | ओघसे छह वृद्धि, छह हानि और अवस्थित अनुभागके उदीरक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं । अवक्तव्य अनुभाग उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । इसी प्रकार तिर्यच्चोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पद नहीं है। आदेशसे सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त और सामान्य देवोंसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें सब पदसम्बन्धी अनुभागके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । इसी प्रकार सामान्य मनुष्यों में जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य अनुभागके उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें सब पदसम्बन्धी अनुभाग उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । $ ७२. क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- ओघ और आदेश । ओघसे छह बुद्धि, छह हानि और अवस्थित अनुभागके उदीरकौका कितना क्षेत्र है । सर्व लोकप्रमाण क्षेत्र है । अवक्तव्य अनुभागके उदीरकोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार तिर्यञ्चों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पद नहीं है। शेष गतियों में सब पदसम्बन्धी अनुभागके उदीरकोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। $ ७३. स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है ओघ और आदेश । ओघ से. अवक्तव्य अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदसम्बन्धी अनुभागके उदीरकोने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पद नहीं है । आदेशसे नारकियोंमें सब पदसम्बन्धी अनुभागके उदीरकोंने लोक के असंख्यातवें भाग और त्रर्सनालीके चौदह भागों में से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक नारकियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपना-अपना स्पर्शन ५ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ सव्वपदा० लोग० असंखे भागो सव्वलोगो वा । एवं मणुसतिये । णवरि अवत्त० खेत्तं । देवेसु सव्वपदा० लोग० असंखे भागो अट्ठ-णव चोइस० देसूणा । एवं भवणादि जाव अच्चुदा त्ति । णवरि सगपोसणं । उवरि खेत्तं । एवं जाव० । $ ७४. कालाणु० दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण अवत्त० जह. एयस०, उक्क० संखेजा समया। सेसपदा० सव्वद्धा । एवं तिरिक्खा० । णवरि अवत्त० पत्थि । आदेसेण जेरइय० अणंतगुणवड्ढि-हाणि० सव्वद्धा । सेसपदा० जह. एयस०, उक्क० आवलि. असंखे०भागो। एवं सव्वणिरय०-सव्यपंचिंदियतिरिक्खदेवा जाव अवराजिदा ति । एवं मणुसेसु । गवरि अवत्त० ओघं । एवं मणुसपज्ज०-. मणुसिणी० । णवरि अवढि० जह० एयस०, उक्क० संखेजा समया । एवं सव्वट्टे । णवरि अवत्त० णत्थि । मणुसअपज० अणंतगुणवढि-हाणि० जह० एयस०, उक्क० कहना चाहिए। पहली पृथिवीमें स्पर्शन क्षेत्रके समान है। सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब पदसम्बन्धी अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्वलोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पदका भंग क्षेत्रके समान है। देवों में सब पद सम्बन्धी अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर अच्युत कल्पतकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनाअपना स्पर्शन कहना चाहिए । ऊपर क्षेत्रके समान भंग है। इसी प्रकार अनाहारक मागणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ-ओघसे मोहनीयको अवक्तव्य उदीरणा उपशमश्रेणिसे उतरते समय वा मोहनीयके अनुदीरकके मर कर देव होने पर प्रथम समयमें होती है। यतः ऐसे जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें ही पाया जाता है, इसलिए वह उक्त क्षेत्रप्रमाण कहा है । शेष कथन सुगम है। ७४. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे अवक्तव्य अनुभागके उदीरक जोवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। शेष पदअनुभागके उदीरक जीवोंका काल सर्वदा है। इसी प्रकार तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पद नहीं है । आदेशसे नारकियोंमें अनन्त गुणवृद्धि और अनन्त गुणहानि अनुभागके उदीरक जीवोंका काल सर्वदा है। शेष पद अनुभागके उदीरक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च और सामान्य देवोंसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें जानना चाहिए। इसी प्रकार मनुष्योंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पदका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें अवस्थित अनुभागके उदीरकोंका -जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पद नहीं है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें अनन्त गुणवद्धि और अनन्तगुणहानि अनुभागके उदीरकोंका जघन्य काल एक Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] मूलपयडिअणुभागउदीरणाए अंतरं भावो अप्पाबहुअं च पलिदो० असंखे भागो । सेसपदा० जह० एयस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो । एवं जाव० । ७५. अंतराणु० दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण अवत्त० जह० एयस०, उक्क० वासपुधत्तं । सेसपदाणं णत्थि अंतरं । एवं तिरिक्खा० । णवरि अवत्त० पत्थि । आदेसेण णेरइय० अणंतगुणवड्डि-हाणि० गत्थि अंतरं णिरंतरं । सेसपदा० जह० एगसमओ, उक्क० असंखेजा लोगा। एवं सव्वणिरय-सव्वपंचिंदियतिरिक्खसव्वदेवा ति । एवं मणुसतिये । णवरि अवत्त० ओघं । मणुसअपज० अणंतगुणवढि-हाणि. जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। सेसप० जह. एयस०, उक्क ० असंखेजा लोगा । एवं जाव० । ७६. भावाणुगमेण सव्वत्थ ओदइओ भावो । $ ७७. अप्पाबहुआणुगमेण दुविहो णि-ओघेण आदेसेण य । ओषेण सव्वत्थोवा अवत्त०उदी० । अवढि० अणंतगुणा । अणंतभागव ड्ढि-हाणि० असंखे०गुणा । असंखे० भागवड्ढि-हाणि असंखे गुणा । संखेजभागवढि-हाणि० संखेगुणा । संखे०समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। शेष पद अनुभागके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय हैऔर उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। . ६ ७५. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे अवक्तव्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्वप्रमाण है। शेष पद अनुभागके उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है । इसी प्रकार तिर्य चोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पद नहीं है। आदेशसे नारकियोंमें अनन्त गुणवृद्धि और अनन्त गुणहानि अनुभागके उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है निरन्तर हैं । शेष पद अनुभागके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च और सब देवोंमें जानना चाहिए। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पदका भंग ओघके समान है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें अनन्त गुणवृद्धि और अनन्त गुणहानि अनुभागके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल. पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। शेष पद अनुभागके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ६७६. भावानुगमकी अपेक्षा सर्वत्र औदयिक भाव है। ६७७. अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे अवक्तव्य अनुभागके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थित अनुभागके उदीरक जीव अनन्तगुणे हैं। उनसे अनन्त भागवृद्धि और अन्त भागहानि अनुभागके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यात भागवृद्धि और असंख्यात भागहानि अनुभागके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं । उनसे संख्यात भागवृद्धि और संख्यात भागहानि अनुभागके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यात गुणवृद्धि और संख्यात गुणहानि अनुभागके उदीरक जीव Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ " जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [वेदगो गुणवढि-हाणि...': संखे-गुणा । असंखेगुणवड्ढि-हाणि० असंखे गुणा । अणंतगुणहाणि० असंखे०गुणा । अणंतगुणवड्ढि० विसेसा० । एवं सव्वणिरयसव्वतिरि०--मणुसअपज०-देवा जाव अवराजिदा ति । णवरि अवत्त० पत्थि । मणुसेसु सव्वस्थोवा अवत्त । अवढि० असंखे गुणा। सेसमोघं । एवं मणुसपज्जमणुसिणी०।। णवरि संखेज्जगणं कादव्वं । एवं सबढे । णवरि अवत्त० णत्थि । एवं जावा स७८. एत्थाणुभागुदीरणट्ठाणाणं बंधसमुप्पत्तियादिमेदेण तिहा विहत्ताणं परूवणाए अणुभागसंकमभंगो । णवरि सव्वत्थ अणुभागसंतकम्मट्ठाणस्स अणंतिमभागमेत चेव उदीरणट्ठाणं होइ । कारणं सुगमं । एवं मूलपयडिअणुभागुदीरणा समत्ता। - * उत्तरपयडिअणुभागुदीरणं वत्तइस्सामो। । ७९. मुलपयंडिअणुभागुदीरणविहासणाणंतरमेत्तो जहावसरपत्तमुत्तरपयडिअणुभागुदीरणं वत्तइस्सामो त्ति पइण्णावकमेदं । 1 * तत्थेमाणि चउवीसमणियोगद्दाराणि-सराणा सव्वउदीरणा एवं जाव अप्पाबहुए त्ति भुजगार-पदणिक्वेव-वढि-ठाणाणि च । संख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यात गुणवृद्धि और असंख्यात गुणहानि अनुभागके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अनन्त गुणहानि अनुभागके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अनन्तगुणवृद्धि अनुभागके उदीरक जीव विशेष अधिक हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यऊच, मनुष्य अपर्याप्त और सामान्य देवोंसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पद नहीं है। सामान्य 'मनुष्योंमें अवक्तव्य अनुभागके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थित अनुभागके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं । शेष भंग ओघके समान है। इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि संख्यातगुणा करना चाहिए। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पद नहीं है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । ६ ७८. यहाँ पर बन्धसमुत्पत्ति आदिके भेदसे तीन प्रकारके अनुभाग उदीरणास्थानोंकी प्ररूपणाका भंग अनुभागसंक्रमके समान है। इतनी विशेषता है कि सर्वत्र अनुभाग सत्कर्मस्थानके अनन्तवें भागप्रमाण ही उदीरणास्थान होता है । कारण सुगम है। इस प्रकार मूलप्रकृति-अनुभाग-उदीरणा समाप्त हुई। * अब उत्तरप्रकृतिअनुभागउदरिणाको बतलाते हैं। 5 ७९. मूल प्रकृति अनुभाग उदीरणाका विशेष व्याख्यान करनेके बाद यथावसर प्राप्त उत्तर प्रकृति अनुभाग उदीरणाको बतलाते हैं इस प्रकार यह प्रतिज्ञा वाक्य है। * उसके विषय में ये चौबीस अनुयोगद्वार हैं-संज्ञा और सर्व उदीरणासे लेकर अल्पबहुत्ब तक तथा भुजगार, पदनिक्षेप, वृद्धि और स्थान । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०.६२] ___ उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए सण्णा 2६८०. संपहि एदेहिं अणियोगद्दारेहिं जहाकममुत्तरपयडिअणुभागुदीरणं परूवेमाणो सण्णाणुगममेव ताव परवेदुमुत्तरसुत्तपवंधमाह- Virt * तत्थ पुव्वं गमणिज्जा दुविहा सरणा-घाइसरणा गणसराणा च। ८१. तत्थ तेसु अणियोगद्दारेसु पुव्वं पढममेव गमणिज्जा अणुमग्गियच्या दुविहा सण्णा-घाइसण्णा द्वाणसण्णा चेदि । तत्थ जा सा घादिसपणा सा दुविहां सध्यघादिदेसघादिभेदेण । ठाणसण्णा चउव्विहा लदासमाणादिसहावमेदेगामिषणत्तादो। एवमेसा दुविहा सण्णा पुव्वमेत्थ गमणिज्जा, अण्णहा अणुभागविसंयणिच्छयाणु पत्तीदो। * ताओ दो वि एक्कदो वत्तइस्सामो। ETTES $ ८२. ताओ दो वि सण्णाओ एयपघट्टयेणेव वत्तइस्सामो, पुंध बुध परूवणाए गंथगउरवप्पसंगादो। * तं जहा–मिच्छत्त-बारसकसायाणमणुभागउंदीरणा सव्वधादी। ६८३. कुदो ? एदेसिमणुभागोदीरणाए सम्मन-संजमगणाण गिरवसेसविणासदसणादो । पञ्चक्खाणकसायोदोरणाए संतीए वि देससंजमो समुवलब्भदि तदो ण तेसिं सव्वघादित्तमिदि णासंकणिजं, सयलसंजममस्सिऊण तेसि सव्वधादित्तसमत्थणादों। $ ८०. अब इन अनुयोगद्वारोंका अवलम्बन लेकर यथाक्रम उत्तर प्रकृति अनुभाग उदीरणाकी प्ररूपणा करते हुए संज्ञानुगमका ही सर्व प्रथम कथन करनेके लिए, उत्तरसूत्रप्रवन्धको कहते हैं * वहाँ सर्व प्रथम घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा यह दो प्रकारकी संज्ञारजानने योग्य है। .. $ ८१. वहाँ उन अनुयोगद्वारोंमें 'पुत्वं' अर्थात् सर्व प्रथम गमणिना' अर्थात् मार्गण करने योग्य है-घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा यह दो प्रकारकी संज्ञा वहाँ जो धातिसंज्ञा हैं वह सर्वघाति और देशघातिके भेदसे दो प्रकारकी है। लतासमान आदिस्विभावके भेदसे भिन्नताको प्राप्त हुई स्थानसंज्ञा चार प्रकारकी है। इस प्रकार यह दो प्रकारको संज्ञा सर्व प्रथम यहाँ जानने योग्य है, अन्यथा अनुभागविषयक निश्चय नहीं हो सकता। * उन दोनों ही संज्ञाओंको एकसाथ बतलावेंगे। Terry ८२. उन दोनों ही संज्ञाओंको एक साथ ही बतलावेंगे, क्योंकि पृथक-पथक कथन करने पर ग्रन्थविस्तारका प्रसंग उपस्थित होता है। * यथा-मिथ्यात्व और बारह कषायोंकी अनुभाम उदीरणा सर्वघाति है। $ ८३. क्योंकि इन प्रकृतियोंकी अनुभाग उदीरणासे सम्यक्त्व और संयमगुणोंका पूरी तरहसे विनाश देखा जाता है। FATHE - शंका-प्रत्याख्यान कषायोंकी उदीरणाके होनेपर भी देशसंयमकी प्राप्ति होती है, इसलिए उनका सर्वघातिपना नहीं बनता ? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि सकलसंयमका अवलम्बन लेकर उनके सर्वघातिपनेका समर्थन किया है। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ एवमेदेण सुत्तेण मिच्छत्त-बारसकसायाणमणुभागुदीरणाए उकस्साणुक्कस्सजहण्णाजहण्णभेयभिण्णाए सव्वघादित्तमणवयवेण परूविदं, तत्थ पयारंतरासंभवादो। * दुट्ठाणिया तिहाणिया चउहाणिया वा।। ८४. कुदो ? मिच्छत्त-बारसकसायाणमुक्कस्साणुभागुदीरणाए चउट्ठाणियत्तदंसणादो, तेसिं चेवाणुक्कस्साणुभागगुदीरणाए चउट्ठाण-तिट्ठाण-दुट्ठाणियत्तदंसणादो। * सम्मत्तस्स अणुभागमुदीरणा देसघादी। 5 ८५. कुदो ? मिच्छत्तुदीरणाए इव सम्मत्तुदीरणाए सम्मत्तसण्णिदजीवपज्जायस्स अञ्चंतुच्छेदाभावादो। * एयवाणिया वा दुट्ठाणिया वा। १८६. कुदो ? सम्मत्तजहण्णाणुभागदीरणाए एगट्ठाणियत्तदंसणादो, तदुक्कस्साणुभागुदीरणाए दुट्ठाणियत्तदसणादो। * सम्मामिच्छत्तस्स अणुभागउदीरणा सव्वघादी विट्ठाणिया। ६८७. कुदो ताव सव्वघादिगं? मिच्छसोदीरणाए इव सम्मामिच्छचोदीरणाए वि सम्मत्तसण्णिदजीवगुणस्स णिम्मूलविणासदसणादो। एसा वुण दुहाणिया घेव। दो? सम्मामिच्छगाणुभागम्मि दुढाणिय मोत्तूण पयारंतरासंभवादो। इस प्रकार इस सूत्र द्वारा मिथ्यात्य और बारह कषायोंकी उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्यके भेदसे भिन्नताको प्राप्त हुई अनुभाग उदीरणाका सर्वघातिपना सामान्यरूपसे कहा, क्योंकि वहाँ प्रकरान्तर सम्भव नहीं है। * वह द्विस्थानीय है, त्रिस्थानीय है और चतुःस्थानीय है। $ ८४. क्योंकि मिथ्यात्व और बारह कषायोंकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा चतुःस्थानीय देखी जाती है तथा उन्हींकी अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा चतुःस्थानीय, त्रिस्थानीय और द्विस्थानीय देखी जाती है। * सम्यक्त्वकी अनुभाग उदीरणा देशघाति है ।। $ ८५. क्योंकि जिस प्रकार मिथ्यात्वको उदीरणासे सम्यकत्वपर्यायका अत्यन्त उच्छेद होता है उस प्रकार सम्यक्त्वकी उदीरणासे सम्यक्त्व संज्ञावाली जीवपर्यायका.अत्यन्त उच्छेद नहीं होता। * वह एकस्थानीय है और द्विस्थानीय है। $ ८६. क्योंकि सम्यक्त्वकी जघन्य अनुभाग उदीरणा एकस्थानीय देखी जाती है तथा उसको उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा द्विस्थानीय देखी जाती है। * सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुभाग उदीरणा सर्वघाति और द्विस्थानीय है। ६८७. शंका-इसका सर्वघातिपना कैसे है ? समाधान-मिथ्यात्वको उदीरणासे जिस प्रकार सम्यक्त्वगुणका निर्मूल विनाश होता है उसी प्रकार सम्यग्मिध्यात्वकी उदीरणासे भी सम्यक्त्व संज्ञावाले जीवगुणका निर्मूल विनाश देखा जाता है। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपय डिअणुभागउदीरणाए सण्णा * चदुसंजलण-तिवेदाणमणुभागुदीरणा देसघादी वा सव्वघादी वा । १८८. कुदो ? एदेसिं जहण्णाणुभागुदीरणाए देसघादिरणियमदंसणादो, उक्कस्साणुभागुदीरणाए च णियमदो सव्वघादिनदंसणादो, अजहण्णाणुक्कस्साणुभागोदीरणासु देस-सव्वघादिभावाणं दोण्हं पि समुवलंभादो च । एतदुक्तं भवति-मिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव असंजदसम्माइट्ठि चि ताव एदेसि कम्माणमणुभागदीरणा' सव्वघादी देसघादी च होदि संकिलेस-विसोहिबलेण, संजदासंजदप्पहुडि उवरि सव्वत्थेव देसघादी होदि, तत्थ सव्वधादिउदीरणाए तग्गुणपरिणामेण सह विरोहादो नि । संपहि एत्थेव होणसण्णावहारणहमाह * एगहाणिया वा दुट्ठाणिया तिट्ठाणिया चउट्ठाणिया वा। ६८९. कुदो ? अंतरकरणे कदे एदेसिमणुभागोदीरणाए. णियमेणेगट्ठाणियच. दसणादो । हेट्ठा सव्वत्थेव गुणपडिवण्णेसु दुट्ठाणियाणियमदंसणादो । मिच्छाइट्ठिम्मि दुड्डाण-तिट्ठाण-चउट्ठाणमेदेण परियरमाणाणुमागोदीरणाए दंसणादो। * छएणोसायाणमणुभागउदीरणा देसघादी वा सव्वघादी वा । $९०. कुदो ? असंजदसम्माइटिप्पहुडि हेडा सव्वत्थेव देस-सव्वधादिभावेणेदेसि. परन्तु यह द्विस्थानीय ही होती है, क्योंकि सम्यग्मिध्यात्यके अनुभागमें द्विस्थानीयपनेको छोड़कर प्रकारान्तर सम्भव नहीं है। * चार संज्वलन और तीन वेदोंको अनुभाग उदीरणा देशघाति है और सर्वधाति भी है। ८८. क्योंकि इनकी जघन्य अनुभाग उदीरणामें देशंघातिपनेका नियम देखा जाता है. तथा इनकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणामें । तथा इनकी अजघन्य-अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाओंमें-दोनोंमें ही देशघातिपना और सर्वघांतिपना उपलब्ध होता है। उक्त कथनका यह तात्पर्य है कि मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक तो इन कर्मोकी अनुभाग उदीरणा संक्लेश और विशुद्धिके वशसे सर्वघाति और देशघाति दोनों प्रकारकी होती है। तथा संयतासंयत गुणस्थानसे लेकर आगे सर्वत्र देशघाति होती है, क्योंकि इनकी सर्वघाति उदीरणाका संयमासंयम आदि गुणरूप परिणामोंके साथ विरोध है। अब यहीं पर स्थानसंज्ञाका अवधारण करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं* वह एकस्थानीय है, द्विस्थानीय है, त्रिस्थानीय है और चतुःस्थानीय है। ८९. क्योंकि अन्तरकरण करने पर इनकी अनुभाग उदीरणा नियमसे एकस्थानीय देखी जाती है । नीचे सर्वत्र गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंमें द्विस्थानीयपनेका नियम देखा जाता है । तथा मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय और चतुःस्थानीयके भेदसे परिवर्तमान अनुभागकी उदीरणा देखी जाती है। * छह नोकषायोंकी अनुभागउदीरणा देशघाति और सर्वघाति है । $ ९०. क्योंकि असंयतसम्यग्दृष्टि प्रभृति नीचेके गुणस्थानोंमें सर्वत्र इनकी अनुभाग १. ता. प्रतौ -भागुदीरणाए इति पाठः । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ..जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ मणुभागोदीरणाए पउनिदसणादो, संजदासंजदप्पहुडि जाव अपुवकरणो चि देसघादिभावेणुदीरणाए पउत्रिणियमदंसणादो च । * दुट्ठाणिया वा तिहाणिया बा चउट्ठाणिया वा। ६९१. कुदो ? संजदासंजदादिउवरिमगुणट्ठाणेसु छण्णोकसायाणमणुभागोदीरणाए देसघादिवाणियत्तणियमदंसणादो। हेडिमेसु वि गणपडिवण्णेसु विट्ठाणियाणुभागदीरणाए देस-सव्वघादिविसेसिदाए संभवोक्लंभादो । मिच्छाइट्ठिम्मि विट्ठाण-तिट्ठाणचउट्ठाणवियप्पाणं सव्वेसिमेव संभवादो। संपहि चदुसंजलण-णवणोकसायाणमविसेसेण सव्वगुणट्ठाणेसु जीवसमासेसु च परिणामपच्चएण देसघादिउदीरणा. संभवदि चि पदुप्पायणमुनरसुतमाह-- * चदुसंजलण-णवणोकसायाणमणुभागउदीरणा एइंदिए विं देसघादी - ९२. ण केवलसंजदादिउपरिमगुणट्ठाणेसु चेव पयदकम्माणं देसघादिउदीरणा, किं तु असंजदसम्माइटिप्पहुडि जाव सण्णिमिच्छाइट्टित्ति ताव एदेसु वि गुणहाणेसु विसोहिकाले देसघादिउदीरणाए णत्थि पडिसेहो। ण च केवलं सण्णिपाओग्गविसोहीए चेव देसघादिउदीरणा जायदे, किं तु असण्णिपंचिंदिय-विगलिंदियपाओग्गविसोहीए वि एदेसि कम्माणं देसघादिउदीरणाए णत्थि णिवारणा । किं बहुणा, चदुसंजलणउदीरणाकी देशधाति और सर्वघातिभावसे प्रवृत्ति देखी जाती है। तथा संयतासंयत गुणस्थानसे लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान तक देशघातिरूपसे इनकी उदीरणाकी प्रवृत्तिका नियम देखा जाता है। * वह द्विस्थानीय है, त्रिस्थानीय है और चतुःस्थानीय है। . ९१. क्योंकि संयतासंयत आदि आगेके गुणस्थानोंमें छह नोकषायोंकी अनुभाग उदीरणाके देशघातिपने और द्विस्थानीयपनेका नियम देखा जाता है, नीचेके गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंमें भी देशधाति और सर्वघाति भेदरूप द्विस्थानीय अनुभाग उदीरणा पाई जाती है तथा मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय और चतुःस्थानीय भेदरूप सभी अनुभाग उदीरणा सम्भव है । अब चार संज्वलन और नौ नोकषायोंको सामान्यरूपसे परिणाम प्रत्ययवर्श सब गुणस्थानों और सब जीवसमासोंमें देशवाति उदीरणा सम्भव है यह कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-18 TIRST * चार संज्वलन और नौ नोकषायोंकी अनुभाग उदीरणा एकेन्द्रिय जीवमें भी देशघाति होती हैERE PERMER $ ९२. केवल संयत आदि उपरिम गुणस्थानोंमें ही प्रकृत कर्मोंकी देशघाति उदीरणा नहीं होती, किन्तु असंयतसम्यग्दृष्टि प्रभृति संज्ञी मिथ्यादृष्टि गुणस्थान तकके इन गुणस्थानोंमें भी विशद्धिके कालमें देशघाति उदीरणाका प्रतिषेध नहीं है। केवल संज्ञी प्रायोग्य विशद्धिसे ही देशघाति उदीरणा होती है सो बात नहीं है, किन्तु असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय प्रायोग्य विशुद्धिसे भी इन कर्मोंकी देशघाति उदीरणाका निषेध नहीं है। बहुत कहनेसे क्या, Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए सण्णा पवणोकसायाणमणुभागउदीरणा एइंदिए वि देसघादी होइ, तप्पाओग्गविसोहिपरिणामसंभवस्स तत्थ वि णिरंकुसत्तादो त्ति एसो एदस्स सुत्तस्स भावत्थो । एत्थ देसघादी चेव उदीरणा होइ तिणावहारेयव्वं, किं तु एदेसु जीवसमासेसु सव्वघादिउदीरणासम्भावमविप्पडिवत्तिसिद्ध कादण देसघादिउदीरणाए तत्थासंभवणिरायरणमुहेण संभवविहाणभेदेण सुत्तेण कीरदे। तदो सण्णिमिच्छाइटिप्पहुडि एइंदियपजवसाणसव्वजीवसमासेसु एदेसि कम्माणमणुभागुदीरणा देसघादी वा सव्वघादी वा होदण लब्भदि ति णिच्छयो कायव्यो। एवं धादिसण्णा द्वाणसण्णा च ओघं विसेसिदाओ दो वि एक्कदो परूविदाओ। संपहि दोण्हं पि सण्णाणं पुध पुध अणुगममोघादेसेहिं वत्तहस्सामो । तं जहा. ९३. सण्णा दुविहा–धादिसण्णा द्वाणसण्णा चेदि । धादिसण्णा दुविहाजह• उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ वारसक०-सम्मामि० उक्क० अणुक० अणुभागुदी० सव्वघादी । सम्म० उक्क ० अणुक देसघादी। चदुसंजलण-णवणोक० उक्क० अणुभागुदी० सव्वघादी। अणुक्क० सव्वघादी वा देसघादी वा । सव्वणेरइय०-सव्वतिरिक्ख-सव्वमणुस-सव्वदेवा त्ति जाओ पयडीओ उदीरिजंति तासिमोघं । एवं जहण्णयं पि णेदव्वं । णवरि जह० अजह० भाणिदव्वं । चार संज्वलन और नौ नोकषायोंकी अनुभाग उदीरणा एकेन्द्रियके भी देशघाति होती है, क्योंकि तत्प्रायोग्य विशुद्धिरूप परिणामोंकी सम्भावना वहाँ भी विना किसी बाधाके पाई जाती है यह इस सूत्रका तात्पर्य है। यहाँ इन सबके मात्र देशघाति ही उदीरणा होती है ऐसा अवधारण नहीं करना चाहिए, किन्तु इन जीवसमासोंमें सर्वघाति उदीरणाका सद्भाव निर्विवाद सिद्ध है ऐसा जानकर देशघाति उदीरणा वहाँ सम्भव नहीं है इस बातके निराकरण द्वारा उसकी सम्भावनाका विधान अलगसे इस सूत्र द्वारा किया गया है, इसलिए संज्ञी मिथ्यादष्टिसे लेकर एकेन्द्रिय तकके सब जीवसमासोंमें इन कर्मोकी अनुभाग उदीरणा देशघाति और सर्वघाति होकर प्राप्त होती है ऐसा निश्चय करना चाहिए। इस प्रकार सामान्य और विशेषताको लिये हुए घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा इन दोनोंका एकसाथ कथन किया। अब दोनों ही संज्ञाओंका ओघ और आदेशसे अलग-अलग अनुगम करते हैं । यथा $ ९३. संज्ञा दो प्रकारकी है-घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा। घातिसंज्ञा दो प्रकारको है. जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व, बारह कषाय और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा सर्वघाति है । सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा देशघाति है । चार संज्वलन और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा सर्वघाति है । अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा सर्वघाति भी है और देशघाति भी है । सब नारकी, सब तिर्यञ्च, सब मनुष्य और सब देवोंमें जिन प्रकृतियोंकी उदीरणा होती है उनका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार जघन्यको भी जान लेना चाहिए । इतनी विशेषता है कि जघन्य और अजघन्य ऐसा कथन करना चाहिए। १. आ० प्रतो तत्थ णिरंकुसत्तादो इति पाठः। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ ९४. द्वाणसण्णा दुविहा – जह० उक्क० । उकस्से पयदं । दुविहो णि० - ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०- बारसक० - छण्णोक० उक्क० चउट्ठाणिया । अणुक० चउट्ठा० तिट्ठाणिया विट्ठाणिया वा । सम्भ० उक्क० विट्ठाणिया । अणुक्क० विट्ठाणिया एगट्ठाणिया वा । सम्मामि० उक्क० अणुक्क० विट्ठाणिया । चदुसंजलण० - तिण्णिवे० उक्क० चउट्टाणिया । अणुक्क० चउट्ठाणिया वा तिट्ठाणिया वा विट्ठानिया वा एगट्ठाणिया वा । एवं मणुसतिए । णवरि पजत्तरसु इत्थवेदो णत्थि । मणुसिणीस पुरिस० - स ० णत्थि । उक्क ० $ ९५. आदेसेण णेरइय० मिच्छ० - सोलसक० - सत्तणोक० चउट्ठाणिया । अणुक्क० चउट्ठा० तिट्ठाणि० विट्ठाणि० । सम्म० - सम्मामि० ओघं । एवं पढमाए । विदियादि जाव सत्तमिति एवं चैव । णवरि सम्म० उक्क० अणुक्क० विट्ठाणिया । तिरिक्ख- पंचिदियतिरिक्खतिये मिच्छ० - सोलसक० - णवणोक० उक्क० चउट्ठाणिया । अणुक्क० चउट्ठा० तिट्ठा० विट्ठाणिया । सम्म० - सम्मामि० ओघं । वरि प० इत्थवेदो णत्थि । जोणिणीसु पुरिस० - नपुंस० णत्थि । सम्म० उक्क० ४२ $ ९४. स्थानसंज्ञा दो प्रकारकी है - जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व, बारह कषाय और छह नोकषायोंकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा चतुःस्थानीय है । अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा चतुःस्थानीय भी है, स्थानीय भी है और द्विस्थानीय भी है । सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा द्विस्थानीय है । अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा द्विस्थानीय भी है और एकस्थानीय भी है । सम्यग्मिथ्यात्व उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा द्विस्थानीय है । चार संज्वलन और तीन वेदोंकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा चतुःस्थानीय है । अनुत्कृष्ट अनुभाग- उदीरणा चतुःस्थानीय भी है, त्रिस्थानीय भी है, द्विस्थानीय भी है और एकस्थानीय भी है । इसी प्रकार मनुष्यत्रिक में जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि मनुष्यपर्याप्तकों में स्त्रीवेद नहीं है । तथा मनुष्यिनियों में पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं है । $ ९५. आदेश से नारकियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा चतुःस्थानीय है । अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा चतुःस्थानीय भी है, त्रिस्थान भी है और द्विस्थानीय भी है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है । इसी प्रकार पहली पृथिवीमें जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियों में इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा द्विस्थानीय है । तिर्यञ्च और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा चतुःस्थानीय है । अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा चतु:स्थानीय भी है, स्थानीय भी है और द्विस्थानीय भी है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वा भंग के समान है। इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चपर्याप्तकों में स्त्रीवेद नहीं है तथा १. ता. प्रतौ णत्थि । जोणिणीसु ( मजुसिणीसु ) पुरिस० स० इति पाठः । आ. प्रतौ णत्थि जोगिणीसुपुरिस० सं० इति पाठः । २. आ. प्रतौ पंचिदियतिये इति पाठः । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ गा० ६२ ] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए सण्णा अणुक्क० विट्ठाणि० | पंचिंदियतिरिक्ख अपज० - मणुसअपञ्ज० मिच्छ० - सोलसक०सत्तणोक० 'णारयभंगो । देवा० तिरिक्खोघं । णवरि णवंस० णत्थि । एवं सोहम्मीसाण० । एवं भवण ० - वाणवें० - जोदिसि० । णवरि सम्म० उक्क० अणुक्क० विट्ठाणि० । सक्कुमारादि जाव सहस्सारे त्ति देवोघं । णवरि इत्थिवेदो णत्थि । आणदादि जाव सव्वट्टा चि अप्पप्पणो पयडीणं उक्क० अणुक्क० विट्ठाणि० । णवरि सम्म० ओघं । एवं जाव० । $ ९६. जह० पदं । दुविहो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०बारसक० - छण्णोक० जह० विट्ठाणि० । अजह० विट्ठाणि० तिट्ठाणि० चउट्ठाणि० । सम्म० जह० एगट्ठाणि० । अज० एगट्ठाणि ० विट्ठाणिया वा । सम्मामि० जह० अजह० विट्ठाणि० । चदुसंजल० - तिण्णिवेद० जह० एगट्ठाणि० । अजह० एगट्ठाणि० विट्ठाणि० तिट्ठा ० चउट्ठाणिया वा । एवं मणुसतिए । णवरि पजचएसु इत्थिवेदो णत्थि । मणुसिणीसुपुरिसवे ० - नपुंस० णत्थि । $ ९७. आदेसेण णेरइय० मिच्छ० - सोलसक० - सत्तणोक० जह० विट्ठाणिया । योनिनियोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं है। सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग दीरणा द्विस्थानीय है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंका भंग नारकियोंके समान है। सामान्य देवोंमें सामान्य तिर्यञ्चोंके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि इनमें नपुंसकवेद नहीं है। इसी प्रकार सौधर्म और ऐशान कल्पमें जानना चाहिए। इसी प्रकार भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्व की उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा द्विस्थानीय है । सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें सामान्य देवोंके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद नहीं है। आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें अपनी-अपनी प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा द्विस्थानीय है । इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । $ ९६. जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश | ओघसे मिथ्यात्व, बारह कषाय और छह नोकषायोंकी जघन्य अनुभाग उदीरणा द्विस्थानीय है । अजघन्य अनुभाग उदीरणा द्विस्थानीय भी है, त्रिस्थानीय भी है और चतुःस्थानीय भी है । सम्यक्त्वकी जघन्य अनुभाग उदीरणा एकस्थानीय है । अजघन्य अनुभाग उदीरणा एकस्थानीय भी है और द्विस्थानीय भी है । सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य अनुभाग उदीरणा द्विस्थानीय है। चार संज्वलन और तीन वेदोंकी जघन्य अनुभाग उदीरणा एकस्थानीय है । अजघन्य अनुभाग उदीरणा एकस्थानीय भी है, द्विस्थानीय भी है, त्रिस्थानीय भी है और चतुःस्थानीय भी है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकों में स्त्रीवेद नहीं है तथा मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेद और नपुंकसवेद नहीं है । ९७. आदेश से नारकियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंकी जघन्य अनुभाग उदीरणा द्विस्थानीय है । अजघन्य अनुभाग उदीरणा द्विस्थानीय भी है, स्थानीय Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ अजह० विट्ठाणि० तिहाणि चउट्ठाणि । सम्म०-सम्मामि० ओघ । एवं पढमाए । विदियादि जाव सत्तमा त्ति एवं चेव । णवरि सम्म० जह० अजह• विट्ठाणि । १ . 5. ९८. तिरिक्खेसु मिच्छ ०-सोलसक०-णवणोक० जह० विद्वाणिया । अजह. विट्ठा तिट्ठा० चउट्ठा० । सम्म०-सम्मामि० ओघं । एवं पंचिंदियतिरिक्खतिए । गरि पज० इथिवे. पत्थि । जोणिणी० पुरिसवे०-णवंस० णस्थि । सम्म० जह अजह० विट्ठाणि। पंचितिरिक्खअपज-मणसअपज्ज० मिच्छ०-सोलसक०सत्तणोक० णारयभंगो। ९९. देवेसु तिरिक्खोघं । णवरि णवंस० णत्थि । एवं सोहम्मीसाण० । एवं भवण-वाण-०-जोदिसि । णवरि सम्म० जह० अजह० विट्ठाणि | सणक्कुमारादि जाव सहस्सारा त्ति देवोघं । णवरि इत्थिवेदो पत्थि । आणदादि सव्वट्ठा ति अपप्पणो पयडीणं जह० अजह० विद्याणि । णवरि सम्भ० जह० एगट्ठा० । अजह? एगट्ठा० विट्ठाणिया वा । एवं जाव० । .5 १००. एत्थ सुगमत्तादो सुरेणापरूविदाणं सव्वुदीरणादीणमुच्चारणादो अणुगमं भी है और चतुःस्थानीय भी है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार पहली पथिवीमें जानना चाहिए । दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें इसी प्रकार है। इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्वकी जघन्य और अजघन्य अनुभाग उदीरणा द्विस्थानीय ही है। ६९८. तिर्यञ्चोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषायं और नौ नोकषायोंकी जघन्य अनुभाग उदीरणा द्विस्थानीय है। अजघन्य अनुभाग उदीरणा द्विस्थानीय भी है, त्रिस्थानीय भी है और चतुःस्थानीय भी है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्च पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेदं नहीं है तथा योनिनियोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं है। योनियोंमें सम्यक्त्वकी जघन्य और अजघन्य अनुभाग उदीरणा द्विस्थानीय है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंका भंग नारकियोंके समान है। ९९. देवोंमें सामान्य तिर्यञ्चोंके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि इनमें नपुसक घेद नहीं है। इसी प्रकार सौधर्म और ऐशान कल्पमें जानना चाहिए । इसी प्रकार भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्वकी जघन्य और अजघन्य अनुभाग उदीरणा द्विस्थानीय है। सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देवोंमें सामान्य देवोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद नहीं है। आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें अपनी-अपनी प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य अनुभाग उदीरणा द्विस्थानीय है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वकी जघन्य अनुभाग उदीरणा एकस्थानीय है । अजघन्य अनुभाग उदीरणा एकस्थानीय भी है और द्विस्थानीय भी है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। . १००. यहाँ सुगम होनेसे सूत्रद्वारा नहीं कहे गये सर्व उदीरणा आदिका उच्चारणाके अनुसार अनुगम करते हैं । यथा-सर्व अनुभाग उदीरणा और नोसर्व अनुभाग उदीरणानु Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए सव्वउदीरणाणुगमादिणिद्देसो कस्साम । तं जहा -- सब्बुदीर० - णोसव्बुदीरणाणु० दुविहो णि० + ओषेश आदेसेण य । ओघेण सव्वपयडी० सव्वाणि फद्दयाणि उदीरेमाणस्स सम्बुदीरणा तदूणं णोसव्बुदीरणा | एवं जाव० जीero के ओर्घेण आदेसेण $ १०१. उक्क० उदी० - अणुक्क० उदीरणाणु ० दुविहो णि य । ओघेण सव्वपयडी० सन्युक्स्सयाणि अणुभागफद्दयाणि उदीरेमाणस्स उक्कस्सउदीर० । तदूणमणुक्क० उदी० । एवं जाव० । $ १०२. जह०-अअह०उदी० दुविहो णि० - ओघेण आदेसेण य । ओघेण सव्वपयडी० सव्वजहण्णयाणि अणुभागफद्दयाणि उदी० जह० उदीरणा । तदुवरि अजह०उदीर० । एवं जाव० । ओघेण आ आसे $ १०३. सादि०-अणादि ० - धुव० - अद्ध्रुवाणु० दुविहो णि०य । ओघेण मिच्छ० उक्क० अणुक्क• जहण्णमणुभागुदीरणा किं सादिया४ १ सादिअद्ध्रुवा । अजइ० किं सादि०४ ? सादि० अणादि० धुव० अधुवा वा । सोलसक raणोक ६० - सम्म० - सम्मामि० उक्क० अणुक्क० जह० अजह० किं सादि०४१ सादि ܐ ܝ गमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । ओघसे सब प्रकृतियोंके सब स्पर्धकों की उदीरणा करनेवालेके सर्व अनुभाग उदीरणा होती है और उससे कमकी उदीरणा करनेवालेके नोसर्व अनुभाग उदीरणा होती है । इसी प्रकार अनाहारक 'मार्गणा तक जानना चाहिए । $ १०१. उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा और अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे सब प्रकृतियोंके सबसे उत्कृष्ट अनुभागस्पर्धकोंकी उदीरणा करनेवालेके उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा होती है और उनसे न्यून स्पर्धकोंकी उदीरणा करनेवालेके अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा होती है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । $ १०२. जघन्य अनुभाग उदीरणा और अजघन्य अनुभाग उदीरणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है। ओघ और आदेश । ओघसे सब प्रकृतियोंके सबसे जघन्य अनुभाग स्पर्धी उदीरणा करनेवालेकी जघन्य अनुभाग उदीरणा होती है और उनसे अधिक अनु भाग स्पर्धकोंकी उदीरणा करनेवालेके, अजघन्य अनुभाग उदीरणा होती है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । $ १०३. सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुवानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओब और आदेश । ओघसे मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य अनुभाग उदीरणा क्या सादि है, अनादि है, ध्रुव है या अध्रुव है ? सादि और अध्रुव है। अजघन्य अनुभाग उदीरणा क्या सादि है, अनादि है, ध्रुव है या अध्रुव है ? सादि है, अनादि है, ध्रुव है और अनुष है । सोलह कषाय, नौ नोकषाय, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य अनुभाग उदीरणा क्या सादि है, अनादि है, ध्रुव है या अध्रुव है ? सादि और अध्रुव है। आदेशसे नारकियोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ अधुवा । आदेसेण णेरइय० सव्वपयडीणं उक्क० अणुक्क० जह. अजह० सादि०अधुवा वा । एवं जाव० । * एगजीवेण सामित्त । $ १०४. एत्तो एगजीवेण सामित्तमहिकयं दट्ठव्वमिदि अहियारसंभालणवक्कमेदं । * तं जहा। $ १०५. सुगमं । तं च सामित्तं दुविहं । जह० उक्क०–तत्थुक्कस्ससामित्ताणुगमो ताव कीरदे । तस्स दुविहो णिद्देसो ओघादेसभेदेण । तत्थोघपरूवणट्ठमाह * मिच्छत्तस्स उक्कस्साणुभागुदीरणा कस्स ? $ १०६. सुगमं । * मिच्छाइहिस्स सणिणस्स सव्वाहिं पजत्तीहिं पज्जत्तयदस्स उक्कस्ससंकिलिहस्स। ___$१०७. एत्थ मिच्छाइट्ठिणिद्देसो सेसगुणट्ठाणेसु पयदसामित्तसंभवासंकाणिवारणफलो । सण्णिस्से त्ति णिदेसो असण्णिपंचिंदियप्पहुडि हेट्ठिमासेसजीवसमासेसु पयदजघन्य और अजघन्य अनुभाग उदीरणा सादि और अध्रुव है । इसी प्रकार अनाहारक मागेणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ-आगे उत्कृष्ट और जघन्य स्वामित्वका जो कथन किया है उससे स्पष्ट है कि मिथ्यात्व प्रकृतिकी उत्कृष्ट,, अनुत्कृष्ट और जघन्य अनुभाग उदीरणा सादि और अध्र व होती है। किन्तु अजघन्य अनुभाग उदीरणा सादि आदि चारों प्रकारकी होती है । शेष कथन सुगम है। * अब एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्वका अधिकार है । . १०४. यहाँसे एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्वका अधिकार जानना चाहिए इस प्रकारः अधिकारकी सम्हाल करनेवाला यह वचन है। * यथा $ १०५. यह सूत्र सुगम है। वह स्वामित्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उसमें सर्व प्रथम उत्कृष्ट स्वामित्वका अनुगम करते हैं-ओघ और आदेशके भेदसे उसका निर्देश दो प्रकारका है । उनमेंसे ओघका कथन करनेके लिए कहते हैं * मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? $ १०६. यह सूत्र सुगम है। * सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त तथा उत्कृष्ट सक्लेशको प्राप्त हुए सजी मिथ्यादृष्टिके होती है। $ १०७. यहाँ पर शेष गुणस्थानों में प्रकृत स्वामित्वकी सम्भावनाकी आशंकाका निराकरण करनेके लिए 'मिथ्यादृष्टि' पदका निर्देश किया है । असंज्ञी पञ्चेन्द्रियसे लेकर नीचेके समस्त जीवसमासोंमें प्रकृत स्वामित्वका निवारण करनेके लिए सूत्रमें 'संज्ञी' पदका निर्देश Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए सामित्तं ४७ सामित्तणिवारणफलो । सव्वाहिं पजत्तीहिं पज्जत्तयदस्से ति विसेसणं सण्णिपंचिंदियलद्धिअपजत्तएसु णिव्वत्तिअपजत्तएसु वा पयदसामित्तसंभवाभावपदुप्पायणट्ठ। तदो सण्णिपंचिंदियणिव्वत्तिपञ्जत्तयस्सेव पयदुक्कस्ससामित्तं होइ, णाण्णस्से त्ति सिद्धं । तस्स वि सव्वुक्कस्सो जो पज्जवसाणसंकिलेसपरिणामो तेणेव परिणदस्स मिच्छत्तुक्कस्साणुभागुदीरणा होदि, णाण्णस्से त्ति जाणावणट्ठमुक्कस्ससंकिलिट्ठस्से त्ति भणिदं । किमट्ठमण्णजोगववच्छेदेण सव्यसंकिलिट्ठस्सेव पयदसामित्तणियमो ? ण, मंदसंकिलेसेण विसोहीए वा परिणदस्स सब्बुक्कस्साणुभागुदीरणाणुववत्तीदो । तदो उक्कस्साणुभागसंतकम्मट्ठाणचरिमफद्दयचरिमवग्गणाविभागपडिच्छेदे उक्कस्ससंकिलेसवसेण थोवयरे चेव हाइदणे तप्पाओग्गहेडिमाणंतगुणहीणचउट्ठाणाणुभागसरूवेण उदीरेमाणस्स सण्णिपंचिंदियपजत्तमिच्छादिहिस्स उक्कस्सयं मिच्छत्ताणुभागुदीरणासामित्तं होदि त्ति एसो सुत्तत्थसमुच्चयो। एत्थ उक्कस्साणुभागसंतकम्मादो चेव उक्कस्साणुभागुदीरणा होदि त्ति पत्थि णियमो, किंतु तप्पाओग्गाणुक्कस्साणुभागसंतकम्मेण वि उक्कस्साणुभागुदीणाए होदव्वं, अण्णहा थावरकायादो आगंतूण तसकाइएसुप्पण्णस्स सव्वकालमुक्कस्साणुभागसंतकम्मुप्पत्तीए अभावप्पसंगादो । तं जहाकिया है। संज्ञी पञ्चेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकों या नित्यपर्याप्तकोंमें प्रकृत स्वामित्वकी सम्भावना नहीं है इस बातका कथन करनेके लिए सूत्रमें 'सव्वाहिं पज्जत्तीहिं पज्जत्तयदस्स' यह विशेषण दिया है। इससे संज्ञी पञ्चेन्द्रिय निर्वत्ति पर्याप्तके ही प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्व होता है, अन्यके नहीं यह सिद्ध हुआ । उसमें भी सर्वोत्कृष्ट जो अन्तिम संक्लेश परिणाम है उससे ही परिणत हुए उस जीवके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा होती है, अन्यके नहीं इस बातका ज्ञान करानेके लिए 'उक्कस्ससंकिलिट्ठस्स' यह वचन कहा है। शंका—अन्ययोगके व्यवच्छेद द्वारा सबसे उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवालेके ही प्रकृत स्वामित्वका नियम किसलिए किया है ? ___ समाधान नहीं, क्योंकि मन्द संक्लेश या विशुद्धिरूपसे परिणत हुए जीवके सर्वोत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा नहीं बन सकती। इसलिए उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मस्थानके अन्तिम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाके अविभाग प्रतिच्छेदोंको उत्कृष्ट संक्लेशवश अति स्वल्प घटाकर तत्प्रायोग्य अधस्तन अनन्त गुणहीन चतुःस्थान अनुभागस्वरूपसे उदीरणा करनेवाले संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यादृष्टि जीवके मिथ्यात्वकी अनुभाग उदीरणाका उत्कृष्ट स्वामित्व होता है यह इस सूत्रका समुच्चय अर्थ है । यहाँ उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मसे ही उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा होती है ऐसा नियम नहीं है, किन्तु तत्प्रायोग्य अनुत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मसे भी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा होनी चाहिए, अन्यथा स्थावरकायमें से आकर त्रसकायिकोंमें उत्पन्न हुए जीवके सर्वदा उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मको उत्पत्तिका अभाव प्राप्त होता है। यथा १. आ. प्रतौ सव्वाहिं पजत्तयदस्से त्ति इति पाठः। २, आ प्रतौ थोवरे चेव होदूण इति पाठः, ता:प्रतौ शोवयरे चेव होइदूण इति पाठः। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ १०८. थावरकायादो आगंतूण तसकाइएसुप्पण्णस्साणुभागसंतकम्ममणुक्कस्सं होइ, विट्ठाणियत्तादो । पुणो एदं संतकम्ममुदीरेमाणो पंचिंदियो चउट्ठाणमणुक्कस्साणुभागं बंधदि । संपहि एवं विहाणोण बद्धचउट्ठाणियाणुक्कस्साणुमागसंतकम्मेण सो चेव उक्कस्साणुभागबंधपाओग्गो वि होइ, सब्बुक्कस्ससंकिलेसपरिणामेण परिणदस्स तस्स तदविरोहादो । जइ वुण उक्कस्साणुभागसंतकम्मेण विणा उक्कस्साणुभागुदयो उदीरणा वा ण होदि चि णियमो तो तस्स उक्कस्सोदयाभावेण तदविणाभविउक्सस्ससंकिलेसाभावादो उक्कस्साणुभागबंधो सव्वकालं ण होज ? ण च एवं, तहा संते उक्कस्साणुभागुप्पत्तीए तत्थाभावप्पसंगादो। तदो उक्कस्साणुभागसंतकम्मियस्स तप्पाओग्गाणुक्कस्साणुभागसंतकम्मियस्स वा सण्णिमिच्छाइडिस्स सव्वसंकिलिट्ठस्स उक्कस्साणुभागुदीरणासामिनं होदि चि णिच्छेयव्वं । एवं मिच्छतस्स उक्कस्साणुभागुदीरणासामित्तविणिण्णयं कादूण संपहि एदेणेव गयत्थाणमण्णेसि पि कम्माणं पयदसामिनसमप्पणट्ठमुत्तरसु भणइ * एवं सोलसकसायाणं । $१०९. सुगममेदमप्पणासुनं । एत्थ सबुक्कस्ससंकिलिटुंमिच्छाइटिअणुभागुदीरणाए सामिनविसईकयाए माहप्पजाणावणट्ठमेदमप्पाबहुअमणुगंतव्वं । तं जहा–सम्म $ १०८. स्थावरकायिकोंमेंसे आकर त्रसकायिकोंमें उत्पन्न हुए जीवके अनुभाग सत्कर्म अनुत्कृष्ट होता है, क्योंकि वह द्विस्थानीय है। पुनः इस सत्कर्मकी उदीरणा करनेवाला पञ्चेन्द्रिय जीव चतुःस्थानीय अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है। अब इस विधिसे बन्धको प्राप्त हुए चतुःस्थानीय अनुत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मके द्वारा वही जीव उत्कृष्ट अनुभागबन्धके योग्य भी होता है, क्योंकि सर्वोत्कृष्ट संक्लेश परिणामसे परिणत हुए उस जीवके उसके होनेमें कोई विरोध नहीं है । किन्तु यदि उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मके विना उत्कृष्ट अनुभागका उदय या उदीरणा नहीं होती है ऐसा नियम हो तो उसके उत्कृष्ट उदयका अभाव होनेसे उसका अविनाभावी उत्कृष्ट संक्लेशका अभाव होनेसे उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सर्व काल नहीं होगा। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि ऐसा होने पर वहाँ पर उत्कृष्ट अनुभागकी उत्पत्तिका अभाव प्राप्त होता है। इसलिए उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मवाले या तत्प्रायोग्य अनुत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मवाले सर्व संक्लिष्ट संज्ञी मिथ्यादृष्टि जीवके उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाका स्वामित्व है ऐसा यहाँ निश्चय करना चाहिए । इस प्रकार मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणाके स्वामित्वका निर्णय करके अब इसीके द्वारा जिनके अर्थका ज्ञान हो गया है ऐसे अन्य कर्मोके भी प्रकृत स्वामित्वका ज्ञान करानेके लिए आगे का सूत्र कहते हैं * इररी प्रकार सोलह कषायोंको उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाका स्वामित्व जानना चाहिए। $ १०९. यह अर्पणासूत्र सुगम है । यहाँ पर स्वामित्वकी विषयभूत सर्वोत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाले मिथ्यादृष्टिसम्बन्धी अनुभाग उदीरणाके माहात्म्यका ज्ञान करानेके लिए यह अल्पबहुत्व जानना चाहिए । यथा-सम्यक्त्वके अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए सामित्त चाहिमुहचरिमसमयमिच्छाइट्ठिस्स अणुभागुदीरणा थोवा । दुवरिमसमए अनंतगुणन्भहिया । तिचरिमसमए अनंतगुणब्भहिया । एवं चउत्थसमयादी० णेदव्वं जाव । सव्वुक्कस्ससं किलिट्टमिच्छाट्ठिस्स अणुभागुदीरणा अनंतगुणाति । तदो अण्णजोगववच्छेदेत्थेव मिच्छत्त- सोलसकसायाणमुक्कस्स सामित्तमवहारेयव्वमिदि । संपहि सम्मत्तस्स उक्कस्ससामित्तविहा सणट्ठमुत्तरमुत्तमाह- गा० ६२ ] * सम्मत्तस्स उक्कस्साणुभागुदीरणा कस्स ? $ ११०. सुगममेदं पुच्छावक्कं । ४९ * मिच्छत्ताहिमुहचरिमसमयअसंजदसम्मादिट्ठिस्स सव्वसंकिलिट्ठस्स । $ १११. जो असंजदसम्माइट्ठी सम्मत्तं वेदेमाणो परिणामपच्चयेण मिच्छत्ताहिमुहो होण अंतो मुहुत्तमणंतगुणाए संकिलेसवडीए वडिदो तस्स चरिमसमयअसंजदसम्माइट्ठिस्स सव्वसंकिलिट्ठस्स पयदुक्कस्ससामित्तं होदि । कुदो ? जीवादिपयत्थे दूसिय मिच्छत्तं गच्छमाणस्स तस्स उक्कस्ससंकिलेसेण बहुआणुभागहाणीए अभावेण सम्मतुक्कस्साणुभागुदीरणाए तत्थ सुव्वत्तमुवलंभादो । सव्वत्थुक्कस्ससंकिलेसेण बहुगो के अनुभाग उदीरणा स्तोक है। उससे द्विचरम समयमें अनन्तगुणी अधिक है। उससे त्रिचरम समयमें अनन्तगुणी अधिक है । इस प्रकार चतुः चरम समयसे लेकर सर्वोत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाले मिथ्यादृष्टिके अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए । इसलिए अन्ययोग व्यवच्छेदसे यहीं पर मिध्यात्व और सोलह कषायोंका उत्कृष्ट स्वामित्व जानना चाहिए। अब सम्यक्त्वके उत्कृष्ट स्वामित्वका व्याख्यान करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? $ ११० यह पृच्छावाक्य सुगम है । * मिथ्यात्वके सन्मुख हुए अन्तिम समयवर्ती असंयतसम्यग्दृष्टि सर्व संक्लेश परिणामवाले जीवके होती है. 1 $ १११. जो असंयत सम्यग्दृष्टि जीव सम्यक्त्वका वेदन करता हुआ और परिणाम प्रत्ययवश मिथ्यात्वके अभिमुख होकर अन्तर्मुहूर्त काल तक अनन्तगुणी संक्लेशकी वृद्धि से वृद्धिको प्राप्त हुआ है उस अन्तिम समयवर्ती असंयत सम्यग्दृष्टि सर्व संक्लेश परिणामवाले जीवके प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्व होता है, क्योंकि जीवादि पदार्थों को दूषितकर मिध्यात्वको जानेवाले उस जीवके उत्कृष्ट संक्लेशवश बहुत अनुभागकी हानिका अभाव होनेसे सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा वहाँपर सुव्यक्त पाई जाती है । शंका—सर्वत्र उत्कृष्ट संक्लेशसे बहुत अनुभाग हानिको नहीं प्राप्त होता यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान – इसी सूत्र से जाना जाता है । - ७ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ अणुभागो ण यदि त्ति कत्तो णव्वदे ? एदम्हादो वेव सुत्तादो । संपहि सम्मामिच्छचुक्कस्साणुभागोदीरणाए सामित्तविहाणमाह ५० * संम्मामिच्छुत्तस्स उक्कस्साणुभागुदीरणा कस्स ? $ ११२. सुगमं । * मिच्छुत्ताहिमुहचरिमसमयसम्मामिच्छाइट्ठिस्स सव्वसंकिलिट्ठस्स । $ ११३. एत्थ मिच्छत्ता हिमुहविसेसणं सत्थाणसम्मामिच्छाइट्ठिवुदासङ्कं सम्मत्ताहिमुहसमामिच्छाइट्ठिपडिसेहट्टं वा, तत्थुक्कस्ससंकिलेसाभावेण पयदसामित्तविहाणोवायाभावादो । चरिमसमयविसेसणं दुचरिमादिहेट्ठिमसमयावट्ठिदसम्मामिच्छाइट्ठिपडिसेहट्टं । सम्मामिच्छाइट्टिणिसो सेसगुणट्ठाणेसु पयदसामित्तस्स अचंताभावपदुप्पायनफलो । सव्वसंकिलिट्ठस्से त्ति विसेसणं मंदसंकिलेसेण मिच्छत्तं पडिवजमाणचरिमसमय1 सम्मामिच्छाट्ठिस्स उक्कस्साणुभागुदीरणा ण होदि त्ति जाणावणङ्कं । तदो एवंविहस्स पयदुक्कस्ससामित्तं होइ त्ति सिद्धं । * इत्थवेद- पुरिसवेदाणमुक्कस्साणुभागुदीरणा कस्स ? $ ११४. सुगमं । अब सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाके स्वामित्वका विधान करनेके लिए कहते हैं * सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? $ ११२. यह सूत्र सुगम है । * मिथ्यात्वके अभिमुख हुए सर्व संक्लेश परिणामवाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवके होती है । $ ११३. यहाँ पर स्वस्थान सम्यग्मिथ्यादृष्टिका निराकरण करनेके लिए 'मिथ्यात्व के अभिमुख' यह विशेषण दिया है अथवा सम्यक्त्वके अभिमुख हुए सम्यग्मिथ्यादृष्टिका प्रतिषेध करने के लिए 'मिथ्यात्वके अभिमुख' यह विशेषण दिया है, क्योंकि वहाँपर उत्कृष्ट संक्लेशका अभाव होनेसे प्रकृत स्वामित्वके विधानके उपायका अभाव है । द्विचरमआदि अधस्तन समयोंमें स्थित सम्यग्मिथ्यादृष्टिका प्रतिषेध करनेके लिए 'अन्तिम समय' यह विशेषण दिया है । शेष गुणस्थानों में प्रकृत स्वामित्वके अत्यन्ताभावको दिखलानेके लिए 'सम्यग्मिध्यादृष्टि' । पदका निर्देश किया है । मन्द संक्लेशसे मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले अन्तिम समयवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवके उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा नहीं होती इसका ज्ञान करानेके लिए 'सव्वकिलिस' यह विशेषण दिया है। इसलिए इस प्रकारके जीवके प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्व होता है यह सिद्ध हुआ । * स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? $ ११४. यह सूत्र सुगम है । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१ गा० ६२ ] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए सामित्त * पंचिंदियतिरिक्खस्स अट्ठवासजादस्स करहस्स सव्वसंकिलिट्ठस्स । $ ११५. एत्थ पंचिंदियतिरिक्खणिद्देसो मणुस - देवर्गादिवुदासट्ठो, तत्थुक्कस्सवेदसंकिलेसाभावादो । कुदो एदं वदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो । अट्ठवासजादस्से तस्स विसेसणमवस्सेहिंतो हेट्ठा सब्बुक्कस्सो वेदसंकिलेसो ण होदि त्ति जाणावणङ्कं । करभस्से त्ति वयणं जादिविसेसेण तत्थेवित्थि - पुरिसवेदाणमुक्कस्साणुभागुदीरणा होदि ति पदुपायण । तस्स वि उक्कस्ससंकिलेसेण परिणदावत्थाए चेव उक्कस्साणुभागउदीरणा होदित्ति जाणावणङ्कं सव्वसंकिलिडस्से त्ति भणिदं । तदो एवंविहस्स जीवस्स पयदुक्कस्ससामित्तमिदि सिद्धं । * णवुंसयवेद-अरदि-सोग-भय-दुगुंछाणमुक्कस्साणुभागुदीरणा कस्स ? $ ११६. सुगमं । * सत्तमाए पुढवीए पेरइयस्स सव्वसंकिलिट्ठस्स । $ ११७. एत्थ सत्तमपुढविम्मि एदेसिं कम्माणमुक्कस्स सामित्तविहाणस्साहिप्पाओ वुच्चदे । तं जहा—एदाओ पयडीओ अच्चतमप्पसत्थसरूवाओ, एयंतेण दुक्खुप्पासहावत्तदो । तदो एदासिमुदीरणाए सत्तमपुढवीए चेव उक्कस्ससामित्तं होइ, तत्तो * आठ वर्षकी आयुवाले तथा सर्व संक्लेश परिणामवाले पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च ऊँटके होती है । $ ११५. यहाँ सूत्रमें मनुष्यगति और देवगतिका निराकरण करनेके लिए 'पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च' पदका निर्देश किया है, क्योंकि उन गतियोंमें उत्कृष्ट वेदरूप संक्लेशका अभाव है । शंका – यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान -- इसी सूत्र से जाना जाता है । आठ वर्ष से पूर्व सर्वोत्कृष्ट वेदरूप संक्लेश नहीं होता है इस बातका ज्ञान करानेके लिए उसके विशेषणरूपसे 'अष्टवर्षजात' यह वचन दिया है । करभके ही स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा होती है इस बातका कथन करनेके लिए 'करभस्य' यह वचन दिया है। उसके भी उत्कृष्ट संक्लेशंसे परिणत अवस्थाके होनेपर ही उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा होती है इस बातका ज्ञान करानेके लिए 'सर्वसंक्लिष्टस्य' यह कहा है। इसलिए इस प्रकारके जीवके प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्व होता है यह सिद्ध हुआ । * नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? $ ११६. यह सूत्र सुगम है । * सातवीं पृथिवीमें सबसे अधिक संक्लेश परिणामवाले जीवके होती है । $ ११७. यहाँ सातवीं पृथिवीमें इन कर्मोंके उत्कृष्ट स्वामित्वके विधान करनेका अभिप्राय कहते हैं । यथा - प्रकृतियाँ अत्यन्त अप्रशस्तस्वरूप हैं, क्योंकि ये एकान्तसे दुःखके उत्पादन करनेकी स्वभाववाली हैं। इसलिए इनकी उदीरणाका सातवीं पृथिवीमें ही उत्कृष्ट स्वामित्व 1 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ अण्णस्से दुक्खणिहाणस्स तिहुवणभवण संतरे कहिं पि अगुवलंभादो । तदुदीरणाकारण - झव्वाणं पि असुराणं तत्थेव बहुलं संभवोवलंभादो । * हस्स-रदीणमुक्कस्साणुभागउदीरणा कस्स ? ११८. सुगमं । * सदार-सहस्सारदेवस्स सब्वसंकिलिट्ठस्स । ११९. कुदो ? सदार-सहस्सारदेवेसु रागबहुलेसु हस्स- रदिकारणाणं बहूणमुवलंभादो । णेदमसिद्धं, उकस्सेण छम्मासमेत्तकालं तत्थ हस्स - रंदीणमुदयो होदि ति परमागमोव सबलेण सिद्धत्तादो । एवमोघेण उक्कस्ससामित्तं समत्तं । १२०. संपहि आदेसपरूवणमुच्चारणं वत्तहस्साम । तं जहा—सामित्तं दुविहं – जह० उक० | उकस्से पयदं । दुविहो णि० – ओघेण आदेसेण य । तत्थोघणिसो जइ वित्त संबद्धो परुविदो, तो वि मंदबुद्धीणं सुहावगमणङ्कं ओघादो वत्तहस्सामो । ओघेण मिच्छ०- सोलसक० उकस्साणुभागुदी ० कस्स ? अण्णद० उकस्साणुभागसंतकम्मियस्स उक्कस्ससंकिलिट्ठस्स । णवुंसय ० - अरदि- सोग-भय- दुर्गुछ० उक्क० कस्स ? अण्णद० सत्तमाए णेरइयस्स उक्कस्ससंकिलिट्ठस्स । इत्थिवेद- पुरिसवेद० उक्क० होता है, क्योंकि उससे दुःखका निधानभूत अन्य कोई स्थान तीन भुवनके भीतर कहीं भी उपलब्ध नहीं है। उनकी उदीरणाका कारण अशुभतर बाह्य द्रव्य भी वहीं पर बहुलता से सम्भव है । * हास्य और रतिकी उत्कुष्ट अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? $ ११८. यह सूत्र सुगम है । * सबसे अधिक संक्लेश परिणामवाले शतार और सहस्रार कल्पके देवके होती है। $ _११९. क्योंकि रागबहुल शतार और सहस्रार कल्पके देवोंमें हास्य और रतिके बहुत कारण पाये जाते हैं । यह असिद्ध नहीं है, क्योंकि उत्कृष्टसे छह माह तक वहाँ हास्य और रतिका उदय होता है इस परमागमके उपदेशसे यह सिद्ध है । इस प्रकार ओघसे उत्कृष्ट स्वामित्व समाप्त हुआ । $ १२०. अब आदेशका कथन करनेके लिए उच्चारणाको बतलाते हैं । यथा - स्वामित्व दो प्रकारका है— जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश। वहाँ ओघसे निर्देश यद्यपि सूत्रमें पूरी तरहसे निरूपित कर दिया है तो भी मन्दबुद्ध-शिष्यों को सुखपूर्वक ज्ञान करानेके लिए ओघसे बतलावेंगे । ओघसे मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? जो उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मवाला है। और उत्कृष्ट संक्लेश परिणामसे युक्त है उसके होती है । नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाले अन्तर सातवीं पृथिवीके नारकीके होती है । स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा १. आ० प्रतौ तत्तो अण्णदरस्स, ता० प्रतौ तदो अण्णस्स इति पाठः । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाएं सामित्त कस्स ? अण्णद० पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स अट्ठवासजादस्स करभस्स । हस्स-रदि० उक्क० कस्स ? अण्णद० सहस्सारदेवस्स उक्स्ससंकिलिट्ठस्स । सम्म० उक्कस्साणु० कस्स ? अण्ण० मिच्छत्ताहिमुहस्स तप्पाओग्गुकस्ससंकिलिट्ठस्स चरिमसमयसम्माइट्ठिस्स। सम्मामि० उक्क० अणुभागुदी० कस्स ? अण्णद० मिच्छत्ताहिमुहस्स तप्पाओग्गसंकिलिगुस्स चरिमसमयसम्मामिच्छाइट्ठिस्स । $ १२१. आदेसेण णेरइय० मिच्छ०-सोलसक०-हस्स-रदि० उक्क अणुभागुदी० कस्स ? अण्ण० मिच्छाइद्विस्स उक्कस्ससंकिलिट्ठस्स । सम्म०-सम्मामि०-णqसय०अरदि-सोग-भय-दुगुंछा० ओघं । पढमादि जाव सत्तमा त्ति मिच्छ-सोलसक०-सत्तणोक० उक्क० अणुभागुदी० कस्स ? अण्णद० मिच्छाइद्विस्स उक्कस्ससंकिलिट्ठस्स। सम्म०-सम्मामि० ओघं । $ १२२. तिरिक्खेसु ओघं । णवरि हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुंछा-णqसय० उक्क० अणुभागुदी० कस्स ? अण्ण० मिच्छाइट्ठिस्स उक्कस्ससंकिलिट्ठस्स । एवं पंचिंदियतिरिक्खतिये । णवरि पजत्तएसु इत्थिवेदो णत्थि । जोणिणीसु पुरिस०-णस० णस्थि । पंचिंदियतिरिक्खअपज०-मणुसअपज० मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोक० उक्क० अणुभाकिसके होती है ? आठ वर्षकी आयुवाले पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक ऊँटके होती है। हास्य और रतिकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाले अन्यतर शतार-सहस्रार कल्पके देवके होती है। सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाले मिथ्यात्वके अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती अन्यतर सम्यग्दृष्टि जीवके होती है। सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाले मिथ्यात्वके अभिमुख हुए अन्यतर अन्तिम सममयवर्ती सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवके होती है। $ १२१. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, हास्य और रतिकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा किसके होती है? उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाले अन्यतर मिथ्यादष्टिके होती है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, नपुसकवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साका भंग ओघके समान है। पहली पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाले अन्यतर मिथ्यादृष्टिके होती है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। $ १२२. तिर्यञ्चोंमें ओघके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और नपुसकवेदकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाले अन्यतर मिथ्यांदृष्टिके होती है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्च पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेद नहीं है और योनिनियोंमें पुरुषवेद तथा नपुंसकवेद नहीं हैं। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाले अन्यतर जीवके होती है। मनुष्यत्रिकमें सब प्रकृतियों Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ गुदी० कस्स ? अण्णद० तप्पाओग्गुक्कस्ससंकिलिट्ठस्स । मणुसतिये सव्यपय० उक्क० कस्स ? अण्णद० उक्स्ससंकिलिट्ठस्स मिच्छाइद्विस्स । णवरि सम्म०-सम्मामि० ओघं । 5 १२३. देवेसु मिच्छ-सोलसक०-इत्थिवे०-पुरिसवे०-अरदि-सोग-भय-दुगुंछा० उक्क० अणुभागुदी० कस्स ? अण्णद० उक्कस्ससंकिलिट्ठस्स मिच्छा० । सम्म०-सम्मामि०-हस्स-रदि० ओघं । भवणादि जाव सहस्सारे त्ति अप्पणो पयडि. उक्क० कस्स ? अण्णद० मिच्छाइद्विस्स उकस्ससंकिलिट्ठस्स । णवरि सम्म०-सम्मामि० ओघं । आणदादि णवगेवजा त्ति अप्पप्पणो पयडी० उक्क० अणुभागुदी० कस्स ? अण्णद० तप्पाओग्गसंकिलिङ्कस्स मिच्छा। सम्म०-सम्मामि० ओघं । णवरि तप्पाओग्गसंकिलिदुस्स। अणुद्दिसादि सव्वट्ठा ति अप्पप्पणो पय० उक्क० कस्स ? अण्णद० तप्पाओग्गसंकिलिदुस्स वेदयसम्माइडिस्स । एवं जाव० । ___ * एत्तो जहरिणया उदीरणा। $ १२४. एत्तो उवरि जहणिया उदीरणा अणुभागविसया सामित्तविसेसिदा कायव्वा त्ति भणिदं होइ । * मिच्छत्तस्स जहएणाणुभागुदीरणा कस्स ? $१२५. सुगम की उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाले अन्यतर मिथ्यादृष्टिके होती है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। $ १२३. देवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाले अन्यतर मिथ्यादृष्टिके होती है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, हास्य और रतिका भंग ओधके समान है । भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देवोंमें अपनी-अपनी प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाले अन्यतर मिथ्यादृष्टिके होती है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। आनतकल्पसे लेकर नौ प्रैवेयक तकके देवोंमें अपनी-अपनी प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाले अन्यतर मिथ्यादृष्टिके होती है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवालेके होती है । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें अपनी-अपनी प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाले अन्यतर वेदकसम्यग्दृष्टिके होती है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। * इससे आगे जघन्य अनुभाग उदीरणाके स्वामित्वका अधिकार है । $ १२४. इससे आगे स्वामित्व विशेषणसे युक्त अनुभागविषयक जघन्य उदीरणा करनी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * मिथ्यात्वकी जघन्य अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? ६ १२५. यह सूत्र सुगम है। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपंयडिअणुभागउदीरणाए सामित्त * संजमाहिमुहचरिमसमयमिच्छाइट्ठिस्स सव्वविसुद्धस्स । $ १२६. मिच्छाइट्ठी संजमाहिमुहो होदूण समयं पडि अनंतगुणविसोहीए विसुज्झमाणो गच्छ जात्र चरिमसमयो ति तेण तस्स संजमा हिमुहचरिमसमयमिच्छा इट्ठिस्स सव्बुकस्सविसोहीए विसुद्धस्स मिच्छत्ताणुभागुदीरणा जहणिया होदि । किं कारणं ? विसोहिपयरिसेण अप्पसत्थाणं कम्माणमणुभागो सुड ओहट्टिऊण हेट्टिमाणंतिमभागसरूवेणुदीरिजदिति । तदो सम्मत्तं संजमं च जुगवं गेण्हमाणचरिमसमयमिच्छा हिस्स जहण्णसामित्तमेदं दट्ठव्वं । * सम्मत्तस्स जहण्णाणुभागुदीरणा कस्स ? $ १२७. सुगमं ५५ * समयाहियावलियअक्खीणदंसणमोहणीयस्स । $ १२८. कुदो ? दंसणमोहक्खवयतिव्वपरिणामेहि बहुअं खंडयघादं पाविदूण पुणो अंतोमुहुत्तमेत्तकालमणुसमओवट्टणाए सुड ओहट्टिऊण ट्ठिदसम्मत्ताणुभागविसयउदीरणाए तत्थ जहण्णभावसिद्धीए णिब्बाहमुवलंभादो । एसा समयाहियावलियअक्खीणदंसणमोहणीयस्स जहण्णाणुभागुदीरणा एयडाणिया । एत्तो पुव्विल्लासेसअणुभागुदीरणाओ याणिय- विट्ठाणियसरूवाओ जहाकममणंतगुणाओ । तदो तप्परिहारेणेत्थेव जहण्णसामित्तं गहिदं । * संयम अभिमुख हुए सर्वविशुद्ध अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिके होती है । $ १२६. मिध्यादृष्टि जीव संयम के अभिभुख होकर प्रति समय अनन्तगुणी विशुद्धसे विशुद्ध होता हुआ मिथ्यात्वं गुणस्थानके अन्तिम समय तक जाता है, इसलिए संयमके अभिमुख हुए तथा सर्वोत्कृष्ट विशुद्धिसे यिशुद्ध हुए अन्तिम समयवर्ती मिध्यादृष्टिके मिथ्यात्वकी जघन्य अनुभाग उदीरणा होती है, क्योंकि विशुद्धिके प्रकर्षसे अप्रशस्त कर्मोंका अनुभाग बहुत कम होकर अन्तिम अनन्तवें भागरूपसे उदीरित होता है । इसलिए सम्यक्त्व और संयमको युगपत् प्रहण करनेवाले अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिके यह जघन्य स्वामित्व जानना चाहिए। * सम्यक्त्वकी जघन्य अनुभाग उदीरणा किसके होती है । $ १२७. यह सूत्र सुगम है । * जिसके अभी दर्शनमोहनीयकी क्षपणा सम्पन्न नहीं हुई, किन्तु उसमें एक समय अधिक एक आवलि काल शेष है उसके होती है । $ १२८. क्योंकि दर्शनमोहनीयके क्षपकके तीव्र परिणामोंसें बहुत काण्डकघातको प्राप्त कर पुनः अन्तर्मुहूर्तकाल तक प्रति समय अपवर्तनाके द्वारा अच्छी तरह घटाकर स्थित हुए समयक्त्वकी जघन्य अनुभाग उदीरणा वहाँ पर जघन्यरूपसे निर्बाध पाई जाती है । जिसके अभी दर्शनमोहनीयकी क्षपणा पूरी नहीं हुई, किन्तु उसमें एक समय अधिक एक आवलि काल शेष है उसके यह जघन्य अनुभाग उदीरणा एकस्थानीय होती है । इससे पूर्वकी एकस्थानीय और स्थानीय समस्त अनुभाग उदीरणायें क्रमसे अनन्तगुणी हैं, इसलिए उनके निराकरण द्वारा यहाँ पर ही जघन्य स्वामित्व ग्रहण किया है । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ * सम्मामिच्छत्तस्स जहएणाणुभागुदीरणा कस्स । $ १२९. सुगमं । * सम्मत्ताहिमुहचरिमसमयसम्मामिच्छाइहिस्स सव्वविसुद्धस्स । 5 १३०. एत्थ संजमाहिमुहचरिमसमयसम्मामिच्छाइद्विस्से ति किण्ण वुच्चदे ? ण, सम्मामिच्छाइद्विस्स संजमगुणपडिवत्तीए अचंताभावेण पडिसिद्धत्तादो। तम्हा सम्मत्ताहिमुहचरिमसमयसम्मामिच्छाइडिस्स तप्पाओग्गसव्वुक्कस्सविसोहीए विसुद्धस्स पयदजहण्णसामित्तमिदि घेत्तव्वं ।। * अपंताणुबंधीणं जहण्णाणुभागउदीरणा कस्स ? १३१. सुगमं । * संजमाहिमुहचरिमसमयमिच्छाइहिस्स सव्वविसुद्धस्स । $ १३२. एदस्स सुत्तस्स मिच्छत्तजहण्णसामित्तसुत्तस्सेव अत्थपरूवणा कायव्वा, विसेसाभावादो। * अपचक्खाणकसायस्स जहएणाणुभागउदीरणा कस्स ? $ १३३. सुगमं । * सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? ६ १२९. यह सूत्र सुगम है। * सम्यक्त्वके अभिमुख हुए सर्वविशुद्ध अन्तिम समयवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टिके होती है। १३०. शंका–यहाँपर संयमके अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टिके होती है ऐसा क्यों नहीं कहते ? समाधान--नहीं, क्योंकि सम्यग्मिध्यादृष्टिके संयमगुणकी प्राप्ति अत्यन्ताभावरूपसे निषिद्ध है। इसलिए सम्यक्त्वके अभिमुख हुए तत्प्रायोग्य सर्वोत्कृष्ट विशुद्धिसे विशुद्ध अन्तिम समयवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टिके प्रकृत जघन्य स्वामित्व होता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। * अनन्तानुबन्धियोंकी जघन्य अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? $ १३१. यह सूत्र सुगम है। * संयमके अभिमुख हुए सर्वविशुद्ध अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिके होती है । $ १३२: मिथ्यात्वके जघन्य स्वामित्वविषयक सूत्रके समान इस सूत्रके अर्थका कथन करना चाहिए, क्योंकि इन दोनोंके कथनमें कोई विशेषता नहीं है। * अप्रत्याख्यानावरण कषायकी जघन्य अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? ६ १३३. यह सूत्र सुगम है। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए सामित्तं * संजमाहिमुहचरिमसमयअसंजदसम्माइहिस्स सव्वविसुद्धस्स । १३४. संजमाहिमुहो असंजदसम्माइट्ठी संजमाहिमुहचरिमसमयमिच्छाइद्विविसोहीदो अणंतगुणाए विसोहीए विसुज्झमाणो समयं पडि अणंतगुणहीणमपञ्चक्खाणकसायाणुभागमुदीरेदि जाव अंतोमुहुत्तमेत्तविसोहिकालचरिमसमयो ति तदो विसयंतरपरिहारेणेत्येव पयदजहण्णसामित्तमवहारेयव्वं । * पञ्चक्खाणकसायस्स जहएणाणुभागमुदीरणा कस्स ? १३५. सुगमं । * संजमाहिमुहचरिमसमयसंजदासंजदस्स सव्वविसुद्धस्स । $ १३६. एत्थ विसेसगुणहाणपरिहारेण संजदासंजदम्मि सामित्तविहाणस्स कारणं पुव्वं व वत्तव्वं । * कोहसंजलणस्स जहरणाणुभागउदीरणा कस्स? ६१३७. सुगमं । * खवगस्स चरिमसमयकोधवेदगस्स। ६१३८. जो खवगो कोधोदएण खवगसेढिमारूढो अट्ठकसाए खविय पुणो जहाकममंतरकरणं समाणिय णवंसय०-इत्थिवेद-छण्णोकसाए पुरिसवेदं च जहावुत्तेण * संयमके अभिमुख हुए सर्वविशुद्ध अन्तिम समयवर्ती असंयतसम्यग्दृष्टिके होती है। ___ १३४. संयमके अभिमुख हुआ असंयत सम्यग्दृष्टि जीव संयमके अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि जीवकी विशुद्धिसे अनन्तगुणी विशुद्धिसे विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ प्रति समय अनन्तगुणे हीन अप्रत्याख्यान कषायके अनुभागको अन्तर्मुहूर्तमात्र विशुद्धिकालके अन्तिम समय तक उदीरित करता है। इसलिए विषयान्तरके परिहार द्वारा यहीं पर प्रकृत जघन्य स्वामित्वका निश्चय करना चाहिए। * प्रत्याख्यानावरण कषायकी जघन्य अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? $१३५. यह सूत्र सुगम है। * संयमके अभिमुख हुए सर्वविशुद्ध अन्तिम समयवर्ती संयतासंयतके होती है। $ १३६. यहाँपर विशेषगुणस्थानके परिहारद्वारा संयतासंयतके जो स्वामित्वका विधान किया है उसका कारण पहलेके समान कहना चाहिए। * क्रोधसंज्वलनकी जघन्य अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? $ १३७. यह सूत्र सुगम है।। * अन्तिम समयवर्ती क्रोधवेदक क्षपकके होती है। $ १३८. क्रोधके उदयसे क्षपकणिपर आरूढ हुआ जो क्षपक आठ कषायोंका क्षय कर पुनः क्रमसे अन्तरकरण समाप्तकर नपुसकवेद, स्त्रीवेद, छह नोकषाय और पुरुषवेदका यथोक्त क्रमसे नाशकर तदनन्तर अश्वकर्णकरण और कृष्टिकरण कालको बिताकर क्रोधकी Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ कमेण णिण्णासिय तदो अस्सकण्णकरण-किट्टीकरणद्धाओ गमिय कोहतिण्णिसंगहकिट्टीओ वेदेमाणो तदियसंगहकिट्टीवेदयपढमट्ठिदीए समयाहियावलियमेत्तसेसाए चरिमसमयकोहवेदगो जादो, तस्स कोहसंजलणविसया जहण्णाणुभागुदीरणा होदि, हेडिमासेसउदीरणाहिंतो एदिस्से उदीरणाए अणंतगुणहीणत्तदंसणादो। * माणसंजलणस्स जहएणाणुभागउदीरणा कस्स ? १३९. सुगमं । * खवगस्स चरिमसमयमाणवेदगस्स।। $१४०. एदस्स वि सुत्तस्सत्थो अणंतरादिकंतस्स सामित्तसुत्तस्सेव वक्खाणेयव्यो। णवरि कोह-माणाणमण्णदरोदएण खवगसेढिमारूढस्स चरिमसमयमाणवेदगावत्थाए वट्टमाणस्स पयदजहण्णसामित्तं होदि त्ति वत्तव्वं । * मायासंजलणस्स जहण्णाणुभागउदीरणा कस्स ? १४१. सुगमं । * खवगस्स चरिमसमयमायावेदगस्स । $ १४२. एत्थ वि कोह-माण-मायाणमुदएण सेढिमारूढस्स पयदजहण्णसामित्तमवगंतव्वं । * लोहसंजलणस्स जहएणाणुभागउदीरणा कस्स ? तीन संग्रह कृष्टियोंका वेदन करता हुआ तृतीय संग्रहकृष्टिवेदककी प्रथम स्थितिमें एक समय अधिक एक आवलिमात्र कालके शेष रहने पर अन्तिम समयवर्ती क्रोधवेदक हो गया उसके क्रोधसंज्वलनविषयक जघन्य अनुभाग उदीरणा होती है, क्योंकि अधस्तन समस्त उदीरणाओंसे इस उदीरणाका अनन्तगुणा हीनपना देखा जाता है। * मान संज्वलनकी जघन्य अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? $ १३९. यह सूत्र सुगम है। * अन्तिम समयवर्ती मानवेदक क्षपकके होती है। $ १४०. इस सूत्रके अर्थका भी अनन्तर अतिक्रान्त हुए स्वामित्वविषयक सूत्रके समान व्याख्यान करना चाहिए । इतनी विशेषता है कि क्रोध और मानमेंसे अन्यतरके उदयसे क्षपक श्रेणिपर आरूढ हुए तथा मानवेदकके अन्तिम समयमें होनेवाली अवस्थामें विद्यमान हुए जीवके प्रकृत जघन्य स्वामित्व होता है ऐसा यहाँ कहना चाहिए। * मायासंज्वलनको जघन्य अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? $ १४१. यह सूत्र सुगम है। * अन्तिम समयवर्ती मायावेदक क्षपकके होती है। $१४२. यहाँपर भी क्रोध, मान और मायाके उदयसे भणिपर चढ़े हुए जीवके प्रकृत जघन्य स्वामित्व जानना चाहिए । * लोभसंज्वलनकी जघन्य अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए सामित् $ १४३. सुगमं । * खवयस्स समयाहियावलियचरिमसमयसकसायस्स । $ १४४. कुदो ? समयाहियावलियचरिमसमयवट्टमाणसुडुमसां पराइयखवगस्स सुहुमकिट्टिसरूवाणुभागोदीरणाए सुट्ठ जहण्णभावोववत्तीदो । * इत्थिवेदस्स जहण्णाणुभागउदीरणा कस्स ? $ १४५. सुगमं । * इत्थिवेदखवगस्स समयाहियावलियचरिमसमयसवेदस्स । * पुरिसवेदस्स जहण्णाणुभागउदीरणा कस्स ? * पुरिसवेदखवगस्स समयाहियावलियचरिमसमयसवेदस्स । ५९ * णवुंसयवेदस्स जहण्णाणुभागुदीरणा कस्स ? * णवुंसयवेदखवयस्स समयाहियावलियचरिमसमयसवेदस्स । $ १४६. दाणि सुचाणि सुगमाणि, अप्पप्पणो उदएण खवगसेढिमारूढसमयाहियावलियचरिमसमयसवेदं मोत्तणण्णत्थे देसिमणुभागुदीरणाए जहण्णभावाणुवलद्धीदो । $ १४३. यह सूत्र सुगम है । * एक समय अधिक आवलिके उदीरणासम्बन्धी अन्तिम समयमें स्थित सकषाय क्षपक जीवके होती है । $ १४४. क्योंकि समयाधिक आवलिके उदीरणासम्बन्धी अन्तिम समयमें विद्यमान सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपक जीवके सूक्ष्मकृष्टिस्वरूप अनुभाग उदीरणाका अत्यन्त जघन्यपना बन जाता है । * स्त्रीवेदकी जघन्य अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? $ १४५. यह सूत्र सुगम है । * समयाधिक आवलिके उदीरणाविषयक अन्तिम समयवर्ती सवेदी स्त्रीवेदी क्षपकके होती है । * पुरुषवेदकी जघन्य अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? * समयाधिक आवलिके उदीरणाविषयक अन्तिम समयवर्ती सवेदी पुरुषवेदी क्षपकके होती है । * नपुंसकवेदकी जघन्य अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? * समयाधिक आवलिके उदीरणाविषयक अन्तिम समयवर्ती सवेदी नपुंसकवेदी क्षपक होती है । $ १४६. ये सूत्र सुगम हैं, क्योंकि अपने-अपने उदयसे क्षपकश्र णिपर आरूढ़ हुए समयाधिक आवलिके उदीरणाविषयक अन्तिम समयवर्ती सवेद भावको छोड़कर अन्यत्र इनकी उदीरणाका जघन्यपना नहीं उपलब्ध होता । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ * छण्णोकसायाणं जहएणाणुभागुदीरणा कस्स ? १४७. सुगमं । * खवगस्स चरिमसमयअपुव्वकरणे वट्टमाणस्स। $ १४८. कुदो ? तत्थेदेसिमपुव्वकरणचरिमविसोहीए हेद्विमासेसविसोहीहितो अणंतगुणाए उदीरिजमाणाणुभागस्स सुट्ट जहण्णभावोववत्तीदो। एवमोघेण जहण्णसामित्तं समत्तं । $१४९. संपहि आदेसपरूवणट्ठमेत्थुच्चारणाणुगमं वत्तइस्सामो। तं जहाजहण्णए पयदं । दुविहो णिदेसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत्त-अणंताणु०४ जह० अणुभागुदी० कस्स ? अण्णद० संजमाहिमुहस्स सव्वविसुद्धस्स. चरिमसमयमिच्छाइट्ठिस्स । सम्म० जह० अणुभागुदी० कस्स ? अण्णद० समयाहियावलियचरिमसमयअक्खीणदंसणमोहस्स । सम्मामि० जह० कस्स ? अण्णद्० सम्मत्ताहिमुहस्स चरिमसमयसम्मामिच्छाइट्ठिस्स सव्वविसुद्धस्स । अपञ्चक्खाण०४ जह• अणुभागुदी. कस्स ? अण्णद० संजमाहिमुहस्स चरिमसमयअसंजदसम्माइट्ठिस्स सव्वविसुद्धस्स । एवं पञ्चक्खाण०४ । णवरि चरिमसमयसंजदासंजदस्स । कोहसंजल० जह० अणुभागुदी० कस्स ? अण्णद० खवगस्स चरिमसमयउदीरेमाणगस्स । एवं माण-माया-लोभसंजलणाणं। * छह नोकषायोंकी जघन्य अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? 5 १४७. यह सूत्र सुगम है। * अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें विद्यमान क्षपकके होती है। $ १४८. क्योंकि अधस्तन समस्त विशुद्धियोंसे अनन्तगुणी अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें पाई जानेवाली विशुद्धिके कारण वहाँपर इन कर्मोके उदीर्यमाण अनुभागका अत्यन्त जघन्यपना पाया जाता है। इस प्रकार ओघसे जघन्य स्वामित्व समाप्त हुआ। $ १४९. अब आदेशका कथन करनेके लिए यहाँ उच्चारणानुगमको बतलाते हैं। यथा-जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? संयमके अभिमुख हुए सर्व विशुद्ध अन्तिम समयवर्ती अन्यतर मिथ्यादृष्टिके होती है । सम्यक्त्वकी जघन्य अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? समयाधिक आवलिके उदोरणासम्बन्धी अन्तिम समयवर्ती अक्षीण नमोही अन्यतर सम्यग्दृष्टिके होती है। सम्यग्मिध्यात्वकी जघन्य अनुभागउदीरणा किसके होती है ? सम्यक्त्वके अभिमुख हुए सर्वविशुद्ध अन्तिम समयवर्ती अन्यतर सम्यग्मिध्यादृष्टिके होती है । अप्रत्याख्यानकषायचतुष्ककी जघन्य अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? संयमके अभिमुख हुए सर्वविशुद्ध अन्तिम समयवर्ती अन्यतर असंयतसम्यग्दृष्टिके होती है। इसी प्रकार प्रत्याख्यान कषायचतुष्ककी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अन्तिम समयवर्ती संयतासंयतके कहनी चाहिए। क्रोधसंज्वलनकी जघन्य अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? अन्तिम समयमें उदीरणा करनेवाले अन्यतर अपकके होती है। इसी प्रकार मान, Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए सामित्त पुरिसबेद० जह० अणुभागुदी० कस्स ? अण्णद० खवगस्स समयाहियावलियषढमट्ठिदिमुदीरेमाणस्स । एवमित्थिवेद-णस० । छण्णोक० जह० अणुभागुदी० कस्स ? अण्णद० चरिमसमयअपुव्वकरणखवगस्स सबविसुद्धस्स । एवं मणुसतिए । णवरि वेदा जाणियव्वा । $ १५०. आदेसेण णेरड्य० मिच्छ० जह० कस्म ? अण्णद० पढमसम्मत्ताहिमुहस्स समयाहियावलियचरिमसमयमुदीरेमाणगस्स । एवमणंताणु० । णवरि चरिमसमयमुदीरेमाणगस्स । सम्म०-सम्मामि० ओघं । बारसक०-सत्तणोक० जह० अणुभागुदी० कस्स ? अण्णद० सम्माइद्विस्स सव्वविसुद्धस्स । एवं पढमाए । विदियादि जाव सत्तमा त्ति एवं चेव । णवरि सम्म० जह० कस्स ? अण्णद० सम्माइद्विस्स सव्वविसुद्धस्स । $ १५१. तिरिक्खेसु मिच्छ०-अणंताणु०४ जह० कस्स ? अण्णद० संजमासंजमाहिमुहचरिमसमयमिच्छाइट्ठिस्स सव्वविसुद्धस्स । सम्म०-सम्मामि० ओघं । अपच्चक्खाण०४ जह० अणुभागुदी० कस्स ? अण्णदरस्स संजमासंजमाहिमुहचरिमसमयवेदगसम्माइट्ठिस्स सव्वविसुद्धस्स । अट्ठक०-णवणोक० जह० अणुभागुदी०' कस्स ? माया और लोभसंज्वलनकी अपेक्षा जानना चाहिए। पुरुषवेदकी जघन्य अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? समयाधिक आवलि कालवाली प्रथम स्थितिकी उदीरणा करनेवाले अन्यतर अपकके होती है । इसी प्रकार स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। छह नोकषायोंकी जघन्य अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? अन्तिम समयवर्ती सर्वविशुद्ध अन्यतर अपूर्वकरण क्षपकके होती है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि जिसके जो वेद हो उसे जान लेना चाहिए। $ १५०. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्वकी जघन्य अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? समयाधिक आवलिके उदीरणासम्बन्धी अन्तिम समयमें उदीरणा करनेवाले प्रथम सम्यक्त्वके अभिमुख हुए अन्यतर नारकीके होती है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अन्तिम समयमें उदीरणा करनेवालेके कहना चाहिए । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है । बारह कषाय और सात नोकषायोंकी जघन्य अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? अन्यतर सर्वविशुद्ध सम्यग्दृष्टिके होती है। इसी प्रकार पहली पृथिवीमें जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पथिवी तकके नारकियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वकी जघन्य अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? अन्यतर सर्वविशुद्ध सम्यग्दृष्टिके होती है। $ १५१. तिर्यञ्चोंमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य अनुभागउदीरणा किसके होती है ? संयमासंयमके अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती सर्वविशुद्ध अन्यतर मिथ्यादृष्टिके होती है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। अप्रत्याख्यानकषायचतुष्ककी जघन्य अनुभागउदीरणा किसके होती है ? संयमासंयमके अभिमुख हुए अन्तिम १. आ प्रतौ णवणोक० अणुभागुदी० इति पाठः । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [वेदगो७ अण्णद० संजदासंजदस्स सव्वविसुद्धस्स । एवं पंचिंदियतिरिक्खतिए । णवरि वेदा जाणियबा । जोणिणीसु सम्म० अट्ठकसायभंगो। पंचिंदियतिरिक्खअपज०-मणुसअपज० मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोक० जह० अणुभागुदी० कस्स ? अण्णद० तप्पाओग्गविसुद्धस्स । $ १५२. देवाणं णारयभंगो। णवरि इत्थवेद-पुरिसवेद० बारसकसायभंगो । णस० णत्थि । एवं सोहम्मीसाण । एवं सणकमारादि जाव णवगेवजा त्ति । णवरि इत्थिवेदो पत्थि । भवण-वाण-०-जोदिसि० देवोघं । णवरि सम्म० बारसकसायभंगो । अणुद्दिसादि सव्वट्ठा त्ति सम्म०-बारसक०-सत्तणोक० आणदभंगो । एवं जाव०। * एगजीवेण कालो। $ १५३. सुगममेदं सुत्तं, अहियारसंभालणफलत्तादो। * मिच्छत्तस्स उकस्साणुभागउदीरगो केवचिरं कालादो होदि ? १५४. सुगमं । * जहएणेण एयसमओ । $ १५५. तं जहा—अणुक्कस्साणुभागुदीरगो सण्णिमिच्छाइट्ठी एगसमयउक्कस्ससमयवर्ती सर्वविशुद्ध अन्यतर वेदकसम्यग्दृष्टिके होती है । आठ कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य अनुभागउदीरणा किसके होती है ? सर्वविशुद्ध अन्यतर संयतासंयतके होती है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अपना-अपना वेद जान लेना चाहिए । योनिनियोंमें सम्यक्त्वका भंग आठ कषायोंके समान है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंकी जघन्य अनुभागउदीरणा किसके होती है ? अन्यतर तत्प्रायोग्य विशुद्धके होती है। $ १५२. देवोंमें नारकियोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेदका भंग बारह कषायोंके समान है। देवोंमें नपुंसकवेद नहीं है। इसी प्रकार सौधर्म और ऐशान कल्पमें जानना चाहिए। इसी प्रकार सनत्कुमारसे लेकर नौ वेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए । इतनो बिशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद नहीं है। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें सामान्य देवोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्बका भंग बारह कषायोंके समान है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सम्यक्त्व, बारह कषाय और सात नोकषायोंका भंग आनतकल्पके समान है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। * एक जीवकी अपेक्षा कालका अधिकार है । $ १५३. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि इसका फल अधिकारकी सम्हाल करना है। * मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका कितना काल है ? $ १५४. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य काल एक समय है। $ १५५. यथा-अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला संज्ञी मिथ्यादृष्टि जीव एक Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ गा०६२] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए एगजीवेणकालो संकिलेसेण परिणमिय उक्कस्साणुभागुदीरगो जादो विदियसमए उक्स्ससंकिलेसक्खएणाणुकस्सभावमुवगओ लद्धो तस्स मिच्छत्तुकस्साणुभागोदीरणजहण्णकालो एगसमयमेत्तो। * उकस्सेण वे समया। $ १५६. तं कथं ? अणुकस्साणुभागुदीरगो उकस्ससंतकम्मिओ उक्कस्ससंकिलेसमावूरिय दोसु समएसु मिच्छत्तस्स उक्कस्साणुभागुदीरगो जादो। तदो से काले संकिलेसपरिक्खएणाणुकस्सभावे णिवदिदो लद्धो मिच्छत्तुक्कस्साणुमागुदीरगस्स उक्कस्सकालो विसमयमेत्तो, तत्तो परमुक्कस्ससंकिलेसस्सावट्ठाणाभावादो। * अणुक्कस्साणुभागुदीरगो केवचिरं कालादो होदि ? ६१५७. मिच्छत्तस्से ति अहियारसंबंधो । सुगममण्णं । * जहणणेण एगसमओ। $१५८. तं जहा—उक्कस्सट्ठिदिबंधकारणुक्कस्सज्झवसाणस्सासंखेजलोगमेत्ताणि अणुभागबंधपाओग्गज्झवसाणट्ठाणाणि होति । पुणो तत्थुक्कस्साणुभागबंधपाओग्गुक्कस्ससंकिलेसेण परिणमिय उक्कस्साणुभागमुदीरेमाणो परिणामवसेणेगसमयमणुकस्साणुभागमुदीरिय पुणो वि से काले उक्कस्ससंकिलेसपडिलभेणुकस्साणुभागुदीरगो जादो। लद्धो समयके लिए उत्कृष्ट संक्लेश परिणामसे परिणमकर उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक हो गया तथा दूसरे समयमें उत्कृष्ट संक्लेशके क्षयसे अनुत्कृष्टभावको प्राप्त हो गया इस प्रकार मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणाका जघन्य काल एक समय प्राप्त हो गया। * उत्कृष्ट काल दो समय है। $ १५६. शंका-वह कैसे ? समाधान-अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक उत्कृष्ट सत्कर्मवाला जीव उत्कृष्ट संक्लेशको पूरित कर दो समय तक मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक हो गया। इसके बाद तदनन्तर समयमें संक्लेशका क्षय होनेसे अनुत्कृष्टभावको प्राप्त हुआ । इस प्रकार मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका उत्कृष्ट काल दो समय प्राप्त हो गया, क्योंकि उसके आगे उत्कृष्ट संक्लेशके अवस्थानका अभाव है। * अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका कितना काल है ? $ १५७. 'मिथ्यात्वके' इस प्रकार अधिकारका सम्बन्ध है । अन्य कथन सुगम है। * जघन्य काल एक समय है। $ १५८. यथा—उत्कृष्ट स्थितिबन्धके कारणभूत उत्कृष्ट अध्यवसानके असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागबन्धप्रायोग्य अध्यवसानस्थान होते हैं । पुनः वहाँ उत्कृष्ट अनुभागबन्धप्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशसे परिणमकर उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला परिणामवश एक समयके लिए अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा कर फिर भी तदनन्तर समयमें उत्कृष्ट संक्लेशकी प्राप्ति होनेसे उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक हो गया । इस प्रकार मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट अनुभागके Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ मिच्छत्ताणुकस्साणुभागुदीरगस्स जहण्णकालो एगसमयमेत्तो। कधमुक्कस्ससंकिलेसादो पडिभग्गस्स अंतोमुहुत्तेण विणा एगसमयेणेव पुणो उकस्ससंकिलेसावूरणसंभवो चि हासंकणिजं, अणुभागबंधझवसाणट्ठाणेसु तहाविहणियमाणभुवगमादो । * उक्कस्सेण असंखेजा पोग्गलपरिया। $ १५९. कुदो ? पंचिदिएहितो एइंदिएसु पइट्ठस्स उक्स्ससंकिलेसपडिलंभेण विणा आवलि० असंखे०भागमेत्तपोग्गलपरियट्टेसु परिब्भमणदसणादो। * सम्मत्तस्स उकस्साणुभागुदीरगो केवचिरं कालादो होदि ? ६१६०. सुगमं । * जहएणुकस्सेण एगसमओ। $ १६१. कुदो ? मिच्छत्ताहिमुहसव्वसंकिलिट्ठासंजदसम्मादिट्ठिचरिमसमयं मोत्तणण्णत्थ सम्मत्तुक्कस्साणुभागुदीरणाए संभवाणुवलंभादो । * अणुकस्साणुभागउदीरगो केवचिरं कालादो होवि ? $१६२. सुगमं । * जहरणेण अंतोमुहुत्तं । उदीरकका जघन्य काल एक समय प्राप्त हो गया। शंका–उत्कृष्ट संक्लेशसे च्युत हुए जीवके अन्मुहूर्त हुए बिना एक समयके बाद ही पुनः उत्कृष्ट संक्लेशकी आपूर्ति कैसे सम्भव है ? समाधान–यहाँ ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानोंमें उस प्रकारका नियम नहीं स्वीकार किया गया है। . * उत्कृष्ट काल असंख्यात पुगदलपरिवर्तनप्रमाण है । $ १५९. क्योंकि पञ्चेन्द्रियोंमेंसे एकेन्द्रियोंमें प्रविष्ट हुए जीवके उत्कृष्ट संक्लेशकी प्राप्ति हुए बिना आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण पुद्गल परिवर्तनोंमें परिभ्रमण देखा जाता है। * सम्यक्त्वके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका कितना काल है ? $ १६०. यह सूत्र सुगम है। जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । ६ १६१. क्योंकि मिथ्यात्वके अभिमुख हुए सर्व संक्लेश परिणामवाले असंयतसम्यग्दृष्टिके अन्तिम समयको छोड़कर अन्यत्र सम्यक्त्वको उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा सम्भव नहीं है। * अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका कितना काल है ? $ १६२. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य काल Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए एयजीवेण कालो ६५ $ १६३. कुदो ? वेदगसम्मत्तं घेत्तूण सव्वजहणणंतोमुहुत्तेण कालेन मिच्छत्तं पडवण्णम्मि अणुकरसजहण्णकालस्स तप्यमाणत्तोवलंभादो । * उक्कस्सेण छावट्ठिसागरोवमाणि आवलियूणाणि । $ १६४. कुदो ? वेदगसम्मत्त उक्कस्सकालस्सावलियूणस्स पयदुक्कस्सकालत्तेणावलंबियत्तदो । कुदो आवलियूणत्तमिदि चे' ? छावट्टिसागरोवमाणमवसाणे अंतोमुहुत्तसेसे दंसणमोहणीयं खवेंतस्स सम्मत्तपढमट्ठिदीए समयाहियावलियमेत्तसे साए सम्मत्तुदीरणाए जवसाणं होई, तेणावलियूणत्तमेत्थ दट्ठव्वमिदि । * सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्साणुभागउदीरगो केवचिरं कालादो होदि ? $ १६५. सुगमं । * जहष्णुक्कस्सेण एयसमयो । $ १६६. किं कारणं १ सव्वकस्ससंकिलेसेण मिच्छत्तं पडिवजमाणसम्मामिच्छाइचिरिमसमए चैव सम्मामिच्छत्तु कस्साणुभागुदीरणादंसणादो । * अणुक्कस्साणुभागुदीरगो केवचिरं कालादो होदि ? $ १६३. क्योंकि वेदक सम्यक्त्वको ग्रहणकर सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा मिथ्यात्वको प्राप्त होनेपर अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य काल तत्प्रमाण उपलब्ध होता है । * उत्कृष्ट काल एक आवलिकम छ्यासठ सागरोपम है । $ १६४. क्योंकि वेदकसम्यक्त्वके एक आवलिकम उत्कृष्ट कालका प्रकृत उत्कृष्ट कालरूपसे अवलम्बन लिया है । शंका – एक आवलि कम कैसे ? समाधान——छयासठ सागरोपमके अन्तमें अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले जीवके सम्यक्त्वकी प्रथम स्थितिके, समयाधिक आवलिमात्र शेष रहनेपर सम्यक्त्वकी उदीरणाका पर्यवसान होता है, इसलिए एक आवलिप्रमाण न्यूनता यहाँपर जानना चाहिए । * सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका कितना काल है ? $ १६५. यह सूत्र सुगम है । * जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । $ १६६. क्योंकि सर्वोत्कृष्ट संलेशसे मिध्यात्वको प्राप्त होनेवाले सम्यग्मिथ्यादृष्टिके अन्तिम समयमें ही सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा देखी जाती है। * अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका कितना काल है ? १. आ०प्रतौ वे इति पाठः, त०प्रतौ वे ( चे ) इति पाठः ९ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ $१६७. सुगमं । * जहएणुक्कस्सेण अंतोमुहत्त। $ १६८. कुदो ? जहण्णुक्कस्ससम्मामिच्छत्तगुणकालस्स तप्पमाणत्तादो । * सेसाणं कम्माणं मिच्छत्तभंगो। $ १६९. जहा मिच्छत्तस्स उक्कस्साणुकस्साणुभागुदीरगजहण्णुक्कस्सकालपरूवणा कदा तहा सोलसकसाय-णवणोकसायाणं पि कायव्या, विसेसाभावादो। णवरि एदेसि कम्माणमणुक्कस्साणुभागुदीरगउक्कस्सकालगओ विसेसो अत्थि त्ति तप्पदुप्पायणट्ठमाह-- * णवरि अणुक्कस्साणुभागुदीरगउक्कस्सकालो पयडिकालो कादवो। $ १७०. एदेसि कम्माणं पयडिउदीरणाए जो उकस्सकालो सो चेव एत्थाणुकस्साणुभागुदीरगस्स णिरवसेसेण कायव्यो त्ति भणिदं होइ। $ १७१. संपहि एदेण सुत्तेण सूचिदत्थस्स विवरणट्ठमादेसपरूवणटुं च उचारणाणुगममेत्थ कस्सामो । तं जहा____१७२. कालो दुविहो—जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०-णस० उक्क० अणुभागुदी० जह० एगस०, उक्क० वे $ १६७. यह सूत्र सुगम है।। * जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । $ १६८. क्योंकि जघन्य और उत्कृष्ट सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानका काल तत्प्रमाण होता है। * शेष कर्मोंका भंग मिथ्यात्वके समान है । $ १६९. जिस प्रकार मिथ्यात्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीवके जघन्य और उत्कृष्ट कालका कथन किया है उसी प्रकार सोलह कषाय और नौ नोकषायोंका भी करना चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। इतनी विशेषता है कि इन कर्मों के अनुकृष्ट अनुभागके उदीरककी उत्कृष्ट कालगत विशेषता है, इसलिए उसके कथन करनेके लिए कहते हैं * इतनी विशेषता है कि इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका उत्कृष्ट काल प्रकृति उदीरणाके उत्कृष्ट कालके समान करना चाहिए। $ १७०. इन प्रकृतियोंकी प्रकृति उदीरणाका जो उत्कृष्ट काल है वही यहाँपर अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरकका निरवशेषरूपसे करना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। 5 १७१. अब इस सूत्रक द्वारा सूचित हुए अर्थका विवरण करनेके लिए और आदेशका कथन करनेके लिए यहाँ पर उच्चारणाका अनुगम करते हैं । यथा १७२. काल दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकार का है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व और नपुंसकवेदके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए एयजीवेण कालो समया । अणुक० जह० एयस०, उक्क० अणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । एवं सोलसक०-भय-दुगुंछ । णवरि अणुक० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । एवं हस्स-रदिअरदि-सोग० । णवरि अणुक० जह० एगस०, उक्क० छम्मासं तेत्तीसं सागरो० सादिरेयाणि । एवमित्थिवेद-पुरिसवेद० । णवरि अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० पलिदोवमसदपुधत्तं सागरोवमसदपुधत्तं । सम्म० उक० अणुभागुदी० जह० उक्क० एयस० । अणुक० जह० अंतोमु०, उक्क० छावहिसागरो० आवलियूणाणि । सम्मामि० उक० जह० उक्क० एगस० । अणुक्क० जहण्णुक्क० अंतोमुहुत्तं । १७३. आदेसेणणेरइय० मिच्छ०-णस०-अरदि-सोग० उक्क. जह० एयस०, उक्क वे समया । अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि । एवं सोलसक०-चदुणोक० । णवरि अणुक० जह० एयस०, उक्क० अंतोमुहुत्तं । सम्म० उक्क० जह० उक्क० एयस० । अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । 'जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । इसी प्रकार सोलह कषाय, भय और जुगुप्साके विषयमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहर्त है। इसी प्रकार हास्य, रति, अरति और शोककी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल हास्य और रतिका छह महीना तथा अरति और शोकका साधिक तेतीस सागरोपम है । इसी प्रकार स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल क्रमसे सौ पल्योपमपथक्त्वप्रमाण और सौ सागरोपम पथक्त्वप्रमाण है। सम्यक्त्वके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल एक आवलि कम छयासठ सागरोपम है । सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ—सव प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकके जघन्य और उत्कृष्ट कालका स्पष्टीकरण चूर्णिसूत्रोंमें किया ही है, इसलिए अलगसे खुलासा नहीं कर रहे हैं । आगे चारों गतियों सम्बन्धी उक्त कालका खुलासा भी सुगम है। इसलिए यदि कहीं किसी प्रकारका विशेष स्पष्टीकरण आवश्यक होगा तो मात्र उसका अलगसे निर्देश करेंगे। $ १७३. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, अरति और शोकके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागरोपम है। इसी प्रकार सोलह कषाय और चार नोकषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अनुकृष्ट अनुभागके उदीरकका. जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। सम्क्त्व के उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट १. ता प्रतौ सागरोवमाणि देसूणणि । एवं इति पाठः। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ सम्मामि० ओघं । एवं सत्तमाए । णवरि सम्म० अणुक्क० जह० अंतोमु० । एवं पढमादि जाव छट्टि त्ति । णवरि सगट्ठिदीओ | अरदि-सोगं हस्तभंगो । पढमाए सम्म० अणुक० जह० एस० । १७४. तिरिक्खेसु मिच्छ० - णवुंस०- सम्मामि० ओघं । सम्म० उक्क० जह० उक्क॰ एगस०' । अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० तिष्णि पलिदोवमाणि देसूणाणि । सोलसक० - छण्णोक० पढमपुढविभंगो । इत्थवेद - पुरिसवेद० उक्क० अणुभागुदी० जह० एयस०, उक्क० वे समया । अणुक० जह० एस ०, उक्क० तिण्णि पलिदो० पुव्वकोडिधत्तेभहियाणि । एवं पंचिदियतिरिक्खतिये । णवरि मिच्छ० इत्थिवेदभंगो | णवुंस०अणुक० जह० एगस ०, उक्क ० पुव्वको डिपुधत्तं । पञ्जत्त० इत्थवेदो णत्थि । जोणिणीसु पुरिस० - पुंस० णत्थि । सम्म० अणुक० जह० अंतोमु० । ૨ अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कष्ट काल कुछ कम तेतीस सागरोपम है । सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त । इसी प्रकार पहली पृथिवीसे लेकर छटी पृथिवी तक जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए । अरति और शोकका भंग हास्यके समान है । तथा पहली पृथिवीमें सम्यक्त्वके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है । विशेषार्थ- — मात्र सातवीं पृथिवीमें अरति और शोककी अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा किसी नारीके अपने पर्याय तक निरन्तर होती रहती है, इसलिए वहाँ इनकी अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाका उत्कृष्ट काल तेतीस सागरोपम कहा है । अन्य पृथिवियों में तो यह काल हास्य और रतिके समान ही प्राप्त होता है, इसलिए वहाँ उसे हास्य और रतिके समान जानकी सूचना की है। शेष कथन सुगम है । $ १७४. तिर्यों में मिध्यात्व, नपुंसकवेद और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है । सम्यक्त्वके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय हैं और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्योम है | सोलह कषाय और छह नोकषायोंका भंग पहली पृथिवीके समान है । स्त्रीवेद और पुरुषवेदके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम है । इसी प्रकार पचेन्द्रिय तिर्यवत्रिक में जानना चाहिए । इतनी विशेषता है मिध्यात्वका भंग स्त्रीवेदके समान है । नपुंसकवेदके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है । तिर्य पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेद नहीं है तथा योनियों में पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं है और योनियों में सम्यक्त्वके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ – भोगभूमिमें नपुंसकवेदी पञ्चेन्द्रिय तिर्यच नहीं होते यह उक्त कालप्ररूपणासे सूचित होता है । यही कारण है कि पचेन्द्रिय तिर्यन पर्याप्तकों में नपुंसकवेदके अनुत्कृष्ट १. आ०ता०प्रत्योः जह० एस० इति पाठः । २. ताप्रतौ सम्म० उक० अणुक्क० इति पाठः । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए एयजीवेण कालो ६९ $ १७५. पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज० - मणुसअपज० सव्वपय ० उक्क० जह० एयस०, उक्क० वे समया । अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । मणुसतिये पंचिंदियतिरिक्खतियभंगो | णवरि सम्म० अणुक्क० जह० अंतोमु० । पजत्त० जह० एस० । $ १७६. देवेंसु मिच्छ० उक्क० अणुभागुदी० जह० एगस०, उक्क० वे समया । अणुक्क० जह० एस ०, उक्क० एक्कत्तीस सागरोव० । एवं पुरिस वेद० । णवरि अणुक्क० जह० एस०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि । एवमित्थिवेद० । णवरि अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० पणवण्णं पलिदोवमाणि । सम्मामि ० - हस्स - रदि० ओघं । सोलसक० - अरदिसोग - भय - दुगुंछा० पढमाए भंगो । सम्म० उक्क० जहण्णुक० एगसमओ | अणुक० जह० एस ०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि । एवं भवणादि जाव णवगेवञ्जाति । णवरि सगदी । हस्स - रदि० अरदि - सोगभंगो | णवरि भवण ० - वाणवें ० - जोदिसि० सम्म ० अनुभागके उदीरकका उत्कृष्ट काल पूर्वकोटि पृथक्त्वप्रमाण कहा है। मनुष्य पर्याप्तकों में भी नपुंसकवेदकी अपेक्षा इसी प्रकार जान लेना चहिए। शेष कथन सुगम है । $ १७५. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । मनुष्यत्रिकमें पञ्चन्द्रियतिर्यञ्चत्रिकके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है तथा मनुष्यपर्याप्तकों में जघन्य काल एक समय है । विशेषार्थ – मनुष्यपर्याप्तकों में सम्यक्त्वके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय कैसे घटित होता है इसका स्पष्टीकरण इसी प्रसंगसे प्रकृति उदीरणा अनुयोगद्वार में किया है, इसलिए उसे वहाँसे जान लेना चाहिए । शेष कथन सुगम है । $ १७६. देवों में मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल इकतीस सागरोपम है। इसी प्रकार पुरुषवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागरोपम है । इसी प्रकार स्त्रीवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेता है कि इसके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पचवन पल्योपम है । सम्यग्मिथ्यात्व, हास्य और रतिका भंग ओघके समान है । सोलह कषाय, अरति, शोक, भय और जुगुप्साका भंग पहली पृथिवीके समान है । सम्यक्त्वके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागरोपम है। इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर नौ प्रवेयकतकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए | हास्य और रतिका भंग अरति और शोकके समान है । इतनी विशेषता है कि भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें सम्यक्त्वके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ अणुक्क० जह० अंतोसु० । इत्थिवेद० अणुक० जह० एगसमओ, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि पलिदो० सादिरे० पलिदो० सादिरे० । सोहम्मोसाण० इत्थिवेद० देवोघं । उवरि इत्थिवेदो णत्थि । सहस्सारे हस्स-रदी० ओघं ।। $ १७७. अणुदिसादि० सव्वट्ठा त्ति सम्म०-पुरिसवे० उक्क० अणुभागुदी० जह० एगस०, उक्क० वे समया। अणुक० जह० एगस०, उक० सगट्टिदी। बारसक०छण्णोक० उक्क० जह० एगस०, उक्क० बे समया । अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । एवं जाव०। * एत्तो जहएणगो कालो। $ १७८. अहियारसंभालणवक्कमेदं । * सव्वासि पयडीणं जहण्णाणुभागउदीरगो केवचिरं कालादो होदि ? १७९. सुगम् । * जहणणुकस्सेण एगसमओ । $ १८०. तं जहा–मिच्छत्तस्स सम्मत्तविसुद्धसंजमाहिमुहचरिमसमयमिच्छाइद्विम्मि जहण्णसामित्तं जादं । एवं सम्मामिच्छादीणं पि णेदव्वं । तदो चरिमविसोहीए पडिलद्धजहण्णसामित्ताणमेदेसिं जहण्णाणुभागुदीरणकालो जहण्णुकस्सेणेगसमयमेत्तो चेवे त्ति काल अन्तर्मुहूर्त है । स्त्रीवेदके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल क्रमसे तीन पल्योपम, साधिक एक पल्योपम और साधिक एक पल्योपम है। सौधर्म और ऐशान कल्पमें स्त्रीवेदका भंग सामान्य देवोंके समान है। आगेके देवोंमें स्त्रीवेद नहीं है । सहस्रारकल्पमें हास्य और रतिका भंग सामान्य देवोंके समान है। $ १७७. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सम्यक्त्व और पुरुषवेदके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है। बारह कषाय और छह नोकपायोंके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। * इससे आगे जघन्य कालका अधिकार है । $ १७८. अधिकारकी सम्हाल करनेवाला यह सूत्रवचन है। * सब प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागके उदीरकका कितना काल है ? $ १७९. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । ६ १८०. यथा-सम्यक्त्वविशुद्ध संयमके अभिमुख अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिके मिथ्यात्वका जघन्य स्वामित्व है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व आदिका भी जानना चाहिए । इसलिए अन्तिम विशुद्धिसे जिन्होंने जघन्य स्वामित्व प्राप्त किया है ऐसी इन कृतियोंके जघन्य अनुभागकी उदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समयमात्र ही होता है यह सिद्ध हुआ। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए एगजीवेण कालो सिद्धं । संपहि सव्वेसिमजहण्णाणुभागुदीरणाए जहण्णुक्कस्सकालपमाणावहारणट्ठमुत्तरसुत्तमाह * अजहणणाणुभागुदीरणा पयडिउदीरणाभंगो। $ १८१. पयडिउदीरणाकालादो एदेसिमजहण्णाणुभागुदीरणाकालस्स भेदाभावादो । तदो सुत्तसमप्पिदत्थविसए सुहावगमुप्पायणट्ठमादेसपरूवणटुं च उच्चाणाणुगममेत्थ कस्सामो । तं जहा—जहण्णए पयदं । दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ० जह० अणुभागुदी० जह० उक्क० एयस० अजह० तिणि भंगा। जो सो सादि० सपजव० तस्स जह० अंतोमु०, उक्क० उवड्डपोग्गलपरियट्ट । सोलसक०-भय-दुगुंछ० जह० जहण्णुक्क० एगस० । अजह० जह० एगस०, उक० अंतोमुहुत्तं । इत्थिवे०-पुरिसवे०-णqस० जह० जहण्णुक्क० एगस० । अजह० जह. एगस० अंतोमु० एगस०, उक्क० पलिदोवमसदपुधत्तं सागरोवमसदपुधत्तं अणंतकालमसंखे०पो०परि० । हस्स-रदि-अरदि-सोग० जह० जहण्णुक० एगस० । अजह० जह० एगस०, उक्क० छम्मासं तेत्तीसं सागरो० सादिरेयाणि । सम्म०-सम्मामि० जह०. अजह० उक्कस्साणुक्कस्सभंगो। अब सब प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागकी उदीरणाके जघन्य और उत्कृष्ट कालके प्रमाणका अवधारण करनेके लिए आगेका सूत्र कहते है * अजघन्य अनुभाग उदीरणाकी कालविषयक प्ररूपणा प्रकृति उदीरणाके समान है। ६१८१. क्योंकि प्रकृति उदीरणाके कालसे इनके अजघन्य अनुभागउदीरणाके कालमें कोई अन्तर नहीं है । यतः सूत्र द्वारा प्राप्त अर्थके विषयमें सुखपूर्वक ज्ञान होजाय अतः और आदेशका कथन करनेके लिए यहाँ पर उच्चारणाका अनुगम करते हैं। यथा-जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दोप्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य अनुभागके उदीरकके तीन भंग हैं । उनमें जो सादि-सान्त भंग है उसका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल उपाध पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। सोलह कषाय, भय और जुगुप्साके जघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्ये अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुसकवेदके जघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य काल क्रमसे एक समय, अन्तर्मुहूर्त और एक समय है और उत्कृष्ट काल क्रमसे सौ पल्योपम पृथक्त्वप्रमाण, सौ सागरोपम पृथक्त्वप्रमाण और अनन्त काल है, यह अनन्त काल असंख्यात पुद्गल परिवर्तनोंके बराबर है। हास्य, रति, अरति और शोकके जघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कष्ट काल क्रमसे छह महीना और साधिक तेतीस सागरोपम है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वक जघन्य और अजघन्य अनुभागक उदारकक कालका भंग उत्कृष्ट और अनुत्कृष्टके समान है। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ $ १८२. आदेसेण णेरइय० ण स ० - अरदि- सोग० जह० जह० एगस०, उक्क ० वे समया । अजह० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीस सागरो० । एवं बारसक० - हस्स - रदिभय-दुर्गुछा० । णवरि अजह० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । सम्म० जह० जह० उक्क० एस० । अजह० जह० एस ०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । सम्मामि०अणताणु०४ ओघं । मिच्छ० जह० जहण्णुक्क० एस० । अजह० जह० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरोव० । एवं सत्तमाए । णवरि सम्म० जह० जह० एस ०, उक्क० वे समया । एवं पढमादि जाव छट्टित्ति । णवरि सगद्विदीओ | अरदि-सोगं हस्स-रदिभंगो | णवरि पढमाए सम्म० जह० जहण्णुक्क० एस० । 1 , ७२ $ १८३. तिरिक्खेसु मिच्छ० जह० अणुभागुदी ० जह० उक्क० एयस० । अजह० जह० अंतोमु०, उक्क० अनंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । सम्म० जह० जहण्णुक्क० एगस० । अजह० जह० एस ०, उक्क० तिष्णि पलिदो० देसूणाणि । सम्मामि०अकसाय० ओघं । अट्ठक० - छण्णोक० पढमपुढ विभंगो । इत्थवे ० - पुरिसवे ० - णवुंस० $ १८२ आदेश से नारकियों में नपुंसकवेद, अरति और शोकके जघन्व अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागरोपम है । इसी प्रकार बारह कषाय, हास्य, रति, भय और जगुप्साकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागरोपम है । सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग ओघ के समान है । मिथ्यात्व के जघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागरोपम है । इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वके जघन्य अनुभाग के उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । इसी प्रकार पहली से लेकर छटी पृथिवी तकके नारकियों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए । अरति और शोकका भंग हास्य और रतिके समान है । इतनी विशेषता है कि पहली पृथिवीमें सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । $ १८३. तिर्यों में मिध्यात्वके जघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य अनुभाग के उदीरकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट का अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनोंके बराबर है । सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्योपम है । सम्यग्मिथ्यात्व और आठ कपायोंका भंग ओघके समान है। आठ कषाय और छह नोकषायोंका भंग पहली पृथिवीके समान है | स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसक वेदके जघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए एयजीवेण कालो ७३ जह० जह० एगस०, उक्क० वे समया । अजह० जह० एगस०, उक्क० तिणि पलिदो ० पुव्वकोडिपुध० अणंतकालमसंखेजा० । एवं पंचिदियतिरिक्खतिये | णवरि मिच्छ० सगट्टिदी | णवुंस० उक्क० पुव्वकोडिपुध ० । वेदा जाणियव्वा । जोणिणीसु सम्म० जह० एगस०, उक्क० वेसमया । सेसं तं चैव । पंचिदियतिरिक्खअपज्ञ :- मणुसअप ० सव्वपयडी ० ० जह० जह० एगस०, उक्क० वे समया । अजह० जह० एगस ०, उक्क० अंतोमु० । $ १८४. मणुसतिए पंचिदियतिरिक्खतियभंगो । णवरि सव्वपयडी ० जह० जणुक० एस० । सम्म० अजह० जह० अंतोमु०, पज्ज० एस० । $ १८५. देवेसु मिच्छ० जह० जहण्णुक्क० एस० । अजह० जह० अंतोमु०, उक्क० एकत्तीस सागरोमाणि । सम्म० जह० जहण्णुक्क एगस० । अजह० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीस सागरो० । सम्मामि ० - सोलसक० - छण्णोक० पढमाए भंगो । वर हस्स - रदि० अज० जह० एस ०, उक्क० छम्मासं । इत्थिवेद - पुरिसवेद० जह० जह० एस ०, उक्क० वे समया । अजह० जह० एगस०, उक्क० पणवण्णं पलिंदो ० समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो वेदोंका पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम है और नपुंसक - वेदका अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनोंके बराबर है । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च त्रिकमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वके अजघन्य अनुभागके उदीरकका उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है । नपुंसकवेदके अजघन्य अनुभागके उदीरकका उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। जिसके जो वेद है उसे जान लेना चाहिए । योनिनियों में सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । शेष काल वही है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में सब प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट, काल दो समय है। अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल मुहूर्त है। 1 $ १८४. मनुष्यत्रिक पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि सब प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । सम्यक्त्वके अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । मनुष्यपर्याप्तकों में एक समय है । $ १८५. देवोंमें मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल " एक समय है । अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल इकतीस सागरोषम है । सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है | अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागरोपम है । सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकपायोंका भंग पहली पृथिवीके समान है । इतनी विशेषता है कि हास्य और रतिके अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल छह महीना है । स्त्रीवेद और पुरुषवेदके जघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अजघन्य १० Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ तेत्तीसं सागरो । एवं भवणादि णवगेवजा त्ति । णवरि सगद्विदीओ । हस्स-रदि० अरदि-सोगभंगो । सहस्सारे हस्स-रदि० देवोघं । भवण-वाणवें०-जोदिसि० सम्म जह० जह० एयस०, उक्क० वे समया। अजह० जह० एयसमओ, उक्क० सगहिदी देसूणा । इत्थिवे. अजह० जह० एयस०, उक्क० तिण्णि पलिदो० पलिदो० सादिरेयाणि प० सा० । सोहम्मीसाण० इत्थिवेद० देवोघं । उवरि इत्थिवेदो पत्थि । अणुद्दिसादि जाव सव्वट्ठा त्ति सम्म०-बारसक०-सत्तणोक० आणदभंगो । णवरि सगहिदी० । एवं जाव०। * अंतरं। 5 १८६. एगजीवविसयमंतरमेत्तो भणिस्सामो त्ति अहियारपरामरसवक्कमेदं । * मिच्छत्तस्स उक्कस्साणुभागुदीरगंतरं केवचिरं कालादो होदि ? १८७. सुगममेदं पुच्छावक्कं । * जहणणेण एगसमओ। $ १८८. कुदो ? उक्कस्सादो अणुक्कस्सभावं गंतूणेगसमयमंतरिय पुणो वि विदियसमए उक्कस्सभावमुवगयम्मि तदुवलंभादो । अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल क्रमसे पचवन पल्योपम और तेतीस सागरोपम है । इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर नौ वेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए । हास्य और रतिका भंग अरति और शोकके समान जानना चाहिए। मात्र सहस्रारकल्पमें हास्य और रतिकाभंग सामान्य देवोंके समान जानना चाहिए। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उप्कृष्ट काल दो समय है । अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है। स्त्रीवेदके अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल क्रमसे तीन पल्योपम, साधिक एक पल्योपम और साधिक एक पल्योपम है। सौधर्म और ऐशान कल्पमें स्त्रीवेदका भंग सामान्य देवोंके समान है। आगेके देवोंमें स्त्रीवेद नहीं है । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सम्यक्त्व, बारह कषाय और सात नोकषायोंका भंग आनत कल्पके समान है । इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । * अन्तरकालका अधिकार है। $ १८६. यहाँसे एक जीवविषयक अन्तरकालको कहेंगे। इस प्रकार अधिकारका परामर्श करनेवाला यह सूत्रवचन है। * मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका कितना अन्तरकाल है ? ६ १८७ यह पृच्छावाक्य सुगम है। * जघन्य अन्तरकाल एक समय है। $ १८८. क्योंकि उत्कृष्टसे अनुत्कृष्टपनेको प्राप्त होकर तथा एक समयके लिए अन्तर करके फिर भी दूसरे समयमें उत्कृष्टभावके प्राप्त होने पर एक समयप्रमाण उक्त अन्तरकाल प्राप्त होता है। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए एवजीवेण अंतरं ७५ * उक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । $ १८९. कुदो ? सणिपंचिदिएसुक्कस्ससंकिलेसेणुकस्साणुभागुदीरणाएं आदि कादूतरिय इंदिए पविसिय तदुक्कस्सट्ठिदिमेत्तमुक्कस्संतरमणुपालिय पुणो वि पडिणियत्तिय तसेसु आगंतूण पडिवण्णतब्भावम्मि तदुवलंभादो । * अणुक्कस्साणुभागुदीरगंतरं केवचिरं कालादो होदि ? $ १९०. सुगमं । * जहण्णेण एगसमओ । $ १९१. अणुक्कस्सादो उक्कस्सभावं गंतूणेगसमयमंतरिय पुणो वि तदणंतरसमये अणुक्कस्तभावेण परिणदम्मि तदुवलद्धीदो । * उक्कस्सेण वे छावट्टिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । $ १९२. तं जहा – मिच्छत्ताणुवस्साणुभागुदीरेमाणो पढमसम्मत्ताहिमुहो होदूण मिच्छत्तपढमडिदीए आवलियमेत्तसेसाए अणुदीरगभावेणंतरिय तदो सम्मत्तमुप्पाइय सव्वुक्कस्समुवसमसम्मत्तकालं वोलाविय वेदगसम्मत्तं पडिवज्जिय पढमछावट्टिमंतोमुहुत्तमणुपालय तदवसाणे सम्मामिच्छत्तेणंतोमुहुत्त मंतरिदो पुणो वि वेदगसम्मत्तं पडिलंभेण विदियछावहिं परिभमिय तदवसाणे अंतोमुहुत्तमेत्तसेसे मिच्छत्तं गंतूण मिच्छा * उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है । $ १८९. क्योंकि संज्ञी पञ्चेन्द्रियोंमें उत्कृष्ट संक्लेशवश उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणाका प्रारम्भ कर तथा उसे अन्तरितकर और एकेन्द्रियोंमें प्रवेश कर एकेन्द्रियकी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण काल तक उत्कृष्ट अन्तरका अनुपालनकर फिर भी प्रतिनिवृत्त होकर सोंमें आकर उत्कृष्ट संक्लेशपूर्वक उत्कृष्ट उदीरणाके प्राप्त होने पर उक्त अन्तरकाल प्राप्त होता है । * अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका अन्तरकाल कितना है ? $ १९० यह सूत्र सुगम है । * जघन्य अन्तरकाल एक समय है । $ १९१. अनुत्कृष्टसे उत्कृष्टभावको प्राप्त होकर एक समयके लिए अन्तरित कर फिर भी तदनन्तर समय में अनुत्कृष्टभावसे परिणत होने पर उक्त अन्तरकाल प्राप्त होता है । * उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक दो छ्यासठ सागरोपम है । $ १९२. यथा — मिध्यात्वके अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला जीव प्रथम सम्यक्त्वके अभिमुख होकर मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिमें आवलिमात्र शेष रहने पर अनुदीरकभावसे अन्तरकर तदनन्तर सम्यक्त्वको उत्पन्न कर सबसे उत्कृष्ट उपशमसम्यक्त्वके कालको बिताकर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त कर तथा अन्तर्मुहूर्तकम प्रथम छयासठसागर काल तक उसका पालन कर उसके अन्तमें सम्यग्मिथ्यात्वके द्वारा अन्तर्मुहूर्त काल तक वेदकसम्यक्त्वको अन्तरित कर फिर भी वेदकसम्यक्त्वकी प्राप्तिद्वारा द्वितीय छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण कर १. आ० प्रतौ - णुक्कस्सादो भागुदीरणाए इति पाठः, ता०प्रतौ - गुक्कस्सादो इति पाठः । भागुदीरणांए Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ इद्विपढमसमए मिच्छत्ताणुकस्साणुभागुदीरगो जादो, लद्धमंतरं। संपहि सेसाणं पि कम्माणमेसा वेव परूपणा थोवयरविसेसाणुविद्धा कायव्या ति पदुप्पायणट्ठमप्पणासुत्तमाह * एवं सेसाणं कम्माणं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तवजाणं । $ १९३. एत्थ सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं किमटुं परिवजणं कीरदे ? ण, तेसिमुक्कस्साणुक्कस्सागुभागुदीरगंतरस्स मिच्छंतरपरूवणादो अइविलक्खणत्तेण साहम्मियाभावादो। तदो ताणि मोत्तण सेसाणं कम्माणं मिच्छत्तस्सेव पयदंतरपरूवणा कायव्वा, भेदाभावादो। णवरि अणुक्कस्साणुभागुदीरगस्स उक्कस्संतरगओ विसेसो अस्थि त्ति तप्पदुप्पायणट्टमाह * पवरि अणुक्कस्साणुभागुदीरगंतरं पयडिअंतरं कादव्वं ? १९४. एदेसिमणुक्कस्साणुभागुदीरगस्स उक्कस्सं जहा पयडिउदीरणाए उक्कस्संतरं परूविदं तहा परूवेयव्वमविसेसादो त्ति भणिदं होदि । * सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्साणुकस्साणुभागुदीरगंतरं केवचिरं कालादो होदि ? उसके अन्तमें अन्तमुहूर्तमात्र शेष रहने पर मिथ्यात्वमें जाकर मिथ्यादृष्टि गुणास्थानके प्रथम समयमें मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट अनुभागका उदोरक हो गया। इसप्रकार उत्कृष्ट अन्तरकाल प्राप्त हुआ। अव शेप कर्मोकी भी स्तोक विशेषतासे युक्त यही प्ररूपणा करनी चाहिए इस बातका कथन करनेके लिए अर्पणा सूत्रको कहते हैं * सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको छोड़कर इसी प्रकार शेष कर्मोंकी अपेक्षा जानना चाहिए । $ १९३. शंका–यहाँ पर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका निषेध किसलिए किया जाता है ? समाधान नहीं, क्योंकि उनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकके अन्तरकालकी मिथ्यात्वकी अन्तरप्ररूपणाके साथ अत्यन्त विलक्षणता होनेसे साम्य नहीं पाया जाता, इसलिए उन्हें छोड़कर शेप कर्मों के प्रकृत अन्तरकालकी ग्ररूपणा मिथ्यात्वके समान करनी चाहिए, क्योंकि इनकी प्ररूपणामें कोई भेद नहीं है । इतनी विशेषता है कि अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकके उत्कृष्ट अन्तरकालगत विशेप है, इसलिए उसका कथन करनेके लिए कहते हैं___* इतनी विशेषता है कि इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका अन्तरकाल प्रकृति उदीरणाके अन्तरकालके समान करना चाहिए। $ १९४. जिस प्रकार प्रकृति उदीरणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल कहा है उसी प्रकार इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल कहना चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई भेद नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका कितना अन्तरकाल है ? Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयंडिअणुभागउदीरणाए एयजीवेण अंतरं $ १९५. सुगमं । * जहरणेण अंतोमुहुत्त । * उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियह देसूणं । ७७ $ १९६. दाणि दो वि सुत्ताणि सुगमाणि । संपहि सुत्तसूचिदत्य विसये णिण्णयजणणमुच्चारणाणुगमं कस्सामा । तं जहा $ १९७, अंतरं दुविहं - जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि० - ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ० - अनंताणु - ४ उक्क० अणुभागुदी ० जह० एयस०, उक्क० अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० वेछावट्टिसागरो ० सादिरेयाणि । एवमकसाय० । णवरि अणुक्क० जह० एस ०, उक्क० पुव्वकोडी देसूणा । एवं चदुसंजलण-भय-दुगुंछ० । णवरि अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु॰ । एवं हस्स-रदि० । णवरि अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो ० सादिरेयाणि । एवमरदि-सोग० । णवरि अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० छम्मासा | एवं स० । वरि अणुक्क० जह० एगस०, उक्क सागरोवमसदपुत्तं । इत्विवेद $ १९५. यह सूत्र सुगम है * जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । * उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है । $ १९६. ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं । अब चूर्णिसूत्र के द्वारा सूचित हुए अर्थके विषवमें निर्णय उत्पन्न करनेके लिए उच्चारणाका अनुगम करेंगे । यथा $ १९७. अन्तरकाल दो प्रकारका है— जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन के बराबर है । अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक दो छ्यासठ सागरोपम है । इसी प्रकार आठ कषायों की अपेक्षा जान लेना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है । इसी प्रकार चार संज्वलन, भय और जुगुप्साकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है । इसी प्रकार हास्य और रतिकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तेतीस सागरोपम है । इसी प्रकार अरति और शोककी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीनाप्रमाण है । इसी प्रकार नपुंसकवेदकीं अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल सौ सागर पृथक्त्वप्रमाण है । स्त्रीवेद और Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदोग ७ " पुरिसवेद ० ० उक्क० अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । सम्म० - सम्मामि० उक्क० अणुक्क० जह० अंतोमु०, उक्क० उवड्डपोग्गलपरियङ्कं । ७८ $ १९८. आदेसेण णेरइय० मिच्छ० - अनंताणु०४ - इस्स-रदि० उक्क० अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० तेत्तीस सागरो० देसूणाणि । सम्म० सम्मामि० उक्क० अणुक्क० जह० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीस सागरोवमाणि देसूणाणि । बारसक० - अरदि-सोग-भयदुर्गुछाणं मिच्छत्तभंगो | णवरि अणुक्क० जह० एस ०, उक्क० अंतोमु० । एवं पुरुषवेदके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनके बराबर है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकुका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है । विशेषार्थ —संयतासंयत और संयतका उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है, इसीलिए यहाँ मध्यकी आठ कषायोंके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण कहा है, क्योंकि संयतासंयत अप्रत्याख्यान कषायचतुष्कके और संयत जीब प्रत्याख्यानकषायचतुष्कके अनुदीरक होते हैं। चार संज्वलन और भय - जुगुप्साकी उपशमश्र णिमें अपनी-अपनी उदीरणाव्युच्छित्तिके बाद लौट कर वहाँ आनेतक उदीरणा नहीं होती । यतः इस कालका योग अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभाग के उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है। सातवें नरकमें तथा वहाँ जानेके पूर्व और आनेके बाद अन्तर्मुहूर्त तक हास्य रतिकी उदीरणा न हो यह सम्भव है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तेतीस सागरोपम कहा है । सहस्त्रार कल्पमें छह महीना तक अरति शोककी उदीरणा न हो यह सम्भव है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल छह माहप्रमाण कहा है। सौ सागरपृथक्त्व काल तक कोई जीव T 'वेदी न हो ऐसा कालप्ररूपणासे ज्ञात होता है, इसलिए नपुंसकवेदके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल सौ सागरपृथक्त्वप्रमाण कहा है। जीवके नपुंसकवेदी रहते हुए स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उदीरणा नहीं होती, अतः उस कालको जानकर स्त्रीवेद और पुरुष - वेद के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तर काल अनन्त कालप्रमाण कहा है, जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनोंके बराबर है। एक बार सम्यग्दृष्टि होनेके बाद यह जीव उपार्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण काल तक मिथ्यादृष्टि बना रह सकता है, इसलिए सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त कालप्रमाण कहा है। शेष स्पष्टीकरण चूर्णिसूत्रोंसे ही हो जाता है। आगे गतिमार्गणा के उत्तर भेदोंमें भी जहाँ जो अन्तरकाल कहा है उसे इसी न्याय से घटित कर लेना चाहिए । कहीं कोई विशेष वक्तव्य होगा तो उसका स्पष्टीकरण अवश्य करेंगे । $ १९८. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धीचतुष्क, हास्य और रतिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरक्का जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम है। बारह कषाय, अरति, शोक, भय और जुगुप्साका भंग मिथ्यात्वके समान है । इतनी विशेषता है कि इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए एयजीवेण अंतरं ७९ ण स० । णवरि अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० वे समया । एवं सत्तमाए । एवं पढमाए जाव छट्ठिति । णवरि सगट्ठिदी देसूणा | हस्स -रदि० अरदि - सोगभंगो । $ १९९. तिरिक्खेसु ओघं । णवरि मिच्छ० - अनंताणु०४ अणुक्क० जह० एयस ०, उक्क० तिणि पलिदो० देसूणाणि । अट्ठक० - छण्णोक० अणुक्क० जह० एयस ०, उक्क अंतोमु० | स० अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० पुव्वकोडि धत्तं । २०० पंचिंदियतिरिक्खतिये मिच्छ० - सोलसक० - छण्णोक० उक्क० जह० एगस०, उक्क० पुव्वकोडिपुधत्तं । अणुक्क० तिरिक्खोघं । सम्म० - सम्मामि० उक्क० अणुक्क० जह० अंतोमु०, उक्क० तिण्णि पलिदो० पुव्वकोडि पुधत्तेणन्महियाणि । तिण्णिवेद० उक्क० अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० पुव्वको डिपुध० । वेदा जाणिव्वा । णवर जोणिणीसु इत्थिवेद० अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० वेसमया । १ २०१. पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज० - मणुस अपज० मिच्छ०- णव स० उक्क० जह० एयस ०, उक्क० अंतोमु० । अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० वेसमया । सोलस एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार नपुंसकवेदकी अपेक्षा जान लेना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल दो समय है । इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार पहलीसे लेकर छटी पृथिवीतक जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी अपनी स्थिति कहनी चाहिए। इन पृथिवियों में हास्य और रतिका ग अरति और शोकके समान है । $ १९९. तिर्यञ्चों में ओघके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तीन पल्योपम है । आठ कषाय और छह नोकषायोंके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उष्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। नपुंसकवेदके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्व प्रमाण है । $ २००. पचेन्द्रिय तिर्यश्वत्रिक में मिथ्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषायोंके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। अनुत्कृष्ट अनुभागके | उदीरकका भंग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम है । तीन वेदों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्व प्रमाण है । किसके कौन वेद है यह जान लेना चाहिए । इतनी विशेषता है कि योनिनी तिर्यञ्चों में स्त्रीवेदके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल दो समय है । $ २०१. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में मिध्यात्व और नपुंसक - वेदके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदोग ७ क०-छण्णोक० उक्क० अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु०।। $२०२. मणुसतिये पंचिंदियतिरिक्खतियभंगो । णवरि पच्चक्खाण०४ अणुक्क० ओघं । मणुसिणीसु इत्थिवेद० अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । $ २८३. देवेसु मिच्छ०-अणंताणु०४ उक्क० जह० एगस०, उक्क० अट्ठारस सागरो० सादिरेयाणि । अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० एक्कत्तीसं सागरो० देसू णाणि । एवं बारसक०-छण्णोक० । णवरि अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अरदि-सोग० अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० छम्मासं । एवं पुरिसवेद० । णवरि अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० वेसमया। सम्मामि० उक्क० अणुक्क० जह० अंतोमु०, उक्क० एक्कत्तीसं सागरो० देसूणाणि । इथिवेद० उक्क० जह० एगस०, उक्क० पणवण्णपलिदो० देसूणाणि । अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० वेसमया । एवं भवणादि जाव णवगेवजा त्ति । णवरि सगट्टिदी देसूणा । अरदि-सोग० हस्स-रदिभंगो । अन्तर्मुहूर्त है । अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल दो समय है। सोलह कषाय और छह नोकषायोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। $ २०२. मनुष्यत्रिकमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि प्रत्याख्यानचतुष्कके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका भंग ओघके समान है । मनुष्यिनियोंमें स्त्रीवेदके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। $२०३. देवोंमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक अठारह सागरोपम है । अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागरोपम है। इसी प्रकार बारह कषाय और छह नोकषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । तथा अरति और शोकके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है। इसी प्रकार पुरुषवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल दो समय है। सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागरोपम है। स्त्रीवेदके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पचवन पल्योपम है। अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल दो समय है। इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर नौ ग्रेवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी अपनी स्थिति कहनी चाहिए। अरति और शोकका भंग हास्य और रतिके समान है । सहस्रारकल्पमें अरति और शोकका भंग सामान्य देवोंके समान है। इतनी Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www M गा० ६२] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए एगजीवेण अंतरं सहस्सारे अरदि-सोग० देवोघं । णवरि भवण०-याणवें०-जोदिसि०-सोहम्मीसाण. इत्थिवेद० उक्क० जह० एगस०, उक्क० तिण्णि पलिदो० देसूणाणि पलिदो० सादिरे० पं० सा. पणवण्णं पलिदो० देसूणाणि । उवरि इत्थिवेदो पत्थि । २०४. अणुदिसादि० सव्वट्ठा त्ति सम्म०-पुरिसवेद० उक्क० जह० एगस०, उक्क० सगढिदी देसूणा । अणुक्क० जह० एगसमओ, उक्क० वे समया । एवं बारसक०-छण्णोक० । णवरि अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । एवं जाव० । * जहण्णाणुभागुदीरगंतरं केसिंचि अत्थि, केसिंचि णत्थि। $ २०५. कुदो ? खवगसेढीए दसणमोहक्खवणाए च लद्धजहण्णसामित्ताणमंतराभावणियमदंसणादो सेसाणमंतरसंभबोवलंभादो। संपहि एदस्स विवरणमुच्चारणामुहेण बत्तइस्सामो । तं जहा २०६. जह० पयदं । दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०अणंताणु०४ जह० जह० अंतोमु०, उक्क० उवड्डपोग्गलपरियट्टं । अजह० जह० अंतोमु०, उक्क० बेछावहिसागरो० सादिरेयाणि । णवरि अणंताणु०४ अजह० जह० एगस० । विशेषता है कि भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और सौधर्म-ऐशान कल्पके देवोंमें स्त्रीवेदके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल क्रमसे कुछ कम तीन पल्योपम, साधिक एक पल्योपम, साधिक एक पल्योपम और कुछ कम पचवन पल्योपम है । ऊपर स्त्रीवेद नहीं है । २०४. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सम्यक्म्व और पुरुषवेदके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है । अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय हैं और उत्कृष्ट अन्तरकाल दो समय है। इसी प्रकार बारह कषाय और छह नोकषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूतेप्रमाण है। इसी प्रकार अनाहारक मागेणा तक जानना चाहिए। __* जघन्य अनुभागके उदीरकका अन्तरकाल किन्हींके होता है और किन्हींका नहीं होता। २०५. क्योंकि क्षपकौणिमें और दर्शनमोहनीयकी क्षपणामें जिनका जघन्य स्वामित्व प्राप्त हुआ है उनके अन्तराभावका नियम देखा जाता है। शेषके अन्तरकालका सम्भव उपलब्ध होता है । अब इस सूत्रका विवरण उच्चारणाके अनुसार करते हैं । यथा २०६. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपाधपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। अजघन्य अनुभागके उदीरक का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक दो छयासठ सागरोपम है। इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है । इसीप्रकार आठ कषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदोग७ एवमट्ठकसाय० । णवरि अजह० जह० एयस०, उक्क० पुव्ककोडी देसूणा । सम्मामि० जह० अजह० जह० अंतोमु०, उक्क० उवड्डपोग्गलपरियढें । एवं सम्म० । णवरि जह० पत्थि अंतरं । चदुसंजल०-भय-दुगुंछ० जह० णत्थि अंतरं । अजह० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । हस्स-रदि-अरदि-सोग० जह• णत्थि अंतरं । अजह० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० सादिरेयाणि छम्मासं । इत्थिवे०- पुरिसवे०–णqस० जह. णत्थि अंतरं । अजह० जह० अंतोमु०, पुरिसवेद० एगसमओ; उक्क० अणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा, गवुस० सागरोवमसदपुधत्तं । $ २०७. आदेसेण णेरइय० मिच्छ० अणंताणु०४ जह० अजह० जह० पलिदो०. असंखे०भागो अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । सम्मामि० जह० अजह० है कि इनके अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य और अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपाधपुदलपरिवर्तनप्रमाण है। इसी प्रकार सम्यक्त्वकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसके जघन्य अनुभागके उदीरकका अन्तरकाल नहीं है। चार संज्वलन, भय और जुगुप्साके जघन्य अनुभागके उदीरकका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है। हास्य, रति, अरति और शोकके जघन्य अनुभागके उदीरकका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल क्रमसे साधिक तेतीस सागरोपम और छह महीना है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदके जघन्य अनुभागके उदीरकका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल दोका अन्तभुहूर्त और पुरुषवेदका एक समय है तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल दोका अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है और नपुंसकवेदका सौ सागरोपमपथक्त्वप्रमाण है। विशेषार्थ-मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य अनुभाग उदीरणा संयमके अभिमुख हुए सर्वविशुद्ध मिथ्यादृष्टिके होती है, अतः संयमके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालको ध्यानमें रखकर यहाँ उक्त प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागके उदोरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण कहा है। तथा मिथ्यात्वके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालको ध्यानमें रखकर यहाँ उक्त प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक दो छयासठ सागरोपम कहा है । मात्र मिथ्यादृष्टिके अनन्तानुबन्धीचतुष्कमेंसे किसी एक प्रकृतिकी एक समयके अन्तरसे उदीरणा सम्भव है, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय कहा है। इसी प्रकार आगे भी अपने-अपने स्वामित्व आदिको जानकर सब प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागके उदीरकका अन्तरकाल घटित कर लेना चाहिए। विशेष वक्तव्य न होनेसे अलगसे स्पष्टीकरण नहीं किया है। २०७. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य और अजघन्य जनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण और अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम है। सम्यग्मिथ्यात्वके Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३ गा० ६२ ] उत्तरपय डिअणुभागउदीरणाए एयजीवेण अंतरं जह० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । एवं सम्म० । णवरि जह० णत्थि अंतरं । बारसक० - चदुणोक० जह० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । अजह० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । एवं णवं स० । णवरि अजह० जह० एगस ०, उक्क० वे समया | हस्स - रदि० जह० अजह० जह० एयस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देणाणि । एवं सत्तमाए । णवरि सम्म हस्स - रदिभंगो । एवं पढमादि जाव छट्टिति । णवरि सगट्टिदी देसूणा । हस्स - रदि० अरदि - सोगभंगो । पढमाए सम्म० जह० णत्थि अंतरं । अजह० जह० अंतोमु०, उक्क० सागरो० देसूणं । $ २०८. तिरिक्खेसु मिच्छ० - अणंताणु ०४ ओघं । णवरि अजह० जह० उक्क० तिणि पलिदो ० देसूणाणि । सम्म० - सम्मामि० ओघं । अपच्चक्खाण०४ जह० ओघं । अजह० जह० अंतोमु०, उक्क० एयपुचकोडी देणा । अट्ठक० - छण्णोक० अंतोमु०, जघन्य और अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम है । इसी प्रकार सम्यक्त्वकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसके जघन्य अनुभागके उदीरकका अन्तरकाल नहीं है । बारह कषाय . और चार नोकषायों के जघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम है । अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है। इसी प्रकार नपुंसकवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसके अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल दो समय है । हास्य और रतिके जघन्य और अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम है । इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि यहाँ सम्यक्त्वका भंग हास्य और रतिके समान है । इसी प्रकार पहलीसे लेकर छटी पृथिवी तक जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। यहाँ हास्य और रतिका भंग अरति और शोकके समान है। पहली पृथिवीमें सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागके उदीरकका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक सागरोपम है । विशेषार्थ – मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीच तुष्ककी जघन्य अनुभाग उदीरणा प्रथम सम्यक्त्वके अभिमुख हुए सर्वविशुद्ध जीवके यथासमयमें होती है, यतः प्रथम सम्यक्त्वका जघन्य अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है जो अपने अपने स्वामित्वको जानकर ले आना चाहिए । $ २०८. तिर्यञ्चोंमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि इनके अजघन्य अनुभाग के उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तीन पल्योपम है । सम्यक्त्व और सम्यमिध्यात्वका भंग ओघके समान है। अप्रत्याख्यानचतुष्कके जघन्य अनुभागके उदीरकका भंग ओघके समान है। अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ जह० जह० एगस०, उक्क० उवड्वपोग्गलपरियट्ट। अजह० जह० एगस०, उक्क० अंतोमुहुत्तं । एवमित्थिवेद-पुरिसवेद । णवरि अजह० जह० एयस०, उक्क० अणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । एवं णवुस० । णवरि अजह० जह० एगस०, उक्क० पुव्वकोडिपुधत्तं । २०९. पंचिंदियतिरिक्खतिये मिच्छ०-अट्ठक० जह० अजह० जह० अंतोमु०, उक्क० पुव्वकोडिपुधत्तं । णवरि अजह० तिरिक्खोघं । सम्मामि० जह० अजह० जह० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी देसूणा । एवं सम्म० । णवरि जह० णत्थि अंतरं । अट्ठक०छण्णोक० जह० जह० एगस०, उक० पुव्वकोडिपुधत्तं । अजह० जह० एगस०, उक्क० अंतोमुहुत्तं । तिण्णिवेद० जह० अजह• जह० एगस०, उक्क० पुव्वकोडिपुधत्तं । अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। आठ कषाय और छह नोकषायोंके जधन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपाधं पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। अजघन्य अनुभागके उदीरकक्रा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है । इसी प्रकार नपुंसकवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसके अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपथक्त्वप्रमाण है। विशेषार्थ-तिर्यञ्चोंमें आठ कषाय और नौ नोकषायोंके जघन्य अनुभागकी उदीरणा सर्वविशुद्ध संयतासंयतके होती है। यह एक समयके अन्तरसे भी सम्भव है, इसलिए इन सबके जघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय कहा है। तथा संयमासंयमगुणके उत्कृष्ट अन्तरको ख्यालमें रख कर इन सबके अजघन्य अनुभागके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्ध पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है । ___ २०९. पञ्चेन्द्रिय तियश्चत्रिकमें मिथ्यात्व और आठ कषायोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है । इतनी विशेषता है कि अजघन्य अनुभागके उदीरकका भंग सामान्य तिर्यश्चोंके समान है। सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य और अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। इसी प्रकार सम्यक्त्वकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसके जघन्य अनुभागके उदीरकका अन्तरकाल नहीं है । आठ कषाय और छह नोकषायोंके जघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपथक्त्वप्रमाण है । अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है । तीन वेदोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपथक्त्वप्रमाण है । इतनी विशेषता है कि तियश्चपर्याप्तकोंमें स्त्रीवेद नहीं है तथा योनिनियोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं है। तथा स्त्रीवेद १. आता प्रत्योः अजह० एगस० इति पाठः। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गांव ६२ ] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए एयजीवेण अंतरं ८५ जवरि पञ्जत्त० इत्थिवेदो णत्थि । जोणिणीसु पुरिसवेद - णवुंसयवेद० णत्थि । इत्थवेद० अजह० जह० एगस०, उक्क० वे समया । सम्म० जह० जह० एस ०, उक० पुव्वकोडिपुध० । अजह० जह० एग०, उक्क० सगट्टिदी० । जह० एग०, जह० अजह० जह० $ २१०. पंचिं० तिरिक्खअप ० - मणुसअप ० मिच्छ० - णवुंसय० जह० उक्क० अंतो० । अजह० जह० एग०, उक्क० वे समया । सोलसक० - छण्णोक ० एगस ०, उक्क अंतोमु० । $ २११. मणुसतिए मिच्छ० - अनंताणु ०४ - सम्म० - सम्मामि ० पंचिदियतिरिक्खभंगो । अडक० जह० जह० अंतोमु०, उक्क० पुव्वकोडिपुधत्तं । अजह० जह० अंतोमु०, उक्क० पुब्वकोडी देखूणा । चदुसंजल ० – छण्णोक० जह० णत्थि अंतरं । अजह० जह० उक्क० अंतोमु० । तिण्णिवेद० जह० णत्थि अंतरं । अजह० जह० अंतोमु०, उक्क० पुव्वकोडिं धत्तं । णवरि पञ्ज० इत्थिबेदो णत्थि । मणुसिणीसु पुरिसवे० - णवंस ० के अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल दो समय है । सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है । अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है । विशेषार्थ — योनिनी तिर्यों में कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव मरकर उत्पन्न नहीं होते, इसलिए उनमें सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण बन जानेसे वह उक्त कालप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है। $ २१०. पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्व अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में मिथ्यात्व और नपुंसक - वेदके जघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है । अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल दो समय है । सोलह कषाय और छह नोकषायोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। $ २११. मनुष्यत्रिकमें मिध्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वका भंग पवेन्दिय तिर्योंके समान है । आठ कषायोंके जघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त हैं और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है । अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ क एक पूर्वकोटिप्रमाण है । चार संज्वलन और छह नोकषायोंके जघन्य अनुभागके उदीरकका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। तीन वेदोंके जघन्य अनुभागके उदीरकका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है । इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकों में स्त्रीवेद नहीं है तथा मनुष्यिनियों में पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं है । तथा स्त्रीवेदके अजघन्य अनुभागके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे अंतोमु० । २ $ २१२. देवेसु मिच्छ० - अनंताणु०४ जह० अजह० जह० पलिदो ० असंखे ०भागो अंतोमु०, उक्क० एक्कत्तीस सागरो० देसूणाणि । सम्मामि० जह० अजह० जह० अंतोमु०, उक्क० एक्कत्तीसं सागरो० देसूणाणि । एवं सम्म० । णवरि जह० णत्थि अंतरं । बारसक० - छण्णोक० जह० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देणाणि । अजह० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । णवरि अरदि- सोग० अजह० जह० एस ०, उक्क० छम्मासं । एवं पुरिसवे० । णवरि अजह० जह० एगस०, उक्क० वे समया । इत्थिवे० जह० जह० एगस०, उक्क० पणवण्णं पलिदो० देसूणाणि । अजह० जह० एगस०, उक्क० वे समया । एवं भवण ० - वाणवें ० - जोदिसियादि जाव णवगेवञ्जा त्ति । णवरि सगट्ठिदी देसूणा । अरदि-सोग० हस्स - रदिभंगो । सहस्सारे ८६ णत्थि । इत्थवेद० अजह ० ६० उक्क० [ वेदगो ७ विशेषार्थ — मनुष्यनी द्रव्यपुरुषके स्त्रीवेदके उदयसे क्षपकश्रेणि पर चढ़ने पर जब सवेदभागमें एक समय अधिक एक आवलि काल शेष बचता है तब स्त्रीवेदकी जघन्य अनुभाग उदीरणा होती है ऐसा स्वामित्वसूत्रसे स्पष्ट ज्ञात होता है, इसलिए मनुष्यनीके स्त्रीवेदकी जघन्य अनुभाग उदीरणाका अन्तरकाल नहीं बनता यह स्पष्ट ही है। शेष कथन सुगम है। $ २१२. देवोंमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य और अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल क्रमसे पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण और अन्तर्मुहूर्त हैं तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागरोपम है सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य और अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरका छ कम इकतीस सागरोपम है। इसी प्रकार सम्यक्त्वकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसके जघन्य अनुभागके उदीरकका अन्तरकाल नहीं है । बारह कषाय और छह नोकषायोंके जघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम है । अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । इतनी विशेषता है कि अरति और शोकके अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है । इसी प्रकार पुरुषवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसके अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल दो समय है । स्त्रीवेदके जघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पचवन पल्योपम है । अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल दो समय है । इसी प्रकार भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। इनमें अरति और शोकका भंग हास्य और रतिके समान है । सहस्रार कल्पमें अरति और शोकके अजघन्य अनुभागके उदीरकका १. आ० ता० प्रत्योः इत्थवेद० जह० अजह० इति पाठः । २. आता प्रत्योः जह० अजह० इति पाठः । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए भंगविचओ अरदि-सोग० अजह० देवोघं । णवरि भवण०-वाण-०-जोदिसि० सम्म० अजह० जह० एगस०, उक्क० सगढिदी देसूणा । इत्थिवेद० जह० जह० एगस०, उक्क० तिण्णि पलिदो० देसणाणि पलिदो० सादिरे० पलिदो० सादिरे । सोहम्मीसाण० इत्थिवेद० देवोघं । उवरि इत्थिवेदो पत्थि । २१३. अणुद्दिसादि जाव सव्वट्ठा त्ति सम्म० जह० अजह० णत्थि अंतरं । बारसक०-सत्तणोक० जह० जह० एगस०, उक्क० सगढ़िदी देसूणा । अजह० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । णवरि पुरिसवेद० अजह० जह० एगस०, उक्क० वे समया। एवं जाव०। *णाणाजीवेहि भंगविचओ भागाभागो परिमाणं खेत्त फोसणं कालो अंतरं सणियासो च एदाणि कादब्वाणि । २१४ एवमेदाणि अणियोगद्दाराणि एत्थुद्देसे सवित्थरं परूवेयव्याणि त्ति भणिदं होइ। संपहि एदेण बीजपदेण समप्पिदाणमेदेसिमणियोगद्दाराणमुच्चारणाइरियोवएसबलेण परूवणं बत्तइस्सामो । तं जहा- . ६२१५. णाणाजीवेहि भंगविचओ' दुविहो-जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । भंग सामान्य देवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी में सम्यक्त्वके अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है। . स्त्रीवेदके जघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल क्रमसे कुछ कम तीन पल्योपम, साधिक एक पल्योपम और साधिक एक पल्योपम है। सौधर्म और ऐशान कल्पमें स्त्रीवेदका भंग सामान्य देवोंके समान है । ऊपर देवोंमें स्त्रीवेद नहीं है। $२१३. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें सम्यक्त्वके जघन्य और अजघन्य अनुभागके उदीरकका अन्तरकाल नहीं है। बारह कषाय और सात नोकषायोके जघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनीअपनी स्थितिप्रमाण है। अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है । इतनी विशेषता है कि पुरुषवेदके अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल दो समय है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। * नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर और सन्निकर्ष इन अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा करनी चाहिए । $ २१४. इस प्रकार ये अनुयोगद्वार इस स्थलपर विस्तारके साथ कहने चाहिए यह उक्त सूत्रका तात्पर्य है। अब इस बीजपदके अनुसार मुख्यताको प्राप्त हुए इन अनुयोगद्वारोंका उच्चारणाचार्यके उपदेशानुसार प्ररूपण करेंगे । यथा $ २१५. नाना जीवोंको अपेक्षा भंगविचय दो प्रकारका है-जघन्यय और उत्कृष्ट । १. ता प्रतौ भंगविचयाणुगमेण इति पाठः । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ दुविहो णिसो - ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ० - सोलसक० - सम्म ०- - णवणोक ० उक० अणुभागुदीरणाए सिया सव्वे अणुदीरगा, सिया अणुदीरगा च उदीरगो च, सिया अणुदीरगा च उदीरगा च । एवमणुक० । णवरि उदीरगा पुव्वं वत्तव्वं ' । सम्मामि० उक्क० अणुक्क० अणुभागुदी ० अट्ठ भंगा। सव्वणिरय - सव्वतिरिक्ख - मणुसतियसव्वदेवात्ति जाओ पयडीओ उदीरिजंति तासिमोघं । मणुस अपजः सव्वपयडी० उक्क० अणुक० अट्ठ भंगा । एवं जावं । एवं जहण्णयं पि णेदव्वं । $ २१६. भागाभागाणु० दुविहो - – जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि०ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ० - सोलसक० - सत्तणोक० उक्क० सव्वजी ० केव० -१ अभागो । अणुक्क० अणंता भागा। सम्म० - सम्मामि ० - इत्थि वे ० - पुरिसवे० उक्क० सवजी ० के ० १ असंखे ० भागो । अणुक्क० असंखेजा भागा । एवं तिरिक्खा ० । $ २१७. सव्वणिरय ० - सव्वपंचिदियतिरिक्ख - मणुसअपज्ज० – देवा जाव अवराजिदा ति सव्वपय० उक्क० अणुभागुदी ० असंखे ० भागो । अणुक्क० असंखे ० भागा । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघ से मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सम्यक्त्व और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणाके कदाचित् सब जीव अनुदीरक हैं, कदाचित् नाना जीव अनुदीरक हैं और एक जीव उदीरक है, कदाचित् नाना जीव अनुदीरक हैं और नाना जीव उदीरक हैं । इसी प्रकार अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणाकी अपेक्षा कहना चाहिए । इतनी विशेषता है कि पहले उदीरक हैं ऐसा कहना चाहिए । सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंके आठ भंग हैं । सब नारकी, सब तिर्यञ्च, मनुष्यत्रिक और सब देव जिन प्रकृतियोंकी उदीरणा करते हैं उनका भंग ओघके समान है । मनुष्य अपर्याप्तकों में सब प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग के उदीरकोंके आठ भंग हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। इसी प्रकार जघन्यको भी जानना चाहिए । $ २१६, भागाभागानुगम दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायों के उत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? अनन्तवें भागप्रमाण हैं । अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीव अनन्त बहुभागप्रमाण हैं । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीव सव जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं । इसी प्रकार तिर्यों में जानना चाहिए । $ २१७. सब नारकी, सब पचेन्द्रिय तिर्यन, मनुष्य अपर्याप्त और सामान्य देवोंसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीव सब जीवोंके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं । १. आ०प्रतौ पुव्वं व वत्तव्वं इति पाठः । ता०प्रतौ पुव्वं [व] वत्तव्वं इति पाठः । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए परिमाणाणुगमो २१८. मणुसेसु मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोक० उक्क. अणुभागु० असंखे०भागो। अणुक्क० असंखे०भागा । सम्म०-सम्मामि०-इत्थिवेद-पुरिसवेद० उक्क० अणु०भागु० संखे०भागो। अणुक० संखेजा भागा। मणुसपज०-मणुसिणी०-सव्वट्ठदेवा० सव्वपय० उक्क० अणुभागुदी० सव्वजी० संखे०भागो। अणुक० संखे०भागा । एवं जाव० । एवं जहण्णयं णि णेदव्वं ।। $ २१९. परिमाणाणु० दुविहं-जह० उक्क० । एक्कस्से पयदं । दुविहो णि०ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोक० उक्क. अणुभागुदी० केत्तिया ? असंखेजा । अणुक० केत्तिया ? अणंता। सम्म०-सम्मामि०-इथिवेदपुरिसवेद० उक्क० अणुक्क० के० ? असंखेज्जा । एवं तिरिक्खा० । २२०. सव्वणिरय०-सव्यपंचिंदियतिरिक्ख-मणुसअपञ्ज०-देवा जाव अवराजिदा त्ति सव्वपय० उक्क० अणुक० अणुभागुदीर० केत्तिया ? असंखेजा। मणुसेसु मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोक० उक्क० के० ? संखेजा । अणुक्क० के० ? असंखेजा । सम्म०-सम्मामि०-इत्थिवे०-पुरिस० उक्क० अणुक्क० के० ! संखेज्जा । मणुसपज०मणुसिणी-सव्वट्ठदेवा० सव्वपय० उक्क० अणुक्क० अणुभागुदी० के० ? संखेज्जा । $ २१८. मनुष्योंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीव सब जीवोंके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं तथा अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीव सब जीवोंके संख्यातवें भागप्रमाण हैं तथा अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीव सब जीवोंके संख्यातवें भागप्रमाण है तथा अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । तथा इसी प्रकार जघन्यको भी जानना चाहिए। २१९. परिमाण दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार तिर्यश्चोंमें जानना. चाहिए। २२०. सब नारकी, सब पश्चेन्द्रिय तिर्यश्च, मनुष्य अपर्याप्त और सामान्य देवोंसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। मनुष्योंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीव १२ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ एवं जाव० । २२१. जह० पयदं । दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०सोलसक०-सत्तणोक० जह० अणुभागु० के० ? संखेजा । अजह० के० ? अणंता । सम्म०-इत्थिवेद-पुरिस० जह० अणुभागु० के० १ संखेजा। अजह० के० १ असंखेजा। सम्मामि० जह० अजह० अणुभागु० के० १ असंखेजा । $२२२. आदेसेण जेरइय० सम्म० ओघं । सेसाणं जह• अजह० केत्ति ? असंखेजा । एवं पढमाए। विदियादि सत्तमा त्ति पंचि०तिरिक्खजोणिणी-पंचिं०'तिरि०अपज०-मणुसअपज०-भवण-वाणवें०-जोदिसि० सव्वपय० जह• अजह० के० १ असंखेजा । तिरिक्खेसु मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोक० जह० केत्ति० ? असंखेजा । अजह० के० १ अणंता। सम्म० ओघं । सम्मामि०-इत्थिवेद-पुरिसवे० जह० अजह० के० १ असंखेजा। पंचिं०तिरिक्खदुगे सम्म० ओघं । सेसपय० जह० अजह० के० १ असंखेजा। $ २२३. मणुसेसु मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोक० जह० संखेजा । अजह० असंखेजा । सम्म०-सम्मामि०-इत्थिवे०-पुरिसवे. जह० अजह० के० ? संखेजा । कितने हैं ? संख्यात हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। $२२१. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंके जघन्य अनुभागके उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। अजघन्य अनुभागके उदीरक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। सम्यक्त्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदके जघन्य अनुभागके उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । अजघन्य अनुभागके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य और अजघन्य अनुभागके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। २२२. आदेशसे नारकियोंमें सम्यक्त्वका भंग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । इसी प्रकार पहली पृथिवीमें जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकी, पश्चेन्द्रियतिर्यश्चयोनिनी, पञ्चेन्द्रियतिर्यश्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देबोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। तिर्यश्चोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंके जघन्य अनुभागके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । अजघन्य अनुभागके उदीरक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं । सम्यक्त्वका भंग ओघके समान है। सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदके जघन्य और अजघन्य अनुभागके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च द्विफमें सम्यक्त्वका भंग ओघके समान है । शेष प्रकृतियोके जघन्य और अजघन्य अनुभागके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। $ २२३. मनुष्यों में मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषावोंके जघन्य अनुभागके उदीरक जीव संख्यात हैं । अजघन्य अनुभागके उदीरक जीव असंख्यात हैं । सम्यक्त्व सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदके जघन्य और अजघन्य अनुभागके उदीरक जीव कितने हैं ? Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए खेत्तं मणुसपज०-मणुसिणी०-सव्वट्ठदेवा सव्वपय० जह० अजह० केत्ति० १ संखेजा । देवा सोहम्मीसाणादि अवराजिदा त्ति सम्म० ओघं । सेसपय० जह० अजह० के० ? असंखेजा । एवं जाव०। ___$ २२४. खेत्तं दुविहं-जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं। दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोक० उक्क० अणुभागुदी० लोग० असंखे०भागे । अणुक्क० सव्वलोगे। सम्म०-सम्मामि०-इत्थिवेद-पुरिसवे० उक्क० अणुक्क० लोग० असंखे०भागे । एवं तिरिक्खा० । सेसगदीसु सव्वपय० उक्क० अणुक० लोग० असंखे०भागे । एवं जाव० । $ २२५. जह० पयदं । दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०सोलसक०-सत्तणोक० जह० लोग० असंखे०भागे । अजह० सव्वलोगे । सम्म०सम्मामि०-इत्थिवेद-पुरिस० जह• अजह लोग० असंखे०भागे । एवं तिरिक्खा० । सेसगदीसु सव्वपय० जह० अजह० लोग० असंखे०भागे । एवं जाव० । २२६. पोसणं दुविहं-जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०-सोलसक० उक्क० अणुभागुदी० लोग० असंखे०भागो संख्यात हैं । मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागके उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। देव और सौधर्म-ऐशान कल्पके देवोंसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें सम्यक्त्वकाभंग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ६२२४. क्षेत्र दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीवोंका क्षेत्र सर्वलोकप्रमाण है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। शेष गतियोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। $ २२५. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दी प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व, सोलह कषाय ओर सात नोकषायोंके जघन्य अनुभागके उदीरक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अजघन्य अनुभागके उदीरक जीवोंका क्षेत्र सर्वलोकप्रमाण है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदके जघन्य और अजघन्य अनुभागके उदीरक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार तिर्यश्चोंमें जानना चाहिए। शेष गतियोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागके उदीरक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। २२६. स्पर्शन दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्व और सोलह कषायोंके उत्कृष्ट Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ ० ० उक० अट्ठ तेरह चोद्दस • भागा वा देसूणा । अणुक्क० सव्वलोगो । सम्म० - ० - सम्मामि० अणुक० लोग० असंखे ० भागो अट्ठ चोहस० देसूणा । इत्थवेद - पुरिसवेद० उक्क० लोग० असंखे० भागो छ चोद्दस० । अणुक्क • लोग० असंखे ० भागो सव्वलोगो वा । णवुंस०अरदि-सोग-भय- दुगुंछ० उक्क० लोग० असंखे० भागो छ चोदस० देसूणा । अणुक ०. सव्वलोगो । हस्स - रदि० उक्क० अणुभागुदी० लोग० असंखे० भागो अट्ठ चोइस •• देणा । अणुक्क० सव्वलोगो । अनुभाग उदोकोंने लोकके असंख्यातवें भाग, त्र्सनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग और कुछ कम तेरह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंने सर्वलोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । स्त्रीवेद और पुरुषवेदके उत्कृष्ट अनुभाग उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । हास्य और रतिके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेषार्थ – मिथ्यात्व और सोलह कषायोंके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा संज्ञी पन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यादृष्टि उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाले जीवोंके होती है। इनका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग विहारवत्स्वस्थानकी अपेक्षा त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग तथा मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम तेरह भागप्रमाण है । यहाँ ६ राजु नीचे और ७ राजु ऊपर इस प्रकार त्रसनालीका कुल कुछ कम तेरह राजु क्षेत्र लिया है। इसीलिए यहाँ उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंका उक्त क्षेत्रप्रमाण स्पर्शन कहा है । इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंका सर्व लोकप्रमाण स्पर्शन है। यह स्पष्ट ही है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा वेदक सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपने-अपने स्वामित्वके समय होती है । यतः इन जीवोंका इनकी उदीरणाके समय वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण ही बनता स्पर्शन उक्त क्षेत्रप्रमाण कहा है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंके स्वामित्वको देखते हुए उनका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम छह भागप्रमाण बननेसे यह उक्त क्षेत्रप्रमाण कहा है । इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन सर्वलोकप्रमाण है यह स्पष्ट ही है । नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा के उत्कृष्ट अनुभागके उदीरक सर्वोत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाले सातवीं पृथिवीके अतः यह Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए पोसणं २२७. आदेसेण णेरइय० मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोक० उक्क० अणुक्क० लोग० असंखे भागो छ चोदस० देसूणा। सम्म०-सम्मामि० खेत्तं । एवं विदियादि सत्तमा त्ति । णवरि सगपोसणं । पढमाए खेत्तं ।। ____२२८. तिरिक्खेसु मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोक० उक्क० लोग० असंखे०भागो छ चोद्दस० देसूणा । अणुक्क० सव्वलोगो । सम्म० उक्क० अणुभागु० खेत्तं । अणुक्क० लोग० असंखे०भागो छ चोदस० देसूणा । सम्मामि० उक्क० अणुक्क० खेत्तं । इत्थिवेदपुरिस० ओघं । पंचिंदियतिरिक्खतिये सम्म०-सम्मामि० तिरिक्खोघं । सेसपयडि. उक्क० लोग० असंखे०भागो छ चोदस० देसूणा । अणुक० लोग० असंखे०भागो होते हैं, अतः उनके वर्तमान और अतीत स्पर्शनको ध्यानमें रखकर उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण कहा है। इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंका स्पर्शन सर्वलोकप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। हास्य और रतिके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरक सर्व संक्लेश परिणामवाले शतार-सहस्रार कल्पके देव हैं, अतः इनके वर्तमान और अतीत स्पर्शनको ध्यानमें रखकर इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण कहा है। इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंका स्पर्शन सर्व लोकप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। आगे गति मार्गणाके उत्तर भेदोंमें अपने-अपने स्वमित्व और मार्गणाओंके स्पर्शनको ध्यानमें रखकर उक्त न्यायसे प्रकृत स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए। विशेष वक्तव्य न होनेसे अलगसे स्पष्टीकरण नहीं करेंगे। $२२७. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग क्षेत्रके समान है। इसी प्रकार दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अपना-अपना स्पर्शन जानना चाहिए। पहली पृथिवीमें क्षेत्रके समान स्पर्शन है। $ २२८. तिर्यञ्चोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्वक उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इसके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी अपेक्षा भंग ओघके समान है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा भंग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ सव्वलोगो वा । पंचिं०तिरिक्ख ० अपज ० - मणुसअपज्ज० सव्वपयडि० उक्क० अणुक्क० लोग० असंखे० भागो सव्वलोगो वा । $ २२९. मणुसतिये सम्म० - सम्मामि० खेत्तं । सेसपय० उक्क० लोग० असंखे॰भागो । अणुक्क० लोग० असं० भागो सव्वलोगो वा । $ २३०. देवेसु सम्म० - सम्मामि० ओघं । मिच्छ० - सोलसक० - अट्ठणोक ० उक्क० अणुक्क० लोग० असंखे० भागो अट्ठ णव चोद्दस० देसूणा । णवरि हस्स - रदीर्ण उक्क० लोग० असंखे० भागो अट्ठ चोदस० देसूणा । $ २३१. भवण ० - वाणवें - जोदिसि० मिच्छ० - सोलसक० - अट्टणोक० उक्क० अणुक्क० लोग • असंखे० भागो अद्धट्ठा वा अट्ठ णव चोहस० देसूणा । सम्म०सम्मामि० उक्क० अणुक्क० लोग० असंखे० भागो अद्धट्ठा वा अट्ठ चोहस० देसूणा । $ २३२. सोहम्मीसाण० मिच्छ० - सोलसक० - अट्ठणोक० उक्क० अणुक्क० लोग० असंखे ० भागो अट्ठ णव चोद्दस भागा वा देसूणा । सम्म०-२ - सम्मामि० ओघं । सर्वलोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । $ २२९. मनुष्यत्रिक में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान है । शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकांने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । $ २३०. देवोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की अपेक्षा भंग ओघके समान है । मिथ्यात्व, सोलह कषाय और आठ नोकषायोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग के उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि हास्य और रतिके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रभाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । $ २३१. भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और आठ नोकषायोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा त्रस नालीके चौदह भागों में से कुछ कम साढ़े तीन भाग, कुछ कम आठ भाग और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम साढ़े तीन भाग और कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । $ २३२. सौधर्म और ऐसान कल्पमें मिध्यात्व, सोलह कषाय और आठ नोकषायों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा भंग ओघके समान है । सनत्कुमारसे लेकर सहस्रारकल्प Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए पोसणं ९५ सणक्कुमारादि जाव सहस्सार ति सव्वपय० उक्क० अणुक्क० लोग० असंखे० भागो अट्ठ चोइस० देखणा | आणदादि जाव अच्चुदा ति सव्वपय उक्क० अणुक्क ० लोग० असंखे ० भागो छ चोदस० देणा । उवरि खेत्तं । एवं जाव० । $ २३३. जह० पयदं । दुविहो णि० - ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०सोलसक० - सत्तणोक ० ० जह० लोग० असंखे० भागो । अजह० सव्वलोगो । सम्म० जह० खेत्तं । अजह० लोग० असंखे० भागो अट्ठ चोदस० देसूणा । सम्मामि० जह० अजह० लोग • असंखे ० भागो अट्ठ चोदस० देसूणा । इत्थवे ० - पुरिसवे० जह० खेत्तं । अजह • लोग • असंखे ० भागो अड्ड चोदस० देसूणा सव्वलोगो वा । $ २३४ आदेसेण णेरइय० मिच्छ० - सोलसक० - सत्तणोक० जह० खेत्तं । तकके देवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सनाली के चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । आनत कल्पसे लेकर अच्युत कल्प तकके देवों में सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग के उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । ऊपर क्षेत्रके समान भंग है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । $ २३३. जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश | ओघसे मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात लोकपायोंके जघन्य अनुभागके उदीरकोंने लोकक असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अजघन्य अनुभागके उदीरकोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अजघन्य अनुभाग के उदीरकोंने लोकके असंख्यातवं भाग और त्रसनालोके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सम्यग्मिध्यात्वके जघन्य और अजघन्य अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया हैं । स्त्रीवेद और पुरुषवेदके जघन्य अनुभागके उदीरकों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अजघन्य अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग, त्रस नालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । विशेषार्थ – मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषाय इनमें से कितनी ही प्रकृतियों की जघन्य अनुभाग उदीरणा अपनी अपनी क्षपणाके समय स्वयोग्य स्थान पर होती है और कितनी ही प्रकृतियोंकी जधन्य अनुभाग उदीरणा संयमके अभिमुख हुए यथायोग्य गुणस्थानमें होती है, जिस सबका विशेष ज्ञान जघन्य स्वामित्वसे कर लेना चाहिए । यतः ऐसे जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, अतः इन प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका स्पर्शन उक्त क्षेत्रप्रमाण कहा है। सम्यक्त्व प्रकृतिकी जघन्य अनुभाग उदीरणा भी क्षपणामें एक समय अधिक एक आवलिकाल रहने पर होती है, यतः ऐसे जीवोंका स्पर्शन भी लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, अतः इसकी अपेक्षा भी जघन्य अनुभागके उदीरकोंका उक्त क्षेत्रप्रमाण स्पर्श' कहा है। शेष कथन सुगम है। गति मार्गणाके अवान्तर भेदोंमें भी अपना-अपना स्वामित्व और उस उसे मार्गणाका स्पर्शन जानकर प्रकृत स्पर्शन समझ लेना चाहिए । $ २३४. आदेश से नारकियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अजघन्य अनुभागके उदीरकोंने लोकके Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ अजह० लोग० असंखे भागो छ चोदस० देसूणा । सम्म०-सम्मामि० जह० अजह० खेत्तं । एवं विदियादि जाव सत्तमा त्ति । णवरि सगपोसणं । पढमाए खेत्तं । $ २३५. तिरिक्खेसु मिच्छ०-अट्ठक० जह० खेत्तं । अजह सव्वलोगो । सम्म० जह० खेत्तं । अजह. लोग० असंखे०भागो छ चोदस० देसूणा । सम्माभि० जह० अजह० खेत्तं । अट्ठक०-सत्तणोक० जह० लोग० असंखे०भागो छ चोदस० । अजह. सव्वलोगो । इत्थिवेद-पुरिसवेद० जह० लोग० असंखे०भागो छ चोदस० देसूणा । अजह० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा। ६२३६. पंचिदियतिरिक्खतिये मिच्छ०-अट्ठक० जह० खेत्तं । अजह लोग० असंखे०भागो सबलोगो वा । सम्म०-सम्मामि तिरिक्खोघं । सेसपय० जह० लोग० असंखे०भागो छ चोद्दस० । अजह. लोग. असंखे०भागो सव्वलोगो वा । णवरि जोणिणीसु सम्म० जह० अजह० लोग० असंखे०भागो छ चोदस० देसूणा । असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पशन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य और अजघन्य अनुभागके उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । इसी प्रकार दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें जानना चाहिए। पहली पृथिवीमें क्षेत्रके समान भंग है। २३५. तिर्यश्चोंमें मिथ्यात्व और आठ कषायोंके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य अनुभागके उदीरकोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका स्पर्श न क्षेत्रके समान है। अजघन्य अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पशन किया है । सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य और अजघन्य अनुभागके उदीरकों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है । आठ कषाय और सात नोकषायोंके जघन्य अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभागके उदीरकोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदके जघन्य अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अजघन्य अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्वलोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। ६२३६. पश्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें मिथ्यात्व और आठ कषायोंके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्वलोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग सामान्य तिर्यश्चोंके समान है । शेष प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इतनी विशेषता है कि योनिनियोंमें सम्यक्त्वके जघन्य और अजघन्य अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और बसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए पोसणं २३७. पंचिं०तिरि०अपज०-मणुसअपज. सव्वपय० जह० खेनं । अजह. लोग० असंखे भागो सव्वलोगो वा । $२३८. मणुसतिये सम्म०-सम्मामि० खेनं । सेसपय० जह० खेनं । अजह. लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । $ २३९. देवेसु मिच्छ०-सोलसक०-अट्ठणोक० जह लोग० असंखे०भागो अट्ठ चोदस० देसूणा। अजह० लोग० असंखे०भागो अट्ठ णव चोदस० देसूणा । सम्म० जह० खेनं । अजह० लोम० असंखे०भागो अट्ठ चोद्दस० देसूणा । सम्मामि० जह० अजह० लोग० असंखे भागो अट्ठ चोदस० देसूणा । एवं सोहम्मीसाण। २४०. भवण-वाणवें०-जोदिसि० मिच्छ०-सोलसक०-अट्ठणोक० जह० लोग० असंखे०भागो अधुट्ठा वा अट्ट चोद्दस० देसूणा, अजह० लोग० असंखे०भागो अधुट्ठा वा अढ णव चोदस० । सम्म०-सम्मामि० जह० अजह लोग० असंखे०भागो अधुट्ठा वा अट्ट चोदस० देसूणा । $ २३७. पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका स्पर्श न क्षेत्रके समान है। अजघन्य अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। ६ २३८. मनुष्यत्रिकमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग क्षेत्रके समान है । शेष प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य अनुभागके उदीरकाने लोकक असंख्यातवं भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पशन किया है। ६२३९. देवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और आठ नोकषायोंके जघन्य अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अजघन्य अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग, सनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका स्पर्श न क्षेत्रके समान है। अजघन्य अनभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य और अजघन्य अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सौधर्म और ऐशान कल्पमें जानना चाहिए । ६२४०. भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और आठ नोकषायोंके जघन्य अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम साढ़े तीन भाग और आठ भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अजघन्य अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम साढ़े तीन भाग, कुछ कम आठ भाग और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य और अजघन्य अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा सनालींके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम साढ़े तीन भाग और कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श न किया है। १३ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदोगो ७ $ २४१. सणक्कुमारादि जाव सहस्सारा त्ति सम्म० जह० खेत्तं । अजह० लोग असंखे० भागो अड्ड चोदस० देसूणा । सेसपय० जह० असंखे ० भागो अट्ठ० चोदस० देसूणा । ० अजह० लोग ० ९८. $ २४२. आणदादि जाव अच्चुदा ति सम्म० जह० खेत्तं । असंखे० भागो छ चोदस० देसूणा । सेसपय० जह० अजह० लोग० चोदस० देखणा । उवरि खेत्तभंगो । एवं जाव० । अजह० लोग० असं०भागो छ ० $ २४३. काला० दुविहो - जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि० - ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ० - सम्म० - सोलसक० - णवणोक० उक्क० अणुभागुदी ● जह० एयस०, उक्क० आवलि० असंखे० भागो । अणुक्क० सव्वद्धा । सम्मामि० उक्क० जह० एस ०, उक्क० आवलि० असंखे० भागो । अणुक० जह० अंतोमु०, उक्क० दो० अ० भागो । $ २४१. सनत्कुमार कल्पसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवों में सम्यक्त्वके जघन्य अनु.भागके उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है । अजघन्य अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । $ २४२. आनत कल्पसे लेकर अच्युत कल्पतकके देवोंमें सम्यक्त्वके जघन्य अनुभाग के उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अजघन्य अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सनालीके चौदह भागों में से कुछ कम छह भागप्रमाण क्ष ेत्रका स्पर्शन किया है । शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम छह भागप्रमाण क्ष ेत्रका स्पर्शन किया है । ऊपर के देवोंमें क्ष ेत्र के समान भंग है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए । $ २४३. कालानुगम दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे मिध्यात्व, सम्यक्त्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंका काल सर्वदा है । सम्यग्मिध्यात्वके उत्कृष्ट अनुभाग के उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । विशेषार्थ – यहाँ सभी प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंका उत्कृष्ट काल जो आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है सो उसका आशय ही इतना है कि यदि नाना जीव निरन्तर उक्त सभी प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करते रहें तो उस सब कालका योग आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होगा, इससे अधिक नहीं। तथा सम्यग्मिथ्यात्वके Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए कालो $ २४४. आदेसेण सव्वणेरइय-सव्वतिरिक्ख-देवा भवणादि जाव अवराजिदा त्ति जाओ पयडीओ उदीरिज्जति तासिमोघं । मणुसतिये सव्वपय० उक० अणुभागुदी० जह० एयस०, उक्क० संखेजा समया। अणुक्क. सव्वद्धा । णवरि सम्मामि० अणुक्क० जहण्णुक्क० अंतोमु० । मणुसअपज० सव्वपयडी० उक्क० जह० एगस०, उक्क० आबलि० असंखे०भागो । अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । सवढे सव्वपय० उक्क० जह० एयस०, उक्क० संखेजा समया । अणुक्क० सव्वद्धा ! एवं जाव० । $ २४५. जह० पयदं । दुविहो णिदेसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण सव्वपय० जह० अणुभागुदी० जह० एगस०, उक्क० संखेज्जा समया । अजह सव्वद्धा । अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंका जघन्य काल भी अन्तर्मुहूर्त है, अब यदि नाना जीव सन्तानके त्रुटित हुए बिना सम्यग्मिथ्यात्व गुणको प्राप्त होते रहें तो उस कालका योग पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होता है, अतः यहाँ सम्यग्मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंका उत्कृष्ट काल पल्यके असंसख्यातवें भागप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है। आगे गतिमार्गणाके अवान्तर भेदोंमें भी अपनी अपनी विशेषता जान कर काल घटित कर लेना चाहिए। $ २४४. आदेशसे सब नारकी, सब तिर्यञ्च, देव और भगनवासियोंसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें जिन प्रकृतियोंकी उदीरणा होती है उनका भंग ओघके समान है। मनुष्य त्रिकमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंका काल सर्वदा है। इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंका जघन्य एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सर्वार्थसिद्धिमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंका काल सर्वदा है। इसी प्रकार अनाहारक मागेणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ-मनुष्यत्रिक और सर्वार्थसिद्धिके देवोंकी संख्या संख्यात है, इसलिए इनमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंका उत्कृष्ट काल संख्यात समय तथा सम्यग्मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त . कहा है। मनुष्य अपर्याप्त यह सान्तर मार्गणा है, इसलिए इनमें इसके उत्कृष्ट कालको ध्यानमें रख कर यहाँ सब प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंका उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है। $२४५. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे सब प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अजघन्य अनुभागके उदीरकोंका काल सर्वदा है । इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ णवरि सम्मामि ० जह० जह० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे० भागो । अजह० जह० अंतोमु०, उक्क० पलिदो ० असंखे ० भागो । $ २४६. आदेसेण णेरइय० सम्म० - सम्मामि० ओघं । सेसपय० जह० जह० एयस०, उक्क० आवलि० असंखे ० भागो । अजह० सव्वद्धा । एवं पढमाए तिरिक्खपंचिदियतिरिक्खदुग- देवा सोहम्मादि जाव णवगेवज्जा त्ति । णवरि अप्पप्पणो पडीओ णादव्वाओ । विदियादि सत्तमा त्ति जोणिणी ० - भवण ० - वाणवें ० - जोदिसि ० सम्मामि० ओघं । सेसपय० जह० जह० एयस०, उक्क० आवलि० असंखे ० भागो । अजह० सव्वद्धा । पंचिदियतिरिक्खअपज० सव्वपय० जह० जह० एयस०, उक्क० आवलि० असं० भागो । अज० सव्वद्धा । आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अजघन्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । विशेषार्थ – ओघसे सब प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका काल एक समय है यह स्पष्ट ही है । यदि नाना जीव सन्तानके त्रुटित हुए बिना इनकी जघन्य अनुभाग उदीरणा करें तो सब कालका योग सम्यग्मिथ्यात्वको छोड़ कर संख्यात समय ही होगा, इसलिए यहाँ उनके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है । मात्र सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा यह काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रगाण बन जाता है, इसलिए इसके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है । $ २४६. आदेशसे नारकियोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है । शेष प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अजघन्य अनुभागके उदीरकों का काल सर्वदा है । इसी प्रकार पहली पृथिवी, सामान्य तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चद्विक, सामान्य देव और सौधर्मकल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी अपनी प्रकृतियाँ जाननी चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकी, योनिनीतिर्यञ्च, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है । शेष प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलि असंख्यातवें भागप्रमाण है । अजघन्य अनुभागके उदीरकोंका काल सर्वदा है | पञ्चेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अजघन्य अनुभागके उदीरकों काल सर्वदा है। विशेषार्थ — प्रथम पृथिवी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चद्विक, सामान्य देव और सौधर्म कल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देवोंमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव मरकर उत्पन्न होते हैं, इसलिए इनमें सम्यक्त्वका भंग ओघके समान बन जाता है । परन्तु पूर्वोक्त शेष मार्गणाओं में कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव मर कर उत्पन्न नहीं होते, इसलिए इनमें सम्यक्त्वकी अपेक्षा कालप्ररूपणा अन्य प्रकृतियोंके समान बननेसे उस प्रकारसे कही है। शेष कथन सुगम है । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए अंतरं १०१ $ २४७. मणुसतिए ओघं । णवरि सम्मामि० जह० जह० एगस०, उक्क० संखेज्जा समया । अजह० जहण्णुक्क० अंतोमु० । मणुसअपज० सव्वपय० जह० जह० एयस०, उक्क० आवलि० असंखे० भागो । अजह० जह० एगस०, उक्क० पलिदो ० असंखे ० भागो । $ २४८. अणुद्दिसादि अवराजिदा ति सम्म ० - बारसक ० - सत्तणोक० आणदभंगो । सब्बट्टे सव्वपय० जह० जह० एगस०, उक्क० संखेजा समया । अजह० सव्वद्धा । एवं जाव० । $ २४९. अंतरं दुविहं – जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि - ओघेण आदेसेण य । ओघेण सव्वपयडी • उक्क० अणुभागुदी ० अंतरं जह० एगस०, उक्क० असंखेज्जा लोगा । अणुक्क० णत्थि अंतरं । णवरि सम्मामि० अणुक्क० जह० एस ०, उक्क० पलिदो० असं० भागो । ० ० $ २४७. मनुष्यत्रिक में ओघके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । अजघन्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अजघन्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । विशेषार्थ – मनुष्यत्रिकका प्रमाण संख्यात होनेसे यहाँ सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका उत्कृष्ट काल संख्यात समय तथा अजघन्य अनुभागके उदीरकोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। शेष कथन सुगम है । $ २४८. अनुदिशसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें सम्यक्त्व, बारह कषाय और सात नोकषायोंका भंग आनत कल्पके समान है । सर्वार्थसिद्धिमें सब प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । अजघन्य अनुभागके उदीरकोंका काल सर्वदा है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जाननां चाहिए । $ २४९. अन्तर दो प्रकारका है- जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है । अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है । इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यात्वके अनुत्कष्ट अनुभागके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । विशेषार्थ- — सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणाके योग्य परिणाम कमसे कम एक समयके अन्तरसे और अधिक से अधिक असंख्यात लोकप्रमाण कालके अन्तरसे होते हैं, इसलिए यहाँ सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है यह स्पष्ट ही है । मात्र सम्यग्मिथ्यात्व गुण यह सान्तर मार्गणा है, इसलिए Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ $ २५०. आदेसेण सव्वणिरय - सव्वतिरिक्ख - सव्वमणुस - सव्वदेवा त्ति जाओ पडीओ उदीरिज्जति तासिमोघं । णवरि मणुसअपज्ज० सव्वपयडी० उक्क० अणुभागुदी अंतरं जह एस०, उक्क० असंखेज्जा लोगा । अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० पलिदो ० असंखे ० भागो । एवं जाव० । $ २५१. जह० पयदं । दुविहो णिसो – ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०बारसक० - छण्णोक० जह० जह० एयस०, उक्क० असंखेज्जा लोगा । अजह० णत्थि अंतरं । सम्मामि० जह० जह० एयस०, उक्क० असंखे० लोगा । अजह० जह० एस०, उक्क० पलिदो ० असंखे० भागो । सम्म० - लोभसंजल० जह० जह० एस ०, उक्क० छम्मासं । अजह ० णत्थि अंतरं । इत्थिवे ० - णवंस० जह० जह० एयस०, उक्क० वासपुधत्तं । अजह० णत्थि अंतरं । तिण्णिसंजल० - पुरिसवे० जह० जह० एगस०, उक्क० वासं सादिरेयं । अजह० णत्थि अंतरं । एवं मणुसतिये । णवरि वेदा जाणिव्वा । मणुसिणी० खवगपय० वासपुधत्तं । उसके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालको ध्यान में रखकर सम्यग्मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट अनुभागउदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। $ २५०. आदेशसे सब नारकी, सब तिर्यञ्च, सब मनुष्य और सब देवोंमें जिन प्रकृतियोंकी उदीरणा होती है उनका भंग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि मनुष्य अपर्यातकों में सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है । अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । $ २५१. जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश | ओघसे मिथ्यात्व, बारह कषाय और छह नोकषायके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है । अजघन्य अनुभागके उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है । सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है । अजघन्य अनुभाग के उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । सम्यक्त्व और लोभ संज्वलनके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है । अजघन्य अनुभाग उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है । स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व प्रमाण है । अजघन्य अनुभागके उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है। तीन संज्वलन और पुरुषवेदके जघन्य अनुभाग के उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक एक वर्ष है 1 अजघन्य अनुभागके उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है । इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपना-अपना वेद जान लेना चाहिए । तथा मनुष्य नियोंमें क्षपक प्रकृतियोंके जंघन्य अनुभागके उदीरकोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्वप्रमाण है । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए अंतरं १०३ $ २५२. आदेसेण णेरइय० मिच्छ० - अनंताणु ०४ जह० जह० एगस ०, उक्क० सत्त रादिदियाणि । अजह० णत्थि अंतरं । सम्म० जह० जह० एस ०, उक्क० वासतं । अजह० णत्थि अंतरं । सम्मामि० ओघं । बारसक० - सत्तणोक० जह० जह० एयस०, उक्क० असंखे • लोगा । अजह० णत्थि अंतरं । एवं पढमाए । विदियादि सत्तमा ति एवं चेव । णवरि सम्म ० कसायभंगो । $ २५३. तिरिक्खेसु सम्म० - सम्मामि० णारयभंगो । सेसपय० जह० जह० विशेषार्थ — दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयकी क्षपणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना होनेसे सम्यक्त्व और संज्वलन लोभके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकालं छह महीना कहा है । यह जीव पुरुषवेद और शेष तीन संज्वलनोंके उदयके साथ कमसे कम एक समय के अन्तर से और अधिक से अधिक साधिक एक वर्षके अन्तरसे क्षपकश्रेणिपर चढ़ता है, इसलिए पुरुषवेद और शेष तीन संज्वलनोंके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका जधन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक एक वर्ष कहा है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके उदयसे यह जीव कमसे कम एक समय के अन्तरसे और अधिकसे अधिक वर्षपृथक्त्वके अन्तरसे क्षषक श्रेणिपर चढ़ता है, इसलिए इन दोनों वेदोंके जघन्य अनुभाग के उदीरकोंका जघन्यु अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्वप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है । $ २५२. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल सात दिन-रात है । अजघन्य अनुभागके उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है । सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्वप्रमाण है । अजघन्य अनुभागके उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है । सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है । बारह कषाय और सात नोकषायोंके जघन्य अनुभाग के उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है । अजघन्य अनुभागके उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है । इसी प्रकार पहली पृथिवीमें जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वका भंग कषायोंके समान है । विशेषार्थ — नरकमें प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी प्राप्तिके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल को ध्यान में रखकर यहाँ मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल सात दिन-रात कहा है । तथा कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालको ध्यान में रखकर यहाँ सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्वमाण कहा है। शेष कथन सुगम है । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि द्वितीयादि पृथिवियोंमें कृतकृत्य वेदकसम्यग्दृष्टि जीव मरकर नहीं उत्पन्न होते, इसलिए उनमें सम्यक्त्वका भंग कषायोंके समान बन जानेसे उनके समान कहा I $ २५३. तिर्यञ्चोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग नारकियोंके समान है । शेष १. आ०ता० प्रत्योः सम्मामि० इति पाठः । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ एयस०, उक्क० असंखे० लोगा । अजह ० णत्थि अंतरं । एवं पंचिदियतिरिक्खतिए raft वेदा जाणिव्वा । जोणिणीसु सम्म० कसायभंगो । २५४. पंचि०तिरिक्खअपज्ज० सव्वपय० जह० जह० एगस०, उक्क० असंखेजा लोगा । अजह० णत्थि अंतरं । एवं मणुसअपज० । णवरि अजह० जह० एस ०, उक्क षलिदो ० असं० भागो । $ २५५. देवेसु दंसणतिय - अनंताणु०४ णारयभंगो । सेसपयडी ० जह० जह० एयस०, उक्क० असंखेज्जा लोगा । अजह० णत्थि अंतरं । एवं सोहम्मीसाण० । एवं सणक्कुमारादि णवगेवजा त्ति । णवरि इत्थवे ० णत्थि । भवण ० - वाणवें - जोदिसि ० देवोघं । वरि सम्म० कसायभंगो । $ २५६. अणुद्दिसादि सव्वट्ठा त्ति सम्म० जह० जह० एगस०, उक्क० वास प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है । अजघन्य अनुभागके उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है । इसी प्रकार पचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपना-अपना वेद जान लेना चाहिए । योनिनी तिर्यों में सम्यक्त्वका भंग कषायोंके समान है । विशेषार्थ — यद्यपि तिर्यञ्चों में मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य अनुभाग उदीरणाका स्वामित्व संयमासंयमके अभिमुख हुए सर्वविशुद्ध मिध्यादृष्टि संज्ञी पश्चेन्द्रियके मिथ्यात्वके अन्तिम समयमें होता है तथापि ऐसी विशुद्धिवाला उक्त जीव कमसे कम एक समयके अन्तरसे हो यह भी सम्भव है और अधिक से अधिक असंख्यात लोकप्रमाण कालके अन्तरसे हो यह भी सम्भव है । इसी तथ्यको ध्यानमें रखकर यहाँ इन प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है । $ २५४. पचेन्द्रिय तिर्यश्व अपर्याप्तकों में सब प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागके उदीरकों का जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है । अजघन्य अनुभागके उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकों में जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके अजघन्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । $ २५५. देवों में दर्शनमोहनीय तीन और अनन्तानुबन्धी चारका भंग नारकियोंके समान है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है। और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है अजघन्य अनुभागके उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार सौधर्म और ऐशान कल्पमें जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार सनत्कुमार कल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद नहीं है । भवनवासो, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें सामान्य देवोंके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्वका भंग कषायके समान है । $ २५६. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवोंमें सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अनुदिश में वर्ष पृथक्त्व Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए सण्णियासो १०५ पुधत्तं पलिदो ० संखे० भागो । बारसक० - सत्तणोक० जह० जह० एगस ०, उक्क० असंखे • लोगा । अजह० णत्थि अंतरं । एवं जाव० । ० $ २५७. सण्णिासो दुविहो -- जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णिद्देसोओघेण आदेसेण य । ओधेण मिच्छत्तस्स उक्क० अणुभागमुदीरें तो सोलसक० - णवणोक० सिया उदी० सिया अणुदी० । जदि उदी० उक्कस्सं वा अणुक्कस्सं वा । उक्कसादो अणुक्कसं छाणपदिदमुदीरेदि । सम्म० उक्कस्साणुभागमुदीरेंतो बारसक०णवणोक० सिया उदी० सिया अणुदी० । जदि उदोरगो निय० अणुक्क० अनंतगुणहीणं । एवं सम्मामि० । $ २५८. अनंताणु० को ० उक्क० उदी० मिच्छ० तिण्डं कोहाणं णिय० उदी०, उक्क० अणुक्क० । उक्कस्सादो अणुक्क० छट्टाणपदिदं । णवणोक० सिया० तं तु छाणपदिदं । एवं पण्णारसक० ! १ $ २५९. इत्थिवेद० उक्क० अणुभागमुदीरे० ' मिच्छ० णिय ० तं तु छट्टाणपदिदं । और सर्वार्थसिद्धिमें पल्योपमके संख्यातवे भागप्रमाण है । बारह कषाय और सात नोकषायोंके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है । अजघन्य अनुभागके उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । $ २५७. सन्निकर्ष दो प्रकारका है— जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे मिध्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक सोलह कषाय और नौ नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है या अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है तो उत्कृष्टसे षट्स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है । सम्यक्त्वके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला बारह कषाय और नौ नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो नियमसे अनन्त गुणहीन अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है । इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिको मुख्य कर सन्निकर्ष कहना चाहिए । 1 $ २५८. अनन्तानुबन्धी क्रोधके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला मिथ्यात्व और तीन क्रोधोंकी नियमसे उदीरणा करता है, जो उनके उत्कृष्टका उदीरक है या अनुत्कृष्टका उदीरक है । यदि अनुत्कृष्टका उदीरक है तो उत्कृष्टसे छह स्थान पतित अनुत्कृष्टकी उदीरणा करता है। नौ नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो उत्कृष्टका उदीरक है या अनुत्कृष्टका उदीरक है । यदि अनुत्कृष्टका उदीरक है तो उत्कृष्टसे छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है । इसी प्रकार पन्द्रह कषायोंको मुख्यकर सन्निकर्षं कहना चाहिए । $ २५९. स्त्रीवेदके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला मिथ्यात्वका नियमसे उदीरक है जो उत्कृष्टका उदीरक है या अनुत्कृष्टका उदीरक है । यदि अनुत्कृष्टका उदीरक है तो उत्कृष्टसे छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है । सोलह कषायोंका कदाचित् उदीरक १. ता०प्रतौ उक्क अणुक्कमुदीरे० इति पाठः । १४ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ सोलसक० सिया० तं तु छट्टाणपदिदं । छण्णोक० सिया० अनंतगुणहीणं । एवं पुरिसवेद० । $ २६०. णव स० उक्क० अणुभागमुदीरें तो मिच्छ० णिय० तं तु छट्टाणपदिदं । सोलसक० - चदुणोक० सिया० तं तु छट्टाणपदिदं । हस्स -रदि० सिया० अनंतगुणहीणं । $ २६१. इस्सस्स उक्क० अणुभागमुदीरेंतो मिच्छ - रदि० णिय० तं तु छट्टाणपदिदं । सोलसक० सिया० तं तु छट्टाणपदिदं । भय-दुर्गुछ० सिया० अनंतगुणहीणं । पुरिसवे ० णिय० अणंतगुणहीणं । एवं रदीए । $ २६२. अरदि० उक्क० अणुभागमुदीरेंतो मिच्छ० - ण स ० - सोग० जिय० तं तु छट्टादिदं । सोलसक० -भय-दुगुंछ० सिया० तं तु छट्टाणपदिदं । एवं सोग० । है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो उत्कृष्टका उदीरक है या अनुत्कृष्ट उदीर है। यदि अनुत्कृष्टका उदीरक है तो उत्कृष्टसे छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है। छह नोकषायका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो अनन्तगुणहीन अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है । इसी प्रकार पुरुषवेदको मुख्य कर सन्निकर्ष कहना चाहिए । $ २६०. नपुंसकवेदके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला मिध्यात्वका नियमसे उदीरक है । जो उत्कृष्टका उदीरक है या अनुत्कृष्टका उदीरक है । यदि अनुत्कृष्टका उदीरक है तो उत्कृष्टसे छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है । सोलह कषाय और चार नोकषायों का कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदोरक है। यदि उदीरक है तो उत्कृष्टका उदीरक है या अनुष्टका उदीरक है । यदि अनुत्कृष्टका उदीरक है तो उत्कृष्टसे छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है । हास्य और रतिका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो अनन्त गुणहीन अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है। $ २६१. हास्यके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला मिथ्यात्व और रतिका नियमसे उदीरक है । जो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है या अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है । यदि अनुकृष्ट अनुभागका उदीरक है तो उत्कृष्टसे छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है । सोलह कषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है या अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है तो उत्कृष्ट अनुभागकी अपेक्षा छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है। भय और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा अनन्तगुणहीन अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है । पुरुषवेदका नियमसे उदीरक होकर अनन्तगुणहीन अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है । इसी प्रकार रतिको मुख्यकर सन्निकर्ष कहना चाहिए । $ २६२. अरतिके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला मिध्यात्व, नपुंसक वेद और शोकका नियमसे उदीरक है जो इनके उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है या अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है। सोलह कषाय, भय और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है या अनुत्कृष्ट Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए सण्णियासो १०७ ६ २६३. भय० उक्क० उदी० मिच्छ ०-णस० णि० तं तु छट्ठा०प० । सोलसक०-अरदि-सोग०-दुगुंछ० सिया० तं तु छट्ठा०प० । हस्स-रदि० सिया० अणंतगुणहीणं । एवं दुगुंछाए । ६२६४. आदेसेण णेरइय० मिच्छ० उक० अणुभागमुदीरेंतो सोलसक०छण्णोक० सिया तं तु छट्ठाणप० । णवूस णि तं तु छट्ठाणप० । $ २६५. सम्म० उक्क० अणुभागमुदीरेंतो बारसक०-छण्णोक० सिया अणंतगुणहीणं । णवुस० णि. अणंतगुणहीणं । एवं सम्मामि० । $ २६६. अणंताणु०कोध० उक्क. उदीरेंतो मिच्छ० तिण्हं कोधाणं णस० अनुभागका उदीरक है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है। तो उत्कृष्टकी अपेक्षा छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है । इसी प्रकार शोकको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। $ २६३. भयके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला मिथ्यात्व और नपुंसकवेदका नियमसे उदीरक है । जो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है या अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है । नत्कृष्ट अनभागका उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा छह स्थानपतित अनत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है । सोलह कषाय, अरति, शोक और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनदीरक है । यदि उदीरक है तो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है या अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है। यदि अनुत्कृष्ट अनभागका उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है। हास्य और रतिका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो अनन्तगुणहीन अनत्कष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है । इसी प्रकार जुगुप्साको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। $ २६४.आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला सोलह कषाय और छह नोकषायोंका' कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है या अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है । यदि अनुकृष्ट अनुभागका उदीरक है तो उत्कृष्टको अपेक्षा छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अ उदीरणा करता है । नपुंसकवेदका नियमसे उदीरक है जो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है या अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है। २६५. सम्यक्त्वके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला बारह कषाय और छह नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो अनन्तगुणहीन अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है। नपुसकवेदका नियमसे उदीरक है जो अनन्तगुणहीन अनत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। . ६२६६. अनन्तानुबन्धी क्रोधके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला मिथ्यात्व, तीन क्रोध और नपुसकवेदका नियमसे उदीरक है। जो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है या अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है। छह नोकषायोंका कदाचित् उदीरक Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ णि तं तु छट्ठाणपदिदं० । छण्णोक० सिया० तं तु छट्ठाणप० । एवं पण्णारसक० । २६७. णवुस० उक्क० उदीरेंतो मिच्छ० णिय० तं तु छट्ठाणपदि० । सोलसक०-छण्णोक० सिया० तं तु छट्ठाणप० ।। २६८. हस्स० उक्क० अणुभागमुदीरे० मिच्छ०-णवुस०-रदि० णिय० तं तु छट्ठाणप० । सोलसक०-भय-दुगुंछ० सिया० तं तु छट्ठाणप० । एवं रदीए । एवमरदि-सोगाणं । $ २६९. भय० उक्क० अणुभागमुदी० मिच्छ-णस० णि तं तु छट्ठाणप० । सोलसक०-पंचणोक० सिया० तं तु छट्ठाणप० । एवं दुगुंछाए । एवं सव्वणेरइय०। है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है या अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा छह स्थान पतित अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है । इसी प्रकार पन्द्रह कषायोंको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। २६७. नपुसकवेदके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला मिथ्यात्वका नियमसे उदीरक है। जो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है या अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है । सोलह कषाय और छह नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है या अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है। २६८. हास्यके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला मिथ्यात्व, नपुंसकवेद और रतिका नियमसे उदीरक है । जो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है या अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है। सोलह कषाय, भय और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है या अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है । इसी प्रकार रतिको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए । तथा इसी प्रकार अरति ओर शोकको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए । $ २६९. भयके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला मिथ्यात्व और नपुसकवेदका नियमसे उदीरक है । जो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है या अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है। सोलह कषाय और पाँच नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है या अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है। इसी प्रकार जुगुप्साको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए । इसी प्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए। और कदा दीरक है उदीरणा मोकको मुख्य Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए सण्णियासो ..$ २७०. तिरिक्खेसु मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि०-सोलसक० ओघं । इत्थिवेद० उक्क० अणुभामुदी० मिच्छ० णि तं तु छट्ठाणप० । सोलसक०-छण्णोक० सिया० तं तु छट्ठाणप० । एवं पुरिसवे०–णवूस० । $२७१. हस्सस्स उक्क० अणुभागमुदी० मिच्छ-रदि० णिय० तं तु छट्ठाणप० । सोलसक०-तिण्णिवेद-भय-दुगुछ० सिया तं तु छट्ठाणप० । एवं रदीए । एवमरदि-सोगाणं । २७२. भय० उक्क० अणुभागमुदी० मिच्छ० णि तं तु छट्ठाणप० । सोलसक०अट्ठणोक० सिया० तं तु छट्ठाणप० । एवं दुगुंछाए। पंचिंदियतिरिक्खतिये एवं चेव । णवरि पञ्ज० इथिवे. णत्थि । जोणिणीसु इत्थिवेदो धुवो कायव्वो। २७०. तिर्यश्चोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सोलह कषायोंका भंग ओघके समान है। स्त्रीवेदके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला मिथ्यात्वका नियमसे उदीरक है। जो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है या अनुत्कृष्ट अनभागका उदीरक है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है । सोलह कषाय और छह नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है या अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागको उदीरणा करता है। इसी प्रकार पुरुषवेद और नपुंसकवेदको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए । $ २७१. हास्यके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला मिथ्यात्व और रतिका नियमसे उदीरक है। जो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है या अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है । सोलह कषाय, तीन वेद, भय और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है या अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है। इसी प्रकार रतिको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए । तथा इसी प्रकार अरित और शोकको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। $ २७२. भयके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला मिथ्यात्वका नियमसे उदीरक है। जो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है या अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है । सोलह कषाय और आठ नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है या अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है। इसी प्रकार जुगुप्साको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें इसी प्रकार जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेद नहीं है और योनिनियोंमें स्त्रीवेद ध्रुव करना चाहिए। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ २७३. पंचि०तिरिक्खअपज०-मणुसअपज्ज० मिच्छ० उक्क० अणुभागमुदी० सोलसक०-छण्णोक० सिया तं तु छट्ठाणप० । णवूस० णि तं तु छट्ठाणप० । २७४. अणंताणु०कोध० उक्क० अणुभागमुदी० मिच्छ० णqस० तिण्हं कोधाणं णिय. तं तु छट्ठाणप० । छण्णोक० सिया० तं तु छट्ठाणप० । एवं पण्णारसक०। २७५. गवंस० उक्क० उदी० मिच्छ० णिय० तं तु छट्ठाणप० । सोलसक०छण्णोक० सिया तं तु छट्ठाणप० । $ २७६. हस्सस्स उक्क. अणुभागमुदी० मिच्छ०-णवंस०-रदि० णि. तंतु छट्ठाणपदिदं। सोलसक०-भय-दुगुंछ० सिया तं तु छट्ठाणप० । एवं रदीए । 5२७३. पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला सोलह कषाय और छह नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और फदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है या अनुत्कृष्ट अनुभागका उदोरक है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा छह स्थान पतित अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है। नपुंसकवेदका नियमसे उदीरक है। जो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है या अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है। २७४. अनन्तानुबन्धी क्रोधके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला मिथ्यात्व नपुंसकवेद और तीन क्रोधोंका नियमसे उदीरक है। जो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है या अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है तो उत्कष्टकी अपेक्षा छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है। छह नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है या अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है । इसी प्रकार पन्द्रह कषायोंको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। २७५. नपुसकवेदके उत्कृष्ट अनुभागको उदीरणा करनेवाला मिथ्यात्वका नियमसे उदीरक है । जो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है या अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है । सोलह कषाय और छह नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो उत्कृष्ट अनुभागका उदोरक है या अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है। २७६. हास्यके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला मिथ्यात्व, नपुसकवेद और रतिका नियमसे उदीरक है। जो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है और अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है। यदि अनत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है तो उत्कष्टकी अपेक्षा छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है। सोलह कषाय और भय-जुगुप्साका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है या अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है । इसी प्रकार रतिको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरप गा० ६२] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए सण्णियासो १११ एवमरदि-सोगाणं । २७७. भय० उक्क. उदीरेंतो० मिच्छ०-णस० णि. तं तु छट्ठाणप० । सोलसक०-पंचणोक० सिया० तं तु छट्ठाणप० । एवं दुगुंछाए। २७८. मणुसतिये पंचिंदियतिरिक्खतियभंगो। देवेसु तिरिक्खोघं । णवरि णवुस० णत्थि । इत्थिवेद० उक्क० अणुभागमुदी० मिच्छ० णि तं तु छट्ठाणप० । सोलसक०-चदुणोक० सिया० छट्ठाणप० । हस्स-रदि० सिया० अणंतगुणहीणं । $ २७९. हस्सस्स उक्क० उदी० मिच्छ०-पुरिसवे०-रदि० णि तं तु छट्ठाणप० । सोलसक०-भय-दुगुंछ० सिया तं तु छट्ठाणप० । एवं रदीए ।। २८०. भवण-वाणवें०-जोदिसि०-सोहम्मीसाण. तिरिक्खोघं । णवरि चाहिए । तथा इसी प्रकार अरति और शोकको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए । ६२७७. भयके उत्कृष्ट अनुभागका उदोरक जीव मिथ्यात्व और नपुसकबेदका नियमसे उदीरक है। जो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है या अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है । सोलह कषाय और पाँच नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है या अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा छह स्थानपतित अनु त्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है। इसी प्रकार जुगुप्साको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। २७८. मनुष्यत्रिकमें पश्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकके समान भंग है । देवोंमें सामान्य तिर्यश्चोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनमें नपुंसकवेद नहीं है । स्त्रीवेदके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला मिथ्यात्वका नियमसे उदीरक है । जो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है या अनुत्कष्ट अनुभागका उदीरक है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा छह स्थानपतित अनत्कष्ट अनभागकी उदीरणा करता है। सोलह कषाय और चार नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है या अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है। हास्य और रतिका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो उत्कृष्ट की अपेक्षा अनन्तगुणहीन अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है। ६२७९. हास्यके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला मिथ्यात्व, पुरुषवेद और रतिका नियमसे उदीरक है। जो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है या अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागको उदीरणा करता है । सोलह कषाय, भय और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है या अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है। इसी प्रकार रतिको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। २८०. भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी तथा सौधर्म-ऐशान कल्पके देवोंमें सामान्य विर्यश्चोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनमें नपुंसकवेद नहीं है। सनत्कुमार Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ वुंस० णत्थि | सणकुमारादि जाव णवगेवजा त्ति एवं चेव । णवरि पुरिसवेदो ध्रुवो काव्वो । $ २८१. अणुद्दिसादि सव्वट्टा त्ति सम्म० उक० उदी० बारसक० - छण्णोक० सिया तं तु छट्ठाणप० । पुरिसवेद० णि० तं तु छट्टाणप० । एवं पुरिसवेद० । $ २८२. अपच्चक्खाणकोध० उक्क० उदी० सम्म० दोन्हं कोधाणं पुरिसवे० णि० तं तु छट्टाणपदिदं । छण्णोक० सिया० तं तु छट्ठाणप० । एवमेक्कारसक० । $ २८३. हस्सस्स उक्क० उदी० सम्म० -! - पुरिसवेद - रदि० णि० तं तु छडाणप० । बारसक० - भय - दुगुंछ० सिया तं तु छट्टाणप० । एवं रदीए । एवमरदि - सोगाणं | - $ २८४. भय० उक्क० उदीरेंतो सम्म० - पुरिसवे० णि० तं तु छट्टाणप० । कल्पसे लेकर नौ प्रवेयक तकके देवोंमें इसी प्रकार है । इतनी विशेषता है कि इनमें पुरुषवेद ध्रुव करना चाहिए । $ २८१. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सम्यक्त्वके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला बारह कषाय और छह नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है या अनुत्कृष्ट अनुभागका उदर है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है । पुरुषवेदका नियमसे उदीरक है । जो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है या अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है तो उत्कृटकी अपेक्षा छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है । इसी प्रकार पुरुषवेदको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए । $ २८२. अप्रत्याख्यान क्रोधके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला सम्यक्त्व, दो क्रोध और पुरुषवेदका नियमसे उदीरक है । जो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है या अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है। छह नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है या अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है । इसी प्रकार ग्यारह कषायको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए । २८३. हास्यके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला सम्यक्त्व, पुरुषवेद और रतिका नियमसे उदीरक है । जो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है या अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभाँगकी उदीरणा करता है । बारह कषाय, भय और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है या अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका उदोरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा छह स्थान - पतित अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है । इसी प्रकार रतिको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार अरति और शोकको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। २८४. भयके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला सम्यक्त्व और पुरुषवेदका Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए सण्णियासो ११३ . बारसक०-पंचणोक० सिया० तं तु छट्ठाणपदिदा० । एवं दुगुंछा० । एवं जाव० । $ २८५. जह० पयदं । दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ० जह० उदीरतो अणंताणु०४ सिया० तं तु छट्ठाणप० । बारसक०-णवणोक० सिया० अणंतगुणब्भहिया० । $२८६. सम्म० जह० उदीरेंतो बारसक०-णवणोक० सिया० अणंतगुणब्भ० । एवं सम्मामि० । २८७. अणंताणु०कोध० जह० उदीरेंतो० णि०.तं तु छट्ठाणप० । तिण्हं कोधाणं णिय० अणंतगुणब्भ० । णवणोक० सिया अणंतगुणब्भ० । एवं तिण्हं कसायाणं । नियमसे उदीरक है । जो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है या अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है। बारह कषाय और पाँच नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है या अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करता है । इसी प्रकार जुगुप्साको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। २८५ जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवाला अनन्तानुबन्धी चतुष्कका कदाचित् उदोरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो जघन्य अनुभागका उदीरक है या अजघन्य अनुभाग उदीरक है। यदि अजघन्य अनुभागका उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थानपतित अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है। बारह कषाय और नौ नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदोरक है । यदि उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है। २८६. सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवाला जीव बारह कषाय और नौ नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो जघन्यको अपेक्षा अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागकी उदोरणा करता है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। ६२८७. अनन्तानुबन्धी क्रोधके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवाला मिथ्यात्वका नियमसे उदीरक है । जो जघन्य अनुभागका उदीरक है या अजघन्य अनुभागका उदीरक है। यदि अजघन्य अनुभागका उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थानपतित अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है। तीन क्रोधोंका नियमसे उदीरक है। जो जघन्यकी अपेक्षा अनन्त-. गुणे अधिक अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है। नौ नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षाअनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है । इसी प्रकार तीन क्रोधोंको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए । १. आ०प्रतौ अणंतगुणहीणं इति पाठः । १५ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ $ २८८. अपच्चक्खाणकोध० जह० उदी० सम्म ०- नवणोक० सिया० अनंतगुणभ० | दोन्हं कोधाणं णि० अनंतगुणन्भ० । एवं तिन्हं कसायाणं । ११४ $ २८९. पच्चक्खाणकोध० जह० उदी० सम्म० - णवणोक० सिया० अनंतगुणमहिया | कोधसंजल० णिय० अणंतगुणन्भ० । एवं तिण्डं क० । $ २९०. कोधसंजण० जह० अणुभागमुदी० सेसाण मणुदीरगो । एवं तिन्हं संजलणाणं । $ २९१ . इत्थवेद० जह० उदी० चदुसंजल० सिया० अनंतगुणन्भ० । एवं दो वेदा । $ २९२. हस्तास्स जह० उदी० इत्थवेद - पुरिसवेद - णवुंसवे ० - चदुसंजल० सिया० अनंतगुणभ० । रदि० णिय० तं तु छट्टाणप० । भय - दुर्गुछ० सिया० तं तु $ २८८. अप्रत्याख्यान क्रोधके जघन्य अनुभागको उदीरणा करनेवाला सम्यक्त्व और कषायका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है। दो क्रोधोंका नियमसे उदीरक है, जो जघन्यकी अपेक्षा अनन्तगुणे अधिक अजधन्य अनुभागकी उदीरणा करता है । इसी प्रकार अप्रत्याख्यान मानादि तीनको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए । $ २८९. प्रत्याख्यान क्रोधके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवाला सम्यक्त्व और Sataraषायों का कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो जघन्य - की अपेक्षा अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है। क्रोधसंज्वलनका नियमसे उदीरक है जो जघन्यकी अपेक्षा अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है । इसी प्रकार प्रत्याख्यान मानादि तीन कषायोंको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए । $ २९०. क्रोधसंज्वलनके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवाला शेष सब प्रकृतियोंका अनुदीरक है। इसी प्रकार तीनों संज्वलनोंको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए । $ २९१. स्त्रीवेदके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवाला चार संज्वलनका कदाचित् aate है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागकीं उदीरणा करता है । इसी प्रकार दो वेदोंको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए । $ २९२. हास्यके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवाला स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसक - वेद और चार संज्वलनका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक हैं तो जघन्यकी अपेक्षा अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है । रतिका नियमसे उदीरक है । जो जघन्य अनुभागका उदीरक है या अजघन्य अनुभागका उदीरक है | यदि अजघन्य अनुभागका उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थानपतित अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है । भय और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अदीरक है | यदि उदीरक है तो जघन्य अनुभागका उदीरक है या अजघन्य अनुभागका उदीर है यदि अजघन्य अनुभागका उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थानपतित अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है। इसी प्रकार रतिको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०६२] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए सण्णियासो छट्ठाणप० । एवं रदिए। एवमरदि-सोगाणं । $ २९३. भय० जह० उदी० पंचणोक० सिया० तं तु छट्ठाणप० । चदुसंजल०तिण्णिवे. सिया अणंतगुणब्भ० । एवं दुगुंछा० ।। $ २९४. आदेसेण णेरइय० मिच्छ० जह० उदी० सोलसक०-छण्णोक० सिया अणंतगुणब्भ० । णवूस० णिय० अणंतगुणब्भ० । $ २९५. सम्म० जह० उदी. बारसक०-छण्णोक० सिया अणंतगुणब्भ० । णवंस० णिय. अणंतगुणब्भ० । एवं सम्मामि० । $२९६. अणंताणु०कोध० जह० उदी० तिण्हं कोधाणं णवुस० णिय० अणंतगुणब्म० । छण्णोक० सिया अणंतगुणब्भ० । एवं तिण्हं क० । २९७. अपचक्खाणकोध० जह• उदी० सम्म० सिया० अणंतगुणभ० । तथा इसी प्रकार अरति और शोकको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। ३२९३. भयके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवाला पाँच नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो जघन्य अनुभागका उदीरक है या अजघन्य अनुभागका उदीरक है। यदि अजघन्य अनुभागका उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थानपतित अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है। चार संज्वलन और तीन वेदोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है। इसी प्रकार जुगुप्साको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। २९४. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवाला सोलह कषाय और छह नोकषायोंका कदाचित उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है । नपुसकवेदका नियमसे उदीरक है। जो जघन्यकी अपेक्षा अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है। . २९५. सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेबाला बारह कषाय और छह नोकषायोंका कदाचित उदीरक है और कदाचित अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है। नपुंसकवेदका नियमसे उदीरक है जो जघन्यकी अपेक्षा अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। २९६. अनन्तानुवन्धी क्रोधके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवाला तीन क्रोध और नपुंसकवेदका नियमसे उदीरक है। जो जघन्यकी अपेक्षा अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है। छह नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी मान आदि तीन कषायों को मुख्यकर सन्निकर्ष जान लेना चाहिए। ६२९७. अप्रत्याख्यान क्रोधके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवाला सम्यक्त्वका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [वैदगो७ दोण्हं कोधाणं णस० णिय० तं तु छट्ठाणप० । छण्णोक० सिया तं तु छट्ठाणप० । एवमेक्कारसक० । २९८. णवूस. जह० उदी० सम्म० सिया अणंतगुणब्भ० । बारसक०छण्णोक० सिया तं तु छट्ठाणप० ।। $ २९९. हस्सस्स जह० उदी० सम्म० णसभंगो। पारसक०-भय-दुगुंछ० सिया तं तु छट्ठाणप० । णवंस०-रदि० णिय. तं तु छट्ठाणप० । एवं रदीए । एवमरदि-सोगाणं। $३००. भय० जह० उदी० सम्म०-णवूस० हस्सभंगो। बारसक०-पंचणोक० सिया तं तु छट्ठाणप० । एवं दुगुंछाए । एवं पढमाए । विदियादि सत्तमा त्ति एवं अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है। दो क्रोध और नपुंसकवेदका नियमसे उदीरक है । जो जघन्य अनुभागका उदीरक है या अजघन्य अनुभागका उदीरक है। यदि अजघन्य अनुभागका उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थानपतित अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है । छह नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो जघन्य अनुभागका उदीरक है या अजघन्य अनुभागका उदीरक है। यदि अजघन्य अनुभागका उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थानपतित अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है। इसी प्रकार ग्यारह कषायोंको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। २९८. नपुंसकवेदके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवाला सम्यक्त्वका कदाचित उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा अनन्तगुणे अधिक 'अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है। बारह कषाय और छह नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो जघन्य अनुभागका उदीरक है या अजघन्य अनुभागका उदीरक है। यदि अजघन्य अनुभागका उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थानपतित अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है। २९९. हास्यके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवालेके सम्यक्त्वका भंग नपुंसकवेद के जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवालेके समान है । वह बारह कषाय, भय और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक है और कदाचित अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो जघन्य अनुभागका उदीरक है या अजघन्य अनुभागका उदीरक है। यदि अजघन्य अनुभागका उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थानपतित अजघन्य अनुभागको उदीरणा करता है । नपुंसकवेद और रतिका नियमसे उदीरक है । जो जघन्य अनुभागका उदीरक है या अजघन्य अनुभागका उदीरक है। यदि अजघन्य अनुभागका उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थानपतित अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है । इसी प्रकार रतिको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार अरति और शोकको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। ३००. भयके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवालेके सम्यक्त्व और नपुंसकवेदका भंग हास्यके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवालेके समान है । वह बारह कषाय और पाँच नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो जघन्य अनुभागका उदीरक है या अजघन्य अनुभागका उदीरक है। यदि अजघन्यकी अनुभागका Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२. ] उत्तरपयडिअणुभाग उदीरणाए सण्णियासो ११७ चैव । णवरि बारसक० - सत्तणोक० जह० उदी० सम्म० सिया तं तु छट्टाणप० । $ ३०१. सम्म० जह० उदी० बारसक० - छण्णोक० सिया तं तु छट्ठाणप० । णवुंस० निय० तं तु छट्ठाणप० । $ ३०२. तिरिक्खेसु मिच्छ० - सम्मामि० - अट्ठक० ओघं । सम्म० जह० उदी० बारसक० - छण्णोक० सिया अनंतगुण भ० । पुरिस० णिय० अनंतगुणन्भ० । $ ३०३. पञ्चक्खाणकोध० जह० उदी० सम्म० सिया अनंतगुणभ० । कोधसंजल० णिय० तं तु छट्टाणप० । णवणोक० सिया तं तु छड्डाणप० । एवं सत्तक ० । उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थानपतित अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है । इसी प्रकार जुगुप्साको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए । इसी प्रकार पहली पृथिवीमें जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं तक इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है। कि इनमें बारह कषाय और सात नोकषायोंके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवाला सम्यक्त्वका कदाचित्_उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो जघन्य अनुभागका उदीरक है या अजघन्य अनुभागका उदीरक है । यदि अजघन्य अनुभागका उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थानपतित अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है । $ ३०१. सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवाला बारह कपाय और छह नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो जघन्य अनुभागका उदीरक है या अजघन्य अनुभागका उदीरक है । यदि अजघन्य अनुभागका उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थानपतित अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है । नपुंसकवेदका नियमसे उदीरक है । जो जघन्य अनुभागका उदीरक है या अजघन्य अनुभागका उदीरक है । यदि अजघन्य अनुभागका उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थानपतित अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है । $ ३०२. तिर्यञ्चोंमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और आठ कषायोंको मुख्यकर सन्निकर्षका भंग ओघके समान है । सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवाला बारह कषाय और छह नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है । पुरुषवेदका नियमसे उदीरक है । जो जघन्यकी अपेक्षा अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है । $ ३०३. प्रत्याख्यान क्रोधके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवाला सम्यक्त्वका कदाचित् उदीरक है और कदाचित अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है । क्रोधसंज्वलनका नियमसे उदीरक है। जो जघन्य अनुभागका उदीरक है या अजघन्य अनुभागका उदीरक है । यदि अजघन्य अनुभागका उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थानपतित अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है। नौ नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो जघन्य अनुभागका उदीरक है या अजघन्य अनुभागका उदीरक है । यदि अजघन्य अनुभागका उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थानपतित अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है । इसी प्रकार सात कषायोंको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ __$३०४. इत्थिवेद० जह० अणुभागुदी० सम्म सिया अणंतगुणब्भ० । अट्ठक०'छण्णोक० सिया तं तु छट्ठाणप० । एवं दोण्हं वेदाणं । $३०५. हस्सस्स जह० उदी० सम्म० इथिवेदभंगो। अदुक०-तिण्णिवेदभय-दुगुंछा० सिया तं तु छट्ठाणप० । रदि० णि तं तु छट्ठाणप० । एवं रदीए । एवमरदि-सोगाणं। ३०६. भय० जह० उदीरेंतो सम्म० इत्थिवेदभंगो । अट्ठक०-अट्ठणोक० सिया तं तु छट्ठाणप० । एवं दुगुंछाए । ३०७. एवं पंचिंदियतिरिक्खतिये । गवरि पज० इत्थिवे. णत्थि । जोणिणीसु पुरिस०-णंस० णत्थि । इथिवेदो धुवो कायव्यो। अट्ठक०-सत्तणोक० जह० ३०४. स्त्रीवेदके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवाला सम्यक्त्वका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनभागकी उदीरणा करता है। आठ कषाय और छह नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो जघन्य अनुभागका उदीरक है या अजघन्य अनुभागका उदीरक है। यदि अजघन्य अनुभागका उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थानपतित अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है। इसी प्रकार दो वेदोंको मुख्यकर सनिकर्ष जानना चाहिए। $३०५. हास्यके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवालेके सम्यक्त्वका भंग स्त्रीवेदके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवालेके समान है। आठ कषाय, तीन वेद, भय और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो जघन्य अनुभागका उदीरक है या अजघन्य अनुभागका उदीरक है। यदि अजघन्य अनुभागका उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थानपतित अजन्य अनभागकी उदीरणा करता है । रतिका नियमसे उदीरक है । जो जघन्य अनुभागका उदीरक है या अजघन्य अनुभागका उदीरक है। यदि अजघन्य अनुभागका उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थानपतित अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है । इसी प्रकार रतिको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार अरति और शोकको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। ___३०६. भयके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवालेके सम्यक्त्वका भंग श्रीवेदके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवालेके समान है। आठ कषाय और आठ नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो जघन्य अनुभागका उदीरक है या अजघन्य अनुभागका उदीरक है । यदि अजघन्य अनभागका उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थानपतित अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है। इसी प्रकार जुगुप्साको मुख्यकर समिकर्ष जानना चाहिए। ३०७. इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेद नहीं है । योनिनियों में पुरुषवेद और नपुंसकवेद नही है। इनमें स्त्रीवेद ध्रुव १. ता प्रतौ अणंतगुणन्म । कोषसंजलण णिय० तं तु छट्ठा । अटक० इति पाठः। २. आ प्रतौ छण्णोक० तं तु इति पाठः । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उदी ० उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए सण्णिासो ० सम्म० सिया० तं तु छट्ठाणप० । ११९ $ ३०८. सम्म० जह० उदी० अट्ठक० - छण्णोक० सिया० तं तु छट्टाणप० । इत्थवे ० णि० तं तु छट्ठाणप० । $ ३०९. पंचि०तिरिक्खअपज ० - मणुसअपज० मिच्छ० जह० उदी० सोलसक० छण्णोक० सिया तं तु छडाणप० । णवुंस० णि० तं तु छट्ठाणप० । $ ३१०. अनंताणुकोध० जह० उदी० मिच्छ० तिण्डं कोधाणं णव स० णि० तं तु छट्टाणप० । छण्णोक० सिया तं तु छट्ठाणप० । एवं पण्णारसक० । करना चाहिए । तथा इनमें आठ कषाय और सात नोकषायोंके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवाला सम्यक्त्वका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो जघन्य अनुभागका उदीरक है या अजघन्य अनुभागका उदीरक है । यदि अजघन्य अनुभागका उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थानपतित अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है । $ ३०८. सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवाला उक्त जीव आठ कषाय और छह नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो जघन्य अनुभागका उदीरक है या अजघन्य अनुभागका उदीरक है। यदि अजघन्य अनुभागका उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थानपतित अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है । स्त्रीवेदका नियमसे उदीरक है । जो जघन्य अनुभागका उदीरक है या अजघन्य अनुभागका उदीरक है । यदि अजघन्य अनुभागका उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थानपतित अजघन्य अनुभागका उदीरक है । $ ३०९. पचेन्द्रिय तिर्यन अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में मिध्यात्वके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवाला जीव सोलह कषाय और छह नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो जघन्य अनुभागका उदीरक है या अजघन्य अनुभागका उदीरक है । यदि अजघन्य अनुभागका उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा षट् स्थानपतित अजघन्य अनुभागका उदीरक है । नपुंसकवेदका नियमसे उदीरक है । जो जघन्य अनुभागका उदीरक है या अजघन्य अनुभागका उदीरक है । यदि अजघन्य अनुभागका उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थानपतित अजघन्य अनुभागका उदीरक है । $ ३१०. अनन्तानुबन्धी क्रोधके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवाला जीव मिथ्यात्व, तीन क्रोध और नपुंसकवेदका नियमसे उदीरक है । जो जघन्य अनुभागका उदीरक है या अजघन्य अनुभागका उदीरक है । यदि अजघन्य अनुभागका उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थानपतित अजघन्य अनुभागका उदीरक है। छह नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो जघन्य अनुभागका उदीरक है या अजघन्य अनुभागका उदीरक है । यदि अजघन्य अनुभागका उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थानपतित अजघन्य अनुभागका उदीरक है । इसी प्रकार पन्द्रह कषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष कहना चाहिए । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ ३११. गवुस० जह० उदी० मिच्छ० णिय० तं तु छट्ठाण । सोलसक०छण्णोक० सिया० तं तु छट्ठाणप० । $ ३१२. हस्सस्स जह० अणुभा० उदी० मिच्छ०-णवूस०-रदि० णिय० तं तु छट्ठाणप० । सोलसक०-भय-दुगुंछ० सिया० तं तु छट्ठाणप० । एवं रदिए । एवमरदि-सोग० । ___$३१३. भय० जह० अणुभा० उदी० मिच्छ०-णस० णि तं तु छट्ठाणप० । सोलसक०-पंचणोक० सिया तं तु छट्ठाणप० । एवं दुगुंछाए । F३१४. मणुसतिए ओघं । णवरि पञ्ज० इत्थिवेदो णत्थि । मणुसिणीसु इत्थिवेदो धुवो कायव्वो। $३११. नपुंसकवेदके जघन्य अनुभागका उदीरक जीव मिथ्यात्वका नियमसे उदीरक है जो जघन्य अनुभागका उदीरक है या अजघन्य अनुभागका उदोरक है। यदि अजघन्य अनुभागका उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थानपतित अजघन्य अनुभागका उदीरक है । सोलह कषाय और छह नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो जघन्य अनुभागका उदीरक है या अजघन्य अनुभागका उदीरक है । यदि अजघन्य अनुभागका उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थानपतित अजघन्य अनुभागका उदीरक है। ३१२. हास्यके जघन्य अनुभागका उदीरक जीव मिथ्यात्व, नपुसकवेद और रतिका नियमसे उदीरक है। जो जघन्य अनुभागका उदीरक है या अजघन्य अनुभागका उदीरक है। यदि अजघन्य अनुभागका उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थानपतित अजघन्य अनुभागका उदीरक है। सोलह कषाय, भय और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो जघन्य अनुभागका उदीरक है या अजघन्य अनुभागका उदीरक है। यदि अजघन्य अनुभागका उदीरक है. तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थानपतित अजघन्य अनुभागका उदीरक है। इसी प्रकार रतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार अरति और शोककी मुख्यतासे सन्निनर्ष जानना चाहिए । ६३१३. भयके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवाला जीव मिथ्यात्व और नपुंसकवेदका नियमसे उदीरक है । जो जघन्य अनुभागका उदीरक है या अजघन्य अनुभागका उदीरक है। यदि अजघन्य अनुभागका उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थानपतित अजघन्य अनुभागका उदीरक है । सोलह कषाय और पाँच नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो जघन्य अनुभागका उदीरक है या अजघन्य अनुभागका उदीरक है। यदि अजघन्य अनुभागका उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थानपतित अजघन्य अनुभागका उदीरक है। इसी प्रकार जुगुप्साकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। $३१४. मनुष्यत्रिकमें ओघके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि मनुष्य पर्याप्तकों में स्त्रीवेद नहीं है तथा मनुष्यिनियोंमें स्त्रीवेद ध्रुव करना चाहिए । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए सण्णियासो १२१ $ ३१५. देवेसु मिच्छ० जह० अणुभा० उदी० सोलसक०-अट्ठणोक० सिया अणंतगुणब्भ० । एवं सम्मामि० । णवरि अणंताणु०४ पत्थि । । ३१६. सम्म० जह० अणुभा० उदी० बारसक०-छण्णोक० सिया अणंतगुणब्भ० । एवं पुरिसवे० । णवरि णिय० उदी० अणंतगुणब्भ० । ३१७. अणंताणु०कोध० जह० अणुभा० उदी० तिण्हं कोधाणं णिय० अणंतगुणब्भ० । अट्ठणोक० सिया अणंतगुणब्भ० । एवं तिण्हं कसायाणं । ६३१८. अपच्चक्खाणकोह. जह० उदी० सम्म० सियो अणंतगुणब्भ० । दोण्हं कोधाणं णिय० तं तु छट्ठाणप० । अट्ठणोक० सिया तं तु छट्ठाणप० । एवमेकारसक० । $३१५. देवोंमें मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवाला जीव सोलह कषाय और आठ नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो जघन्य अनुभागको अपेक्षा अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है। इसी प्रकार सम्यमिथ्यात्वको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसके अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी उदीरणा नहीं होती। $ ३१६. सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवाला जीव बारह कषाय और छह नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है । इसी प्रकार पुरुषवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि वह नियमसे उदीरक है जो जघन्यकी अपेक्षा अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागका उदीरक है। ६३१७. अनन्तानुबन्धी क्रोधके जघन्य अनुभागका उदीरक जीव तीन क्रोधोंका नियमसे उदीरक है । जो जघन्यकी अपेक्षा अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है। आठ नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो जघन्य अनुभागकी अपेक्षा अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है। इसी प्रकार तीन कषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । ३१८. अप्रत्याख्यानावरण क्रोधके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवाला जीव सम्यकक्त्वका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदोरक है। यदि उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागको उदीरणा करता है। दो क्रोधोंका नियमसे उदीरक है जो जघन्य अनुभागका उदीरक है या अजघन्य अनुभागका उदीरक है। यदि अजघन्य अनुभागका उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थानपतित अजघन्य अनुभागका उदीरक है। आठ नोकषायोंका कदाचित उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो जघन्य अनुभागका उदीरक है या अजघन्य अनुभागका उदीरक है। यदि अजघन्य अनुभागका उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थानपतित अजघन्य अनुभागका उदीरक है । इसी प्रकार ग्यारह कषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । १. ताःप्रतौ उदी० सिया इति पाठः। १६ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ ___$ ३१९. इथिवे. जह० उदी सम्म० सिया० अणंतगुणब्भ० । वारसक०छण्णोक० सिया तं तु छट्ठाणप० । एवं पुरिस० । $ ३२०. हस्सस्स जह० अणुभा० उदी० सम्म० इत्थिवेदभंगो। बारसक०इत्थिवेद-पुरिसवेद-भय-दुगुछ० सिया तं तु छट्ठाणप० । रदि० णिय० तं तु छट्ठाणप० । एवं रदीए । एवमरदि-सोगाणं । $३२१. भय० जह० उदी० बारसक-सत्तणोक० सिया तं तु छट्ठाणप० । सम्म० इत्थिवेदभंगो । एवं दुगुछ० । एवं सोहम्मीसाण० । सणकमारादि जाव णवगेवजा ति एवं चेव । णवरि इत्थिवेदो णत्थि । पुरिसवेदो धुवो कायव्यो । ६ ३२२. भवण-वाण-०-जोदिसि० देवोघं । णवरि बारसक०-अट्ठणोक० $ ३१९. स्त्रीवेदके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवाला जीव सम्यक्त्वका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो जघन्यको अपेक्षा अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागका उदीरक है । बारह कषाय और छह नोकषायोंका कदाचित् उदीक है और कदाचित अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो जघन्य अनुभागका उदीरक है या अजघन्य अनुभागका उदीरक है। यदि अजघन्य अनुभागका उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थानपतित अजघन्य अनुभागका उदीरक है । इसी प्रकार पुरुषवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। ___$३२०. हास्यके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवाले जीवके सम्यक्त्वका भंग स्त्रीवेदके समान है । बारह कषाय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो जघन्य अनुभागका उदीरक है या अजघन्य अनुभागका उदीरक है। यदि अजघन्य अनुभागका उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थानपतित अजघन्य अनुभागका उदीरक है। रतिका नियमसे उदीरक है जो जघन्य अनुभागका उदीरक है या अजघन्य अनुभागका उदीरक है। यदि अजघन्य अनुभागका उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थानपतित अजघन्य अनुभागका उदीरक है । इसी प्रकार रतिको मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार अरति और शोककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। ३२१. भयके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवाला बारह कषाय और सात नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो जघन्य अनुभागका उदीरक है या अजघन्य अनुभागका उदीरक है। यदि अजघन्य अनुभागका उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थानपतित अजघन्य अनुभागका उदीरक है। सम्यक्त्वका भंग स्त्रीवेदके समान है। इसी प्रकार जुगुप्साकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । इसी प्रकार सौधर्म और ऐशान कल्पमें जानना चाहिए । सनत्कुमार कल्पसे लेकर नौ वेयक तक इसी प्रकार जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद नहीं है। इनमें पुरुषवेद ध्रुव करना चाहिए। ३२२. भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें सामान्य देवोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि बारह कषाय और छह नोकषायोंके जघन्य अनुभागको उदीरणा करनेवाला सम्यक्त्वका कदाचित् उदोरक है और कदाचित् अनुदोरक है। यदि उदीरक है तो Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ गा० ६२ ] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए सण्णियासो जह• उदी० सम्म० सिया० तं तु छट्ठाणप० । सम्म० जह० अणुभा० उदी० बारसक०-अट्ठणोक० सिया तं तु छट्ठाणप० । 5 ३२३. अणुदिसादि सव्वट्ठा ति सम्म०-बारसक०-सत्तणोक० आणदभंगो । एवं जाव०। 5 ३२४. भावाणु० सव्वत्थ ओदइओ भावा । * अप्पाबहुअं। ६ ३२५. सुगममेदमहियारसंभालणसुत्तं । तं च दुविहमप्पाबहुअं-जहण्णमुक्कस्सं च । एत्थुक्कस्सए ताव पयदं । तस्स दुविहोणिदेसो-ओघादेसभेदेण । तत्थोषपरूवण?मुत्तरो सुत्तपबंधो * सव्वतिव्वाणुभागा मिच्छत्तस्स उकस्साणुभागुदीरणा । 5 ३२६. सव्वेहितो तिव्यो अणुभागो जिस्से सा सव्वतिव्वाणुभागा सव्वतिब्बसत्तिसंजुत्ता त्ति वुत्तं होदि । का सा ? मिच्छत्तस्स उकस्साणुभागुदीरणा। कुदो ? सव्वदव्वविसयसद्दहणगुणपडिबंधित्तादो। . जघन्य अनुभागका उदीरक है या अजघन्य अनुभागका उदीरक है। यदि अजघन्य अनुभागका उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थानपतित अजघन्य अनुभागका उदीरक है। सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवाला बारह कषाय और आठ नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो जघन्य अनुभागका उदीरक है या अजघन्य अनुभागका उदीरक है। यदि अजघन्य अनुभागका उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थानपतित अजघन्य अनुभागका उदोरक है। ६२२३. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक सम्यक्त्व, बारह कषाय और सात नोकषायोंका भंग आनत कल्पके समान है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। $ ३२४. भावानुगमकी अपेक्षा सर्वत्र औदयिक भाव है। * अल्पबहुत्वका अधिकार है। $ ३२५. अधिकारकी सम्हाल करनेवाला यह सूत्र सुगम है। वह अल्पबहुत्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । यहाँ सर्व प्रथम उत्कृष्टका प्रकरण है । ओघ और आदेशके भेदसे उसका निर्देश दो प्रकारका है। उनमेंसे ओघका कथन करने के लिए आगेका सूत्र प्रबन्ध है * मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट अणुभाग उदीरणा सबसे तीव्र अनुभागवाली है। ६ ३२६. सबसे तीव्र अनुभाग है जिसका वह सबसे तीव्र अनुभागवाली कहलाती है । सबसे तीव्र शक्तिसे संयुक्त है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका-वह कौन है ? समाधान-मिथ्यात्वको उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा, क्योंकि वह सर्व द्रव्यविषयक श्रद्धान गुणका प्रतिबन्ध करती है। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ * अणंताणुबंधीणमण्णदरा उक्कस्साणुभागुदीरणा तुल्ला अनंतगुणहीणा । १२४ $ ३२७. कुदो १ मिच्छत्तुकस्साणुभागादो एदेसिमुकस्साणुभागस्स अनंतगुणहीणसरूवेणावद्वाणदंसणादो । एत्थ अनंताणुबंधिमाणादीण मणुभागुदीरणा सत्थाणे समाजा त्ति जं भणिदं तण्ण घडदे । किं कारणं ? विसेसाहिय सरूवेणेदे सिमणुभागसंतकम्मस्सावद्वाणदंसणादो ? ण एस दोसो, विसेसा हियसंतकम्मादो विसेसहीणसंतकम्मादो च समाणपरिणामणिबंधणा उदीरणा सरिसी होदि ति अब्भ्रुवगमादो । एसो अत्थो उवरि संजणादिकसासु वि जोजेयव्वो । * संजलपाणमण्णदरा उक्कस्साणुभागुदीरणा अयंतगुणहीणा । ९३२८. कुदो १ दंसण - चारितपडिबंधिअनंताणुबंधीण मुकस्साणुभागुदीरणादो चारित्तमेतपडिबंधीणं संजलणाण मुक्कस्साणुभागुदीरणाए अनंतगुणहीणतं पडि विरोहाभावादो । * पच्चक्खाणावरणीयाणमुक्कस्साणुभागुदीरणा गुणहीणा । अण्णदरा अणंत * उससे अनन्तानुबन्धियोंकी अन्यतर उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा परस्पर समान होकर अनन्तगुणी हीन है । $ ३२७. क्योंकि मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसे इनका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणे हीनरूपसे अवस्थित देखा जाता है । शंका —यहाँ पर अनन्तानुबन्धी मान आदिकी अनुभाग उंदीरणा स्वस्थानमें समान ऐसा जो कहा है वह घटित नहीं होता, क्योंकि इनके अनुभाग सत्कर्मका विशेष अधिकरूपसे अवस्थान देखा जाता है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि विशेष अधिक सत्कर्मसे और विशेष हीन सत्कर्मसे समान परिणामनिमित्तक उदीरणा सदृश होती है ऐसा स्वीकार किया है। यह अर्थ ऊपर संज्वलन कषाय आदिके विषयमें भी लगा लेना चाहिए। * उससे संज्वलनोंकी अन्यतर उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । $ ३२८. क्योंकि दर्शन और चारित्रका प्रतिबन्ध करनेवाली अनन्तानुबन्धियोंकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणासे मात्र चारित्रका प्रतिबन्ध करनेवाले संज्वलनोंकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणे हीन होनेमें कोई विरोध नहीं है । * उससे प्रत्याख्यानावरणीय कर्मोंकी अन्यतर उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए सण्णियासो $ ३२९. कुदो १ जहाक्खादसंजमविरोहिसंजलणाणुभागं पेक्खियूण वयोवसमियसंजमं पडिबंधिपच्चक्खाणकसायस्साणुभागस्साणंतगुणहीणत्तसिद्धीए णाइयत्तादो । * अपच्चक्खाणावरणीयाणमुक्कस्साणुभागमुदीरणा अण्णदरा अनंतगुणहीणा । $ ३३०. किं कारणं ९ सयलसंजमघादिपच्चक्खाणकसायाणुभागादो देससंजमविरोहि-अपच्चक्खाणाणुभागस्साणंतगुणहीणसरूवेणावट्ठाणदंसणादो । १२५ * णवुंसयवेदस्स उक्कस्साणुभागुदीरणा अणंतगुणहीणा । १३३१. कुदो १ कसायाणुभागादो णोकसायाणुभागस्साणंतगुणहीण तसिद्धीए णायादो । * अरदीए उकस्साणुभागुदीरणा अनंतगुणहीणा । $ ३३२. कुदो १ अरदिमेत्तकारणत्तादो। णवु सयवेदाणुभागो पुण इट्टवागग्गिसमाणोति । * सोगस्स उक्कस्साणुभागुदीरणा अनंतगुणहीणा । $ ३३३. कुदो १ अरदिपु रंगमत्तादो । * भए उक्कस्साणुभागुदीरणा अनंतगुणहीणा । $ ३२९. क्योंकि यथाख्यातसंयमके विरोधी संज्वलनोंके अनुभागको देखते हुए क्षायोपशमिक संयमका प्रतिबन्ध करनेवाले प्रत्याख्यान कषायका अनुभाग अनन्तगुणा हीन सिद्ध होता है यह न्याय्य है । * उससे अप्रत्याख्यानावरणीय कर्मोंकी अन्यतर उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । $ ३३०. क्योंकि सकल संयमका घात करनेवाले प्रत्याख्यान कषायके अनुभागसे देशसंयमके विरोधी अप्रत्याख्यान कषायके अनुभागका अनन्तगुणे होनरूपसे अवस्थान देखा जाता है। * उससे नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । ३३१. क्योंकि कषायोंके अनुभागसे नोकषायोंका अनुभाग अनन्तगुणा होन सिद्ध होता है यह न्याय्य है । * उससे अरतिकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । $ ३३२. क्योंकि वह अरतिमात्रकी कारण है, परन्तु नपुंसकवेदका अनुभाग इष्टपाककी अग्निके समान है । * उससे शोककी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । $ ३३३. क्योंकि वह अरतिपूर्वक होती है । * उससे भयकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ ९ ३३४. कुदो १ सोगोदयस्सेव भयोदयस्स बहुकालपडिबद्धदुक्खुप्पायणसत्तीए अभावाद । * दुगुंछाए उक्कस्साणुभागुदीरणा अनंतगुणहीणा । $ ३३५. कुदो १ भयोदणेव दुगुंछोदएण मरणाणुवलंभादो । * इत्थिवेदस्स उक्कस्साणुभागुदीरणा अनंतगुणहीपा $ ३३६. कुदो ? पुव्विल्लं पेक्खिऊणेदस्स पसत्थभावोवलंभादो । * पुरिसवेदस्स उक्कस्सापुभागुदीरणा अनंतगुणहीणा । $ ३३७. कुदो ? इत्थवेदो कारिसग्गिसमाणो । पुरिसवेदो पुण पलालग्गिसमाणो । तेणानंतगुणहीणो जादो । * रदीए उक्कस्साणुभागुदीरणा अनंतगुणहीणा । $३३८. कुदो १ पुंवेदोदयस्सेव रदिकम्मोदयस्स संतावजणणसत्तीए अभावादो । * हस्से उक्कस्साणुभागुदीरणा अनंतगुणहीणा । $ ३३९. कुदो १ रदिपुरंगमत्तादो । * सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्साणुभागुदीरणा अयंतगुणहीणा । ९ ३४०. कुदो १ विट्ठाणियत्तादो । $ ३३४. क्योंकि जिस प्रकार शोकका उदय बहुत काल तक दुःखोत्पादनकी शक्तिसे युक्त है उस प्रकार भयके उदयमें बहुत कालसे प्रतिबद्ध दुःखके उत्पादनकी शक्तिका अभाव है। * उससे जुगुप्साकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । $ ३३५. क्योंकि भयके उदयके समान जुगुप्साके उदयसे मरण नहीं पाया जाता है। * उससे स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । $ ३३६. क्योंकि पूर्व के अनुभागको देखते हुए इसमें प्रशस्तभाव पाया जाता है। * उससे पुरुषवेदकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । $ ३३७. क्योंकि स्त्रीवेद कंडेकी अग्निके समान है, परन्तु पुरुषवेद पलालकी अग्निके समान है। इसलिए यह उससे अनन्तगुणा हीन है । * उससे रतिकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । $ ३३८ क्योंकि पुरुषवेदके उदयके समान रतिकर्मके उदयमें सन्तापको उत्पन्न करनेकी शक्तिका अभाव है । * उससे हास्यकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । $ ३३९. क्योंकि यह रतिपूर्वक होती है । * उससे सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । ९ ३४०. क्योंकि यह द्विस्थानीयस्वरूप है । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ गा०६२] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए सण्णियासो * सम्मत्ते उक्कस्साणुभागुदीरणा अणंतगुणहीणा । $३४१. कुदो ? देसघादिविट्ठाणियसरूवत्तादो । एवमोघेण उक्कस्सप्पाबहुअं समत्तं । ३४२. संपहि आदेसेण सव्वगइमग्गणासु अप्पप्पणो उदीरिजमाणपयडीणमेवं चेव णेदव्वं, विसेसाभावादो । एवं जाव अणाहारि त्ति । . * जहरणाणुभागुदीरणा। ३४३. एत्तो जहण्णाणुभागुदीरणा अप्पाबहुअविसेसिदा कायव्वा त्ति पयदसंभालणसुत्तमेदं । तदो जहण्णए पयदं । दुविहो णिदेसो-ओघादेसभेदेण । तत्योधपरूवणमुत्तरसुत्तमा ह * सव्वमंदाणुभागा लोभसंजलणस्स जहरणाणुभागुदीरणा । ३४४. कुदो ? सुहुमकिट्टीए अंतोमुहुत्तमणुसमयोवट्टणाए सुटू जहण्णभावं पत्ताए पडिलद्धजहण्णभावत्तादो । * मायासंजलणस्स जहणणाणुभागउदीरणा अणंतगुणा । ३४५. कुदो ? बादरकिट्टिसरूवेण चरिमसमयमायावेदगम्मि पडिलद्धजहण्णभाववादो। * उससे सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी हीन है । $ ३४१. क्योंकि यह देशघाति द्विस्थानीयस्वरूप है। इस प्रकार ओघसे उत्कृष्ट अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। $३४२ अब आदेशसे सब गति मार्गणाओंमें अपनी-अपनी उदीयमाण प्रकृतियोंका अल्पबहुत्व इसी प्रकार जानना चाहिए, क्योंकि ओघप्ररूपणासे इसमें कोई विशेषता नहीं है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। * जघन्य अनुभाग उदीरणाका प्रकरण है। $ ३४३. आगे अल्पबहुत्वसे विशेषित जघन्य अनुभाग उदीरणाका कथन करना चाहिए इस प्रकार प्रकृतकी सम्हाल करनेवाला यह सूत्र है। इसलिए जघन्यका प्रकरण है । ओघ और आदेशके भेदसे निर्देश दो प्रकारका है। उनमेंसे ओघका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * लोभसंज्वलनकी जघन्य अनुभाग उदीरणा सबसे स्तोक है। $ ३४४. क्योंकि अन्तर्मुहूर्तकाल तक प्रति समय अपवर्तनाके द्वारा अच्छी तरह जघन्यभावको प्राप्त हुई सूक्ष्मकृष्टिका जघन्यपना पाया जाता है। * उससे मायासंज्वलनकी जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी है। $३४५. क्योंकि जो जीप (क्षपकश्रणिमें ) माया कषायका वेदन कर रहा है उसके अन्तिम सययमें बादरकृष्टिरूपसे जघन्यपना पाया जाता है । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ ___ * माणसंजलणस्स जहएणाणुभागुदीरणा अणंतगुणा । ३४६. कुदो ? पुबिल्लसामित्तविसयादो अंतोमुहुत्तमोसरिदूण द्विदचरिमसमयमाणवेदगम्मि पुब्बिल्लकिट्टिअणुभागादो अणंतगुणमाणतदियसंगहकिट्टिअणुभागं घेत्तण जहण्णसामित्तविहाणादो। * कोहसंजलणस्स जहएगाणुभागुदीरणा अणंतगुणा । ३४७. एत्थ वि कारणं पुव्वं व वत्तव्वं । * सम्मत्ते जहएगाणुभागुदीरणा अणंतगुणा । ३४८. किं कारणं ? किट्टिअणुभागादो अणंतगुणफद्दयगदाणुभागमेयट्ठाणियं घेत्तग समयाहियावलियचरिमसमयअक्खीणदंसणमोहणीयम्मि जहण्णसामित्तपडिलंमादो। * पुरिसवेदे जहण्णाणुभागुदीरणा अणंतगुणा। ३४९. तं जहा-चरिमसमयसवेदएण बद्धपुरिसवेदणवकबंधाणुभागो समयाहियावलियअक्खीणदंसणमोहणीयस्स सम्मत्तजहण्णाणुभागसंकमादो अणंतगुणो होदि ति संकमे भणिदं । एदम्हादो पुण चरिमसमयणवकबंधादो तत्थेव पुरिसवेदस्स जहण्णाणुभागोदयो अणंतगुणो। पुणो एदम्हादो वि उदयादो समयाहियावलियचरिमसमयसवेदस्स पुरिसवेदजहण्णाणुभागुदीरणा अणंतगुणा। कुदो एदं णव्वदे ? खवगसेढीए * उससे मानसंज्वलनकी जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी है। ३४६. क्योंकि पिछले स्वामित्वके विषयसे अन्तर्मुहूर्त पीछे जाकर जो मानका वेदन करनेवाला जीव मानवेदनकालके अन्तिम समयमें स्थित है उसके पूर्व के कृष्टिगत अनुभागसे अनन्तगुणे मानसंज्वलनके तृतीय संग्रहकृष्टिगत अनुभागको ग्रहण कर जघन्य स्वामित्वका विधान किया गया है। * उससे क्रोधसंज्वलनकी जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगणी है। $ ३४७. यहाँ पर भी कारणका कथन पूर्वके समान करना चाहिए । * उससे सम्यक्त्वकी जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगणी है। $ ३४८. क्योंकि जिस जीवके दर्शनमोहनीयकी क्षपणा होनेमें एक समय अधिक एक आवलि काल शेष है उसके पूर्वोक्त कृष्टिगत अनुभागसे स्पर्धकगत एकस्थानीय अनुभाग अनन्तगुणा पाया जाता है जो प्रकृतमें जघन्य स्वामित्वरूपसे स्वीकार किया गया है। * उससे पुरुषवेदकी जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी है।। 5 ३४९. यथा-सवेदक जीवके द्वारा सवेदभागके अन्तिम समयमें बन्धको प्राप्त हुए पुरुषवेदके नवकबन्धका अनुभाग एक समय अधिक एक आवलि कालके शेष रहनेपर दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले जीवके सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागके संक्रमसे अनन्तगुणा होता है ऐसा संक्रममें कहा है । पुनः इस अन्तिम समयके नवकबन्धसे वहीं पर पुरुषवेदके जघन्य अनुभागका उदय अनन्तगुणा है। पुनः इस उदयसे भी समयाधिक एक आवलिके उदीरणाविषयक अन्तिम समयमें स्थित सवेद जीवके पुरुषवेदकी जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी है। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए अप्पाबहुअं बंधोदयाणमुवरिमभणिस्समाणअप्पा बहुअसुत्तादो । तत्थ जदि सम्मत्तजहण्णाणुभागुदीरणादो पुरिसवेदचरिमसमयजहणणबंधस्स वि अनंतगुणत्तसंभवो तो तत्तो अनंतगुणपुरिसवेदजहण्णाणुभागुदीरणा णिच्छयेणाणंतगुणा होदि ति णत्थि एत्थ संदेहो । * इत्थिवेदे जहण्णाणुभागुदीरणा अनंतगुणा । गा० ६२ ] १२९ ३५०. किं कारणं ? पुरिसवेदजहण्णसामित्तविसयादो हेट्ठा अंतो मुहुत्तमोदरियूण समयाहियावलियचरिमसमयइत्थि वेदखवगम्मि जहण्णसामित्तपडिलंभादो । * णवुंसयवेदे जहण्णाणुभागउदीरणा असंतगुणा । ६ ३५१. जइ वि दोहमेदेसिं सामित्तविसयो समाणो एगट्ठाणिया च, दोहमणु भागुदीरणा पडिसमयमणंतगुणहाणीर पडिलद्वजहण्णभावा तो वि पुव्विल्लादो एदस्स पयडिमाहप्पेणानंतगुणत्तमविरुद्धं दट्ठव्वं । * हस्से जहण्णाणुभागुदीरणा अनंतगुणा । $ ३५२. किं कारणं १ अणियट्टिपरिणामादो अर्णतगुणहीणचरिमसमयापुव्वकरणविसोहीe देसघादिविट्ठाणियसरूवेण हस्साणुभागुदीरणाए जहण्णभावोवलंभादो । * रदीए जहाण्णाणुभागुदीरणा अनंतगुणा । शंका—यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान—क्षपकश्रेणिमें बन्ध और उदयके आगे कहे जानेवाले अल्पबहुत्व सूत्रसे जाना जाता है । वहाँ यदि सम्यक्त्वकी जघन्य अनुभाग उदीरणा से पुरुषवेदके अन्तिम समयवर्ती जघन्य बन्धका भी अनन्तगुणापना सम्भव है तो उससे अनन्तगुणे पुरुषवेदकी जघन्य अनुभाग उदीरणा निश्चयसे अनन्तगुणी होती है इसमें सन्देह नहीं है । * उससे स्त्रीवेदकी जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी है । . $ ३५०. क्योंकि पुरुषवेदके जघन्य स्वामित्वके विषयसे नीचे अन्तर्मुहूर्त उतर कर एक समय अधिक एक आवलिके अन्तिम समयमें स्थित स्त्री वेद क्षपकके जघन्य स्वामित्व उपलब्ध होता है। * उससे नपुंसकवेदकी जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी है । $ ३५९. यद्यपि इन दोनोंका स्वामित्वका विषय समान है और इन दोनोंकी एकस्थानीय अनुभाग उदीरणा प्रति समय अनन्तगुणी हानिद्वारा जघन्यभावको प्राप्त हुई है तो भी पूर्वोक्त प्रकृति से इसका प्रकृतिके माहात्म्यवश अनन्तगुण।पना अविरुद्ध जानना चाहिए । * उससे हास्यकी जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी है । ९ ३५२. क्योंकि अनिवृत्तिपरिणामसे अन्तिम समयवर्ती अपूर्वकरणकी अनन्तगुणी ही विशुद्धिसे होनेवाली हास्यकी अनुभाग उदीरणाका देशघाति द्विस्थानीयरूपसे जघन्यपना उपलब्ध होता है । * उससे रतिकी जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी है । १७ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे * दुगु छाए जहण्णाणुभागुदीरणा अनंतगुणा । * भये जहण्णाणुभागुदीरणा अनंतगुणा । * सोगस्स जहण्णाणुभागुदीरणा अनंतगुणा । * अरदीए जहण्णाणुभागुदीरणा अनंतगुणा । ६ ३५३. दाणि सुत्ताणि सुगमाणि, पुव्वं परूविदकारणत्तादो । [ वेदगो ७ * पच्चक्खाणावरणजहण्णाणुभागुदीरणा अण्णदरा अनंतगुणा । $ ३५४. तं जहा — छण्णोकसायाणमणुभागुदीरणा अपुव्वकरणपरिणामेहिं बहुअं घादं पावेण चरिमसमयापुव्वकरणविसोहीए देसघादिसरूवेण जहण्णभावं पत्ता । पञ्चक्खाणावरणीयाणं पुण अपुव्वकरणविसोहीदो अनंतगुणहीण संजदासंजदचरिमविसोहीए जहण्णसामित्तं जादं । सव्वघादिसरूवा च एदेसिं जहण्णाणुभागुदीरणा तदो गुणा जादा । * अपच्चक्खाणावरणजहण्णाणुभागुदीरणा अण्णदरा अनंतगुणा । ९३५५. कुदो ? संजमाहिमुहचरिमसमयअसंजदसम्माइट्ठिविसोहीए पुव्विलविसोही दो अनंतगुणहीणसरुवाए पत्तजहण्णभावत्तादो । * सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागुदीरणा अनंतगुणा । * उससे जुगुप्साकी जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी है । * उससे भयकी जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी है । * उससे शोककी जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी है । * उससे अरतिकी जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी है । $ ३५३. ये सूत्र सुगम हैं, क्योंकि पहले कारणका निर्देश कर आये हैं । * उससे प्रत्याख्यानावरणकी अन्यतर जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी है । $ ३५४. यथा—छह नोकषायोंकी अनुभाग उदीरणा अपूर्वकरणसम्बन्धी परिणामोंके द्वारा बहुत घातको प्राप्त होकर अपूर्वकरणकी अन्तिम समयवर्ती विशुद्धि द्वारा देशघातिरूपसे जघन्यनेको प्राप्त हुई है । किन्तु प्रत्याख्यानावरणीय कर्मोंका तो अपूर्वकरणकी विशुद्धिसे अनन्तगुणी होन संयतासंयतकी अन्तिम विशुद्धिसे जघन्य स्वामित्व प्राप्त हुआ है, इसलिए इनकी सर्वघातिस्वरूप जघन्य अनुभाग उदीरणा छह नोकषायोंकी जघन्य अनुभाग उदीरणासे अनन्तगुणी प्राप्त होती है । * उससे अप्रत्याख्यानावरणकी अन्यतर जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी है । $ ३५५. क्योंकि पूर्व की विशुद्धिसे संयम के अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती असंयत सम्यग्दृष्टिकी विशुद्धिद्वारा इन प्रकृतियोंका जघन्यपना प्राप्त होता है । * उससे सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य अणुभाग उदीरणा अनन्तगुणी है । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए अप्पाबहुअं १३१ $ ३५६. कुदो ? सव्यघादिविट्ठाणियत्ताविसेसे वि पुव्विल्लादो एदस्स विसोहिपाहम्मेणाणंतगुणत्तसिद्धीए णिव्वाहमुवलंभादो । * अणंताणुबंधीणं जहण्णाणुभागुदीरणा अण्णदरा अणंतगुणा । $३५७. कुदो ? सव्वविसुद्धसंजमाहिमुहचरिमसमयमिच्छाइट्ठिम्मि पत्तजहण्णभावत्तादो। * मिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागुदीरणा अणंतगुणा । ६३५८. किं कारणं ? उहयत्थ सामित्तविसेसाभावे वि पयडिविसेसेणेवाणंताणुबंधीणमणुभागादो मिच्छत्ताणुभागस्स सव्वकालमणंतगुणाहियसरूवेणावट्ठाणदंसणादो । * एवमोघजहण्णओ समत्तो। $ ३५९. सुगममेदं पयदत्थोवसंहारवकं । संपहि आदेसपरूवणमुत्तरसुत्तपबंधमाह * णिरयगदीए सब्वमंदाणुभागा सम्मत्तस्स जहण्णाणुभागुदीरणा । ६३६०. कुदो ? एगट्ठाणियसरूवत्तादो । * हस्सस्स जहण्णाणुभागउदीरणा अणंतगुणा । $ ३५६. क्योंकि अप्रत्याख्यनावरणीय और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य अनुभाग उदीरणामें सर्वघाति द्विस्थानीयपने की अपेक्षा यद्यपि कोई विशेषता नहीं है तो भी पूर्वकी अपेक्षा विशुद्धिके प्राधान्यवश इसके अनन्तगुणेपनेकी सिद्धि निर्बाधरूपसे पाई जाती है। * उससे अनन्तानुबन्धियोंकी अन्यतर जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी है । $ ३५७. क्योंकि संयमके अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती सर्वविशुद्ध मिथ्यादृष्टिके इसका जघन्यपना प्राप्त होता है। * उससे मिथ्यात्वकी जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी है। ६३५८. क्योंकि उभयत्र स्वामित्व विशेषका अभाव होने पर भी प्रकृतिविशेषके कारण ही अनन्तानुबन्धियोंके अनुभागसे मिथ्यात्वका अनुभाग सर्वकाल अनन्तगुणे अधिकरूपसे अवस्थित देखा जाता है। * इस प्रकार ओघसे जघन्य स्वामित्व समाप्त हुआ। $ ३५९. प्रकृत अर्थका उपसंहार करनेवाला यह सूत्रवचन सुगम है । अब आदेशका कथन करनेके लिए आगेका सूत्रप्रबन्ध कहते हैं * नरकगतिमें सम्यक्त्वकी जघन्य अनुभाग उदीरणा सबसे अधिक मन्द अनुभागवाली है। $३६०. क्योंकि वह एक स्थानीयस्वरूप होती है। * उससे हास्यकी जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी है । १. आप्रतौ उहयत्थ विसेसाभावे इति पाठः। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ $ ३६१. कुदो ? देसघादिविट्ठाणियसरूवत्तादो । * रदीए जहण्णाणुभागुदीरणा अणंतगुणा । * दुगु छाए जहण्णाणुभागुदीरणा अणंतगुणा । * भयस्स जहण्णाणुभागुदीरणा अणंतगुणा । * सोगस्स जहण्णाणुभागुदीरणा अणंतगुणा । * अरदीए जहण्णाणुभागुदीरणा अणंतगुणा । ३६२. एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि, बहुसो परूविदकारणत्तादो। * णवुसयवेदे जहण्णाणुभागुदीरणा अणंतगुणा । ६३६३. एत्थ वि कारणोवण्णासो सुगमो, असई परूविदत्तादो । * संजलणस्स जहण्णाणुभागउदीरणा अण्णदरा अणंतगुणा । $ ३६४. कुदो ? देसघादिविट्ठाणियत्ताविसेसे सामित्तविसयभेदाभावे च कसायाणुभागमाहप्पेण पुग्विल्लादो एदिस्से अणंतगुणत्तसिद्धीए णिब्बाहमुवलंभादो । * अपच्चक्खाणावरणजहण्णाणुभागुदीरणा अण्णदरा अणंतगुणा। $३६५. किं कारणं ? सामित्तभेदाभावे वि सव्वघादिमाहप्पेण पुग्विल्लादो एदिस्से तहाभावोवलद्धीदो । $३६१. क्योंकि वह देशघाति द्विस्थानीयस्वरूप है। * उससे रतिकी जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी है। * उससे जुगप्साकी जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी है। * उससे भयकी जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगणी है। * उससे शोककी जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगणी है । * उससे अरतिकी जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी है । $ ३६२. ये सूत्र सुगम हैं, क्योंकि इनके कारणोंका बहुतबार प्ररूपण किया है। * उससे नपुंसकवेदकी जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी है । $ ३६३. यहाँ पर भी कारणका उपन्यास सुगम है, क्योंकि उसका कथन अनेक बार कर आये हैं। * उससे संज्वलनोंकी अन्यतर जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी है । .$ ३६४. क्योंकि देशघाति द्विस्थानीय पनेकी अपेक्षा विशेषता न होनेपर और स्वामित्वकी अपेक्षा विषयमें भेदका अभाव होने पर कषायोंके अनुभागके माहात्म्यवश पूर्वकी अपेक्षा इसके अनन्तगुणेपनेकी सिद्धि निर्बाधरूपसे पाई जाती है। ___ * उससे अप्रत्याख्यानावरण कर्मोंकी अन्यतर जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी है। $३६५. क्योंकि स्वामित्वविषयक भेदका अभाव होनेपर भी सर्वघातिपनेके माहात्म्यवश पूर्वकी अपेक्षा इसकी अनन्तगुणे अनुभाग उदीरणारूपसे उपलब्धि होती है। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए अप्पाबहुअं १३३ * पच्चक्खाणावरणजहण्णाणुभागउदीरणा अण्णदरा अणंतगुणा । $ ३६६. कुदो ! दोण्हमेदेसि सामित्तभेदाभावे वि देस-सयलसंजमपडिबंधित्तमस्सियूण तहामावसिद्धीए णिप्पडिबंधमुवलंभादो। * सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागुदीरणा अगंतगुणा । ३६७. कुदो ? सव्वघादिविट्ठाणियत्ताविसेसे वि सम्माइट्ठिविसोहीदो सम्मामिच्छाइट्ठिविसोहीए अणंतगुणहीणत्तमस्सियूण तहाभावोवलंभादो। * अणंताणुबंधीणं जहण्णाणुभागउदीरणा अण्णदरा अणंतगुणा । $ ३६८. कुदो ? सम्मामिच्छाइट्ठिविसोहीदो अणंतगुणहीणमिच्छाइद्विविसोहीए जहण्णसामित्तपडिलंभादो। * मिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागुदीरणा अणंतगुणा। ३६९. सुगममेदं । एवं णिरयोघो समत्तो। ६ ३७०. एवं पढमाए । विदियादि सत्तमि त्ति एवं चेव, विसेसाभावादो। तिरिक्खेसु पंचिंदियतिरिक्खतिए एसो चेव जहण्णप्पाबहुआलावो कायव्यो । णवरि अप्पप्पणो उदीरणापयडीओ जाणियवाओ। अण्णं च अपच्चक्खाणादो हेट्ठा * उससे प्रत्याख्यानावरण कर्मोकी अन्यतर जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी है। $३६६. क्योंकि इन दोनोंके स्वामित्वमें भेद नहीं होनेपर भी ये क्रमसे देशसंयम और सकलसंयमका प्रतिबन्ध करते हैं, इसलिए इनके उक्त प्रकारसे अल्पबहुत्वकी सिद्धि निःप्रतिबन्धरूपसे पाई जाती है। * उससे सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी है । $३६७. क्योंकि सर्वघाति द्विस्थानीयपनेकी अपेक्षा विशेषता न होनेपर भी सम्यग्दृष्टिकी विशुद्धिसे सम्यग्मिथ्यादृष्टिकी विशुद्धिके अनन्तगुणे हीनपनेका आलम्बन लेकर प्रत्याख्यानावरणकी अन्यतर प्रकृतिकी जघन्य अनुभाग उदीरणासे सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी उपलब्ध होती है। ___* उससे अनन्तानुबन्धियोंकी अन्यतर जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी है । $ ३६८. क्योंकि सम्यग्मिथ्यादृष्टिकी विशुद्धिसे अनन्तगुणी हीन मिथ्यादृष्टिकी विशुद्धिद्वारा इसका जघन्य स्वमित्व उपलब्ध होता है। * उससे मिथ्यात्वकी जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी है । ६३६९. यह सूत्र सुगम है। __इस प्रकार नरकगतिकी अपेक्षा ओघ अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। $ ३७०. इसी प्रकार पहली पृथिवीमें जानना चाहिए। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक इसी प्रकार अल्पबहुत्व है, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है । तिर्यञ्चोंमें और पश्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें यही जघन्य अल्पबहुत्व आलाप करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी उदीरणा प्रकृतियाँ जाननी चाहिए। अन्य विशेषता यह है कि अप्रत्या Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ पनक्खाणजहण्णाणुभागुदीरणा अणंतगुणहीणा होदूण णिवददि, संजदासंजदविसोहिपाहम्मादो । पंचिंदियतिरिक्खअपजत्त-मणुसअपञ्जत्तएसु णारयभंगो । णबरि सम्मत्त०सम्मामि० णत्थि । मणुसतिये ओघभंगो । णवरि वेदविसेसो जाणियव्यो । $ ३७१. संपहि देवगदीए वि एसो चेव णिरयोघप्पाबहुआलावो किं चि विसेसाणुविद्धो अणुगंतव्वो त्ति पदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तं भणइ * एवं देवगदीए वि। ३७२. सुगममेदमप्पणासुत्तं, विसेसाभावणिबंधणत्तादो। णवरि देवोधप्पहुडि जाव सव्वट्ठसिद्धि त्ति अप्पप्पणो पयडीओ जाणियव्वाओ । एवं जाव अणाहारि ति । एवमप्पाबहुए समत्ते उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए चउवीसमणियोगद्दाराणि समत्ताणि । $ ३७३. संपहि एत्थ भुजगारादिपरूवणा पत्तावसर त्ति तप्परूवणट्ठमुवरिमसुत्तमाह * भुजगार-उदीरणा उवरिमगाहाए परूविहिदि, पदणिक्खेवो वि तत्थेव, वड्ढी वि तत्थेव । ख्यानसे पहले संयतासंयत गुणस्थानमें प्राप्त होनेवाली विशुद्धिकी प्रधानतावश प्रत्याख्यानकी जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी हीन होकर निपतित होती है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें नारकियोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियोंकी उदीरणा नहीं है। मनुष्यत्रिकमें ओघके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि वेदविशेष जान लेने चाहिए । ६२७१. अब देवगतिमें भी यही नारक ओघ अल्पबहुत्वालाप कुछ विशेषताको लिये हुए जान लेना चाहिए ऐसा कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * इसी प्रकार देवगतिमें भी जानना चाहिए। $३७२. यह अर्पणासूत्र सुगम है, क्योंकि नारक सामान्यकी अपेक्षा कहे गये अल्पबहुत्वसे इस अल्पबहुत्वमें कारणसम्बन्धी अन्य कोई विशेषता नहीं है। इतनी विशेषता है कि सामान्य देवोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें अपनी-अपनी प्रकृतियाँ जान लेनी चाहिए । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। इस प्रकार अल्पबहुत्वके समाप्त होनेपर उत्तरप्रकृति अनुभाग ___ उदीरणासम्बन्धी चौबीस अनुयोगद्वार समाप्त हुए। $ ३७३. अव यहाँपर भुजगारादि प्ररूपणा अवसर प्राप्त है, इसलिए उसका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * भुजगार-अनुभाग उदीरणाकी उपरिम गाथा द्वारा प्ररूपणा करेंगे, पदनिक्षेप की भी वहीं पर प्ररूपणा करेंगे और वृद्धिकी भी वहीं पर प्ररूपणा करेंगे । १. आप्रतौ -तिरिक्खमणस Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिअणुभागउदोरणाए भुजगारे समुक्कित्तणा १३५ $ ३७४. एदेणाणुभागुदीरणाविसयभुजगारादिअणियोगद्दाराणमेत्थुद्देसे परूवणाजोग्गाणं सुत्तणिबद्धत्तं परविदं, उवरिमगाहासुत्तपडिबद्धत्तेण तेसिं परूवणावलंबणादो। का सा उवरिमगाहा णाम ? वुच्चदे—'बहुदरगं बहुदरगं से काले को णु थोवदरगं वा' ति एसा सा उवरिमगाहा । संपहि एदेण चुण्णिसुत्तावयवेण उवरिमगाहासुत्तावेक्खेण समप्पिदभुजगारादिअणियोगद्दाराणमुच्चारणाइरियोवदेसबलेण पयासणमिह कस्सामो। ३७५. भुजगारउदीरणाए तत्थेमाणि तेरस अणियोगद्दाराणि--समुक्कित्तणा जाव अप्पाबहुए त्ति । समुक्त्तिणाए दुविहोणिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण सव्वपय० अस्थि भुज०-अप्प-अवट्ठि-अवत्त० । आदेसेण णेरइय० मिच्छ-सम्म०-सम्मामि०सोलसक०-छण्णोक० . ओघं । णqस. ओघं । णवरि अवत्त० णत्थि । एवं सव्वणिरय० । ३७६. तिरिक्खेसु ओघं । एवं पंचिंदियतिरिक्खतिये । णवरि वेदा जाणियव्वा । जोणिणीसु इत्थिवेद० अवत्त० णत्थि। पंचिंदियतिरिक्खअपज०-मणुसअपज० मिच्छ-णस. ओघं । णवरि अवत्त० णत्थि । सोलसक०-छण्णोक. ओघं । मणुसतिये ओघं । णवरि वेदा जाणियव्वा । $ ३७४. इस सूत्र द्वारा इस स्थानपर प्ररूपणा योग्य अनुभाग उदीरणाविषयक भुजगार आदि अनुयोगद्वार सूत्रनिबद्ध हैं यह प्रतिपादित किया है, क्योंकि उपरिम गाथासूत्रसे प्रतिबद्ध होनेके कारण उनकी प्ररूपणाका यहाँपर अवलम्बन लिया है । वह उपरिम गाथा कौनसी है ? कहते हैं-बहुदरगं बहुदरगं से काले को णु थोवदरगं वा।' यह वह उपरिम गाथा है। अब उपरिम गाथासूत्रकी अपेक्षा रखनेवाले चूर्णिसूत्रके अवयवरूप इस वचन द्वारा समर्पित भुजगारादि अनुयोगद्वारोंका उच्चारणाचार्यके उपदेशके बुलसे यहाँपर प्रकाशन करेंगे । यथा३७५. भुजगार अनुभाग उदीरणाका द्वार होते हैं-समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तक । समुत्कीर्तनाकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओघ और आदेश । ओघसे सब प्रकृतियोंकी भुजगार, अल्पतर, अस्थित और अवक्तव्य अनुभाग उदीरणा है। आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषायोंका भंग ओघके समान है। नपुसकवेदका भंग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि इसकी अवक्तव्य अनुभाग उदीरणा नहीं है। इसी प्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए। ६३७६. तिर्यश्चोंमें ओघके समान भंग है। इसी प्रकार पश्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें है। इतनी विशेषता है कि इनमें अपने-अपने वेद जान लेने चाहिए। योनिनियोंमें स्त्रीवेदफी अवक्तव्य अनुभाग उदीरणा नहीं है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व और नपुंसकवेदका भंग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि इनकी अबक्तव्य अनुभाग उदीरणा नहीं है। सोलह कषायों और छह नोकषायोंका भंग ओघके समान है। मनुष्यत्रिकमें ओघके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि अपने-अपने वेद जान लेने चाहिए। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ $ ३७७. देवाणमोघं । णवरि णस० णत्थि । इत्थिवेद-पुरिसवेद० अवत्त० णत्थि । एवं भवण०-वाणवे०-जोदिसि०-सोहम्मीसाण । एवं सणकुमारादि णवगेवजा त्ति । णवरि इत्थिवेदो णत्थि । अणुद्दिसादि सव्वट्ठा ति सम्म०-बारसक०सत्तणोक० ओघं । णवरि पुरिस० अवत्त० पत्थि । एवं जाव० । $ ३७८. सामित्ताणु० दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ० अणंताणु०४ सव्वपदा कस्स ? अण्णद० मिच्छाइट्ठि० । सम्म० सव्वपदा कस्स ? अण्णद० सम्माइढि० । सम्मामिच्छ० सव्वपदा कस्स ? अण्ण० सम्मामि । बारसक०-णवणोक० सव्वपदा कस्स ! अण्णद० सम्माइडिस्स वा मिच्छाइटिस्स वा । ६३७९. आसेदेण णेरहय० मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि०-सोलसक०-सत्तणोक० ओघं । गवरि णस० अवत्त० णस्थि । एवं सव्वणिरय० । तिरिक्खेसु ओघं । णवरि तिण्णवेद. अवत्त० मिच्छाइट्ठिः । एवं पंचिंदियतिरिक्खतिये । णवरि वेदा $ ३७७. देवोंमें ओघके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनमें नपुसकवेद नहीं है । स्त्रीवेद और पुरुषवेदको अवक्तव्य अनुभाग उदीरणा नहीं है। इसी प्रकार भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और सौधर्म-ऐशान कल्पके देवोंमें जानना चाहिए । इसी प्रकार सनत्कुमार कल्पसे लेकर नौ ग्रेवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद नहीं है । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सम्यक्त्व, बारह कषाय और सात नोकषायोंका भंग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि इनमें पुरुषवेदकी अवक्तव्य अनुभाग उदीरणा नहीं है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ—आगे भुजगार, पदनिक्षेप और वृद्धि अनुयोगद्वारों में जहाँ मुजगारादि पदोंका उल्लेख करते समय मूलमें और उसके अनुवादमें 'अनुभाग उदीरणा' पदका निर्देश नहीं किया गया है वहाँ वह प्रकरणसे समझ लेना चाहिए। ६३७८. स्वामित्वानुगमको अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके सब पद किसके होते हैं ? अन्यतर मिथ्यादृष्टिके होते हैं । सम्यक्त्वके सब पद किसके होते हैं ? अन्यतर सम्यग्दृष्टिके होते हैं। सम्यग्मिध्यात्वके सब पद किसके होते हैं ? अन्यतर सम्यग्मिध्यादृष्टिके होते हैं। बारह कषाय और नौ नोकषायोंके अनुभाग उदीरणासम्बन्धी सब पद किसके होते हैं ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टिके होते हैं। ६३७९. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंका भंग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि इनमें नपुंसकवेदका अवक्तव्य पद नहीं है । इसी प्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए । तिर्यञ्चोंमें ओघके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि तीन वेदोंका अवक्तव्य पद मिथ्यादृष्टिके होता है। इसी प्रकार पश्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपने-अपने वेद जान लेन चाहिए। योनिनियोंमें स्त्रीवेदका अवक्तव्य पद नहीं है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त, मनुष्य Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ गा० ६२] उत्तरपयतिअणुभागउदीरणाए भुजगारे कालो जाणियव्वा । जोणिणीसु इत्थिवेद० अवत्त० णत्थि । पंचिंदियतिरिक्खअपज०मणुसअपज०-अणुदिसादि सव्वट्ठा त्ति सव्वपय० सव्वपदा कस्स ? अण्णद० । ३८०. मणुसतिये ओघं । णवरि वेदा जाणियव्वा । मणुसिणी० इत्थिवेद० अवत्त० सम्माइट्टि । देवेसु ओघं । णवरि णस० पत्थि । इत्थिवेद-पुरिसवेद. अवत्त० णत्थि। एवं भवण-वाण-०-जोदिसि०-सोहम्मीसाणे ति । एवं सणकुमारादिणवगेवजा त्ति । णवरि इत्थिवेदो पत्थि । एवं जाव०।। $ ३८१. कालाणु० दुविहो णिदेसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण सव्वपय० भुज०-अप्प० जह• एयस०, उक्क० अंतोमु० । अवढि० जह० एगस०, उक्क० संखेजा समया । अवत्त० जहण्णुक० एगस० । सव्वासु गदीसु अप्पप्पणो पयडीणं जाणि पदाणि तेसिमोघं । एवं जाव० । अपर्याप्त और अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सब प्रकृतियोंके अनुभाग उदीरणासम्बन्धी सब पद किसके होते हैं ? अन्यतरके होते हैं। $ ३८०. मनुष्यत्रिकमें ओघके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि अपने अपने वेद जान लेने चाहिए। मनुष्यिनियोंमें स्त्रीवेदका अवक्तव्य पद सम्यग्दृष्टियोंके होता है। देवोंमें ओघके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनमें नपुंसकवेद नहीं है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी अवक्तव्य उदीरणा अनुभाग नहीं है। इसी प्रकार भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और सौधर्म-ऐशान कल्पके देबोंमें जानना चाहिए। इसी प्रकार सनत्कुमार कल्पसे लेकर नौ प्रैवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद नहीं है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ३८१. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे सब प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर अनुभाग उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूत है। अवस्थित अनुभागक उदारकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अवक्तब्य अनुभागके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । सब गतियोंमें अपनी-अपनी प्रकृतियोंके जो पद हैं उनका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। - विशेषार्थ—आगे वृद्धि अनुयोगद्वारमें सव प्रकृतियोंकी अनन्तगुणवृद्धि और अनन्त गुणहानिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बतलाया है। तथा अवस्थित पदका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल सात-आठ समय बतलाया है। तदनुसार यहाँ सब प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर पदके उदीरकका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त तथा अवस्थित पदके उदीरकका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल संख्यात समय बन जानेसे वह उक्त कालप्रमाण कहा है। ओघसे सब प्रकृतियोंके अवक्तव्य पदके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है यह स्पष्ट ही है। सब गतियोंमें जहाँ जिन प्रकृतियोंकी उदीरणा हो वहाँ उन उन प्रकृतियोंके अपने-अपने पदोंका यह काल इसी प्रकार घटित हो जाता है, इसलिए उसे ओघके समान जाननेकी सूचना की है। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [वेदगो७ $ ३८२. अंतराणु० दुविहो णिदेसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ० भुज०अप्प० जह० एगस०, उक्क० बेछावट्ठिसागरो० सादिरेयाणि । अवढि० जह० एयस०, उक्क० असंखेजा लोगा। अवत्त० जह० अंतोमु०, उक्क० उवड्डपोग्गलपरियढें । एवमगंताणु०४ । णवरि अवत्त० जह० अंतोमु०, उक्क० बेछावट्ठि० सागरोवमाणि सादिरेयाणि । अट्ठक० अवढि० जह० एगस०, उक्क० असंखेजा० लोगा । भुज०-अप्प०-अवत्त० जह० एगसमओ, अंतोमु०, उक्क० पुव्वकोडी देसूणा। चदुसंजल०-भय-दुगुछ० भुज०अप्प०-अवत्त० जह० एगस०-अंतोमु०, उक्क० अंतोमु० । अवढि० मिच्छत्तभंगो । इत्थिवेद-पुरिसवेद तिण्णिपदा० जह० एयस०, अवत्त० जह० अंतोमु०, उक्क० सव्वेसिमणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियड्डा । णस० भुज०-अप्प० जह० एयस०, उक्क० सागरोवमसदपुधत्तं । अवत्त० इत्थिवेदभंगो। अवढि० मिच्छत्तभंगो। हस्स-रदि० भुज-अप्प०-अवत्त० जह० एगस० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । अवढि० मिच्छत्तभंगो। अरदि-सोग० भुज०-अप्प० जह० एगस०, उक्क० $ ३८२. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्वके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक दो छयासठ सागरोपमप्रमाण है। अवस्थित पदके अनुभाग उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है। अवक्तव्य पदके अनुभाग उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्ध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी चतुष्कको अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसके, प्रवक्तव्य उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक दो छयासठ सागरोपमप्रमाण है। आठ कषायोंके अवस्थित अनुभाग उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है । भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्य अनुभाग उदीरकका जघन्य अन्तरकाल क्रमसे दोका एक समय और और अन्तिमका अन्तर्मुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। चार संज्वलन, भय और जुगुप्साके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्य उदीरकका जघन्य अन्तरकाल क्रमसे दोका एक समय और अन्तिमका अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थित उदीरकका भंग मिथ्यात्वके समान है । स्त्रीवेद और पुरुषवेदके तीन पदरूप अनुभाग उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है, अवक्तव्य अनुभाग उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूत हैं तथा सब उदरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्तकाल हे जा असख्यात पुद्गल परिवर्तनोंके बराबर है। नपुंसकवेदके भुजगार और अल्पतर अनुभाग उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल सौ सागरोपम पृथक्त्वप्रमाण है। इसके अवक्तव्यका भंग स्त्रीवेदके समान है। अवस्थित भंग मिथ्यात्वके समान है। हास्य और रतिके भुजगार अल्पतर उदीरकका जघन्य अन्तरकाल क्रमसे दोका एक समय और अन्तिमका अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तेतीस सागरोपम है। अवस्थित भंग मिथ्यात्वके समान है। अरति और शोकके भुजगार और अल्पतर उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है। अवक्तव्य और अवस्थित Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए भुजगारे अंतरं १३९ छम्मासं । अवत्त० - अवद्वि० हस्सभंगो । सम्म० - सम्मामि० भुज० - अप्प० - अवट्ठि० अवत्त० जह० एगस० अंतोमु०, उक्क० उपोग्गल परियङ्कं । पदका भंग हास्यके समान है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तरकाल क्रमसे तीनका एक समय और अन्तिमका अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्ध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । विशेषार्थ — यद्यपि मिथ्यादृष्टिका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम दो छयासठ सागरोपम कहा है, परन्तु जो मिथ्यादृष्टि जीव सम्यक्त्वको प्राप्त करता है उसके मिथ्यात्व छूटनेके अन्तिम अन्तर्मुहूर्त कालमें नियमसे मिध्यात्वकी अल्पतर उदीरणा होती है और जो जीव सम्यक्त्वसे मिथ्यात्वमें आता है उसके मिध्यात्वको प्राप्त करनेके प्रथम अन्तर्मुहूर्त में नियमसे मिथ्यात्वकी भुजगार उदीरणा होती है। इस तथ्यको ध्यानमें रखकर यहाँ मिथ्यात्वके भुजगार और अल्पतर पद के उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक दो छयासठ सागरोपम कहा है । मिथ्यात्वका अवस्थित पद यह जीव अधिकसे अधिक असंख्यात लोकप्रमाण काल तक नहीं करता, इसलिए यहाँ मिथ्यात्वके इस पदके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण कहा है । मिथ्यात्वमें दो बार आकर दो बार अवक्तव्य उदीरणा करनेके मध्य जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है इसलिए तो यहाँ इसके अवक्तव्य पदके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त कहा है । तथा जिस जीवने संसारका अर्ध पुद्गल परिवर्तन काल शेष रहनेपर सम्यक्त्व प्राप्त किया, पुनः अन्तर्मुहूर्त में मिथ्यादृष्टि होकर उसने अवक्तव्य पद किया । पुनः अन्तमें जब संसारमें रहनेका अपने योग्य स्वल्पकाल शेष रह जाय तब पुनः सम्यक्त्वको प्राप्तकर अन्तहूर्त बाद पुनः मिध्यादृष्टि होकर उसने अवक्तव्य पद किया । इस प्रकार मिथ्यात्वके अवक्तव्य पदके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्ध पुद्गल परिवर्तन प्रमाण प्राप्त होनेसे वह तत्प्रमाण कहा है । अनन्तानुबन्धी चतुष्कका अन्य सब भंग तो मिथ्यात्वके समान है । मात्र इसके अवक्तव्य पदके उदीरकके उत्कृष्ट अन्तरकालमें फरक है । बात है कि मिध्यात्वका जो उत्कृष्ट अन्तरकाल है उसे अन्तर्मुहूर्त अधिक करनेपर अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अवक्तव्य पदके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल प्राप्त होता है, क्योंकि तीसरे और चौथे गुणस्थानमें मिध्यात्वका उदय - उदीरणा नहीं होती। यही कारण है कि यहाँपर इसके अवक्तव्य पदके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक दो छयासठ सागरोपम कहा है । यहाँपर भी प्रारम्भ में और अन्तमें दो बार अवक्तव्य पद प्राप्तकर यह अन्तरकाल लाना चाहिए । सयमासंयम और संयमका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटि प्रमाण होनेसे यहाँ मध्यकी आठ कषायोंके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्य पदके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण कहा है। उपशम श्रेणिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है, इसे ध्यानमें रखकर यहाँ चार संज्वलन, भय और जुगुप्सा भुजगार अल्पतर और अवक्तव्य पदके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त कहा है। स्त्रीवेदी और पुरुषवेदीके उत्कृष्ट अन्तरकालको ध्यान में रखकर यहाँ स्त्रीवेद और पुरुषवेद के तीन पदोंके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्तकाल प्रमाण कहा है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनोंके कालके बराबर है। नपुंसकवेदीका उत्कृष्ट अन्तरकाल सौ सागरोपम पृथक्त्व प्रमाण है, इसलिए यहाँ नपुंसकवेदके भुजगार और अल्पतर पदके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्तकाल प्रमाण कहा है। इसका अवक्तव्य पद पश्चेन्द्रिय जीवके ही सम्भव है और ऐसे जीवका उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्तकाल है, इसलिए इसके अवक्तव्य पदके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल स्त्रीवेदके समान कहा है । हास्य और रतिकी उदीरणा तथा उदय सातवें Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ ___३८३. आदेसेण णेरइय० मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि०-अणंताणु०४-हस्सरदि० तिण्णिपदा० जह० एयस०, अवत्त० जह• अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । एवमरदि-सोग० णवरि भुज-अप्प० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । एवं बारसक०भय-दुगुंछ । णवरि अवत्त० जह० उक्क. अंतोमु० । एवं सत्तमाए । एवं पढमादि जाव छट्ठि त्ति । णवरि सगद्विदी देसूणा । हस्स-रदि-अरदि-सोग० बारसकसायभंगो। ३८४. तिरिक्खेसु मिच्छ० ओघं । णवरि भुज०-अप्प० जह० एगस, उक्क० तिण्णि पलिदो० देसूणाणि । एवमणंताणु०४ । णवरि अवत्त० जह० अंतोमु०, उक्क० तिण्णि पलिदो० देसूणाणि । अपञ्चक्खाणचउक्क० सम्म०-सम्मामि०-इत्थिवेदनरकमें जीवन भर तथा वहाँ जानेके पूर्व और निकलनेके बाद अन्तर्मुहूर्तकाल तक न हो यह सम्भव है, इसलिए इनके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्य पदके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तेतीस सागरोपम कहा है । शतार-सहस्रार कल्पमें अधिकसे अधिक छह माह तक अरति और शोकका उदय-उदीरणा नहीं होती है, इसलिए इनके भुजगार और अल्पतर पदके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना कहा है। शेष कथन सुगम है। यहाँ सर्वत्र प्रत्येक प्रकृतिके विवक्षित पदके उदीरकका अन्तरकाल लाते समय जहाँ जिस प्रकार बने उस प्रकार उस उस पदको अन्तरकालके प्रारम्भ होनेके पूर्व एक बार और अन्तरकालके समाप्त होनेपर एक बार कराकर अन्तरकाल लाना चाहिए । सर्वत्र सोलह कषायोंके अवक्तव्य पदके उदीरकका जो जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है सो विचार कर जान लेना चाहिए। तात्पर्य यह है कि चारों क्रोधोंका मरणसे तथा शेष कषायोंका व्याघात और मरणसे यद्यपि एक समय अन्तरकाल बन जाता है, पर इनके अवक्तव्य पदके दो बार प्राप्त होने में कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल लगनेसे इनके अवक्तव्य पदकर जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है। शेष कथन सुगम है। आगे गति मार्गणाके भेद प्रभेदोंमें भी इसी न्यायसे अन्तरकाल घटित कर लेना चाहिए। $३८३. आदेश से नारकियों में मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतष्क, हास्य और रतिके तीन पदों के उदीरक का जघन्य अन्तरकाल एक समय है, अवक्तव्य पद के उदीरक का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागर है। इसी प्रकार अरति और शोक की अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेपता है कि इनके भुजगार और अल्पतर पद के उदीरक का जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अवक्तव्य पद के उदीरक का जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार सातवीं पृथिवी में जानना चाहिए। पहली पृथिवी से लेकर छठी पृथिवी तक के नारकियों में इसी प्रकार जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। इनमें हास्य, रति, अरति, शोक का भंग वारह कषायों के समान है। . ६३८४. तिर्यञ्चों में मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि इसके भुजगार और अल्पतर पद के उदीरक का जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तीन पल्योपम है। इसी प्रकार अनन्तनुन्धीचतुष्क की अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसके अवक्तव्य पद के उदीरक का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२) उत्तरपयडिअणुभागउदोरणाए भुजगारे अंतरं १४१ पुरिसवेद० ओघं । अट्ठक०-छण्णोक० भुज०-अप्प०-अवत्त० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अवढि० ओघं । णवंस० भुज०- अप्प० जह एगस, उक्क० पुवकोडिपुध० । अवढि०-अवत्त० ओघं । ६३८५. पंचिंदियतिरिक्खतिए मिच्छ० तिरिक्खोघं । णवरि अवढि-अवत्त० जह० एगस० अंतोमु०, उक० सगढिदी देसूणा । एवमणंताणु०४ । णवरि अवत्त० तिरिक्खोघं । एवं बारसक०-छण्णोक० । णवरि भुज-अप्प०-अवत्त० तिरिक्खोघं । सम्म०-सम्मामि० भुज-अप्प०-अवढि०-अवत्त० जह० एयस० अंतोमु०, उक्क० सगट्टिदी देसूणा । इत्थिवेद-पुरिसवेद० भुज०-अप्प०-अवत्त० जह० एगस० अंतोमु०, उक्क० पुव्वकोडिपुधत्तं । अवढि० जह० एगस०, उक्क. सगढिदी । णवूस० तिण्णिपदा० जह० एयस०, अवत्त० जह० अंतोमु०, उक्क० पुव्वकोडिषुधत्तं । णवरि पज० इत्थिवेदो णत्थि । जोणिणीसु पुरिसवे०-णवुस० णत्थि । भुज०-अप्प० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । इत्थिवेदस्स अवत्त० णत्थि । और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तीन पल्योपम है। अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदका भंग ओघके समान है। आठ कषाय और छह नोकषायोंके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्य पदके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थित पदका भंग ओघके समान है। नपुंसकवेदके भुजगार और अल्पतर पदके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उन्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटि पृथक्त्वप्रमाण है। अवस्थित और अवक्तव्य पदका भंग ओघके समान है। $३८५. पञ्चेन्द्रिय तियश्चत्रिकमें मिथ्यात्वका भंग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। इतनी विशेषता है कि इसके अवस्थित और अवक्तव्यपदके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल क्रमसे एक समय और अन्तरमुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है । इसी.प्रकार अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसके अवक्तव्यपदका भंग सामान्य तियञ्चोंके समान है। इसी प्रकार बारह कषाय और छह नोकषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्यपदके उदीरकका भंग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्यपदके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल तीन का एक समय और अवक्तव्यपदका अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है । स्त्रीवेद और पुरुषवेदके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्य पदके उदीरक का जघन्य अन्तरकाल दो का एक समय और अवक्तव्यपदका अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटि पृथक्त्वप्रमाण है । अवस्थितपदके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है। नपुंसकवेदके तीन पदोंके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय और अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटि पृथक्त्वप्रमाण है । इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेद नहीं है तथा योनियोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं है। तथा योनियों में भुजगार और अल्पतरपदके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है । इनमें स्त्रीवेदका अवक्तव्य पद नहीं है। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [वेदगो७ ... ६ ३८६. पंचिंदियतिरि० अपज्ज०-मणुसअपज्ज० मिच्छ०-णस० तिण्णिपदा० जह० एगस, उक्क० अंतोमु० । एवं सोलसक०-छण्णोक० । णवरि अवत्त० जह उक्क० अंतोमु० । $ ३८७. मणुसतिये पंचिंदियतिरिक्खतियभंगो। णवरि पञ्चक्खाणचउक० भुज अप्प०-अवत्त० ओघं । मणुसिणीसु इत्थिवेद० अवत्त० जह० अंतोमु०, उक्क० पुवकोडिपुधत्तं । ३८८. देवेसु मिच्छ०-सम्मामि०-अणंताणु०४ तिण्णि पदा जह० एगसमओ अवत्त० जह० अंतोमु०, उक्क० एकत्तीसं सागरो० देसूणाणि । एवं सम्म० । पवरि अवढि० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि । बारसक०-छण्णोक० भुज०-अप्प०-अवत्त० जह० एगस० अंतोमु०, उक्क. अंतोमु० । अवढि० सम्मत्तभंगो गवरि अरदि-सोग० भुज-अप्प०-अवत्त० जह० एगस० अंतोमु० हस्स-रदि अवत्त. जह० अंतोमु०, उक्क० सव्वेसिं छम्मासं । पुरिसवेद० तिण्णिपदा० बारसकसायभंगो। इथिवेद० भुज०-अप्प० जह० एगस०, उक्क० पणवण्णं पलिदो० वेसूणाणि । एवं ३८६. पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व और नपुंसकवेदके तीन पदोंके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार सोलह कषाय और छह नोकषायों की अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अवक्तव्य पदके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। $३८७. मनुष्यत्रिकमें पञ्चेन्द्रियतिर्यश्चत्रिकके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनमें प्रत्याख्यान चतुष्कके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्य पदके उदीरकका भंग ओघके समान है । मनुष्यिनियोंमें स्त्रीवेदके अवक्तव्य पदके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटि पृथक्त्वप्रमाण हैं। ६३८८. देवों में मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्वात्व और अनन्तानुबन्धी के तीन पदों के उदीरक का जघन्य अन्तरकाल एक समय है, अवक्तव्य पदके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागरोपम है। इसी प्रकार सम्यक्त्वकी अपे जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसके अवस्थित पदके उदीरक का जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम है। बारह कषाय और छह नोकषायों के भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्य पदके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल क्रमसे दो का एक समय और अवक्तव्य पदके उदीरकका अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूतं है। अवस्थित पदका भंग सम्यक्त्वके समान है। इतनी विशेषता है कि अरति और शोकके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्य पदके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल क्रमसे दो का एक समय और अन्तिमका अन्तर्मुहूर्त है तथा हास्य और रतिके अवक्तव्य पदके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल सबका छह महोना है। पुरुषवेदके तीन पदोंके उदीरकका भंग बारह कषायोंके समान है। स्त्रीवेदके भुजगार और अल्पतर पदके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित पदके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए भुजगारे भंगविचओ १४३ भवणादि णवगेवजाति । णवरि सगट्ठिदी देणा । इस्स -रदि - अरदि-सोगाणं भयदुर्गुछभंगो । सहस्सारे चदुणोक० देवोधं । णवरि अवट्टि० सगट्ठिदी देखणा । भवण ०वाणवे ० - जोदिसि ० - सोहम्मीसाण ० इत्थवेद० भुज० - अप्प० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । अवट्ठि ० जह० एगस, उक्क० तिण्णि पलिदो० देनूणाणि पलिदो० सादिरे० प० सा० पणवण्णं पलिदो ० देखणाणि । उवरि इत्थवेदो णत्थि । ९ ३८९. अणुद्दिसादि सव्वट्ठा त्ति सम्म० भुज० - अप्प० जह० एस ०, उक्क० अंतोमुहुत्तं । अवट्ठि • देवोघं । अवत्त० णत्थि अंतरं । एवं पुरिसवे० । णवरि अवत्त ० णत्थि । एवं बारसक० - छण्णोक० । णवरि अवत्त० जहण्णुक्क० अंतोमु० । एवं जाव । ० $ ३९०. णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमेण दुविहो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ० - णव स० भुज० - अप्प ० - अवट्ठि० णियमा अत्थि, सिया एदे च अवत्तव्यगोच, सिया एदे च अवत्तव्यगा च । सम्म०- - इत्थि वेद - पुरिसवेद० भुज० कम पचवन पल्योपम है । इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर नौग्रैवेयक तक के देवोंमें जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। हास्य, रति, अरति और शोकका भंग भय-जुगुप्साके समान है । सहस्रार कल्पमें चार नोकषायोंका भंग सामान्य देवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि यहाँ इनके अवस्थित पदके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है । भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी तथा धर्म-ऐशान कल्पके देवों में स्त्रीवेदके भुजगार और अल्पतर पदके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित पदके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल क्रमसे कुछ कम तीन पल्योपम, साधिक एक पयोपम, साधिक एक पल्योपम और कुछ कम पचवन पल्योपम है । ऊपरके देवोंमें स्त्रीवेद नहीं है। $ ३८९. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सम्यक्त्वके भुजगार और अल्पतर पदके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित पदके उदीरकका भंग सामान्य देवोंके समान है । अवक्तव्य पदके उदीरकका अन्तरकाल नहीं है । इसी प्रकार पुरुषवेदके उदीरककी अपेक्षा अन्तरकाल जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसका अवक्तव्य पद नहीं हैं। इसी प्रकार बारह कषाय और छह नोकपायोंके उदीरककी अपेक्षा अन्तरकाल जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अवक्तव्य पदके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । $ ३९०. नाना जीवोंका आश्रय कर भंग विचयानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व और नपुंसकवेदके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदके उदीरक जीव नियमसे हैं, कदाचित् ये नाना जीव हैं और एक अवक्तव्य पदका उदीरक जीव है, कदाचित् ये नाना जीव हैं और नाना अवक्तव्य पदके उदीरक जीव हैं । सम्यक्त्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदके भुजगार और अल्पतर पदके उदीरक जीव नियमसे हैं, शेष पदोंके उदीरक जीव भजनीय हैं। सम्यग्मिथ्यात्व के सब पदोंके उदीरक जीव भजनीय Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ अप्पणिय० अत्थि, सेसपद० भयणिज्जा । सम्मामि० सव्वपदा० भयणिज्जा । सोलसक०-छण्णोक० सव्वपदा० णिय० अत्थि । एवं तिरिक्खा० । ३९१. आदेसेण रइय० मिच्छ-सम्म०-सोलसक०-छण्णोक० भुज०अप्प० णिय० अस्थि । सेसपदा० भयणिज्जा । सम्मामि० ओघ । णस० भुज०अप्पद० णिय० अत्थि, सिया एदे च अवविदो च, सिया एदे च अवढिदा च । एवं सव्वणिरय० । ३९२. पंचिंदियतिरिक्खतिये सम्मामि० ओघं । सेसपयडी० भुज०-अप्प० "णिय० अस्थि । सेसपदा० भयणिज्जा। पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज० सव्वपय० भुज०अप्प० णिय० अत्थि, सेसपदा० भयणिजा । ३९३. मणुसतिये सम्मामि० ओघं । सेसपय० भुज-अप्प० णिय० अस्थि । सेसपदा० भयणिज्जा । मणुसअपज. सव्वपय० सव्वपदा० भयणिज्जा । ३९४. देवा भवणादि जाव णवगेवजा त्ति सम्मामि० ओघं । सेससगपय० भुज०-अप्प० णिय० अत्थि, सेसपदा० भयणिज्जा । अणुदिसादि सव्वट्ठा ति सगसव्यपय० भुज०-अप्प० णिय० अत्थि । सेसपदा० भयणिज्जा । एवं जाव० । हैं। सोलह कषाय और छह नोकषायोंके सब पदोंके उदीरक जीव नियमसे हैं। इसी प्रकार तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। $ ३९१. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सोलह कषाय और छह नोकषायोंके भुजगार और अल्पतर पदके उदीरक जीव नियमसे हैं। शेष पदोंके उदीरक जीव भजनीय हैं। सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। नपुसकवेदके भजगार और अल्पतर पदके उदीरक जीव नियमसे हैं, कदाचित् ये नाना जीव हैं और एक अवस्थित पदका उदीरक जीव है, कदाचित् ये नाना जीव हैं और नाना अवस्थित पदके उदीरक जीव हैं। इसी प्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए। ____$ ३९२. पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंके मुजगार और अल्पतर पदके उदीरक जीव नियमसे हैं। शेष पदोंके उदीरक जीव भजनीय हैं । पश्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर पदके उदीरक जीव नियमसे हैं । शेष पदोंके उदीरक जीव भजनीय हैं। -६३९३. मनुष्यत्रिकमें सम्यग्मिथ्यात्वके उदीरकोंका भंग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर पदके उदीरक जीव नियमसे है। शेष पदोंके उदीरक जीव भजनीय हैं । मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंके सब पदोंके उदीरक जीव भजनीय हैं। ३९४. सामान्य देव तथा भवनवासियोंसे लेकर नौ प्रवेयक तकके देवोंमें सम्यग्मिथ्यात्वके उदीरकोंका भंग ओघके समान है। शेष अपनी-अपनी प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर पदके उदीरक जीव नियमसे है। शेष पदोंके उदीरक जीव भजनीय है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें अपनी-अपनी सब प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर पदके उदीरक जीव नियमसे हैं। शेष पदोंके उदीरक जीव भजनीय हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए भुजगारे परिमाणाणुगमो १४५ $ ३९५. भागाभागाणुगमेण दुविहो णिदेसो- ओषेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ० - णवुंस० भुज० दुभागो सादि० । अप्प० दुभागो देणो । अवट्ठि ० असंखे ० भागो । अवत्त • अनंतभागो । एवं सम्म० - सम्मामि ० - सोलसक० - णवणोक० । वरि अवत्त • असंखे० भागो । एवं तिरिक्खा० । ९ ३९६. सव्वणिरय ० - सब्ब - पंचिदियतिरिक्ख० - मणुसअपअ० - देवा भवणादि जाव अवराजिदा ति सव्वपयडी० भुज० दुभागो सादिरे० । अप्प० दुभागो देसुणो । सेसपदा० असंखे ० भागो । मणुसेसु पंचिदियतिरिक्खभंगो । नवरि सम्म ०० - सम्मामि० इत्थवेद- पुरिसवेद ० अवडि०६० - अवत्त० संखे ० भागो । मणुसपअ० - मणुसिणी - सव्वदेवा ०. सव्जपय० भुज० दुभागो सादिरेयो । अप्प० दुभागो देसूणो । सेसपदा० संखे ० भागो । एवं जाव० । । ९ ३९७. परिमाणाणुगमेण दुविहो णिहेसो- ओषेण मिच्छ०- णव स० तिष्णि पदा० अनंता । अवत्त० असंखेआ इत्थि वेद- पुरिसवेद० सव्वपदा० केलिया ? असंखेआ । सव्वपदा० के० ? अनंता । एवं तिरिक्खा ० । 0 आदेसेण य । ओषेण सम्म० - सम्मामि ०सोलसक० - छण्णोक ० $ ३९५. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिध्यात्व और नपुंसक वेदके भुजगार पदके उदीरक जीव साधिक द्वितीय भागप्रमाण हैं। अल्पतर पदके उदीरक जीव कुछ कम द्वितीय भागप्रमाण हैं । अवस्थित पदके उदीरक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । अवक्तव्य पदके उदीरक जीव अनन्तवें भागप्रमाण हैं । इसी प्रकार सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके अवक्तव्य पदके उदीरक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। इसी प्रकार सामान्य तिर्यों में जानना चाहिए । $ ३९६. सब नारकी, सब पचेन्द्रिय तिर्यख, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें सब प्रकृतियोंके भुजगार पदके उदीरक जीव साधिक द्वितीय भागप्रमाण हैं। अल्पतर पदके उदीरक जीव कुछ कम द्वितीय भागप्रमाण हैं । शेष पदोंके उदीरक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । सामान्य मनुष्यों में पचेन्द्रिय तिर्योंके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व, सम्यग्मिध्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदके अवस्थित और अवक्तव्य पदके उदीरक जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं। मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें सब प्रकृतियोंके भुजगार पदके उदीरक जीव साधिक द्वितीय भागप्रमाण हैं । अल्पतर पदके उदीरक जीव कुछ कम द्वितीय भागप्रमाण हैं। शेष पदोंके उदीरक जब संख्यातवें भागप्रमाण हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। $ ३९७. परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व और नपुंसकवेदके तीन पदोंके उदीरक जीव अनन्त हैं। अवक्तव्य पदके उदीरक जीव असंख्यात हैं । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदके सब पदोंके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। सोलह कषाय और छह नोकषायोंके सब पदोंके उदीरक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं । इसी प्रकार सामान्य तिर्यों में जानना चाहिए । १९ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ जयधवलासहिये कसायपाहुडे [ वेदगो ७ ० $ ३९८. सव्वणिरय - सव्वपंचिदियतिरिक्ख- मणुस अपज० – देवा भवणादि जाव णवगेवजा त्ति सव्वपय० सव्वपदा० केन्तिया ? असंखेजा । मणुसेसु पंचिंदियतिरिक्खभंगो । णवरि मिच्छ० - णवं स० अवस० सम्म० - सम्मामि ० - इत्थि वेद - पुरिसवेद सव्वपदा० केत्तिया ९ संखेआ । मणुसपअ० मणुसिणी - सव्वदेवा० सव्वपय ० सव्वपदा० केत्तिया ? संखेजा । अणुद्दिसादि अवराजिदा ति सव्वपय० सव्वपदा० असंखेजा । णवरि सम्म० अवत्त ० संखेजा । एवं जाव० । सम्म - सम्मामि ० ९ ३९९. खेत्ताणुगमेण दुविदो णिसो- ओषेण आदेसेण य । ओषेण मिच्छ०ण स० - तिण्णिपदा० केवड खेसे सव्वलोगे । अवत्त० लोग० असंखे० भागे । सोलसक० - छण्णोक० सव्वपदा केवडि खेत्ते १ सव्यलोगे । इत्थवेद - पुरिसवेद० सव्वपदा० केबडि खेत्ते १ लोग ० असंखेभागे । सगदी सव्वपयडीणं सव्वपदा० केव० लोग० असंखे ० भागे । एवं जाव० । $४००. पोसणाणुगमेण दुविहो णिद्दसो- ओघेण आदेसेण य । ओषेण मिच्छत्त० तिणिपद० के० पोसिदं १ सव्वलोगो । अवत्त० लोग० असंखे ० भागो अट्ठ बारह एवं तिरिक्खा० । $ ३९८. सब नारकी, सब पचेन्द्रिय तिर्यन, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर नौ वैयक तकके देवोंमें सब प्रकृतियोंके सब पदोंके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । सामान्य मनुष्यों में पचेन्द्रिय तिर्योंके समान भंग है । इतनी विशेषता इनमें मिथ्यात्व और नपुंसकवेदके अवक्तव्य पदके उदीरक जीव तथा सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदके सब पदोंके उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें सब प्रकृतियोंके सब पदोंके उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। अनुदिशसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें सब प्रकृतियोंके सब पदोंके उदीरक जीव असंख्यात हैं । इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्वके अवक्तव्य पदके उदीरक जीव संख्यात हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । $ ३९९. क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश | ओघ मिथ्यात्व और नपु ंसकवेदके तीन पदोंके उदीरकोंका कितना क्षेत्र हैं ? सर्व लोकप्रमाण क्षेत्र है | अवक्तव्य पदके उदीरकोंका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है । सोलह कषाय और छह नोकषायोंके सब पदोंके उदीरकोंका कितना क्षेत्र है ? सर्वलोकप्रमाण क्षेत्र है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदके सब पदोंके उदीरकोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है । इसी प्रकार सामान्य तिर्यों में जानना चाहिए। शेष गतियोंमें सब प्रकृतियोंके सब पदोंके उदीरकोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । $ ४००. स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्वके तीन पदके उदीरकोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्य पदके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ और कुछ कम बारह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसी प्रकार नपुंसकवेदके उदीरकोंकी अपेक्षा स्पर्शन जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए भुजगारे पोसणाणुगमो १४७ चोहस० । एवं णवंस० । णवरि अवत्त० लोग० असंखे ० भागो सव्वलोगो वा । सम्म०सम्मामि० सव्वपदा० लोग० असंखे० भागो अटु चोदस० । सोलसक० - छण्णोक० सव्वपदा० सव्वलोगो । इत्थवेद - पुरिसवेद ० - तिष्णिपदा० लोग० असंखे० भागो अट्ठ चोद्दस • सव्वलोगो वा । अवत्त० लोग० असंखेभागो सव्वलोगो वा । 1 ४०१. आदेसेण णेरइय० सव्ववय० सव्वपदा० लोग असंखे ० भागो छ चोदस० । णवरि मिच्छ० अवत्त० लोग० असंखे ० भागो पंच चोद्दस ० सम्म० इसके अवक्तव्य पदके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके सबपदोंके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सोलहकषाय और छह नोकषायोंके सब पदोंके उदीरकोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदके तीन पदोंके उदीरकोंने लोकके असंख्यातव भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग तथा सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्य पदके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेषार्थ – जो सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्वको प्राप्त कर प्रथम समयमें उसका अवक्तव्य पद करते हैं उनका विहारवत्स्वस्थान आदि की अपेक्षा त्रसनालीके चौदह भागों में से 'कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका तथा मारणान्तिक समुद्धात और उपपाद पदकी अपेक्षा त्रसनालीके चौदह भागों में से नीचे पाँच और ऊपर सात इस प्रकार कुछ कम बारह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है, इसलिए यहाँ मिध्यात्वके अवक्तव्य पदके उदीरकोंका उक्त क्षेत्रप्रमाण भी स्पर्शन कहा है। नपुंसकवेदका अवक्तव्यपद अन्य वेदसे आकर अपने जन्मके प्रथम समय में एकेन्द्रिय जीव भी करते हैं और वे अतीत कालकी अपेक्षा सर्व लोकमें पाये जाते हैं, इसलिए इसके अवक्तव्य पदके उदीरकोंका सर्व लोकप्रमाण भी स्पर्शन कहा है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की उदीरणा यथायोग्य चारों गतियोंमें संभव है, किन्तु उन सबका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही बनता है । मात्र विहारवत्स्वस्थान आदिकी अपेक्षा अतीत स्पर्शन त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण भी बन जाता है, इसलिए इस अपेक्षासे उक्त प्रकृतियोंके सब पदोंके उदीरकोंका स्पर्शन त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण कहा है। मुख्यतासे जो एकेन्द्रिय जीव मर कर स्त्रीवेदी और पुरुषवेदियों में उत्पन्न होते हैं उनका अतीत स्पर्शन सर्व लोकप्रमाण बन जानेसे इनके अवक्तव्य पदके उदीरकोंका सर्व लोकप्रमाण भी स्पर्शन कहा है। शेप कथन सुगम होनेसे यहाँ उसका स्पष्टीकरण नहीं किया है। इसी न्यायसे गतिमार्गणाके भेद-प्रभेदों में अपने-अपने स्पर्शनका स्पष्टीकरण कर लेना चाहिए । ४०१. आदेश से नारकियों में सब प्रकृतियोंके सब पदोंके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इतनी विशेषता है कि मिध्यात्वके अवक्तव्य पदके उदीरकोंने लोंकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भांगोंमेंसे कुछ कम पाँच भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके सब पदोंके उदीरकोंका भंग क्षेत्रके समान है । इसी प्रकार दूसरी Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ जयधवलासहिदे कसावपाहुडे [ वेदगो सम्मामि० खेत्तभंगो। एवं विदियादि सचमा ति । णवरि सगपोसणं । सत्तमाए मिच्छ० अवत्त० खेत्तं । पढमाए खेतं ।। ४०२. तिरिक्खेसु ओघ । णवरि मि. अबतक लोग० असंखे०मागो सत्त चोदस० । सम्म० तिण्णिपद० लोग० असंखे मागो छ चोदस० । अवत्त० खेतं । सम्मामि० खेत्तं । इत्थिषे०-पुरिस. सध्यपद० लोग असंखेमागो सव्वलोगो वा। $४०३. पंचिंदियतिरिक्खतिये मिच्छ०-सोलसक०-णवणोक० सव्वपद० लोग. असंखे०भागो सव्वलोगो वा । णवरि मिच्छ० अवत्त० सत्तचोइस० । तिण्णिवेद० अवत्त० खेत्तं । सम्म०-सम्मामि० तिरिक्खोपं । गवरि वेदा जाणिदव्वा । ४०४. पंचिंदियतिरिक्ख-अपज०-मणुसअपज. सव्वपय० सव्वपद० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । मणुसतिये पंचिंदियतिरिक्खतियभंगो। णवरि सम्म० खेत्तं । मणुसिणी० इथिवेद० अवत्त० खेत्तं । ६४०५. देवेसु सव्वपयडी० सव्वपद० लोग० असंखे०भागो अट्ट व चोइस० । पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपना-अपना स्पर्शन कहना चाहिए । सातवीं पृथिवीमें मिथ्यात्वके अवक्तव्य पदके उदीरकोंका भंग क्षेत्रके समान है। तथा पहली पृथिवी में सब प्रकृतियोंके सब पदोंके उदीरकोंका गंग क्षेत्रके समान हैं। ४०२. तिर्यश्चोंमें ओघके समान भंग है इतनी विशेषता है कि मिथ्यास्वके अवव्य पदके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और प्रसनालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम सात भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्वके तीन पदोंके उदीरकोंने लोकके असंख्यात भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंके कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसके अवक्तव्य पदके उदीरकोंका भंग क्षेत्रके समान है। सम्यग्मिध्यात्वके सब पदोंके उदीरकोंका भंग क्षेत्रके समान है। खीवेद और पुरुषवेदके सब पदोंके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। ४०३. पश्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके सब पदोंके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वके अवक्तव्य पदके उदीरकोंने त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम सात भागप्रमाण क्षेत्रका अतीतकालमें स्पर्शन किमा है। तीन वेदोंके अवक्तव्य पदके उदीरकोंका भंग क्षेत्रके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वके सब पदोंके उदीरकोंका भंग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है । इतनी विशेषता है कि अपने-अपने वेद जान लेने चाहिए। ४०४. पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंके सब पदोंके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें माग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मनुष्यत्रिकमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वके सब पदोंके उदीरकोंका भंग क्षेत्रके समान है । मनुष्यिनियोंमें खीवेदके अवक्तव्य पदके उदीरकोंका भंग क्षेत्रके समान है। . ४०५. देवोंमें सब प्रकृतियोंके सब पदोंके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपबडिअणुभागउदीरणाए भुजगारे कालो १४९ वरि सम्म० सम्म ०- सम्मामि० सव्यपय लोग० असंखे० भागो अट्ठ चोदस० । पूर्व सोहम्मीसाण० । १४०६. भवण ० - पाणवे ० - जोदिसि० सव्वपय० सव्वपद० लोग० असंखे ०भागो अड्डा वा अट्ठ णव चोइस० । णवरि सम्म० - सम्मामि० सव्ववद० लोग० असंले० भागो अड्डा वा अड्ड चोइस० । १४०७. सणक्कुमारादि सहस्सारा सि सव्वपय० सव्वपदा० लोग ० असंखे०भागो अड्ड चोइस० । आणदादि अच्चुदा ति सव्त्रपय० सव्यपद० लोग० असंखे ० भागो छ बोस • । उवरि खेतं । एवं जाव० । १४०८. कालणुगमेण दुबिड़ो णिसो- ओषेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०पुंस० अवस० जह० एयस०, उक्क० आवलि० असंखे० भागो । सेसपदा० सव्वद्धा । सम्म० - इत्थिषे० - पुरिसवे० भुज० - अप्प ० सव्वद्धा । सेसपदा० जह० एगस, उक्क० . आवलि० असंखे ० भागो । एवं सम्मामि० । णवरि भुज ० - अप्प० जह० एस ०, उप० पलिदो ० असंखे ० भागो । सोलसक० - छण्णोक० सव्वपदा० सव्वद्धा । किया है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यमिध्यात्वके सब पदोंके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और प्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सौधर्म और ऐशान कल्प में जानना चाहिए । $ ४०६. भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें सब प्रकृतियोंके सब पदोंके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम साढ़े तीन, कुछ कम आठ और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके सब पदोंके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम साढ़े तीन और कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । $ ४०७. सनत्कुमार कल्पसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें सब प्रकृतियोंके सब पोंके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आनत कल्पसे लेकर अच्युत कल्प तकके देवोंमें सब प्रकृतियोंके सब पदोंके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आगेके देवोंमें स्पर्शन क्षेत्रके समान है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । $ ४०८. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओध और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व और नपुंसकवेदके अवक्तव्य पदके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । शेष पदोंके उदीरकोंका काल सर्वदा है । सम्यक्त्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदके भुजगार और अल्पतर पदके उदीरकोंका काल सर्वदा है । • शेष पदोंके उदीरकोंका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार सम्यग्मिध्यात्वके सब पदोंके उदीरकोंका काल जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसके भुजगार और अल्पतर पदके उदीरकोंका जघन्यकाल एक समय है और Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० एवं तिरिक्खा ० । S $ ४०९. सव्वणिरय ० - सव्वपंचिदियतिरिक्ख० देवा भवणादि जाव णवगेवजा त्ति सम्मामि॰ ओघं । सेसपय० भुज० - अप्प० सव्वद्धा । सेसपदा० जह० एगसमओ, उक्क० आवलि० असंखे ० भागो । ४१०. मणुसेसु पंचि०तिरिक्खभंगो । णवरि सिच्छ - णवुंस० अवत्त० सम्म०इत्थिवे ० - पुरिसवे० अवट्ठि - अवत्त० जह० एगस०, उक्क० संखेजा समया । सम्मामि ० भुज० - अप्पद० जह० एगस०, उक्क० अंतोसु० । सेस पदा० जह० एगस, उक्क० संखेजा समया । मणुसपज्ज० - मणुसिणी० सम्मामि० मणुसोघं । सेसपयडी० भुज० - अप्प० सव्वद्धा । सेसपदा० जह० एगस०, उक्क० संखेजा समया । मणुस अपज • जयधवलासहिदे कसायपाहुडे उत्कृष्टकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सोलह कषाय और छह नोकषायों के सब पदोंके उदीरकों काल सर्वदा है । इसी प्रकार तिर्यों में जानना चाहिए । · [ वेदगो ७ विशेषार्थ- — एक जीवकी अपेक्षा मिथ्यात्व और नपुंसकवेदके अवक्तव्य पदके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अपने उपक्रम कालको देखते हुए ऐसे जीव यदि लगातार इन प्रकृतियोंकी अवक्तव्य उदीरणा करें तो कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक ही अवक्तव्य उदीरणा करते हैं, इसलिए इनके अवक्तव्य पदके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्टकाल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। इनके शेष पदोंका काल सर्वदा है यह स्पष्ट ही है । सम्यक्त्व आदि चार प्रकृतियों के अवस्थित और अवक्तव्य पदके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा शेष दो पदोंके उदीरकोंका काल सर्वदा यथासम्भव उक्तप्रकारसे ही जान लेना चाहिए । सम्यग्मिथ्यात्व यह सान्तर मार्गणा है, इसलिए सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगार और अल्पतर पदके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। शेष सब कथन स्पष्ट ही है । इसी न्याय से गतिमार्गणाके भेद-प्रभेदोंमें कालका विचार कर लेना चाहिए । $ ४०९. सब नारकी' सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यच, सामान्य देव और भवनवासियों से लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देवोंमें सम्यग्मिथ्यात्वके सब पदोंके उदीरकोंका भंग ओघके समान है । शेष प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर पदके उदीरकोंका काल सर्वदा है। शेष पदोंके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। $ ४१०. मनुष्यों में पचेन्द्रिय तिर्योंके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि मिध्यात्व और नपुंसकवेदके अवक्तव्य पदके उदीरकोंका तथा सम्यक्त्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदके अवस्थित और अवक्तव्य पदके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगार और अल्पतर पदके उदीरकोंका जघन्यकाल एक समय कृष्ट मुहूर्त है। शेष पदोंके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें सम्यग्मिथ्यात्वके सब पदों के उदीरकोंका भंग सामान्य मनुष्योंके समान है। शेष प्रकृतियोंके भुजगार और उल्पतर पदके ܝ ܝ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६१] उत्तरपयरिअणुभागउदीरणाए भुजगारे अंतरं १५१ सव्वपय० भुज-अप्पद० जह० एयसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। सेसपदा० जह० एगस०, उक० श्रावलि० असंखे०भागो । १४११. अणुदिसादि सव्वष्ठा त्ति सव्वपय० भुज०-अप्प० सव्वद्धा । सेसपदा० जह एगस, उक्क० आवलि० असंखे०भागो। णवरि सम्म० अवत्त० जह० एयस०, उक. संखेजा समया । बरि सवढे संखेजा समया । एवं जाव० । ४१२. अंतराणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०सोलसकसाय-सत्तणोक० सव्वपदाणं गत्थि अंतरं । णवरि मिच्छ० अवत्त० जह. एयस०, उक० सत्तरादिदियाणि । णqसय० अवत्त० जह० एयस०, चउवीसमुहुत्तं । सम्म० भुज०-अप्पद० णत्थि अंतरं । अवढि० जह० एगस०,उक्क० असंखेज्जा लोगा । अवत. मिच्छत्तभंगो। सम्मामि० भुज०-अप्प०-अवत्त० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०मागो। अवढि० सम्मत्तभंगो । इत्थिवेद-पुरिस० सम्मत्तभंगो । काल सर्वदा है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर पदके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। शेष पदोंके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। ४११. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सब प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर पदके उदीरकोंका काल सर्वदा है । शेष पदोंके उदीरकोंका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल आव लिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वके अवक्तव्य पदके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। इतनी विशेषता है कि सर्वार्थसिद्धिमें आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके स्थानमें संख्यात समय काल है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ४१२. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंके सब पदोंके उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वके अवक्तव्य पदके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल सात दिन-रात है । नपुंसकवेदके अवक्तव्य पदके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल चौबीस मुहूर्त है। सम्यक्त्वके भजगार और अल्पतर पदके उदीरकों का अन्तरकाल नहीं है। अवस्थित पदके उदीरकों का जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है । अवक्तव्य पदकें उदीरकों का भंग मिथ्यात्वके समान है। सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्य पदके उदीरकों का जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवस्थित पदके उदीरकों के अन्तरकालका भंग सम्यक्त्वके समान है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदके सब पदोंके उदीरकों के अन्तरकालका भंग सम्यक्त्वके समान १. ता०प्रतौ भागो । णवरि अणदिसादि इति पाठः । २. आ०प्रतौ अप्प० जह० एगस० सव्वद्धा इति पाठः। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो णवरि अवत्त० णदुसभंगो । एवं तिरिक्खा० । ४१३. आदेसेण णेरइय० मिच्छ. भुज-अप्प० पत्थि. अंतरं । अवडि० जह० एगस०, उक्क० असंखेजा लोगा । अबत्त० ओघं । एवं सोलसक०-सत्तणोक० । णवरि अवत्त० जह० एयसमओ, उक्क. अंतोमु० । गवुसय० अवत्त० गस्थि । सम्म०-सम्मामि० ओघ । एवं सध्वणेरइय० । एवं पंचिंदियतिरिक्तानिये । णवरि णवुस० अवत्त० ओघं । इस्थिवेदपुरिस. ओघं। णवरि पज. इत्यिवेदो पत्थि जोणिणीसु पुरिसवेद-णवुस० णस्थि । इत्थिवेद० अवत्त० गस्थि। ___४१४. पंचिंदियतिरिक्खअपज० मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोक० णारयभंगो। णवरि मिच्छ० अवत्त० णस्थि । 5 ४१५. मणुसतिये पंचिंदियतिरिक्खतियभंगो । मणुसिणीसु इस्थिवे. अवत. है। इतनी विशेषता है कि इसक अवक्तव्य पदके उदीरको क अन्तरकालका भंग नपुंसकवेदके समान है । इसी प्रकार तिर्यश्चों में जानना चाहिए। विशेषार्थ—इस अन्तरकाल प्ररूपणासे मालूम होता है कि वेदक सम्यक्त्वसे च्युत होकर कोई जीव अधिकसे अधिक सात दिन-रात तक मिथ्यादृष्टि नहीं होता और मिथ्वात्व को त्यागकर अधिकसे अधिक सात दिन-रात तक कोई जीव वेदक सम्यग्दृष्टि नहीं होता। इसी प्रकार अन्य वेदवाला कोई जीब मरकर यदि नपुंसकवेदी, स्त्रीवेदी या पुरुषवेदियों में नहीं उत्पन्न हो तो अधिकसे अधिक चौबीस मुहूर्त तक नहीं उत्पन्न होता। शेष कथन स्पष्ट ४१३. आदेशसे नारकियों में मिथ्यात्वके भुजगार और अल्पतर पदके उदीरकों का अन्तरकाल नहीं है । अवस्थित पदके उदीरकों का जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है। अवक्तव्य पदके उदीरकोंके अन्तरकालका भंग ओघके समान है । इसी प्रकार सोलह कषाय और सात नोकषायोंके सब पदोंके उदीरकोंका अन्तरकाल जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अवक्तव्य पदके उदीरकों का जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। नपुसकवेदका अवक्तव्य पद नहीं है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके सब पदों के उदीरकों के अन्तरकालका भंग ओघके समान है । इसी प्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेदके अवक्तव्य पदके उदीरकों के अन्तरकाल का भंग ओघके समान है। स्त्रौवेद और पुरुषवेदके सब पदोंके उदीरकों के अन्तरकालका भंग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकों में स्त्रीवेद नहीं है और योनिनियों में स्त्रीवेद तथा पुरुषवेद नहीं है। तथा योनिनियों में स्त्रीवेदका अवक्तव्य पद नहीं है। ४१४. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकों में मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंके सब पदों के उदीरकों के अन्तरकालका भंग नारकियों के समान है। इतनी विशेषता है कि इनमें मिथ्यात्वका अवक्तव्य पद नहीं है। $ ४१५. मनुष्यत्रिकमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिकके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यिनियों में स्त्रीवेदके अवक्तव्य पदके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए भुजगारे अप्पाबहुअं १५३ जह० एगस०, उक. वासपुधत्तं । मणुसअपक्ष० सव्वपय० सव्वपदा० जह० एयस०, उक० पलिदो० असंखे०भागो । णवरि अवट्ठि० जह० एगस०, उक्क० असंखेजा लोगा। ६४१६. देवा० पंचिंदियतिरिक्खभंगो। णवरि गवुस० पत्थि । इत्थिवेदपुरिसवेद० अवत्त० णस्थि । एवं भवण०-वाणवें-जोदिसि०-सोहम्मीसा० । एवं सणकमारादि जाव गवगेवजा' ति । णवरि इत्थिवेदो पत्थि । अणुदिसादि सव्वद्वा ति सम्म०-पारसक०-सत्तणोक. आणदभंगो । णवरि सम्म० अवत्त० जह• एगस०, उक्क० वासपुधत्तं पलिदो० संखे०भागो । एवं जाव० । ४१७. भावाणुगमेण सव्वस्थ ओदइओ भावो । ६४१८. अप्पाबहुआणुगमेण दुविहो णिदेसो-ओषेण आदेसेण य । ओघेण, मिच्छ०-णस० सव्वत्थोवा अवत्त०अणुभागुदी०। अवडि. अणंतगुणा। अप्प. असंखे०गुणा। भुज० विसेसाहिया। सम्म०-सम्मामि०-सोलसक०-अदृणोक० उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्वप्रमाण है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंके सब पदोंके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इतनी विशेषता है कि अवस्थित पदके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है। $ ४१६. देवोंमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनमें नपुंसकवेद नहीं है । तथा इनमें स्त्रीवेद और पुरुषवेदका अवक्तव्य पद नहीं है। इसी प्रकार भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी तथा सौधर्म और ऐशान कल्पके देवोंमें जानना चाहिए। इसी प्रकार सनत्कुमार कल्पसे लेकर नौ अवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद नहीं है । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सम्यक्त्व, बारह कषाय और सात नोकषायोंके सब पदोंके उदीरकोंके अन्तरकालका भंग आनत कल्पके समान है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वके अवक्तव्य पदके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल नौ अनुदिश तथा चार अनुत्तर विमानोंमें वर्षपृथक्त्वप्रमाण तथा सर्वार्थसिद्धिमें पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ६ ४१७. भावानुगमकी अपेक्षा सर्वत्र औदयिक भाव है। ६४१८. अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व और नपुंसकवेदके अवक्तव्य अनुभागके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं । उनसे अवस्थित अनुभागके उदीरक जीव अनन्तगुणे हैं। उनसे अल्पतर अनुभागके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे भुजगार अनुभागके उदीरक जीव विशेष अधिक हैं। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और आठ नोकषायोंके अवस्थित अनुभागके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवक्तव्य अनुभागके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अल्पतर १. आ प्रतौ सणक्कुमारादि णवगेवजा इति पाठः। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ जयधवलाहदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ सव्वत्थोवा अवट्ठि० । अवत्त० असंखे०गुणा । अप्प० असंखे०गुणा । भुज० विसे० । एवं तिरिक्खा० । ६४१९. आदेसेण परइय० मिच्छ० सव्वत्योवा अवत्त । अवढि० असंखे०गुणा । सेसमोघं । सम्म०-सम्मामि०-सोलसक०-सत्तणोक० ओघं । णवरि णस० अवत्त० णत्थि । एवं सव्वणिरय० । ६४२०. पंचिंदियतिरिक्खतिये ओघं। णवरि मिच्छ०-णस० सव्वत्योका अवत्त । अवढि० असंखे०गुणा । सेसमोघं । गवरि पजत्तएसु इत्थिवेदो पत्थि । णस० पुरिसभंगो। जोणिणीसु पुरिसवेद-णस० णत्थि । इत्थिवेद० अवत्त० णत्थि। ६४२१. पंचिंदियतिरिक्खअपज०-मणुसअपज्ज० मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोक० पंचिंदियतिरिक्खभंगो । णवरि मिच्छ०-णवुस० अवत्त० णत्थि । ९४२२. मणुसेसु मिच्छ-सोलसक०-सत्तणोक. पंचिंतिरि०भंगो। सम्म०सम्मामि०-इत्थिवेद-पुरिस० सव्वत्थोवा अवढि० । अवत्त० संखे० गुणा । अप्प. संखे०गुणा । भुज० विसे० । एवं मणुसपजत्त-मणुसिणीसु । णवरि संखे०गुणा । अनुभागके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं । उनसे भुजगार अनुभागके उदीरक जीव विशेष अधिक हैं । इसी प्रकार तिर्यश्चोंमें जानना चाहिए। ४१९. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्वके अवक्तव्य अनुभागके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थित अनुभागके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। शेष भंग ओघके समान है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंका भंग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि इनमें नपुंसकवेदके अवक्तव्य अनुभागके उदीरक जीव नहीं है। इसी प्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए । ४२०. पञ्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिकमें ओघके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व और नपुंसकवेदके अवक्तव्य अनुभागके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थित अनुभागके उदीरक जीव असंख्यातगुंणे हैं । शेष भंग. ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेद नहीं है। तथा इनमें नपुंसकवेदका भंग पुरुषवेदके समान है। योनिनियोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं है । तथा इनमें स्त्रीवेदके अवक्तव्य अनुभागके उदीरक जीव नहीं हैं। ४२१. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंका भंग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है । इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व और नपुंसकवेदके अवक्तव्य अनुभागके उदीरक जीव नहीं हैं। ४२२. मनुष्योंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंका भंग पझेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिध्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदके अवस्थित अनुभागके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवक्तव्य अनुभागके उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे अल्पतर अनुभागके उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे भुजगार अनुभागके उदीरक Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www गा० ६२ ] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए पदणिक्खेवे समुक्कित्तणा १५५ पञ्जत्त० इत्थिवे. णत्थि । णस० पुरिसवेदभंगो। मणुसिणीसु पुरिस०-णवुस० पत्थि । इत्थिवेद० मिच्छत्तभंगो। ६४२३. देवेसु पंचिंतिरिक्खभंगो। णवरि गर्बुस० पत्थि । इलिगवेदपुरिसवेद० अवत्त० पत्थि। एवं भवण-वाण-०-जोदिसि० सोहम्मीसाण । एवं सणक्कुमारादि वगेवजा ति । णवरि इथिवेदो पत्थि । अणुद्दिसादि जाव सव्वट्ठा त्ति सम्म० सव्वत्थोवा अवत्त० । अवढि० असंखे गुणा । अप्प० असंखे गुणा । भुज० विसे । बारसक०-सत्तणोक० आणदभंगो । णवरि सव्वढे संखेजगुणं कायव्वं । एवं जाव०। एवं भुजगारो समत्तो। $ ४२४. पदणिक्खेवे त्ति तत्थ इमाणि तिण्णि अणिओगद्दाराणि-समुक्त्तिणा सामित्तमप्पाबहुअं च। तत्थ समुक्त्तिणा दुविहा–जह० उक्क० । उक्क० पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण सव्वपयडी० अत्थि उक्क० वड्डी हाणी अवट्ठा। सव्वणिरय-सव्वतिरिक्ख-सव्वमणुस-सव्वदेवा त्ति जाओ पयडीओ उदीरिजंति तासिमोघं । एवं जाव० । एवं जहण्णयं पिणेदव्वं । जीव विशेष अधिक हैं । इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि संख्यातगुणा करना चाहिए। पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेद नहीं है। इनमें नपुंसकवेदका भंग पुरुषवेदके समान है। मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं है। इनमें स्त्रीवेदका भंग मिथ्यात्वके समान है। .. ६ ४२३. देवोंमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेद नहीं है। तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेदके अवक्तव्य अनुभागके उदीरक नहीं हैं। इसी प्रकार भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी तथा सौधर्म और ऐशान कल्पके देवोंमें जानना चाहिए। इसी प्रकार सनत्कुमार कल्पसे लेकर नौ अवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद नहीं है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सम्यक्त्वके अवक्तव्य अनुभागके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थित अनुभागके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अल्पतर अनुभागके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे भुजगार अनुभागके उदीरक जीव विशेष अधिक हैं। बारह कषाय और सात नोकषायोंका भंग आनत कल्पके समान है । इतनी विशेषता है कि सर्वार्थसिद्धिमें संख्यातगुणा करना चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। . इस प्रकार भुजगार समाप्त हुआ। $ ४२४. पदनिक्षेपका प्रकरण है। उसमें ये तीन अनुयोगद्वार हैं-समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व । उनमेंसे समुन्कीर्तना दो प्रकारको है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थान अनुभाग उदीरणा है । सब नारकी, सब तिर्यश्च, सब मनुष्य और सब देव जिन प्रकृतियोंकी उदीरणा करते हैं उनका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । इसी प्रकार जघन्यको भी जानना चाहिए। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ १४२५. सामिषं दुविहं – जह० उक० । उकस्से पयदं । दुविहो जिसी - ओषेण आदेसेण य । ओषेण मिच्छ०- सोलसक० उक० वड्डी कस्स १ अण्णद० मिच्छाइट्ठिस्स जो उक्कस्ससंतकम्मिगो उक्कस्ससंकिलेसं गदो तस्स उक० वड्डी । उक० हाणी कस्स १ अण्णद० जो उकस्साणुभागमुदीरेंतो मदो बादइंदिओ जादी तस्स उक हाणी । उक० अवडा, कस्स १ अण्णद० जो उकस्साणुभागमुदीरें तो तप्पा ओग्गविसोहीए पदिदी तस्स से काले उक्क • अवट्ठाणं । १५६ १४२६. सम्म० - सम्मामि० उक० वढी कस्स १ अण्णद० तप्पा ओग्गसंकिलिइस्स मिच्छत्ताहिमुहस्स चरिमसमये वट्टमाणस्स तस्स उक० वड्डी । उक्क० हाणी कस्स ? अण्णद० जो तप्पा ओग्गउकस्साणुभागमुदीरेंतो तप्पाजोग्गविसोहीए पदिदो तस्स क ० हाणी । तस्सेव से काले उक्क० अवड्डाणं । $ ४२७. इत्थवेद - पुरिसवेद० उक० वड्डी कस्स ? अण्णद जो अट्ठवस्सिंगो करहो तपाओग्गजहृणमुदीरेंतो उकस्ससंकिलेस गड़ी तस्स उक० बड्डी । उक हाणी० ० कस्स ? अण्णद० सो चेव उकस्साणुभागमुदीरेंतो तप्पा ओग्गविसोहीए पदिदो तस्स उक० हाणी । तस्सेव से काले उक० अवड्डा० । एवं णवुंस० - अरदि- सोग-भय $ ४२५. स्वामित्व दो प्रकारका है- जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट बुद्धि किसके होती है ? जो उत्कृष्ट सत्कर्मवाला जीव उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ ऐसे अन्यतर मिथ्यादृष्टि उनकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला अन्यतर जीव मरा और बादर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हो गया उसके उनकी उत्कृष्ट हानि होती है । उत्कृष्ट अवस्थान किसके होता है? जो उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला अन्यतर जीव तत्प्रायोग्य विशुद्धिको प्राप्त हुआ उसके उनका तदनन्तर समयमैं उत्कृष्ट अवस्थान होता है । $ ४२६. सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? तमायोग्य संक्लेश परिणामबाला मिध्यात्वके अभिमुख हुआ अन्तिम समयमें विद्यमान जो अम्यतर जीव है उसके उनकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है । उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? तत्प्रायोग्य उत्कड 'अनुभागकी उदीरणा करनेवाला जो अन्यतर जीव तत्प्रायोग्य विशुद्धिको प्राप्त हुआ उसके उनकी उत्कृष्ट हानि होती है। तथा उसीके तदनन्तर समयमें उनका उत्कृष्ट अवस्थान होता है। $ ४२७. स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? तत्प्रायोग्य जपन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवाला जो अन्यतर आठ वर्षका करभ उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ उसके उनकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है । उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला जो अन्यतर वही करभ तत्प्रायोग्य विशुद्धिको प्राप्त हुआ उसके उनकी उत्कृष्ट छानि होती है। तथा उसीके तदनन्तर समयमें उनका उत्कृष्ट अवस्थान होता है। इसी प्रकार नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६६ 1 उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए पदणिक्खेवे सामित्त १५७ दुर्गुछ० । नवरि सत्तमपुढबीए रइयस्स भाणिदव्वं । एवं हस्स - रदीणं । णवरि सहस्सारे देवरस माणिदव्वं । ९ ४२८. आदेसेण णेरइय० मिच्छ०- सोलसक० - सत्तणोक० उक्क० वड्डी कस्स १ अण्णद० जो तप्पा ओग्गजह० अणुभागमुदोरेंतो उक्कस्ससंकिलेस गदी तस्स उक्क० वड्डी । उक्क० हाणी कस्स १ अण्णद० जो उक० अणुभागमुदीरेंतो तप्पा ओग्गविसोहिए पदिदो तस्स उक० हाणी । तस्सेव से काले उक० अवट्ठा० । णवरि ण स - अरदिसोग-भय- दुगुंछा० सत्तमाएं णेरइयस्स भाणिदव्वं । सम्म० - सम्मामि० ओघं । एवं सवणेरइय० । ९ ४२९. तिरिक्खेषु मिच्छ० - सोलसक० - सत्तणोक० - सम्म० - संम्मा मि० पढमाए भंगो । इत्थवे० - पुरिसवेद० ओघं । एवं पंचिदियति रिक्खतिये । णवरि वेदा जाणिव्वा । पंचिदियतिरिक्ख अपअ० - मणुस अपज० मिच्छ० - सोलसक० सत्तणोक० पंचिदियतिरिक्तभंगो । णवरि तप्पा ओग्गसंकिलेस - विसोही भाणियव्वा । मणुसतिये पंचिदियतिरिक्खतियभंगो' । णवरि इन्थिवेद - पुरिसवेद० मिच्छत्तभंगो । $ ४३०. देवेषु मिच्छ० - सोलसक० - सम्म० - सम्मामि ० - इत्थि वेद - पुरिसवेद कि सातवीं पृथिवीके नारकीके कहलाना चाहिए। इसी प्रकार हास्य और रतिकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि सहस्रार कल्पके देवके कहलाना चाहिए । $ ४२८. आदेशसे नारकियोंमें मिध्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? तत्प्रायोग्य जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवाला जो अन्यतर जीव उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ उसके उनकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है । उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला जो अन्यतर जीव तत्प्रायोग्य विशुद्धिको प्राप्त हुआ उसके उनकी उत्कृष्ट हानि होती है। तथा उसीके तदनन्तर समय में उनका उत्कृष्ट अवस्थान होता है । इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साकी अपेक्षा सातवीं पृथिवीके नारकीके कहलाना चाहिए । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार सब नारकियों में जानना चाहिए । $ ४२९. तिर्यों में मिध्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वका भंग पहली पृथिवीके समान है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदका भंग ओघके समान है । इसी प्रकार पचेन्द्रिय तिर्यवत्रिक में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपना अपना वेद: जान लेना चाहिए। पचेन्द्रिय तिर्यन अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मिध्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंका भंग पचेन्द्रिय तिर्यक्वोंके समान है। इतनी विशेषता है कि तत्प्रायोग्य संक्लेश और विशुद्धि कहलानी चाहिए । मनुष्यत्रिकमें पचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद और पुरुषवेदका भंग मिध्यात्वके समान है । § ४३०. देवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, श्रीवेद, पुरुषवेद: अरति, शोक, भय और जुगुप्साका भंग सामान्य मनुष्योंके समान है । हास्य और रतिका १. आ०प्रतौ -तिरिक्खभंगो इति पाठः । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ अरदि-सोग-भय-दुगुंछा० मणुसभंगो । हस्स - रदि० ओघं । एवं भवणादि जाव णववजाति । वरि हस्स-रदि० मिच्छत्तेण सह भाणिदव्वं । सणक्कुमारादि उवरिमित्थिaat for | आणदादि जाव णवगेवजा त्ति तप्पाओग्गसंकिलेस - विसोही भाणिदव्वा । १५८ ४३१. अणुदिसादि सव्वट्टा त्ति सम्म० - बारसक० - सत्तणोक० उक्क० वड्डी कस्स ? अण्णद० वेदगसम्माइट्ठि ० जो तप्पा ओग्गउक्कस्साणुभाग संतकम्मिगो तप्पा ओग्गउक्कस्ससंकिलेसं गदो तस्स उक्क० वड्डी । उक्क० हाणी कस्स १ अण्णद० तप्पाओग्गउक्कस्साणुभागमुदीरेंतो तप्पा ओग्गविसोहीए पदिदो तस्स उक्क० हाणी । तस्सेव से काले उक्क० अवट्ठा० । एवं जाव० । ● $ ४३२. जह० पदं । दुविहो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ० अता ०४ जह० बड्डी कस्स ? अण्णद० अधापवत्तमिच्छाइट्ठिस्स जो तप्पाओग्गसंकिलट्ठो अनंतभागेण वड्ढिदो तस्स जह० वड्डी । तस्सेव से काले जह० अवट्ठा० । जह० हाणी कस्स ? अण्णद० चरिमसमयमिच्छाइट्ठिस्स से काले संजमं पडिवजिहिदि ति तस्स जह० हाणी | ६ ४३३. सम्म० जह० वड्डी कस्स ? अण्णद० अधापवत्तसम्माइट्ठिस्स जो अनंतभागेण वड्ढिदो तस्स जह० वड्डी । तस्सेव से काले जह० अवट्ठा० । जह० हाणी भंग ओघ के समान है । इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर नौ मैवेयक तकके देवों में जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि हास्य और रतिको मिध्यात्वके साथ कहलाना चाहिए । सनकुमार कल्पसे लेकर आगे स्त्रीवेद नहीं है। आनत कल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देवोंमें तत्प्रायोग्य संक्लेश और विशुद्धि कहलानी चाहिए । $ ४३१. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सम्यक्त्व, बारह कषाय और सात नोकपायोंकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मवाला जो अन्यतर वेदक सम्यग्दृष्टि जीव तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ उसके उनकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है । उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला जो अन्यतर जीव तत्प्रायोग्य विशुद्धिको प्राप्त हुआ उसके उनकी उत्कृष्ट हा है | तथा उसीके तदनन्तर समयमें उनका उत्कृष्ट अवस्थान होता है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । .९ ४३२. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश | ओघ मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? जो तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला जीव अनन्तभागवृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त हुआ है ऐसे अधःप्रवृत्त मिथ्यादृष्टिक उनकी जघन्य वृद्धि होती है। तथा उसीके तदनन्तर समयमें उनका जघन्य अवस्थान होता है | धन्य हानि किसके होती है ? जो तदनन्तर समयमें संयमको प्राप्त होगा ऐसे अन्तिम समयवर्ती मिध्यादृष्टिके उनकी जघन्य हानि होती है । $ ४३३. सम्यक्त्वकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? जो अनन्तभागवृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त हुआ है ऐसे अधःप्रवृत्त सम्यग्दृष्टिके उसकी जघन्य वृद्धि होती है । तथा उसीके तदनन्तर Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५९ गा० ६२] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए पदणिक्खेवे सामित्तं कस्स ? अण्णद० समयाहियावलियअक्खीणदंसणमोहणीयस्स तस्स जह० हाणी। ४३४. सम्मामि० जह० वड्डी कस्स १ अण्णद. अधापवत्तसम्मामिच्छा. जो अणंतभागेण वड्ढिदो तस्स जह० वड्डी । तस्सेव से काले जह० अवट्ठा० । जह० हाणी कस्स ? अण्णद० चरिमसमयसम्मामिच्छाइद्विस्स से काले सम्मत्तं पडिवजिहिदि त्ति तस्स जह० हाणी। ४३५. अपच्चक्खाण०४ जह० वड्डी कस्स ? अण्णद० अधापवत्तसम्माइद्विस्स जो अणंतभागेण वड्डिदो तस्स जह० वड्डी। तस्सेव से काले जह० अवट्ठा० । जह० हाणी कस्स ? अण्णद० चरिमसमयअसंजदसम्माइडिस्स से काले संजमं गाहिदि त्ति तस्स जह० हाणी । एवं पञ्चक्खाण०४ । णवरि संजदासंजदस्स भाणिदव्वं । ६४३६. चदुसंजल० जह० वड्डी कस्स १ अण्णद० उवसमसेढीदो परिवदमाणगस्स विदियसमयउदीरगस्स तस्स जह० वड्डी । जह० हाणी कस्स ? अण्णद० समयाहियावलियचरिमसमयउदीरगस्स खवगस्स तस्स जह० हाणी । जह० अबट्ठा० कस्स ? 'समयमें जघन्य अवस्थान होता है । जघन्य हानि किसके होती है ? जिसने दर्शनमोहनीयको क्षपणा पूरी नहीं की, उसमें अभी एक समय अधिक एक आवलि काल शेष है ऐसे अन्यतर कृतकत्य. वेदक सम्यग्दृष्टि जीवके उसकी जघन्य हानि होती है। ४३४. सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? जो अनन्तभागवृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त हुआ है ऐसे अन्यतर अधःप्रवृत्त सम्यग्मिध्यादृष्टिके उसकी जघन्य वृद्धि होती है। तथा उसीके तदनन्तर समयमें जघन्य अवस्थान होता है। जघन्य हानि किसके होती है ? जो तदनन्तर समयमें सम्यक्त्वको प्राप्त करेगा ऐसे अन्तिम समयवर्ती अन्यतर सम्यग्मिध्यादृष्टिके उसकी जघन्य हानि होती है। ४३५. अप्रत्याख्यानावरण चतुष्ककी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? जो अनन्तभागवृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त हुआ है ऐसे अन्यतर अधःप्रवृत्त सम्यग्दृष्टिके उसकी जघन्य वृद्धि होती है। तथा उसीके तदनन्तर समयमें जघन्य अवस्थान होता है। जघन्य हानि किसके होती है ? जो अनन्तर समयमें संयमको प्राप्त करेगा ऐसे अन्तिम समयवर्ती अन्यतर असंयत सम्यग्दृष्टिके. उसकी जघन्य हानि होती है। इसी प्रकार प्रत्याख्यानावरणचतुष्ककी अपेक्षा कथन करना चाहिए । इतनी विशेषता है कि संयतासंयतके कहलाना चाहिए। $ ४३६. चार संज्वलनकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? उपशमश्रेणिसे गिर कर दूसरे समयमें उदीरणा करनेवाले अन्यतर जीवके उसकी जघन्य वृद्धि होती है। जघन्य हानि किसके होती है ? क्षपणामें एक समय अधिक एक आवलि काल शेष रहने पर जो क्षपक उदीरणाके अन्तिम समयमें स्थित है ऐसे अन्यतर क्षपकके उसकी जघन्य हानि होती है। जघन्य अवस्थान किसके होता है ? जो अनन्तभागवृद्धि करके अवस्थित है ऐसे अन्यतर १. ता प्रतौ अण्णद० चरिमसमय मच्छाइट्ठिस्स से काले समयाहियावलिय- इति पाठः। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [वेदगो अण्णद० अधापबत्तसंजदस्स अर्णतमागेण वडिगावद्विस्स तस्स जह० अवद्वा० । एवं तिण्णं वेदाणं । ४३७. छण्णोक० जह० वड्डी कस्स ? अण्ण उवसमसेढीदो परिवदमाणगस्स विदियसमयउदीरगस्स तस्स जह० वड्डी । जह. हाणी कस्स ? अण्ण. खवगस्स चरिमसमयअपुवकरणस्स तस्स जह० हाणी । जह• अबडा० कस्स ? अण्ण. अधापवत्तसंजदस्स अणंतभागेण वढियणावडिदस्से तस्स जह. अवट्ठा० । एवं मणुसतिये । णवरि वेदा जाणियव्या। $ ४३८. आदेसेण गेरहय० मिच्छ०-अणंताणु०४ ओघ । णवरि जह० हाणी चरिमसमयमिच्छाइद्विस्स से काले सम्मत्तं पडिवजिहिदि ति मिच्छ, समयाहियावलियचरिमसमयमिच्छाइद्विस्स । सम्म०-सम्मामि० ओघ । पारसक०-सत्तणोक० जह० वड्डी कस्स ? अण्ण० सम्माइडिस्स अणंतभागेण वहिण वड्डी, हाइदूण हाणी, एगदरत्थावट्ठाणं । एवं सव्वणिरयेसु । णवरि विदियादि सत्तमा ति सम्म० बारसकसायभंगो। अधःप्रवृत्त संयतके उसका जघन्य अवस्थान होता है। इसी प्रकार तीन वेदोंकी अपेक्षा जानना चाहिए। ४३७. छह नोकषायोंकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? उपशमश्रेणिसे गिरकर अपनी उदीरणाके दूसरे समयमें विद्यमान अन्यतर उदीरकके उनकी जघन्य वृद्धि होती है। जघन्य हानि किसके होती है ? अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें स्थित अन्यतर क्षपकके उनकी जघन्य हानि होती है । जघन्य अवस्थान किसके होता है ? अनन्तभागवृद्धि करके अवस्थित हुए अन्यतर अधःप्रवृत्त संयतके उनका जघन्य अवस्थान होता है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अपना-अपना वेद जान लेना चाहिए। $ ४३८. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग ओषके समान है । इतनी विशेषता है कि जो तदनन्तर समयमें सम्यक्त्वको प्राप्त करेगा ऐसे अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिके अनन्तानुबन्धोचतुष्ककी जघन्य हानि होती है तथा मिथ्यात्वके एक समय अधिक एक आवलि कालके शेष रहने पर जो,उदीरणाके अन्तिम समयमें स्थित मिथ्या. दृष्टि है उसके मिथ्यात्वकी जघन्य हानि होती है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओषके समान है। बारह कषाय और सात नोकषायोंकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? जो अनन्तभागवृद्धि करके वृद्धिको प्राप्त हुआ है ऐसे अन्यतर सम्यग्दृष्टिके उनकी जघन्य वृद्धि होती है, जो अनन्तभागहानि करके हानिको प्राप्त हुआ है ऐसे अन्यतर सम्यग्दृष्टिके उनकी जघन्य हानि होती है और इनमेंसे किसी एक जगह उनका जघन्य अवस्थान होता है। इसी प्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियों में सम्यक्त्वका भंग बारह कषायोंके समान है। . १. ता प्रतौ वढ्यूिण वडिढ्दस्स इति पाठः । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए पदमिक्खेव सामित्तं १६१ $ ४३९. तिरिक्खेसु मिच्छ० अनंताणु ०४ ओघं । णवरि जह० हाणी चरिमसमयमिच्छसि से काले संजमासंजमं पडिवजिहिदि ति तस्स जह० हाणी । एवमपच्चक्खाण०४ । णवरि सम्माइट्ठिस्स भाणिदव्वं । सम्म० - सम्मामि० ओघं । अट्ठक० - णवणोक० जह० वड्डी कस्स ? अण्णद० संजदासंजदस्स अणंतभागेण वडिदूण बड्डी, हाइदूण हाणी, एगदरत्थावद्वाणं । एवं पंचिदियतिरिक्खतिये । णवरि वेदा जाणिव्वा । जोणिणीसु सम्म० अकसायभंग | ४४०. पंचिदियतिरि० अपज - मणुसअपज० सव्यपय० जह० वड्डी कस्स १ अण्णद० अनंतभागेण वडिदूण वड्डी, हाइगुण हाणी, एगदरत्थावद्वाणं । $ ४४१. देवेसु मिच्छ० - सम्म ० - सम्मामि ० - सोलसक० छण्णोक० णारयभंगो । इत्थवेद - पुरिसवेद ० छण्णोकसायभंगो । एवं सोहम्मीसाण० । एवं सणक्कुमारादि णवगेवजा त्ति । णवरि इत्थवेदो णत्थि । भवण० - वाणवें० - जोदिसि० देवोघं । वरि सम्म० बारसकसायभंगो । अणुदिसादि सव्वट्ठा ति सम्म० - बारसक० - सत्तणोक० आदभंगो। एवं जाव० । $ ४३९. तिर्यों में मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि इनकी जघन्य हानि किसके होती है ? जो तदनन्तर समयमें संयमासंयमको प्राप्त करेगा ऐसे अन्तिम समयवर्ती मिध्यादृष्टिके उनकी जघन्य हानि होती है। इसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरणचतुष्ककी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सम्यग्दृष्टिके कहलाना चाहिए । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। आठ कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? जो अनन्तभागवृद्धि करके वृद्धिको प्राप्त हुआ है ऐसे अन्यतर संयतासंयतके उनकी जघन्य वृद्धि होती है। जो अनन्तभागहानि करके हानि करता है ऐसे अन्यतर संयतासंयतके उनकी जधन्य हानि होती है तथा इनमेंसे किसी एक जगह उनका जघन्य अवस्थान होता है । इसी प्रकार पचेन्द्रिय तिर्यवत्रिक में जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि अपना-अपना वेद जानना चाहिए। तथा योनिनियोंमें सम्यक्त्वका भंग आठ कषायोंके समान है । $ ४४०. पचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में सब प्रकृतियोंकी जघन्य वद्धि किसके होती है ? अनन्तभागवृद्धिसे युक्त अन्यतर जीवके उनकी जघन्य वृद्धि होती है । अनन्तभागहानिसे युक्त अन्यतर जीवके उनकी जघन्य हानि होती है और इनमेंसे किसी एक जगह उनका जघन्य अवस्थान होता है । $ ४४१. देवोंमें मिध्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषायका भंग नारकियोंके समान है । स्त्रीवेद और पुरुषवेदका भंग छह नोकषायोंके समान है । इसी प्रकार सौधर्म और ऐशान कल्पमें जानना चाहिए। इसी प्रकार सनत्कुमार कल्पसे लेकर नौ प्रैवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद नहीं है । भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें भंग सामान्य देवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वका भंग बारह कषायोंके समान है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सम्यक्त्व, बारह कषाय और सात नोकषायोंका भंग आनत कल्पके समान है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । २१ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [ वेदगो७ $ ४४२. अप्पाबहुअं दुविहं-जह० उक्क । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०-सोलसक० सव्वत्थोवा उक्क० वड्डी । अवट्ठा० विसे । हाणी विसेसा० । सम्म०-सम्मामि० सव्वत्थोवा उक्क० हाणी। उक्क० अवट्ठा० तत्तियं चेव । उक्क० वड्डी अणंतगुणा । णवणोक० सव्वत्थोवा उक्क० वड्डी। हाणी अवट्ठा० विसे० । सव्वणिरय-सव्वतिरिक्ख-सव्वमणुस-सव्वदेवा त्ति सम्म०-सम्मामि० ओघं । सेसपय० सव्वत्थोवा उक्क० वड्डी । हाणी अवट्ठा० विसे० । एवं जाव० । ४४३. जह० पयदं। दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०सम्म०-सम्मामि०-बारसक० सव्वत्थोवा जह० हाणी। जह० वड्डी अवट्ठा० अणंतगुणा । चदुसंजल०-णवणोक० सव्वत्थोवा जह० हाणी । जह० वड्डी अणंतगुणा । जह० अवट्ठा० अणंतगुणा । एवं मणुसतिये । णवरि वेदा जाणियव्वा । $४४४. आदेसेण णेरइय० मिच्छ०-अणंताणु०४-सम्म०-सम्मामि० ओघं । बारसक०-सत्तणोक० जह० वड्डी हाणी अवट्ठा० तिण्णि वि सरिसाणि । एवं सव्वणेर० । णवरि विदियादि सत्तमा ति सम्म० जह० वड्डी हाणी अवट्ठा० तिण्णि वि सारिसाणि । $ ४४२. अल्पबहुत्व दो प्रकारका है जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट वृद्धि सबसे स्तोक है । उससे उत्कृष्ट अवस्थान विशेष अधिक है। उससे उत्कृष्ट हानि विशेष अधिक है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी उत्कृष्ट हानि सबसे स्तोक है। उत्कृष्ट अवस्थान उतना ही है। उससे उत्कृष्ट वृद्धि अनन्तगुणी है। नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट वृद्धि सबसे स्तोक है। उससे उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान विशेष अधिक है। सब नारकी, सब तिर्यञ्च, सब मनुष्य और सव देवोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंको उत्कृष्ट वृद्धि सबसे स्तोक है। उससे उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान विशेष अधिक है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ४४३. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और बारह कषायोंकी जघन्य हानि सबसे स्तोक है। उससे जघन्य वृद्धि और जघन्य अवस्थान अनन्तगुणे हैं । चार संज्वलन और नौ नोकषायोंकी जघन्य हानि सबसे स्तोक है । उससे जघन्य वृद्धि अनन्तगुणी है। उससे जघन्य अवस्थान अनन्तगुणा है । इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अपना-अपना वेद जानना चाहिए। ४४४. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। बारह कषाय और सात नोकषायोंकी जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान तीनों ही सदृश हैं। इसी प्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें सम्यक्त्वकी जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान तीनों हो सदृश हैं। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०६२] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए वड्डीए समुक्कित्तणा १६३ ६४४५. तिरिक्खेसु मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि०-अट्ठक. ओघं । अट्ठक०णवणोक० तिण्णि वि पदाणि सरिसाणि । एवं पंचिंदियतिरिक्खतिये । णवरि वेदा जाणिदव्वा । जोणिणीसु सम्म० तिण्णि वि सरिसाणि । पंचिंदियतिरि०अपज०-मणुसअपज० सव्वपय० जह० वड्डी हाणी अवट्ठा० तिण्णि वि सरिसाणि । ४४६. देवेसु मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि०-अणंताणु०४ ओघ । बारसक०अढणोक० तिण्णि वि सरिसाणि । एवं भवणादि सोहम्मा ति । णवरि भवण०वाणवें०-जोदिसि० सम्म० तिण्णि वि सरिसाणि । सणक्कुमारादि णवगेवजा ति देवोघं । णवरि इत्थिवेदो णत्थि । अणुदिसादि सव्वट्ठा त्ति सम्म०-बारसक०-सत्तणोक० आणदभंगो । एवं जाव० । एवं पदणिक्खेवो समत्तो। ६४४७. वड्डि त्ति तत्थ इमाणि तेरस अणियोगद्दाराणि-समुक्कित्तणा जाव अप्पाबहुगे त्ति । समुक्कित्तणाणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओषेण आदेसेण य । ओघेण सव्वपय० अत्थि छवड्डि०-छहाणि-अवढि०-अवत्त० । आदेसेण रहय० मिच्छ०सोलसक०-सत्तणोक०-सम्म०-सम्मामि० ओघं । णवरि णवंस० अवत्त० णत्थि । एवं सव्वणिरय० । ६४४५. तिर्यश्चोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और आठ कषायोंका भंग ओघके समान है । आठ कषाय और नौ नोकषायोंके तीनों ही पद सदृश हैं। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपना-अपना वेद जान लेना चाहिए। योनिनियोंमें सम्यक्त्वके तीनों ही पद सदृश हैं। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य वद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान तीनों ही सदृश हैं। - ४४६. देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तनुबन्धीचतुष्कका भंग ओघके समान है। बारह कषाय और आठ नोकषायोंके तीनों ही पद सदृश हैं। इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर सौधर्म-ऐशान कल्प तक जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें सम्यक्त्वके तीनों ही पद सदृश हैं। सनत्कुमारसे लेकर नौ प्रैवेयक तकके देवोंमें सामान्य देवोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद नहीं है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सम्यक्त्व, बारह कषाय और सात नोकषायोंका भंग आनत कल्पके समान है। इसी प्रकार अनाहारक मार्ग तक जानना चाहिए। ___इस प्रकार पदनिक्षेप समाप्त हुआ। $४४७. वृद्धिका प्रकरण है। उसमें ये तेरह अनुयोगद्वार है-समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तक । समुत्कीर्तनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे सब प्रकृतियोंके छह वृद्धि, छह हानि, अवस्थित और अवक्तव्य पद हैं । आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात-नोकषाय, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेदका अवक्तव्य पद नहीं है। इसी प्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १६४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ ___४४८. तिरिक्खाणमोघं । एवं पंचिंदियतिरिक्खतिये । णवरि पजे० इत्थिवेदो पत्थि । जोणिणीसु पुरिस०-णवंस० पत्थि । इथिवे० अवत्त० णत्थि । पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज०-मणुसअपज्ज० मिच्छ-णस० ओघं । णवरि अवत्त० पत्थि । सोलसक०-छण्णोक० ओघ । ४४९. मणुसतिये ओघं । णवरि पन्ज० इथिवेदो णत्थि। मणुसिणी० पुरिसवेद-णवूस० णत्थि । देवेसु ओघं । णवरि णस० णत्थि । इत्थिवे०-पुरिसवे० अवत्त० णत्थि । एवं भवणादि सोहम्मा त्ति । एवं सणक्कुमारादि गवगेवजा त्ति । गवरि इत्थिवेदो णत्थि । अणुदिसादि सव्वट्ठा ति सम्म०-बारसक०-सत्तणोक० आणदभंगो। एवं जाव० । ४५०. सामित्ताणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०-अणंताणु०४ सव्वपदा कस्स ? अण्णद० मिच्छाइद्विस्स । सम्म० सव्वपदा कस्स ? अण्णद० सम्माइट्ठिस्स । सम्मामि० सव्वपदा कस्स ? अण्णद० सम्मामिच्छाइहिस्स । बारसक०-णवणोक० सव्वपदा कस्स ? अण्णद० सम्माइटिस्स मिच्छाइट्टि । $४४८. तिर्यश्चोंमें ओघके समान भंग है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेद नहीं है तथा योनिनियों में पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं है । तथा योनिनियों में स्त्रीवेदका अवक्तव्य पद नहीं है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व और नपुंसकवेदका भंग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि यहाँ इनका अवक्तव्य पद नहीं है । सोलह कषाय और छह नोकषायोंका भंग ओघके समान है। $ ४४९. मनुष्यत्रिकमें ओघके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेद नहीं है तथा मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं है । देवोंमें ओघके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि इनमें नपुंसकवेद नहीं है । तथा इनमें स्त्रीवेद और पुरुषवेदका अवक्तव्य पद नहीं है। इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर सौधर्म-ऐशान कल्पतकके देवोंमें जानना चाहिए । इसी प्रकार सनत्कुमार कल्पसे लेकर नौ प्रैवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद नहीं है । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सम्यक्त्व, बारह कषाय और सात नोकषायोंका भंग आनत कल्पके समान है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ४५०. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके सब पद किसके होते हैं ? अन्यतर मिथ्यादृष्टिके होते हैं । सम्यक्त्वके सब पद किसके होते हैं ? अन्यतर सम्यग्दृष्टिके होते हैं। सम्यग्मिध्यात्वके सब पद किसके होते हैं ? अन्यतर सम्यग्मिथ्यादृष्टिके होते हैं। बारह कषाय और नौ नोकषायोंके सब पद किसके होते हैं ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिके होते हैं। १. आ प्रतौ अपज० इति पाठः । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए वड्डीए एयजीवेण कालो १६५ $ ४५१. आदेसेण णेरइय० मिच्छ० - सोलसक० - सत्तणोक ० - सम्म० - सम्मामि० ओघं । णवरि णव स० अवत्त० णत्थि । तिरिक्खेसु ओघं । णवरि तिण्णिवे० अवत्त० कस्स ? अण्णद० मिच्छाइट्ठिस्स । एवं पंचि०तिरिक्खतिये | वरि वेदा जाणिव्वा । जोणिणीसु इत्थवे० अवत्त० णत्थि । पंचिं ० तिरि० अपज० - मणुसअपञ्ज० अणुदिसादि सव्वाति सव्वपयडी० सव्वपदा० कस्स ? अण्णद० । $ ४५२. मणुसतिये ओघं । णवरि वेदा जाणियव्वा । मणुसिणीसु इत्थवे० अवत्त० कस्स ? अण्णद० सम्माइडि० । देवेसु ओघं । णवरि णवुस० णत्थि । इत्थवे ० - पुरिसवे० अवत्त० णत्थि । एवं भवणादि सोहम्मा ति । एवं सणकुमारादि णवगेवजा त्ति । णवरि इत्थवेदो णत्थि । एवं जाव । $ ४५३. कालानुगमेण दुविहो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण सव्वपय० पंचवड्डि- पंचहाणी ० जह० एस ०, उक्क० आवलि० असंखे ० भागो । अनंतगुणवड्डिहाणी ० जह० यस०, उक्क० अंतोमु० । अवट्ठि० जह० एगस०, उक्क० सत्तसमया । अवत्त० जह० उक्क० एस० । सव्वणिरय - सव्यतिरिक्ख - सव्वमणुस - सव्वदेवात्ति $ ४५१. आदेश से नारकियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि इनमें नपुंसक वेदका अवक्तव्य पद नहीं है । तिर्यों में ओघके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि तीन वेदोंका अवक्तव्य पद किसके होता है ? अन्यतर मिध्यादृष्टिके होता है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपना-अपना वेद जान लेना चाहिए | योनिनियोंमें स्त्रीवेदका अवक्तव्य पद नहीं है । पचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में तथा नौ अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सब प्रकृतियोंके सब पद किसके होते हैं ? अन्यतरके होते हैं । $ ४५२. मनुष्यत्रिक में ओघके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि अपना-अपना वेद जान लेना चाहिए । मनुष्यिनियोंमें स्त्रीवेदका अवक्तव्य पद किसके होता है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि होता है । देवोंमें ओघके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि इनमें नपुंसक - वेद नहीं है । तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेदका अवक्तव्य पद नहीं है । इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर सौधर्म-ऐशान कल्प तकके देवोंमें जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार सनत्कुमारसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। 'इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद नहीं है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । $ ४५३. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश | ओघसे सब प्रकृतियोंकी पाँच वृद्धि और पाँच हानियोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानिका जघन्य का एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित पदका 'जघन्य काल एक समय है। और उत्कृष्ट काल सात-आठ समय है । अवक्तव्य पदका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । सब नारकी, सब तिर्यन, सब मनुष्य और सब देव जिन प्रकृतियोंकी उदीरणा Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ जंयधबलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ जाओ पयडीओ उदीरिजंति तासि जाणि पदाणि अत्थि तेसिमोघं । एवं जाव० । $ ४५४. अंतराणुगमेण दुविहो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०अनंता ०४ पंचवड - पंचहाणि - अवट्टि० जह० एगस ०, उक्क० असंखेज्जा लोगा । अनंत गुणवडि-हाणी० जह० एयस०, उक्क० वेछावट्टिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । अवत० भुजगारभंगो । सम्म० - सम्मामि० छवड्डि- हाणि - अवंट्ठि० जह० एयस०, अवत्त० जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० उवडपोग्गलपरियङ्कं । अट्ठक० पंचवढि - हाणि - अवट्ठि ० जह० एस ०, उक्क० असंखेजा लोगा । अनंतगुणवड्डि- हाणि - अवत्त० जह० एस ० अंतोमु०, उक्क० पुव्वकोडी देखणा । चदुसंजल० - भय - दुगंछ० एवं चैव । णवरि अनंत गुणवड्डि-हाण - अवत्त० जह० एस ०, उक्क० अंतोमु० । एवं णव स० । णवरि अनंत गुणवडि-हाणी० जह० एगस०, उक्क० सागरोवम सदपुंधत्तं । अवत्त० भुजगारभंगो | एवं हस्त-रदि० । णवरि अनंतगुणवड्डि- हाणि - अवत्त० जह० एस० अंतोमु०, करते हैं और उनके जो पद हैं उनका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ — पाँच वृद्धियों और पाँच हानियोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होनेसे यहाँ सब प्रकृतियोंकी उक्त वृद्धियों और हानियोंका उक्त काल कहा है । सब प्रकृतियोंके अवस्थित पदका जघन्य काल समय और उत्कृष्ट काल सात-आठ समय बन जानेसे यह उक्तप्रमाण है । इनके अवक्तव्य पदका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय होनेसे उसे तत्प्रमाण बतलाया है। शेष कथन स्पष्ट ही है । $ ४५४. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश | ओघसे मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी पाँच वृद्धि, पाँच हानि और अवस्थितपदका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है । अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानिका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक दो छयासठ सागरोपम है । अवक्तव्यका भंग भुजगारके समान है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी छह वृद्धि, छह हानि और अवस्थित पदका जघन्य अन्तरकाल एक समय है, अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्ध पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है । आठ कषायोंकी पाँच वृद्धि, पाँच हानि और अवस्थितपदका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है । अनन्त गुणवृद्धि, अनन्तगुणहानि और अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तरकाल एक समय और अवक्तव्यपदका अन्तर्मुहूर्त है तथा सबका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। चार संज्वलन, भय और जुगुप्साका भंग इसी प्रकार है । इतनी विशेषता है कि इनकी अनन्तगुणवृद्धि, अनन्तगुणहानि और अवक्तव्यपदका जधन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । इसीप्रकार नपुंसकवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसकी अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानिका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल सौ सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण है। अवक्तव्य पदका भंग भुजगारके समान है। इसी प्रकार हास्य और रतिकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनकी अनन्तगुण Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिअणुभाग उदीरणाए वड्ढोए एयजीवेण अंतरं १६७ जह० एयस०, एगस उक्क० तेत्तीस सागरो० सादिरेयाणि । एवमरदि-सोग० । णवरि अनंतगुणवड्डि- हाणि० उक्क० छम्मासं । इत्थिवेद - पुरिसवेद० छवड्डि- हाणि - अवडि० जह० अवत्त० जह० अंतोमु०, उक्क० सव्वेसिमणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । $ ४५५. आदेसेण णेरइय० मिच्छ०- सम्म० - सम्मामि ० - अनंताणु ०४ - हस्सरदि० छवड्ढि - हाणि - अवडि० जह० एस ०, अवत्त० जह० अंतोमु०, उक्क० सव्वेसिं तेत्तीस सागरोवमाणि देणाणि । एवमरदि-सोग० । णवरि अनंतगुणवड्डि- हाणि० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । एवं बारसक० - भय - दुर्गुछ० । णवरि अवत्त० जह० उक्क० अंतोमु० । एवं ण स० । णवरि अवत्त० णत्थि । एवं सत्तमाए । पढमादि जाव छट्टि त्ति एवं चैव । णवरि' सगट्ठिदी देभ्रूणा । हस्स - रदि - अरदि - सोग० भयभंगो । 1 $ ४५६. तिरिक्खेसु मिच्छ० - अनंताणु ०४ ओघं । णवरि अणंतगुणवड्डि-हाणी० जह० एस ०, उक्क० तिरिण पलिदो० देणाणि । अवत्त० भुज०भंगो । सम्म०वृद्धि अनन्तगुणहानि और अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तरकाल दोका एक समय और अवक्तव्यपदका अन्तर्मुहूर्त है तथा सबका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तेतीस सागरोपम है । इसी प्रकार अरति और शोककी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनकी अन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानिका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है । स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी छह वृद्धि, छह हानि और अवस्थित पदका जघन्य अन्तरकाल एक समय और अवक्तव्य पदका अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनोंके बराबर है । विशेषार्थ — पहले भुजगार अनुयोगद्वार में सब प्रकृतियोंके भुजगारादि पदोंके अन्तरकालका स्पष्टीकरण कर आये हैं । उसे ध्यानमें रखकर यहाँ स्पष्टीकरण कर लेना चाहिए । समझमें आने लायक होनेसे यहाँ अलगसे स्पष्टीकरण नहीं किया है । ܕܤ $ ४५५. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धीचतुष्क, हास्य और रतिकी छह वृद्धि, छह हानि और अवस्थित पदका जघन्य अन्तरकाल एक समय है, अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम है । इसी प्रकार अरति और शोककी अपेक्षा जाना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनकी अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानिका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके अवक्तव्य पदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार नपुंसकवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि यहाँ इसका अवक्तव्य पद नहीं है । इसी प्रकार सातवीं पृथिवीनें जानना चाहिए। पहली पृथिवीसे लेकर छटी पृथिवी तक इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए । तथा इनमें हास्य, रति, अरति और शोकका भंग भयके समान है। $ ४५६. तिर्यों में मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग ओघ के समान है । इतनी विशेषता है कि अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानिका जघन्य अन्तरकाल एक समय १. आ०प्रतौ सत्तमाए । एवं पढमादि जाव छट्ठि त्ति । णवरि इति पाठः । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ सम्मामि०-अपञ्चक्खाण०४-इत्थिवे.-पुरिसवे. ओघं। अट्ठक०-छण्णोक० ओघसंजलणभंगो। णवुस० ओघं । णवरि अणंतगुणवड्डि-हाणी. जह० एयस०, उक्क० पुव्वकोडि'धत्तं । सवपंचिंदियतिरिक्ख-सव्यमणुस-सव्वदेवा त्ति सव्वपयडी० पंचवड्डि-हाणि-अवढि० भुज अवविदभंगो । अणंतगुणवड्डि-हाणी० भुजगारउदीरणाए भुज०अप० भंगो । अवत्त० भुजगारअवत्त०भंगो । एवं जाव० । ४५७. णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०-णqस० छबड्डि-हाणि-अवट्टि० णिय० अत्थि । अवत्त० भयणिज्जं । सम्म०-इत्थिवे०-पुरिसवेद० अणंतगुणवड्डि-हाणी० णिय० अत्थि । सेसप० भयणिज्जा । सम्मामि० सवपदा भयणिजा। सालसक०-छण्णोक० सव्वपदा णिय० अस्थि । एवं तिरिक्खा। $ ४५८. सव्वणिरय-पंचिंदियतिरिक्खतिय-मणुसतिय-देवा जाव गवगेवजा त्ति सम्मामि० ओघं । सेसपय० अणंतगुणवडि-हाणी० णिय अस्थि । सेसपदा भयणिज्जा । पंचिंदियतिरिक्खअपज०-अणुदिसादि सव्वट्ठा त्ति सव्यपय० अणंतगुणवड्डिहाणी. णिय०. अत्थि । सेसपदा भयणिजा । मणुसअपज. सव्वपय० सव्वपदा है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तीन पल्योपम है । अवक्तव्यपदका भंग भुजगारके समान है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क, स्त्रीवेद और पुरुषवेदका भंग ओघके समान है। आठ कषाय और छह नोकषायोंका भंग ओघ संज्वलनके समान है। नपुंसकवेदका भंग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि इसकी अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानिका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, सब मनुष्य और सब देवोंमें सब प्रकृतियोंकी पाँच वद्धि, पाँच हानि और अवस्थित पदका भंग भुजगार अनुयोगद्वारके अवस्थित पदके समान है। अनन्तगुणवृद्धि औरअनन्तगुणहानिका भंग भुजगार उदीरणाके भुजगार और अल्पतर पदके समान है। अवक्तव्य पदका भंग भुजगारके अवक्तव्य पदके समान है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ६४५७. नाना जीवोंका अवलम्बन लेकर भंगविचयानगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकार है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्व और नपुंसकवेदकी छह वृद्धि, छह हानि और अवस्थित पद नियमसे हैं । अवक्तव्य पद भजनीय है। सम्यक्त्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानि नियमसे है। शेष पद भजनीय हैं। सम्यग्मिथ्यात्वके सब पद भजनीय हैं । सोलह कषाय और छह नोकषायोंके सब पद नियमसे हैं। इसी प्रकार तिर्यश्चोंमें जानना चाहिए। ..$ ४५८. सब नारकी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक, मनुष्यत्रिक और सामान्य देवोंसे लेकर नौ प्रैवेयक तकके देवोंमें सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंकी अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानि नियमसे है। शेष पद भजनीय हैं । पश्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त तथा अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सब प्रकृतियोंकी अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानि नियमसे है । शेष पद भजनीय हैं। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंके सब पद Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए वड्डीए भागाभागाणुगमो भयणिज्जा । सव्वत्थ भंगा जाणिय वत्तव्वा । एवं जाव०। 5 ४५९. भागाभागाणुगमेण दुविहो णिदेसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०-णवुस० अणंतगुणवड्डी० दुभागो सादिरेयो । हाणी० दुभागो देसूणो । अवत्त० अणंतभागो । सेसपदा० असंखे०भागो। एवं सोलसक०-अट्ठणोक०-सम्म०सम्मामि० । णवरि अवत्त० केवडिओ भागो ? असंखे०भागो । एवं तिरिक्खा० । ४६०. सव्वणिरय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुसअपज --देवा जाव अवराजिदा त्ति सव्वपय० अणंतगुणवड्डी० दुभागो सादिरेगो । हाणी० दुमागो देसूणो । सेसपदा० असंखे०भागो । मणुसेसु मिच्छ०-सोलणक०-सत्तणोक० णारयभंगो । सम्म०सम्मामि०-इत्थिवेद-पुरिसवेद० अणंतगुणवड्डी० दुभागो सादिरेओ । हाणी. दुभागो देसूणो । सेसपदा० संखे०भागो। मणुसपज०-मणुसिणी-सव्वट्ठदेवा० सव्वपयडी० अणंतगुणवड्डी० दुभागो सादिरे० । अणंतगुणहा० दुभागो देसू० । सेसपदा० संखे०भागो । एवं जाव० । भजनीय हैं। सर्वत्र भंग जानकर कहना चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। $ ४५९. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व और नपुंसकवेदकी अनन्तगुणवृद्धि अनुभागके उदीरक जीव साधिक द्वितीय भागप्रमाण हैं । उनसे अनन्तगुणहानि अनुभागके उदीरक जीव कुछ कम द्वितीय भागप्रमाण हैं। अवक्तव्य अनुभागके उदीरक जीव अनन्तवें भागप्रमाण हैं। शेष पदरूप अनुभागके उदीरक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । इसी प्रकार सोलह कषाय, आठ नोकषाय, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अवक्तव्य अनुभागके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। इसी प्रकार तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। $४६०. सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त और सामान्य देवोंसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें सब प्रकृतियोंकी अनन्तगुणवृद्धि अनुभागके उदीरक जीव साधिक द्वितीय भागप्रमाण हैं। अनन्तगुणहानि अनुभागके उदीरक जीव कुछ कम द्वितीय भागप्रमाण हैं। शेष पदरूप अनुभागके उदीरक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। मनुष्योंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंका भंग नारकियोंके समान है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी अनन्तगुणवृद्धि अनुभागके उदीरक जीव साधिक द्वितीय भागप्रमाण हैं। अनन्तगुणहानि अनुभागके उदीरक जीव कुछ कम द्वितीय भागप्रमाण हैं । शेष पदरूप अनुभागके उदीरक जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं । मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें सब प्रकृतियोंकी अनन्तगुणवृद्धि अनुभागके उदीरक जीव साधिक द्वितीय भागप्रमाण हैं । अनन्तगुणहानि अनुभागके उदीरक जीव कुछ कम द्वितीय भागप्रमाण हैं । शेष पदरूप अनुभागके उदीरक जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । २२ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ $ ४६१. परिमाणाणुगमेण दुविहो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ० - सोलसक० - सत्तणोक० सव्वपदा० केतिया : अनंता । णवरि मिच्छ०णवुंस० अवत्त० केत्ति ० १ असंखेजा । सम्म० - सम्मामि ० - इत्थिवे ० - पुरिसवे ० सव्वपदा० केत्ति ० १ असंखेजा । एवं तिरिक्खा ० । $ ४६२. सव्वणिरय - सव्वपंचिदियतिरिक्ख - मणुसअप ० - देवा जाव णवगेवजा ति सव्वपयडी० सव्वपदा० केत्तिया ? असंखेज्जा । मणुसाणं पंचिदियतिरिक्खभंगो । णवरि मिच्छ०- णवुंस० अवत० इत्थिवे० - पुरिसवे ० - सम्म ० - सम्मामि० सव्वपदा० के० ९ संखेजा । मणुसपञ्ज० - मणुसिणी - सव्वदेवा सव्वपय० सव्वपदा० केत्ति० १ संखे | अणुदिसादि अवराजिदा त्ति सव्वपय० सव्वपदा० के० १ असंखेजा । णवरि सम्म० अवत्त० केत्ति ० १ संखेजा । एवं जाव० । $ ४६३. खेत्ताणुगमेण दुविहो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०सोलसक० - सत्तणोक० ६० सव्वपदा० सव्वलोगे । णवरि मिच्छ०-ण स० अवत्त० लोग० • असंखे ० भागे । सम्म० - सम्मामि ० - इत्थि वेद - पुरिसवेद० सव्वपदा० लोग • असंखे ० भागे । ० - $ ४६१. परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंके सब पदोंके अनुभागके उदीरक जीव कितने हैं । अनन्त हैं । इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व और नपुंसकवेदके अवक्तव्य अनुभागके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदके सब पदरूप अनुभागके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । इसी प्रकार तिर्यों में जानना चाहिए । $ ४६२. सब नारकी, सब पचेन्द्रिय तिर्यन, मनुष्य अपर्याप्त और सामान्य देवोंसे लेकर नौ प्रैवेयक तक के देवोंमें सब प्रकृतियोंके सब पदोंके अनुभागके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। मनुष्यों में पचेन्द्रिय तिर्योंके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व और नपुंसकवेदके अवक्तव्य अनुभागके उदीरक जीव तथा स्त्रीवेद, पुरुषवेद, सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वके सब पद- अनुभागके उदीरक जीव कितने है ? संख्यात हैं । मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें सब प्रकृतियोंके सब पद- अनुभागके उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । अनुदिशसे लेकर अपराजित विमान तकके देवों में सब प्रकृतियोंके सब पद- अनुभागके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वके अवक्तव्य अनुभाग के उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । $ ४६३. क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व, सोलहु कषाय और सात नोकषायोंके सब पद- अनुभागके उदीरक जीवोंका क्षेत्र सर्व लोकप्रमाण है । इतनी विशेषता है कि मिध्यात्व और नपुंसकवेदके अवक्तव्य अनुभागके उदीरक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदके सब पद- अनुभागके उदीरक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार तिर्यों में जानना चाहिए। शेष गतियों में सब प्रकृतियोंके सब पद- अनुभागके Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०६२] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए बड्डीए पोसणाणुगमो एवं तिरिक्खा० । सेसगदीसु सव्वपयडी० सव्वपदा० लोग० असंखे भागे । एवं जाव०। ४६४. पोसणाणुगमेण दुविहो णिहेसो-ओघेण आदेसेण य । ओषेण मिच्छ०-णस० सव्वपद० सव्वलोगो। गवरि मिच्छ० अवत्त० लोग० असंखे०मागो अट्ठ बारह चोद्दस० दे० । गQस० अवत्त० लोग० असंखे भागो सव्वलोगो वा । सम्म०- सम्मामि० सव्वपद० लोग० असंखे०भागो अट्ठ चोदस० देरणा। सोलसक०छण्णोक० सव्वपद० सव्वलोगो । इत्थिवेद-पुरिसवेद० सव्वपद० लोग० असंखे०मागो अट्ट चोइस० सव्वलोगो वा । णवरि अवत्त० णवंस०मंगो। ___ ४६५. आदेसेण रहय० मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोक० सव्वपद० लोग० असंखे०भागो छ चोद्दस० । णवरि मिच्छ० अवत्त० लोग० असंखेमागो पंच चोदसः । सम्म० सम्मामि० खेत्तं । एवं विदियादि सत्तमा ति । वरि सगपोसणं । णवरि उदीरक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ६४६४. स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्व और नपुंसकवेदके सब पद-अनुभागके उदीरकोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वके अवक्तव्य अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग और कुछ कम बारह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा नपुंसकवेदके अवक्तव्य अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके सब पद-अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सोलह कषाय और छह नोकषायोंके सब पद-अनुभागके उदीरकोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदके सब. पद-अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग, सनालोके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि इनके अवक्तव्य अनुभागके उदीरकोंका भंग नपुंसकवेदके समान है। विशेषार्थ-स्वामित्व और भुजगार अनुयोगद्वारमें प्रतिपादित स्पर्शनके स्पष्टीकरणको भ्यानमें रख कर प्रकृतमें खुलासा कर लेना चाहिए। विशेष वक्तव्य न होनेसे यहाँ अलगसे स्पष्टीकरण नहीं किया। आगे भी इसी न्यायसे स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए। ४६५. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंके सब पद-उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व के अवक्तव्य अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह मांगोंमेंसे कुछ कम पाँच भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग क्षेत्रके समान है। इसी प्रकार दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें जानना चाहिए। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ सत्तमाए मिच्छ० अवत्त० खेत्त० । पढमाए खेत्तमंगो। ६४६६. तिरिक्खेसु मिच्छ० सव्बपद० सव्वलोगो । णवरि अवत्त० सत्त चोदस० । सम्म० सव्वपद० लोग० असंखे०भागो छ चोद्दस० । णवरि अवत्त० खेत्तं । सम्ममि० खेत्तं । सोलसक०-सत्तणोक० ओघं । इथिवेद-पुरिसवेद. सव्वपद० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । ४६७. पंचिं०तिरि०तिये सम्म०-सम्मामि० तिरिक्खोघं । सेसपय० सव्वपद० लोग. असंखे०भागो सव्वलोगो वा । णवरि मिच्छ० अवत्त० सत्त चोदस० । तिण्णिवेद० अवत्त० खेत्तं । णवरि पज्ज० इत्थिवेदो पत्थि । जोणिणीसु पुरिस०णस० पत्थि । इत्थिवेद० अवत्तव्वं च णत्थि । ___ ४६८. पंचिंदियतिरिक्खअपज०-मणुसअपज० सव्वपयडीणं सव्वपद० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । मणुसतिये पंचिंदियतिरिक्खतियभंगो । णवरि सम्म० खेत्तं । मणुसिणीसु इत्थिवेद० अवत्त० खेत्तं ।। इतनी विशेषता है कि अपना-अपना स्पर्शन कहना चाहिए । इतनी विशेषता और है कि सातवीं पृथिवीमें मिथ्यात्वके अवक्तव्य अनुभागके उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। पहली पृथिवीमें भंग क्षेत्रके समान है। ४६६. तिर्यश्चोंमें मिथ्यात्वके सब पद-अनुभागके उदीरकोंने सर्वलोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि इसके अवक्तव्य अनुभागके उदीरकोंने त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम सात भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्वके सब पदअनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि इसके अवक्तव्य अनुभागके उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। सम्यग्मिथ्यात्वका भंग क्षेत्रके समान है। सोलह कषाय और सात नोकपायोंका भंग ओघके समान है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदके सब पद-अनुभागके_ उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। ४६७. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। शेष प्रकृतियोंके सव पद-अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वके अवक्तव्य अनुभागके उदीरकोंने त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम सात भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तीन वेदोंके अवक्तव्य अनुभागके उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इतनी विशेपता है कि पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेद नहीं है तथा योनिनियोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं है। तथा योनिनियों में स्त्रीवेदकी अवक्तव्य अनुभाग उदीरणा भी नहीं है। ४६८. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंके सब पद अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । मनुष्यत्रिकमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वका भंग क्षेत्रके समान है। मनुष्यनियोंमें स्त्रीवेदके अवक्तव्य अनुभागके उदीरकोंका स्पर्श न क्षेत्रके समान है। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०६२] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए वड्डीए णाणाजीवेहिं कालाणुगमो १७३ $ ४६९. देवेसु सम्म०-सम्मामि० ओघं । सेसपयडीणं सव्वपद० लोग० असंखे भागो अढ णव चोदस० देसूणा । एवं सोहम्मीसाण । भवण- वाणवें०जोदिसि० सम्म०-सम्मामि० सव्वपद० लोग० असंखे०भागो अट्ठा वा अट्ठ चोद्दस० । सेसपयडी० सव्वपद० लोग० असंखे०भागो अद्भुट्ठा वा अट्ठ णव चोदस० । सणकुमारादि जाव सहस्सार ति सव्वपय० सव्वपद० लोग० असंखे०भागो अट्ठ चोद० । आणदादि जाव अचुदा ति सव्वपय० सव्वपद० लोग० असंखे०भागो छ चोइस० । उवरि खेत्तभंगो । एवं जाव० । ४७०. कालाणु० दुविहो •णिद्देसो-ओघेण आदेसे० य । ओघेण मिच्छ०सोलसक०-सत्तणोक० सव्वपदा० सम्वद्धा । णवरि मिच्छ०-णवुस० अवत्त० जह. एयस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो । सम्म०-इत्थिवे०-पुरिसवे० अणंतगुणवड्डिहाणी० सव्वद्धा । सेसपदा० जह० एयस०, उक्क० आवलि० असं०भागो । सम्मामि० $ ४६९. देवोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंके सब पद-अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा सनालोके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पशन किया है। इसी प्रकार सौधर्म और ऐशान कल्पमें जानना चाहिए । भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके सब पद-अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम साढ़े तीन भाग और कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष प्रकृतियोंके सब पद-अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम साढ़े तीन भाग, कुछ कम आठ भाग और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देवोंमें सब प्रकृतियोंके सब पद-अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालोके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आनत कल्पसे लेकर अच्युत कल्प तकके देवोंमें सब प्रकृतियोंके सब पद-अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आगेके देवोंमें क्षेत्रके समान भंग है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा वक जानना चाहिए। ६ ४७०. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व सोलह कषाय और सात नोकषायोंके सब पद-अनुभागके उदीरकोंका काल सर्वदा है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व और नपुंसकवेदके अवक्तव्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । सम्यक्त्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदके अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानि अनुभागके उदीरकोंका काल वेदा है। शेष पद-अनुभागके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सम्यग्मिथ्यात्वका भंग इसी प्रकार है। इतनी विशेषता है कि अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानि अनुभागके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वैदगो ७ एवं चैव । णवरि अनंतगुणवड्डि-हाणी० जह० एयस०, उक्क० पलिदो • असंखे ० भागो । I ० एवं तिरिक्खा ० । ४७१. सव्वणिरय - सव्वपंचिदियतिरिक्ख- देवा जाव णवगेवजा त्ति सम्मामि० ओषं । सेसपय • अनंतगुणवड्डि-हाणी० सव्वद्धा । सेसपदा० जह० एयस ०, आवलि • असंखे ० भागो । 1 उक० ४७२. मणुसा० पंचिंदियतिरिक्खभंगो | णवरि मिच्छ०- णवं स० अवत्त० सम्म० - इत्थि वे० - पुरिस० अवट्ठि ० - अवत्त० जह० एयंस ०, उक्क० संखेजा समया । सम्मामि० अणंतगुणवडि-हाणी० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० | पंचवड्डि-हाणी ० जह० एयस०, उक्क० आवलि० असंखे ० भागो । अवट्ठि ० - अवत्त० जह० एयस०, उक्क० संखे० समया । एवं मणुसपञ्ज० - मणुसिणी० । णवरि मिच्छ० - सोलसक०सत्तणोक० अवट्ठि ० – अवत्त० जह० एगस०, उक्क० संखे ० समया । णवरि पज० इत्थवेदो णत्थि । मणुसिणीसु पुरिस०- णव स० णत्थि । मणुसअपञ्ज० मिच्छ०सोलसक० - सत्तणोक० अणंतगुणवड्डि-हाणी० जह० एयस ०, उक्क० पलिदो ० असंखे० भागो | सेसपदा० जह० एयस०, उक्क० आवलि० असंखे ० भागो । और उत्कृष्ट का पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार सामान्य तिर्यों में जानना चाहिए । $ ४७१. सब नारकी, सब पचेन्द्रिय तिर्यन और सामान्य देवोंसे लेकर नौ मैवेयक तकके देवोंमें सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंके अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानि अनुभागके उदीरकोंका काल सर्वदा है। शेष पद अनुभागके उदीरकों का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । $ ४७२. मनुष्यों में पचेन्द्रिय तिर्यश्नोंके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व और नपुंसकवेदके अवक्तव्य अनुभागके उदीरकोंका तथा सम्यक्त्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदके अवस्थित और अवक्तव्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । सम्यग्मिथ्यात्व के अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानि अनुभागके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । पाँच वृद्धि और पाँच हानि अनुभागके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अवस्थित और अवक्तव्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मिध्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंके अवस्थित और अवक्तव्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकों में स्त्रीवेद नहीं है तथा मनुष्यिनियों में पुरुपवेद और नपुंसक वेद नहीं है । मनुष्य अपर्याप्तकों में मिध्यात्व, सोलह कषाय और सात ravira अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानि अनुभागके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। शेष पद- अनुभागके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणा वड्डीए णाणाजीवेहिं अंतरानुगमो १७५ ९४७ ३. अणुदिसादि सव्वट्ठा त्ति सव्वपय० अणंतगुणवड्डि - हाणी० सव्वद्धा । सेसपदा ० ० जह० एयस०, उक्क० आवलि० असं० भागो । णवरि सम्म० अवत्त० जह० एस०, उक्क० संखेज समया । णवरि सव्वट्ठे सव्वपय० अवट्ठि ० - अवत्त० जह० एयस०, उक्क संखेजा समया । एवं जाव० । ४७४ अंतराणु० दुवो णिद्देसो- ओषेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०सोलसक० - सत्तणोक० सव्वपदा० णत्थि अंतरं । णवरि मिच्छ० अवत्त० जह० एयस०, उक्क० सत्त रादिंदियाणि । ण स ० अवत्त० जह० एयस०, उक्क० चउवीसमुहुंत्तं । सम्म० पंचवड्डि- हाणि ० --अवडि० जह० एयस०, उक्क० असंखेजा लोगा । अवत्त ० जह० एस ०, उक्क० सत्त रार्दिदियाणि । अनंतगुणवड्डि-हाणी० णत्थि अंतरं । एवमित्थिवेद - पुरिसवेद० । णवरि अवत्त० जह० एगस०, उक्क० चउवीसमुहुतं । एवं सम्मामि० । णवरि अनंतगुणवड्डि- हाणि-अवत्त० जह० एगस०, उक्क० पलिदो असंखे ० भागो ! ० $ ४७५. आदेसेण णेरइय० मिच्छ० पंचवड्ढि - हाणि - अवट्ठि ० जह० एयस०, $ ४७३. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवोंमें सब प्रकृतियोंके अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानि अनुभागके उदीरकोंका काल सर्वदा है। शेष पद अनुभागके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वके अवक्तव्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । इतनी विशेषता है कि सर्वार्थसिद्धिमें सब प्रकृतियोंके अवस्थित और अवक्तव्य अनुभाग के उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । $ ४७४ अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघ मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंके सब पद अनुभागके उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है । इतनी विशेषता है कि मिध्यात्वके अवक्तव्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल सात रात्रि-दिन है । नपुंसकवेदके अवक्तव्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल चौबीस मुहूर्त है । सम्यक्त्वके पाँच वृद्धि, पाँच हानि और अवस्थित अनुभागके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है । अवक्तव्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल सात रात्रि-दिन है । अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानि अनुभागके उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है । इसी प्रकार स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अवक्तव्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल चौबीस मुहूर्त है । इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अनन्तगुणवृद्धि, अनन्तगुणहानि और अवक्तव्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । $ ४७५. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्वके पाँच वृद्धि, पाँच हानि और अवस्थित अनु Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ 01 उक्क० असंखेना लोगा । अवत्त० ओघं । सेसपदा० णत्थि अंतरं । एवं सोलसक० सत्तणोक० । णवरि अवत्त० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । णवरि णवंस० अवत्त० णत्थि । सम्म० - सम्मामि० ओघं । एवं सव्वणिरय० । $ ४७६. तिरिक्खा • ओघं । पंचि०तिरिक्खतिये मिच्छ० - सम्म० - सम्मामि ०सोलसक० - छण्णोक० णारयभंगो । तिण्णिवेदा० मिच्छत्तभंगो । णवरि अवत्त० ओघं । पंत इत्थवेदो णत्थि । जोणिणीसु पुरिस०- णपुंस० णत्थि । इत्थिवेद० अवत्त ० . णत्थि । पंचि०तिरिक्खअपज० मिच्छ० णवुंस० पंचवड्डि- हाणि-अवट्ठि० जह० एस०, उक्क० असंखेजा लोगा । सेसपदाणं णत्थि अंतरं । एवं सोलसक० - छण्णोक० । वरि अवत्त० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । $ ४७७, मणुसतिये पंचि ० तिरिक्खतियभंगो | णवरि मणुसिणीसु इत्थिवेद ० अवत्त० जह० एगस०, उक्क० वासपुधत्तं । मणुसअपज० मिच्छ० - सोलसक० भागके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है । अवक्तव्य अनुभागके उदीरकोंका भंग ओघके समान है। शेष पद- अनुभाग उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है । इसी प्रकार सोलह कषाय और सात नोकषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके अवक्तव्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । इतनी विशेषता और है कि इनमें नपुंसकवेदकी अवक्तव्य उदीरणा नहीं है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है । इसी प्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए । $ ४७६. तिर्यञ्चोंमें ओघके समान भंग है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें मिध्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषायोंका भंग नारकियोंके समान है । तीन वेदोंका भंग मिध्यात्वके समान है। इतनी विशेषता है कि इसके अवक्तव्य अनुभाग उदीरकोंका भंग ओघके समान है। पर्याप्तकों में स्त्रीवेद नहीं है तथा योनिनियोंमें पुरुषवेद और नपुंसक वेद नहीं है । तथा योनिनियों में स्त्रीवेदकी अवक्तव्य उदीरणा नहीं है । पश्चेन्द्रिय विर्यच अपर्याप्तकों में मिथ्यात्व और नपुंसकवेदके पाँच वृद्धि, पाँच हानि और अवस्थित अनुभागके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है। शेष पद - उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार सोलह कषाय और छह नोकषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अवक्तव्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । $ ४७७. मनुष्यत्रिमें पचेन्द्रिय तिर्यवत्रिकके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि मनुष्यिनियों में स्त्रीवेदके अवक्तव्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है। और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्वप्रमाण है । मनुष्य अपर्याप्तकों में मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायों के पाँच वृद्धि, पाँच हानि और अवस्थित अनुभागके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है। शेष पद अनुभाग १. ता०प्रतौ णवरि जह० इति पाठः । Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७ गा० ६२] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए वड्डीए अप्पाबहुअं सत्तणोक० पंचवड्डि-हाणि-अवढि० जह० एयस०, उक्क० असंखेजा लोगा । सेसपदा० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। ४७८. देवाणं पंचिंदियतिरिक्खभंगो । णवरि णस० णत्थि । इथिवेदपुरिसवेद० अवत्त० पत्थि । एवं भवणादि सोहम्मा त्ति । एवं सणकुमारादि णवगेवजा ति । णवरि इथिवेदो पत्थि । अणुदिसादि सव्वट्ठा ति सम्म० अवत्त० जह० एगस०, उक्क. वासपुधत्तं सबढे पलिदो० संखे०मागो। अणंतगुणवड्डि-हाणी. णत्थि अंतरं । सेसपदा० जह० एगस०, उक्क० असंखेजा लोगा । एवं बारसक०सत्तणोक० । णवरि अवत्त० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । पुरिसवे. अवत्त. णत्थि । एवं जाव०। ६४७९. भावाणु० सव्वत्थ ओदइओ भावो । 5 ४८०. अप्पाबहुआणु० दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०-णवुस० सव्वत्थोवा अवत्त । अवढि० अणंतगुणा । अणंतभागवडि-हाणि. दो वि सरिसा असंखे गुणा । असंखे भागवड्डि-हाणि० दो वि सरिसा असंखे०गुणा । के उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। ४७८. देवोंमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनमें नपुंसकवेद नहीं है। तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी अवक्तव्य उदीरणा नहीं है। इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर सौधर्म-ऐशान कल्प तकके देवोंमें जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार सनत्कुमार कल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद नहीं है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सम्यक्त्वके अवक्तव्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्वप्रमाण है तथा सर्वार्थसिद्धिमें पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण है। अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानि अनुभागके उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है। शेष पद-अनुभागके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है। इसी प्रकार बारह कषाय और सात नोकषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अवक्तव्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। यहाँ पुरुषवेदकी अवक्तव्य अनुभाग-उदीरणा नहीं है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। $ ४७९. भावानुगमकी अपेक्षा सर्वत्र औदयिक भाव है। $ ४८०. अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व और नपुंसकवेदके अवक्तव्य अनुभागके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थित अनुभागके उदीरक जीव अनन्तगुणे हैं। उनसे अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानि अनुभागके उदीरक जीव परस्पर दोनों ही सदृश होकर असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानि अनुभागके उदीरक जीव परस्पर दोनों ही सदृश होकर असंख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानि अनुभागके उदी Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ संखे०भागवडि-हाणि. दो वि सरिसा संखे-गुणा । संखे०गुणवड्डि-हाणि. दो वि सरिसा संखे०गुणा । असंखे०गुणवड्डि-हाणि० दो वि सरिसा असंखे०गुणा । अणंतगुणहाणि०' असंखे०गुणा । अणंतगुणवड्डि० विसेसाहिया । ६४८१. सम्म०-सम्मामि०-सोलसक०-अट्ठणोक० सव्वत्थोवा अवढि० । अणंतभागवडि-हाणि दो वि सरिसा असंखे०गुणा । असंखे०भागड्डि-हाणि० दो वि सरिसा असंखेजगुणा । संखे०भागवड्डि-हाणि दो वि सरिसा संखे०गणा । संखेगणवडि-हाणि० दो वि सरिसा संखे०गुणा। असंखेगुणवड्डि-हाणि दा बि सरिसा असंखेगणा । अवत्त० असंखे०गणा । अणंतगुणहाणि० असंखे०गुणा । अणंतगुणवड्डि. विसेसाहिया । एवं तिरिक्खा० । ४८२. आदेसेण णेरइय० मिच्छ० सव्वत्थोवा अवत्त० । अवट्ठि० असंखे०गुणा । उवरि ओघं । सम्म०-सम्मामि०-सोलसक०-सत्तणोक० ओघभंगा। णवरि णस० अवत्त० णस्थि । एवं सव्वणिरए । पंचिंदियतिरिक्खतिये मिच्छ० णारयभंगा। रक जीव परस्पर दोनों ही सदृश होकर संख्यातगुणे हैं । उनसे संख्यातमुणवृद्धि और संख्यातगुणहानि अनुभागके उदीरक जीव दोनों ही परस्पर सदृश होकर संख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानि अनुभागके उदीरक जीव दोनों ही परस्पर सदृश होकर असंख्यातगुणे हैं। उनसे अनन्तगुणहानि अनुभागके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अनन्तगुणवृद्धि अनुभागके उदीरक जीव विशेष अधिक हैं। ६४८१. सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और आठ नोकपायोंके अवस्थित अनुभागके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं । उनसे अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानि अनुभागके उदीरक जीव दोनों ही परस्पर सदश होकर असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानि अनुभागके उदीरक जीव दोनों ही परस्पर सदृश होकर असंख्यातगुणे हैं । उनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानि अनुभागके उदीरक जीव दोनों ही परस्पर सदृश होकर संख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानि अनुभागके उदीरक जीव दोनों ही परस्पर सदृश होकर संख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानि अनुभागके उदीरक जीव दोनों ही परस्पर सदृश होकर असंख्यातगुणे हैं। उनसे अवक्तव्य अनुभागके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अनन्तगुणहानि अनुभागके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अनन्तगुणवृद्धि अनुभागके उदीरक जीव विशेष अधिक हैं । इसी प्रकार तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। $ ४८२. आदेशसे नारकियों में मिथ्यात्वके अवक्तव्य अनुभागके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं । उनसे अवस्थित अनुभागके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। इससे आगेका भंग ओघके समान है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंका भंग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि इनमें नपुंसकवेदका अवक्तव्य पद नहीं है। इसी प्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें मिथ्यात्वका भंग नारकियों १. ता प्रतौ असखे गुणा । [ अवत्त० असंखे गुणा ] अणंतगुणहाणि० इति पाठः । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए वड्डीए अप्पावहुअं १७९ सोलसक०–अट्ठणोक० – सम्म० - सम्मामि० ओघं । णवुस० मिच्छत्तभंगो। णवरि पञ्ज० इत्थवेदो णत्थि । णवं स० पुरिसभंगो । जोणिणीसु पुरिसवेद - णवं स० थि । इत्थवे अवत्त० णत्थि । $ ४८३. पंचि०तिरि० अपज० - मणुस अपज • मिच्छ० - सोलसक० - सत्तणोक० ओघं । णवरि मिच्छ० - णवुंस० अवत्तव्वं णत्थि । मणुसा० पंचिदियतिरिक्खभंगो । नवरि सम्म० - सम्मामि ० - इत्थिवे ० - पुरिसवेद ० संखे ०गुणं कादव्वं । एवं पत्त - मणुसिणीसु । णवरि संखे०गुणं कादव्वं । पञ्जत्तेसु इत्थिवेदो णत्थि । णवुंस० पुरिसवेदभंगो | मणुसिणी ० पुरिसवे ० - णव स० णत्थि । इत्थिवे० सव्वत्थोवा अवत्त० । अवट्टि ० संखे ० गुणा । उवरि मणुस्सोघं । $ ४८४. देवाणं पंचिंदियतिरिक्खभंगो। णवरि णवं स० णत्थि । इत्थवे०-पुरिसवे० अवत्त ० णत्थि । एवं भवणादि सोहम्मा त्ति । एवं सणक्कुमारादि जाव णवगेवजाति । णवरि इत्थवेदो णत्थि । ९४८५. अणु दिसादि जाव अवराजिदा ति सम्म० सव्वत्थोवा अवत्त ० । के समान है | सोलह कषाय, आठ नोकषाय, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघ समान है । नपुंसकवेदका भंग मिध्यात्वके समान है । इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकों में स्त्रीवेद नहीं है। इनमें नपुंसकवेदका भंग पुरुषवेदके समान है । योनिनियों में पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं है । इनमें स्त्रीवेदकी अवक्तव्य अनुभाग उदीरणा नहीं है । $ ४८३. पचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में मिध्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायों का भंग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि मिध्यात्व और नपुंसक - वेदकी अवक्तव्य अनुभाग उदीरणा नहीं है । मनुष्यों में पचेन्द्रिय तिर्योंके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी अपेक्षा अल्पबहुत्व कहते समय असंख्यातगुणेके स्थान में संख्यातगुणा करना चाहिए । इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें असंख्यातगुणेके स्थानमें संख्यातगुणा करना चाहिए । मनुष्य पर्याप्तकों में स्त्रीवेद नहीं है । इनमें नपुंसकवेदका भंग पुरुषवेदके भंगके समान है। मनुष्यनियोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं है । इनमें स्त्रीवेदके अवक्तव्य अनुभागके उदोरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थित अनुभागके उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। इससे आगे सामान्य मनुष्योंके समान भंग है । $ ४८४. देवोंमें पचेन्द्रिय तिर्यश्नोंके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि इनमें नपुंसकवेद नहीं है । तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी अवक्तव्य अनुभाग उदीरणा नहीं है । इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर सौधर्म-ऐशान कल्प तकके देवोंमें जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार सनत्कुमार कल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है। कि इनमें स्त्रीवेद नहीं है । $ ४८५. अनुदिशसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें सम्यक्त्व अनुभागके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थित अनुभागके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं । उनसे अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानि अनुभागके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे. [ वैदगो अट्टि० असंखे०‍ ०गुणा । अनंतभागवड्डि - हाणि० असंखे० गुणा । असंखे० भागवड्डि-हाणि० असंखे० गुणा । संखे ० भागवड्ढि - हाणि० संखे० गुणा । संखे० गुणवड्ढि - हाणि० संखे० गुणा । असंखे०गुणवड्ढि - हाणि० असंखे० गुणा । अनंतगुणहाणि० असंखे० गुणा । अनंत गुणवडि० विसेसाहिया । बारसक० -- छण्णोक० सव्वत्थोवा अवट्टि ० । अनंतभागवड्डि- हाणि० असंखे० गुणा असंखे० भागवड्डि- हाणि ० असंखे० गुणा । संखे० भागवड्डि- हाणि० संखे० गुणा । संखे० गुणवड्डि- हाणि ० संखे० गुणा । असंखे० गुणवड्डि-हाणि० असंखे० गुणा । अवत्तव्त्र ० असंखेज्जगुणा । अनंतगुणहाणि० असंखे० गुणा । अनंत गुणवड्डि० विसेसा० । एवं पुरिसवेद० । णवरि अवत्त० णत्थि । एवं सव्वडे । वरि संखेजगुणं कादव्वं । एवं जाव० । । एवमप्पाबहुअं समत्तं । तदो वड्ढि समत्ता । 1 ४८६. एत्थ द्वाणपरूवणे कीरमाणे अट्ठावीसंपयडीणमुत्तरपयडिअणुभागविहत्तिभंगो । तदो 'कोव के य अणुभागे' त्ति पदस्स अत्थो समत्तो । उनसे असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यात भागहानि अनुभागके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे संख्या भागवृद्धि और संख्यातभागहानि अनुभाग के उदीरक जीव सख्यातगुणे हैं । उनसे संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानि अनुभागके उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यात गुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानि अनुभाग के उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अनन्तगुणहानि अनुभागके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अनन्तगुणवृद्धि अनुभागके उदीरक जीव विशेष अधिक हैं । बारह कषाय और छह नोकषायोंके अवस्थित अनुभागके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानि अनुभागके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यात भागवृद्धि और असंख्यातभागहानि अनुभागके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यात भागहानि अनुभागके उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानि अनुभागके उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानि अनुभागके उदीरक जीव | असंख्यातगुणे हैं। उनसे अवक्तव्य अनुभागके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अनन्तगुणहानि अनुभागके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अनन्तगुणवृद्धि अनुभागके उदीरक जीव विशेष अधिक हैं। इसी प्रकार पुरुषवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसकी अवक्तव्य अनुभाग उदीरणा नहीं है । इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि असंख्यातगणेके स्थानमें संख्यातगुणा करना चाहिए । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । इस प्रकार अल्पबहुत्व समाप्त होनेपर वृद्धि समाप्त हुई। $ ४८६. यहाँ पर स्थानों का कथन करनेपर अट्ठाईस प्रकृतियों सम्बन्धी उत्तर प्रकृति अनुभागविभक्तिके समान भंग है । इस प्रकार 'को व के य अणुभागे' इस पदका अर्थ समाप्त हुआ । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] मूलपयडिपदेसउदीरणाए समुक्कित्तणा * पदेसुदीरणा दुविहा- मूलपयडिपदेसुदीरणा उत्तरपयडिपदेसुदीरणा च । $ १. अणुभागुदीरणाविहासणाणंतरमेतो गाहासुत्तसूचिदा पदेसुदीरणा विहासियव्वा । सा वुण मूलुत्तरपय डिपदेसुदीरणाभेदेण दुविहा चेव होइ, तत्तो वदिरित्तपदे सुदीरणाणुवलंभादो । एवं च दुवियप्पा पदेसुदीरणा एत्थाहिकया त्ति एसो एदस्स सुत्तस्स भावत्थो । संपहि 'जहा उद्देसो तहा णिसो' त्ति णायमवलंबिय मूलपय डिपदेसुदीरणा चैव ताव समुत्तिणादि - अप्पा बहुअपज्जतेहि अणियोगद्दारेहिं विहासियच्या ति पदुप्पायणमुत्तरं सुत्तमाह १८१ * मूलपयडिपदेसुदीरणं मग्गियूण । $ २. एदेण सुत्तावयवेण समप्पिदमूलपयडिपदेसुदीरणमुच्चारणाइरियोवदेसबलेण पवंचयिस्साम । तं जहा – मूलपयडिपदेसुदीरणाए तत्थेमाणि तेवीसमणिओगदाराणि - समुत्तिणा जाव अप्पा बहुए ति भुज० - पदणिक्खेव - वडिउदीरणा चेदि । $ ३. समुत्तिणा दुविहा -- जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णिद्देसोओघेण आदेसेण य । ओघेण मोहणी ० अत्थि उक्कस्सिया पदेसुदीरणा । एवं चदुगदीसु । एवं जाव * प्रदेश उदीरणा दो प्रकारकी है— मूल प्रकृति प्रदेश - उदीरणा और उत्तर प्रकृति प्रदेश - उदीरणा । $ १. अनुभाग उदीरणाके विशेष व्याख्यानके अनन्तर आगे गाथासूत्र के द्वारा सूचित हुई प्रदेश उदीरणाका व्याख्यान करना चाहिए । किन्तु वह मूल प्रकृति प्रदेश उदीरणा और उत्तर प्रकृति प्रदेश - उदीरणाके भेदसे दो प्रकारकी ही होती है, क्योंकि उनसे अतिरिक्त प्रदेशउदीरणा नहीं पाई जाती है। इस प्रकार दो प्रकारकी प्रदेश - उदीरणा यहाँपर अधिकृत है इस . प्रकार यह इस सूत्र का भावार्थ है । अब 'जिस प्रकारका उद्देश्य हो उस प्रकारका निर्देश किया जाता है' इस न्यायका अवलम्बन लेकर सर्व प्रथम समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व पर्यन्त अनुयोगद्वारोंके आश्रयसे मूल प्रकृति प्रदेश - उदीरणाका ही व्याख्यान करना चाहिए यह कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * मूल प्रकृति प्रदेश - उदीरणाका अनुमार्गण कर । $ २. इस सूत्रावयवके द्वारा समर्पित मूल प्रकृति प्रदेश - उदीरणाका उच्चारणाचार्य के उपदेशके बलसे व्याख्यान करेंगे । यथा - मूल प्रकृति प्रदेश - उदीरणामें वहाँ ये तेईस अनुयोगद्वार होते हैं - समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तक तथा भुजगार, पदनिक्षेप और वृद्धि उदीरणा । $ ३. समुत्कीर्तना दो प्रकारकी है— जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणा है। इसी प्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । १. आ०प्रतौ पवचयं वत्तयिस्सामो इति पाठः । - Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ __४. जह० पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह. अस्थि जह० पदेसुदीरणा । एवं चदुगदीसु । एवं जाव० ।। ५. सव्वुदीरणा-णोसव्वुदीरणा० दुविहो णिहेसो-ओषेण आदेसेण य ।। ओघेण सव्वं पदेसग्गमुदीरेमाणस्स सव्वुदीरणा । तदूर्ण णोसव्वुदीरणा । एवं जाव० । ६. उक्क०-अणुक्क० दुविहो णिदेसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण सव्वुक्कस्सयं पदेसग्गमुदीरेमाणस्स उक्क०पदेसुदीरणा । तदूणमणुक्कस्सपदेसुदीर० । . एवं जाव० ! ७. जह०- अजह० दुवि० णिद्दे०-ओघ० आदेसे० । ओषे० सव्वजहण्णयं पदेसग्गमुदीरेमा० जह०पदेसुदी० । तदुवरिमजह०पदेसुदीर० । एवं जाव० । ६८. सादि-अणादि-धुव-अद्धवाणुगमेण दुविहो णिदेसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० उक्क० जह० अजह० किं सादि०४ १ सादि-अद्धवा । अणुक्क० किं सादि०४ १ सादि-अणादि-धुव-अद्धवा० । आदेसेण रइय० मोह. उक० अणुक० $४. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मोहनीयकी जघन्य प्रदेश-उदीरणा है। इसी प्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक कथन करना चाहिए। ५. सर्व प्रदेश-उदीरणा और नोसर्व प्रदेश-उदीरणाकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे सर्वप्रदेशाप्रकी उदीरणा करनेवालेके सर्व प्रदेश-उदीरणा होती है और उससे कम प्रदेशाप्रकी उदीरणा करनेवालेके नोसर्व प्रदेश-उदीरणा होती है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ६. उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा और अनुत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणाकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है ओघ और आदेश । ओघसे सबसे उत्कृष्ट प्रदेशाग्रकी उदीरणा करनेवालेके उत्कृष्ट प्रदेशउदीरणा होती है तथा उससे कम प्रदेशाग्रकी उदीरणा करनेवालेकी अनुत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा होती है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ७. जघन्य प्रदेश-उदीरणा और अजघन्य प्रदेश-उदीरणा ओघ और आदेशके भेदसे दो प्रकारकी है । ओघसे सबसे जघन्य प्रदेशाप्रकी उदीरणा करनेवालेके जघन्य प्रदेश-उदीरणा होती है और उससे अधिक प्रदेशाप्रकी उदीरणा करनेवालेके अजघन्य प्रदेश-उदीरणा होती है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ८. सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुवानुगमको अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओष और आदेश । ओघसे मोहनीयकी उत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरणा क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है या क्या अध्रुव है ? सादि और अध्रव है। अनुत्कृष्ट प्रदेशउदीरणा क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है या क्या अध्रुव है ? सादि, अनादि, ध्रव और अध्रुव है। आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयको उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य प्रदेश-उदीरणा क्या सादि है, क्यां अनादि है, क्या ध्रव है या क्या अध्रुव है ? सादि Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] मूलपयडिपदेसउदीरणाए सामित्तं १८३ जह० अजह० पद० किं सादि०४१ सादि - अद्भुवा । एवं चदुगदीसु । एवं जाव० । ६९. सामित्तं दुविहं - – जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णिद्देसोओषेण आदेसेण य । ओघेण मोह० उक्क० पदेसुदी० कस्स अण्णद० सुहुमसांपराइयखवगस्स समयाहिया व लिय चरिमसमय उदीरेमाणगस्स । एवं मणुसतिए । 2 १०. आदेसेण णेरइय० मोह ० उक्क० पदेसुदी० कस्स ? अण्णद० असंजदसम्माइट्ठिस्स सव्वविशुद्धस्स । एवं सव्वणेरइय० - सव्वदेवा ति । तिरिक्खेसु मोह० उक्क० पदे ० कस्स ? अण्णद० संजदासंजदस्स सव्वावसुद्धस्स । एवं पंचिदियतिरिक्ख और अध्रुव है । इसी प्रकार चारों गतियों में जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक कथन करना चाहिए । विशेषार्थ – मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपकके अपने काल में एक समय अधिक एक आवलि काल शेष रहने पर होती है, इसलिए इसे सादि कहा है । तथा ऐसी उदीरणा भव्योंके ही होती है, इसलिए इस अपेक्षासे इसे अध्रुव कहा है। शेष दो भंग ( अनादि ध्रुव ) इसके सम्भव नहीं है । तथा जो भव्य जीव इसके पूर्व मोहनीयकी अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा निरन्तर करता आ रहा है उसकी अपेक्षा तो अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाके अनादि और अध्रुव ये दो भंग बनते हैं और जो जीव उपशमश्रेणि पर आरोहण कर और इस प्रकार मोहनीय कर्मका अनुदीरक होकर पुनः उपशमश्रेणिसे उतरकर उसकी उदीरणा करने लगता है उसके इस अपेक्षासे मोहनीयकी अनुत्कृष्ट प्रदेश- उदीरणाका सादि भंग बन जाता है, इसलिए इसे सादि कहा है । तथा अभव्योंकी अपेक्षा इसे ध्रुव कहा है। इस प्रकार मोहनीकी अनुत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा चारों प्रकारकी बन जाती है। मोहनीयकी जघन्य प्रदेश - उदीरणा सर्व संक्लेश परिणामवाले या तत्प्रायोग्य संक्लेशपरिणामवाले अन्यतर मिथ्यादृष्टि के होती है । यतः यह कादाचित्क है, इसलिए मोहनीयकी जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरणा सादि और अध्रुव कही है, क्योंकि जब कि जघन्य प्रदेश उदीरणा कादाचित्क है तो अजघन्य प्रदेश उदीरण कादाचित्क होनेमें कोई बाधा नहीं आती । यह तो ओघ प्ररूपणाका तात्पर्य है । आदेशसे चारों गतियों में विचार करनेपर चारों ही गतियाँ कादाचित्क हैं, इसलिए इनमें उत्कृष्ट आदि चारों प्रकारकी प्रदेश उदीरणा स्वभावतः सादि और अध्रुव ही प्राप्त होती हैं । इसी प्रकार अन्य मार्गणाओं में भी विचार कर लेना चाहिए । $ ९. स्वामित्व दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणा किसके होती है ? एक समय अधिक एक आवलि काल शेष रहने पर अन्तिम समयकी उदीरणा करनेवाले सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपकके होती है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए । $ १०. आदेश से नारकियों में मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा किसके होती है ? सर्व विशुद्ध अन्यतर असंयत सम्यग्दृष्टिके होती है । इसी प्रकार सब नारकी और सब देवोंमें जानना चाहिए । तिर्यञ्चों में मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणा किसके होती है ? सर्वविशुद्ध अन्यतर संयतासंयतके होती है। इसी प्रकार पचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक में जानना चाहिए । पचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणा Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ तिये । पंचिंतिरिक्खअपज०-मणुसअपज० मोह० उक्क० पदे० कस्स ? अण्णद. तप्पाओग्गविसुद्धस्स । एवं जाव० । 5 ११. जह० पयदं । दुविहो णिदेसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० जह० पदेसुदी० कस्स ? अण्णद० मिच्छाइडिस्स सव्वसंकिलिट्ठस्स तप्पाओग्गसंकिलिट्ठस्स वा । एवं सव्वणिरय०-सव्वतिरिक्ख०-सव्वमणुस-देवा जाव सहस्सारा त्ति । णवरि पंचिदियतिरि०अपज-मणुसअपज० मोह. जह• पदे. कस्स ? अण्णद० तप्पाओग्गसंकिलिट्ठस्स । आणदादि जाव गवगेवजा ति मोह० जह० पदे० कस्स ? अण्णद० मिच्छाइद्विस्स तप्पाओग्गसंकिलिट्ठस्स । अणुदिसादि सव्वट्ठा त्ति मोह० जह० पदे कस्स ? अण्णद० तप्पाओग्गसंकिलिट्ठस्स । एवं जाव० । १२. कालो दुविहो-जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णिदेसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० उक० पदेसुदी० केव० १ जह० उक्क० एगस० । अणुक्क० पदे० तिण्णि भंगा । जो सो सादि० सपज्जव० तस्स इमो णि सो—जह. अंतोमु०, उक्क० उवड्ढपो०परियढें । किसके होती है ? तत्प्रायोग्य विशुद्ध अन्यतरके होती है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ११. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी जघन्य प्रदेश उदोरणा किसके होती है ? अन्यतर सर्व संक्लिष्ट या तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट मिथ्यादष्टिके होती है। इसी प्रकार सब नारकी, सव तिर्यञ्च, सब मनुष्य और सामान्य देवोंसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मोहनीयकी जघन्य प्रदेश उदीरणा किसके होती है ? तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट अन्यतरके होती है। आनत कल्पसे लेकर नौ अवेयक तकके देवोंमें मोहनीयकी जघन्य प्रदेश उदीरणा किसके होती है ? तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट अन्यतर मिथ्यादृष्टिके होती है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मोहनीयकी जघन्य प्रदेश उदोरणा किसके होती है ? तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट अन्यतरके होती है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। १२. काल दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणाका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणाके तीन भंग हैं। उनमें जो सादि-सान्त भंग है उसका यह निर्देश है-जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल उपार्ध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। विशेषार्थ–मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा क्षपकश्रेणिके दशवें गुणस्थानमें एक समय अधिक एक आवलि काल शेष रहने पर एक समय तक होती है, इसलिए इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा जो अर्ध पुद्गल परिवर्तन नामवाले कालके आदिमें सम्यग्दर्शन प्राप्तकर क्रमसे उपशमश्रेणि पर आरोहण करके मोहनीयकी अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका प्रारम्भ करता है और उक्त कालके अन्तमें क्षपकश्रणि पर आरोहण कर Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] - मूलपयडिपदेसउदीरणाए एयजीवेण कालो १८५ $ १३. आदेसेण णेरइय० मोह० उक्क० पदे० जह० एगस०, उक० आवलि० असंखे० भागो । अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० सगट्ठिदी । एवं सत्तसु पुढवीसु । वरि अणुक० अप्पप्पणो सगट्टिदी | १४. तिरिक्खेसु मोह० उक्क० पदे० जह० एस ०, उक्क० आवलि० असंखे० भागो । अणुक० जह० एगस०, उक्क० अनंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । पंचिदियतिरिक्खतिये मोह० उक० पदे० जह० एयस०, उक्क० आवलि० असंखे ०भागो । अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० सगट्ठिदी । पंचि०तिरिक्खअपज० - मणुस - अपज० मोह • उक्क० पदे० जह० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे ० भागो । अणुक्क ० अनुत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणाका अन्त करता है उसके मोहनीयको अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका उत्कृष्ट काल उपार्ध पुद्गल परिवर्तन प्रमाण प्राप्त होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। इसका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त भी इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए । अर्थात् जो अन्तर्मुहूर्त के भीतर दूसरी बार श्रेणि पर आरोहण करता है उसके मोहनीयकी अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। $ १३. आदेश से नारकियोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनुत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है । इसी प्रकार सातों थिवियों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अनुत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणाका उत्कृष्ट काल अपनीअपनी स्थितिप्रमाण है । विशेषार्थ —– जो असंयतसम्यग्दृष्टि नारकी एक समय तक सर्व विशुद्धिको प्राप्त कर मोहनीयको उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणा करता है उसके मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है और जो उक्त प्रकारका नारकी जीव लगातार उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता रहता है वह आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक ही उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा कर सकता है, क्योंकि एक जीवकी अपेक्षा इसका उत्कृष्ट काल ही इतना है । यही कारण है कि यहाँ मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। यहाँ इसकी अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है यह स्पष्ट ही है । शेष कथन सुगम है । $ १४. तिर्यों में मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनोंके बराबर है । पचेन्द्रिय तिर्यवत्रिकमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है । पचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । मनुष्यत्रिक में मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश २४ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । मणुसतिये मोह० उक्क० जह• उक्क० एगस०, अणुक० जह० एयस०, उक. सगढिदी। देवेसु णारयभंगो । एवं भवणादि जाव सव्वट्ठा त्ति । णवरि सगहिदी भाणिदव्या । एवं जाव० । $ १५. जह० पयदं । दुविहो णिदेसो -ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह. जह० पदेसुदी० जह० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे० भागो। अजह० जह० एगस०, उक्क० अणंतकालमसंखेजा० । एवं तिरिक्खोघं । $ १६. आदेसेण णेरइय० मोह० जह० ओघं । अजह० जह० एगस०, उक्क. सगढिदी। एवं सव्वणेरइय० । णवरि अजह० जह० एयस०, उक्क० अप्पप्पणो सगहिदी । पंचिंदियतिरिक्खचउक्क-मणुसचउक्क-देवा भवणादि जाव सव्वट्ठा त्ति एवं उदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है तथा अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है। देवोंमें नारकियोंके समान भंग है । इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिये। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ—मनुष्यत्रिकमेंसे जो मनुष्य क्षपकश्रेणि पर आरोहण कर सूक्ष्मसाम्पराय होकर उसके काल में एक समय अधिक आवलिकाल शेष रहने पर मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है उसके मात्र एक समय तक मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा होती है, इसलिए इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा जो मनुष्य उपशमश्रेणिसे उतर कर तथा एक समयके लिए सूक्ष्मसाम्पराय होकर मर कर द्वितीय समयमें देव हो जाता है उसके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका जघन्य काल एक समय प्राप्त होनेसे वह उक्त काल प्रमाण कहा है। शेष सब कथन सुगम है। १५. जघन्य प्रदेश उदीरणाका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी जघन्य प्रदेश उदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अजघन्य प्रदेश-उदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। विशेषार्थ—मोहनीयकी जघन्य प्रदेश उदीरणा सर्व संक्लिष्ट या तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट जीवके होती है और इसका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए यहाँ ओघसे मोहनीयकी जघन्य प्रदेश उदीरणाका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है । शेष कथन सुगम है। १६. आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयकी जघन्य प्रदेश उदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल ओघके समान है। अजघन्य प्रदेश उदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। इसी प्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अजघन्य प्रदेश उदारणाका जघन्य काल एक समय हैं और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चचतुष्क, मनुष्यचतुष्क, सामान्य देव और भवनवासियोंसे Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७ गा० ६२] मूलपयडिपदेसउदीरणाए एयजीवेण अंतरं वेव । णवरि अजह० जह० एगस०, उक्क० अप्पप्पणो सगढ़िदी। एवं जाव० । १७. अंतरं दुविहं-जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० उक्क० णत्थि अंतरं । अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । १८. आदेसेण णेरय० मोह० उक्क० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो। एवं सत्तसु पुढवीसु । णवरि सगढिदो । लेकर सर्वार्थ सिद्धि तकके देवोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अजघन्य प्रदेश उदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ-ओघ प्ररूपणाके स्पष्टीकरणको ध्यानमें रखकर यहाँ खुलासा कर लेना चाहिए। $ १७. अन्तर दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-क्षपकसूक्ष्मसाम्परायिक जीवके उक्त गुणस्थानमें एक समय अधिक एक आवलि काल शेष रहने पर मोहनीयको उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा होती है, इसलिए इसके अन्तरकालका निषेध किया है। तथा जो सूक्ष्मसाम्परायिक उपशमश्रेणिका जीव एक समयके लिए अनुदीरक होकर और दूसरे समयमें मरकर देव हो जाता है उसकी अपेक्षा मोहनीयकी अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय कहा है। तथा उपशान्तमोहका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होनेके कारण मोहनीयकी अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है। १८. आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनीअपनी स्थिति कहनी चाहिए। विशेषार्थ—किसी नारकीके मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाके योग्य परिणाम एक समयके अन्तरसे हो और किसी जीवके यथायोग्य भवके प्रारम्भ और अन्तमें हो यह दोनों सम्भव हैं । यही कारण है कि यहाँ मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण कहा है। तथा उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका जो जघन्य और उत्कृष्ट काल है वही यहाँ अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल है, इसलिए वह उक्त काल प्रमाण कहा है। सातों पृथिवियोंमें अपनीअपनी स्थितिको जानकर मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल ले आना चाहिए । इसके सिवाय अन्य कोई विशेषता नहीं है। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ १९. तिरिक्खेसु मोह० उक्क० जह० एयस०, उक्क० उवड्डपोग्गलपरियढें । अणुक्क० जह० एयस०, उक्क. आवलि० असंखे०भागो । पंचिंदियतिरिक्खतिये मोह. उक्क० पदे० जह० एगस०, उक्क० पुव्वकोडिपुधत्तं । अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो । पंचितिरि०अपज्ज० मोह० उक्क० पदे० जह• एगस०, उक्क. अंतोमु० । अणुक० जह० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो । एवं मणुसअपज । २०. मणुसतिये मोह. उक्क० णत्थि अंतरं । अणुक्क० जहण्णुक्क० अंतोमु० । देवाणं णेरइयभंगो । एवं भवणादि जाव सव्वट्ठा त्ति । णवरि अप्पप्पणो सगहिदी जाणियव्वा । एवं जाव० । $ १९. तिर्थश्चोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्ध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है । अनुत्कृष्ट प्रदेशउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए। विशेषार्थ—सामान्य तिर्यश्चोंकी कायस्थिति अनन्त कालप्रमाण है। परन्तु इनमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा संयतासंयत तिर्यश्च ही करता है। यतः ऐसा जीव तिर्यञ्च पर्यायमें अधिकसे अधिक उपार्ध पुद्गल परिवर्तन काल तक ही रह सकता है। उसके बाद वह यथायोग्य मनुष्य पर्याय पाकर नियमसे मोक्षका अधिकारी होता है । इसलिए यहाँ मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्ध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण प्राप्त होनेसे वह उक्त कालप्रमाण कहा है। पश्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिककी उत्कृष्ट कायस्थिति पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है, इसलिए इनमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण कहा है। तथा तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है। इसलिए इनमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूते कहा है। यहाँ सर्वत्र अपनी-अपनी उक्त स्थितिके प्रारम्भमें और अन्त में यथायोग्य मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करा कर यह अन्तरकाल ले आना चाहिए। शेष कथन सुगम है। २०. मनुष्यत्रिकमें मोहनीयकी. उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। देवोंमें नारकियोंके समान भंग है। इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी स्थिति जाननी चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] मूलपयडिपदेसउदीरणाए एयजीवेण अंतरं २१. जह० पयदं । दविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० जह० एयस०, उक्क० अणंतकालमसंखेजा० । अज० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । २२. आदेसेण णेरइय० मोह० जह० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । अजह० जह० एगस०, उक्क. आवलि. असंखे०भागो । एवं सत्तसु पुढवीसु । गवरि अप्पप्पणो सगढिदी देसूणा । २३. तिरिक्खेसु ओघं । णवरि अजह० जह० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो । पंचिंतिरिक्खतिये मोह० जह० जह० एयस०, उक्क० पुवकोडिपुधत्तं । विशेषार्थ—मनुष्यत्रिकमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा क्षपक सूक्ष्मसाम्परायिकके उसके कालमें एक समय अधिक एक आवलि काल शेष रहने पर ही होती है। यतः यह दूसरी बार प्राप्त नहीं हो सकती, इसलिए इसके अन्तरकालका निषेध किया है। तथा उक्त तीनों प्रकारके मनुष्योंके उपशान्तमोह होनेके पूर्व और यथास्थान बादमें मोहनीयकी अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा होती है, उपशान्तमोहमें अनुदीरक रहता है और उपशान्तमोहका काल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए यहाँ मोहनीयकी अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है। शेष कथन सुगम है। .. २१. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश ! ओघसे मोहनीयकी जघन्य प्रदेश उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनोंके बराबर है । अजघन्य प्रदेश उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। विशेषार्थ-ओघसे मोहनीयकी जघन्य प्रदेश उदीरणा सर्व संक्लिष्ट या तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट मिथ्यादृष्टि जीवके होती है। यतः ऐसे परिणाम कमसे कम एक समयके अन्तरसे और अधिकसे अधिक पूर्वोक्त अनन्त कालके अन्तरसे हो सकते हैं, इसीसे यहाँ मोहनीयकी जघन्य प्रदेश उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्तकाल कहा है । तथा अजघन्य प्रदेश उदीरणा करनेवाला जो जीव एक समयके लिए जघन्य प्रदेश उदीरणा करके पुनः अजघन्य प्रदेश उदीरणा करने लगता है उसके अजघन्य प्रदेश उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय प्राप्त होनेसे वह उक्त कालप्रमाण कहा है। तथा उपशान्तमोहका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होनेके कारण अजघन्य प्रदेश उदीरणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है, क्योंकि सूक्ष्मसाम्परायकी अन्तिम आवलिमें और उपशान्तमोह गुणस्थानमें मोहनीयकी उदीरणा नहीं होती ।। २२. आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयकी जघन्य प्रदेश उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम है। अजघन्य प्रदेश उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी अपनी स्थिति जाननी चाहिए। ६२३. तिर्यञ्चोंमें ओघके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि अजघन्य प्रदेश उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें मोहनीयकी जघन्य प्रदेश उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ अजह० जह० एयस०, उक्क० आवलि० असंखे ० भागो । एवं मणुसतिये । णवरि अजह० जह० एस ०, उक्क० अंतोमु० । अजह० जह० एयस०, उक्क० आवलि० $ २४. पंचिंदियतिरिक्खअषज्ज० मोह० जह० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । असंखे ० भागो । एवं मणुस अपज्ञ्ज० । एगस०, उक्क० अट्ठारस सागरो ० सादिरेयाणि । असंखे ० भागो । एवं भवणादि जाव सव्वट्ठा $ २५. देवेसु मोह० जह० जह० अजह० जह० एगस०, उक्क० आवलि० त्ति । णवरि सगट्ठिी देसूणा भाणियत्र्वा । एवं जाव० । $ २६. णाणाजीवेहि भंगविचओ दुविहो – जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण तत्थ इममट्ठपदं – जे उकस्सपदेसस्स उदीरगा त्ति अणुकस्सपदेसस्स अणुदीरगा । जे अणुक्कस्सपदेसस्स उदीरगा ते उक्कस्सपदेसस्स अणुदीरगा । एदेण अट्ठपदेण मोह० उक्कस्सपदेसस्स सिया सव्वे अणुदीरगा, एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है । अजघन्य प्रदेश उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें अजघन्य प्रदेश उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ — यहाँ मनुष्यत्रिक में उपशमश्रेणि सम्भव है, इसलिए इनमें मोहनीयकी अजघन्य प्रदेश उदीरणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है । शेष कथन सुगम है । $ २४. पचेन्द्रिय तिर्यन अपर्याप्त जीवों में मोहनीयकी जघन्य प्रदेश उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । अजघन्य प्रदेश उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकों में जानना चाहिए । $ २५. देवों में मोहनीयकी जघन्य प्रदेश उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक अठारह सागरोपम है। अजघन्य प्रदेश उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है। कि कुछ कम अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ - - देवों में सबसे जघन्य प्रदेश उदीरणाके योग्य उत्कृष्ट या तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेश परिणाम सहस्रार कल्प तकके देवोंमें ही सम्भव हैं, इसलिए यहाँ मोहनीयकी जघन्य प्रदेश उदीरणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक अठारह सागरोपम कहा है। शेष कथन सुगम है। $ २६. नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । ओघसे वहाँ यह अर्थपद है— जो उत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक हैं वे अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके अनुदीरक हैं । जो अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक हैं वे उत्कृष्ट प्रदेशोंके अनुदीरक हैं। इस अर्थपदके अनुसार मोहनीय के उत्कृष्ट प्रदेशोंके Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] मूलपयडिपदेसउदीरणाए भागाभागानुगमो सिया अणुदीरगा च उदीरगो च, सिया अणदीरगा च उदीरगा च । अणुक्कस्सपदेसस्स सिया सव्वे उदीरगा, सिया उदीरगा च अणुदीरगो च, सिया उदीरगा च अणुदीरगा च । एवं सव्वणिरय सव्वतिरिक्ख- मणुसतिय देवा भवणादि जाव सव्वा ति । मणुसअपज० उक्क० अणुक्क० पदेस० अट्ठ भंगा । एवं जाव० । २७. जह० पदं । दुविहो णिद्देसो । तं चैव अट्ठपदं । ओघेण मोह० जह० पदेस० सिया सव्वे अणुदीरगा, सिया अणुदीरगा च उदीरगो च, सिया अणुदीरगा च उदीरगा च । अजह० पदे० सिया सव्वे उदीरगा, सिया उदीगा च अणुदीरगो च, सिया उदीरगा च अणुदीरगा च । एवं सव्व णेरइय - सव्वतिरिक्ख - मणुसतिय- देवा भवणादि जाव सट्टा ति । मणुसअपज० मोह० जह० अजह० पदे० अड्ड भंगा । एवं जाव० । १९१ 11 २८. भागाभागाणु० दुविहो – जह० उक्क० । उकस्से पयदं । दुविहो णि ०. ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० उक्क० पदे० सव्वजी० के० ? अनंतभागो । अणुक्क० के० ? अनंता भागा । एवं तिरिक्खोघं । आदेसेण णेरइय० मोह ० उक्क० पदे ० कदाचित् सत्र जीव अनुदीरक हैं । कदाचित् नाना जीव अनुदीरक हैं और एक जीव उदीरक है । कदाचित् नाजा जीव अनुदीरक हैं और नाना जीव उदीरक हैं। अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके कदाचित् सब जीव उदीरक हैं । कदाचित् नाना जीव उदीरक हैं और एक जीव अनुदीरक है । कदाचित् नाना जीव उदीरक हैं और नाना जीव अनुदीरक हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, मनुष्यत्रिक, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें जानना चाहिए । मनुष्य अपर्याप्तकों में उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरकोंके आठ भंग हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । § २७. जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है। वही अर्थ पद है । ओघसे मोहनी के जघन्य प्रदेशोंके कदाचित् सब जीव अनुदीरक हैं। कदाचित् नाना जीव अनुदीरक हैं और एक जीव उदीरक है। कदाचित् नाना जीव अनुदीरक हैं और नाना जीव उदीरक हैं । अजघन्य प्रदेशोंके कदाचित् सब जीव उदीरक हैं। कदाचित् नाना जीव उदीरक हैं और एक जीव अनुदीरक है । कदाचित् नाना जीव उदीरक हैं और नाना जीव अनुदीरक हैं । इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, मनुष्यत्रिक, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें जानना चाहिए । मनुष्य अपर्याप्तकों में मोहनीयके जघन्य और अजघन्य प्रदेशोंके उदीरकोंके आठ भंग हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । $ २८. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । ओघसे मोहनी के उत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? अनन्तवें भागप्रमाण हैं । अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? अनन्त बहुभाग प्रमाण हैं । इसी १. आ०प्रतौ ते उक्कस्सपदेसस्स २. आ०प्रतौ सिया सव्वे उदीरगा सिया इति पाठः । सिया इति पाठः । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ सव्वजी० केव० १ असंखे०भागो। अणुक्क० असंखेजा भागा । एवं सव्वणिरय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुस-मणुसअपज०-देवा० भवणादि जाव अवराजिदा त्ति । मणुसपज्जत्त-मणुसिणी-सबढदेवा० मोह० उक्क० केव० ? संखे०भागो। अणुक्क० संखेजा भागा। एवं जाव० । एवं जहण्णए वि । णवरि जह० अजहण्णे त्ति भाणिदव्वं । एवं जाव०। २९. परिमाणाणु० दुविहं-जह० उक्क० । उकस्से पयदं । दुविहो णि०ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० उक्क० पदे० केत्तिया ? संखेजा' । अणक० केत्तिया ? अणंता । आदेसेण णेरइय० मोह० उक्क० अणुक्क० के० ? असंखेजा । एवं सव्वणिरय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुसअपञ्ज०-देवा भवणादि जाव अवराजिदा ति । तिरिक्खेसु मोह० उक्क० पदे० केत्ति १ असंखेजा । अणुक्क० केत्ति० १ अणंता । मणुसेसु मोह० उक्क० के० १ संखेजा । अणुक्क० पदेस० के० १ असंखेजा । मणुसपज्ज०मणुसिणी० मोह० उक्क० अणुक्क० के० ? संखेजा । एवं सव्वढे । एवं जाव० । प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक जीव सब जीवोंके कितने भागगमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, सामान्य मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें जानना चाहिए । मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यातवें भागप्रमाण हैं । अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । तथा इसी प्रकार जघन्यके विषयमें भी जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि उत्कृष्ट और अनुत्कृष्टके स्थानमें जघन्य और अजघन्य ऐसा कहलाना चाहिए । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। २९. परिमाणानुगम दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयके उत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पश्चेन्द्रिय तिर्यश्च, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें जानना चाहिए। तिर्यश्चोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक जीव कितने हैं ? अनन्त है। मनुष्योंमें मोहनीयके उत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक जीव कितने है ? संख्यात हैं। अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिमें जानना चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। १. ता प्रतौ [अ] संखेजा इति पाठः । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] मूलपयडिपदेसउदीरणाए खेत्तं १९३ $३० जह० पदं । दुविहो णि० - ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० जह० पदे० के० ? असंखेजा । अजह० के० १ अनंता । एवं तिरिक्खा ० । आदेसेण णेरइय० मोह ० जह० अजह० पदे ० के० ? असंखेजा । एवं सव्वणिरय ० - सव्वपंचिदियतिरिक्खमणुसअप ० -देवा भवणादि जाव अवराजिदा ति । मणुसेसु मोह० जह० के० १ संखेजा । अजह० के० १ असंखेज्जा । मणुसपञ्ज० - मणुसिणी - सव्वदेवा० मोह ० जह० अज० पदे० के० ९ संखेजा । एवं जाव० । $ ३१. खेत्तं दुविहं – जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि० - - ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० उक्क० केवडि खेत्ते ? लोग० असंखे० भागे । अणुक्क० सव्वलोगे । एवं तिरिक्खोधं । आदेसेण णेरइय० मोह० उक्क० अणुक्क० के० खेत्ते ? लोग० असंखे० भागे । एवं सव्वणिरय - सव्वपंचिदियतिरिक्ख - सव्वमणुस - सव्वदेवा त्ति । एवं जाव० । ३२. जह० पदं । दुविहो णि० - ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० जह० के० खेत्ते ? लोग० असंखे० भागे । अजह० सव्वलोगे । एवं तिरिक्खोधं । आदेसेण § ३०. जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश | ओघ मोहनीयके जघन्य प्रदेशोंके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । अजघन्य प्रदेशोंके उदीरक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं । इसी प्रकार तिर्यञ्चों में जानना चाहिए। आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयके जघन्य और अजघन्य प्रदेशोंके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और भवनवासियों से लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें जानना चाहिए । सामान्य मनुष्यों में मोहनीय के जघन्य प्रदेशोंके उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । अजघन्य प्रदेशोंके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी और सर्वार्थसिद्धि के देवोंमें मोहनीयके जघन्य और अजघन्य प्रदेशोंके उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । $ ३१. क्षेत्र दो प्रकार हैं— जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीय के उत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक जीवों का क्षेत्र कितना है ? लोकका असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र है । अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक जीवोंका सब लोक क्षेत्र है । इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चों में जानना चाहिए। आदेशसे नारकियों में मोहनीयके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकका असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र है । इसी प्रकार सब नारकी, सब पचेन्द्रिय तिर्यञ्च, सब मनुष्य और सब देवों में जानना चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । $ ३२. जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकार है-ओघ और आदेश | ओघ मोहनीयके जघन्य प्रदेशोंके उदीरकोंका कितना क्षेत्र है ? लोकका असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र है । अजघन्य प्रदेशोंके उदीरकोंका सर्व लोक क्षेत्र है । इसी प्रकार सामान्य तिर्यों में जानना चाहिए । आदेश से नारकियोंमें मोहनीयके जघन्य और अजघन्य प्रदेशोंके उदीरकों का कितना २५ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो णेरइय० मोह० जह० अजह० के० खेत्ते ? लोग० असंखे भागे । एवं सव्वणिरयसव्वपंचिंदियतिरिक्ख-सव्वमणुस-सव्वदेवा० त्ति । एवं जाव० । ३३. पोसणाणु० दुविहो-जह• उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णिओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० उक्क० के० पोसिदं ? लोग० असंखे०भागो। अणुक० सव्वलोगो। ३४. आदेसेण रइय० मोह० उक्क० पदे. केव० पोसिदं ? लोग० असंखे०भागो । अणुक० के० पो० ? लो० असंखे०भागो छ चोद्दस भागा वा । एवं विदियादि सत्तमा त्ति । णवरि सगपोसणं । पढमाए खेत्तं । ३५. तिरिक्खेसु मोह० उक्क० पदे० केव० पोसि० १ लोग० असंखे०भागो छ चोदस० । अणुक्क० सव्वलोगो । पंचिंदियतिरिक्खतिये मोह० उक्क० पदे० लोग० असंखे०भागो छ चोदस० । अणुक्क० के० पोसिदं ? लोग० असंखे भागो सव्वलोगो वा । पंचिंदियतिरि०अपज०-मणुसअपज० मोह० उक्क० खेत्तं । अणुक्क० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वो । मणुसतिये मोह० उक्क० पदे० लोग० असंखे०भागो। क्षेत्र है ? लोकका असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र है। इसी प्रकार सब नारकी, सब पश्चेन्द्रिय तिर्यश्च, सब मनुष्य और सब देवोंमें जानना चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ३३. स्पर्शनानुगम दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मोहनीयके उत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। ३४. आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अपना-अपना स्पर्शन कहना चाहिए । पहली पृथिवीमें क्षेत्रके समान भंग है। ३५. तिर्यञ्चोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरकोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरकोंने सर्व लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें मोहनीयके उत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मनुष्यत्रिकमें मोहनीयके उत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] अणु० लोग० असंखे ० भागो सव्वलोगो वा । ० $ ३६. देवेसु मोह० उक्क० पदे० लोग० असंखे० भागो अट्ठ चोदस० । अणुक्क • लोग • असंखे ० भागो अट्ठ णव चोद्दस० । भवण ० - वाणवें ० - जोदिसि ० मोह ० उक्क० पदे ० लोग० असंखे ० भागो अद्धट्ठा वा अट्ठ चोहस० । अणुक्क० पदे० लोग० असंखे० भागो अद्ध ड्ट्ठा वा अट्ठ णव चोद्दस० । ० $ ३७. सोहम्मीसाण० देवोघं | सणकुमारादि सहस्सारा ति मोह ० उक्क० अणुक० केव० पोसि० १ लोग० असं० भागो अट्ठ चोदस० । आणदादि जाव अच्चुदा त्ति मोह • उक्क० अणुक्क० लोग० असं० भागो छ चोद्दस ० । उवरि खेत्तभंगो | एवं जाव ० । $ ३८. जह० पदं । दुविहो णिद्देसो-- ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० जह० पदे० लोग० असंखे० भागो अट्ठ तेरह चोदस० । अजह० सव्वलोगो । प्रदेशोंके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । विशेषार्थ – पचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकका मोहनीयके उत्कृष्ट प्रदेशोंकी उदीरणा करते समय ऊपर आनत कल्प तकके देवोंमें मारणान्तिक समुद्धात करना बन जाता है, इसलिए यहाँ सामान्य तिर्यों में और पचेन्द्रिय तिर्यवत्रिक में मोहनीयके उत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरकोंका त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण स्पर्शन भी कहा है। शेष कथन सुगम है। उसे अपने-अपने स्पर्शन और स्वामित्वको जानकर सर्वत्र जान लेना चाहिए । $ ३६. देवोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग, त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम साढ़े तीन भाग और कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग, त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम साढ़े तीन भाग, कुछ कम आठ भाग और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया हैं । मूलपयडिपदेसउदीरणाए पोसणं १९५ $ ३७. सौधर्म और ऐशान कल्पमें सामान्य देवोंके समान स्पर्शन है । सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरकोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आनतसे लेकर अच्युत कल्प तकके देवों में मोहनीयके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सनाली चौदह भागों में से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । ऊपर क्षेत्रके समान स्पर्शन है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । $ ३८. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । ओघ मोहनीयके जघन्य प्रदेशोंके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग और कुछ कम तेरह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अजघन्य प्रदेशोंके उदीरकोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया हैं । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ $ ३९. आदेसेण रइय० मोह० जह० अजह० पदे० लोग० असंखे ० भागो छ चोद्दस भागा देणा । एवं विदियादि सत्तमा त्ति । णवरि सगपोसणं । पढमाए खेत्तभंगो । $ ४०. तिरिक्खेसु मोह० जह० पदे० लोग० असंखे ० भागो छ चोदस० । अजह० सव्वलोगो । पंचि०तिरिक्खतिये मोह० जह० लोग० असंखे० भागो छ चोद्दस० । अजह० लोग० असं०भागो सव्वलोगो वा । पंचिं० तिरि० अपज्ज० - मणुसअपज० मोह ० ० जह० अजह० पदे० लोग० असं० भागो सव्वलोगो वा । असं० भागो सव्वलोगो चोदस० । भवण० अट्ठा वा अट्ठ णव $ ४१. मणुसतिये मोह० जह० खेत्तं । अजह० लोग ० वा । देवेसु मोह० जह० अजह० लोग० असंखे० भागो अट्ठ णव वाणवेंतर - जोदिसि० मोह० जह० अजह० लोग० असंखे० भागो विशेषार्थ — ओघ से मोहनीयकी जघन्य प्रदेश उदीरणा सर्व संक्लिष्ट और तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट जीवके होती है, ऐसे जीव देव भी होते हैं और मनुष्य या तिर्यञ्च भी हो सकते हैं । देवोंमें विहारवत्स्वस्थानकी अपेक्षा त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण स्पर्शनं बन जाता है । तथा तिर्यञ्च या मनुष्यों में मारणान्तिक समुद्धातकी अपेक्षा त्रास नालीके चौदह भागों में से कुछ कम तेरह भागप्रमाण स्पर्शन बन जाता है । इनका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है यह स्पष्ट ही है । यह ओघसे मोहनीयके जघन्य प्रदेशोंके उदीरकोंका स्पष्टीकरण है । $ ३९. आदेश से नारकियोंमें मोहनीयके जघन्य और अजघन्य प्रदेशोंके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसी प्रकार दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपना-अपना स्पर्शन कहना चाहिए। पहली पृथिवीमें क्षेत्र के समान स्पर्शन है ४०. तिर्यञ्चों में मोहनीयके जघन्य प्रदेशोंके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सनालीके चौदह भागों में से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य प्रदेशोंके उदीरकोंने सर्वलोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक में मोहनीयके जघन्य प्रदेशोंके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य प्रदेशोंके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में मोहनीय के जघन्य और अजघन्य प्रदेशोंके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । $ ४१. मनुष्यत्रिक मोहनीयके जघन्य प्रदेशोंके उदीरकोंके स्पर्शनका भंग क्षेत्रके समान है । अजघन्य प्रदेशोंके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवों में मोहनीय के जघन्य और अजघन्य प्रदेशोंके उदीरकों ने लोकके असंख्यातवें भाग तथा त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें मोहनीयके जघन्य और Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] मूलपयडिपदेसउदीरणाए णाणाजीवेहि कालो १९७ चोद्दस ० | सोहम्मीसाण० देवोघं | सणक्कुमारादि जाव सव्वट्ठा त्ति उक्कस्सपोसणभंगो । एवं जाव० । $ ४२. कालो दुविहो -- जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णिदेसो-ओषेण आदेसेण य । ओघेण मोह० उक्क० पदे० जह० एस ०, उक्क० संखेजा समया । अणुक्क० सव्वद्धा । एवं मणुसतिये सच्चट्ठे च । $ ४३. आदेसेण णेरइय० मोह० उक्क० जह० एयस०, उक्क० आवलि० असं०भागो । अणुक्क० सव्वद्धा । एवं सव्वणिरय - सव्वतिरिक्ख- देवा भवणादि जाव अवराजिदा ति । मणुस अपज० मोह० उक्क० जह० एस ०, उक्क० आव० असंखे ० भागो । अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० पलिदो० असंखे ० भागो । एवं जाव० । अजघन्य प्रदेशोंके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम साढ़े तीन भाग, कुछ कम आठ भाग और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सौधर्म और ऐशान कल्पमें स्पर्शनका भंग सामान्य देवोंके समान है । सनत्कुमारसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवोंमें उत्कृष्ट स्पर्शनके समान भंग है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ – नरक आदि चारों गतियों और उनके अवान्तर भेदोंमें अपने-अपने स्वामित्व और स्पर्शनको जानकर प्रकृत स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए । विशेष व्याख्यान न होनेसे यहाँ पृथक् पृथक स्पष्टीकरण नहीं किया है । $ ४२. काल दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयके उत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरकोंका काल सर्वदा है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिक और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें जानना चाहिए। विशेषार्थ —— ओघसे क्षपक सूक्ष्मसाम्परायिक जीव अपने कालमें एक समय अधिक एक आवलि काल शेष रहने पर मोहनीयके उत्कृष्ट प्रदेशोंकी उदीरणा करते हैं। ऐसे जीव लगातार उक्त उदीरणा करें तो उसका उत्कृष्ट काल संख्यात समय ही होगा । इसीसे यहाँ नाना जीवोंकी अपेक्षा उक्त उदीरणाका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है। शेष कथन सुगम है । $ ४३. आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरकोंका काल सर्वदा है । इसी प्रकार सब नारकी सब तिर्यञ्च, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें जानना चाहिए । मनुष्य अपर्याप्तकों में मोहनीयके उत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय हैं और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए | Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ $ ४४. जह० पदं । दुविहो णि० -- ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० जह० जह० एस ०, उक्क० आवलि० असंखे० भागो । अजह० सव्वद्धा । एवं सव्वणिरयसव्वतिरिक्ख - सव्वदेवात्ति । मणुसतिये एवं चैव । मणुसअपज० मोह० जह० जह० एगस ०, उक्क० आवलि० असंखे० भागो । अजह० जह० एस ०, उक्क० पलिदो ० असं भागो । एवं जाव० । ४५. अंतरं दुविहं – जह० उबक० । उवकरसे पयदं । दुविहो णि० - - ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० उक्क० पदे० जह० एयस०, उक्क० छम्मासं । अणुक्क० णत्थि अंतरं । एवं मणुसतिये | णवरि मणुसिणीसु वासपुधत्तं । आदेसेण णेरइय० १९८ विशेषार्थ -- इन मार्गणाओंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करनेवाले जीवोंका उत्कृष्ट प्रमाण असंख्यात है, इसलिए अत्र ट्यत् सन्तानकी अपेक्षा मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण बन जाता है। शेष कथन सुगम है। $ ४४. जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघ मोहनीयके जघन्य प्रदेशोंके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अजघन्य प्रदेशोंके उदीरकोंका काल सर्वदा है। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च और सब देवोंमें जानना चाहिए । मनुष्यत्रिकमें इसी प्रकार कालप्ररूपणा है । मनुष्य अपर्याप्तकों में मोहनीयके जघन्य प्रदेशोंके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अजघन्य प्रदेशोंके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ - - पहले एक जीवकी अपेक्षा कालका निर्देश करते हुए मोहनीयके जघन्य प्रदेशोंके उदीरकका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण बतला आये हैं, वह काल यहाँ भी उसी प्रकार बन जाता है। कारण कि नाना जीव मोहनीयके जघन्य प्रदेशोंकी उदीरणा एक समय में करके दूसरे समय में अजघन्य प्रदेशोंकी उदीरणा करने लगें और कोई अन्य जीव जघन्य प्रदेशोंकी उदीरणा न करें यह भी सम्भव है और अत्रुट्यत् सन्तानरूपसे निरन्तर आवलिके असंख्यातवें भाग काल तक क्रमसे नाना जीव मोहनीयके जघन्य प्रदेशोंकी उदीरणा करें यह भी सम्भव है । इस प्रकार विचार करने पर मोहनीयके जघन्य प्रदेशोंके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है, इसलिए वह उतना कहा है। शेष कथन सुगम है । यहाँ आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागों का योग भी आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होगा इतना विशेष जानना चाहिए । शेष कथन सुगम है । $ ४५. अन्तर दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयके उत्कृष्ट | प्रदेशोंके उदीरकोंका जधन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है । अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है । इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्यिनियोंमें वर्षपृथक्त्व है। आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरकोंका Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] मूलपयडिपदेसउदीरणाए णाणाजीवेहिं अंतराणुगमो १९९ मोह ० उक्क० जह० एस ०, उक्क० असंखेजा लोगा । अणुक्क० णत्थि अंतरं । एवं सव्वणिरय - सव्वतिरिक्ख - सव्वदेवा ति । मणुसअपज्ज० मोह ० उक्क० णिरयभंगो । अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० पलिदो० असं० भागो । एवं जाव० । $ ४६. जह० पदं । दुविहो णिद्देसो-- ओघेण आदेसेण य । ओघे० मोह ० जह० जह० एस ०, उक्क० असंखेजा लोगा । अजह० णत्थि अंतरं । एवं सव्वणिरयसम्बतिरिक्ख - मणुसतिय - सव्वदेवा ति । मणुसअपज० मोह ० जह० जह० एस ०, उक्क० असंखे० लोगा । अजह० जह० एगस ०, उक्क० पलिदो० असं० भागो । एवं जाव० । जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है । अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है । इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च और सब देवों में जानना चाहिए । मनुष्य अपर्याप्तकों में मोहनीयके उत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरकोंका भंग नारकियोंके समान है । अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असं ख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ - - यहाँ क्षपकश्रेणिके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालको ध्यान में रख कर घसे और मनुष्यत्रिकमें उक्त अन्तरकाल कहा है । मात्र मनुष्यिनियों में क्षपकश्रेणिका उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्वप्रमाण है, इसलिए इनमें मोहनीयके उत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरकोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्वप्रमाण कहा है। शेष गतियोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट प्रदेशोंकी उदीरणाके योग्य परिणामोंके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालको ध्यानमें रख कर मोहनीयके उत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है । $ ४६. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीय के जघन्य प्रदेशोंके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है । अजघन्य प्रदेशोंके उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है । इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यन, मनुष्यत्रिक और सब देवोंमें जानना चाहिए । मनुष्य अपर्याप्तकों में मोहनीयके जघन्य प्रदेशोंके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है । अजघन्य प्रदेशोंके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ – यहाँ मोहनीयके जघन्य प्रदेशोंकी उदीरणाके योग्य परिणामोंके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालको ध्यानमें रख कर सर्वत्र ओघसे और चारों गतियोंमें मोहनीयके जघन्य प्रदेशोंके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ ६ ४७. भावाणु० मोह० उक्क० अणुक्क० जह० अजह० पदेसुदी० ओदइओ भावो । एवं जाव० । २०० $ ४८. अप्पा बहुअं दुविहं - जह० उक्क० । उक्क० पयदं । दुविहो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० सव्वत्थो० उक्क ० पदेसुदी ० । अणुक्क० पदे ० अनंतगुणा । एवं तिरिक्खोघं । आदेसेण णेरइय० मोह० सव्वत्थोवा उक्क० पदे० । अणुक्क० असंखे॰गुणा । एवं सव्वणिरय - सव्वपंचिं ० तिरिक्ख - मणुस - मणुसअपञ्ज० – देवा भवणादि जव अवराजिदा ति । मणुसपञ्जत्त - मणुसिणी - सव्वदेवा० सव्वत्थो० मोह० उक्क० पदे० । अणुक्क० पदे ० संखे० गुणा । एवं जाव० । एवं जहण्णयं पि णेदव्वं । णवरि जह० अजह० भाणिदव्वं । एवं जाव० । $ ४९. एत्तो भुजगारपदे सुदीरणाए तत्थ इमाणि तेरस अणिओगद्दाराणि - समुक्कित्तणा जाव अप्पा बहुए त्ति । समुक्कित्तणाणु० दुविहो णि० -- ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० अत्थि भुज० - अप्प०-३ ० - अवद्वि० ६० - अवत्त० पदे ० उदीरणा । एवं मणुसतिये । आदेसेण णेरइय० मोह० अत्थि भुज० - अप्प०-२ ० - अवट्ठि० । एवं सव्वणिरय - सव्वतिरिक्खे -: - मणुसपञ्ज० सव्वदेवा - ति । एवं जाव० । $ ४७. भावानुगमकी अपेक्षा मोहनीयके उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य प्रदेशोंके उदीरकोंका औदयिक भाव है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । ४८. अल्पबहुत्व दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीय के उत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं | उनसे अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक जीव अनन्तगुणे हैं । इसी प्रकार सामान्य तिर्योंमें जानना चाहिए। आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पचेन्द्रिय तिर्य, सामान्य मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर अपराजित विमान तकके देवों में जानना चाहिए । मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार जघन्य अल्पबहुत्व भी जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि . उत्कृष्ट और अनुत्कृष्टके स्थान पर जघन्य और अजघन्य कहना चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । $ ४९. आगे भुजगार प्रदेश उदीरणाका प्रकरण है । वहाँ ये तेरह अनुयोगद्वार हैंसमुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तक । समुत्कीर्तनानुगमकी अपेक्ष। निर्देश दो प्रकारका है - - ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य प्रदेश उदीरणा है । इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। आदेशसे नारकियों में मोहनीयकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थित प्रदेश उदीरणा है । इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, अपर्याप्त और सब देवोंमें जानना चाहिए । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । १. आ०प्रतौ - णिरयतिरिक्ख इति पाठः । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] मूलपयडिपदेसउदीरणाए भुजगारे एयजीवेण कालो २०१ ५०. सामित्ताणु० दुविहो णि० – ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह ० भुज० - अप्प ० - अवट्ठि ० कस्स १ अण्णद० सम्माइट्ठिस्स वा मिच्छाइट्ठि० । अवत्त० कस्स १ अण्णद० सम्माइट्ठिस्स । एवं मणु सतिये । आदेसेण णेरइय० मोह० भुज०अप्प ० - अवट्ठि ० कस्स १ अण्णद० सम्माइट्ठि० मिच्छाइट्ठि० । एवं सव्वणिरय - सव्वतिरिक्ख - देवा भवणादि जाव णवगेवजा चि । णवरि पंचिं० तिरि० अपज ० मोह ० भुज ० - अप्प० - अवडि० कस्स १ अण्ण० । एवं मणुसअप ० - अणुदिसादि सम्बट्टा ति । एवं जाव० । भुज ० - अप्प० ५१. काला० दुविहो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह ० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अवट्ठि० जह० एगस०, ́ उक्क० आवलि० असंखे ० भागो । अवत्त० जह० उक्क० एस० । एवं मणुसतिये । एवं सव्वणिरय - सव्वतिरिक्ख - मणुस अपज ० - सव्वदेवा त्ति । णवरि अवत० णत्थि । एवं जाव० । $ ५०. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश | M मोहनी की भुजगार, अल्पतर और अवस्थित उदीरणा किसके होती है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि होती है । अवक्तव्यउदीरणा किसके होती है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टिके होती है । इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थित उदीरणा किसके होती है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिक होती है । इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यश्व, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर नौ मैवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पचेन्द्रिय तिर्यन अपर्याप्तकों में मोहनीयकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थित उदीरणा किसके होती है ? अन्यतरके होती है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त और अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें जानना चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । $ ५१. कालानुगमको अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । ओघ मोहनीयके भुजगार और अल्पतर उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित प्रदेशोंके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अवक्तव्यपदके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्य, मनुष्य अपर्याप्त और सब देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवतव्य उदीरणा नहीं है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ — भुजगार और अल्पतर प्रदेशोंकी उदीरणाके योग्य परिणामोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होनेके कारण यहाँ मोहनीयके भुजगार और अल्पतर पदके उदीरकका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । अवस्थित उदीरणा कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक बननेके कारण इसके उदीरकका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। अवक्तव्यपद उपशमश्रेणिसे उतरते समय २६ • Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ ५२. अंतराणु० दुविहो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह ० भुज ० - अप्प ० जह० एस ०, उक्क० अंतोमु० । अवट्ठि० जह० एगस०, उक० असंखेजा लोगा । अवत्त० जह० अंतोमु०, उक्क० उवड्डपो० परियङ्कं । एवं तिरिक्खा ० । णवरि अवत्त० णत्थि । २०२ $ ५३. आदेसेण णेरइय० मोह० भुज० - अप्प० ओघं । अवडि० जह० एस ०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देभ्रूणाणि । एवं सव्वणिरय० । णवरि सगट्ठिदी देखणा । पंचिदियतिरिक्खतिये मोह० भुज० - अप्प० ओघं । अवट्ठि० जह० एस ०, उक० या मोहनीय अनुदीरकके मरकर देव होने पर एक समयके लिए होता है, इसलिए इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। मनुष्यत्रिकमें यह काल प्ररूपणा इसी प्रकार बन जानेसे उसे ओघके समान जाननेकी सूचना की है। शेष गतियों में अवक्तव्य पद नहीं है। शेष प्ररूपणा वहाँ भी ओघके समान बन जानेसे उसे भी ओघ के समान जाननेकी सूचना की है। $ ५२. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश | ओघसे मोहनीयके भुजगार और अल्पतर पदके उदीरकका जघन्य अन्तर काल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित पदके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है । अवक्तव्य पदके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्ध पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। इसी प्रकार तिर्यश्वोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पद नहीं है । विशेषार्थ — भुजगार और अल्पतर प्रदेशोंकी उदीरणाके योग्य परिणामोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त होनेके कारण यहाँ भुजगार और अल्पतर पदके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त कहा है । अवस्थित पदके योग्य परिणाम कमसे कम एक समयके अन्तरसे और अधिकसे अधिक असंख्यात लोकप्रमाण कालके अन्तरसे हों यह सम्भव है, इसलिए ओघसे अवस्थित पदके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। एक जीवके उपशमश्रेणिके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालको देख कर अवक्तव्य पदके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्ध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण कहा है । तिर्यों में मोहनीयका अवक्तव्य पद नहीं होता, इसके सिवाय अन्य सब प्ररूपणा सामान्य तिर्यों में ओघके समान बन जानेसे उनमें उसे ओघके समान जाननेकी सूचना की है। $ ५३. आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयके भुजगार और अल्पतरपदका भंग ओघके समान है । अवस्थित पदका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम है । इसी प्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए । पचेन्द्रिय तिर्यञ्च त्रिकमें मोहनीयके भुजगार और अल्पतर पदका भंग ओघके समान है । अवस्थितपदके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिक में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पदके उदीरकका Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गां० ६२ ] मूलपयडिपदेसउदीरणाए भुजगारे भंगविचओ २०३ सट्ठिी देखणा । एवं मणुसतिये । णवरि अवत्त० जह० अंतोमु०, उक्क० पुव्वकोडिपुधत्तं । पंचि०तिरिक्खअपज ० - मणुसअपञ्ज० मोह० भुज० - अप्प ० - अवट्ठि० जह० एगस ०, उक्क० अंतोमु० । देवाणं णारयभंगो । एवं भवणादि जाव सव्वट्ठा ति । वरि सगहिदी देणा । एवं जाव० । $ ५४. णाणाजीवेहि भंगविचयाणु० दुविहो णि० - ओषेण आदेसेण य । ओघेण मोह ० ० भुज ० - अप्प ० - अवट्ठि० णिय० अत्थि, सिया एदे च अवत्तव्वगो च, सिया एदे च अवत्तव्वगा च । आदेसेण णेरइय० मोह० ज० - अप्प० णिय० अत्थि, सिया एदे च अवदिउदीरगो च, सिया एदे च अवट्ठिदउदीरगा च । एवं सव्वणिरय - सव्वपंचि ० तिरि० - सव्वदेवाति । तिरिक्खेसु सव्वपदा णियमा अत्थि । मणुसतिये मोह ० भुज ० - अप्प० णिय ० अत्थि । सेसपदा भयणिजा । मणुसअपज० सव्वपदा भयणिजा भंगा सव्वत्थ वत्तव्वा । एवं जाव० । जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटि पृथक्त्वप्रमाण है । पचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में मोहनीयके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । सामान्य देवोंमें नारकियों के समान भंग है। इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवस्थित पदके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण कहना चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ — नारकियों और देवोंमें अपनी-अपनी भवस्थिति तक ही उस उस पर्याय में रहना बनता है । किन्तु तिर्यों और मनुष्योंमें अपनी-अपनी कायस्थिति तक पुनः पुनः वही वही पर्याय प्राप्त होनेसे उस उस पर्यायमें निरन्तर रहना बन जाता है। यही कारण है कि यहाँ सर्वत्र अवस्थित पदके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है । $ ५४. नाना जीवोंका अवलम्बन लेकर भंगविचयानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदोंके उदीरक जीव नियमसे हैं, कदाचित् ये नाना जीव हैं और एक अवक्तव्य पदका उदीरक जीव है, कदाचित् ये नाना जीव हैं और नाना अवक्तव्य पदके उदीरक जीव हैं। आदेशसे नारकियों में मोहनीयके भुजगार और अल्पतर पदके उदीरक जीव नियमसे हैं, कदाचित् ये नाना जीव हैं और एक अवस्थित पदका उदीरक जीव है, कदाचित् ये नाना जीव हैं और नाना अवस्थित पदके उदीरक जीव हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पश्चेन्द्रिय तिर्यन और सब देवों में जानना चाहिए। तिर्यों में सब पदोंके उदीरक जीव नियमसे हैं। मनुष्यत्रिकमें मोहनीयके भुजगार और अल्पतर पदों के उदीरक जीव नियमसे हैं। शेष पद भजनीय हैं । मनुष्य अपर्याप्तकों में सब पद भजनीय हैं। भंग सर्वत्र कहने चाहिए । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [ वेदगो ७ ५५. भागाभागाणु० दुविहो णि०--ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० भुज० दुभागो देसूणो । अप्प० दुभागो सादिरेओ । अवढि० असंखे भागो । अवत्त. अणंतभागो । एवं सव्वणिरय-सव्वतिरिक्ख-मणुसअपज०-देवा भवणादि जाव अवराजिदा त्ति । णवरि अवत्त० णस्थि । मणुसेसु ओघं । णवरि अवत्त० असंखे०भागो। एवं मणुसपज०-मणुसिणी० । णवरि अवढि०-अवत्त० संखे०भागो। सव्वढे देवोघं । णवरि अवढि० संखे भागो । एवं जाव० । ५६. परिमाणाणु० दुविहो गिद्देसो-ओपेण आदेसेणय । ओघेण मोह० अवत्त० केत्तिया १ संखेजा । सेसपदा के० १ अणंता । एवं तिरिक्खा० । णवरि अवत्त० णत्थि । सव्वणिरय-सव्वपंचिंतिरिक्ख-मणुसअपज०-देवा जाव अवराजिदा ति मोह० सव्वपदा के० १ असंखेजा । एवं मणुसा० । णवरि अवत्त० केत्ति ? संखेज्जा । मणुस विशेषार्थ—मनुष्यत्रिकमें चार पद होते हैं। उनमेंसे भुजगार और अल्पतर ये दो पद ध्रुव हैं तथा अवस्थित और अवक्तव्य ये दो पद भजनीय हैं। ध्रुव पदके साथ इन दोनों भजनीय पदोंके एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा कुल आठ भंग होते हैं तथा इनके सिवा एक ध्रुव भंग और होता है, जो अवस्थित और अवक्तव्य पदके अभावमें भी पाया जाता है। अतएव मनुष्यत्रिकमें कुल नौ भंग हुए। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें भुजगार, अल्पतर और अवस्थित ये तीन पद हैं जो सभी भजनीय हैं, अतः इनमें एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा कुल छब्बीस बीस भंग होते हैं। मनुष्य अपर्याप्त यह सान्तर मार्गणा है, इसलिए इसमें सभी पद भजनीय कहे हैं । शेष कथन सुगम है। ५५. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयके भुजगार पदके उदीरक जीव कुछ कम द्वितीय भागप्रमाण हैं। अल्पतर पदके उदीरक जीव साधिक द्वितीय भागप्रमाण हैं। अवस्थित पदके उदीरक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं और अवक्तव्य पदके उदीरक जीव अनन्तवें भागप्रमाण हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यश्च, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पद नहीं है। मनुष्योंमें ओघके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्त व्य पदके उदीरक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवस्थित और अवक्तव्य पदके उदीरक जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं। सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें सामान्य देवोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि नम अवास्थत पदक उदोरक जीव संख्यातवं भागप्रमाण है । इसी प्रकार अनाहारक मागणा तक जानना चाहिए। .: ६५६. परिमाणानुगमको अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मोहनीयके अवक्तव्य पदके उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। शेष पदोंके उदीरक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं । इसी प्रकार तिर्यञ्चों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पद नहीं है। सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त और सामान्य देवोंसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें मोहनीयके सब पदोंके उदीरक जीव कितने हैं १ . असंख्यात हैं । इसी प्रकार सामान्य मनुष्योंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५ गा० ६२] मूलपयडिपदेसउदीरणाए भुजगारे पोसणं पज०-मणुसिणी-सव्वदृदेवा. मोह. सव्वपदा के० १ संखेज्जा । एवं जाव० । ५७. खेत्ताणु० दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० अवत्त० केव० १ लो० असंखे०भागे । सेसपदा० सव्वलोगे । एवं तिरिक्खा० । णवरि अवत्त० पत्थि । सेसगदीसु मोह० सव्वपदा० लोग० असंखे०भागे । एवं जाव० । ५८. पोसणाणु० दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोहक अवत्त० लोग० असंखे०भागो। सेसपदा० सव्वलोगो। एवं तिरिक्खा० । णवरि अवत्त० णत्थि । ५९. आदेसेण णेरइय० मोह. सव्वपदा० लोग० असंखे०भागो छ चोद्दस० । एवं विदियादि जाव सत्तमा त्ति । णवरि सगपोसणं ! पढमाए खेत्तं । सव्वपंचिंदियतिरिक्ख०-मणुसअपज. सन्वपदा० लोगस्स असंखे०भागो सव्वलोगोवा । एवं मणुसतिये। णवरि अवत्त० खेत्तं । देवेसु मोह० सव्वपद० लोग० असंखे०भागो अढ णव चोद्दस० । अवक्तव्य पदके उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें मोहनीयके सब पदोंके उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। इसी प्रकार अनाहारक मागेणा तक जानना चाहिए। $ ५७. क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयके अवक्तव्य पदके उदीरकोंका क्षेत्र कितना है? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। शेष पदोंके उदीरकोंका क्षेत्र सर्व लोकप्रमाण है। इसी प्रकार तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए । इतती विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पद नहीं है। शेष गतियोंमें मोहनीयके सब पदोंके उदीरकोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ६५८. स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयके अवक्तव्य पदके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदोंके उदीरकोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार तिर्यश्चोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पद नहीं है। ६५९. आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयके सब पदोंके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपना-अपना स्पर्शन कहना चाहिए। पहली पृथिवीमें क्षेत्रके समान भंग है। सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब पदोंके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पदका भंग क्षेत्रके समान है। सामान्य देवोंमें मोहनीयके सब पदोंके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार १. आ०प्रतौ असंखे भागो इति पाठः । २. आ०प्रतौ असंखे०भागो इति पाठः। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे 1 [वेदगो ७ एवं भवणादि जाव अचुदा त्ति । णवरि सगपोसणं । उवरि खेत्तभंगो । एवं जाव० । ६०. कालाणु० दुविहो णिदेसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० अवत्त० जह० एयसमओ, उक्क० संखेजा समया । सेसपदा० सव्वद्धा । एवं तिरिक्खा० । णवरि अवत्त० णत्थि । सव्वणिरय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-देवा जाव अवराजिदा त्ति मोह. भुज०-अप्प० सव्वद्धा । अवढि० जह० एगस०, उक० आवलि० असंखे०भागो । एवं मणुसा० । णवरि अवत्त० ओघं । एवं पञ्जत्त-मणुसिणीसु । एवं सव्वडे। णवरि अवत्त० "त्थि । मणुसअपज. मोह. भुज०-अप्प० जह० एयस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । अवढि० जह० एगस०, उक्क. आवलि. असंखे०भागो । ६६१. अंतराणु० दुविहो णिद्देसो-ओषेण आदेसेण य । ओषेण मोह. अवत्त० जह० एयस०, उक्क० बासपुधत्तं । सेसपदाणं णत्थि अंतरं । एवं तिरिक्खा० । णवरि अवत्त० णत्थि । सव्वणिरय-सव्वपंचिंतिरिक्ख-सव्वदेवा ति भुज-अप्प० भवनवासियोंसे लेकर अच्युत कल्प तकके देवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अपना-अपना स्पर्शन कहना चाहिए। ऊपर क्षेत्रके समान स्पर्शन है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ--स्वामित्व और स्पर्शनको ध्यानमें रखकर प्रकृतमें ओघ और चारों गतियों तथा उनके अवान्तर भेदोंकी अपेक्षा स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए। अन्य कोई विशेषता न होनेसे यहाँ खुलासा नहीं किया। ६०. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयके अवक्तव्य पदके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। शेष पदोंके उदीरकोंका काल सवदा है। इसी प्रकार तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पद नहीं है। सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तियश्च और सामान्य देवोंसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें मोहनीयके भुजगार और अल्पतर पदोंके उदीरकोंका काल सर्वदा है। अवस्थित पदके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार मनुष्योंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पदका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियों में जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पद नहीं है। मनुष्य अपर्याप्तकों में मोहनीयके भुजगार और अल्पतर पदों के उदीरकोका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवस्थित पदके उदीरकों का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। . ६ ६१. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयके अवक्तव्य पदके उदीरकों का जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्वप्रमाण है। शेष पदों के उदीरकों का अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार तियश्चों में जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पद नहीं है। सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च और सब देवों में मोहनीयके मुजगार और अल्पतर पदके उदीरकों का Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] मूलपयडिपदेसउदीरणाए भुजगारे अप्पा बहुअं २०७ णत्थि अंतरं । अवट्ठि० जह० एयस०, उक्क० असंखेजा लोगा । एवं मणुसतिये | वरि अवत्त० ओघं । मणुसअप • मोह० भुज० - अप्प० जह० एगस०, उक्क० पलिदो ० असंखे० भागो । अवट्ठि० जह० एगस०, उक्क० असंखेजा लोगा । एवं जाव ० । ६ ६२. भावाणु० सव्वत्थ ओदइओ भावो । ० ६३. अप्पा बहुआणु ० दुविहो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह सव्वत्थोवा अवत्त० । अवट्ठि० अनंतगुणा । भुज० असंखे ० गुणा । अप्प० विसेसाहिया । एवं सव्वणिरय - सव्वतिरिक्ख - मणुस अपज ० – देवा जाव अवराजिदा ति । णवरि अवत्त ० for । मणुसे ओधं । णवरि अवट्ठि ० असंखेजगुणा । एवं मणुसपञ्ज०- मणुसिणीसु । वरि संखेअगुणं कायव्वं । एवं सव्वट्ठे । णवरि अवत्त ० णत्थि । एवं जवि ० । एवं भुजगारो समत्तो । अन्तरकाल नहीं है । अवस्थित पदके उदीरकों का जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है । इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पदका भंग ओघके समान है। मनुष्य अपर्याप्तकों में मोहनीयके भुजगार और अल्पतर पदके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अवस्थित पदके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । $ ६२. भावानुगमकी अपेक्षा सर्वत्र औदयिक भाव है। § ६३. अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयके अवक्तव्य पदके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थित पदके उदीरक जीव अनन्तगुणे हैं। उनसे भुजगार पदके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अल्पतर पदके उदीरक जीव विशेष अधिक हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यश्व, मनुष्य अपर्याप्त और सामान्य देवोंसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पद नहीं है । सामान्य मनुष्यों में ओघके समान भंग है । इतनी विशेषता है इनमें अवस्थित पदके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें असंख्यातगुणेके स्थान में संख्यातगुणा करना चाहिए। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्यपद नहीं है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ-- सब नारकी, सब तिर्यख, मनुष्य अपर्याप्त और सब देवोंमें अवक्तव्य पदके सिवाय तीन ही पद होते हैं। इसलिए मूलमें निर्दिष्ट सब नारकी आदि जिन मार्गणाओं में एवं कह कर ओघके समान जाननेकी सूचना की है वहाँ उस कथनका यह आशय समझना चाहिए कि उक्त मार्गणाओंमें अवस्थित पदके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। पदके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं और उनसे अल्पतर पदके उदीरक जीव हैं। शेष कथन सुगम है । उनसे भुजगार विशेष अधिक इस प्रकार भुजगार अनुयोगद्वार समाप्त हुआ | Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो 5 ६४. पदणिक्खेवो वड्डी वि जाणिऊण भाणियव्वा । एवं मूलपयडिपदेसुदीरणा समत्ता । * तदो उत्तरपयडिपदेसुदीरणा च समुचित्तणादि अप्पाबहुअंतेहि अणिओगद्दारेहि मग्गियव्वा।। ६५. तदो मूलपयडिपदेसुदीरणविहासणादो अणंतरमिदाणिमुत्तरपयडिपदेसुदीरणा समुक्त्तिणादि अप्पाबहुअपजतेहि अणिओगद्दारेहि विहासियव्वा त्ति भणिदं होइ । एत्थ ताव सामित्तादो हेडिमाणमणियोगद्दाराणं सुगमत्तादो चुण्णिसुत्तयारेण मुत्तकंठमपरूविदाणमुच्चारणामुहेण विवरणं कस्सामो। तं जहा ६६. समुक्त्तिणा दुविहा—जह० उक्क० । उक्स्से पयदं । दुविहो णिद्देसोओघेण आदेसेण य । ओघेण अट्ठावीसं पयडीणं अत्थि उक्क० पदेसुदीरणा । सव्वणिरय-सव्वतिरिक्ख-सव्वमणुस-सव्वदेवा ति अप्पप्पणो पयडी० अत्थि उक्क० पदेसुदीरणा । एवं जाव० । एवं जहण्णयं पि णेदव्वं । एवं जाव । ६४. पदनिक्षेप और वृद्धिका भी जान कर कथन कराना चाहिए। इस प्रकार मूल प्रकृति पदेश उदीरणा समाप्त हुई। * इसके बाद समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पवहुत्व तकके अनुयोगद्वारोंके आश्रयसे उत्तरप्रकृतिप्रदेश उदीरणाका विशेष व्याख्यान करना चाहिए। ६५. 'तदो' अर्थात् मूलप्रकृतिप्रदेश उदीरणाके व्याख्यानके बाद इस समय उत्तरप्रकृतिप्रदेशउदीरणाका समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तकके अनुयोगद्वारोंके आश्रयसे विशेष व्याख्यान करना चाहिए यह उक्त सूत्रवचनका तात्पर्य है । यहाँ स्वामित्वसे पूर्व के अनुयोगद्वार सुगम होनेसे सूत्रकारके द्वारा मुक्तकण्ठ होकर नहीं गये हैं, इसलिए उच्चारणा द्वारा उनका व्याख्यान करेंगे। यथा ६६६. समुत्कीर्तना दो प्रकारकी है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उस्कृष्ट प्रदेश उदीरणा है। सब नारकी, सब तिर्यञ्च, सब मनुष्य और सब देव इनमें अपनी-अपनी प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । इसी प्रकार जघन्य समुत्कीर्तना भी जाननी चाहिए । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ-नारकियोंमें स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उदय-उदीरणा सम्भव नहीं। तिर्यश्च अपर्याप्तकों और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उदय-उदीरणा नहीं होती। ऐशान कल्प तकके देवोंमें नपुंसकवेदको उदय-उदीरणा नहीं होती । आगे नौवें अवेयक तकके देवोंमें स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी उदय-उदीरणा नहीं होती तथा नौ अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमानवासी देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी उदय-उदीरणा नहीं होती। इनके सिवाय जहाँ जितनी प्रकृतियाँ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए सादि आदि अणियोगद्दाराणि २०९ ६७. सव्वुदीर० णोसव्वुदीर० उक्कस्सउदीर० अणुक्क० उदीर० जहण्णुदी० अजहण्णुदी० अणुभागुदीरणाए भंगो । . ६८. सादि०-अणादि०-धुव-अद्भुवाणु० दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ० उक्क० जह० अजह० किं सादि०४१ सादि० अधुवा । अणुक्क० सादि० अणादि० धुवा अधुवा वा । सेसपयडी० उक्क० अणुक्क० जह० अजह. सादि० अधुवा । चदुगदीसु उक० अणुक्क० जह० अजह. सव्वपयडि० सादि० अधुवा । एवं जाव० । * तत्थ सामित्त। उदय-उदीरणा योग्य हैं वहाँ उनकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा जाननी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। ६७. सर्व उदीरणा, नोसर्व उदीरणा, उत्कृष्ट उदीरणा, अनुत्कृष्ट उदीरणा, जघन्य उदीरणा और अजघन्य उदीरणाका भंग अनुभागउदीरणाके समान जानना चाहिए । ६८. सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुवानुगमको अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरणा क्या सादि है, अनादि है, ध्रुव है या अध्रुव है ? सादि और अध्रुव है। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव है। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरणा सादि और अध्रुव है। चारों गतियोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरणा सादि और अध्रुव है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ-मोहनीयको २८ प्रकृतियोंमें एक मिथ्यात्व प्रकृति ही ऐसी है जिसका मिथ्यात्व गुणस्थानमें निरन्तर उदय बना रहता है। शेष सब प्रकृतियाँ ऐसी नहीं हैं। इसलिए यहाँ मिथ्यात्वको छोड़ कर शेष सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्टादि चारों प्रकारको प्रदेश उदीरणा सादि और अध्रुव कही है। अब शेष रही मिथ्यात्व प्रकृति सो इसकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा ऐसे जीवके होती है जो संयमके अभिमुख हुआ अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि है। यही कारण है कि इसके पूर्व इसकी अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा होती रहती है, इसलिए वह अनादि है और सम्यग्दृष्टि या संयमी जीवके पुनः मिथ्यादृष्टि होने पर जो अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा होती है वह सादि है। तथा भव्योंकी अपेक्षा वह अध्रुव है और अभन्योंकी अपेक्षा ध्रुव है। इसकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा सादि और अध्रुव है यह पूर्वोक्त स्वामित्व विचारसे हो स्पष्ट है। इसकी जघन्य प्रदेश उदीरणा उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाले या ईषत् मध्यम परिणामवाले संज्ञी मिथ्यादृष्टिके होती है, इसलिए उक्त स्वामित्वके अनुसार कादाचित्क होनेसे यह भी सादि और अध्रुव है। तथा अजघन्य प्रदेश उदीरणा जघन्य प्रदेश उदीरणा पूर्वक होनेके कारण सादि और अध्रव है यह स्पष्ट ही है। चारों गतियाँ और उनके अवान्तर भेद कादाचित्क होनेसे इनमें सभी प्रकृतियोंकी चारों प्रकारकी उदीरणा सादि और अध्रुव है यह स्पष्ट ही है। * प्रकृतमें स्वामित्वका अधिकार है। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ ६९. तत्थ उत्तरपयडिपदेसुदीरणाए चउवीसअणिओगद्दारेसु एगजीवेण सामित्तमिदाणिं वत्तइस्सामो त्ति पइण्णावकमेदं । तं पुण सामित्तं दुविहं जहण्णुक्कस्सभेदेण । तत्थुक्कस्ससामित्तमोघेण परूवेमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भइण* मिच्छत्तस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा कस्स ? ७०. सुगमं। * संजमाहिमुहचरिमसमयमिच्छाइहिस्स से काले सम्मत्त संजमंच पडिवजमाणगस्स। ७१. जो मिच्छाइट्ठी अण्णदरकम्मंसिओ वेदगसम्मत्तपाओग्गो अधापवत्तापुव्वकरणाणि कादूण संजमाहिमुहो जादो तस्स अंतोमुहुत्तमणंतगुणाए विसोहिए विसुज्झिदूण चरिमसमयमिच्छाइडिभावेणावद्विदस्स पयदुक्कस्ससामित्तं होइ, से काले सम्मत्तेण सह संजमं पडिवजमाणस्स तस्स सव्वुक्कस्सविसोहिदसणादो त्ति एसो एदस्स सुत्तस्स समुदायत्थो । एत्थ पदेसुदीरणा बहुत्तमिच्छिय गुणिदकम्मंसियत्तं किण्ण इच्छिजदे ? ण, परिणामतारतम्माणुविहाइणीए उदीरणाए दव्वविसेसाणवेक्खित्तादो। जइ पदेसुदीरणाए परिणामविसेसो चेव कारणं तो उवसमसम्मत्तेण सह संजमं पडिवजमाणमिच्छा $ ६९. 'तत्थ' अर्थात् उत्तर प्रकृति प्रदेश उदीरणाके चौबीस अनुयोगद्वारोंमें इस समय एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्वको बतलाते हैं इस प्रकार यह प्रतिज्ञावाक्य है। जघन्य और उत्कृष्टके भेदसे वह स्वामित्व दो प्रकारका है। उनमेंसे ओघसे उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं * मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा किसके होती है ? ७०. यह सूत्र सुगम है। * जो अनन्तर समयमें सम्यक्त्व और संयमको प्राप्त होनेवाला है ऐसे संयमके अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिके होती है । - ७१. अन्यतर कर्माशिक वेदक सम्यक्त्वप्रायोग्य जो मिथ्यादृष्टि जीव अधःकरण और अपूर्वकरण करके संयमके अभिमुख हुआ, अन्तर्मुहूर्त काल तक अनन्तगुणी विशुद्धिसे विशुद्ध होकर मिथ्यादृष्टि भावसे अवस्थित हुए उसके अन्तिम समयमें प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्व होता हैं, क्योंकि तदनन्तर समयमें सम्यक्त्वके साथ संयमको प्राप्त होनेवाले उसके सबसे उत्कृष्ट विशुद्धि देखी जाती है यह इस सूत्रका समुच्चय अर्थ है। शंका-प्रकृतमें प्रदेश उदीरणाके बहुत्वकी इच्छासे गुणितकर्माशिकता क्यों नहीं स्वीकार की गई ? समाधान--नहीं, क्योंकि परिणामोंके तारतम्यका अनुविधान करनेवाली उदीरणा द्रव्यविशेषोंकी अपेक्षासे रहित होती है। शंका-यदि प्रदेश उदीरणामें परिणामविशेष ही कारण है तो हम उपशम सम्यक्त्वके Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११ गा• ६२] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए सामित्तं इट्ठिस्स मिच्छत्तपढमद्विदीए समयाहियावलियमेत्तसेसाए पयदुक्कस्ससामित्तं गेण्हामो, व्विलसंजमाहिमुहचरिमसमयमिच्छाइद्विस्स अपुष्वकरणुक्कस्सविसोहीदो एत्थतणविसोहीए अणियट्टिकरणमाहप्पेणाणंतगुणत्तदंसणादो ? एत्थ परिहारो वुच्चदे-एदम्हादो पुन्विलो चेव अपुव्वकरणपरिणामो विसुद्धयरो, संजमपञ्चासत्तिबलेण समुवलद्धमाहप्पनादो । तदो विसयंतरपरिहारेण सुत्तुद्दिट्टविसये चेव पयदुक्कस्ससामित्तमवहारेयव्वं । 5 ७२. संपहि सम्मत्तस्स पयदुक्कस्समामित्तविसयावहारणमुत्तरसुत्तं भणइ* सम्मत्तस्स उक्कस्सिया पदेसु वीरणा कस्स ? ७३. सुगमं । ___ * समयाहियावलियअक्खीणदसणमोहणीयस्स । ६७४. जो दंसणमोहणीयक्खवगो अण्णदरकम्मंसिओ अणियट्टिअद्धाए संखेजेसु भागेसु गदेसु असंखेजाणं समयपवद्धाणमुदीरणमाढविय मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्ताणि जहाकम खविय तदो सम्मत्तं खवेमाणो अणियट्टिकरणचरिमसमये सम्मत्तचरिमफालिं णिवादिय कदकरणिजो होदणंतोमुहुत्तं समयाहियावलियअक्खीणदंसणमोहणीयभावेसाथ संयमको प्राप्त होनेवाले मिथ्यादृष्टिके मिथ्यात्वको प्रथम स्थितिमें एक समय अधिक एक आवलिमात्र शेष रहने पर प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्वको स्वीकार करते हैं, क्योंकि पहलेके संयमके अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिके अपूर्वकरणसम्बन्धी उत्कृष्ट विशुद्धिसे यहाँ की विशुद्धि अनिवृत्तिकरणके माहात्म्यसे अनन्तगुणी देखी जाती है ? समाधान-अब यहाँ इस शंकाके परिहारका कथन करते हैं-इस परिणामसे पहलेका ही अपूर्वकरण परिणामविशुद्धतर है, क्योंकि वह संयमकी प्रत्यासत्तिके बलसे माहात्म्यको लिये हुए है। इसलिए विषयान्तरका परिहार कर सूत्र कथित अधिकारीके ही प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्व निश्चित करना चाहिए। ७२. अब सम्यक्त्वके प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्वके अधिकारीका निश्चय करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा किसके होती है ? ६७३. यह सूत्र सुगम है। * एक समय अधिक एक आवलि कालसे युक्त अक्षीण दर्शनमोही कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिके होती है। ७४. अन्यतर कर्माशिक जो दर्शनमोहनीयका क्षपक जीव अनिवृत्तिकरणके कालमें संख्यात बहुभाग जाने पर असंख्यात समयप्रबद्धोंकी उदीरणाका आरम्भकर तथा मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वका क्रमसे क्षयकर तदनन्तर सम्यक्त्वका क्षय करता हुआ अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समयमें सम्यक्त्वकी अन्तिम फालिका पतन कर तथा कृतकृत्य होकर अन्तर्मुहूर्तके बाद जब एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण कालसे युक्त अक्षीण दर्शनमोहनीयरूपसे अवस्थित हो जाता है तब उसके प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्व होता है, क्योंकि उसके एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण गुणश्रेणि गोपुच्छाएँ अन्तिम स्थितिमेंसे उदीर्यमाण असंख्यात Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ जयधंवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ वो तस्स पदुकस्ससामित्तं होइ । कुदो १ तस्स समयाहियावलियमेत्तगुण सेढि - गोच्छाणं चरिमट्ठिदीदो उदीरिजमाणाणमसंखेजाणं समयपबद्धाणं हेट्ठिमासेसपदेसुदीरणाहिंतो असंखेजगुणत्तदंसणादो । समयाहियावलिय अक्खीदंसणमोहणीयं मोतूण ट्ठा अणि किरणचरिमसमए पयदुक्कस्ससामित्तं दाहामो, तत्थतणाणियट्टिपरिणामस्स कदकरणिजुकस्सविसोहीदो वि अनंतगुणत्तदंसणादो । एत्थ परिहारो वुञ्जदे -- सच्चमेदमणियरिमपरिणामो बहुओ ति । किंतु एसो कदकरणिजो संकिलिस्सदु विसुज्झदु वा तो वि अंतोमुहुत्तमेत्तसगकालब्भंतरे असंखेजगुणमसंखेजगुणं दव्वमोकडिदूण समयं पड उदीरेदि । तम्हा विसयंतरपरिहारेणेत्थेव पयदसामित्तमवहारेयव्वमिदि । $ ७५. संपहि सम्मामिच्छत्तस्स पयदुकस्ससामित्तविसयावहारणडुमाह* सम्मामिच्छत्तस्स उक्कसिया पदेसुदीरणा कस्स ? $ ७६. सुगमं । * सम्मत्ताहिमुहचरिमसमयसम्मामिच्छाइट्ठिस्स सव्वविस द्धस्स । $ ७७, जो सम्माहिमुहो चरिमसमयसम्मामिच्छाइट्ठी सव्वविसुद्धो तस्स पयदुकस्ससामित्तं होइ । किं कारणं १ उक्कस्सविसोहिपरिणामेण विणा पदेसुदीरणाए उक्करसभावाणुववत्चीदो । समयप्रबद्धोंकी अधस्तन अशेष प्रदेश उदीरणासे असंख्यातगुणीं देखी जाती हैं। 1 शंका – हम एक समय अधिक एक आवलि कालसे युक्त अक्षीण दर्शनमोहीको छोड़ कर इसके पूर्व अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समयमें प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्व देते हैं, क्योंकि वहाँका अनिवृत्तिकरण परिणाम कृतकृत्यकी उत्कृष्ट विशुद्धिसे भी अनन्तगुणा देखा जाता है ? समाधान —यहाँ उक्त शंकाके परिहारका कथन करते हैं - यह सत्य कि अनिवृत्तिकरणसम्बन्धी अन्तिम परिणाम विशुद्धिकी अपेक्षा बहुत है । किन्तु यह कृतकृत्य जीव क्लिष्ट हो अथवा विशुद्ध होओ तो भी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अपने कालके भीतर असंख्यात - गुणे द्रव्यका अपकर्षण कर प्रत्येक समय में उसकी उदीरणा करता है, इसलिए विषयान्तरका परिहार कर यहाँ ही प्रकृत स्वामित्वका निश्चय करना चाहिए । ७५. अब सम्यग्मिथ्यात्वके प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्वके स्थानका निश्चय करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं— * सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा किसके होती है ? $ ७६. यह सूत्र सुगम है । * सम्यक्त्वके अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती सर्व विशुद्ध सम्यग्मिथ्यादृष्टिके होती है । $ ७७. जो सम्यक्त्वके अभिमुख हुआ अन्तिम समयवर्ती सर्व विशुद्ध सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव है उसके प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्व होता है, क्योंकि उत्कृष्ट विशुद्धिरूप परिणामके बिना प्रदेश उदीरणाका उत्कृष्टपना नहीं बन सकता । Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए सामित्तं * अणंताणुबंधीणं उक्कस्सिया पदेसुदीरणा कस्स ? $ ७८. सुगमं । * संजमाहिमुहचरिमसमयमिच्छाइट्ठिस्स सव्वविस द्धस्स । गा० ६२ ] २१३ $ ७९. एदस्स सुत्तस्स मिच्छत्तसामित्तसुत्तस्सेव वक्खाणं कायव्वं, सामित्तविसयमेदाभावाद | * अपच्चक्खाणकसायाणमुक्कस्सिया पदेसउदीरणा कस्स ? ८०. सुगमं । * संजमाहिमुहचरिमसमयअसंजदसम्माइट्ठिस्स सव्वविस द्धस्स ईसिमज्झिमपरिणामस्स वा । $ ८१. जो असंजदसम्माइट्ठी अण्णदरकम्मंसिओ संजमाहिमुह होण अनंतगुणाए fruise अंतमुत्तकालं विसुद्धो तस्स चरिमसमये वट्टमाणगस्स पयदुकस्स सामित्तं हो, तो अण्णत्थापचक्खाणपदेसुदीरणापाओग्गुकस्सविसोहीए अणुवलंभादो । तस्स पुण विसेसणंतरमेदं सव्वविसुद्धस्से त्ति हेट्ठिमासेसविसोहीहिंतो अनंतगुणाए चरिमुकस्सविसोहीए परिणदस्से त्ति भणिदं होदि । ण केवलमेसो एयवियप्पो चैव परिणामो . उक्कस्सपदेसुदीरणाए कारणं, किंतु अण्णो वि परिणामवियप्पो अत्थि त्ति पदुप्पायणमाह – ईसिमज्झिमपरिणामस्स वा । एतदुक्तं भवति — संजमाहिमुहचरिमसमय * अनन्तानुबन्धियोंकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा किसके होती है ? $ ७८. यह सूत्र सुगम है । * संयमके अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती सर्वविशुद्ध मिथ्यादृष्टिके होती है । $ ७९. इस सूत्रका मिध्यात्वके स्वामित्व विषयक सूत्रके समान ही व्याख्यान करना चाहिए, क्योंकि इन दोनोंमें स्वामित्वविषयक भेद नहीं पाया जाता । * अप्रत्याख्यानावरण कषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा किसके होती है ? $ ८०. यह सूत्र सुगम है । * सर्वविशुद्ध अथवा ईषत् मध्यम परिणामवाले संयम के अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती असंयतसम्यग्दृष्टिके होती है । $ ८१. जो असंयतसम्यग्दृष्टि अन्यतर कर्माशिक जीव संयमके अभिमुख होकर अन्तमुहूर्त काल तक अनन्तगुणी विशुद्धिसे विशुद्ध हुआ है उसके अन्तिम समयमें प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्व होता है, क्योंकि इसके सिवाय अन्यत्र अप्रत्याख्यानावरण कषायोंकी प्रदेश उदीरणाके योग्य उत्कृष्ट विशुद्धि नहीं पाई जाती । तथा उसका दूसरा विशेषण यह है - सव्ववियुद्धस्स - 'अधस्तन समस्त विशुद्धियोंसे अनन्तगुणी अन्तिम उत्कृष्ट विशुद्धिसे परिणत हुए जीवके' यह उक्त कथनका तात्पर्य है । केवल यह एक प्रकारका ही परिणाम उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका कारण नहीं है, किन्तु अन्य भी परिणाम विकल्प है इस बातका कथन करनेके लिए सूत्रमें कहा हैईसिमज्झिमपरिणामस्स वा । इसका यह तात्पर्य है कि संयम अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ असंजदसम्माइद्विस्स असंखेअलोगमेत्ताणि विसोहिट्ठाणाणि जहण्णट्ठाणप्पहुडि छवडिसरूवेणावद्विदाणि अत्थि, तेसिमायामे आवलियाए असंखेजभागमेत्तमागहारेण खंडिदे तत्थ चरिमखंडसव्वपरिणामेहिं असंखेजलोगभेयभिण्णेहिं उक्कस्सिया पदेसुदीरणा ण विरुज्झदि त्ति । तखंडचरिमपरिणामो सव्वविसुद्धपरिणामो णाम । तत्थेव जहण्णपरिः णामो ईसिपरिणामो णाम । सेसासेसपरिणामा मज्झिमपरिणामा त्ति भणंते । कथमेदेहि भिण्णपरिणामेहिं उक्कस्सपदेसुदीरणलक्खणकजस्साभिण्णसरुवस्स सिद्धी ण विरुज्झदि त्ति णासंकणिजं, कत्थ वि भिण्णकारणेहितो वि अभिण्णकञ्जुप्पत्तीए बाहाणुवलंभादो । तदो सव्वविसुद्धस्स ईसिमझिमपरिणामस्स वा संजमाहिमुहचरिमसमयअसंजदसम्माइद्विस्स पयदुक्कस्ससामित्तमिदि ण किंचि विरुद्धं ।। * पच्चक्खाणकसायाणमुक्कस्सिया पदेसुदीरणा कस्स ? 5 ८२. सुगमं । * संजमाहिमुहचरिमसमयसंजदासंजदस्स सव्वविसुद्धस्स ईसिमझिम परिणामस्स वा। ६.८३. एदस्स सुत्तस्स अत्थो अणंतरादीदसामित्तसुत्तस्सेव वक्खाणेयव्वो, विसेसाभावादो। णवरि तत्थ संजमाहिमुहचरिमसमयअसंजदसम्माइट्ठिस्स उक्कस्ससामित्तं असंयतसम्यग्दृष्टिके जघन्य स्थानसे लेकर छह वृद्धिरूपसे अवस्थित असंख्यात लोकप्रमाण विशुद्धिस्थान हैं। उनके आयाममें आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण भागहारका भाग देने पर वहाँ जो अन्तिम खण्डके परिणाम प्राप्त हों, असंख्यात लोकप्रमाण भेदरूप उन सब अन्तिम खण्डके परिणामोंके द्वारा उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा विरोधको प्राप्त नहीं होती है । उस खण्डका जो अन्तिम परिणाम है वह सर्वविशुद्ध परिणाम संज्ञावाला है और उसी खण्डमें जघन्य परिणाम है, उसकी ईषत् परिणाम संज्ञा है। उनके सिवाय शेष अशेष परिणाम मध्यम परिणाम कहलाते हैं। शंका-इन भिन्न परिणामोंसे अभिन्नस्वरूप उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा लक्षण कार्यकी सिद्धि कैसे विरोधको प्राप्त नहीं होती ? समाधान--ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि कहीं भी भिन्न कारणोंसे भी अभिन्न कार्योंकी उत्पत्ति होनेमें बाधा नहीं पाई जाती। इसलिए सर्वविशुद्ध अथवा ईषत् मध्यम परिणामवाले संयमके अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती असंयतसम्यग्दृष्टि जीवके प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्व होता है, इसमें कुछ भी विरुद्ध नहीं है। * प्रत्याख्यानावरण कषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा किसके होती है ? ६८२. यह सूत्र सुगम है। * सर्व विशुद्ध अथवा ईषत् मध्यम परिणामवाले संयमके अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती संयतासंयतके होती है। $ ८३. अनन्तर अतीत हुए स्वामित्व सूत्रके समान इस सूत्रके अर्थका व्याख्यान करना चाहिए, क्योंकि उसके व्याख्यानसे इसके व्याख्यानमें कोई विशेषता नहीं है । इतनी विशेषता Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए सामित्तं जादं । एत्थ वुण तव्विसोहीदो अनंतगुणसंजमाहिमुहचरिमसमयसंजदासंजदविसोहीए उक्कस्ससामित्तमिदि एत्तियो मेदो सुत्तणिद्दिट्ठो दट्ठव्वो । * कोहसंजलणस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा कस्स । ८४. सुगमं । * खवगस्स चरिमसमयकोधवेदगस्स । ९ ८५. एत्थ खवगणिद्देसो अक्खवगपडिसेहफलो । किमहं तप्पडिसेहो कीरदे १ ण, हेट्ठिमासेस विसोहीओ पेक्खियूणानंतगुणाए खवगविसोहीए असंखेजाणं समयपबद्धाणमुदीरणं घेत्तणे पयदसामित्तविहाणङ्कं तप्पडिसेहकरणादो | दुचरिमादिसमय कोहवेदगपडिसेहट्टं चरिसमयको हवेदगस्से ति णिद्देसो । तदो अण्णदरकम्मंसियलक्खणेणागंतूणण दर वेद-कोह संजलणाणमुदएण खवगसेढिमारुहिय कोहसंजलणपढमट्ठिदि पढमविदिय-तदियसंग किट्टवेदगकालाणुसंधाणेण लद्धमाहप्पं थोवावसेसं गालिय जाधे समयाहियावलियमे तपढमट्ठिदीए चरिमसमयको वेदगभावेणावद्विदो ताधे तस्स पढमट्ठिदिचरिमगुणसेढिगोकुच्छादो उदीरिजमाणासं खेज्जसमयपवद्धे घेत्तूण पयदसा मित्तसंबंधो aai in अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती असंयत सम्यग्दृष्टिके उत्कृष्ट स्वामित्व प्राप्त हुआ है, किन्तु यहाँ उस विशुद्धिकी अपेक्षा संयम अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती संयतासंयतकी अनन्तगुणी विशुद्धिसे उत्कृष्ट स्वामित्व प्राप्त हुआ है इस प्रकार सूत्रमें निर्दिष्ट किया गया इतना ही भेद जानना चाहिए । * क्रोधसंज्वलनकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा किसके होती है । $ ८४. यह सूत्र सुगम है । * अन्तिम समयवर्ती क्रोधवेदक क्षपकके होती है । $ ८५. यहाँ सूत्रमें क्षपक पदके निर्देशका फल अक्षपकका निषेध करना है । शंका-उसका निषेध किसलिए करते हैं ? २१५ समाधान -- नहीं, क्योंकि नीचेकी समस्त विशुद्धियोंको देखते हुए उनसे अनन्तगुणी क्षपकसम्बन्धी विशुद्धिसे असंख्यात समयप्रबद्धोंकी उदीरणाको ग्रहण कर प्रकृत स्वामित्वका विधान करनेके लिए उसका प्रतिषेध किया है। तथा द्विचरम आदि समयवर्ती क्रोधवेदकका प्रतिषेध करनेके लिए 'चरमसमयकोह वेद्गस्स' इस पदका निर्देश किया है । इसलिए अन्यतर कर्माशिक लक्षणसे आकर, अन्यतर वेद और क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर आरोहण कर तथा प्रथम, द्वितीय और तृतीय संग्रहकृष्टिके वेदककालके अनुसन्धान द्वारा जिसने माहात्म्य प्राप्त किया है ऐसी क्रोधसंज्वलनसम्बन्धी प्रथम स्थितिके कुछ भागको छोड़कर शेष सब भागको गलाकर जब एक समय अधिक एक आवलिमात्र प्रथम स्थितिके अन्तिम समयमें क्रोधवेदकभावसे अवस्थित होता है तब उसके प्रथम स्थिति सम्बन्धी अन्तिम गुणश्रेणि १. ता०प्रतौ - मुदीरणं च घेण इति पाठः । २, आ०प्रतौ - विदियसंगह - इति पाठः । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे २१६ काव्वोति एसो एदस्स सुत्तस्स समुदायत्थो । * एवं माण- मायासंजलणाणं । [ वेदगो ९ ८६. सुगममेदमप्पणासुतं । णकरि कोध-माणाणमुदएण खवगसेटिं चढिदस्स चरिमसमयमाणवेदगस्स माणसंजलणविसय मुकस्ससामित्तं कायव्वं । कोह- माण- मायाणमुद्रण सेढिमारूढस्स चरिमसमयमायावेदगस्स मायासंजलणपदेसुदीरणाविसय मुक्कस्ससामित्तं होदि ति एसो विसेसो एत्थ दट्ठव्वो । * लोहसंजलणस्स उक्कस्सिया पदेस दीरणा कस्स ? ९८७. सुगममेदं पुच्छावकं । * खवगस्स समयाहियावलियचरिमसमयसकस्सायस्स । $ ८८. जो खवगो अण्णदरकम्मंसियलक्खणेणागदो अण्णदरवेद-संलणाणमुदण सेढिमारुहिय जहाकमम पुव्वाणियट्टिकरणगुणट्ठाणाणि बोलिय सुहुमसांपराइयो हो तत्थ समयाहियावलियस कसायभावेणवट्ठिदो तक्कालोदीरिजमाणासंखेजसमयपद्धे घेण पयदुकस्ससामित्तसंबंधो कायव्वो, हेडिमासेसपदेसुदीरणाहिंतो एत्थतणपदेसुदीरणाए गोपुच्छामेंसे उदीर्यमाण असंख्यात समयप्रबद्धोंको ग्रहण कर प्रकृत स्वामित्वका सम्बन्ध चाहिए, यह इस सूत्र का समुच्चयरूप अर्थ है । * इसी प्रकार मानसंज्वलन और मायासंज्वलनकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका स्वामित्व जानना चाहिए । $ ८६. यह अर्पणासूत्र सुगम है । इतनी विशेषता है कि क्रोध और मानके उदयसे क्षपकश्रेणि पर चढ़े हुए अन्तिम समयवर्ती मानवेदकके मानसंज्वलन सम्बन्धी उत्कृष्ट स्वामित्व करना चाहिए । तथा क्रोध, मान और माया संज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणि पर चढ़े हुए अन्तिम समयवर्ती मायावेदकके मायासंज्वलनसम्बन्धी प्रदेश उदीरणाविषयक उत्कृष्ट स्वामित्व होता है, इस प्रकार यह विशेष यहाँ पर जानना चाहिए । * लोभसंज्वलनकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा किसके होती है । $ ८७. यह पृच्छावाक्य सुगम है । * जो एक समय अधिक एक आवलि कालके अन्तिम समय तक सकषायभावसे. अवस्थित है उस क्षपकके होती है । $ ८८. अन्यतर कर्मांशिक लक्षणसे आया हुआ जो क्षपक अन्यतर वेद और अन्यतर संज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणि पर आरोहण कर, क्रमसे अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण गुणस्थानोंको बिताकर तथा सूक्ष्मसाम्परायिक होकर जो एक समय अधिक एक आवलि काळ तक सकषायभावसे अवस्थित है उसके उस कालमें उदीर्यमाण असंख्यात समयप्रबद्धोंकों ग्रहण कर प्रकृत उकृष्ट स्वामित्वका सम्बन्ध करना चाहिए, क्योंकि नीचेकों समस्त प्रदेश १. आ०प्रतौ होदि एसो इति पाठः । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए सामित्तं विसोहिपाहम्मेणासंखेञ्जगुणत्तदंसणादो त्ति एसो एदस्स सुत्तस्स समुच्चयत्थो । * इत्थिवेदस्स उक्कस्सिया पदेस दीरणा कस्स ? ६२ गा० ] ६ ८९. सुगमं । * खवगस्स समयाहियावलियचरिमसमयइत्थिवेदगस्स । १९०. जो खवगो अण्णदरकम्मंसियलक्खणेणागंतूणित्थिवेदोदएण खवगसेटिं चढिय अंतरकरणाणंतरं णयुंसय वेदमंतोमुहुत्तेण खविय तदो इत्थिवेदं खवेमाणो समयाहियावलियचरिमसमयइत्थिवेदगभावेणावट्ठिदो तस्स तक्कालोदीरिजमाणासंखेजसमयपबद्धे घेत्तूण पयदुक्कस्ससामित्त होइ ति सुत्तत्थसंबंधो । * पुरिसवेदस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरिणा कस्स १ ९१. सुगमं । * खवगस्स समयाहियावलियचरिमसमयपुरिसवेदगस्स । ९२. एत्थ विपुव्वं व सुत्तस्स संबंधो कायव्वो । सुगममण्णं । * णवु सयवेदस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा कस्स ? ९३. सुगमं । २१७ उदीरणाओंसे यहाँकी प्रदेश उदीरणा विशुद्धिके माहात्म्यवश असंख्यातगुणी देखी जाती है इस प्रकार यह इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है । * स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा किसके होती है ? $ ८९ यह सूत्र सुगम है । * जो एक समय अधिक एक आवलि कालके अन्तिम समय तक स्त्रीवेदी है उस क्षपक होती है । $ ९०. जो क्षपक अन्यतर कर्माशिकलक्षणसे आकर और स्त्रीवेदके उदयसे क्षपकश्रेणि पर चढ़कर अन्तरकरणके बाद नपुंसक वेदका अन्तर्मुहूर्त में क्षपण कर उसके बाद स्त्रीवेदका क्षपण करता हुआ समयाधिक आवलि काल शेष रहने पर उदीरणाके अन्तिम समयमें स्त्रीवेदके भावसे अवस्थित है उसके तत्काल उदीर्यमाण असंख्यात समयप्रबद्धोंको ग्रहण कर प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्व होता है, ऐसा इस सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध है । * पुरुषवेदकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा किसके होती है ? $ ९१. यह सूत्र सुगम है । * जो समयाधिक एक आवलि कालके अन्तिम समय तक पुरुषवेदी है उस क्षपकके होती है । $ ९२. यहाँ भी पहलेके समान सूत्रका सम्बन्ध करना चाहिए । अन्य कथन सुगम है । * नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा किसके होती है ? $ ९३. यह सूत्र सुगम है । २८ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ * खवगस्स समयाहियावलियचरिमसमयणवु' सयवेदगस्स । ९४. समयाहियावलियमेत्तकालेण जो चरिमसमयणवुंसयवेदो भविस्सदि सो समयाहियावलियचरिमसमयणपुंसयवेदो ति भण्णदे | तस्स खवगविसेसणविसिट्ठस्स पयदुक्कस्ससामित्ताहिसंबंधो होइ, हेट्ठिमासेसपदेसुदीरणाणमेत्तो असंखेञ्जगुणहीणत्तदादो | २१८ * guणोकसायाणमुक्कस्सिया पवेसुदीरणा कस्स ! ९५. सुगमं । * खवगस्स चरिमसमयअपुत्र्वकरणे वट्टमाणगस्स । ९६. जो खवगो अण्णदरकम्मंसिओ तस्स चरिमसमयअपुव्यकरणे वट्टमाणगस्स पयदुक्कस्ससामित्तं होदिति सुत्तत्थसमुच्चयो । एवमोघेणुकस्ससामित्तं समत्तं । $ ९७. संपहि आदेसपरूवणमुच्चारणाणुगमे कीरमाणे ओघपुरस्सरं वत्तहस्सामो । तं जहा - सामित्तं दुविहं - जह० उक० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि० - ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०- अनंताणु०४ उकस्सपदेसुदीरणा कस्स ! अण्णद० सव्वविद्धस्स संजमाहिमुहस्स चरिमसमयमिच्छाइट्ठिस्स । सम्म० उक्क० पदेसुदी • * जो समयाधिक एक आवलिकालके अन्तिम समय तक नपुंसकवेदी है उस क्षपकके होती है । $ ९४. समयाधिक आवलिमात्र कालके द्वारा जो अन्तिम समयवर्ती नपुंसकवेदी होगा वह समयाधिक आवलि-अन्तिम समयवर्ती नपुंसकवेदी कहलाता है । क्षपक विशेषणविशिष्ट उस क्षपकके प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्वका अभिसम्बन्ध होता है, क्योंकि नीचेकी अशेष प्रदेश उदीरणाऐं इससे असंख्यातगुणी हीन देखी जाती हैं । * छह नोकषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा किसके होती है ? $ ९५. यह सूत्र सुगम है । * अपूर्वकरण के अन्तिम समय में विद्यमान क्षपकके होती है । $ ९६. अन्यतर कर्मांशिक जो क्षपक है, अपूर्वकरंणके अन्तिम समय में विद्यमान उस क्षपकके प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्व होता है यह सूत्रार्थसमुच्चय है । इस प्रकार ओघसे उत्कृष्ट स्वामित्व समाप्त हुआ | $ ९७. अब आदेशका कथन करनेके लिए उच्चारणाका अनुगम करने पर ओघ पूर्वक बतलाते हैं । यथा—स्वामित्व दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा किसके होती है ? अन्यतर सर्व विशुद्ध संयम अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती मिध्यादृष्टिके होती है । सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा किसके होती है ? जो समयाधिक एक आवलि काल तक अक्षीण-दर्शनमोही है ऐसे अन्यतर कृतकृत्यवेदक होती Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१९ गा० ६२] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए सामित्त कस्स ? अण्णद० समयोहियावलियअक्खीणदंसणमोहस्स। सम्मामि० उक्क० पदेसुदी. कस्स १ अण्णद० सम्मत्ताहिमुहस्स सव्वविसुद्धस्स चरिमसमयसम्मामिच्छाइट्ठिस्स । अपञ्चक्खाण०४ उक्क० पदेसुदी० कस्स ? अण्णद० संजमाहिमुहस्स सव्वविसुद्धस्स चरिमसमयसम्माइट्ठिस्स । एवं पञ्चक्खाण०४ । णवरि चरिमसमयसंजदासंजदस्स । चदुसंजलण-तिण्णिवेद० उक्क० पदेसुदी० कस्स ? अण्णद० खवगस्स समयाहियावलियचरिमसमयउदीरगस्स । छण्णोक० उक्क० पदेसुदी० कस्स ? अण्णद० चरिमसमयअपुव्वकरणस्स सव्वविसुद्धस्स । एवं मणुसतिये । णवरि वेदा जाणियन्वा । $ ९८. आदेसेण रइय० मिच्छ० उक० पदेसुदी० कस्स ? अण्णद० पढमसम्मत्ताहिमुहस्स समयाहियावलियचरिमसमयमिच्छाइडिस्स तस्स उक्क० पदेसुदी० । अणंताणु०४ उक० पदेसुदी० कस्स ? अण्णद० पढमसम्मत्ताहिमुहस्स चरिमसमयमिच्छाइद्विस्स । सम्म०-सम्मामि० ओघं । बारसक०-सत्तणोक० उक्क० पदेसुदी० कस्स ? अण्णद० सम्माइडिस्स सव्वविसुद्धस्स तप्पाओग्गविसुद्धस्स वा । एवं पढमाए । विदियादि सत्तमा त्ति एवं चेव । णवरि सम्म० बारसक०भंगो। 5 ९९. तिरिक्खेसु मिच्छत्त-अणंताणु०४ उक्क० पदेसुदी० कस्स ? अण्णद. होती है । सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा किसके होती है ? सम्यक्त्वके अभिमुख हुए सर्वविशुद्ध अन्तिम समयवर्ती अन्यतर सम्यग्मिथ्यादृष्टिके होती है। अप्रत्याख्यानावरण चार कषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा किसके होती है ? अन्यतर संयमके अभिमुख हुए सर्वविशुद्ध अन्तिम समयवर्ती सम्यग्दृष्टिके होती है । इसी प्रकार प्रत्याख्यानावरण चार कषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका स्वामित्व जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अन्तिम समयवर्ती संयतासंयतके कहना चाहिए । चार संज्वलन और तीन वेदोंकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा किसके होती है ? समयाधिक आवलिके शेष रहने पर अन्तिम समयवर्ती उदीरक अन्यतर क्षपकके होती है । छह नोकषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा किसके होती है ? अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें विद्यमान अन्यतर सर्वविशुद्ध क्षपकके होती है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अपना-अपना वेद जान लेना चाहिए। ६९८. आदेशसे नारकियों में मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा किसके होती है ? जो प्रथम सम्यक्त्वके अभिमुख हे, मिथ्यात्वके एक समय अधिक एक आवलि काल शेष रहने पर जो अन्तिम समयवर्ती उदीरक है उस अन्यतर मिथ्यादृष्टिके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा होती है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा किसके होती है ? प्रथम सम्यक्त्वके अभिमुख अन्यतर अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिके होती है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है । बारह कषाय और सात नोकषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा किसके होती है ? अन्यतर सर्व विशुद्ध अथवा तत्प्रायोग्य विशुद्ध सम्यग्दृष्टिके होती है। इसी प्रकार पहली प्रथिवीमें जानना चाहिए। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक इसी प्रकार है। इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्वका भंग बारह कषायोंके समान है। $९९. तिर्यश्चोंमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चार कषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा किसके होती है ? संयमासंयमके अभिमुख हुए सर्व विशुद्ध अन्यतर अन्तिम समयवर्ती Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ संजमासंजमाहिमुहस्स चरिमसमयमिच्छाइडिस्स सव्वविसुद्धस्स । एवमपञ्चखाण०४ । णवरि चरिमसमयसम्माइद्विस्स सव्वविसुद्धस्स । सम्म०-सम्मामि० ओघं । अट्ठक०णवणोक० उक्क० पदेसुदी० कस्स ? अण्णद० संजदासंजदस्स सव्यविसुद्धस्स तप्पाओग्गविसुद्धस्स वा । एवं पंचिंदियतिरिक्खतिये । णवरि वेदा जाणियन्वा । जोणिणीसु सम्म० अट्ठकसायभंगो। पंचिंदियतिरिक्खअपज०-मणुसअपज० मिच्छ०-सोलसक०सत्तणोक० उक्क० पदेसुदी० कस्स ? अण्णद० सव्वविसुद्धस्स तप्पाओग्गविसुद्धस्स वा । १००. देवेसु मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि०-सोलसक०-छण्णोक० णारयभंगो। इथिवेद-पुरिसवेद० बारसकसायभंगो। एवं सोहम्मीसाण | एवं सणकुमारादि णवगेवजा ति। णवरि इत्थिवेदो पत्थि । भवण-वाणवें०-जोदिसि० देवोघं । णवरि सम्म० बारसक०भंगो । अणुदिसादि सव्वट्ठा त्ति सम्म०-बारसक०-सत्तणोक० आणदभंगो । एवं जाव० । * जहण्णसामित्तं। $ १०१. उक्कस्ससामित्ताणंतरमेत्तो जहण्णसामित्तमहिकयं दट्ठव्वमिदि अहियारपरामरसवक्कमेदं। wwwwwwwwwwwwww wwwmarawwwwww मिथ्यादृष्टिके होती है । इसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरण चार कषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका स्वामित्व जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सर्वविशुद्धअन्तिम समयवर्ती सम्यग्दृष्टिके यह उत्कृष्ट स्वामित्व होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। आठ कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा किसके होती है ? अन्यतर सर्वविशुद्ध अथवा तत्प्रायोग्य विशुद्ध संयतासंयतके होती है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अपना-अपना वेद जान लेना चाहिए । योनिनियोंमें सम्यक्त्वका भंग आठ कषायोंके समान है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा किसके होती है ? अन्यतर सर्वविशुद्ध अथवा तत्प्रायोग्य विशुद्धके होती है। 5 १००. देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषायोंका भंग नारकियोंके समान है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदका भंग बारह 'कषायोंके समान है। इसी प्रकार सौधर्म और ऐशान कल्पमें जानना चाहिए। इसी प्रकार सनत्कुमारसे लेकर नौ प्रैवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यहाँ स्त्रीवेद नहीं है। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें सामान्य देवोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वका भंग बारह कषायोंके समान है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सम्यक्त्व, बारह कषाय और सात नोकषायोंका भंग आनतकल्पके समान है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। * जघन्य स्वामित्वका अधिकार है। ६ १०१. उत्कृष्ट स्वामित्वके अनन्तर यहाँ से जघन्य स्वामित्व अधिकृत जानना चाहिए इस प्रकार अधिकारका परामर्श करनेवाला यह वाक्य है। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०६२] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए सामित्त २२१ * मिच्छत्तस्स जहरिणया पदेसुदीरणा कस्स ? १०२. सुगमं । * सण्णिमिच्छाइटिस्स उकस्ससंकिलिट्ठस्स ईसिमज्झिमपरिणामस्स वा। १०३. एत्थ सण्णिणिद्देसो असण्णिपडिसेहफलो। तत्थ जहण्णपदेसुदीरणाणिबंधणसंकिलेसबहुत्ताणुवलंभादो । ण च संकिलेसबहुत्तेण विणा पदेसुदीरणाए जहण्णभावो होदि, विप्पडिसेहादो। अदो चेव मिच्छाइट्ठिविसेसणं सुसंबद्धं, सेसगुणट्ठाणसंकिलेसादो मिच्छाइट्ठिसंकिलेसस्साणंतगुणत्तदंसणादो । तस्सेव संकिलेसबहुत्तस्स विसेसियूण परूवणहमिदमाह-'उकस्ससंकिलिट्ठस्स ईसिमझिमपरिणामस्स वा' त्ति । एतदुक्तं भवति--सामित्तसमए मिच्छाइटिस्स असंखेजलोगमेत्ताणि संकिलेसट्ठाणाणि उक्कस्सट्ठिदिबंधपाओग्गाणि अत्थि, तेसु आवलि. असंअ०भागमेत्तखंडीकयेसु जो चरिमखंडो असंखेजलोगमेत्तपरिणामट्ठाणवूरिदो, तत्थतणसव्वपरिणामेहिं जहणिया पदेसुदीरणा ण विरुज्झदि त्ति । एत्थ चरिमखंडपमाणागमणट्ठमावलि असंखे०भागमेत्तो भागहारो होदि त्ति कत्तो णव्वदे ? सुत्ताविरुद्धपुन्वाइरियवक्खाणादो। * सम्मत्तस्स जहणिया पदेसुदीरणा कस्स? * मिथ्यात्वकी जघन्य प्रदेश उदीरणा किसके होती है । $ १०२. यह सूत्र सुगम है। * उत्कृष्ट संक्लिष्ट परिणामवाले अथवा ईषत् मध्यम परिणामवाले संज्ञी मिथ्यादृष्टिके होती है। ___$ १०३. यहाँ संज्ञी पदका निर्देश असंज्ञियोंका निषेध करनेके लिए किया है, क्योंकि असंज्ञियोंमें जघन्य प्रदेश उदीरणाके कारणभूत संक्लेशबहुत्वका अभाव है। और संक्लेश बहुत्वके बिना प्रदेश उदीरणाका जघन्यपना बनता नहीं, क्योंकि इसका विप्रतिषेध है। और इसीलिए मिथ्यादृष्टि यह विशेषण सुसम्बद्ध है, क्योंकि शेष गुणस्थानोंके संक्लेशसे मिथ्यादृष्टिका संक्लेश अनन्तगुणा देखा जाता है। उसी संक्लेशबहुत्वकी विशेषताका कथन करनेके लिए यह कहा है-'उत्कृष्ट संक्लेशवालेके अथवा ईषत् मध्यम परिणामवालेके ?' उक्त कथनका यह तात्पर्य है कि स्वामित्वके समय मिथ्यादृष्टिके असंख्यात लोकप्रमाण संक्लेशस्थान उत्कृष्ट स्थितिके बन्धके योग्य होते हैं। उनके आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण खण्ड करनेपर असंख्यात लोकप्रमाण परिणामोंसे आपूरित जो अन्तिम खण्ड प्राप्त होता है उसमेंके सब परिणामोंसे जघन्यप्रदेश उदीरणा विरोधको नहीं प्राप्त होती। शंका-यहाँ अन्तिम खण्डके लानेके लिए आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण भागहार है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-सूत्रके अविरुद्ध कथन करनेवाले पूर्वाचार्योंके व्याख्यानसे जाना जाता है । * सम्यक्त्वकी जघन्य प्रदश उदीरणा किसके होती है ? Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे $ १०४. सुगमं । * मिच्छत्ताहिमुहचरिमसमयसम्माइट्ठिस्स [ वेदगो ७ सव्वसंकिलिट्ठस्स ईसिमज्झिमपरिणामस्स वा । $ १०५. एत्थ मिच्छत्ताहिमुहणिद्देसो सत्थाणसम्माइट्ठिपडि सेहफलो । चरिमसमयसम्माइट्टिणिसो दुरिमादिहेट्ठिमसमयसम्माइट्ठिपडिसेहट्ठो, तत्थ सव्वुक्कस्ससंकिलेसाभावादो । सव्वसंकि लिट्ठस्से ति णिसो सव्वुक्कस्ससंकिलेसाणुविद्ध पडिवादट्ठा जगहusो, उक्कस्ससंकिलेससंबंधेण विणा पदेसुदीरणाए जहण्णभावाणुववत्तीदो । वरि तप्पा ओग्गाणुक्कस्स पडिवादट्ठाणेहि मि जहण्णसामित्तमविरुद्धं ति जाणावणट्टमीसिमज्झिमपरिणामस्स वा ति णिद्देसो कओ । सेसं सुगमं । * सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णिया पदेस दीरणा कस्स ? १०६. सुगमं । * मिच्छत्ताहिमुहचरिमसमयसम्मामिच्छाइट्ठिस्स सव्वसंकिलिट्ठस्स ईसिमज्झिमपरिणामस्स वा । $ १०७. एयं पित्तं सुगमं, अणंतरसामित्तसुत्त्रेण समाणवक्खाणत्तादो | * सोलसकसाय-णवणोकसायाणं जहण्णिया पदेस दीरणा मिच्छत्त भंगो । $ १०४. यह सूत्र सुगम है । * सर्व संक्लेश परिणामवाले अथवा ईषत् मध्यम परिणामवाले मिथ्यात्वके अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती सम्यग्दृष्टिके होती है । $ १०५. स्वस्थान सम्यग्दृष्टिका प्रतिषेध करनेके लिए यहाँ सूत्रमें 'मिथ्यात्वके अभिमुख हुए पदका निर्देश किया है । द्विचरम आदि अधस्तन समयवर्ती सम्यग्दृष्टिका निषेध करनेके लिए 'अन्तिम समयवर्ती सम्यग्दृष्टि' पदका निर्देश किया है, क्योंकि सम्यग्दृष्टिके द्विचरम आदि समय में सबसे उत्कृष्ट संक्लेशका अभाव है । सबसे उत्कृष्ट संक्लेशसे अनुविद्ध प्रतिपातस्थानके ग्रहण करनेके लिए 'सबसे उत्कृष्ट संक्लेशवालेके' पदका निर्देश किया है, क्योंकि उत्कृष्ट संक्लेशके सम्बन्धके बिना प्रदेश उदीरणाका जघन्यपना नहीं बन सकता । किन्तु इतनी विशेषता है कि तत्प्रायोग्य अनुत्कृष्ट प्रतिपात स्थानोंके द्वारा भी जघन्य स्वामित्व अविरुद्ध है इसका ज्ञान करानेके लिए 'ईषत् मध्यम परिणामवालेके' यह निर्देश किया है । शेष कथन सुगम है । * सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य प्रदेश उदीरणा किसके होती है ? $ १०६. यह सूत्र सुगम है । * सर्व संक्लेश परिणामवाले अथवा ईषत् मध्यम परिणामवाले मिथ्यात्वके अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टिके होती है । ·$ १०७, यह भी सूत्र सुगम है, क्योंकि अनन्तर पूर्व सूत्रके समान इसका व्याख्यान है । * सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य प्रदेश उदीरणाके स्वामित्वका भंग मिथ्यात्वके समान है । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए एयजीवेण कालो २२३ $१०८. जहा मिच्छत्तस्स जहण्णपदेसुदीरणासामित्तं कदं तहा एदेसि पि कम्माणं कायव्वं, विसेसाभावादो। एवमोघो समत्तो। १०९. संपहि आदेसपरूवणद्वमुच्चारणाणुगममिह कस्सामो । तं जहा-जहण्णए पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०-सोलसक०-णवणोक० जह० पदेसुदी० कस्स ? अण्णद० मिच्छाइद्विस्स उक्कस्ससंकिलिट्ठस्स तप्पाओग्गसंकिलिट्ठस्स या । सम्मामि० जह० पदेसुदी० कस्स ? अण्णद० मिच्छत्ताहिमुहस्स तप्पा ओग्गसंकिलिट्ठस्स चरिमसमयसम्मामिच्छाइट्ठिस्स । एवं सम्मत्तस्स । णवरि चरिमसमयसम्माइद्विस्स । सव्वणिरय-तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खतिय-मणुसतिय-देवा जाव सहस्सारे त्ति जाओ पयडीओ उदीरिजंति तासिमोघं । पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज०-मणुसअपज०-अणुदिसादि सव्वट्ठा ति सव्वपयडी. जह० पदेसुदी० कस्स ? अण्णद० तप्पाओग्गसंकिलिट्ठस्स । आणदादि जाव गवगेवजा त्ति सणकुमारभंगो । एवं जाव । * एयजीवेण कालो। $ ११०. सुगममेदमहियारसंभालणसुत्तं । ६१०८. जिस प्रकार मिथ्यात्वकी जघन्य प्रदेश उदीरणाका स्वामित्व किया है उसी प्रकार इन कर्मोकी भी जघन्य प्रदेश उदीरणका स्वामित्व करना चाहिए, उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। ____ इस प्रकार ओघ स्वामित्व समाप्त हुआ। .६ १०९. अब आदेशका कथन करनेके लिए उच्चारणाका अनुगम यहाँ पर करेंगे। यथा-जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य प्रदेश उदीरणा किसके होती है ? उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाले या तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाले अन्यतर मिथ्यादृष्टिके होती है। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य प्रदेश उदीरणा किसके होती है ? मिथ्यात्वके अभिमुख हुए तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाले अन्तिम समयवर्ती अन्यतर सम्यग्मिथ्यादृष्टिके होती है। इसी सम्यक्त्वकी जघन्य प्रदेश उदीरणाका स्वामित्व जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अन्तिम समयवर्ती सम्यग्दृष्टिके कहना चाहिए। सब नारकी, सामान्य तिर्यश्च, पञ्चन्द्रिय तिर्यचत्रिक, मनुष्यत्रिक और सामान्य देवोंसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें जिन प्रकृतियोंकी उदीरणा होती है उनका भंग ओघके समान है। पञ्चेन्द्रिय तियश्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त और अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेश उदीरणा किसके होती है ? अन्यतर तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवालेके होती है। आनत कल्पसे लेकर नौ अवेयक तकके देवोंमें सनत्कुमार कल्पके समान भंग है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। * एक जीवकी अपेक्षा कालका अधिकार है। $ ११०. अधिकारको सम्हाल करनेवाला यह सूत्र सुगम है। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ * मिच्छत्तस्स उक्कस्सपदेसुदीरगो केवचिरं कालादो होदि ? $ १११. सुगममेदं पुच्छावकं । * जहण्णुक्कस्सेण एयसमओ। $ ११२. कुदो ? संजमाहिमुहमिच्छाइद्विचरिमसमए चैव तदुवलंभादो । * अणुक्कस्सपदेसुवीरगो केवचिरं कालादो होदि ? ११३. सुगमं । * एत्थ तिणि भंगा। ६११४. एत्थाणुकस्सपदेसुदीरगकालणिद्देसावसरे तिणि भंगा दहव्वाअणादिओ अजवसिदो अणादिओ सपञ्जवसिदो सादिओ सपज्जवसिदो ति । तत्थादिन्लदुर्ग सुगमं । संपहि तदियवियप्पस्स जहण्णुकस्सकालावहारणट्ठमाह * जहण्णण अंतोमुहु। 5 ११५. कुदो १ सम्मत्तादो मिच्छत्तमुवगंतूण सव्वजहणंतोमुहुत्तेण पडिणियत्तम्मि तदुवलद्धीदो। * उक्कस्सेण उवड्ढपोग्गलपरिय। 5 ११६. कुदो १ अद्धपोग्गलपरियट्टादिसमये पढमसम्मत्तमुप्पाइय सव्वलहुं * मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका कितना काल है ? $ १११. यह पृच्छावाक्य सुगम है। * जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । $ ११२. क्योंकि संयमके अभिमुख हुए मिथ्यादृष्टिके अन्तिम समयमें ही उसकी उपलब्धि होती है। * अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका कितना काल है ? ६ ११३. यह सूत्र सुगम है। * इस.विषयमें तीन भंग हैं। ...$ ११४. यहाँ अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरकके कालका निर्देश करनेके विषयमें तीन भंग जानना चाहिए-अनादि-अपर्यवसित, अनादि-सपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित । उनमेंसे आदिके दो भंग सुगम हैं । अब तीसरे विकल्पके जघन्य और उत्कृष्ट कालका निश्चय करनेके लिए कहते हैं * जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। $ ११५. क्योंकि सम्यक्त्वसे मिथ्यात्वको प्राप्त होकर सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा प्रतिनिवृत्त होनेपर उसकी उपलब्धि होती है। * उत्कृष्ट काल उपार्ध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। $ ११६. क्योंकि अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण कालके प्रथम समयमें प्रथम सम्यक्त्वको Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___२२५ गा०६२) उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए एयजीवेण कालो मिच्छत्तमुवणमिय तत्थ पयदकालस्सादि कादूण पुणो देसूणद्धपोग्गलपरियट्ट परिममिय सव्वजहण्णंतोमुत्तमेत्तसेसे सिज्झदव्यए त्ति पडिवण्णसम्मत्तपज्जायम्मि तदुवलंभादो । * सेसाणं कम्माणमुकस्सपदेसुदीरगो केवचिरं कालावो होदि ? ११७. सुगमं । * जहण्णुकस्सेण एयसमओ। 5 ११८. कुदो १ सव्वेसिमप्पप्पणो सामित्तविसये चरिमविसोहिए समुवलद्धजहण्णमावत्तादो। * अणुकस्सपदेसुवीरगो पयडिउदीरणाभंगो।। ६११९. जहा पयडिउदीरणाए जहण्णुक्कस्सकालणिद्देसो एदेसि कम्माणं कओ तहा एस्थ वि अणुक्कस्सपदेसुदीरणाए कायव्बो, विसेसामावादो ति मणिदं होदि । संपहि आदेसपरूवणमुवरिमं सुत्तपबंधमणुसरामो *णिरयगदीए मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणताणुबंधीणमुक्कस्स पदेसवीरगो केवचिरं कालादो होदि ? ६१२०. सुगमं । * जहण्णुक्कस्सेण एयसमओ। उत्पन्न कर और अतिशीघ्र मिथ्यात्वको प्राप्त होकर वहाँ प्रकृत कालका प्रारम्भ कर पुनः कुछ कम अर्ध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण काल तक परिभ्रमण कर सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्तमात्र कालके शेष रहने पर सिद्ध होगा, इसलिए सम्यक्त्व पर्यायके प्राप्त करने पर उक्त कालकी उपलब्धि होती है। * शेष कर्मों के उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरकका कितना काल है ? $ ११७. यह सूत्र सुगम है।। .. * जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। ६ ११८. क्योंकि सभीके अपनी-अपनी स्वामित्व विषयक अन्तिम विशुद्धिका जघन्यपना अर्थात् मात्र एक समय काल तक अस्तित्व पाया जाता है। * अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका भंग प्रकृति उदीरणाके समान है। ६ ११९. इन कर्मोकी प्रकृति उदीरणाके जघन्य और उत्कृष्ट कालका निर्देश जिस प्रकार किया है उसी प्रकार यहाँ भी अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका करना चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अब आदेशका कथन करनेके लिए आगेके सूत्रप्रबन्धका अनुसरण करते हैं * नरकगतिमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धियोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका कितना काल है ? ६ १२०. यह सूत्र सुगम है। जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । २९ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ १२१. कुदो १ मिच्छत्ताणंताणुबंधीणमुवसमसम्मत्ताहिमुहमिच्छाइट्ठिस्स समयाहियावलियचरिमसमए दुचरिमसमए च जहाकमेणुकस्ससामित्तपडिलंभादो । सम्मत्तस्स कदकरणिञ्जसमयाहियाबलियाए सम्मामिच्छत्तस्स वि सम्मत्ताहिमुहसम्मामिच्छाइट्ठिचरिमविसोहीए विसयंतरपरिहारेणुक्कस्ससामित्तदंसणादो । संपहि एदेसिमणुकस्सपदेसुदीरग २२६ जहण्णुक्कस्सकालावहारणट्ठमाह * अणुक्कस्सपदेसुदीरगो पथडिउदीरणाभंगो । $ १२२. एदेसि कम्माणमणुकस्सप देसुदीरगस्स जहण्णुकस्सकाला पयडिउदीरणाभंगेणाणुगंतव्वा, तत्थतणं जहण्णुकस्सकालेहिंतो मेदाभावादो । संपहि वृत्तसेसाणं कम्माणमुक्कस्साणुक्कस्सपदेसुदीरगजहण्णुकस्सकालगवेसण माह * सेसाणं कम्माणमित्थि-पुरिसवेववज्जाणमुकस्सिया पवेसुदीरणा केषचिरं कालादो होदि ? $ १२३. एस्थित्थि - पुरिसवेदाणं परिवाणं, णिरयगईए तेसिमुदीरंणाभावादो त्ति घेत्तव्वं । अवसेसं सुगमं । 1 $ १२१. क्योंकि उपशमसम्यक्त्वके अभिमुख हुए मिध्यादृष्टिके एक समय अधिक एक आवलि कालके शेष रहने पर उदीरणा विषयक अन्तिम समयमें और द्विचरम समयमें क्रमसे मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका उत्कृष्ट स्वामित्व प्राप्त होता है। तथा सम्यक्त्वका कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिके एक समय अधिक एक आवलि काल शेष रहने पर और सम्यग्मिथ्यात्वका भी सम्यक्त्वके अभिमुख हुए सम्यग्मिथ्यादृष्टिकी अन्तिम विशुद्धिके प्राप्त होने पर अन्य स्थानको छोड़कर उक्त स्थानों पर उत्कृष्ट स्वामित्व देखा जाता है। अब इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशोंकी उदीरणा करनेवालेके जघन्य और उत्कृष्ट कालका निश्चय करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * अनुत्कृष्ट प्रदेश - उदीरकका भंग प्रकृति उदीरणाके समान है । $ १२२. इन कर्मोंके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल प्रकृति उदीरणाके कालके समान जानना चाहिए, क्योंकि वहाँके जघन्य और उत्कृष्ट कालसे प्रकृत कालमें कोई भेद नहीं पाया जाता। अब उक्त कर्मोंसे बाकी बचे हुए कर्मोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करनेवालेके जघन्य और उत्कृष्ट कालका विचार करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * स्त्रीवेद और पुरुषवेदको छोड़कर शेष कर्मोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका कितना काल है ? $ १२३. नरकगतिमें स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उदीरणा नहीं होती, इसलिए यहाँ स्त्रीवेद और पुरुषवेदका निषेध किया है ऐसा यहाँ जानना चाहिये । शेष कथन सुगम है । १. ता॰प्रतौ चरिममसए जहाकमेण इति पाठः । २. ता०प्रतौ एत्थतण- इति पाठः । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा० ६२ ] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए एयजीवेण कालो २२७ * जहणेण एगसमओ । $ १२४. कुदो १ सत्थाणसम्माइट्ठिस्स सव्वुक्कस्सविसोहीए ईसिमज्झिमपरिणामेण वा एगसमयं परिणमिय बिदियसमये परिणामंतरं गदस्स तदुवलंभादो । * उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागो । $ १२५. कुदो ? उक्कस्सपदेसुदीरणापाओग्गचरिमखंडज्झवसाणट्ठाणेसु असंखेजलोगमेत्ते अवट्ठाणकालस्स उक्कस्सेण तप्पमाणत्तोवएसादो । * अणुक्कस्सपदेसुदीरगो केव चिरं कालादो होदि १ $ १२६. सुगमं । * जहणणेण एगसमओ । $ १२७. कुदो १ उकस्सादो अणुक्कस्सभावं गंतूण एगसमएण पुणो वि परिणामवसेणुक्कस्तभावेण परिणदम्मि सव्वेसिमेगसमयमेत्ताणुक्कस्सजहण्णकालोवलंभादो । * उक्कस्सेण अंतोमुहुत्त । $ १२८. कुदो १ कसाय - णोकसायाणं पयडिउदीरणाए उक्कस्सकालस्स तप्पमाणतोवलंभादो । एदेण सामण्णणिद्देसेण णवंसयवेदारह-सोगाणं पि अंतोनुहुत्तमेत्तुकस्सकालाइप्पसंगे तप्पडिसेहमुहेण तत्तो बहुअकालपरूवणट्ठमाह * जघन्य काल एक समय है । $ १२४. क्योंकि स्वस्थान सम्यग्दृष्टिके सबसे उत्कृष्ट विशुद्धिरूपसे या ईषत् मध्यम परिणामरूपसे एक समय तक परिणम कर दूसरे समय में दूसरे परिणामको प्राप्त होने पर एक समयप्रमाण जघन्य काल प्राप्त होता है । * उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । $ १२५. क्योंकि उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाके योग्य अन्तिम खण्डसम्बन्धी असंख्यात लोकप्रमाण अध्यवसानस्थानोंमें ठहरनेके कालका उपदेश उत्कृष्टरूपसे तत्प्रमाण ही पाया जाता है । * अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका कितना काल है १ $ १२६. यह सूत्र सुगम है । * जघन्य काल एक समय है । $ १२७. क्योंकि उत्कृष्टसे अनुत्कृष्टपनेको प्राप्त कर एक समयके बाद फिर भी परिणामवश उत्कृष्टपनेके प्राप्त होने पर सभीकी अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका जघन्य काल एक समय पाया जाता है । * उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । $ १२८. क्योंकि कषाय और नोकषायोंकी प्रकृति उदीरणाका उत्कृष्ट काल तत्प्रमाण पाया जाता है। इस सामान्य निर्देशसे नपुंसकवेद, अरति और शोकका भी उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है ऐसा अतिप्रसंग प्राप्त होने पर उसके प्रतिषेधद्वारा उससे बहुत कालके net करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ___ * णवरि णवुसयवेद-अरइ-सोगाणमुदीरगो उकस्सावो तेत्तीसं सागरोवमाणि । __१२९. कुदो ? एदेसि कम्माणं पयडिउदीरणुकस्सकालस्स णिरयगईए तप्पमाणत्तोवलंभादो। एवं णिरयोघो समत्तो। संपहि एदेणाणुमाणेण सेसासु वि गदीसु उक्कस्साणुकस्सपदेसुदीरगकालो साहेयन्यो त्ति पदुप्पायणट्टमुत्तरसुत्तं भणइ * एवं सेसासु गदीसु उदीरगो साहेयव्यो । १३०. सुगममेदमत्थसमप्पणासुतं । णवरि उदीरगो साहेयव्वो ति वुत्ते पदेसुदीरगकालो साहेयव्यो ति पयरणवसेणाहिसंबंधो कायव्वो। संपहि एदेण सुत्तपबंधेण सूचिदत्थविसये सुहावगमुप्पायणट्ठमोघादेसेहिं विसेसियूण उच्चारणाणुगममिह कस्सामो । तं जहा १३१. कालो दुविहो–जह० उक० । उकस्से पयदं । दुविहो णिहेसोओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ० उक्क० पदेसुदी० जहण्णुक्क० एगस० । अणुक्क० तिण्णि भंगा । जो सो सादिओ सपञ्जवसिदो, तस्स जह० अंतोमु०, उक्क० उबड्डपोग्गलपरियढें । सम्म० उक्क० पदेसुदी० जहण्णुक० एयस० । अणुक्क० जह० अंतोम०, उक्क० छावहिसागरो० देसूणाणि । सम्मामि० उक्क० पदेसुदी० जहण्णुक० एगस० । * इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेद, अरति और शोकके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका उत्कृष्ट काल तेतीस सागरोपम है। $ १२९. क्योंकि नरकगतिमें इन कर्मोंकी प्रकृति उदीरणाका उत्कृष्ट काल तत्प्रमाण पाया जाता है । इस प्रकार सामान्य नारकियोंके प्रदेश उदीरणाका काल समाप्त हुआ। अब इस विधिसे शेष गतियोंमें भी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरकका काल साध लेना चाहिए इस बातका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * इसी प्रकार शेष गतियोंमें भी उदीरकको साध लेना चाहिए । $ १३०. अर्थका समर्पण करनेवाला यह सूत्र सुगम है। इतनी विशेषता है कि 'उदीरगो साहेयव्वों' ऐसा कहनेपर प्रदेश-उदीरकका काल साध लेना चाहिए ऐसा प्रकरणवश सम्बन्ध कर लेना चाहिए । अब इस सूत्रप्रबन्ध द्वारा सूचित किये गये अर्थका सुखपूर्वक ज्ञान करानेके लिए ओघ और आदेश सहित उच्चारणाका अनुगम यहाँ पर करेंगे । यथा ६१३१. काल दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट प्रदेश-उदीरकके तीन भंग हैं। उनमेंसे जो सादि-सान्त भंग है उसकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल उपाधं पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है । सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेश-उदोरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट प्रदेश-उदीरकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम छयासठ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए एयजीवेण कालो २२९ अणुक• जहण्णुक• अंतोमु० । एवं सोलसक० - मय-दुर्गुछ० । णवरि अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । तिन्हं वेदाणं उक्क० पदेसुदी० जह० उक० एयसमओ । अणुक० जह० एस ०, पुरिसवेद० अणुक० जह० अंतोमु०, उक्क० पलिदोवमसदपुधत्तं सागरोवमसदपुधचं अनंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । हस्स - रदि - अरदि-सोग ० उक्क० पदेसुदी ० जह० उक० एगस० । अणुक्क० जह० उक्क० छम्मासं तेत्तीस सागरो ० सादिरेयाणि । एयस०, $ १३२. आदेसेण णेरइय० मिच्छ० उक्क० पदेसुदी० जह० उक्क० एस० । अणुक० जह० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि । सम्म० उक्क० पदेसुदी० जह० उक्क० एगस० । अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देभ्रूणांणि । सम्मामि० ओषं । अणंताणु०४ उक्क० पदेसुदी० जह० उक्क० एस० । अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० अंतोनु० । एवं बारसक० - इस्स - रदि-भय-दुगुंछाणं । णवरि उक्क० पदेसुदी ० सागरोपम है | सम्यग्मिध्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशउदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। तीन वेदोंके उत्कृष्ट प्रदेश- उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेश - उदीरकका जघन्य काल स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका एक समय है, पुरुषवेदके अनुत्कृष्ट प्रदेश-उदीरकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट काल क्रमसे सौ पल्योपमपृथक्त्वप्रमाण, सौ सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण और अनन्तकाल है जो अनन्तकाल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनोंके बराबर है । हास्य, रति, अरति और शोकके उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेश- उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल हास्य- रतिका छह महीना तथा अरति शोकका साधिक तेतीस सागरोपम है । विशेषार्थ — ओघ से सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश-उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल मूल चूर्णिसूत्रोंमें ही बतलाया है, इसलिए यहाँ अलग से स्पष्टीकरण नहीं किया है। इसी न्यायसे गतिमार्गणाके अवान्तर भेदोंमें भी जान लेना चाहिए। मूल चूर्णि - सूत्रोंमें इसका भी निर्देश किया है। जो नहीं कहा है वह उक्त कथनसे हो ज्ञात हो जाता है । $ १३२. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व के उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागरोपम है । सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट का कुछ कम सागरोपम है । सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है । अनन्तानुबन्धीचतुष्कके उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य क समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार बारह कषाय, हास्य, रति, भय और जुगुप्साकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके उत्कृष्ट प्रदेश-उदी १. ता०प्रतौ अणुक्क० जह० एस० [ उक्क० ] अतोमु० इति पाठः । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ जह० एयस०, उक्क० आवलि० असंखे ० भागो । एवं णवंस ० - अरदि- सोग० । णवरि अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० तेतीसं सागरोवमाणि । एवं सत्तमाए । णवरि सम्म० उक्क० जह० एस ०, उक्क० आवलि० असंखे० भागो । एवं पढमादि जाव छट्टि ति । वरि सगहिदी । अरदि- सोगाणं हस्स-रदिभंगो। णवरि पढमाए सम्म० उक्क० पदेसुदी० जहण्णुक्क० एयस० । $ १३३. तिरिक्खेसु मिच्छ० उक्क० पदेसुदी ० जह० उक्क० एस० । अणुक्क० जह० अंतोमु०, उक्क० अनंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । सम्म० उक्क० पदेसुदी० जह० उक्क० एयस० । अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० तिणिण पलिदो - वमाणि देणाणि । सम्मामि० - अटुक० ओघं । अट्ठक० - छण्णोक० उक्क० पदेसुदी • जह० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे० भागो । अणुक्क० जह० एस ०, उक्क० अंतोम्म्रु० । एवमित्थिवेद–पुरिसवेद० । णवरि अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० तिण्णि पलिदो ० पुव्वकोडि धत्तं । एवं णवुंस० । णवरि अणुक्क० जह० एयस०, उक्क ० अनंतकालमसंखेज पोग्गलपरियट्टा । एवं पंचिदियतिरिक्खतिये | णवरि मिच्छ० रकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार नपुंसकवेद, अरति और शोककी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागरोपम है । इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि यहाँ सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार पहली पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तकके नारकियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। इन पृथिवियोंमें अरति और शोकका भंग हास्य और रतिके समान है । इतनी और विशेषता है कि पहली पृथिवीमें सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय 1 $ १३३. तिर्यञ्चोंमें मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट का समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनोंके बराबर है । सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्योपम है । सम्यग्मिथ्यात्व और आठ कषायोंका भंग ओके समान है । आठ कषाय और छह नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आबलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उड़ीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार जीवेद और पुरुषवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम है । इसी प्रकार नपुंसक वेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनोंके बराबर है । इसी प्रकार पचेन्द्रिय तिर्यवत्रिक में जानना चाहिए। इतनी Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१ गा०६२] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए एयजीवेण कालो अणुक्क० जह० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी । णवंस० अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० पुवकोडिपुधत्तं । णवरि पञ्जत्त० इथिवेदो पत्थि । जोणिणीसु पुरिस०-णस० पत्थि । सम्म० उक्क० पदेसुदी० जह० एगस०, उक्क. आवलि० असंखे०भागो । ...६१३४. पंचिंदियतिरिक्खअपज०-मणुसअपज. सध्वपयडी० उक्क० पदेसुदी० जह० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो। अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । १३५. मणुसतिये पंचिंदियतिरिक्खतियभंगो' । णवरि सव्वपयडी० उक्क० पदेसुदी० जह० उक्क० एगस० । सम्म० अणुक्क० जह० अंतोमु०, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि देसूणाणि । गवरि पज० इत्थिवेदो पत्थि । सम्म० अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० तं चेव । मणुसिणीसु पुरिसवेद-णवुस० णत्थि । $१३६. देवेसु मिच्छ० उक्क० पदेसुदी० जह० उक्क० एगस० । अणुक्क० जह० अंतोमु०, उक्क० एक्कत्तीसं सागरोवमाणि । सम्मामि०-अणंताणु०४ ओधं । सम्म० उक्क० पदेसुदी. जह० उक्क० एगस० । अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० विशेषता है कि इनमें मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अपनी- अपनी स्थितिप्रमाण है। नपुंसकवेदके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पूर्व कोटिपृथत्वप्रमाण है। इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेद नहीं है तथा योनिनियों में पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं है। योनिनियोंमें सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। - $ १३४. पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। ६१३५. मनुष्यत्रिकमें पश्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि सब प्रक्रतियोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। सम्यक्त्वके अनुत्कृष्ट प्रदेशउदीरकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्योपम है । इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेद नहीं है। तथा इनमें सम्यक्त्वके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल वही है । मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं है। ६ १३६. देवोंमें मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल इकतीस सागरोपम है। सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग ओघके समान है। सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट प्रदेश १. आ प्रतौ तिरिक्खभंगो इति पाठः । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ तेत्तीसं सागरोवमाणि । एवं पुरिसवेद । णवरि उक्क. जह० एयस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो । एवं बारसक०-छण्णोक० । णवरि अणुक्क० जह• एयस०, उक्क० अंतोमु० । हस्स-रदि० अणुक्क० जह० एगसमओ, उक्क० छम्मासं । एवमिथिवेद० । णवरि अणुक्क० जह• एयस०, उक्क. पणवण्णं पलिदोवमं । एवं भवणादि जाव गवगेवजा त्ति । णवरि सगढिदी । हस्स-रदि० अरदि-सोगभंगो। सहस्सारे हस्स-रदि० देवोपं । भवण-वाणवें०-जोदिसि० सम्म० पुरिसवेदभंगो । इत्थिवेद० अणुक्क०जह० एयस०, उक्क० तिण्णि पलिदो० पलिदो० सादिरेय० प० सा० । सोहम्मीसाण. इत्थिवेद० देवोघं । उवरि इत्थिवेदो णत्थि । अणुदिसादि सचट्ठा त्ति सम्म०-बारसक०-सत्तणोक० आणदभंगो । णवरि सगढिदी । एवं जाव० । उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागरोपम है । इसी प्रकार पुरुषवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसके उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार बारह कषाय और छह नोकषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। हास्य और रतिके अनुत्कृष्ट प्रदेश-उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल छह महीना है। इसी प्रकार स्त्रीवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पचवन पल्योपम है। इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर नौ अवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए । इनमें हास्य और रतिका भंग अरति और शोकके समान है। तथा सहस्रार कल्पमें हास्य और रतिका भंग सामान्य देवोंके समान है। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें सम्यक्त्वका भंग पुरुषवेदके समान है। स्त्रीवेदके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल क्रमसे तीन पल्योपम, साधिक एक पल्योपम और साधिक एक पल्योपम है। सौधर्म और ऐशान कल्पमें स्त्रीवेदका भंग सामान्य देवोंके समान है । आगेके देवोंमें खीवेद नहीं है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सम्यक्त्व, बारह कषाय और सात नोकषायोंका भंग आनत कल्पके समान है। इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ-गति मार्गणाके अवान्तर भेदोंमें सम्यक्त्वके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय दो प्रकारसे प्राप्त होता है। एक तो मनुष्य गतिको छोड़ कर गति मार्गणाके अन्य जिन अवान्तर भेदोंमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव मर कर उत्पन्न होता है उनमें सम्यक्त्वके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय बन जाता है । यथासामान्य नारकी, प्रथम पृथिवीके नारकी, सामान्य तिर्यश्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च पर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्मादि कल्पके देव । दूसरे जिन मार्गणाओंमें सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका स्वामी बारह या आठ कषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाके स्वामीके समान है उनमें जो जीब सम्यक्त्वका उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक होकर अगले समयमें एक समय तक अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक हो जाता है और उससे अगले समयमें परिणाम प्रत्ययवश पुनः उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक हो जाता Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए एयजीवेण कालो २३३ * एत्तो जहण्णपदेसुदीरगाणं कालो। ६ १३७. सुगममेदमहियारसंभालणसुत्तं' । तस्स दुविहो णिद्देसो ओघादेसभेदेण । तत्थोघपरूवणमुत्तरसुत्तमाह * सव्वकम्माणं जहण्णपदेसुदीरगो केवचिरं कालादो होदि ? ११३८. सुगमं । * जहण्णण एगसमओ। ६१३९. तं कथं ? सण्णिमिच्छाइट्ठी उक्कस्ससंकिलेसेण परिणमिय एगसमयजहण्णपदेसुदीरगो जादो। पुणो विदियसमए अजहण्णभावेण परिणदो। लद्धो सम्वेसिं कम्माणं जहण्णपदेसुदीरगकालो जहण्णेणेयसमयमेत्तो । ___ * उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागो। है उसकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय बन जाता है। यथा द्वितीयादि नरकोंके नारकी,योनिनी तिर्यश्च तथा भवनत्रिक देव । मात्र मनुष्यत्रिकमें सम्यक्त्वके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकके जघन्य कालमें कुछ विशेषता है। बात यह है कि दर्शनमोहनीयको क्षपणाका प्रारम्भ मनुष्यगतिमें ही होता है, इसलिए तो सामान्य मनुष्य और मनुष्यिनियोंमें सम्यक्त्वके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्तसे कम नहीं बनता, अतः इनमें वह उक्तप्रमाण कहा है। अब रहे मनुष्य पर्याप्त सो जो मनुष्यनी जीव सम्यक्त्वकी उदोरणामें दो समय काल शेष रहने पर कृतकृत्यवेदका सम्यक्त्वके साथ उत्तम भोगभूमिके मनुष्य पर्याप्तकोंमें उत्पन्न होता है उसकी अपेक्षा मनुष्य पर्याप्तकोंमें सम्यक्त्वको अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका जघन्य काल एक समय बन जानेसे वह उक्तप्रमाण कहा है! शेष कथन सुगम है। * इससे आगे जघन्य प्रदेश उदीरकोंके कालका अधिकार है। ६ १३७. अधिकारकी सम्हाल करने वाला यह सूत्र सुगम है। उसका निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । उनमेंसे ओघका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * सब कर्मोंके जघन्य प्रदेश उदीरकका कितना काल है ? $ १३८. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य काल एक समय है । $ १३९. वह कैसे ? संज्ञी मिथ्यादृष्टि उत्कृष्ट संक्लेशरूपसे परिणम कर एक समय तक जघन्य प्रदेश उदीरक हो गया । पुनः दूसरे समयमें अजघन्य रूपसे परिणत हुआ । इस प्रकार सब कर्मोके जघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समयमात्र प्राप्त हुआ। * उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। . १. आता प्रत्योः -सुत्तभेदं इति पाठः । २० Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ १४०. कुदो ? जहण्णपदेसुदीरणकारणपरिणामेसु असंखेजलोगमेत्तेसु उक्कस्सेणवट्ठाणकालस्स एगजीवविसयस्स तप्पमाणत्तोवलंभादो । * अजहण्णपदेसुवीरगो केवचिरं कालावो होदि ? $१४१. सुगमं । * जहण्णेण एयसमओ ? 5 १४२. कुदो ? जहण्णपदेसुदीरणादो एगसमयमजहण्णभावमुवणमिय पुणो विदियसमये जहण्णभावेण परिणदम्भि सव्वेसिमेगसमयमेत्तजहण्णकालोपलंभादो। * उक्कस्सेण पयडिउदीरणाभंगो। ____१४३. कुदो ? मिच्छत्त-णसयवेदाणमजहण्णपदेसुदी० उक्क० . अणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा इञ्चादिणा मेदाभावादो। 'संपहि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तणं वि एदम्मि जहण्णाजहण्णपदेसुदीरगकालणिद्देसे अविसेसेण पसत्ते तत्थ विसेसपरूवणट्ठमाह * णवरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं जहण्णपदेसुदीरगो केवचिरं कालादो होदि ? १४४. सुगमं । $ १४०. क्योंकि जघन्य प्रदेश उदीरणाके कारणभूत असंख्यात लोकप्रमाण परिणामोंमें एक जीव विषयक उत्कृष्ट अवस्थान काल तत्प्रमाण उपलब्ध होता है। * अजघन्य प्रदेश उदीरकका कितना काल है ? $ १४१. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य काल एक समय है। $ १४२. क्योंकि जघन्य प्रदेश उदीरणाके बाद एक समय तक अजघन्य भावको प्राप्त होकर पुनः दूसरे समयमें जघन्यभावसे परिणत होने पर सभी कोका जघन्य काल एक समयमात्र उपलब्ध होता है। * उत्कृष्ट कालका भंग प्रकृति उदीरणाके समान है । ६१४३. क्योंकि मिथ्यात्व और नपुंसकवेदको अजघन्य प्रदेश उदीरणाका उत्कृष्ट काल अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनोंके बराबर है इत्यादिरूपसे प्रकृति उदीरणाके उत्कृष्ट कालसे प्रकृत उत्कृष्ट कालमें कोई भेद नहीं है। अब सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वके भी इस जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरणाके कालके कथनके बिना भेदके प्राप्त होने पर उनके कालमें जो विशेषता है उसका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य प्रदेश उदीरकका कितना काल है ? $ १४४. यह सूत्र सुगम है। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०६२] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए एयजीवेण कालो २३५ * जहण्णुक्कस्सेण एयसमयो। १४५. कुदो ? सम्माइट्ठि-सम्मामिच्छाइट्ठीणं मिच्छत्ताहिमुहाणं चरिमसमयसंकिलेसेण लद्धजहण्णभावत्तादो । * अजहण्णपदेसुदीरगो जहा पयडिउदीरणाभंगो। $ १४६. कुदो ? सम्मत्तस्स जह० अंतोमु०, उक्क० छावद्विसागरो० देसूणाणि । सम्मामि० जहण्णुक्क० अंतोमुहुत्तमिच्चेदेण भेदाभावादो। एवमोघेण सव्वेसिं कम्माणं जहण्णाजहण्णपदेसुदीरगकालणुगमो समत्तो । १४७. संपहि एत्थेव णिण्णयजणणट्ठमादेसपरूवणटुं च उच्चारणाणुगममेत्य कस्सामो तं जहा—जह० पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०-णवंस. जह० जह० एयस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो । अजह० जह. एयस०, उक्क० अणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । एवं सोलसक०-भय-दुगुंछ । णवरि अजह० जह• एयस०, उक्क० अंतोमु० । एवमित्थिवेद-पुरिसवेद० । गवरि अजह० जह० एयस०, उक्क० पलिदोवमसदपुधत्तं सागरोवमसदपुधत्तं । एवं हस्स-रदिअरदि-सोगाणं । णवरि अजह० जह• एयस०, उक्क० छम्मासं तेत्तीसं सागरो० * जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। $ १४५. क्योंकि मिथ्यात्वके अभिमुख हुए सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिके अन्तिम समयमें संक्लेशवश उक्त कर्मोंकी जघन्य प्रदेश उदीरणा पाई जाती है। * अजघन्य प्रदेश उदीरकका भंग प्रकृति उदीरणाके समान है। $ १४६. क्योंकि सम्यक्त्वका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम छयासठ सागरोपम है तथा सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है इससे विवक्षित कालमें कोई भेद नहीं है। इस प्रकार ओघसे सब कर्मोंके जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरकके कालका अनुगम समाप्त हुआ। १४७. अब यहीं पर निर्णय उत्पन्न करनेके लिए तथा आदेशका कथन करनेके लिए यहाँ उच्चारणाका अनुगम करेंगे। यथा-जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका हैओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व और नपुंसकवेदके जघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनोंके बराबर है। इसी प्रकार सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार स्त्रीवेद और पुरुषवेदको अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल क्रमसे सौ पल्योपमपृथक्त्वप्रमाण और सौ सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण है। इसी प्रकार हास्य, रति, अरति और शोककी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अज Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ सादिरेयाणि । सम्म० जह० पदेसुदी० जह उक्क० एयस० । अजह० जह० अंतोमु०, उक्क० छावट्ठिसागरो० देसूणाणि । सम्मामि० जह० पदेसुदी० जह• उक्क० एगस० । अजह० जह० उक्क० अंतोमु० । १४८. आदेसेण णेरइय० मिच्छ०-णवुस०-अरदि-सोग० जह० पदेसुदी० जह• एगस०, उक्क० आबलि० असंखे०भागो। अजह० जह• एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि! एवं सोलसक०-हस्स-रदि-भय-दुगुंछ । णवरि अजह० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । सम्म० जह० पदेसुदी० जह० उक्क० एगस० । अजह. जह० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि । सम्मामि० ओघं । एवं सत्तमाए । णवरि सम्म० अजह० जह• अंतोमु० । एवं पढमादि जाव छट्टि त्ति । णवरि अरदि-सोग० हस्सभंगो । पढमाए सम्म० अजह० जह• एयस० । १४९. तिरिक्खेसु मिच्छ०-णस० ओघं । सम्म० जह० पदेसुदी० जह. उक्क एगस० । अजह० जह० एगस०, उक्क० तिण्णि पलिदो० देसूणाणि । सम्मामि०-सोलसक०-छण्णोक० पढमपुढविभंगो। इत्थिवेद-पुरिसवेद० जह. घन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल हास्य और रतिका छह महीना तथा अरति और शोकका साधिक तेतीस सागरोपम है। सम्यक्त्वके जघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम छयासठ सागरोपम है। सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है तथा अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। $ १४८. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, अरति और शोकके जघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागरोपम है। इसी प्रकार सोलह कषाय, हास्य, रति, भय और जुगुप्साकी अपेक्षा जान लेना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। सम्यक्त्वके जघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागरोपम है। सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल अन्तर्महर्त है। इसी प्रकार पहली पथिवीसे लेकर छटी प्रथिवी तकके नारकियोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अरति और शोकका भंग हास्यके समान है। पहली पृथिवीमें सम्यक्त्वके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है। $ १४९. तिर्यश्चोंमें मिथ्यात्व और नपुंसकवेदका भंग ओघके समान है। सम्यक्त्वके जघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेश-उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्योपम है। सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषायोंका भंग पहली पृथिवीके समान है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदके Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३७ गा० ६२ ] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए एयजीवेण कालो पदेसुदी० जह० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे भागो। अजह० जह० एगस०, उक्स० तिण्णि पलिदोवमाणि पुन्यकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि । एवं पंचिंदियतिरिक्खतिये। णवरि णqस० अजह० जह० एगस०, उक्क० पुवकोडिपुध० । मिच्छ ० अजह० जह० एगस०, उक्क० सगढिदी। वरि पज० इथिवेदो पत्थि । जोणिणीसु पुरिसवेदणवूस० णत्थि । सम्म० अजह• जह० अंतोमु० । $ १५०. पंचिंदियतिरिक्खअपज०-मणुससअपज. सव्वपय० जह० पदेसुदी० जह० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो। अजह जह० एगस०, उक्क० अंतोमु०। १५१. मणुसतिये पंचिंदियतिरिक्खभंगो। णवरि सम्म० अजह० जह० अंतोमु० । पजत्तएसु इत्थिवेदो णत्थि । सम्म० अजह० जह० एगस० । मणुसिणीसु पुरिसवेद-णवुस० णत्थि । जघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पूवकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम है। इसी प्रकार पश्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेदके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। मिथ्यात्वके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है। इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेद नहीं है और योनिनियोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं है। तथा योनिनियोंमें सम्यक्त्वके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है। विशेषार्थ—कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव मर कर तिर्यश्च योनिनियोंमें नहीं उत्पन्न होते, इसलिए इनमें सम्यक्त्वके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय न होकर अन्तमुहूर्त कहा है। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें भी सम्यक्त्वके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल अन्तमुहूर्त इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए । आगे मनुष्यिनियोंमें, भवनत्रिक देवोंमें तथा सौधर्म-ऐशान कल्पकी देवियोंमें भी सम्यक्त्वके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल अन्तमुहूर्त इसी प्रकार जानना चाहिए । अन्य सब कथन सुगम होनेसे उसका स्पष्टीकरण नहीं किया है। १५०. पश्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। ६१५१. मनुष्यत्रिकमें पजेन्द्रिय तिर्योंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। तथा पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेद नहीं है। तथा इनमें सम्यक्त्वके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है। मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं है। विशेषार्थ—यहाँ पर सामान्य मनुष्योंमें सम्यक्त्वके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है सो उसका कारण यह है कि क्षायिक सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ १५२. देवेसु मिच्छ० जह० पदेसुदी० जह० एगस०, उक्क० आवलि. असंखे०भागो० । अजह० जह० एयस०, उक्क० एक्कत्तीसं सागरोवमाणि । एवं पुरिस० । णवरि अजह० जह० एगस०, उक्क० तेत्तोसं सागरो० । एवं सम्म० । णवरि जह० जहण्णुक्क० एगस० । सम्मामि०-सोलसक०-छण्णोक० पढमाए भंगो। णवरि हस्स-रदि० अजह• जह० एगस०, उक्क० छम्मासं । इत्थिवेद० ओघं । णवरि अज. जह० एगस०, उक्क. पणवण्णं पलिदोवमाणि । एवं भवणादि जाव गवगेवजा त्ति । णवरि सगढिदी । हस्स-रदि० अरदिभंगो। सहस्सारे हस्स-रदि० देवोघं । भवणवाणवें०-जोदिसि० सम्म० अजह० जह० अंतोमु०, इत्थिवेद० अजह० जह० एयस०, उक्क० तिण्णि पलिदो० पलिदो० सादिरेयं प० सा० सोहम्मीसाण० इत्थिवेद० देवोघं । प्रारम्भ मनुष्यगतिमें ही होता है। अब यदि कोई मनुष्य मनुष्यायुका बन्ध करनेके बाद जीवनके अन्तमें सम्यग्दृष्टि होकर अन्तमुहूर्तके भीतर क्षायिक सम्यक्त्वको उत्पन्न करता हुआ कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि होकर और मर कर उत्तम भोगभूमिके मनुष्योंमें उत्पन्न होता है तो भी उसके सम्यक्त्वके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त ही प्राप्त होता है, इससे कम नहीं, इसलिए यहाँ सामान्य मनुष्योंमें सम्यक्त्वके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । परन्तु कोई मनुष्यिनी ( भावसे स्त्रीवेदी और द्रव्यसे पुरुषवेदी मनुष्य ) कृतकृत्यवेदक सम्यक्त्वके कालमें एक समय शेष रहने पर मर कर उत्तम भोगभूमिके मनुष्य पर्याप्तकोंमें ( द्रव्य-भावसे पुरुषवेदी मनुष्योंमें ) जन्म लेता है तो मनुष्य पर्याप्तकोंमें सम्यक्त्वके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय बन जाता है। यही कारण है कि यहाँ मनुष्य पर्याप्तकोंमें सम्यक्त्वके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय विशेषरूपसे कहा है । शेष कथन सुगम है। १५२. देवोंमें मिथ्यात्वके जघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल इकतीस सागरोपम है। इसी प्रकार पुरुषवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागरोपम है। इसी प्रकार सम्यक्त्वकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसके जघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषायोंका भंग प्रथम पृथिवीके समान है। इतनी विशेषता है कि हास्य और रतिके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल छह महीना है। स्त्रीवेदका भंग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि इसके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पचवन पल्योपम है। इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर नौ |वेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। तथा इनमें हास्य और रतिका भंग अरतिके समान है। मात्र सहस्रार कल्पमें हास्य और रतिका भंग सामान्य देवोंके समान है। तथा भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें सम्यक्त्वके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल अन्तमुहर्त है। स्त्रीवेदके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल क्रमसे तीन पल्योपम, साधिक एक पल्योपम और साधिक एक पल्योपम है। सौधर्म और ऐशान कल्पमें स्त्रीवेदका भंग सामान्य देवोंके समान है। आगेके देवोंमें स्त्रीवेद Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए एयजीवेण अंतरं २३९ उवरि इथिवेदो गस्थि । अणुदिसादि सव्वट्ठा त्ति सम्म०-पुरिसवे० जह० पदेसुदी० जह० एयस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो। अजह. जह० एयस०, उक्क० सगद्विदी । बारसक०-छण्णोक० आणदभंगो । एवं जाव० । * एगजीवेण अंतरं। १५३. सुगममेदमहियारपरामरसवक्कं । * मिच्छत्तु कस्सपदेसुवीरगंतरं केविचरं कालादो होदि ? $ १५४. सुगमं । * जहण्णण अंतोमुहुत्त। 5 १५५. तं कथं ? अण्णदरकम्मंसियलक्षणेणागदसंजमाहिमुहचरिमसमयमिच्छाइद्विणा उक्कस्सविसोहिपरिणदेणुक्कस्सपदेसुदरीणाए कदाए आदी दिट्ठा । तदो संजमं गंतूणंतरिय सव्वजहण्णंतोमुहुत्तेण पुणो मिच्छत्तं पडिवजिय जहण्णंतराविरोहेण विसोहिमावूरिय संजमाहिमुहो होदूण मिच्छाइद्विचरिमसमये उक्कस्सपदेसुदीरगो जादो। नहीं है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सम्यक्त्व और पुरुषवेदके जघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है । बारह कषाय और छह नोकषायोंका भंग आनत कल्पके समान है। इसी प्रकार अनाहारक मागेणा तक जानना चाहिये। विशेषार्थ-अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव नियमसे सम्यग्दृष्टि होते हैं, इसलिए इनमें सम्यक्त्वके जघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण बन जाता है। कारण कि यहाँ पर सम्यक्त्वकी जघन्य प्रदेश उदीरणाके कारणभूत जो असंख्यात लोकप्रमाण परिणाम हैं उनमें एक जीवका अधिकसे अधिक आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक अवस्थान बन जाता है। शेष कथन सुगम है। * एक जीवको अपेक्षा अन्तरकालका अधिकार है। ६१५३. अधिकारका परामर्श करानेवाला यह सूत्रवाक्य सुगम है। * मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका अन्तरकाल कितना है ? ६१५४. यह सूत्र सुगम है। , * जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। ६ १५५. वह कैसे ? अन्यतर कर्माशिक लक्षणसे आकर संयमके अभिमुख हुए उत्कृष्ट विशुद्धिसे परिणत अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिके द्वारा उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाके करने पर उसकी आदि दिखलाई दी। उसके बाद संयमको प्राप्त कर और उसका अन्तर कर सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा पुनः मिथ्यात्वको प्राप्त कर जघन्य अन्तरकालके अविरोधरूपसे विशुद्धिको पूरा कर संयमके अभिमुख हुए मिथ्यादृष्टिके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक हो गया। इस प्रकार मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तर काल अन्तमुहूते Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो लद्धमंतरं । एदं चेव सुत्तं जाणावयं, जहा उक्कस्सपदेसुदीरणा परिणाममेत्तमवेक्खदे दव्वविसेसं णावेक्खदि ति । * उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियह देसूणं । $ १५६. कुदो ? पुव्वं व आदि कादूर्णतरिय देसूणद्धपोग्गलपरियट्टमेत्तकालेण पुणो वि पढमसम्मत्तमुप्पोइय मिच्छत्तं गंतूणंतोमुहुत्तेण संजमाहिमुहो होदूण मिच्छाइद्विचरिमसमए उकस्सपदेसुदीरणाए परिणदम्मि तदुवलंभादो। * सेसेहिं कम्मेहिं अणुमग्गियूण णेदव्वं । $ १५७. सुगममेदमत्थसमप्पणासुत्तं । संपहि एदेण सुत्तेण सूचिदत्थविवरणट्ठमुच्चारणाणुगममेत्थ कस्सामो । त जहा १५८. अंतरं दुविहं-जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णिदेसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०-अणताणु०४ उक्क० पदेसुदी० जह० अंतोमु०, उक. उवड्डपोग्गलपरियढें । अणुक्क० जह० एगस०, मिच्छ० अंतोमु०, उक्क० बेछावट्ठिसागरो० देसूणाणि । एवमट्ठक० । णवरि अणुक्क० जह• एयस०, उक्क. पुन्वकोडी देसूणा । प्राप्त हुआ। यहाँ इस सूत्रसे मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकके जघन्य अन्तरकालका ज्ञापन होता है वहाँ इसी सूत्रसे यह भी जाना जाता है कि उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा परिणाममात्रकी अपेक्षा करती है, द्रव्यविशेषकी अपेक्षा नहीं करती। * उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम उपार्ध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। $ १५६. क्योंकि पहलेके समान मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाको आदि करके और अन्तर करके कुछ कम अर्ध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण कालके बाद फिर भी प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न कर और मिथ्यात्वमें जाकर अन्तर्मुहूर्त में संयमके अभिमुख होकर मिथ्यादृष्टिके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणारूपसे परिणत होने पर उक्त अन्तरकालकी प्राप्ति होती है। * शेष कर्मोंका विचार कर अन्तरकाल जानना। . ६ १५७. अर्थका समर्पण करनेवाला यह सूत्र सुगम है। अब इस सूत्र द्वारा सूचित हुए अर्थका विवरण करनेके लिए उच्चारणाका अनुगम यहाँ पर करेंगे। यथा $ १५८. अन्तरकाल दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्महर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल : पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अनन्तानुबन्धीचतुष्कका एक समय है, मिथ्यात्वका अन्तर्मुहूर्त है और दोनोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम दो छयासठ सागरोपम है। इसी प्रकार आठ कषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश १. आता प्रत्योः --मुवेक्खदे इति पाठः । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग० ६२ ] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए एयजीवेण अंतरं २४१ सम्मामि० ० उक० अणुक्क० जह० अंतोमु०, उक० उवडपोग्गलपरियङ्कं । एवं सम्म० । वरि उक्क० पदेसुदी० णत्थि अंतरं । चदुसंजल० - भय - दुगुंछा० उक्क० णत्थि अंतरं । अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । इत्थि वेद - पुरिसवेद० उक्क० णत्थि अंतरं । अणुक्क० जह० अंतोमु०, पुरिसवेद० जह० एगस०, उक्क० अनंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । ण स ० उक्क० णत्थि अंतरं । अणुक्क० जह० अंतोमु०, उक्क० सागरोवमसदपुधत्तं । इस्स- रदि- अरदि-सोग० उक्क० णत्थि अंतरं । अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि अरदि-सोग० छम्मासं । $ १५९. आदेसेण णेरइय० मिच्छ० - अनंताणु०४ उक्क० पदेसुदी० जह० पलिदो ० असं० भागो, अणुक्क० जह० अंतोमु०, उक्क० दोन्हं पि तेत्तीसं सागरोमाणि देणाणि । सम्मामि० उक० अणुक० पदेसुदी० जह० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि देणाणि । एवं सम्म० । णवरि उक्क० णत्थि अंतरं । बारसक० - सत्तणोक० ६० उक्क० पदेसुदी० जह० एयस०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि देणाणि । उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्ध पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है । इसी प्रकार सम्यक्त्वकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका अन्तरकाल नहीं है । चार संज्वलन, भय, और जुगुप्साके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । स्त्रीवेद और पुरुषवेदके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल स्त्रीवेदका अन्तर्मुहूर्त है और पुरुषवेदका जघन्य अन्तरकाल एक समय है तथा दोनोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनोंके बराबर है । नपुंसकवेदके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल सौ सागरोपमपृथक्त्व प्रमाण है । हास्य, रति, अरति और शोकके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल हास्य और रतिका साधिक तेतीस सागरोपम तथा अरति और शोकका छह महीना है । 1 विशेषार्थ -- सम्यक्त्व, चार संज्वलन तथा नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा उसउस प्रकृतिकी क्षपणा करते समय यथास्थान प्राप्त होती है, इसलिए इनके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकके अन्तरकालका निषेध किया है। शेष कथन सुगम है । $ १५९. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और दोनोंका ही उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम है । सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम् है । इसी प्रकार सम्यक्त्वक अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका अन्तरकाल नहीं है । बारह कषाय और सात नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक ३१ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ १ अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । णवरि इस्स - दि० अणुक० जह० एयस ०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि । णपुंस० अणुक० जह० एयस०, उक्क० आवलि० असं ० भागो । एवं सत्तमाए । णवरि सम्मत्त इस्स -रदिभंगो । एवं पढमादि ० छट्टिति । वरि सगट्ठदी देणा । इस्स- रदि० अरदिभंगो । पढमाए सम्म० उक्क० णत्थि अंतरं । अणुक० जह० अंतोमु०, उक्क० सागरो० देसूणं । समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । इतनी विशेषता है। कि हास्य और रतिके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम है। नपुंसकवेदके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार सातवीं पृथिवीं में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वका भंग हास्य और रतिके समान है । इसी प्रकार पहली पृथिवीसे लेकर छटी पृथिवी तकके नारकियोंमें जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। इनमें हास्य और रतिका भंग अरतिके समान है । पहली पृथिवीमें सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम एक सागरोपम है । विशेषार्थ -- नारकियों में मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका स्वामित्व प्रथम सम्क्त्वके अभिमुख हुए मिध्यादृष्टि जीवके यथास्थान होता है, यतः सामान्य नारकियोंमें उपशम सम्यक्त्वका जघन्य अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम है, इसलिए यहाँ उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल पल्मोपमके असंख्यातवें भागप्रमाण और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम कहा है। उक्त प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम एक जीवविषयक प्रकृति उदीरणाके अन्तरकालके समान बन जानेसे उसे तत्प्रमाण कहा है। सम्यमिथ्यात्वकी दूसरी बार प्राप्ति नारकियोंमें कमसे कम अन्तर्मुहूर्तके अन्तरसे और अधिकसे अधिक कुछ कम तेतीस सागरोपमके अन्तरसे प्राप्त होना सम्भव है, इसलिए यहाँ इसके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम कहा है। सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा क्षपणाके समय यथास्थान होती है, इसलिए इसके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकके अन्तरकालका निषेध किया है। इसके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल सम्यग्मिथ्यात्वके समान है यह स्पष्ट ही है । नारकियों में अप्रत्याख्यानावरण आदि बारह कषाय और सात नोकषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा सर्वविशुद्ध या तत्प्रायोग्य विशुद्ध सम्यग्दृष्टिके होती है, यतः ऐसी योग्यता कमसे कम १. आ०प्रतौ णपरि हस्स - रदि अणुक्क० जह० एयस० उक्क० तेत्तीस सागरोवमाणि देसूणाणि अणुक्क० जह० एयस० उक्क० अतो णर्वारि हस्सरदि अणुक० जह० एस० उक्क० तेत्तीस सागरोवमाणि देणाणि घुस ० इति पाठः । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० ६२] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए एयजीवेण अंतरं २४३ ६१६०. तिरिक्खेसु मिच्छ०-अणंताणु४ ओघं । णवरि अणुक्क० जह० अंतोमु०, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि देसणाणि । सम्म०-सम्मामि० ओघं । अपच्चक्खाण०४ ओघ । अणुक्क० जह• अंतोमु०, उक्क० पुव्वकोडी देसूणा । अट्ठक०-छण्णोक० उक्क० पदे० जह० एयस०, उक्क० अद्धपोग्गल० देसूणं । अणुक्क० जह० एगस०, एक समयके अन्तरसे और अधिकसे अधिक कुछ कम तेतीस सागरोपमके अन्तरसे प्राप्त होना सम्भव है, इसलिए तो यहाँ इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम कहा है। तथा इनके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है यह स्पष्ट ही है। मात्र हास्य, रति और नपुंसकवेदके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकके उत्कृष्ट अन्तरकालमें कुछ विशेषता है। बात यह है कि सातवें नरकमें निरन्तर अरति और शोककी उदीरणा होती रहे यह सम्भव है, इसलिए जो जीव सातवें नरकमें उत्पन्न होनेके बाद यथायोग्य उसके प्रारम्भ और अन्तमें हास्य और रतिका उदीरणा करता है और मध्यमें अरति-शोककी कुछ कम तेतीस सागरोपम काल तक उदीरणा करता रहता है उसकी अपेक्षा सामान्य नारकियोंमें हास्य और रतिके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम बन जानेसे वह तत्प्रमाण कहा है। तथा नरकमें नपुंसकवेदकी निरन्तर उदीरणा होती रहती है, इसलिए यहाँ इसके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकके जघन्य और उत्कृष्ट कालको ध्यानमें रख कर अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होनेसे वह तत्प्रमाण कहा है। सातवें नरकमें सम्यक्त्वको छोड़ कर अन्य सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका यह अन्तरकाल इसी प्रकार बन जाता है, इसलिए उसे सामान्य नारकियोंके समान जाननेकी सूचना की है। मात्र सातवें नरकमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होते, इसलिए वहाँ सम्यक्त्वका भंग हास्य और रतिके समान बन जानेसे उसके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालको हास्य और रतिके एतद्विषयक अन्तरकालके समान जाननेकी सचना की है। दूसरी पृथिवीसे लेकर छटी पृथिवी तकके नारकियोंमें अन्य सब प्ररूपणा सातवीं पृथिवीके समान ही है। मात्र दो बातोंमें फरक है। एक तो इनकी अपनी-अपनी भवस्थिति जुदी-जुदी है, इसलिए जहाँ जो उत्कृष्ट स्थिति हो, कुछ कम तेतीस सागरोपमके स्थानमें कुछ कम वह कहनी चाहिए। दूसरे सातवें नरकमें अरति और शोकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट जो अन्तरकाल प्राप्त होता है वह इन नरकोंमें हास्य और रतिका बन जानेके कारण उसे अरतिके समान कहना चाहिए। पहली पृथिवीमें भी इसी प्रकार जानना चाहिए । मात्र उसमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि मर कर उत्पन्न हो सकता है, इसलिए उसमें सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका अन्तरकाल प्राप्त नहीं होनेसे उसका निषेध किया है। शेष सष्ट ही है। 5 १६०. तिर्यश्चोंमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि इनके अनुकृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुल कम तीन पल्योपम है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। अत्याख्यानचतुष्कका भंग ओघके समान है। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। आठ कषाय और छह नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ उक्क० अंतोमुहुत्तं । एवमित्थि वेद - पुरिसवेद० । णवरि अणुक्क० जह० एस ०, उक० अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । एवं णवुंस० । णवरि अणुक्क० जह० एस ०, कोड धत्तं । उक्क ० $ १६१. पंचिदियतिरिक्खतिये मिच्छ० - अट्ठक० उक्क० जह० अंतोमु०, उक्क० पुव्वकोडिपुधत्तं । अणुक्क० तिरिक्खोघं । सम्मामि • उक्क० अणुक० जह० अंतोमु०, उक्क० सगट्ठिदी । एवं सम्म० । णवरि उक्क० णत्थि अंतरं । अट्ठक० - छण्णोक० उक्क० पदेसुदी ० जह० एयस०, उक्क० पुन्त्रकोडिपुधत्तं । अणुक्क० जह० एस ०, उक्क० अंतोमु० । तिहं वेदाणमुक्क० अणुक्क० पदेसुदी० जह० एयस०, उक्क० पुव्वकोडि धत्तं । वरि पञ्जत्त० इत्थवे० णत्थि । जोणिणीसु पुरिस०- बुस० णत्थि । इत्थवे ० अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० आवलि० असंखे० भागो । सम्म० उक्क० उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अर्ध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदोरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनोंके बराबर है। इसी प्रकार नपुंसकवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है । विशेषार्थ — तिर्योंमें अन्तिम आठ कषायों और नौ नोकषायोंके उत्कृष्ट स्वामित्वका जो निर्देश किया है उसे ध्यानमें रख कर यहाँ उनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल घटित कर लेना चाहिए । इसी प्रकार अन्य प्ररूपणा भी स्वामित्व और काल आदिका विचार कर घटित कर लेनी चाहिए । विशेष स्पष्टीकरण जिस प्रकार नरकगतिमें एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकालका विचार करते समय कर आये हैं उसी न्याय से यहाँ भी कर लेना चाहिए । $ १६१. पचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें मिथ्यात्व और आठ कषायोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका भंग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है । सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है । इसी प्रकार सम्यक्त्वकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका अन्तरकाल नहीं है। आठ कषाय और छह नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। तीन वेदोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है । इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकों में वेद नहीं है तथा योनिनियोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं है । तथा योनिनियों में स्त्रीवेदके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०६२) उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए एयजीवेण अंतरं २४५ पदेसुदी० जह० एयसमओ, उक्क० पुव्वकोडिपुध० । अणुक्क० जह० एयस०, उक्क. सगद्विदी। १६२. पंचिंदियतिरिक्खअपञ्ज०-मणुसअपज० मिच्छ०-णवूस० उक्क० पदेसुदी० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० आवलि. असंखे०भागो । सोलसक०-छण्णोक० उक्क० अणुक्क० पदेसुदी. जह० एगस०, उक्क० अंतोमु०। १६३. मणुसतिये मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि०-अणंताणु०४ पंचि०तिरिक्खमंगो । अट्ठक० उक्क० पदेसुदी० जह० अंतोमु०, उक्क० पुवकोडिपुधत्तं । अणुक्क० जह• अंतोमु०, उक्क० पुवकोडी देसणा। चदुसंजलण-छण्णोक० उक० णत्थि आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अपनी स्थितिप्रमाण है। विशेषार्थ-यहाँ तिर्यश्च पर्याप्तकोंमें जो पुरुषवेद और नपुंसकवेदके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्वप्रमाण कहा है सो कर्मभूमिकी अपेक्षा अपनी स्थितिके प्रारम्भ और अन्त में पुरुषवेद या नपुंसकवेदके साथ रखकर मध्यमें तदितर वेदके साथ रखने पर उक्त अन्तर काल कुछ कम पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण प्राप्त होनेसे वह तत्प्रमाण कहा है । तथा तिर्यश्च योनिनियोंमें सम्यग्दृष्टि जीव मरकर उत्पन्न नहीं होता, इसलिए उनमें सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका अन्तरकाल बन जानेसे उसका अलगसे उल्लेख किया है। शेष कथन सुगम है। ६ १६२. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व और नपुंसकवेदके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सोलह कषाय और छह नोकषायोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। - विशेषार्थ-उक्त दोनों प्रकारके जीवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाकी स्वामित्वसम्बन्धी विशेषता न होने पर भी सोलह कषायों और छह नोकषायोंके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकके उत्कृष्ट कालको ध्यानमें रख कर यहाँ इनके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है । तथा ये परिवर्तमान प्रकृतियाँ है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त बन जानेसे उसे भी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। १६३. मनुष्यत्रिकमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है। आठ कषायोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। चार संज्वलन और छह नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका अन्तरकाल नहीं Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ अंतरं । अणुक्क० जह० उक्क. अंतोमु । तिण्हं वेदाणं उक० पदे. गथि अंतरं । अणुक्क० जह० अंतोमु०, उक्क० पुव्वकोडिपुधनं । णवरि वेदा जाणियव्वा । मणुसिणीसु इत्थिवे. उक्क० णत्थि अंतरं । अणुक्क० जह० उक्क० अंतोमु०।। १६४. देवेसु मिच्छ०-अणंताणु०४ उक० अणुक्क० पदे० जह० पलिदो० असंखे०भागो अंतोमु०, उक० एकत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि । सम्मामि० उक्क० अणुक्क० पदेसुदी० जह० अंतोमु०, उक्क० एकत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि । एवं सम्म० । णवरि उक्क० णत्थि अंतरं । बारसक०-सत्तणोक० उक्क० पदे० जह० एयस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । अणक्क० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । णवरि अरदि-सोग० अणुक० जह० एयस०, उक्क० छम्मासं । पुरिसवेद०. अणुक० जह० एगस०, उक्क० आवलि. असंखे० भागो । इत्थिवेद० उक्क० पदेसुदी. जह० एयस०, उक्क० पणबण्णं पलिदो० देसूणाणि । अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे० भागो । एवं भवणादि जाव गवगेवजा त्ति । णवरि सगहिदी देसूणा । है। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। तीन वेदोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। इतनी विशेषता है कि वेद जान लेने चाहिए। मनुष्यिनियोंमें स्त्रीवेदके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है। विशेषाथे—मनुष्य पर्याप्तकोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेदके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकके उत्कृष्ट अन्तरकालको पश्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान घटित कर लेना चाहिए । मनुष्यिनियोंमें उपशमश्रेणिकी अपेक्षा स्त्रीवेदके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त प्राप्त होनेसे वह तत्प्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। १६४. देवोंमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल क्रमसे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण और अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागरोपम है। सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागरोपम है । इसी प्रकार सम्यक्त्वकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका अन्तरकाल नहीं है । बारह कषाय और सात नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहर्त है। इतनी विशेषता है कि अरति और शोकके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है। पुरुषवेदके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । स्त्रीवेदके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पचवन पल्योपमप्रमाण है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल आवलिके असंख्यातवं भागप्रमाण है। इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर नौ प्रैवेयक तकके देवों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए एयजीवेण अंतरं 01 अरदि-सोग० [० हस्स - रदिभंगो । सहस्सारे अरदि-सोग० अणुक्क० देवोघं । भवण - वाणवें जोदिसि ० सम्म० उक्क० अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० सगट्ठिदी देणा । इत्थिवेद० उक्क० पदेसुदी० जह० एयग०, उक्क० तिष्णि पलिदो० देसूणाणि पलिदोबमसादिरे० प० सा० । अणुक्क० जह० रगस०, उक्क० आवलि० असंखे ०मागी । सोहम्मीसाण० इस्थिवेद० देवोघं । उवरि इत्थवेदो णत्थि । $ १६५. अणुद्दिसादि सव्वट्ठा त्ति सम्म उक्क० अणुक्क० पदे० णत्थि अंतरं । बारसक० - सत्तणोक० उक्क० पदेसुदी० जह० एयस०, उक्क० सगट्टिदी देणा । अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । णवरि पुरिसवेद० अणुक्क० जह० एयस ०, उक्क० आवलि० असंखे ० भागो । एवं जाव० । २४७ कुछ कम अपनी-अपनी स्थिति जाननी चाहिए । अरति और शोकका भंग हास्य और रतिके समान है । किन्तु सहस्रार कल्पमें अरति और शोकके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका भंग सामान्य देवोंके समान है । भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें सम्यक्त्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है । स्त्रीवेदके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल क्रमसे कुछ कम तीन पल्योपम, साधिक एक पल्योपम और साधक एक पल्योपम है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ठ अन्तरकाल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । सौधर्म और ऐशान कल्पमें स्त्री वेदका भंग सामान्य देवोंके समान है । आगेके देवोंमें स्त्रीवेद नहीं है । विशेषार्थ – यहाँ देवों में नपुंसकवेद नहीं होता, इसलिए इनमें स्त्रीवेद और पुरुषवेदके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण बन जानेसे वह उक्तप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है । इतना अवश्य है कि जहाँ जो विशेषता है उसे समझकर यथास्थान अन्तरकाल घटित करना चाहिए | $ १६५. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सम्यक्त्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका अन्तरकाल नहीं है । बारह कषाय और सात नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी-अपनी स्थिति - प्रमाण है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है । इतनी विशेषता है कि पुरुषवेदके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ -- अनुदिश आदिके देवोंमें नियमसे सम्यग्दृष्टि जीव ही जन्म लेते हैं । तथा जो द्वितीय उपशम सम्यग्दृष्टि जीव मर कर वहाँ उत्पन्न होते हैं उनका उपशम सम्यक्त्वका काल पूरा होने पर नियमसे वेदक सम्यग्दृष्टि हो जाते हैं और जो कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टियोंको छोड़कर अन्य वेदकं सम्यग्दृष्टि जीव वहाँ जन्म लेते हैं वे जीवन भर वेदक सम्यग्दृष्टि ही बने रहते हैं । यही कारण है कि इनमें सम्यक्त्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकके अन्तरकालका निषेध किया है। शेष सब कथन स्पष्ट ही है । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ $ १६६. जहण्णंतरं पि एदेणेव देसामासियसुत्तेण सूचिदमिदि तदुच्चारणं वत्तइस्सामो । तं जहा--जहण्णए पयदं । दुविहो णिद्देसो--ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०-अणंताणु०४ जह० पदेसुदी० जह० एयस०, उक्क० अणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । अजह० जह० एयसं०, उक्क० वेछावद्विसागरोवमाणि देसूणाणि । एवमट्ठक० । णवरि अजह० जह० एयस०, उक्क० पुव्यकोडी देसूणा । एवं चदुसंज०छण्णोक० । णवरि अजह० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । णवरि हस्स-रदि० अजह० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । अरदि-सोगः अजह० जह० एगस०, उक्क० छम्मासं । एवं णवंस । णवरि अजह० जह० एयस०, उक्क० सागरोवमसदपुधत्तं । सम्म०-सम्मामि० जह० अजह० पदेसुदी. जह० अंतोमु०, उक्क० उवड्डपोग्गलपरियढें । इत्थिवेद-पुरिसवेद० जह• अजह० पदेसुदीर० जह० एयस०, उक्क० अणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । $ १६६. इसी देशामर्षक सूत्र द्वारा जघन्य अन्तरकालका भी सूचन हो जाता है, इसलिए उसकी उच्चारणाको बतलावेंगे। यथा-जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम दो छयासठ सागरोपम है। इसी प्रकार आठ कषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। इसी प्रकार चार संज्वलन और छह नोकषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है इनके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। इसमें भी इतनी विशेषता है कि हास्य और रतिके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तेतीस सागरोपम है। अरति और शोकके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है। इसी प्रकार नपुंसकवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल सौ सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्ध पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदके जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है।। . विशेषार्थ--ओघसे प्रत्येक प्रकृतिके जघन्य प्रदेश उदीरकका जो जघन्य स्वामित्व बतलाया है उसके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालको तथा अपने-अपने उदय योग्य स्थानके अन्तरकालको ध्यानमें रखकर उक्त अन्तरकाल घटित कर लेना चाहिए। उदाहरणार्थ मिथ्यात्व और नपुंसकवेदको जघन्य प्रदेश उदीरणा उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाले अथवा ईषत् मध्यम परिणामवाले संज्ञी मिथ्यादृष्टि जीवके होती है । यतः इस जीवके ये परिणाम कमसे कम एक समयके अन्तरसे और अधिकसे अधिक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्तकालके Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपय डिपदेस उदीरणाए एयजीवेण अंतरं २४९ $ १६७. आदेसेण णेरड्य० मिच्छ० - अनंताणु ०४ - हस्स रदि० जह० अजह ० जह० एयसे०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि देखणाणि । एवं बारसक० - अरदि- सोगभय - दुगुंछा० । णवरि अजह० जह० एयस०, उक्क० अतोमु० । एवं णव स० । वरि अजह० जह० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे ० भागो । सम्म० - सम्मामि० जह० अजह० पदेसुदी ० जह० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि देणाणि । एवं सत्तमाए । एवं पढमाए जाव छट्टि त्ति । णवरि सगहिदी देणा । इस्स -रदि० अरदि-सोग० भंगो । अन्तरसे होते हैं, इसलिए तो इन प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्तकाल कहा है । वह अनन्तकाल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। तथा मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम छयासठ सागरोपम है, इसलिए इनके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम दो छयासठ सागरोपमप्रमाण कहा है। इसी प्रकार अन्य प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरकके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालको घटित कर लेना चाहिए । इसी न्याय से आगे कहे जानेवाले गतिमार्गणाके अवान्तर भेदोंमें अन्तरकाल घटित कर लेना चाहिए । $ १६७. आदेशसे नारकियों में मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धीचतुष्क, हास्य और रतिके जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम है । इसी प्रकार बारह कषाय, अरति, शोक, भय और जुगुप्साकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार नपुंसकवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम है। इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार पहली पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तक जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। तथा इनमें हास्य और रतिका भंग अरति और शोकके समान है । विशेषार्थ- — एक तो सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वकी जघन्य प्रदेश उदीरणाका स्वामी तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला मिध्यात्वके अभिमुख हुआ क्रमसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि जीव है, दूसरे मिध्यात्वका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए तो इन दोनों प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है । तथा जो सातवें नरकका नारकी जीव भवके प्रारम्भमें और अन्तमें अपने योग्य कालमें उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरणा करता है, किन्तु मध्यके कालमें मिथ्यादृष्टि बना रहता है उसकी अपेक्षा यहाँ उक्त प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम कहा है। शेष कथन सुगम है । अपने-अपने स्वामित्व आदिको ध्यानमें लेकर उसे घटित कर लेना चाहिए । १. आ०प्रतौ अजह० एस० इति पाठः । ३२ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ $१६८. तिरिक्खाणमोघं । णवरि मिच्छ-अणंताणु०४ अजह० जह० एगस०, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि देसूणाणि । अट्ठक०-छण्णोक० अजह० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । णवंस० अज० जह० एगस०, उक्क० पुव्वकोडिपुधत्तं । एवं पंचिंदियतिरिक्खतिये । णवरि मिच्छ०-सोलसक०-छण्णोक० जह० पदेसुदी० जह० एयस०, उक्क० पुरकोडिपुधत्तं । सम्म०-सम्मामि० जह० अजह० जह० अंतोमु०, उक्क० सगट्ठिदी देसूणा । तिण्हं वेदाणं जह० अजह० पदेसुदी० जह० एगस०, उक्क० पुवकोडिपुधत्तं । णवरि पजत्त० इत्थिवेदो पत्थि । जोणिणीसु पुरिस०-णवूस० णत्थि । इत्थिवेद० अजह० पदेसुदी० जह० एयस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो। १६८. तिर्यञ्चोंमें ओघके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तीन पल्योपम है। आठ कषाय और छह नोकषायोंके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। नपुसकवेदके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषायोंके जघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है। तीन वेदोंके जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेद नहीं है तथा योनिनियोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं है। तथा योनिनियोंमें स्त्रीवेदके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। विशेषार्थ कोई सम्यग्दृष्टि तिर्यश्च मरकर तिर्यञ्चोंमें उत्पन्न होता नहीं, इसलिए यहाँ उनमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अजघन्य प्रदेश उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तीन पल्योपम बन जानेसे उक्तप्रमाण कहा है। तिर्यश्चों में प्रत्याख्यान कषायचतुष्क और संज्वलनकषायचतुष्क तथा छह नोकषायोंकी उदीरणा कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक नहीं होती, क्योंकि ये अधूवोदयी प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है। एक तो भोगभूमियाँ जीव नपुंसकवेदी नहीं होते, दूसरे कर्मभूमिज तिर्यञ्चोंमें नपुंसकवेदका उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण ही बन सकता है, इसलिए इन दो तथ्योंको और इसके जघन्य प्रदेश उदीरणाके जघन्य कालको ध्यानमें रख कर यहाँ नपुंसकवेदके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूवकोटिपृथक्त्वप्रमाण कहा है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिककी उत्कृष्ट कायस्थिति यद्यपि पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम है। परन्तु भोगभूमिमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषायोंकी जघन्य प्रदेश उदीरणाका स्वामित्व नहीं बन सकता, इसलिए वहाँ उक्त प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम . Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए एयजीवेण अंतरं २५१ १६९. पंचिंदियतिरिक्खअपज०-मणुसअपज्ज० मिच्छ०-णस० जह० पदेसुदी० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । अजह• जह० एयस०, उक्क० आवलि. असंखे०भागो । सोलसक०-छण्णोक० जह० अजह० पदेसुदी० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु०। १७०. मणुसतिये पंचिंदियतिरिक्खभंगो । पञ्चक्खाण०४ अजह० जह० एगस०, उक्क० पुव्वकोडी देसूणा । णवरि पज. इत्थिवेदो पत्थि । मणुसिणीसु पुरिस०णस० णत्थि । इत्थिवेद० अजह• जह• एयस०, उक्क० अंतोमु० । $ १७१. देवेसु मिच्छ०-अणंताणु०४ जह० पदेसुदी० जह० एयस०, उक० पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण कहा है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें तीन वेदोंका जघन्य प्रदेश स्वामित्व कर्मभूमिमें ही बनता है, दूसरे भोगभूमिमें नपुंसकवेद नहीं होता, इन दोनों तथ्योंको ध्यानमें रखकर यहाँ इनके जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण कहा है। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि योनिनी तिर्यश्चोंमें एकमात्र स्त्रीवेदकी ही उदीरणा होती है, इसलिए इनमें स्त्रीवेदके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होनेसे वह तत्प्रमाण ही कहा है । शेष कथन सुगम है। 5 १६९. पश्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व और नपुंसकवेदके जघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सोलह कषाय और छह नोकषायोंके जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ—उक्त जीवोंमें मिथ्यात्व और नपुसकवेदका निरन्तर उदय है, शेष प्रकृतियाँ परावर्तमान हैं। इन तथ्योंको ध्यानमें रख कर इनमें उक्त अन्तरकालकी प्ररूपणा को है। वह विचार कर घटित कर लेनी चाहिए। ६९७०. मनुष्यत्रिकमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि प्रत्याख्यान कषायचतुष्कके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और ष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकोंमें खीवेद नहीं है तथा मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं है। स्त्रीवेदके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-मनुष्यत्रिकमें संयमकी प्राप्ति सम्भव है, इसलिए इनमें प्रत्याख्यान कषायचतुष्कके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटि बन जानेसे उक्त प्रमाण कहा है। तथा मनुष्यिनियोंमें उपशमश्रेणिमें स्त्रीवेदका अधिकसे अधिक अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होनेसे यहाँ इसके अजघन्य प्रदेश उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है । जघन्य अन्तरकाल एक समय स्पष्ट ही है। $ १७१. देवोंमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक अठारह सागरोपम है। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ जयधंवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ अट्ठारस सागरो ० सादिरेयाणि । अजह० जह० एगस०, उक्क० एकतीसं सागरो ० देणाणि । एवं बारसक० - सत्तणोक० । णवरि अजह० जह० एस ०, उक्क० अंतोमु० । अरदि-सोग ० [० अजह० जह० एस ०, उक्क० छम्मासं । पुरिसवेद० अजह० जह० एयस०, उक्क० आवलि० असंखे० भागो । सम्म० - सम्मामि० जह० अजह० जह० अंतोमु०, उक्क० एक्कत्तीस सागरो० देखणाणि । इत्थिवेद० जह० पदेसुदी ० जह० एस०, उक्क० पणवण्णं पलिदो० देसूणाणि । अजह० जह० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे ० भागो । एवं भवणादि जाव णवगेवज्जा त्ति । णवरि सगट्ठिदी देणा । अरदिसोग० हस्तभंगो । भवण ० - वाणवें ० - जोदिसि० इत्थिवेद० जह० पदेसुदी० जह० एयस०, उक्क० तिणि पलिदो० देभ्रूणाणि पलिदो० सादिरेय० प० सा० । अजह० जह० एस ०, उक्क० आवलि० असंखे० भागो । सोहम्मीसाण ० इत्थिवेद० देवोघं । safe इत्थवेदो णत्थि । सहस्सारे अरदि-सोग० देवोघं । 1 अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागरोपम है । इसी प्रकार बारह कषाय और सात नोकषायोंकी अपेक्षा जानना - चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। अरति और शोकके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है । पुरुषवेदके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागरोपम है । स्त्रीवेदके जघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पचवन पल्योपम है । अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर नौग्रैवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। इनमें अरति और शोकका भंग हास्यके समान है । तथा भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें स्त्रीवेदके जघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तीन पल्योपम, साधिक एक पोप और साधिक एक पल्योपम है। अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । सौधर्म और ऐशान कल्पमें स्त्रीवेदका भंग सामान्य देवोंके समान है। इनसे ऊपर के देवों में स्त्रीवेद नहीं है । सहस्रार कल्पमें अरति और शोकका भंग सामान्य देवोंके समान है । विशेषार्थ – सामान्यसे देवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंकी जघन्य प्रदेश उदीरणाके योग्य परिणाम सहस्रार कल्पमें होते हैं, इसलिए सामान्यसे देवों में इन प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेश उदीरकका जधन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक अठारह सागरोपम कहा है । तथा मिथ्यात्व गुण नौवें ग्रैवेयक तक ही होता है, इसलिए मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागरोपम कहा है। यहाँ कुछ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए णाणाजीवेहिं भंगविचयो २५३ $ १७२. अणुदिसादि सव्वट्टा त्ति सम्म० - पुरिसवेद० जह० पदेसुदी० जह० एस०, उक्क० सगट्ठिदी देसूणा । अजह० जह० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे ०भागो । एवं बारसक० - छण्णोक० । णवरि अजह० जह० एगस ०, उक्क० अंतोमु० । एवं जाव० । * णाणाजीवेहि भंगविचयो भागाभागो परिमाणं खेत्तं पोसणं कालो अंतरं च एदाणि भाणिदव्वाणि । $ १७३. एदाणि अणियोगद्दारणि णाणाजीवविसयाणि एगजीवविसयसामित्तकम इकतीस सागरोपम काल तक मध्यमें सम्यग्दृष्टि रख कर यह उत्कृष्ट अन्तरकाल ले आना चाहिए । जघन्य अन्तरकाल एक समय स्पष्ट ही है । शेष सब प्रकृतियोंके अजघन्य प्रदेश उदीरकके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालका समझकर स्पष्टीकरण कर लेना चाहिए। तथा इसी प्रकार भवनत्रिकसे लेकर नौवें ग्रैवेयक तकके देवों में पृथक-पृथक अपनी-अपनी विशेषताको समझ कर अन्तरकालका स्पष्टीकरण कर लेना चाहिए। विशेष वक्तव्य न होनेसे यहाँ खुलासा नहीं किया गया है। $ १७२. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सम्यक्त्व और पुरुषवेदके जघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनीअपनी स्थितिप्रमाण है। अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल आवलि असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार बारह कषाय और छह नोकषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये । विशेषार्थ – अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवोंमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेश उदीरणा एक समयके अन्तरसे हो यह भी सम्भव है और अपनी-अपनी भवस्थितिके आदिमें और अन्तमें यथास्थान हो यह भी सम्भव है । यही कारण है कि यहाँ सम्यक्त्व, बारह कषाय और सात नोकषायोंके जघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण कहा है। इन सब प्रकृतियोंके अजघन्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है यह स्पष्ट ही है । मात्र इनके अजघन्य प्रदेश उदीरकके उत्कृष्ट अन्तरकालमें कुछ विशेषता है । बात यह है कि जो वेदक सम्यदृष्टि ( कृतकृत्यवेदक नहीं ) या द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि मर कर वहाँ उत्पन्न होते हैं उनके यथायोग्य जीवन भर सम्यक्त्व प्रकृतिकी उदीरणा होती रहती है तथा पुरुषवेदकी भी उनके निरन्तर उदीरणा होती रहती है, इसलिए इनके जघन्य प्रदेश उदीरकका आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण जो उत्कृष्ट काल है वही यहाँ इनके अजघन्य प्रदेश उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल प्राप्त होनेसे वह तत्प्रमाण कहा है। मात्र इन दो प्रकृतियोंके अतिरिक्त शेष प्रकृतियाँ परावर्तमान हैं, इसलिए उनके अजघन्य प्रदेश उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त बन जाने से वह तत्प्रमाण कहा है। * नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल और अन्तर इनका कथन कराना चाहिए । $ १७२. नाना जीव विषयक इन अनुयोगद्वारोंको एक जीवविषयक स्वामित्व, काल Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे कालंतरेहिंती साहियूण भाणियव्वाणि, अत्थि समप्पणापरमेदं सुतं । $ १७४. संपहि एदेण सुत्तेण सूचिदत्थविहासणमुच्चारणाणुगममेत्थ कस्सामो | तं जहा - णाणाजीवेहिं भंगविचओ दुविहो – जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णिसो – ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ० - सम्म ०[० - सोलसक० - णवणोक० उक्कस्सपदेसस्स सिया सव्वे अणुदीरगा, सिया अणुदीरगा च उदीरगो च, सिया अणुदीरगा च उदीरगा च । एवमणुक्क० तिण्णि भंगा । णवरि उदीरगा पुव्वा कादव्वा । सम्मामि० उक्क० अणुक्क० अट्ठ भंगा । सव्वासु गदीसु जाओ पयडीओ उदीरिजंति तासिमोघं । णवरि मणुसअपज० उक्क० अणुक्क० अट्ठ भंगा। एवं जाव० । एवं जयं पि दव्वं । २५४ [ वैदगो ७ $ १७५. भागाभागाणु० दुविहं- जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णिद्देसो — ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ० - सोलसक० - सत्तणोक० उक्क ९ पदेसुदी० सव्वजी० के० भागो ? अनंतभागो । अणुक्क० अणंता भागा। सम्मामि ० - इत्थिवेद - पुरिसवेद० उक्क० पदे० केव ० १ असंखे० भागो । असंखेज्जा भागा । एवं तिरिक्खा ० । सम्म०अणुक्क ० और अन्तरसे साध कर कहलाना चाहिए। इस प्रकार यह समर्पणापरक सूत्र है । $ १७४. अब इस सूत्र द्वारा सूचित हुए अर्थका विशेष स्पष्टीकरण करनेके लिए उच्चारणाका अनुगम यहाँ पर करेंगे । यथा-नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय दो प्रकारका हैजघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेशोंके कदाचित् सब जीव अनुदीरक हैं, कदाचित् नाना जीव अनुदीरक हैं और एक जीव उदीरक है, कदाचित् नाना जीव अनुदीरक है और नाना जीव उदीरक हैं । इसी प्रकार अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाकी अपेक्षा तीन भंग जानने चाहिए। इतनी विशेषता है कि उदीरकोंको पहले करना चाहिए । सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाकी अपेक्षा आठ भंग होते हैं। सब गतियोंमें जिन प्रकृतियोंकी उदीरणा है उनका भंग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि मनुष्य अपर्याप्तकों में उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाकी अपेक्षा आठ भंग हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार जघन्यका भी कथन करना चाहिए । 1 $ १७५. भागाभागानुगम दो प्रकारका है— जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण है ? अनन्तवें भागप्रमाण हैं । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक जीव अनन्त बहुभागप्रमाण हैं । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं । इसी प्रकार तिर्यों में जानना चाहिए । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए परिमाणं २५५ १७६. सव्वणिरय-सव्वपंचिं०तिरिक्ख-मणुसअपज०-दवा जाव अवराजिदा त्ति सव्वपय० उक्क० पदे. केव० १ असंखे०भागो । अणुक्क० असंखेजा भागा। मणुसाणं णारयभंगो । णवरि सम्म०-सम्मामि०-इत्थिवे०-पुरिसवेद० उक्क० पदे० संखे०भागो । अणुक्क० संखेजा भागा। मणुसपज०-मणुसिणी-सव्वट्ठदेवा० सव्वपय० उक्क० संखे०भागो। अणुक्क० संखेजा भागा । एवं जाव० । एवं जहण्णयं पि णेदव्वं । १७७. परिमाणाणु० दुविहं--जह० उक्क० । उक्क० पयदं । दुविहो णिद्देसोओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोक० उक्क० पदेसुदी० केत्ति० १, संखेजा । अणुक्क० के० ? अणंता । सम्म०-इत्थिवे०-पुरिसवे० उक्क० के० ? संखेजा। अणुक्क० पदे० के० ? असंखेजा। सम्मामि० उक्क० अणुक्क० पदे० उदी० के० ? असंखेजा। 5 १७८. आदेसेण णेरड्य० पढमाए तिरिक्खदुगे देवा सोहम्मीसाणादि जाव अवराजिदा ति सम्म० ओघं । सेसपयडी० उक्क० अणुक्क० पदे० के० १ असंखेजा । विदियादि सत्तमा त्ति जोणिणी-पंचिंदियतिरिक्खअपज.-मणुसअपज०-भवण $ १७६. सब नारकी, सब पश्चेन्द्रिय तिर्यश्च, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और त विमान तकके देवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। मनुष्योंमें नारकियोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक जीव सब जीवोंके संख्यातवें भागप्रमाण हैं। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। मनुष्य पर्याप्त, मनुयिनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । तथा इसी प्रकार जघन्यको भी जान लेना चाहिए । १७७. परिमाणानुगम दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं । सम्यक्त्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदके उत्कृष्टप्रदेश उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। ६ १७८. आदेशसे सामान्य नारकी, प्रथम पृथिवीके नारकी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चद्विक, सामान्य देव तथा सौधर्म और ऐशान कल्पसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें सम्यक्त्वका भंग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च योनिनी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त, भवनवासी, व्यन्तर और Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [वेदगो ७ वाण०-जोदिसि० सव्वपय० उक्क० अणुक्क० पदे० उदीर० केत्ति० ? असंखेजा। १७९. तिरिक्खेसु मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोक० उक्क० पदे० केत्ति ? असंखेजा । अणुक्क० के० ? अणंता। सम्मत्त० ओघं । सम्मामिच्छत्त-इत्थिवे०पुरिसवे० उक्क० अणुक्क० के० ? असंखेजा । मणुसेसु मिच्छ०-सोलराक०-सत्तणोक० उक्क० पदे० के० ? संखेजा । अणुक्क० पदे० के० ? असंखेजा । सम्म०-सम्मामि०इथिवेद-पुरिसवेद० उक्क० अणुक्क० पदे० के० संखेजा। पजत्त-मणुसिणी-सव्वट्ठदेवा० सव्वपयडी० उक्क० अणुक्क० पदे० के० ? संखेजा । एवं जाव। १८०. जह० पयदं । दुविहो णिदेसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०सोलसक०-सत्तणोक० जहे० पदे० के० ? असंखेजा। अजह० के० ? अणंता । सम्म०-सम्मामि०-इस्थिवेद-पुरिसवेद० जह० अजह० पदे० के० ? असंखेजा। एवं तिरिक्खा० । सव्वणिरय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुसअपज०-देवा जाव अवराजिदा त्ति सव्वपय० जह० अजह० के० ? असंखेजा। मणुसतिय-सव्वट्ठदेवा० उकस्सभंगो । एवं जाव० । ज्योतिषी देवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। $ १७९. तिर्यञ्चोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकपायोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। सम्यक्त्वका भंग ओघके समान है। सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक जीव कितने हैं।? असंख्यात हैं । सामान्य मनुष्योंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । $ १८०. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंके जघन्य प्रदेश उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात है। अजघन्य प्रदेश उदीरक जीव कितने है ? अनन्त है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदके जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। सब नारकी, सव पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त और सामान्य देवोंसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। मनुष्यत्रिक और सर्वार्थसिद्धिके देवों में उत्कृष्टके समान संग है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। १. आ०-ता प्रत्योः उक्क० इति पाठः । Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०६२] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए खेत्तं पोसणं च २५७ १८१. खेत्तं दुविहं-जह• उक्क । उक्कस्से पयदं । दुविहो णिदेसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोक० उक० पदे० लोग० असंखे०भागो । अणुक० सव्वलोगो। सम्म-सम्मामि०-इत्थिवे०-पुरिसवे. उक्क० अणुक० पदे. उदीर० लोग० असं०भागो। एवं तिरिक्खा० । सेसगदीसु सव्वपय० उक्क० अणुक पदे० उदी० लोग० असंखे भागो । एवं जाव० । एवं जहण्णयं पि णेदव्वं । $ १८२. पोसणं दुविहं-जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णिहेसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोक० उक० पदे० उदी. केव० पोसिदं ? लोग० असंखे भागो । अणुक० केव० पोसिदं ? सव्वलोगो । सम्म० उक० खेतं । अणुक्क० लोग० असंखे०भागो अट्ठ चोदस भागा वा। सम्मामि० उक्क. अणुक्क० पदे. केव० पोसि० १ लोग० असं०मागो अट्ट चोइस० । इत्थिवेद-पुरिसवेद० उक० पदे० खेत्तं । अणुक्क० केव० पोसि० १ लोग० असंखे०भागो अट्ट चोइस० सब्बलोगो वा। १८१. क्षेत्र दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो कारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका सर्व लोकप्रमाण क्षेत्र है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए । शेष गतियोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । तथा इसी प्रकार जघन्यको भी जानना चाहिए। .६१८२. स्पर्शन दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इसके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और बसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । स्त्रीवेद और पुरुषवेदके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है । लोकके असंख्यातवें भाग, त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेषार्थ—ओघसे मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा सम्यक्त्वके साथ संयमके अभिमुख हुए सर्वविशुद्ध अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिके होती है, यतः इनके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक जीवोंका वर्तमान और अतीत स्पर्शन लोकके असंख्यातवें Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ १८३. आदेसेण णेरइय० मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोक० उक्क० पदे. केव० पोसिदं ? खेत्तं । अणुक० पदेसुदी लोग० असंखे०भागो छ चोदस० । सम्म०-सम्मामि० उक्क० अणुक्क० पदेसुदी० खेत्तं । एवं विदियादि सत्तमा ति । णवरि सगपोसणं । पढमाए खेत्तभंगो। भागप्रमाण ही प्राप्त होता है, अतः वह तत्प्रमाण कहा है। इसी प्रकार शेष बारह कषाय और सात नोकषायोंका उक्त स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए, क्योंकि इनकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाके जो स्वामी हैं उनका इतना ही स्पर्शन प्राप्त होता है। इनके अनुत्कृष्ट प्रदे श उदीरक जीव सर्व लोकमें पाये जाते हैं, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका सर्व लोकप्रमाण स्पर्शन है यह स्पष्ट ही है। सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके समय यथास्थान होती है, इसलिए इसके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका वर्तमान और अतीत स्पर्शन क्षेत्रके समान लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होनेसे वह तत्प्रमाण कहा है। यतः वेदक सम्यग्दृष्टियोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है तथा विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक और मारणान्तिक पदोंकी अपेक्षा अतीत स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण है, अतः इसके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असं. ख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण कहा है । सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन विहारवत्स्वस्थानकी अपेक्षा त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण है, अतः सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका दोनों प्रकारका स्पर्शन उक्तप्रमाण बन जानेसे उस प्रकार कहा है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा क्षपकश्रेणिमें यथास्थान होती है, अतः क्षपकोंके अतीत और वर्तमान स्पर्शनको ध्यानमें रख कर उक्त दोनों वेदोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका वर्तमान और अतीत स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। तथा स्त्रीवेदी और पुरुषवेदियोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग और अतीत स्पर्शन वेदना, कषाय और वैक्रियिक पदोंकी अपेक्षा त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भाग तथा मारणान्तिक और उपपाद पदकी अपेक्षा सर्व लोकप्रमाण है, इसलिए इन दोनों वेदोंके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा अतीत स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और सर्व लोकप्रमाण कहा है। $ १८३. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? क्षेत्रके समान स्पर्शन है। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इसी प्रकार दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपना-अपना स्पर्शन जानना चाहिए। पहली पृथिवीमें स्पर्शन क्षेत्रके समान है। विशेषार्थ-द्वितीयादि पृथिवियोंमें एक तो मरकर सम्यग्दृष्टियोंकी उत्पत्ति नहीं होती; दूसरे छटी पृथिवी तकके जो सम्यग्दृष्टि नारको मरण करते हैं वे मनुष्य पर्याप्तकोंमें ही उत्पन्न होते हैं, तीसरे सातवें नरकके जो सम्यग्दृष्टि हैं वे नियमसे मिथ्यादृष्टि हो कर ही मरण करते हैं, इसलिए तो सामान्यसे नारकियोंमें और द्वितीयादि नरकके नारकियोंमें सम्यक्त्वके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है । इनमें सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदी Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए पोसणं २५९ १८४. तिरिक्खेसु मिच्छ०-अट्ठक० उक० पदेसुदी० खेत्तं । अणुक्क० सव्वलोगो । सम्म० उक्क० पदे० उदी० खेत्तं । अणुक्क० पदे० केव० पोसिदं ? लोग० असंखे०भागो छ चोदस० । अट्ठक०-णवणोक० उक्क० पदेसुदी० केव० पोसि० ? लोग० असंखे० छ चोदस० । अणुक्क० पदे० सव्वलोगो'। णवरि इत्थिवेद-पुरिसवेद० अणुक्क० पदे. लोग. असंखे०भागो सव्वलोगो वा । सम्मामि० उक्क० अणुक्क० पदेसुदी० खेत्तं । रकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है यह स्पष्ट ही है। तथा सम्यम्मिथ्यात्व गुणके साथ मरण ही नहीं होता और न सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव मारणान्तिक समुद्धात ही करते हैं, इसलिए सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका स्पर्शन भी क्षेत्रके समान बन जाता है। शेष कथन सुगम है। $ १८४. तिर्यञ्चोंमें मिथ्यात्व और आठ कषायोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आठ कषाय और नौ नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेदके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। विशेषार्थ--तिर्यश्चोंमें मिथ्यात्व और प्रारम्भकी आठ कषायोंकी उदीरणाके स्वामीको देखते हुए इनकी अपेक्षा स्पर्शनका भंग क्षेत्रके समान लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होनेसे उसे क्षेत्रके समान जाननेकी सूचना की है। इनके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंने सर्वलोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है यह स्पष्ट ही है। सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा दर्शन यकी क्षपणाके समय यथास्थान प्राप्त होती है, इसलिए इसके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होनेसे उसे क्षेत्रके समान बतलाया है। तथा वेदकसम्यग्दृष्टि तिर्यञ्चोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण प्राप्त होनेसे उसे उक्तप्रमाण बतलाया है। आठ कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा सर्वविशुद्ध या तत्प्रायोग्य विशुद्ध संयतासंयतके होती है, यतः ऐसे जीवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण बन जाता है, इसलिए उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। इनके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका स्पर्शन सर्व लोकप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। मात्र स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवोंका वर्तमान निवास लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही है, इसलिए स्त्रीवेद और पुरुष १. आप्रतौ सम्म• उक्क० पदे. उदी० खेत। अणक्क० पदे ० केव० पोसिदं ? लोग० असंखे०भागो छ चोद्दस० । अणुक्क० पदे० सब्वलोगो। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [ वेदगो ७ १८५. पंचिंदियतिरिक्खतिये सम्म-सम्मामि० तिरिक्खोपं । मिच्छ:अट्ठक० उक्क० पदे० खेत्तं । अणुक्क० पदेसुदी० केव० पोसिदं ? लोग. असंखे०भागो सव्वलोगो वा । एवमट्ठक०-णवणोक० । णवरि उक० पदे० लोग० असंखे.. भागो छ चोदस० । णवरि वेदा जाणियव्या । १८६. पंचिंदियतिरिक्खअपज०-मणुसअपज० सव्वपर्य० उक० पदे० खेत्तं । अणुक्क० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । १८७, मणुसतिये सम्म०-सम्मामि० खेत्तं । सेस० पय० उक्क० खेत्तं । अणुक० पदेसुदी० लोग० असंखे०भागो मुव्वलोगो वा । वेदके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन सर्व लोकप्रमाण कहा है। इनमें सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान ही है यह स्पष्ट ही है। १८५. पञ्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिकमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग सामान्य तिर्यश्चोंके समान है। मिथ्यात्व और आठ कषायोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और सर्वलोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार आठ कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालोके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि अपना-अपना वेद जान लेना चाहिए। विशेषार्थ-पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन मारणान्तिक और उपपादपदकी अपेक्षा सर्व लोकप्रमाण है, इसी तथ्यको ध्यानमें रखकर मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका उक्त क्षेत्र प्रमाण स्पर्शन कहा है ।शेष कथन सुगम है। $ १८६. पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेषार्थ-उक्त जीवोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा सर्वविशुद्ध अथवा तत्प्रायोग्य विशुद्ध जीवोंके होती है, यह जानकर सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। तथा उक्त जीवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत :स्पर्शन मारणान्तिक और उपपाद पदकी. अपेक्षा सर्व लोकप्रमाण है, इसलिए यहाँ उक्त सब प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका उक्त क्षेत्रप्रमाण स्पर्शन कहा है। १८७. मनुष्यत्रिकमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग क्षेत्रके समान है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। . विशेषार्थ—यहाँ भी स्वामित्व और मनुष्यत्रिकके स्पर्शनको जानकर यह स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए । इसो प्रकार आगे भी समझ लेना चाहिए। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपडिपदेसउदीरणाए पोसणं २६१ 5 १८८. देवेसु सम्म० उक० पदे० खत्तं । अणुक० पदेसुदी० केव० पोसि० १ लोग० असंखे०भागो अट्ठ चोदस० । सम्मामि० उक्क० अणुक्क० पदे० लोग० असंखे०भागो अट्ठ चोइस० । सेसपय० उक्क० पदे० लोग० असंखे०भागो अट्ठ चोदस० । अणुक्क० लोग० असंवे०भागो अट्ठ-णव चोदस० भागा वा देसूणा । एवं सोहम्मीसाणेसु । 5 १८९. भवण०-वाणवे०-जोदिसि० सम्म०-सम्मामि० उक्क० अणुक्क० लोग० असंखे०भागो अद्धट्ठा वा अट्ठ चोइस० । सेसपय० उक्क० लोग० असंखे०भागो अद्भुट्टा वा अट्ट चोइस० । अणुक्क० लोग० असंखें०भागो अट्ठा वा अढ णव चोद्दस० देसूणा। 5 १८८. देवोंमें सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा असनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सौधर्म और ऐशान कल्पमें जानना चाहिए। विशेषार्थ-सामान्य देवोंके वर्तमान और अतीत स्पर्शनको ख्यालमें लेकर यहाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको छोड़कर शेष प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, विहारवत्स्वस्थान, वेदना कषाय और वैक्रियिक पदोंकी अपेक्षा त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण और मारणान्तिक पदकी अपेक्षा मेरुमूलसे ऊपर कुछ कम सात राजु और नीचे कुछ कम दो राजु कुल असनालीके नौ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष कथन सुगम है। सौधर्म और ऐशान कल्पमें यह स्पर्शन इसी प्रकार बन जानेसे उसे सामान्य देवोंके समान जाननेकी सूचना की है। $ १८९. भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा सनालीके कुछ कम साढ़े तीन और कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा त्रसनालीके कुछ कम साढ़े तीन और कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा सनालीके कुछ कम साढ़े तीन कुछ कम आठ और कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेषार्थ-भवनत्रिकमें सम्यग्दृष्टि जीव मर कर उत्पन्न नहीं होते, इसलिए इनमें सम्यक्त्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका स्पर्शन सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंके स्पर्शनके समान बन जानेसे दोनोंका स्पर्शन एक समान कहा है। शेष कथन सुगम है। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ $ १९०. सणक्कुमारादि जाव सहस्सारे ति सव्वपय उक्क० अणुक्क० पदेसुदी० लोग असं०भागो अट्ठ चोद्दस० देसूणा । णवरि सम्म० उक्क० खेत्तं । आणदादि जाव अच्चुदाति सव्वपय० उक्क० अणुक्क० पदेसुदी० लोग० असंखे० भागो छ चोदस० देसूणा । णवरि सम्म उक्क० पदे० खेत्तं । उवरि खेत्तभंगो । एवं जाव० । $ १९१. जह० पदं । दुविधो णिद्देसो-- ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०सोलसक० - सत्तणोक० जह० लोग० असंखे० भागो अट्ठ तेरह चोद्दस ० | अजह० सव्वलोगो | णवरि णवंस० जह० पदे० लोग० असंखे० भागो छ चोद्दस० देसूणा । सम्म० - सम्मामि० जह० अजह० लोग० असं०भागो अट्ठ चोदस० । इत्थिवेद - पुरिस $ १९१०. सनत्कुमार कल्पसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवों में सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है। आनत कल्पसे लेकर अच्युत कल्प तकके देवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इनसे ऊपर के देवोंमें स्पर्शनका भंग क्षेत्रके समान है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । T विशेषार्थ -- बारहवें कल्प तकके देवोंका गमन तीसरी पृथिवी तक और तेरहवें कल्पसे लेकर सोलहवें कल्प तकके देवोंका गमन मेरुके मूल भाग तक ही सम्भव है । इसी कारण यहाँ सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा विहार आदि सम्भव पदोंकी अपेक्षा अतीत स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण कहा है । तथा आरणादि चार कल्पोंके देवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन विहार आदि सम्भव पदोंकी अपेक्षा त्रसनालोके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण कहा है। किन्तु यहाँ सर्वत्र सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है यह स्पष्ट ही है। इसी प्रकार नौ ग्रैवेयक आदिके सभी देवों में स्पर्शन क्षेत्रके समान है यह भी स्पष्ट है । $ १९१. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश | ओघसे मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंके जघन्य प्रदेश उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा सनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम तेरह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य प्रदेश उदीरकोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेदके जघन्य प्रदेश उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्व के जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । खीवेद और पुरुषवेदके जघन्य प्रदेश उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा त्रसनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम तेरह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य प्रदेश उदीरकोंने लोकके Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३ ग० ६२] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए पोसणं वेद० जह० पदेसुदी० लोग० असंखे०भागो अट्ठ तेरह चोदस० । अजह० लोग० असंखे०भागो अटु चोइस० सव्वलोगो वा । १९२. आदेसेण णेरइय० सम्म०-सम्मामि० खेत्तं । सेसपय० जह० अजह लोग० असं०भागो छ चोदस० । एवं विदियादि जाव सत्तमा त्ति । णवरि सगपोसणं । पढमाए खेत्तभंगो। $ १९३. तिरिक्खेसु मिच्छ०-सोलसक-सत्तणोक० जह० लोग. असंखे० भागो असंख्यातवें भाग तथा त्रसनालोके कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेषार्थ-मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंकी जघन्य प्रदेश उदीरणा उत्कृष्ट या ईषत् मध्यम संक्लेश परिणामवाले संज्ञो मिथ्यादृष्टि जीव करते हैं। यतः ऐसे जीवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग और यथा सम्भव पदोंकी अपेक्षा अतीत स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम तेरह बटे चौदह भागप्रमाण होनेसे यह उक्त प्रमाण कहा है। इनके अजघन्य प्रदेश उदीरकोंका स्पर्शन सर्व लोकप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। यहाँ नपुंसक वेदके विषयमें इतना विशेष जानना चाहिए कि नपुंसकवेदके उदीरक देव नहीं होते, इसलिए इसके जघन्य प्रदेश उदीरकोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग और अतीत स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण बननेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। वेदकसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंके वर्तमान और अतीत स्पर्शनको ध्यानमें रख कर यहाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरकोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग और अतीत स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण कहा है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदके जघन्य प्रदेश उदीरकोंके स्पर्शनका खुलासा मिथ्यात्व आदि पूर्वोक्त प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेश उदीरकोंके स्पर्शनके समान ही है। मात्र इनके अजघन्य प्रदेश उदीरकोंके स्पर्शनमें कुछ अन्तर है । बात यह है कि ऐसे का वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन स्वस्थान विहार आदि यथा सम्भव पदोंकी अपेक्षा त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण और मारणान्तिक तथा उपपाद पदकी अपेक्षा सर्व लोकप्रमाण बन जानेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। ६ १९२. आदेशसे नारकियोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग क्षेत्रके समान है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपना-अपना स्पर्शन कहना चाहिए । पहली पृथिवीमें क्षेत्रके समान भंग है। विशेषार्थ—यहाँ सामान्यसे नारकियोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अतिरिक्त शेष प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेश उदीरकोंका अतीत स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण मारणान्तिक पदकी अपेक्षा कहा है तथा अजघन्य प्रदेश उदीरकोंका अतीत स्पर्शन सनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण मारणान्तिक और उपपाद पदकी अपेक्षा कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। ६ १९३. तिर्यञ्चोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंके जघन्य प्रदेश Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ छ चोदस० । अजह० सव्वलोगो । सम्म० जह० खेत्तं । अजह लोग० असंखे० भागो छ चोदस० । सम्मामि० खेत्तं । इथिवेद-पुरिसवेद० जह० पदे० लोग० असंखे०भागो छ चोदस० । अजह० लोग० असं०भागो सव्वलोगो वा। १९४. पंचिंदियतिरिक्खतिये सम्म०-सम्मामि० तिरिक्खोघं । सेसपय० जह० लोग० असंखे०भागो छ चोदस० देसूणा । अजह० पदे लोग. असंखे०भागो सव्व. लोगो वा । पंचिं०तिरिक्ख अपज०-मणुसअपज. सव्वपय० जह० अजह० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा। १९५. मणुसतिये सम्म०-सम्मामि० खेत्तं । सेसपय. जह० पदे० लोग० असंखे०भागो । अजह० लोग० असं०भागो सव्वलोगो वा । उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण का स्पर्शन किया है अजघन्य प्रदेश उदीरकोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्वके जघन्य प्रदेश उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य प्रदेश उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालोके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सम्यग्मिथ्यात्वका भंग क्षेत्रके समान है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदके जघन्य प्रदेश उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य प्रदेश उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेषार्थ-सामान्य तिर्यञ्चोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंकी जघन्य प्रदेश उदीरणा नीचे सातवीं पृथिवी तक मारणान्तिक समुद्धात करते समय बन जाती है, इसलिए यहाँ इनके जघन्य प्रदेश उदीरकोंका अतीत स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम छह यटे चौदह भागप्रमाण कहा है। इसी प्रकार स्त्रीवेद और पुरुषवेदके जघन्य प्रदेश उदीरकोंकी अपेक्षा उक्त स्पर्शन जानना चाहिए । शेष कथन सुगम है। १९४. पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है । शेष प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेश उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और वसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य प्रदेश उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेपार्थ-पूर्वमें सामान्य तिर्यञ्चोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको छोड़कर शेष प्रकृतियों के जघन्य प्रदेश उदीरकोंके स्पर्शनका जो स्पष्टीकरण किया है वह पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिककी अपेक्षा ही घटित होनेसे इसे उक्त प्रकारसे समझ लेना चाहिए। इनका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन सर्व लोकप्रमाण बन जानेसे यहाँ उक्त प्रकृतियोंके अजघन्य प्रदेश उदीरकोंका स्पर्शन उक्त रूपसे कहा है । शेष कथन सुगम है। $ १९५. मनुष्यत्रिकमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग क्षेत्रके समान है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेश उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य प्रदेश उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्वलोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग० ६२] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए पोसणं २६५ १९६. देवेसु मिच्छ०-सोलसक०-अद्वणोक० जह० अजह० लोग० असंखेभागो अट्ठ णव चोइस० देसूणा । सम्म०-सम्मामि० जह० अजह० लोग० असंखे०भागो अट्ठ चोदस० । एवं सोहम्मीसाण । ६१९७. भवण-वाणवें-जोदिसि० मिच्छ०-सोलसक०-अट्ठणोक० जह० अजह. लोग० असंखे०भागो अधुटा वा अट्ठ णव चोइस० देसूणा । सम्म०-सम्मामि० जह० अजह० लोग० असंखे०भागो अद्धट्ठा वा अट्ट चोद्दस० । सणक्कुमारादि जाव सहस्सारा त्ति सम्बपय० जह• अजह० पदेसुदी० लोग० असंखे०भागो अट्ठ चोदस० । आणदादि जाव अच्चुदा ति सव्वपय० जह. अजह. लोग० असंखे०भागो छ चोदस० । उवरि खेत्तमंगो । एवं जाव० । विशेषार्थ—मनुष्यत्रिकका परिणाम संख्यात है। यद्यपि इनके नीचे सातवीं पृथिवी तक मारणान्तिक समुद्धात करते समय सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको छोड़कर शेष प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेश उदीरणा बन जाती है, परन्तु उस सब क्षेत्रका योग लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण होनेसे यहाँ वह उक्तप्रमाण कहा है । शेष कथन सुगम है। १९६. देवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और आठ नोकषायोंके जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा त्रसनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सौधर्म और ऐशान कल्पके देवोंमें जानना चाहिए। विशेषार्थ—सामान्यसे देवोंके और सौधर्म ऐशान कल्पके देवोंके प्रकृतमें उपयोगीस्पर्शनको जानकर मिथ्यात्व आदि २५ प्रकृतियोंकी अपेक्षा यह स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए । मात्र सम्यग्दृष्टि देव एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्धात नहीं करते, इसलिए इनमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वके जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरकोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग और अतीत स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण कहा है। ६ १९७. भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और आठ नोकषायोंके जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा त्रसनालीके कुछ कम साढ़े तीन, कुछ कम आठ और कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा वसनालोके कुछ कम साढ़े तीन और कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सनत्कुमार कल्पसे लेकर सहस्त्रार कल्प तकके देवोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आनत कल्पसे लेकर अच्युत कल्प तकके देवोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। ऊपरके देवोंमें स्पर्शनका भंग क्षेत्रके समान है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ३४ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ $ १९८. कालो दुविहो – जह० उक० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णिद्देसो– ओघेण आदेसेण य | ओघेण सव्वपय उक्क० केवचिरं ० १ जह० एस ०, उक्क० संखेखा समया । अणुक्क० सव्वद्धा । णवरि सम्मामि० उक्क० पदेसुदी० जह० एस ०, उक्क० आवलि० असं० भागो । अणुक्क० जह० अंतोमु०, उक्क० पलिदो० असंखे ० भागो । $ १९९. आदेसेण णेरइय० मिच्छ० - सोलसक० - सत्तणोक० उक्क० पदे० जह० एगस०, उक्क० आवलि० असं० भागो । अणुक्क० सव्वद्धा । सम्म० - सम्मामि० ओघं । एवं पढमाए । विदियादि जाव सत्तमा त्ति एवं चैव । णवरि सम्म० उक्क० पदेसुदी ० जह० एस ०, उक्क० आवलि० असंखे ० भागो । विशेषार्थ — भवनत्रिकोंके एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्धात के समय सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उदीरणा सम्भव नहीं है । इस बातको ध्यानमें रख कर यहाँ उक्त दोनों • प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरकोंका स्पर्शन कहा है। शेष सब कथन सुगम है । $ १९८. काल दो प्रकारका है-- जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे सब प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेश उदीका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका काल सर्वदा है। इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यात भागप्रमाण है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । विशेषार्थ — सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा सम्यक्त्व के अभिमुख हुए अन्तिम समयत्रर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टिके होती है। ऐसे जीव कमसे कम एक समय तक हों और दूसरे समय में न हों यह भी सम्भव है और अत्र यत् सन्तानरूपसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक हों यह भी सम्भव है । यही कारण है कि यहाँ सम्यग्मिथ्यात्व के उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। तथा सम्यग्मिथ्यात्वका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । यही कारण है कि यहाँ सम्यग्मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। अब रहीं शेष प्रकृतियाँ सो उनकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाके स्वामित्वको देखते हुए उनके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय प्राप्त होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। इनके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका काल सर्वदा है यह स्पष्ट ही है । $ १९९. आदेश से नारकियों में मिध्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आबलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका काल सर्वदा है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है । इसी प्रकार पहली पृथिवीमें जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेश aatain जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए खेत्तं पोसणं च २६७ $२०० तिरिक्खेसु मिच्छ० - सोलसक० - णवणोक० उक्क० पदे० जह० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे० भागो । अणुक्क० सव्वद्धा । सम्म० - सम्मामि० ओघं । एवं पंचिदियतिरिक्खतिये | णवरि पज० इत्थवे० णत्थि । जोणिणीसु पुरिसवु स० णत्थि । सम्म० उक्क० पदे० जह० एस ०, उक्क० आवलि० असंखे ० भागो । पंचि०तिरि० ० अपज० सव्वपय० उक्क० पदे० जह० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे० भागो । अणुक्क० सव्वद्धा । $ २०१. मणुसतिये सम्मामि० उक्क० पदेसुदी० जह० एस ०, उक्क० संखेजा समया । अणुक० जह० उक्क० अंतोमु० । सेसपय० उक्क० पदे० जह० एयस०, उक्क० आवलि० असंखे ० भागो संखे० समया वा । अणुक्क० सव्वद्धा । मणुस अपज • विशेषार्थ — नारकियों में मिथ्यात्व, सोलह कपाय और सात नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाके उपक्रमका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होनेसे यहाँ इनके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। इनके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका काल सर्वदा है यह स्पष्ट ही है । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वका भंग ओघके समान है यह भी स्पष्ट है। पहली पृथिवीमें यह प्ररूपणा इसी प्रकार बन जाती है । मात्र द्वितीयादि पृथिवियोंमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव मरकर उत्पन्न नहीं होते, इसलिए उनमें सम्यक्त्व के उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण बन जाने से वह उक्तप्रमाण कहा है। T २०० तिर्यों में मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकपायोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका काल सर्वदा है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओके समान है । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यवत्रिक में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेद नहीं है और योनिनियों में पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं है । योनिनियों में सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकों में सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकों का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका काल सर्वदा है। विशेषार्थ — तिर्यञ्च योनिनियोंमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव मरकर नहीं उत्पन्न होते हैं, इसलिए इनमें सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण बन जानेसे वह उक्तप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है | $ २०१. मनुष्यत्रिक में सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है अथवा संख्यात समय है ! अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका काल सर्वदा है । मनुष्य अपर्याप्तकों में सब प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [वेदगो. सव्वपय० उक्क० पदेसुदी० जह• एगस०, उक्क० आवलि० असं०भागो । अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असं०भागो।। २०२. देवा० सोहम्मादि जाव गवगेवजा ति सम्म०-सम्मामि० ओघं । सेसपय० उक्क० पदे० जह० एयस०, उक्क० आवलि० असंखे०मागो । अणुक० सव्वद्धा । भवण-वाणवें०-जोदिसि० देवोघं । णवरि सम्म० उक्क० पदे० जह० एयसमओ, उक० आवलि० असं०भागो । अणुक० सव्वद्धा । अणुद्दिसादि जाव सव्वट्ठा त्ति सम्म० ओघं । बारसक०-सत्तणोक० उक्क. जह० एगस०, उक. आवलियाए असंखेजदिभागो । अणुक्क० सव्वद्धा । एवं जाव० । जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यात भागप्रमाण है। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्य भागप्रमाण है। विशेषार्थ—मनुष्यत्रिकका परिमाण संख्यात है, इसलिए इनमें सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय बननेसे वह तत्प्रमाण कहा है। तथा एक जीवकी अपेक्षा सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अब यदि संख्यात नाना जीव सन्ततिका विच्छेद हुए बिना सम्यग्मिथ्यात्व गुणको प्राप्त हों तो उस कालका योग अन्तर्मुहूर्त ही होगा, इसलिए यहाँ सम्यग्मिध्यात्वके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। यहाँ शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है यह तो स्पष्ट ही है। उत्कृष्ट काल जो दो प्रकारसे बतलाया है वह अवश्य ही विचारणीय है। चूर्णिसूत्रोंमें उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाके स्वामित्वका जो निर्देश किया है उसे देखते हुए तो वह काल संख्यात समय ही बनता है । इसलिए आगमानुसार इसका विशेष स्पष्टीकरण कर लेना चाहिए। मेरी अल्प बुद्धिमें यह समझमें नहीं आया इसलिए इतना संकेत किया है। शेष कथन सुगम है। $२०२. समान्य देव और सौधर्म आदि कल्पोंसे लेकर नौवेयक तकके देवोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका काल सर्वदा है। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें सामान्य देवोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका काल सर्वदा है । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सम्यक्त्वका भंग ओघके समान है। बारह कषाय और सात नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीस्कोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका काल सर्वदा है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ-भवनत्रिकोंमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव मरकर नहीं उत्पन्न होते, इसलिए इनमें सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक 'समय और उत्कृष्टकाल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण बन जानेसे वह तत्प्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०६२) उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए एयजीवेण अंतरं २६९ २०३. जह० पयदं । दुविहो णिदेसो-ओपेण आदेसेण य । ओघेण सव्वपय० जह० पदेसुदी० जह० एगस०, उक० आवलि० असं०भागो । अजह० सव्वद्धा । णवरि सम्मामि० अजह. जह. अंतोमु०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । सव्वणिरयसव्यतिरिक्ख-सव्वदेवा ति जाओ पयडीओ उदीरिजंति तासिमोघं । २०४. मणुसतिये सम्म० जह० पदे० जह० एगस०, उक्क० संखेजा समया । अजह० सव्वद्धा । एवं सम्मामि० । णवरि अजह० जह० उक्क०' अंतोमु० । सेसपय० जह० पदे. जह० एगस०, उक० आवलि. असंखे०भागो। अजह. सव्वद्धा । मणुसअपज० सव्वपय० जह० पदे० जह० एयस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो । अजह० जह० एगस०, उक० पलिदो० असंखे०भागो । एवं जाव० । । $ २०३. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे सब प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यात भागप्रमाण है। अजघन्य प्रदेश उदीरकोंका काल सर्वदा है। इतनी विशेपता है कि सम्यग्मिथ्यात्वके अजघन्य प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सब नारकी, सब तिर्यञ्च और सब देव जिन प्रकृतियोंकी उदीरणा करते हैं उनका भंग ओघके समान है। विशेषार्थ-सब प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेश उदीरणाका जो स्वामी बतलाया है उसके अनुसार उनके जघन्य प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण बन जानेसे वह तत्प्रमाण कहा है। इनके अजघन्य प्रदेश उदीरकोंका काल सर्वदा है यह स्पष्ट ही है। मात्र सम्यग्मिथ्यात्व गुण सान्तर मार्गणा है, इसलिए इस गुणके जघन्य और उत्कृष्ट कालको ध्यानमें रखकर इनके अजघन्य प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है। २०४. मनुष्यत्रिकमें सम्यक्त्वके जघन्य प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अजघन्य प्रदेश उदीरकोंका काल सर्वदा है। इसी प्रकार संम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसके अजघन्य प्रदेश उदीरकोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। शेष प्रकृतियों के जघन्य प्रदेश उदीरको का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अजघन्य प्रदेश उदीरकोंका काल सर्वदा है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अजघन्य प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ-मनुष्यत्रिकमें सम्यक्त्वकी जघन्य प्रदेश उदीरणा करनेवाले मनुष्य अधिकसे अधिक संख्यात ही हो सकते हैं। यतः ऐसे जीव कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक संख्यात समय तक हो इसकी जघन्य प्रदेश उदीरणा करते हैं, इसलिए इसके जघन्य प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय १. ता प्रतौ जह० एगस० उक्क० इति पाठः । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वैदगो ७ $ २०५. अंतरं दुविहं— जह० उक्क० | उकस्से पयदं । दुविहो णिसो – ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ० - बारसक० - छण्णोक० उक्क० पदे० जह० एगस०, उक्क० असंखेजा लोगा । अणुक० णत्थि अंतरं । एवं सम्मामि० । णवरि अणुक० जह० एस०, उक्क० पलिदो० असंखे ० भागो । सम्मत्त०- लोभसंज० उक्क० पदेसुदी ० जह० एगस ०, उक्क० छम्मासं । अणुक्क० णत्थि अंतरं । तिष्णिसंजलण - पुरिसवेद० उक्क ० पदेसुदी ० जह० एस ०, उक्क० वासं सादिरेयं । अणुक्क० णत्थि अंतरं णिरंतरं । इत्थवेद - णवंस ० उक्क० पदेसुदी० जह० एगस०, उक्क० वासपुधत्तं । अणुक० णत्थि अंतरं णिर० । एवं मणुसतिये | णवरि वेदा जाणियन्त्रा । मणुसिणीसु खवगपयडीणं वासपुधत्तं । २७० कहा है । सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य प्रदेश उदीरकोंके जघन्य और उत्कृष्ट कालका निर्णय इसी प्रकार कर लेना चाहिए । वेदक सम्यग्दृष्टि मनुष्य सर्वदा पाये जाते हैं, इसलिए सम्यक्त्वके अजघन्य प्रदेश उदीरकोंका काल सर्वदा कहा है । परन्तु सम्यग्मिथ्यात्व गुण सान्तर मार्गणा है । मनुष्यों में नाना जीवोंकी अपेक्षा भी इसका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त ही बनता है। इसलिए यहाँ इसके अजघन्य प्रदेश उदीरकोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । जो मनुष्य अपर्याप्त सब प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेश उदीरणा करके मरणके अन्तिम समय में अजघन्य प्रदेश उदीरणा करते हैं उनकी अपेक्षा मनुष्य अपर्याप्तकों में सब प्रकृतियोंके अजघन्य प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय कहा है। शेष कथन सुगम है । I $ २०५. अन्तर दो प्रकारका है— जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे मिध्यात्व, बारह कषाय और छह नोकषायों के उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है । इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व - की अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण सम्यक्त्व और लोभसंज्वलन के उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है । तीन संज्वलन और पुरुषवेदके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है। और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्वप्रमाण है, निरन्तर हैं । स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्ष पृथक्त्व प्रमाण है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है, निरन्तर हैं । इसी प्रकार मनुष्यत्रिक में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि वेद जान लेने चाहिए। मनुष्यिनियों में क्षपकप्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्ष पृथक्त्वप्रमाण है । विशेषार्थ – मिध्यात्व, बारह कषाय और छह नोकषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करनेवाले नाना जीव कमसे कम एक समय के अन्तरालसे हीं यह भी सम्भव है और अधिकसे अधिक असंख्यात लोकप्रमाण कालके अन्तरालसे हों यह भी सम्भव है अर्थात् उत्कृष्टरूपसे असंख्यात लोकप्रमाण कालके बाद कोई न कोई जीव उक्त प्रकृतियोंकी अवश्य ही १. अप्रतौ उक्क० छम्मासं । अणुक्क० णत्थि अंतरं निरंतरं इत्थवेद० । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए परिमाणं २७१ २०६. आदेसेण णेरइय० सम्म उक्क० पदेसुदी० जह० एयस०, उक्क० वासपुधत्तं । अणुक० णत्थि अंतरं० । सम्मामि० ओघं । मिच्छ० - अनंताणु०४ उक्क० 1 पदेसुदी ० जह० एस ०, उक्क० सत्त रादिंदियाणि । अणुक० णत्थि अंतरं० । बारसक० - सत्तणोक० उक० पदेसुदी० जह० एयस०, उक्क० असंखेजा लोगा । अणुक० णत्थि अंतरं० । एवं पढमाए । एवं विदियादि जाव सत्तमा ति । णवरि सम्म० बारसकसायभंगो । उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है, इसलिए उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक जीव सर्वदा पाये जाते हैं, इसलिए इनके अन्तरकालका निषेध किया है । सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा यह अन्तरकाल बन जाता है । मात्र इस अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक जीव कमसे कम एक समय तक और अधिक से अधिक पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक नहीं पाये जाते, इसलिए इसके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। क्षपकश्रेणिके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालको ध्यानमें रखकर सम्यक्त्व और संज्वलन लोभके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना कहा है । इनके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है यह स्पष्ट ही है, क्योंकि जब समयऔर संज्वलन लोभकी उदीरणा न हो ऐसा एक भी समय नहीं उपलब्ध होता । पुरुषवेद और शेष तीन संज्वलनोंकी अपेक्षा क्षपकश्रेणिके अन्तरकालको ध्यान में रखकर इनके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व प्रमाण कहा है। इनके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक जीव निरन्तर पाये जाते हैं, इसलिए इसलिए इसका निषेध किया है । स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी अपेक्षा क्षपकश्रेणिके अन्तरकालको ध्यान में रख कर इनके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व प्रमाण कहा है। इनके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक जीव निरन्तर पाये जाते हैं इसलिए इसका निषेध किया है । मनुष्यत्रिकमें यह अन्तरकाल अविकल बन जाता है, उनमें ओके समान जानेकी सूचना की है। मात्र इन तीन प्रकारके मनुष्योंमें जिसके जो वेद सम्भव हों उन्हें जानकर उनके उन्हींकी अपेक्षा कथन करना चाहिए। इतना विशेष जानना चाहिए कि जिन प्रकृतियोंकी क्षपकश्रेणिमें उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा होती है उनकी अपेक्षा मनुष्यिनियोंमें उत्कृष्ट प्रदेश उदीर कोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्वप्रमाण कहना चाहिए । $ २०६. आदेशसे नारकियों में सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व प्रमाण है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं । सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघ के समान है । मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल सात रात्रि-दिन है अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं । बारह कषाय और सात नोकषायों के उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं । इसी प्रकार पहली पृथिवीमें जानना चाहिए। इसी प्रकार दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इन द्वितीयादि पृथिवियोंमें सम्यक्त्वका भंग बारह कषायोंके समान है । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ 5२०७. तिरिक्खेसु मिच्छ०-सोलसक०-णवणोक० उक्क० पदेसुदी० जह० एगस०, उक० असंखेन्जालोगा । अणुक्क० णत्थि अंतरं० । सम्मत्त-सम्मामि० णारयभंगो । एवं पंचिंदियतिरिक्खतिये । णवरि वेदा जाणियव्वा । जोणिणीसु सम्म० बारसक०भंगो । पंचिं०तिरिक्खअपज्ज० सव्वपयडी० उक्क० पदेसुदी० जह० एगस०, उक्क० असंखेजा लोगा । अणुक्क० णथि अंतरं० । एवं मणुसअपज । णवरि अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असं०भागो। विशेषार्थ-नरकमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टियोंके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालको ध्यानमें रखकर यहाँ सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्वप्रमाण कहा है। इसके अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक वेदक सम्यग्दृष्टि जीव वहाँ निरन्तर पाये जाते हैं, इसलिए इनके अन्तरकालका निषेध किया है। सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है यह स्पष्ट ही है। नरकमें प्रथमोपशम सम्यक्त्वके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालको ध्यानमें रखकर यहाँ मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल सात रात्रिदिन कहा है । इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करनेवाले अन्य मिथ्यादृष्टि जीव निरन्तर पाये जाते हैं, इसलिए इनके अन्तरकालका निषेध किया है। जिन परिणामोंसे नरकमें बारह कषाय और सात नोकषायोंकी उत्कृष्ट उदीरणा होती है उनके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालको ध्यानमें रख कर यहाँ उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समर. और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक जीव यहाँ पर निरन्तर पाये जाते हैं, इसलिए उनके अन्तरकालका निषेध किया है। सातों नरकोंमें यह अन्तरकाल प्ररूपणा बन जाती है, इसलिए उसे सामान्य नारकियोंके समान जाननेकी सूचना की है। मात्र द्वितीयादि पृथिवियोंमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि मनुष्य मरकर नहीं उत्पन्न होते, इसलिए द्वितीयादि छह पृथिवियोंमें सम्यक्त्वका भंग बारह कषायोंके समान बन जानेसे सम्यक्त्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंके अन्तरकालको बारह कषायोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंक अन्तरकालके समान जाननेकी सूचना की है। $२०७ तिर्यञ्चों मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकों का जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व का भंग नारकियोंके समान है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि वेद जान लेना चाहिए। योनिनियोंमें सम्यक्त्वका भंग बारह कषायोंके समान है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। विशेषार्थ—कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि मनुष्य मर कर तिर्यश्च योनिनियों में उत्पन्न नहीं होते, इसलिए इनमें सम्यक्त्वका भंग बारह कषायोंके समान बन जानेसे उस प्रकार कडा Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए परिमाणं २७३ २०८. देवेसु मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि०-अणंताणु०४ णारयभंगो । बारसक०-अट्ठणोक० उक्क० पदेसुदी० जह० एगसमओ, उक्क० असंखेजा लोगा। अणुक्क० पत्थि अंतरं० । एवं सोहम्मीसाण । एवं सणक्कुमारादि जाव गवगेवजा त्ति । णवरि इत्थिवेदो पत्थि । भवण-वाण-०-जोदिसि० देवोघं । णवरि सम्म० बारसकभंगो । अगुदिसादि सव्वट्ठा त्ति सम्म० उक्क० पदेसुदी० जह• एगस०, उक्क० वासपुधत्तं पलिदो० संखे भागो। अणुक्क० पत्थि अंतरं० । बारसक०सत्तणोक० देवोघं । एवं जाव० ।। $२०९. जह० पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण सव्वपय० जह० पदेसुदी० जह• एयस०, उक्क० असंखेज्जा लोगा । अजह० णत्थि अंतरं० । वरि है। मनुष्य अपर्याप्त यह सान्तर मार्गणा है । इसलिए इसके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालको ध्यानमें रख कर यहाँ मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपम के असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। शेष स्पष्टीकरण पूर्व में किये गये स्पष्टीकरण से यथायोग्य समझ लेना चाहिए। २०८. देवों में मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग सामान्य नारकियों के समान है। वारह कषाय और आठ नोकषायों के उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकों का जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकों का अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं । इसी प्रकार सौधर्म और ऐशान कल्प में जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार सनत्कुमार कल्प से लेकर नौवेयक तक के देवों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्री वेद नहीं है । भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में सामान्य देवों के समान भंग है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व का भंग बारह कषायों के समान है। अनुदिश से लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवों में सम्यक्त्व के उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकों का जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर काल नौ अनुदिश और चार अनुत्तरों में वर्षपृथक्त्व प्रमाण और सर्वार्थसिद्धि में पल्योपम के संख्यातवें भाग प्रमाण है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकों का अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं । बारह कषाय और सात नौ कषायों का भंग सामान्य देवों के समान है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ-कृतकृत्यववेदक सम्यग्दृष्टि मनुष्य मर कर भवनत्रिकों में उत्पन्न नहीं होते इसलिये इनमें सम्यक्त्वका भंग बारह कषायों के समान कहा है। नौ अनुदिश और पाँच अनुत्तरोंमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टियों की उत्पत्ति के जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल को ध्यान में रखकर यहाँ इनमें सम्यक्त्व के उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकों का जघन्य अन्तरकाल एक समय तथा नौ अनुदिश और चार अनुत्तरोंमें उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्वप्रमाण और सर्वार्थसिद्धि में पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण कहा है । शेष स्पष्टीकरण पूर्वके स्पष्टीकरणको ध्यानमें रखकर कर लेना चाहिए।' $ २०९. जघन्य प्रकृत है। निर्दश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे सब प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेश उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल १. आता प्रत्योः संखे०भागो । बारसक० इलि पाठः। Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ सम्मामि० अजह० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। सव्वणिरय०सव्वतिरिक्ख-मणुसतिय-सव्वदेवा ति जाओ पयडीओ उदीरिजंति तासिमोघं । मणुसअपज० सव्वपय० जह० पदेसुदी० जह• एयस०, उक्क० असंखेजा लोगा। अजह० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असं०भागो । एवं जाव० । * तदो सण्णियासो। ६२१०. तदो गाणाजीवभंगविचयादिअणिओगद्दारविहासणादो अणंतरमिदाणिं सण्णियासो अहिकओ ददुव्वो ति अहियारसंभालणवक्कमेदं- * मिच्छत्तस्स उक्कस्सपद सुदीरगो अणंताणुषंधीणमुक्कस्सं वा अणुक्कस्सं वा उदीरेदि । २११. मिच्छत्तस्स उक्कस्सपदेसुदीरगो णाम संजमाहिमुहचरिमसमयमिच्छाइट्ठी सव्वविसुद्धो, सो अणंताणुबंधीणमण्णदरस्स णियमा उदीरगो। एवमुदीरेम.णो उक्कस्सं असंख्यात लोकप्रमाण है। अजघन्य प्रदेश उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं। इतती विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यात्व के अजघन्य प्रदेश उदीरकों का जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सब नारकी, सब तिर्यश्च, मनुष्यत्रिक और सब देव जिन प्रकृतियों की उदीरणा करते हैं उनका भंग ओघके समान है । मनुष्य अपर्याप्तकों में सब प्रकृतियों के जघन्य प्रदेश उदीरकों का जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर काल असंख्यात लोकप्रमाण है । अजघन्य प्रदेश उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपम के असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार अनाहारक मागंणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ—सम्यग्मिध्यात्व गुण यह सान्तर मार्गणा है इसलिए ओघ और आदेश से गति मार्गणाके अवान्तर भेदोंमें जहाँ सम्यग्मिथ्यात्व गुण की प्राप्ति सम्भव है, वहाँ सम्यग्मिथ्यात्वके अजघन्य प्रदेश उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यात भागप्रमाण बन जाने से वह तत्प्रमाण कहा है। मनुष्य अपर्याप्त यह सान्तर मार्गणा है, इसलिए इनमें सब प्रकृतियों के अजघन्य प्रदेश उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण बन जाने से वह तत्प्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है। * तदनन्तर सन्निकर्ष अधिकृत है। $ २१०. तदनन्तर अर्थात् नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय आदि अनुयोगद्वारों का व्याख्यान करने के बाद इस समय सन्निकर्ष अधिकृत जानना चाहिए । इस प्रकार अधिकारकी सम्हाल करने वाला यह सूत्रवचन है। - * मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करने वाला जीव अनन्तानुबन्धियोंकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा या अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है। $ २११. जो संयमके अभिमुख हुआ सर्व विशुद्ध अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्व के उत्कृष्ट प्रदेशोंका उदीरक कहलाता है वह अनन्तानुबन्धियोंमें से अन्यतरका Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७५ गा० ६२] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए परिमाणं वा अणुक्कस्सं वा उदीरेदि, सामित्तभेदाभावे पि अप्पणो विसेसपञ्चयमस्सियूण तहाभावसिद्धीए.विरोहाभावादो । तथाणुकस्समुदीरेमाणो केत्तिएहिं वियप्पेहिं अणुक्कस्समुदीरेदि त्ति पुच्छिदे तण्णिण्णयकरणमुत्तरसुत्तमाह * उकस्सादो अणुक्कस्सा चउट्ठाणपदिदा । २१२. कुदो ? मिच्छत्तुक्कस्सपदेसुदीरगस्साणंताणुबंधीणं चउट्ठाणपदिदपदेसुदीरणाकारणपरिणामाणं पि संभवे विरोहाभावादो। तदो मिच्छत्तुक्कस्सपदेसुदीरगो अणंताणुबंधीणमणुक्कस्समुदीरेमाणो असंखे०भागहीणं संखे०भागहीणं संखे०गुणहीणं असंखे०गुणहीणमुदीरेदि ति सिद्धं । एवं मिच्छत्तुक्कस्सपदेसुदीरणं णिरुद्धं कादण तत्थाणताणुबंधाणं सण्णियासो कओ । सेसाणं पि कम्माणमेदेण बीजपदेण सण्णियासो णेदव्यो त्ति जाणावणट्ठमाह * एवं णेदव्वं । 5 २१३. जहा मिच्छत्तस्साणंताणुबंधीहि सह णीदं एवं सेसेहिं मि कम्मेहि सह णेदव्वं । अणंताणुबंधिकोहादीणं पि पादेक्कणिरुंभणं कादण सेसकम्मेहि सह सण्णियासो जाणिय कायव्यो । जहण्णसण्णियासो वि चिंतिय णेदव्यो त्ति एसो एदस्स मुत्तस्स नियमसे उदीरक है। इस प्रकार उदीरणा करने वाला उत्कृष्ट या अनुत्कृष्टकी उदीरणा करता है, क्योंकि स्वामित्वका भेद नहीं होनेपर भी अपने विशेष प्रत्ययका आश्रय कर उस प्रकारकी सिद्धिमें कोई विरोध नहीं है। उस प्रकार अनुत्कृष्टको उदीरणा करनेवाला कितने भेदोंके द्वारा अनुत्कृष्टकी उदीरणा करता है ऐसा पूछनेपर उसका निर्णय करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा चतुःस्थान पतित होती है । २१२. मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करनेवाले जीवके अनन्तानुबन्धियोंकी चतुःस्थान पतित प्रदेश उदीरणाके कारणभूत परिणामोंके भी सम्भव होनेमें कोई विरोध नहीं आता। इसलिए मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करनेवाला जीव अनन्तानुबन्धियोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता हुआ असंख्यात भागहीन, संख्यात भागहीन, संख्यात गुणहीन या असंख्यात गुणहीन प्रदेश उदीरणा करता है यह सिद्ध हुआ। इस प्रकार मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाके साथ वहाँ अनन्तानुबन्धियोंका सन्निकर्ष बतलाया। इसी प्रकार शेष कर्मोंका भी इसी बीजपद से सन्निकर्ष जानना चाहिए इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * इसी प्रकार शेष कर्मोंका भी जानना चाहिए । ६२१३. जिस प्रकार मिथ्यात्वका अनन्तानुबन्धियोंके साथ संन्निकर्ष बतलाया है उसी प्रकार शेष कर्मों के साथ भी जानना चाहिए। अनन्तानुबन्धी क्रोधादिमेंसे भी प्रत्येकको विवक्षित कर शेष कर्मों के साथ सन्निकर्ष जानकर करना चाहिए। जघन्य सन्निकर्षका भी Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ अत्थसब्भावो । तदो एदेण सुत्तेण समप्पिदस्थविसये सोदाराणं णिण्णयजणणट्ठमुच्चारणं वत्तइस्सामो । तं जहा $ २१४. सण्णियासो दुविहो-जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णिद्देसोओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ० उक्क० पदेसमुदीरेंतो अणंताणुबंधिचउकं सिया० तं तु चउट्ठाणपदिदं । बारसक०-णवणोक० सिया असंखे०गुणहीणं । 5२१५. सम्म० उक्क० पदेसमुदी० बारसक०-णवणोक० सिया असंखेजगुणहीणं । एवं सम्मामि० । $ २१६. अणंताणु०कोधस्स उक्क० पदे० उदीरेंतो मिच्छ० णिय० तं तु चउट्ठाणपदिदं । तिण्हं कोहाणं णिय० अणुक्क० असंखे गुणहीणं । णवणोक० सिया० असंखे०गुणहीणं । एवं तिण्हं कसायाणं ।। २१७. अपञ्चक्खाणकोह० उक० पदेसमुदीरेंतो दोण्हं कोहाणं णिय० असंखे०विचार कर कथन करना चाहिए यह इस सूत्रका तात्पर्य है। इसलिए इस सूत्र द्वारा प्राप्त हुए अर्थके विषयमें श्रोताओंको निर्णय उत्पन्न करनेके लिए उच्चारणाको बतलाते हैं । यथा... २१४. सन्निकर्ष दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करनेवाला जीव अनन्तानुबन्धि चतुष्कका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। अर्थात् किसी एकको एक कालमें उदीरक है। यदि उदीरक है तो वह कदाचित् उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है और कदाचित् अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा चतुःस्थान पतित अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है। बारह कषाय और नौ नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो उत्कृष्ट की अपेक्षा असंख्यात गुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है। 5२१५. सम्यक्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करनेवाला जीव बारह कषाय और नौ नोकपायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो उत्कृष्ट की अपेक्षा असंख्यात गुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वको मुख्यकर सन्निकर्षे जानना चाहिए। $ २१६. अनन्तानुबन्धी क्रोधकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करनेवाला जीव मिथ्यात्वका नियमसे उदीरक है जो कदाचित् उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक और कदाचित् अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा चतुःस्थान पतित अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है। तीन क्रोधोंका नियमसे उदीरक है जो उत्कृष्टकी अपेक्षा असंख्यात गुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है। नौ नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा असंख्यात गुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी मान आदि तीन कषायोंको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। ६२१७. अप्रत्याख्यान क्रोधकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करनेवाला जीव दो क्रोधोंका नियमसे उदीरक है जो उत्कृष्टकी अपेक्षा असंख्यात गुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] ___ उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए परिमाणं २७७ गुणहीणं । सम्म०-णवणोक० सिया असंखे०गुणहीणं । एवं तिण्हं कसा० । ____$ २१८. पच्चक्खाणकोह० उक्क० पदे. उदीरेंतो कोहसंजल० णिय० असंखे०गुणही० । सम्म०-णवणोक० सिया० असंखे गुणहीणं । एवं तिण्हं क० । २१९. कोहसंज० उक्क० पदे. उदीरेंतो सव्वपयडीणमणुदीरगो । एवं तिण्णं संजलणाणं । २२०. इत्थिवे० उक्क० पदे. उदीरतो चदुसंज० सिया० असंखे०गुणही० । एवं पुरिसवे०-णस० । २२१. हस्सस्स उक्क० पदे० उदीरेंतो रदिं णिय० तं तु चउडाणपदि० । भयदुगुंछ० सिया तं तु चउट्ठाणप० । तिण्णिवेद-चदुसंजल. सिया असंखे०गुणही० । एवं रदीए । एवमरदि-सोगाणं । सम्यक्त्व और नौ नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा असंख्यात गुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है। इसी प्रकार अप्रत्याख्यान मान आदि तीन कषायोंको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए । $२१८. प्रत्याख्यान क्रोधकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करनेवाला जीव क्रोधसंज्वलनका नियमसे उदीरक है। जो उत्कृष्टकी अपेक्षा असंख्यात गुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है। सम्यक्त्व और नौ नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा असंख्यात गुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है। इसी प्रकार प्रत्याख्यान मान आदि तीन कषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । ६२१९. क्रोधसंज्वलनको उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करनेवाला जीव सब प्रकृतियोंका अनुदीरक है । इसी प्रकार मान आदि तीन संज्वलनोंको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। $ २२०. स्त्रीवेदको उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करनेवाला जीव चार संज्वलनोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा असंख्यात गुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है। इसी प्रकार पुरुषवेद और नपुंसकवेदको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए । ६ २२१. हास्यकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करनेवाला जीव रतिकी नियमसे उदीरणा करता है। जो कदाचित् उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है और कदाचित् अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है तो उत्कृष्टको अपेक्षा चतुःस्थान पतित अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है। भय और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो कदाचित् उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है और कदाचित् अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है । यदि अनुत्कृष्टं प्रदेश उदीरक है तो उत्कृष्ट की अपेक्षा चतुःस्थान पतित अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है । तीन वेद और चार संज्वलनोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा असंख्यात गुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है। इसी प्रकार रतिको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए तथा इसी प्रकार अरति और शोकको मख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ $ २२२. भय० उक्क० पदे० उदीरेंतो पंचणोक० सिया तं तु चउहाणपदिदा । तिण्णिवेद-चदुसंज० सिया असंखे०गुणहीणा । एवं दुगुंछाए । एवं मणुसतिये । णवरि वेदा जाणियव्वा । २२३. आदेसेण णेरइय० मिच्छ० उक्क० पदे. उदीरेंतो सोलसक०-छण्णोक० सिया असंखे गुणहीणा । णवंस० णिय० असंखेन्गुणहीणा । एवं सम्म० सम्मामि । णवरि अणंताणु०४ णत्थि । $ २२४. अणंताणु०कोध० उक्क. उदीरेंतो तिण्हं कोधाणं णस० णिय० असंखे०गुणही० । छण्णोक० सिया असंखेगुणहीणा । एवं माण-माया-लोहाणं ।। $ २२५. अपचक्खाणकोध० उक्क० पदेसुदी० दोण्हं कोधाणं णवंस० णिय० तंतु चउट्ठाणप० । छण्णोक० सिया तं तु चउट्ठाणप० । सम्म० सिया असंखे०गुणहीणा । एवमेकारसक०। $ २२२. भयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करनेवाला जीव पाँच नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो कदाचित् उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है और कदाचित् अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा चतुःस्थान पतित अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है । तीन वेद और चार संज्वलनोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा असंख्यात गुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है । इसी प्रकार जुगुप्साको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए । इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि वेद जान लेने चाहिए। $ २२३. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करनेवाला जीव सोलह कषाय और छह नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा असंख्यात गुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है। नपुंसकवेदका नियमसे उदीरक है जो उत्कृष्टकी अपेक्षा असंख्यात गुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है। इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि उक्त दो प्रकृतियों की उदीरणा करनेवाला जीव अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी उदीरणा नहीं करता। $ २२४. अनन्तानुबन्धी क्रोधकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करनेवाला जीव तीन क्रोध और नपुंसकवेदका नियमसे उदीरक है जो उत्कृष्टकी अपेक्षा असंख्यात गुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है। छह नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो उत्कष्टकी अपेक्षा असंख्यात गणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी मान, माया और लोभ को मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए। $ २२५. अप्रत्याख्यान क्रोधकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करनेवाला जीव दो क्रोध और नपुंसकवेदका नियमसे उदीरक है। जो कदाचित् उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है और कदाचित् अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा चतुःस्थानपरित अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है। छह नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो कदाचित् उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है और कदाचित् अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा चतुःस्थान पतित अनु• Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए परिमाणं २७९ $ २२६. हस्सस्स उक्क० पदे० उदी० बारसक० - भय-दुर्गुछ० सिया तं तु चउट्ठाण पदि ० । रदि - णव स० निय० तं तु चउद्वाणप० । सम्म० सिया असंखे ० गुणही ० । एवं रदीए । एवमरदि - सोगाणं । $ २२७. भय० उक्क० पदेस० उदीरेंतो बारसक० - पंचणोक० सिया तं तु चउट्ठाणप० । सम्म० - ण स० हस्सभंगो । एवं दुगुंछा० । एवं पढमाए । $ २२८. बिदियादि सत्तमा त्ति । णवरि बारसक० - सत्तणोक० उक्क० पदेसमुदीरेंतो सम्म० सिया तं तु चउट्ठाणप० । सम्म० उक्क० पदे० उदीरे० बारसक० - छण्णोक ० सिया तं तु चउट्ठाणप० । णवंस० निय० तं तु चउट्ठाणप० । त्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है । सम्यक्त्वका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा असंख्यात गुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है । इसी प्रकार शेष ग्यारह कषायोंको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए । $ २२६. हास्य की उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करने वाला जीव बारह कषाय, भय और जुगुसाका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो कदाचित् उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है और कदाचित् अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है तो उत्कृष्ट की अपेक्षा चतुःस्थान पतित अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है। रति और नपुंसक वेदका नियमसे उदीरक है, जो कदाचित् उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है और कदाचित् अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा चतुःस्थान पतित अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है । सम्यक्त्वका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा असंख्यात गुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है। इसी प्रकार रतिको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार अरति और शोकको मुख्यकर सन्नि कर्ष जानना चाहिए । $ २२७. भय की उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करने वाला जीव बारह कषाय और पाँच नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो कदाचित् उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है और कदाचित् अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा चतुःस्थान पतित अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक करता है। इसके सम्यक्त्व और नपुंसक वेदका भंग हास्य के समान है। इसी प्रकार जुगुप्साको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। इसी प्रकार पहली पृथिवीमें जानना चाहिए। $ २२८. दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक इसी प्रकार है। इतनी विशेषता है कि बारह कषाय और सात नोकषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करने बाला जीव सम्यक्त्वका कदाचित् उदोरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो कदाचित् उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है और कदाचित् अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक हैं । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है तो उत्कृष्ट की अपेक्षा चतु:स्थान पतित अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है । सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करनेवाला जीव बारह कषाय और छह नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो कदाचित् उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है और कदाचित् अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक हैं तो उत्कृष्टकी अपेक्षा चतुःस्थान पतित अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है । नपुंसक वेद का नियम से उदीरक है, जो कदाचित् उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ $ २२९. तिरिक्खेसु मिच्छ० - सम्मा मि० - अट्ठक० ओघं । सम्म० उक्क० पदे ० उदीरें तो बारसक०६० - छण्णोक० सिया असंखे ०गुणहीणा । पुरिसवे० णिय० असंखे०गुणही ० । $ २३०. पच्चक्खाणकोध० उक्क० पदे० उदी० कोहसंजल० णिय० तं तु चउट्ठाणप० । णवणोक० सिया तं तु चउट्ठाणप० । सम्म० सिया असंखे ० गुणही ० । एवं २८० सत्तक० । ९ २३१. इत्थिवेद० उक्क० पदे० उदी० अट्ठक० - छण्णोक० सिया तं तु चउप० । सम्म० सिया० असंखे ० गुणही ० । एवं पुरिस० - णव स० । २३२. इस्सस्स उक्क० पदे० उदी० अट्ठक० - तिणिवेद -भय-दुगु छ० सिया है और कदाचित् अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है तो उत्कृष्टको अपेक्षा चतुःस्थान पतित अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है । $ २२९. तिर्यों में मिध्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और आठ कषायोंका भंग ओघ के समान है । सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करने वाला जीव बारह कषाय और छह नोकषायों का कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा असंख्यात गुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है । पुरुषवेदका नियमसे उदीरक है, जो उत्कृष्टकी अपेक्षा असंख्यात गुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है । $ २३०. प्रत्याख्यान क्रोधकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करनेवाला तिर्यञ्च क्रोध संज्वलनका नियमसे उदीरक है, जो कदाचित् उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है और कदाचित् अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा चतुःस्थान पतित अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है। नौ नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो कदाचित् उत्कृष्ट प्रदेश उदोरक है और कदाचित् अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा चतुःस्थान पतित अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है । सम्यक्त्वका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा असंख्यात गुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है। इसी प्रकार प्रत्याख्यान मान, माया और लोभ तथा संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ इन सात कषायोंको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए । $ २३१. स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करनेवाला तिर्यन आठ कषाय और छह नोकषायाँका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो कदाचित् उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है और कदाचित् अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा चतुःस्थान पतित अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है । सम्यक्त्वका कदाचित् उदीर है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा असंख्यात गुणहोन अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है । इसी प्रकार पुरुषवेद और नपुंसक वेदको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए । $ २३२. हास्यकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करनेवाला तिर्यञ्च आठ कषाय, तीन वेद, भय और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो कदाचित् उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है और कदाचित् अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेश Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए परिमाणं २८१ तं तु चउट्ठाणप० । रदि णिय० तं तु चउट्ठा० । सम्म० इत्थिवेदभंगो । एवं रदीए । एवमरदि-सोगाणं । $२३३. भय० उक्क० पदे० उदी० अट्ठक०-अट्ठणोक० सिया तं तु चउट्ठाण । सम्म०-इत्थि० भयभंगो । एवं दुगुंछ । एवं पंचिंदियतिरिक्खतिये । णवरि पज० इत्थिवेदो णत्थि । जोगिणीसु पुरिस०-णस० णत्थि ।। $ २३४. अट्ठक०-सत्तणोक० उक्क० पदे. उदीरेंतो सम्म० सिया तं तु चउट्ठा० । . २३५. सम्म० उक्क० पदे० उदी० अट्ठक०-छण्णोक० सिया तं तु चउट्ठाणप० । इत्थिवेद० णिय० तं तु चउट्ठाण ! $ २३६. पंचिंतिरि०अपज०-मणुसअपज० मिच्छ० उक्क० पदे. उदीरेंतो उदोरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा चार स्थान पतित अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है । रतिका नियम से उदीरक है, जो कदाचित् उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है और कदाचित् अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा चतुःस्थान पतित अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है । सम्यक्त्वका भंग स्त्रीवेदके समान है । इसी प्रकार रतिको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार अरति और शोकको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। $२३३. भयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरण करनेवाला तिर्यश्च आठ कषाय और आठ नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो कदाचित् उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है और कदाचित् अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा चतुःस्थान पतित अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है । सम्यक्त्व और स्त्रीवेदका भंग भयके समान है। इसी प्रकार जुगुप्साको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेपता है कि पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेद नहीं है तथा योनिनियोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं है । ६२३४. तथा आठ कषाय और सात नोकषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करनेवाला तिर्यश्च योनिनीजीव सम्यक्त्वका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो कदाचित् उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है और कदाचित् अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा चतुःस्थान पतित अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है। $ २३५. सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करनेवाला उक्त जीव आठ कषाय और छह नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो कदाचित् उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है और कदाचित अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है। यदि अनत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा चतुःस्थान पतित अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है। स्त्रीवेदका नियमसे उदीरक है, जो कदाचित् उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है और कदाचित् अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है तो उत्कृष्टको अपेक्षा चतुःस्थान पतित अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है। २३६. पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करनेवाला जीव सोलह कषाय और छह नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो कदाचित् उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है और कदाचित Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ सोलसक०-छण्णोक० सिया तं तु चउट्ठाणप० । गस० णिय० तं तु चउड्डाणपदि० । एवं णउंसय०। ६२३७. अणंताणु० कोध० उक्क० पदे० उदीरेंतो मिच्छ० तिण्णं कोध०-गवुस० णिय० तं तु चउट्ठाणपदिदा । छण्णोक० सिया तं तु चदुट्ठाणपदि० । एवं पण्णारसक० । $२३८. हस्सस्स उक्क० पदे. उदीरेंतो मिच्छ०-णवुसय०-रदि० णिय० तं तु चउट्ठाण । सोलसक०-भय-दुगुंछ० मिच्छत्तभंगो । एवं रदीए । एवमरदि-सोगाणं । २३९. भय० उक्क० पदे. उदीरेंतो मिच्छ०-णवुस० हस्सभंगो । सोलसक०पंचणोक० सिया तं तु चउट्ठा० । एवं दुगुंछ । २४०. देवेसु मिच्छ० उक्क० पदे. उदीरेंतो सोलमक०-अट्ठणोक० सिया अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा चतुःस्थान पतित अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है। नपुंसक वेदका नियमसे उदीरक है जो कदाचित् उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है और कदाचित् अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक हैं कृष्ट की अपेक्षा चतुः स्थान पतित अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है। इसी प्रकार नपुंसकवेदको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। $ २३७. अनन्तानुबन्धी क्रोधकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करनेवाला उक्त जीव मिथ्यात्व, तीन क्रोध और नपुंसकवेदका नियमसे उदीरक है, जो कदाचित् उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है और कदाचित् अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा चतुःस्थानपतित अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है । छह नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो कदाचित् उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है और कदाचित् अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा चतुःस्थानपतित अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है। इसी प्रकार पन्द्रह कषायोंको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। $२३८. हास्यकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करनेवाला उक्त जीव मिथ्यात्व, नपुंसकवेद और रतिका नियमसे उदीरक है, जो कदाचित् उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है और कदाचित् अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा चतुःस्थानपतित अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है । सोलह कषाय, भय और जुगुप्साका भंग मिथ्यात्वके समान है । इसी प्रकार रतिको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। ___$२३९. भयको उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करनेवाले उक्त जीव के मिथ्यात्व और नपुंसक. वेदका भंग हास्यको मुख्यकर कहे गये इन प्रकृतियों के सन्निकर्ष के समान है। सोलह कषाय और पाँच नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो कदाचित् उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है और कदाचित् अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है तो उत्कृष्ट की अपेक्षा चतु:स्थान पतित अनुत्कृष्ट प्रदंश उदीरणा करता है। इसी प्रकार जुगुप्साको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। $२४०. देवोंमें मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करनेवाला देव सोलह कषाय और आठ नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा असंख्यात गुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है । इसी प्रकार सम्यग्मि Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए परिमाणं असंखे गुणही । एवं सम्मामि । णवरि अणंताणु० चउक्कं णत्थि । सम्म० तिरिक्खोघं । २४१. अणंताणु०कोध० उक्क० पदे. उदीरेंतो तिण्हं कोधाणं णिय० असंखे०गुणहीणा । अट्ठणोक० सिया असंखे०गुणही० । एवं तिण्हं कसायाणं । $ २४२. अपचक्खाणकोध० उक्क० पदे० उदी. दोण्हं कोधाणं णिय० तं तु चउट्ठाणप० । अट्ठणोक० सिया तं तु चउट्ठा० । सम्म० सिया असंखे०गुणही० ॥ एवमेकारस। २४३. इत्थिवेद० उक्क० पदे० उदी० सम्म० सिया असंखेगुणही० । बारसक०-छण्णोक० सिया तं तु चउट्ठाण'। एवं पुरिसवे० । ६२४४. हस्स० उक्क० पदे० उदी० सम्म० इत्थिवेदभंगो । बारसक०-दो वेदध्यात्वको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यात्वकी उदीरक अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी उदीरणा नहीं करता । सम्यक्त्वको मुख्यकर सन्निकर्षका भंग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। $ २४१. अनन्तानुबन्धी क्रोधकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करनेवाला देव तीन क्रोधोंका नियमसे उदीरक है, जो उत्कृष्टकी अपेक्षा असंख्यात गुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है । आठ नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा असंख्यात गुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी मान आदि तीन कषायोंको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। २४२. अप्रत्याख्यान क्रोधकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करनेवाला देव दो क्रोधोंका नियमसे उदीरक है । जो कदाचित् उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है और कदाचित् अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है तो उत्कृष्ट की अपेक्षा चतुःस्थान पतित अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है । आठ नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो कदचित् उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है और कदाचित् अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा चतुःस्थान पतित अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है। सम्यक्त्वका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा असंख्यात गुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है । इसी प्रकार अप्रत्याख्यान मान आदि ग्यारह कषायोंको मुख्य कर सन्नि कर्ष जानना चाहिए। ___६२४३. स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करनेवाला देव सम्यक्त्वका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो उत्कृष्टको अपेक्षा असंख्यात गुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है। बारह कषाय और छह नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो कदाचित् उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है और कदाचित् अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा चतु:स्थान पतित अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है। इसी प्रकार पुरुषवेदको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। ६२४४. हास्यकी. उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करनेवाले देवके सम्यक्त्वका भंग स्त्रीवेदको मुख्यकर कहे गये सम्यक्त्वके सन्निकर्षके समान है। बारह कषाय और दो वेद, भय १. आ०-ता प्रत्योः छट्ठाण० इति पाठः। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो भय-दुगुंछा० सिया तं तु चउट्ठाण'। रदि णिय० तं तु चउट्ठा० । एवं रदीए । एवमरदि-सोगाणं । २४५. भय० उक्क० पदे० उदी० सम्म० इत्थिवेदभंगो । बारसक०-सत्तणोक० सिया तं तु चउट्ठाणप० । एवं दुगुंछाए । एवं सोहम्मीसाण० । एवं सणकुमारादि जाव गवगेवजा त्ति । णवरि पुरिसवेदो धुवो कायव्यो । ६२४६. भवण०-वाण-०-जोदिसि० देवोघं । णवरि बारसक०-अट्ठणोक० उक्क० पदे० उदी० सम्म सिया तं तु चउट्ठा० । सम्म० उक्क० पदे. उदीरेंतो बारसक०अट्ठणोक० सिया तं तु चउट्ठाण । भय और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो कदाचित् उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है और कदादित् अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा चतुःस्थान पतित अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है। रतिका नियमसे उदीरक है, जो कदाचित् उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है और कदाचित् अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है। यदि अनत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है तो उत्कष्टकी अपेक्षा चतःस्थान पतित अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है। इसी प्रकार रतिको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार अरति और शोकको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। $ २४५. भयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करनेवाले देवके सम्यक्त्वका भंग स्त्रीवेदको मुख्यकर कहे गये सम्यक्त्वके सन्निकर्षके समान है। बारह कषाय और सात नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो कदाचित् उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है और कदाचित अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है। यदि अनत्कृष्ट प्रदेश उदीरक उत्कृष्टकी अपेक्षा चतुःस्थान पतित अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है। इसी प्रकार जुगुप्साको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। इसी प्रकार सौधर्म और ऐशान कल्पमें जानना चाहिए । तथा इसी प्रकार सनत्कुमार कल्पसे लेकर नौ प्रैवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें पुरुषवेदको ध्रुव करना चाहिए । - $ २४६. भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें सामान्य देवोंके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि बारह कषाय और आठ नोकषायोंकी उदीरणा करनेवाला उक्त देव सम्यक्त्वका कदाचित उदीरक है और कदाचित् अनुदोरक है । यदि उदीरक है तो कदाचित् उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है और कदाचित् अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा चतुःस्थान पतित अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है। सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करनेवाला उक्त देव बारह कषाय और आठ नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो कदाचित् उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है और कदाचित् अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा चतुःस्थान पतित अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है । १. आ०--ता प्रत्योः छट्ठाण० इति पाठः। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए परिमाणं २८५ .5२४७. अणुद्दिसादि सव्वट्ठा त्ति सम्म०-बारसक०-सत्तणोक० आणदभंगो । एवं जाव० । - २४८. जहण्णए पयदं। दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ० जह० पदे० उदीरेंतो सोलसक०-णवणोक० सिया तं तु चउट्ठा० । २४९. सम्म० जह० पदे. उदी. बारसक०-णवणोक० सिया असंखे०गुणन्महिया । एवं सम्मामि। २५०. अणंताणु० कोध० जह० पदे० उदी० मिच्छ० तिण्हं कोधाणं णिय० तं तु चउट्ठा० । णवणोक० सिया तं तु चउट्ठाणप० । एवं पण्णारसक० । २५१. हस्सस्स जह० पदे० उदी० मिच्छ०-रदि० णिय० तं तु चउट्ठा० । सोलसक०-तिण्णिवे०-भय-दुगुंछ० सिया तंतु चउट्ठा० । एवं रदीए । एवमरदिसोगाणं । $२४७. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सम्यक्त्व, बारह कषाय और सात नोकृषायोंको मुख्य कर सन्निकर्षका भंग आनत कल्पके समान है। इसी प्रकार अनाहारक मागेणा तक जानना चाहिए। $२४८. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्वकी जघन्य प्रदेश उदीरणा करनेवाला जीव सोलह कषाय और नौ नोकषायोंका कदाचित् उदीरक हैं और कदाचित अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो कदाचित् जघन्य प्रदेश उदीरक है और कदाचित् अजघन्य प्रदेश उदीरक है। यदि अजघन्य प्रदेश उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा असंख्यात भाग अधिक, संख्यात भाग अधिक, संख्यात गुणी अधिक और असंख्यात गुणी अधिक इस प्रकार चतुःस्थान पतित अजघन्य प्रदेश उदीरणा करता है। $२४९. सम्यक्त्वकी जघन्य प्रदेश उदीरणा करनेवाला जीव बारह कषाय और नौ नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो कदाचित् जघन्य प्रदेश उदीरक है और कदाचित् अजघन्य प्रदेश उदीरक है। यदि अजघन्य प्रदेश उदीरक है तो जधन्यकी अपेक्षा असंख्यात गुणी अधिक अजघन्य प्रदेश उदीरणा करता है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। $२५० अनन्तानुबन्धी क्रोधकी जघन्य प्रदेश उदीरणा करनेवाला जीव मिथ्यात्व और तीन क्रोधोंका नियमसे उदीरक है। जो कदाचित जघन्य प्रदेश उदीरक है और कदाचित अजघन्य प्रदेश उदीरक है। यदि अजघन्य प्रदेश उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा चतुःस्थान पतित अजघन्य प्रदेश उदीरणा कहता है। नौ नोकपायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है। यदि उदीरक है तो कदाचित् जघन्य प्रदेश उदीरक है और कदाचित् अजघन्य प्रदेश उदीरक है। यदि अजघन्य प्रदेश उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा चतुःस्थान पतित अजघन्य प्रदेश उदीरणा करता है। इसी प्रकार पन्द्रह कषायोंको मुख्यकर सन्निकर्षे जानना चाहिए। २५१. हास्यकी जघन्य प्रदेश उदीरणा करनेवाला जीव मिथ्यात्व और रतिका नियमसे उदीरक है, जो कदाचित जघन्य प्रदेश उदीरक है और कदाचित अजघन्य प्रदेश उद है । यदि अजघन्य प्रदेश उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा चतुःस्थान पतित अजघन्य प्रदेश उदीरणा करता है । सोलह कषाय, तीन वेद, भय और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो कदाचित् जघन्य प्रदेश उदीरक है और कदाचित अजघन्य प्रदेश उदीरक है। यदि अजघन्य प्रदेश उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा चतु: Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वैदगो ७ २५२. भय० जह० पदे० उदी० मिच्छ० णिय० तं तु चउट्ठा० । सोलसक०अणोक० सिया तं तु चउट्ठा० । एवं दुगुछ० । २८६ $ २५३: इत्थवे ० जह० पदे० उदी० मिच्छ० भयभंगो । सोलसक० - छण्णोक ० सिया तं तु चउट्ठा० । एवं दोण्हं वेदाणं । 1 $ २५४. आदेसेण णेरइय० ओघं । णवरि णव सयवेदो धुवो कायव्वो । एवं सव्वणिरय• । तिरिक्खेसु ओघं । एवं पंचिदियतिरिक्खतिये | णवरि पञ्जत्तएसु इत्थवेदो । जोणिणी इत्थवेदो धुवो कायव्वो । पंचिदियतिरिक्खअपञ्ज० - मणुस अपज० ओघं । णवरि सम्म० - सम्मामि ० - इत्थवे ० - पुरिसवे ० णत्थि । णव स० धुवो कायव्वो । मणुसतिये पंचि०तिरिक्खतियभंगो । देवेसु ओघं । णवरि णवस० णत्थि । एवं भवणादि जाव सोहम्मा त्ति । सणकुमारादि जाव णवगेवजाति एवं चैव । णवरि पुरिसवेदो धुवो कायव्वो । I 1 स्थानपतित अजघन्य प्रदेश उदीरणा करता है । इसी प्रकार रतिको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार अरति और शोकको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए । $ २५२. भयकी जघन्य प्रदेश उदीरणा करनेवाला जीव मिध्यात्वका नियमसे उदीरक है, जो कदाचित जघन्य प्रद ेश उदीरक है और कदाचित अजघन्य प्रद ेश उदीरक है। यदि अजघन्य प्रदेश उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा चतुःस्थानपतित अजघन्य प्रदेश उदीरणा करता है । सोलह कषाय और आठ नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो कदाचित् जघन्य प्रदेश उदीरक है और कदाचित् अजघन्य प्रदेश उदीरक है । यदि अजघन्य प्रदेश उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा चतुःस्थानपतित अजघन्य प्रद ेश उदीरणा करता है । इसी प्रकार जुगुप्साको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए । $ २५३. स्त्रीवेदकी जघन्य प्रदेश उदीरणा करनेवालेके मिथ्यात्वका सन्निकर्ष भयको मुख्य कर कहे गये मिध्यात्वके सन्निकर्ष के समान है। सोलह कषाय और छह नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो कदाचित् जघन्य प्रदेश उदीरक है और कदाचित् अजघन्य प्रदेश उदीरक है। यदि अजघन्य प्रदेश उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा चतुःस्थानपतित अजघन्य प्रदेश उदीरणा करता है । इसी प्रकार दो वेदोंको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए । $ २५४. आदेशसे नारकियोंमें ओघके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि नपुंसक - वेदको ध्रुव करना चाहिए । इसी प्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए । तिर्यञ्चों में ओघके समान भंग है । इसी प्रकार पचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्च पर्याप्तकों में स्त्रीवेद नहीं है तथा तिर्यञ्च योनिनियों में स्त्रीवेद ध्रुव करना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में ओघके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि इनके सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उदय उदीरणा नहीं होती । नपुंसक वेद ध्रुव करना चाहिए । मनुष्यत्रिक में पञ्च न्द्रिय तिर्यञ्चन्त्रिकके समान भंग है । देवोंमें ओघके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि इनके नपुंसकवेदकी उदय उदीरणा नहीं Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए परिमाणं २८७ २५५. अणुद्दिसादि सव्वट्ठा त्ति सम्म० जह० पदे० उदी० बारसक० - छण्णोक० सिया तं तु चट्टा० । पुरिसवेद० णियमा तं तु चउट्ठाणप० । एवं पुरिसवेद० । $ २५६. अपच्चक्खाणकोध० जह० पदे० उदी० सम्म० दोण्डं कोधाणं पुरिसवेद० णिय० तं तु चउट्ठाणप० । छण्णोक० सिया तं तु चउट्ठा० । एवमेक्कारसक० । $ २५७. हस्सस्स जह० पदे० उदीरें० सम्म० - पुरिसवे ० - रदि० निय० तं तु चउट्ठा० । बारसक० -भय-दुगुंछ ० सिया तं तु चउट्ठा० । एवं रदीए। एवमरदि-सोग० । २५८. भयस्स जह० पदे० उदी० सम्म० - पुरिसवे० णिय० तं तु चउट्ठा० । होती । इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर सौधर्म - ऐशान कल्पतक के देवोंमें जानना चाहिए । सनत्कुमार कल्पसे लेकर नौ प्रवेयकतकके देवोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें पुरुषवेदको ध्रुव करना चाहिए । । 1 $ २५५. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवोंमें सम्यक्वकी जघन्य प्रदेश उदीरणा करनेवाला उक्त देव बारह कषाय और छह नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है | यदि उदीरक है तो कदाचित् जघन्य प्रदेश उदीरक है और कदाचित् अजघन्य प्रदेश उदीरक है । यदि अजघन्य प्रदेश उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा चतुःस्थान पतित अजघन्य प्रदेश उदीरणा करता है । पुरुषवेदका नियमसे उदीरक है, जो कदाचित् जघन्य प्रदेश उदीरक है और कदाचित् अजघन्य प्रदेश उदीरक है। यदि अजघन्य प्रदेश उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा चतुःस्थानपतित अजघन्य प्रदेश उदीरणा करता है । इसी प्रकार पुरुषवेदको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए । $ २५६. अप्रत्याख्यान क्रोधकी जघन्य प्रदेश उदीरणा करनेवाला उक्त देव सम्यक्त्व, दो क्रोध और पुरुषवेदका नियमसे उदीरक है, जो कदाचित् जघन्य प्रदेश उदीरक है और कदाचित् अजघन्य प्रदेश उदीरक है । यदि अजघन्य प्रदेश उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा चतुःस्थान पतित अजघन्य प्रदेश उदीरणा करता है। छह नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो कदाचित् जघन्य प्रदेश उदीरक है और कदाचित् अजघन्य प्रदेश उदीरक है। यदि अजघन्य प्रदेश उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा चतुःस्थानपतित अजघन्य प्रदेश उदीरणा करता है । इसी प्रकार ग्यारह कषायोंको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए । $ २५७. हास्यकी जघन्य प्रदेश उदीरणा करनेवाला उक्त देव सम्यक्त्व, पुरुषवेद और रतिका नियमसे उदीरक है, जो कदाचित् जघन्य प्रदेश उदीरक है और कदाचित् अजघन्य प्रदेश उदीरक है । यदि अजघन्य प्रदेश उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा चतुःस्थानपतित अजघन्य प्रदेश उदीरणा करता है । बारह कषाय, भय और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो कदाचित् जघन्य प्रदेश उदीरक है और कदाचित् अजघन्य प्रदेश उदीरक है । यदि अजघन्य प्रदेश उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा चतुःस्थानपतित अजघन्य प्रदेश उदीरणा करता है । इसी प्रकार रतिको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार अरति और शोकको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए । $ २५८. भवकी जघन्य प्रदेश उदीरणा करनेवाला उक्त देव सम्यक्त्व और पुरुष वेदका नियमसे उदीरक है, जो कदाचित् जघन्य प्रदेश उदीरक है और कदाचित् अजघन्य प्रदेश दोरक है । यदि अजघन्य प्रदेश उदीरक है, तो जघन्यकी अपेक्षा चतुःस्थान पतित अजघन्य Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे बारसक० - पंचणोक० सिया तं तु चउट्ठा० । एवं दुगुंछा । एवं जाव० । A २५९. भावो सव्वत्थ ओदइओ भावो । [ वेदगो ७ * अप्पाबहुं । $ २६०. सुगममेदमहियार संभालणवकं । * सव्वत्थोवा मिच्छत्तस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा । $ २६१. कुदो ? संजमाहिमुहचरिमसमयमिच्छाइट्टिणा असंखे०लोगपडिभागेण उदीरिददव्ववग्गणादो ? * अनंताणुबंधीणमुक्कस्सिया पदेसुदीरणा अण्णदरा तुल्ला संखेज्जगुणा । $ २६२. कुदो ? मिच्छत्तुदीरणादो अर्णताणुबंधीणमण्णदरोदीरणाए. उदयपडिभागेण थोवृणचउग्गुणत्वलंभादो | तं जहा - अनंताणुबंधिकोहा दीणमण्णदरस्स उदये संते से कसाया तिणि वि त्थिउकसंक्रमेणुदयं पविसंति त्तिमिच्छत्तुदयादो अणंताणुबंधिउदयो थोवूणचउग्गुणो होड़, पयडिविसेसवसेण तत्थ थोवूणभावदंसणादो । एवमुदयो होदिति कट्ट उदीरणा वि तप्पडिभागेणेव होदि ति वेत्तव्वा । एत्थ चोदओ भइ - होउ णाम उदयी चउग्गुणो, थिउकसंकमवलेण तस्स तहाभावोववत्तीदो। ण उदीरणाए तहाभावसंभवो, एगुदयपयडिं मोत्तूण सेसाणमुदीरणाए अचंताभावदंसणादो त ? सच्चमेदं, एक्कादो चैत्र वेदिजमाणपय डिउदीरणा होदि त्ति इच्छिजमाण प्रदेश उदीरणा करता है। बारह कषाय और पाँच नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो कदाचित् जघन्य प्रदेश उदीरक है और कदाचित् अजघन्य प्रदेश उदीरक है । यदि अजघन्य प्रदेश उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा चतुःस्थान पतित अजघन्य प्रदेश उदीरणा करता है । इसी प्रकार जुगुप्साको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । $ २५९. भाव की अपेक्षा सर्वत्र औदयिक भाव है । * अल्पबहुत्वका अधिकार है । $ २६०. अधिकारकी सम्हाल करनेवाला यह सूत्रवचन सुगम है । * मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा सबसे स्तोक है । $ २६१. क्योंकि संयमके अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती मिध्यादृष्टिके द्वारा असंख्यात लोक प्रतिभागरूपसे उदीरित द्रव्यका ग्रहण होता है । * उससे अनन्तानुबन्धियोंमें से अन्यतर प्रकृतिको उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा परस्परमें तुल्य होकर संख्यातगुणी है । $ २६२. क्योंकि मिथ्यात्वकी उदीरणासे अनन्तानुबन्धियोंमेंसे अन्यतर कषायकी उदीरणा उदयप्रतिभागके अनुसार कुछ कम चौगुनी उपलब्ध होती है । यथा - अनन्तानुबन्धी क्रोधादिकमेंसे अन्यतरका उदय होने पर शेप तीनों ही कषाय स्तिवुक संक्रमणके द्वारा उदयमें प्रवेश Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए अप्पाबहुअं २८९ चादो । किंतु सा एका पयडी उदीरिजमाणा उदयपडिभागेणुदीरिजदि ति भणामो । कुंदो ? उदयानुसारेणेव सव्वत्थोदीरणाए पवृत्तिअब्भुवगमादो । * सम्मामिच्छत्तमुक्कस्सिया पदेसुदीरणा असंखेज्जगुणा । $ २६३. कुदो ? परिणामपाहम्मादो । तं जहा - अनंताणुबंधीणं मिच्छाइट्ठिविसोही उक्कस्सिया पदेसुदीरणा जादा । सम्मामिच्छत्तस्स पुण तव्विसोहीदो अनंतगुणसम्मामिच्छाट्ठिविसोहीए उक्कस्सिया पदेसुदीरणा गहिदा । एदेण कारणेण पुव्विल्लादो एदिस्से असंखेज्जगुणत्तं जादं । * अपच्चक्खाणचउक्कस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा अण्णदरा तुल्ला असंखेज्जगुणा । $ २६४. एत्थ वि परिणाममाहप्पमेवासंखेजगुणत्ते कारणमवगंतव्वं, पुव्विल्लसम्मामिच्छाइट्ठिविसोही दो अनंतगुणसंजमाहिमुहचरिमसमयासंजदसम्माइट्ठिसव्वुक्कस्सविसोहीए अपच्चक्खाणकसायाणमुक्कस्ससामित्तदंसणादो । कर जाती हैं, इसलिए मिथ्यात्वके उदयसे अनन्तानुबन्धीका उदय कुछ कम चौगुना होता है, क्योंकि प्रकृतिविशेष वश वहाँ कुछ ऊनपना देखा जाता है । इस प्रकारका उदय है ऐसा समझ कर उदीरणा भी उस प्रतिभागके अनुसार ही होती है ऐसा ग्रहण करना चाहिए । शंका—यहाँ पर शंकाकार कहता है कि उदय चौगुना होओ, क्योंकि स्तिवुक संक्रमके बलसे वह उस प्रकार बन जाता है । परन्तु उदीरणाका उस प्रकारसे बनना सम्भव नहीं है, क्योंकि एक उदय प्रकृतिके सिवाय शेष प्रकृतियोंकी उदीरणाका अत्यन्त अभाव देखा जाता है ? समाधान — यह कहना सत्य है कि एक ही वेदी जाननेवाली प्रकृतिक उद होती है यह स्वीकार करते हैं । किन्तु वह एक प्रकृति उदीर्यमाण होती हुई उदयप्रतिभाग अनुसार उदीरित होती है ऐसा हम कहते हैं, क्योंकि उदयके अनुसार ही सर्वत्र उदीरणाकी प्रवृत्ति स्वीकार की गई है । * उससे सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा असंख्यातगुणी है । $ २६३. क्योंकि इसका कारण परिणाममाहात्म्य है । यथा – मिथ्यादृष्टिकी विशुद्धिके कारण अनन्तानुबन्धियोंकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा हुई है । परन्तु उस विशुद्धिसे सम्यग्मिथ्यादृष्टिकी अनन्तगुणी विशुद्धिवश सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा ग्रहण की गई । इस कारण से पूर्वकी उदीरणासे यह असंख्यातगुणी हो जाती है । * उससे अप्रत्याख्यान चतुष्कमेंसे अन्यतर प्रकृतिकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा परस्पर तुल्य होकर असंख्यातगुणी है । $ २६४. यहाँ भी परिणाममाहात्म्य ही असंख्यातगुणे होने में कारण जानना चाहिए, क्योंकि पूर्वकी सम्यग्मिध्यादृष्टिकी विशुद्धिसे संयमके अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती असंयतसम्यग्दृष्टिकी अनन्तगुणी सर्वोत्कृष्ट विशुद्धिवश अप्रत्याख्यान कषायोंका उत्कृष्ट स्वामित्व देखा जाता है । ३७ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ ... * पञ्चक्खाणचउक्कस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा अण्णदरा तुल्ला असंखेजगुणा। $ २६५. किं कारणं ? असंजदसम्माइट्टिविसोहीदो अणंतगुणसंजमाहिमुहचरिमसमयसंजदासंजदुक्कम्सविसोहीए पञ्चक्खाणकसायाणमुक्कस्सपदेसुदीरणासामित्तपडिलंभादो। * सम्मत्तस्स उक्कस्सिया पदेसु दीरणा असंखेजगुणा । $ २६६. कुदो ? असंखेजसमयपबद्धपमाणत्तादो । * भय-दुगंछाणमुक्कस्सिया पदेसुदीरणा तुल्ला अणंतगुणा । $ २६७. कुदो ? देसघादिपडिभागत्तादो । * हस्स-सोगाणमुक्कस्सिया पदेस दीरणा विसेसाहिया। । 5२६८. कुदो ? पयडिविसेसमस्सिऊण विसेसाहियत्तदंसणादो । तं जहा-भयस्स ताव उक्कस्सपदेसुदीरणाए इच्छिजमाणाए दुगुंछाए अवेदगो कायव्वो, दुगुंछाए वि उक्कस्सपदेसुदीरणाए कीरमाणाए भयस्स अणुदीरगो कायव्यो, दोण्हं पि दव्वमेग8 कादूण भयदुगुंछाणमुक्कस्सपदेसुदीरणागहणटुं । संपहि हस्स-रदीणमुक्कस्सपदेसुदीरणाए णिरुद्धाए भय-दुगुंछाणं दोण्हं पि अणुदयं कादूण गेण्हियव्वं । एवमरदि-सोगाणं पि उक्कस्समावे * उससे प्रत्याख्यानचतुष्कमेंसे अन्यतर प्रकृतिकी प्रकृष्ट प्रदेश उदीरणा परस्पर तुल्य होकर असंख्यातगुणी है। $ २६५. क्योंकि असंयतसम्यग्दृष्टिकी विशुद्धिसे संयमके अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती संयतासंयतकी अनन्तगुणी उत्कृष्ट विशुद्धिवश प्रत्याख्यान कषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका स्वामित्व पाया जाता है। * उससे सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा असंख्यातगुणी है । $ २६६. क्योंकि वह असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण है । *उससे भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा परस्पर तुल्य होकर अनन्तगणी है। $ २६७. क्योंकि इसका कारण देशघातिप्रतिभागपना है। * उससे हास्य और शोककी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा विशेष अधिक है। $ २६८. क्योंकि प्रकृतिविशेषका आश्रय कर विशेषाधिकपना देखा जाता है। यथा-दोनोंके ही द्रव्यको एकत्रित कर भय और जुगुप्साके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाके ग्रहण करनेके लिए सर्व प्रथम भयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा इच्छित होनेपर जुगुप्साका अवेदक करना चाहिए, जुगुप्साकी भी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करने पर भयका अनुदीरक करना चाहिए । अब हास्य और रतिकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाके रहने पर भय और जुगुप्सा दोनोंका ही अनुदय करके ग्रहण करना चाहिए। इसी प्रकार अरति और शोकके भी उत्कृष्ट करनेपर भय और जुगुप्साका अनुदय कहना चाहिए। और ऐसा होनेपर हास्य और रतिका उदय होनेपर Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९१ गा०६२] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए अप्पाबहुअं कीरमाणे भय-दुगुंछाणमणुदयो वत्तव्यो । एवं च संते हस्स-रदीणमुदए संजादे सोगदव्वेण सह दुगुंछादव्वं हस्सस्स थिवुक्कसंकमेण गच्छदि । अरदिदव्वेण सह भयदव्वं रदीए आगच्छदि । एवमरदिसोगाणं पि उदये संजादे हस्सदव्वं दुगुछादव्वं च सोगस्सागच्छदि । रदिदव्वं भयदव्वं च अरदीए आगच्छइ । एवमागच्छदि त्ति कादूण पुग्विल्लदुगुछदव्वं संपहियदुगुंछदव्वं च दो वि सरिसाणि भवति । पुव्विल्लभयदव्वादो वुण संपहियहस्ससोगदन्चमावलि० असंखे०भागपडिभागियपयडिविसेसदव्वेणब्भहियं होइ, तेण भय-दुगुछाणमुदीरणादो हस्स-सोगाणमुदीरणा अण्णदरा सत्थाणेण समाणा होदूण विसेसाहिया होदि त्ति भणिदा। * रदि-अरदीणमुक्कस्सिया पदेस दोरणा विसेसाहिया ।। $२६९. केत्तियमेत्तेण ? पयडिविसेसदव्यमेत्तेण । तं कधं ? हस्स-सोगदव्वादो रदि-अरदिदव्वं पयडिविसेसेणावलि. असंखे०भागपडिभागेणब्भहियं होदि। पुणो दुगुछादव्वादो भयदव्यमावलि. असंखेजभागपडिभागिएण पयडिविसेसेणब्भहियं होइ । तदो दोहिं आवलिएहिं असंखेजभागपडिभागियदव्वेहिं विसेसाहियत्तमेत्थ दट्टव्वं । शोकके द्रव्यके साथ जुगुप्साका द्रव्य हास्यको स्तिवुकसंक्रमण द्वारा प्राप्त होता है और अरति. के द्रव्य के साथ भयका द्रव्य रतिको प्राप्त होता है। तथा इसी प्रकार अरति और शोकके भी उदय होनेपर हास्यका द्रव्य और जुगुप्साका द्रव्य शोकको प्राप्त होता है और रतिका द्रव्य तथा भयका द्रव्य अरतिको प्राप्त होता है। इस प्रकार प्राप्त होता है ऐसा जानकर पहलेका जुगुप्साका द्रव्य और वर्तमान जुगुप्साका द्रव्य दोनों भो सदृश होते हैं। किन्तु पहलेके भयके द्रव्यसे वर्तमान हास्य और शोकका द्रव्य आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण प्रतिभागसे प्राप्त प्रकृति विशेषके द्रव्यसे अधिक होता है, इसलिए भय और जुगुप्साकी उदीरणासे हास्य और शोककी अन्यतर उदीरणा स्वस्थानकी अपेक्षा समान होकर विशेष अधिक होती है यह कहा है। * उससे रति और अरतिकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा विशेष अधिक है । $ २६९. शंका-कितनी अधिक है ? सामाधान-प्रकृति विशेष द्रव्यमात्र अधिक है। शंका-वह कैसे ? समाधान-हास्य और शोकके द्रव्यसे रति और अरतिका द्रव्य प्रकृति विशेष होने के कारण आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण प्रतिभाग द्वारा जितना प्राप्त हो उतना अधिक है । तथा जुगुप्साके द्रव्यसे भयका द्रव्य प्रकृति विशेष होनेके कारण आवलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण प्रतिभाग द्वारा जितना प्राप्त हो उतना अधिक है। इसलिए दो आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण प्रतिभागों द्वारा जितना द्रव्य प्राप्त हो उतना विशेष अधिक है ऐसा यहाँ जानना चाहिए। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ * इत्थि-णवु ंसयवेदाणं उक्कस्सिया' पदेसुदीरणा असंखेज्जगुणा । $ २७०. कुदो ? असंखेजसमयपबद्धपमाणत्तादो । णेदमसिद्ध अणियट्टिअद्धाए संखेजे भागे गंतूण पुणो एगभागो अस्थि त्ति दोन्हं पि अष्पष्पणो उदएण चढिदस्स पढमदीए समयाहियावलियमेत्तसे साए समाणाणियट्टिकरणपरिणामेण सरिसदव्वमोकड्डियूण तत्थुदीरिजमाणासंखेजसमयपबद्धे घेत्तण सामित्तविहाणण्णहाणुववत्तीए सिद्धादो | २९२ * पुरिसवेदे उक्कस्सिया पदेसुदीरणा असंखेज्जगुणा । $ २७१. किं कारणं ? इन्थि - णत्रु सयवेदाण मुक्कस्सपदे सुदीरणासामित्तविसयादो अंतोमुहुत्तमुवरिं गंत्तूण समयाहियावलियमेत पुरिस वेदपढमट्ठिदीए सेसाए तत्थुदीरिजमाणासंखेजसमयपबद्धाणमिह ग्गहणादो । * कोहसंजलणस्स उक्कस्सिया पदेस दीरणा असंखेज्जगुणा । $ २७२. किं कारणं १ पुरिसवेदसामित्सुद्दे सादो अंतो मुहुत्तमुवरि गंतूण कोहसंजलण पढी समय हियावलियमेत्तसेसाए पडिलद्धकस्सभावत्तादो । * माणसंजलणस्स उक्कस्सिया पदेस दीरणा असंखेज्जगुणा । $ २७३. सुगमं । * उससे स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा असंख्यातगुणी है $ २७०. क्योंकि वह असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण है । यह असिद्ध नहीं है, क्योंकि अनिवृत्तिकरण के काल में संख्यात भाग जानेपर जब एक भाग शेष रहता है तब अपने-अपने उदयसे चढ़े हुए जीवके दोनोंकी भी प्रथम स्थिति में एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण काल शेष रहने पर अनिवृत्तिकरणके सदृश परिणाम द्वारा सदृश द्रव्यका अपकर्षण कर वहाँ उदीर्यमाण असंख्यात समयप्रबद्धोंको ग्रहण कर स्वामित्वका विधान अन्यथा बन नहीं सकनेसे वह सिद्ध है | * उससे पुरुषवेदकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा असंख्यातगुणी है । $ २७१. क्योंकि स्त्रीवेद और नपुंसक वेदके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाविषयक स्वामित्व के विषयसे अन्तर्मुहूर्त ऊपर जा कर पुरुषवेदकी प्रथम स्थिति में एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण काल शेष रहने पर वहाँ उदीर्यमाण असंख्यात समयप्रबद्धों का यहाँ ग्रहण किया है । * उससे क्रोधसंज्वलनकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा असंख्यातगुणी है । $ २७२. क्योंकि पुरुषवेदके स्वामित्व विषयसे अन्तर्मुहूर्त ऊपर जाकर क्रोधसंज्वलनकी प्रथम स्थितिमें एक समय अधिक एक आवलि काल शेष रहने पर उसका उत्कृष्टपना उपलब्ध है। * उससे मानसंज्वलनकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा असंख्यातगुणी है । $ २७३. यह सूत्र सुगम है । १. आ०प्रतौ वेदउक्कसिया इति पाठः । Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए अप्पाबहुअं २९३ * मायासंजलणस्स उक्कस्सिया पदेस दीरणा असंखेजगुणा । $ २७४. सुगमं । * लोहसंजणस्स उक्कस्सिया पदेस दीरणा असंखेजगुणा। __ ओघो समत्तो। ६ २७५. एवमोघं समाणिय संपहि आदेसपरूवणट्ठमुवरिमं सुत्तपबंधमाह* णिरयगदीए सव्वत्थोवा मिच्छत्तस्स उक्कस्सिया पदेस दीरणा । २७६. कुदो ? सम्मत्ताहिमुहमिच्छाइद्विणा उदीरिज्जमाणासंखेजलोगपडिमागियदव्वस्स गहणादो। * अणंताणुबंधीणमुक्कस्सिया पदेस दीरणा अण्णदरा संखेजगुणा । ६ २७७. कुदो ? एगासंखेजलोगपडिभागियमिच्छत्तदव्यादो चदुण्हमसंखेजलोगपडिभागियदव्वाणं थोवूणचउग्गुणत्तदंसणादो। एत्थ चोदगो भणइ–उवसमसम्मत्ताहिमुहसमयाहियावलियमिच्छाइट्ठिम्मि मिच्छत्तस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा जादा । अणंताणुबंधीणं पुण मिच्छत्तपढमद्विदीए चरिमसमयम्मि उक्कस्ससामित्तं जादं। तहा च संते मिच्छत्तक्कस्सपदेसुदीरणादो अणंताणुबंधीणमुक्कस्सपदेसुदीरणाए असंखेजगुणाए होदव्यमिदि ? एत्थ परिहारो वुच्चदे-सच्चमेदं, तहाविह * उससे मायासंज्वलनकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा असंख्यातगुणी है । ६२७४. यह सूत्र सुगम है। * उससे लोभसंज्वलनकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा असंख्यातगुणी है। इस प्रकार ओघ अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। ६ २७५. इस प्रकार ओघको समाप्त कर अब आदेशका कथन करनेके लिए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं* * नरकगतिमें मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा सबसे स्तोक है । $ २७६. क्योंकि सम्यक्त्वके अभिमुख हुए. मिथ्यादृष्टिके द्वारा उदीर्यमाण, असंख्यात लोकका भाग देनेपर, एक भागप्रमाण द्रव्यको यहाँ ग्रहण किया है। * उससे अनन्तानुबन्धियोंमेंसे अन्यतर प्रकृतिकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा ___ संख्यातगुणी है। $ २७७.क्योंकिअसंख्यात लोकका भाग देनेपर एक भागप्रमाण मिथ्यात्वके द्रव्यसे असंख्यात लोकका भाग देने पर चार भाग प्रमाण द्रव्य कुछ कम चौगुना देखा जाता है। शंका-यहाँ पर शंकाकार कहता है कि उपशमसम्यक्त्वके अभिमुख हुए मिथ्यादृष्टि के एक समय अधिक एक आवलि काल शेष रहनेपर मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा हुई है, परन्तु अनन्तानुबन्धियोंका मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट स्वामित्व हुआ है। और ऐसा होनेपर मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणासे अनन्तानुबन्धियोंकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा असंख्यातगुणी होनी चाहिए ? ~ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वैदगो ७ सामित्तावलंबणे असंखेजगुणत्तन्भुवगमादो । किंतु उवसमसम्मत्ताहिमुहं मोत्तूण वेदयसम्मत्ताहि मुहमिच्छा इड्डिचरिमसमए मिच्छत्ताणताणु वंधीण मक्कमेण सामित्तं होदि ति एदेणाहिप्पारण संखेजगुणत्तमेदं सुत्तयारेण पदुप्पाइदं तदो ण दोसो त्ति | उच्चारणाहिप्पाएण पुण णियमा असंखेज्जगुणेण होदव्वं, तत्थ सामित्त मेददंसणादो तदनुसारेणेव तत्थ सण्णियासविहाणादो च । तदो उच्चारणासामित्तं मोचून सुत्तसामित्तमण्णारिस घेत्तूण पयदप्पा बहु असमत्थणमेदं कायव्यमिदि ण किं चि विरुद्धं २९४ * सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सिया पदेस दीरणा असंखेज्जगुणा । $ २७८. कुदो ? सम्मत्ताहि मुहचरिमसमयमिच्छाइ सिन्धुक्कस्सवि सोही दो अनंतगुणसम्मत्ताहि मुहसम्मामिच्छाइट्ठिचरिमविसोहीए पडिलद्ध कस्सभावत्तादो । * अपच्चक्खाणकसायाणमुक्कस्सिया पदेस दीरणा अण्णदरा असंखेज्जगुणा । $ २७९. कुदो ? सम्मामिच्छा इट्ठिविसोहीदो अनंतगुण सत्थान सम्माइट्टिसव्बुक्कस्सविसोहीए अपच्चक्खाण कसायाणमुक्कस्ससामित्तावलंबणादो | * पच्चक्खाणकसायाणमुक्कस्सिया पदेस दीरणा अण्णदरा विसेसाहिया । समाधान- यहाँ उक्त शंकाका समाधान करते हैं - यह सत्य है, क्योंकि उस प्रकारके स्वामित्व अवलम्बन करनेपर असंख्यातगुणत्व स्वीकार किया है। किन्तु उपशमसम्यक्त्वके अभिमुख हुए जीवको छोड़कर वेदकसम्यक्त्वके अभिमुख हुए मिथ्यादृष्टिके अन्तिम समयमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धियोंका युगपत् स्वामित्व होता है इस प्रकार इस अभिप्राय से सूत्रकारने यह स्वामित्व संख्यातगुणा कहा है, इसलिए कोई दोष नहीं है । उच्चारणाके अभिप्राय तो नियमसे असंख्यातगुणा होना चाहिए, क्योंकि वहाँ स्वामित्वभेद देखा जाता है और उसके अनुसार हीं वहाँ सन्निकर्षका विधान किया है। इसलिए उच्चारणाके अनुसार स्वामित्वको छोड़कर अन्य आर्षमें प्रतिपादित सूत्रके अनुसार स्वामित्वको ग्रहण कर इस प्रकृत अल्पबहुत्वका समर्थन करना चाहिए, इसलिए कुछ भी विरुद्ध नहीं है । * उससे सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा असंख्यातगुणी है । $ २७८. क्योंकि सम्यक्त्वके अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिकी सबसे उत्कृष्ट विशुद्धिसे सम्यक्त्वके अभिमुख हुए सम्यग्मिथ्यादृष्टिकी अनन्तगुणी अन्तिम विशुद्धिद्वारा यह उत्कृष्टपना प्राप्त होता है । * उससे अप्रत्याख्यानकषायोंमेंसे अन्यतर प्रकृतिकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा असंख्यातगुणी है । $ २७९ क्योंकि सम्यग्मिध्यादृष्टिकी विशुद्धिसे स्वस्थान सम्यग्दृष्टिकी अनन्तगुणी सर्वोत्कृष्ट विशुद्धिद्वारा अप्रत्याख्यान कषायोंके उत्कृष्ट स्वामित्वका अवलम्बन लिया है। * उससे प्रत्याख्यानकषायोंमेंसे अन्यतर प्रकृतिकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा विशेष अधिक है । Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए अप्पाबहुअं २८०. सामित्त मेदाभावे वि पयडिविसेसमस्सियूण विसेसाहियत्तसिद्धीए निव्वाहमुवलंभादो | * सम्मत्तस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा असंखेज्जगुणा । $ २८१. एत्थ कारण मोघसिद्धं । * णवुंसयवेदस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा अनंतगुणा । $ २८२. कुदो १ देसघादिमाहप्पादो । * भय-दुगुंछाणमुक्कस्सिया पदेसुदीरणा विसेसाहिया । २९५ २८३. तं जहा - णिरयगदीए तिन्हं वेदाण मसंखेज लोगपडिभागियं दव्वं नर्बु सयवेदसरू वेणुदीरिजमाणं घेतूण एगधुवपयडिपमाणमुदोरणदव्वं होदि । भयदुर्गुछाणं पुण पादेवकं धुवपयडिपमाण मुदीरणदव्यमुवलंभइ, तेसिं धुवबंधित्तादो । किंतु वेदभागं पेक्खियूण पयडिविसेसेण विसेसहीणं होदि । होंतं पि भय-दुगु छाणं दोन्हं पि दव्वं तदण्णदरसरूवेणुदीरिज माणमुवलब्भदे, थिबुक्कसंकमवसेण तेसिमण्णोण्णाणुष्पवेसं कादृणुक्कस्ससामित्तावलंबणादो । एवं लब्भदित्ति काढूण जदि वेदभागो तत्थेगदव्वं पेक्खियूण पयडिविसेसेणन्महिओ तो दोन्हमव्यो गाढदव्य समुदायादो विसेसहीणां चैत्र होइ, किंचूणद्धमेतदव्वेण परिहीणत्तदंसणादो । तदो किंचूणद्गुणपमाणत्तादो विसेसाहियमेदं दव्यमिदि सिद्धं । $ २८०. क्योंकि स्वामित्वका भेद नहीं होने पर भी प्रकृतिविशेषका आश्रय कर विशेषाधिकपनेकी सिद्धि निर्बाध पाई जाती है । * उससे सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा असंख्यातगुणी है । $ २८१. यहाँ पर कारण ओघसिद्ध है । * उससे नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा अनन्तगुणी है । $ २८२. क्योंकि देशघातिके माहात्म्यवश प्रकृत उदीरणा अनन्तगुणी है । * उससे भय जुगुप्साकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा विशेष अधिक है । § २८३. यथा—नरकगतिमें असंख्यात लोकका भाग देने पर तीन वेदोंका जो द्रव्य प्राप्त हो उसे नपुंसक वेदरूपसे उदीर्यमाण ग्रहण कर एक ध्रुव प्रकृतिप्रमाण उदीरणा द्रव्य है । परन्तु भय और जुगुप्सामें से प्रत्येकका ध्रुव प्रकृतिप्रमाण उदीरणा द्रव्य उपलब्ध होता है; क्योंकि ये दोनों प्रकृतियाँ ध्रुवबन्धी हैं । किन्तु वेदके भागको देखते हुए प्रकृतिविशेषके कारण विशेष ही है। ऐसा होते हुए भी भय और जुगुप्सा इन दोनोंका भी द्रव्य उनमें से किसी एकरूप से उदीर्यमाण उपलब्ध होता है, क्योंकि स्तिवुकसंक्रमके कारण उनका एक-दूसरे में प्रवेश कराकर उत्कृष्ट स्वामित्वका अवलम्बन लिया है। इस प्रकार प्राप्त होता है ऐसा जान कर यद्यपि वेद भाग वहाँ एक द्रव्यको देखते हुए प्रकृतिविशेषके कारण अभ्यधिक है तो भी दोनोंके प्रगाढ़ द्रव्यसमुदायसे विशेष हीन ही है, क्योंकि कुछ कम अर्धमात्र द्रव्यरूपसे हीनपना देखा जाता है । इसलिए कुछ कम दूने प्रमाणरूप होनेसे यह द्रव्य विशेषाधिक है यह सिद्ध हुआ । i Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ * हस्स-सोगाणमुक्कस्सिया पदेसुदीरणा विसेसाहिया । $ २८४. सुगममेदं, ओघम्मि परूविदकारणत्तादो। * रदि-अरदीणमुक्कस्सिया पदेसुदीरणा विसेसाहिया । $ २८५. एदं पि सुगम, पयडिविसेसवसेण विसेसाहियत्तसिद्धीए ओघम्मि समत्थियत्तादो। . * संजलणाणमुक्कस्सिया पदेस दीरणा संखेजगुणा । $ २८६. कुदो ? सादिरेयदोरूवमेत्तगुणगारदसणादो । तं जहा–रदि-अरदिदव्वमोघम्मि परूविदविहाणेण णोकसायभागं पंच खंडाणि कादूण तत्थ वेखंडपमाणं होदि, भयभागस्स वि तत्थ पवेसियत्तादो। संजलणदव्वं पुण णोकसायभागपमाणेण कीरमाणं पंचण्हं भागाणमुप्पत्तीए कारणं होदि, संपुण्णकसायभागपमाणत्तादो। तदो पुचिल्लबेखंडेहिंतो पंचण्हं खंडाण मेदेसि पयडिविसेसगन्माणं सादिरेयगुणत्तमिदि णिप्पडिवक्खसिद्धमेदं । एवं णिरयोघो समत्तो। $२८७. एवं पढमाए । बिदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव । गवरि सम्मा मिच्छत्तादो उवरि सम्मत्तस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा असंखेज्जगुणा । अपच्चक्खाण उक्कस्सिया पदेसुदीरणा असंखेजगुणा । पञ्चक्खाण० उक्कस्सिया पदेसुदीरणा विसेसाहिया । * उससे हास्य और शोककी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा विशेष अधिक है। $ २८४. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि ओघ प्ररूपणाके समय इसके कारणका कथन कर आये हैं। * उससे रति और अरतिकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा विशेष अधिक है। ६२८५. यह सूत्र भी सुगम है, क्योंकि प्रकृति विशेषके कारण विशेषाधिकपनेको सिद्धिका समर्थन ओघप्ररूपणाके समय कर आये हैं । ___* उससे संज्वलनोंकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा संख्यातगुणी है। $ २८६. क्योंकि साधिक दो संख्याप्रमाण गुणकार देखा जाता है। यथा-ओघमें कही गई विधिसे नोकषायके हिस्सेके पाँच भाग खण्ड करके वहाँ दो खण्डप्रमाण रति-अरतिका द्रव्य है, क्योंकि भयभागका भी उसमें प्रवेश करा दिया है। परन्तु संज्वलन द्रव्य नोकषायभागप्रमाणसे करने पर पाँच भागोंकी उत्पत्तिका कारण है, क्योंकि वह सम्पूर्ण कषाय भागप्रमाण है। इसलिए पहलेके दो खण्डोंसे प्रकृतिविशेषगर्भ इन पाँच खण्डोंका यह साधिक दुगुणपना चिना बाधाके सिद्ध है । इस प्रकार नरकगतिसम्बन्धी ओघप्ररूपणा समाप्त हुई। ___$ २८७. इसी प्रकार प्रथम पृथिवीमें जानना चाहिए। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवीतक इसी प्रकार प्ररूपणा है । इतनी विशेषता है कि सम्यमिथ्यात्वसे ऊपर सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा असंख्यातगुणी है। उससे अप्रत्याख्यानचतुष्कमें से अन्यतर प्रकृतिकी Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए अप्पाबहुअं २९७ णस० उक्कस्सिया पदेसुदीरणा अणंतगुणा । सेसं तं चेव । सेसगदीसु वि विसेससंभवं जाणियूण णेदव्वं । एवं जाव० । * एत्तो जहणिया। $२८८. एत्तो उवरि जहणिया पदेसुदीरणा अप्पाबहुअविसेसिदा कायव्वा त्ति पयदसंभालणवक्कमेदं । तस्स दुविहो णिद्देसो · ओघादेस देण । तत्थोघपरूवणा माह- . ___ * सव्वत्थोवा मिच्छत्तस्स जहणिया पदेस दीरणा। ___$ २८९. कुदो ? सबुक्कस्ससंकिलिट्ठमिच्छाइटिणा उदीरिजमाणासंग्वेजलोगपडि. भागियदव्यस्स गहणादो। __ * अपञ्चक्खाणकसायाणं जहणिया पदेसुदीरणा अण्णदरा तुल्ला संखेजगुणा। $२९०. कुदो ? सामित्तविषयमेदाभावे वि एगासंखेजलोगपडिभागियदव्वादो चदुण्हमसंखेजलोगपडिभागियदव्याणं समुदायस्स थोवूणचउग्गुणत्तुवलंभादो। * पचक्खाणकसायाणं जहणिया पद सुदीरणा अण्णदरा तुल्ला विसेसाहिया। की उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा असंख्यातगुणी है। उससे प्रत्याख्यानचतुष्कमेंसे अन्यतर प्रकृतिकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा विशेष अधिक है। उससे नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा अनन्तगुणी है। शेष अल्पबहुत्व वही है। शेष गतियोंमें भी जहाँ जो विशेष सम्भव हो उसे जान कर कथन करना चाहिए । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। * इससे आगे जघन्य अल्पबहुत्वका अधिकार है । $ २८८' इससे आगे अल्पबहुत्व विशेषण युक्त जघन्य प्रदेश उदीरणा करनी चाहिए इस प्रकार प्रकृतकी सम्हाल करनेवाला यह वाक्य है। ओघ और आदेशके भेदसे उसका निर्देश दो प्रकारका है। उनमेंसे ओघका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं * मिथ्यात्वकी जघन्य प्रदेश उदीरणा सबसे स्तोक है। $ २८९. क्योंकि सबसे उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाले मिथ्यादृष्टिके द्वारा असंख्यात लोकका भाग देने पर एक भाग प्रमाण उदीर्यमाण द्रव्यका यहाँ ग्रहण किया है। ____ * उससे अप्रत्याख्यान कषायोंमेंसे अन्यतर प्रकृतिकी जघन्य प्रदेश उदीरणा संख्यातगुणी है। ६२९० क्योंकि स्वामित्वविषयक भेदका अभाव होनेपर भी असंख्यात लोकका भाग देने पर लब्ध एक भाग प्रमाण द्रव्यसे असंख्यात लोकका भाग देनेपर लब्ध द्रव्योंका समुदाय कुछ कम चौगुना उपलब्ध होता है। * उससे प्रत्याख्यान कषायोंमेंसे अन्यतर प्रकृतिकी जघन्य प्रदेश उदीरणा परस्पर तुल्य होकर विशेष अधिक है। Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ २९१. सुगममेदं सामित्त मेदाभावे वि पयडिविसेसमस्सियूण विसेसाहियत्तुव भादो । * अणंताणुबंधीणं जहणिया पदसुदीरणा अण्णदरा तुल्ला विसेसाहिया । $ २९२. एत्थ वि कारणमणंतरपरूविदमेव दट्ठव्वं । * सम्मामिच्छत्तस्स जहरिणया पद सुदीरणा असंखेज्जगुणा । $ २९३. कुदो ? मिच्छाइट्ठिसंकिलेसं पेक्खियूणाणंतगुणहीण सम्मामिच्छाइट्ठिसंकिले सपरिणामेणुदीरिजमाणासंखेज लोगपडिभागियदव्वस्स गहणादो । २९८ * सम्मत्तस्स जहण्णिया पद सुदीरणा असंखेज्जगुणा । $ २९४. कुदो ? सम्मामिच्छाइट्ठिसंकिलेसादो अनंतगुणहीण सम्माइद्विसंकिलेसपरिणामेणुदीरिज माणदव्वग्गहणादो । दुगंछाए जहरिणया पर्व सुदीरणा अनंतगुणा । $ २९५. कुदो १ देसघादिपडिभागियत्तादो । तदो जइ वि मिच्छाइट्ठिसंकिलेसेण जहणा जादा तो विपुव्विल्लादो एसा अनंतगुणा त्ति सिद्धं । भयस्स जहणिया पद स दीरणा विसेसाहिया । $ २९१. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि स्वामित्वभेदका अभाव होनेपर भी प्रकृतिविशेषका आश्रयकर विशेष अधिकपना उपलब्ध होता है । * उससे अनन्तानुबन्धियोंमेंसे अन्यतर प्रकृतिकी जघन्य प्रदेश उदीरणां परस्पर तुल्य होकर असंख्यातगुणी है । $ २९२. यहाँ पर भी अनन्तर पूर्व में ही कहा गया कारण जानना चाहिए । * उससे सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य प्रदेश उदीरणा असंख्यातगुणी है । २९३. क्योंकि मिथ्यादृष्टिके संक्लेशको देखते हुए सम्यग्मिथ्यादृष्टि के अनन्तगुणहीन संक्शरूप परिणामसे उदीर्यमाण द्रव्यका यहाँ पर ग्रहण किया है जो असंख्यात लोकका भाग देने पर एक भागप्रमाण 1 * उससे सम्यक्त्वकी जघन्य प्रदेश उदीरणा असंख्यातगुणी है । $ २९४. क्योंकि सम्यग्मिथ्यादृष्टिके संक्लेशसे सम्यग्दृष्टिके अनन्तगुणहीन संक्लेशपरिणाम उदीर्यमाणद्रव्यका ग्रहण किया है । * उससे जुगुप्साकी जघन्य प्रदेश उदीरणा अनन्तगुणी है । $ २९५. क्योंकि इसका कारण देशघातिप्रतिभागीपना है । इसलिए यद्यपि मिथ्या दृष्टिके संक्केशसे जघन्य हो गया है तो भी पूर्वकी प्रकृतिके उदीरणाद्रव्यसे यह अनन्तगुणा है यह सिद्ध हुआ । * उससे भयकी जघन्य प्रदेश उदीरणा विशेष अधिक है । Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए अप्पाबहुअं $ २९६. कुदो ? सामत्तिभेदाभावे वि पयडिविसेसेण पुग्विन्लादो संपहियदव्वस्स विसेसाहियत्तदंसणादो। एत्थ भयदुगछाणमण्णदरस्स जहण्णभावे इच्छिजमाणे दोण्हं पि उदयं कादूण गेण्हियव्वं, अण्णहा जहण्णभावाणुववत्तीदो। * हस्स-सोगाणं जहणिया पद सुदीरणा विसेसाहिया। $ २९७. कुदो ? पयडिविसेसादो।। * रदि-अरदीणं जहणिया पदेस दीरणा विसेसाहिया। 5२९८. कुदो ? पयडिविसेसादो । एदासि पयडीणं जहण्णभावे इच्छिज्जमाणे भय-दुगछाणमुदयं कादूण गेण्हियव्वं, अण्णहा तत्थ थिवुक्कसंकमेण सह पयददव्वस्स बहुत्तप्पसंगादो। * तिण्हं वेदाणं जहणिया पद सुदीरणा अण्णदरा विसेसाहिया । 5 २९९. कुदो ? पयडिविसेसादो। * संजलणाणं जहणिया पंदस दीरणा अण्णदरा संखजगुणा । $३००. को गुणगारो ? सादिरेयपंचरूवमेत्तो, णोकसायभागस्स पंचमभागमेत्तवेदुदीरणादव्वादो संपुण्णकसायभागमेत्तसंजलणोदीरणदव्वस्स पयडिविसेसगब्भस्स तावदिगुणत्तसिद्धीए णिव्वाहमुवलंभादो । एवमोघजहण्णओ समत्तो । $ २९६. क्योंकि स्वामित्व भेदका अभाव होनेपर भी प्रकृतिविशेषके कारण ही पहलेके द्रव्यसे साम्प्रतिक द्रब्य विशेष अधिक देखा जाता है। यहाँ पर भय और जुगुप्सामेंसे अन्यतर का जघन्यपना इच्छित होने पर दोनोंका ही उदय करके ग्रहण करना चाहिए, अन्यथा जघन्यपना नहीं बन सकता। * उससे हास्य और शोककी जघन्य प्रदेश उदीरणा विशेष अधिक है। $ २९७. क्योंकि प्रकृतिविशेष इसका कारण है।। उससे रति और अरतिकी जघन्य प्रदेश उदीरणा विशेष अधिक है। ६ २९८. क्योंकि इसका कारण प्रकृतिविशेष है। इन प्रकृतियोंका जघन्यपना इच्छित होनेपर भय और जुगुप्साका उदय करके ग्रहण करना चाहिए, अन्यथा वहाँ स्तिवुकसंक्रमके द्वारा प्राप्त द्रव्यके साथ प्रकृत द्रव्यको बहुत्वका प्रसंग आ जायगा। * उससे तीनों वेदोंमेंसे अन्यतर वेदकी जघन्य प्रदेश उदीरणा विशेष अधिक है। $ २९९. क्यों कि इसका कारण प्रकृतिविशेष है। * उससे संज्वलन कषायोंमेंसे अन्यतर प्रकृतिकी जघन्य प्रदेश उदीरणा संख्यातगुणी है। ३००. गुणकार क्या है ? साधिक पाँच अंकप्रमाण गुणकार है। नोकषायके भागके पाँचवें भागमात्र वेदका उदीरणाद्रव्य है, उससे सम्पूर्ण कषायके भागमात्र प्रकृतिविशेषगर्भ संज्वलन कषायके द्रव्यके उतने गुणेको सिद्धि निर्बाधरूपसे उपलब्ध होती है। इस प्रकार ओघसे जघन्य अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। १. आ प्रतौ तत्येवुक्कस्ससंकमेण ता प्रतौ यिवुक्कस्ससंकमेण इति पाठः । Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ वेदगो ७ ३०० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे $ ३०१ एवं सव्वमग्गणासु णेदव्त्रं । णवरि अप्पप्पणो उदीरिजमाणपयडिविसेसो जाणिव्वो । अणुद्दिसादि सव्वट्ठा ति सव्वत्थोवा सम्मत्तस्स जहणिया पदेसुदीरणा । अपच्चक्खाणकसाय पदे सुदीरणा अण्णदरा तुल्ला संखेजगुणा । सेसं तं चैव । एवमप्पा बहुए समत्ते उत्तरपयडिपदेसुदीरणा समत्ता । चवीस मणियोगद्दाराणि समत्ताणि । * भुजगार-- उदीरणा उवरिमाए गाहाए परूविहिदि । पदणिक्खेवो वड्ढी वि तत्थेव । $ ३०२. एदस्स सुत्तस्सत्थो बुच्चदे - तं जहा । सव्वा परूवणा गाहासुत्त संबद्धा चैव कायन्त्रा, तदो पदेसुदीरणाविसय भुजगारादिपरूवणा वि गाहासुत्तणिबद्धा चेय विहासियव्वा । ण चे तप्पडिबद्धं गाहासुतं णत्थि त्ति आसंकणिज, 'बहुदरंगं बहुदरगं' इदीए उवरिमगाहाए परिष्फुडमेव तत्थ पडिबद्धत्तदंसणादो । तम्हा भुजगारउदीरणा उवरिमाए गाहाए परूविहिदि । पदणिक्खेवो वड्डी वि तत्थेव परूविहिदि त्ति एदमत्थपदमवहारिय तदवभबलेण एत्थ उद्देसे भुजगारादिपरूवणा सवित्थरमणुगंतव्वा । जहावसरमेव सव्वत्थ परूवणाए णाइयत्तादो ति एसो एदस्स गुत्तस्स भावत्थो । संपहि एदेण चुण्णिसुत्तावयवेण सूचिदभुजगाराणियोगद्दारस्स संगतोणिलीणपदणिक्खेव वढिपरूव $ ३०१. इसी प्रकार सब मार्गणाओंमें अल्पबहुत्व जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी उदीर्यमाण प्रकृति विशेष जाननी चाहिए। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें सम्यक्त्वकी जघन्य प्रदेश उदीरणा सबसे स्तोक है। उससे अप्रत्याख्यान कषायों में से अन्यतर प्रकृतिक जघन्य प्रदेश उदीरणा परस्पर तुल्य होकर संख्यातगुणी है । शेष अल्पबहुत्व वही है । इस प्रकार अल्पबहुत्वके समाप्त होनेपर उत्तर प्रकृतिप्रदेश उदीरणा समाप्त हुई । चौबीस अनुयोगद्वार समाप्त हुए । * आगेकी गाथामें भुजगार प्रदेश उदीरणाका व्याख्यान करेंगे । पदनिक्षप और वृद्धिका भी वहीं पर व्याख्यान करेंगे । $ ३०२. इस सूत्रका अर्थ कहते हैं । यथा – समस्त प्ररूपणा गाथा सूत्रसे सम्बद्ध ही करनी चाहिए । अतएव प्रदेश उदीरणा विषयक भुजगारादिप्ररूपणा भी गाथा सूत्रसे निबद्ध ही करनी चाहिए । यदि कहो कि भुजगारादिप्ररूपणासे सम्बन्ध रखनेवाला गाथासूत्र नहीं है सो ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि 'बहुगदरगं बहुगदरगं' इत्यादि उपरिम गाथा स्पष्टरूपसे ही भुजगारादि प्ररूपणा में प्रतिबद्ध देखी जाती है। इसलिए "भुजगार उदीरणाका उपरिम गाथामें व्याख्यान करेंगे । पदनिक्षेप और वृद्धिका भी वहीं पर व्याख्यान करेंगे।' इस प्रकार इस अर्थपदका अवधारण कर उसके उपरोधवश इस स्थलपर भुजगारादि प्ररूपणाको विस्तारके साथ जान लेना चाहिए, क्योंकि यथावसर ही सर्वत्र कथन करना न्याय्य है इस प्रकार यह इस सूत्रका भावार्थ है । अब इस चूर्णिसूत्र के अवयवद्वारा सूचित 1 १. आ० प्रतौ सा च ता०प्रतौ सा (ण) च इति पाठः । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए भुजगारो णस्स किंचि अत्थपरूवणमुच्चारणाइरिओवएसबलेण कस्सामा । तं जहा ९३०३. भुजगारो ति तत्थ इमाणि तेरस अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि - समुक्कित्तणा जाव अप्पाचहुए ति । समुक्कित्तणाए दुविहो णिमो - ओघेण आदेसेण य | ओघेण सव्वपयडी० अस्थि भुजगार० अप्पदर० अवट्ठि० अवत्त० । ३०१ 1 ३०४. आदेसेण णेरइय० मिच्छ० सम्म० - सम्मामि० - सोलसक० - सत्तणोक० ओघं । णवरि णव स० अवत्त० णत्थि । एवं सव्वणिरय० । तिरिक्खेसु ओघं० । एवं पंचिदियतिरिक्खतिये । णवरि वेदा जाणियव्वा । जोणिणीसु इत्थिवेद० अवत्त० णत्थि । पंचि०तिरिक्ख अपज्ज० --मणुस अपज० मिच्छ० -- ण स ० ओघं । णवरि अवत्त० णत्थि । सोलसक० छण्णोक० ओघं । मणुसतिये ओधं । णवरि वेदा जाणियव्वा । ३०५. देवेसु ओघं । णवरि ण स ० णत्थि । इत्थिवेद - पुरिसवेद० अवत्त ० णत्थि । एवं भवणादि जाव सोहम्मीसाणे त्ति । एवं सणक्कुमारादि णवगेवज्जा त्ति । raft इत्थवेदो णत्थि । अणुद्दिसादि सव्वट्ठा त्ति सम्म० बारसक० - सत्तणोक ० आणदभंगो | एवं जाव० । हुए तथा पदनिक्षेप और वृद्धिप्ररूपणाको अपने भीतर गर्भित कर स्थित हुए भुजगार अनुयोगद्वारका कुछ विशेष व्याख्यान उच्चारणाचार्यके उपदेशके बलसे करेंगे । यथा ९ ३०३. भुजगार इस अनुयोगद्वार में ये तेरह अनुयोगद्वार जानने चाहिए - समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तक । समुत्कीर्तनाकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे सब प्रकृतियों की भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य प्रदेश उदीरणा है । 1 $ ३०४. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायों का भंग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि इनमें नपुंसकवेदका अवक्तव्यपद नहीं है । इसी प्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए । तिर्यों में ओघके समान भंग है । इसी प्रकार पश्चेन्द्रिय तिर्यवत्रिक में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि वेद जान लेने चाहिए । तिर्यञ्चयोनिनियोंमें स्त्रीवदका अवक्तव्य पद नहीं है । पञ्च न्द्रिय तिर्य अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में मिथ्यात्व और नपुंसकवेदका भंग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि इनका अवक्तव्यपद नहीं है । सोलह कषाय और छह नोकषायका भंग ओघके समान है । मनुष्यत्रिक में ओघके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि वेद जान लेने चाहिए । $ ३०५. देवोंमें ओघके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि इनमें नपुंसक वेद नहीं है । तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेदका अवक्तव्य पद नहीं है । इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर सौधर्म-ऐशान कल्पतकके देवोंमें जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार सनत्कुमार कल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयक तक के देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद नहीं है । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवों में सम्यक्त्व, बारह कषाय और सात नोकषायोंका भंग आनतकल्पके समान है। इसी प्रकार अनाहारका तक जानना चाहिए । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ जग्रधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ $ ३०६. सामित्ताणुगमेण दुविहो णिदेसो- ओघेण आदेसेण य । आघेण मिच्छ०अनंता ०-४ सव्वपदा कस्स १ अण्णद० मिच्छाइट्ठिस्स । सम्म० सव्वपदा कस्स ? दरस सम्मासि । सम्मामि० सव्वपदा कस्स ? अण्णद० सम्मामिच्छाइट्ठिस्स । बारसक० - णवणोक० सव्वपदा कस्स ? अण्णद० सम्माइट्टि० मिच्छाइडि० । 1 $ ३०७. आदेसेण णेरइय० मिच्छ० - सम्म० - सम्मामि ० - सोलसक० - सत्तणोक० ओघं । णवरि णवंस अवत्त० णत्थि । एवं सव्वणिरय० । तिरिक्खेसु ओघं । णवरि तिन्हं वेदाणं अवत्त० मिच्छाइट्ठिस्स । एवं पंचिदियतिरिक्खतिये । णवरि वेदा जाणिroar | जोणिणी इत्थवे० अवत्त० णत्थि । ९३०८, पंचिदियतिरिक्खअपज० - मणुस अपज ० - अणुद्दिसादि सव्वद्वा ति सव्वपय० सव्वपदा कस्स १ अण्णदरस्स । मणुसतिये ओघं । णवरि वेदा जाणियव्वा । • मणुसिणोसु इथिवे अवत्त० सम्माइट्ठि ० | देवेसु ओघं । णवरि ण स णत्थि । इत्थिषे० - पुरिसवे० अवत्त० णत्थि । एवं भवणादि जाव सोहम्मा ति । एवं सणकुमारादि जाव णवगेवजा त्ति । णवरि इत्थिवेदो णत्थि । एवं जाव० । $ ३०९. कालानुगमेण दुविहोणिद्देसो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण सव्वपयडी० 2 $ ३०६. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे . मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके सब पद किसके होते हैं ? अन्यतर मिथ्यादृष्टिके होते हैं । सम्यक्त्वके सब पद किसके होते हैं ? अन्यतर सम्यग्दृष्टिके होते हैं । सम्यग्मिथ्यात्वके सब पद किसके होते हैं ? अन्यतर सम्यग्मिध्यादृष्टिके होते हैं। बारह कषाय और नौ नोकषायोंके सब पद किसके होते हैं ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि और मिध्यादृष्टिके होते हैं । $ ३०७. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंका भंग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि इनमें नपुंसकवेदका अवक्तव्यपद नहीं है । इसी प्रकार सब नारकियों में जानना चाहिए । तिर्यों में ओघ के समान भंग है । इतनी विशेषता है कि तीन वेदोंका अवक्तव्य पद मिथ्यादृष्टिके होता है । इसी प्रकार पचेन्द्रियतिर्यवत्रिक में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि वेद जानना लेने चाहिए । तिर्य योनिनियों में स्त्रीवेदका अवक्तव्य पद नहीं है। ३०८. पन्द्रियतिर्यच अपर्याप्त मनुष्य अपर्याप्त और अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक देवों में सब प्रकृतियोंके सब पद किसके होते हैं ? अन्यतरके होते हैं। मनुष्यत्रिकमें ओघके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि वेद जान लेने चाहिए । मनुष्यिनियों में स्त्रीवेदका अवक्तव्यपद सम्यग्दृष्टिके होता है । देवोंमें ओघके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि इनमें नपुंसकवेद नहीं है । तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेदका अवक्तव्यपद नहीं है। इ प्रकार भवनवासियोंसे लेकर सौधर्म-ऐशान कल्पतकके देवोंमें जानना चाहिए । इसी प्रकार सनत्कुमार कल्पसे लेकर नौ प्रैवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद नहीं है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । § ३०९. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश | ओघसे सब प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट - Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०६२] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए भुजगारो भुज०-अप्पद० जह. एयस०, उक्क० अंतोमु० । अवढि० जह० एयस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो । अवत्त० जह० उक्क० एगस० । सव्वणिरय-सव्वतिरिक्खसव्यमणुस - सव्वदेवा ति अप्पप्पणो पयडीणं सव्वपदा० ओघं । एवं जाव० । ३१०. अंतराणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ० भुज-अप्प० जह• एगसमओ, उक्क० बेछावहिसागरो० देसूणाणि । अवढि० जह. एगस०, उक्क० असंखेजा लोगा । अवत्त० जह० अंतोमु०, उक्क० उवड्डपोग्गलपरियढें । एवमणताणु०४ । गरि अवत्त० जह० अंतोमु०, उक्क० बेछावहिसागरोवमाणि देसूगाणि । सम्म०-सम्मामि० भुज०-अप्पद०-अवट्ठि०-अवत्त० जह० एगस० अंतोमु०, उक० उबड्डपोग्गलपरियढें । अट्ठक. भुज०-अप्प०-अवत्त० जह, एगस० अंतोमु०, काल अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। सब नारकी, सब तिर्यश्च, सब मनुष्य और सब देवोंमें अपनी-अपनी सब प्रकृतियोंके सब पदोंका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। • विशेषार्थ-यहाँ.पर सब वृद्धियों और सबहानियोंके जघन्य काल एक समय और अनन्तगणवृद्धि तथा अनन्तगणहानिके उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्तको ध्यानमें रखकर सब प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर प्रदेश उदीरकका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । उक्त सब प्रकृतियोंकी अवस्थित उदीरणा कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक आवलिके असंख्यातव भागप्रमाण काल तक होती है यह जानकर प्रकृतमें इस पदके उदीरकका जघन्य काल एक समय कहा है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। इनके अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है यह स्पष्ट ही है। गति मार्गणाके अवान्तर भेद-प्रभेदोंमें जहाँ जिन प्रकृतियोंकी उदीरणा होती है और जो पद हैं उनको ध्यानमें रखकर ओघके समान काल बन जानेसे उसे ओघके समान जाननेकी सूचना को है। $३१०. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्वके भुजगार और अल्पतर प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम दो छयासठ सागरोपमप्रमाण है। अवस्थित प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है । अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्ध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी-चतुष्कको अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम दो छयासठ सागरोपमप्रमाण है । सम्यकत्व और सम्यग्मिथ्यात्वके भजगार. अल्पतर और अवस्थित प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है, अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका.जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है तथा सबका उत्कृष्ट अन्तरकाल उपाधपुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। आठ कषायोंके भुजगार और अल्पतर प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है, अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ उक्क० पुव्वकोडी देखणा । अवट्ठि० मिच्छत्तभंगो । चदुसंज० - भय - दुगुंछ० एवं चैव । वरि भुजगार - अप्पदर - अवतव्व० जह० एगस० अंतोमु०, उक्क० अंतोमु० | एवं इस्स - रदि० । णवरि भुज० - अप्प० - अवच० जह० एस० अंतोमु०, उक्क० तेचीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । एवमरदिसोग० । णवरि भुजगार - अप्पद ० जह० एस ०, उक्क० छम्मासं । एवं णवं स० । णवरि भुज ० - अप्प ० जह० एस ०, उक्क० सागरोवमसदपुधतं । अवच० जह० अंतोमु०, उक्क० अनंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । इत्थवे ० - पुरिसवे० भुज ० - अप्प ० - ० - अवट्ठि०० - अवत० जह० एयस० अंतोमु०, उक्क० अनंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । तथा तीनोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है । अवस्थित प्रदेश उदीरकका भंग मिध्यात्वके समान है। चार संज्वलन, भय और जुगुप्साका भंग इसी प्रकार है । इतनी विशेषता है कि इनके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल दो पदोंका एक समय और अन्तिमका अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार हास्य और रतिकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके भुजगार और अल्पतर प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय और अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है तथा सत्रका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तेतीस सागरोपमप्रमाण है। इसी प्रकार अरति और शोककी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके भुजगार और अल्पतर प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है तथा सबका उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है। इसी प्रकार नपुंसकवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसके भुजगार और अल्पतर प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है। और उत्कृष्ट अन्तरकाल सौ सागरोपमपृथक्त्व प्रमाण है । इसके अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । स्त्रीवेद और पुरुषवेदके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय तथा अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । विशेषार्थ – यहाँ सब प्रकृतियोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित प्रदेश उदीरककाजघन्य अन्तरकाल एक समय स्पष्ट ही है, क्योंकि इन पदोंके एक समयके अन्तर से होनेमें कोई बाधा नहीं आती । तथा मिथ्यात्व गुणस्थानका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम दो छयासठ साग रोपम होनेसे मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कके भुजगार और अल्पतर प्रदेश उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम दो छयासठ सागरोपम कहा है। इनकी अवस्थित प्रदेश उदीरणा अधिक से अधिक असंख्यात लोकप्रमाण काल तक नहीं होती, इसलिए इन पाँचों प्रकृतियोंके अवस्थित प्रदेश उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। अब रहा इन पाँचों प्रकृतियोंके अवक्तव्य प्रदेश उदीरकके अन्तरकालका विचार सो जो सम्यक्त्व से च्युत होकर मिध्यादृष्टि हुआ है उसके पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त कर मिध्यादृष्टि होनेमें कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल लगता है तथा वह अधिक-से-अधिक उपार्ध पुद्गल परिवर्तन प्रमाण काल तक मिथ्यादृष्टि रहकर सम्यक्त्वको प्राप्तकर पुनः मिध्यादृष्टि हो सकता है, इसलिए तो मिथ्यात्वके अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्धपुद् - गल परिवर्तनप्रमाण कहा है। तथा अनन्तानुबन्धियोंका दो बार अवक्तव्यपद कमसे Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए भुजगारो ३०५ $ ३११. आदेसेण णेरइय० मिच्छ० - सम्म० - सम्मामि ० - अनंताणु ०४ - हस्सरदि० भुज ० - अप्प ० - अवट्ठि ० - अवच० जह० एस० अंतोमु०, उक्क० तेचीसं सागरोवमाणि देणाणि । एवमरदि -- सोग । णवरि भुज० - अप्प० जह० एस ०, उक्क० अंतोमु० | एवं बारसक० - भय - दुगु छ० - ण स० । णवरि अवत० जहण्णुक० अंतोमु० । वरि ण स ० अव० णत्थि । एवं सचमाए । एवं पढमादि जाव छट्टिति । णवरि सट्ठी देणा । इस्स - रदि - अरदि - सोगाणं भयभंगो । कम अन्तर्मुहूर्त कालके अन्तरसे और अधिकसे अधिक कुछ कम दो छयासठ सागरोपम कालके अन्तरसे हो यह सम्भव होनेसे इनके अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम दो छयासठ सागरोपमप्रमाण कहा है। अविरत सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिके उत्कृष्ट अन्तरकालको ध्यान में रखकर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण कहा है। तथा वेदकसम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्व गुणकी दो बार प्राप्ति अन्तर्मुहूर्त कालके अन्तरसे होना सम्भव है, इसलिए उक्त प्रकृतियोंके अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है । अप्रत्याख्यान कषाय चतुष्क और प्रत्याख्यान कषायचतुष्कके अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त अनन्तानुवन्धीकषायचतुष्कके समान घटित कर लेना चाहिए । तथा संयमासंयम और सकलसंयमका उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण होनेसे इनके भुजगार अल्पतर और अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त कालप्रमाण कहा है, क्योंकि पाँचवें आदि गुणस्थानोंमें अप्रत्याख्यान कषायकी उदीरणा नहीं होती और छटे आदि गुणस्थानों में प्रत्याख्यान कषायकी उदीरणा नहीं होती । मात्र जो संयतासंयत आदि गुणस्थानोंमें अन्तर्मुहूर्त रह कर नीचे उतरा है । पुनः अन्तर्मुहूर्त के बाद संयतासंयत या संयत होकर और अपने उत्कृष्ट काल तक वहाँ रह कर पुनः नीचे उतरा है उसके अप्रत्याख्यान कषाय चतुष्ककी अपेक्षा यह उत्कृष्ट अन्तरकाल कहना चाहिए। तथा जो अन्तर्मुहूर्त काल तक संयत हो कर नीचे उतरा है । पुनः अन्तर्मुहूर्त में संयत होकर और अपने उत्कृष्ट कालतक वहाँ रहकर नीचे उतरा है उसके प्रत्याख्यान कषाय चतुष्कको अपेक्षा यह उत्कृष्ट अन्तरकाल कहना चाहिए। इन आठों प्रकृतियों के अवस्थित प्रदेश उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है यह स्पष्ट ही है । इसी प्रकार शेष प्रकृतियों के अपने-अपने पदोंका अन्तरकाल घटित कर लेना चाहिए । विशेष वक्तव्य न होनेसे यहाँ सबका अलग-अलग स्पष्टीकरण नहीं किया है । $ ३११. आदेशसे नारकियोंमें मिध्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, हास्य और रतिके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम है। इसी प्रकार अरति और शोककी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके भुजगार और अल्पतर प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुर्तप्रमाण है । इसी प्रकार बारह कषाय, भय, जुगुप्सा और नपुंसकवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । इतनी और विशेषता है कि नपुंसकवेदका अवक्तव्य पद नहीं है । इसी प्रकार सातवीं पृथिवीं ३९ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ ९ ३१२. तिरिक्खेसु मिच्छ० ओघं । णवरि भुज० - अप्प० जह० एगस०, उक्क० तिणि पलिदोवमाणि देणाणि । एवमणंताणु०४ । णवरि अवत्त० जह० अंतोमु०, उक्क० तिणि पलिदोवमाणि देणाणि । सम्म० - सम्मामि ० - अपच्चक्खाण ०४ - इत्थवे ०पुरिसवेद० ओघं । अटुक० - छण्णोक० भुज० - अप्प० - अवत्त० जह० एस ०, उक० अंतोमु० 1 अव० ओघं । णवंस० ओघं । णवरि भुज० - अप्प० जह० एगस०, उक० पुत्रको डिपुधत्तं । $ ३१३. पंचिंदियतिरिक्खतिये मिच्छ० भुज० - अप्प० तिरिक्खोघं । अवडि० - अवत्त० जह० एस० अंतोमु०, उक्क० सगट्ठिदी देखणा । सोलसक० - छण्णोक ० तिरिक्खोघं । णवरि अवद्वि० जह० एगस०, उक्क० सगहिदी देखना | सम्म० - सम्मामि० में जानना चाहिए । इसी प्रकार पहली पृथिवीसे लेकर छटी पृथिवी इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए । अरति और शोकका भंग भयके समान है । विशेषार्थ — प्रथमादि छह पृथिवियों में हास्य, रति, अरति और शोककी अन्तर्मुहूर्त के अन्तरसे नियमसे उदीरणा होती है, इसलिए इन पृथिवियों में इनके सभी पदोंके प्रदेश हीरकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल भयके समान बन जानेसे उसके समान जाननेकी सूचना की है। शेष कथन सुगम है । $ ३१२. तिर्यञ्चों में मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि इसके भुजगार और अल्पतर प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तीन पल्योपम है । इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि इनके अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तीन पल्योपम है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अप्रत्याख्यान कपायचतुष्क, स्त्रीवेद और पुरुषवेदका भंग ओघके समान है। आठ और छह नोकपायोंके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित प्रदेश उदीरकका भंग ओघ के समान है । नपुंसकवेदका भंग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि इसके भुजगार और अल्पतर प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्व - कोटिपृथक्त्व प्रमाण है । विशेषार्थ - यहाँ पर नपुंसकवेदके भुजगार और अल्पतर प्रदेश उदीरकका जो उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण कहा है सो वह पचेन्द्रिय तिर्यों को ख्यालमें रख कर ही कहा है, क्योंकि उन्हीं में यह उत्कृष्ट अन्तरकाल बनता है । शेष कथन सुगम है । अपने-अपने स्वामित्व और कालको जानकर वह घटित कर लेना चाहिए । $ ३१३. पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चत्रिक में मिथ्यात्वके भुजगार और अल्पतर प्रदेश उदीरकका भंग सामान्य तिर्यञ्चों के समान है । अवस्थित प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय और अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है । सोलह कषाय और छह नोकषायोंका भंग सामान्य तिर्योंके समान है । इतनी विशेषता है कि इनके अवस्थित प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल तक जानना चाहिए । तथा इनमें हास्य, रति, Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए भुजगारो ३०७ भुज०-अप्प०-अव ट्ठि०-अवत्त० जह० एयस० अंतोमु०, उक्क० सगढिदी । इत्थिवे०पुरिसवे. भुज-अप्प०-अवत्त० जह० एयस० अंतोमु०, उक्क० पुवकोडिपुधत्तं । अवढि० जह० एगस०, उक्क० सगट्टिदी देसूणा । णवंस. भुज०-अप्प०-अवढि०अवत्त० जह• एयस० अंतोमु०, उक० पुरकोडिपुधत्तं । णवरि पजत्त. इत्थिवेद० णत्थि । जोणिणीसु पुरिस०-णस. णत्थि । इत्थिवेद० भुज०-अप्प० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अवत्त० णत्थि । ३१४. पंचिंदियतिरिक्खअपज०-मणुसअपज्ज० मिच्छ०-णबुंस० सव्वपदा० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । एवं सोलसक०-छण्णोक० । णवरि अवत्त० जह. उक्क० अंतीमु० । ३१५. मणुसतिये पंचिं०तिरिक्खतियभंगो। णवरि पच्चक्खाण०४ भुज० एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तरकाल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है । स्त्रीवेद और पुरुषवेदके भुजगार और अल्पतर प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है, अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। अवस्थित प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है। नपुंसकवेदके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेद नहीं है और योनिनियोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं है । तथा योनिनियोंमें भुजगार और अल्पतर प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । इनमें स्त्रीवेदका अवक्तव्य पद नहीं है। - विशेषार्थ-स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी.भुजगार अल्पतर और अवक्तव्य प्रदेश उदीरणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल कर्मभूमिज तिर्यञ्चोंमें ही प्राप्त होनेसे वह पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण कहा है। नपुंसकवेदकी उदय-उदीरणा भोगभूमि में नहीं होती, इसलिए यहाँ इसकी चारों पदरूप प्रदेश उदीरणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल भी पूर्वकोटि पृथक्त्वप्रमाण कहा है। योनिनियोंमें एक स्त्रीवेदकी ही उदय-उदीरणा सम्भव है, इसलिए इनमें स्त्रीवेदकी एक तो अवक्तव्य प्रदेश उदीरणा सम्भव नहीं है। दूसरे इनमें स्त्रीवेदकी भुजगार और अल्पतर प्रदेश उदीरणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त बननेसे वह उक्त काल प्रमाण कहा है । शेष कथन सुगम है। ३१४. पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्यअपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व व नपुंसकवेदके सब पद प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहते हैं। इसी प्रकार सोलह कषाय और छह नोकषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि यहाँ इनके अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । ३१५. मनुष्यत्रिकमें पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चत्रिकके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि प्रत्याख्यान कषायचतुष्कके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका भंग ओघके Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे अप्प ० - अवत्त० ओघं । मणुसिणीसु इत्थिवेद ० अवत्त० जह० अंतोमु०, उक्क० 1 पुधत्तं । [ वेदगो ७ पुब्वकोडि ९३१६. देवेसु मिच्छ० – सम्म० - सम्मामि ० - अनंताणु ०४ भुज ० - अप्प०-३ - अवद्वि०अवत्त० जह० एयस० अंतोमु०, उक्क० एकत्तीस सागरोवमाणि देसूणाणि । णवरि सम्म० अवट्ठि ० जह० एयस०, उक्क० तेत्तीस सागरोवमाणि देखणाणि । बारसक० -भयदुर्गुछ० भुज ० - अप्प ० - अवत्त० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । अवडि० सम्मत्तभंगो । एवं पुरिसवेद ० । णवरि अवत्त० णत्थि । एवं हस्स -रदि० । णवरि अवत्त ० जह० अंतोमु०, उक्क० छम्मासं । एवमरदि - सोगाणं । णवरि भुज० - अप्प० जह० एगस ०, उक्क० छम्मासं । इत्थिवेद० भुज० -- अप्प० जह० एगस ०, उक्क० अंतोमु० । अवडि० जह० एगस०, उक्क० पणवण्णं पलिदोवमाणि देसूणाणि । एवं भवणादि जाव णवगेवज ति । वरि सगट्ठिी देसूणा । णवरि हस्स - रदि - अरदि- सोगाणं भय० भंगो । सहस्सारे इस्स-रदि-अरदि-सोग० देवोधं । भवण ० - वाणवें० - जोदिसि ० इत्थवेद० भुज ० - अप्प ० समान है | मनुष्यनियोंमें स्त्रीवेदके अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तअन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्व प्रमाण है । विशेषार्थ – मनुष्यनियोंमें उपशमश्रेणिके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालको ध्यानमें रख कर स्त्रीवेदके अवक्तव्य प्रदेश उदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल कहा है । शेष कथन सुगम है । $ ३१६. देवोंमें मिध्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित प्रदेश उढ़ीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है तथा सबका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागरोपम है । इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वके अवस्थित प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम है । बारह कषाय, भय और जुगुप्साके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित प्रदेश उदीरकका भंग सम्यक्त्वके समान है । इसी प्रकार पुरुषवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसका अवक्तव्य पद नहीं है । इसी प्रकार हास्य और रतिकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है । इसी प्रकार अरति और शोककी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके भुजगार और अल्पतर प्रवेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है । स्त्रीवेदके भुजगार और अल्पतर प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पचवन पल्योपम है । इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर नौ प्रैवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए । इतनी और बिशेषता है कि यहाँ हास्य, रति, अरति और शोकका भंग भयके समान है । मात्र सहस्रार कल्प में हास्य, रति, Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए भुजगारो ३०९ देवोपं । अपट्टि० जह० एयस०, उक्क तिण्णि पलिदोवमाणि देसूणाणि पलिदो० सादिरे० पलि. सादि० । सोहम्मीसाण. इत्थिवेद० देवोघं । उवरि इत्थिवेदो णत्थि । ३१७. अणुद्दिसादि सव्वट्ठा त्ति सम्म० भुज-अप्प० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । अवढि० जह० एयस०, उक्क. सगहिदी देसूणा । अवत्त० णत्थि अंतरं । एवं पुरिसवे० । णवरि अवत्त० णस्थि । एवं बारसक०-छण्णोक० । णवरि अवत्त. जह० उक्क० अंतोमु० । एवं जाव० ।। ३१८. णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओपेण मिच्छ०-णस० तिण्णि पदा णियमा अत्थि,सिया एदेय अवत्तव्वगो च, सिया अरति और शोकका भंग सामान्य देवोंके समान है। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें स्त्रीवेदके भुजगार और अल्पतर प्रदेश उदीरकका भंग सामान्य देवोंके समान है । अवस्थित प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तीन पल्योपम, साधिक एक पल्योपम और साधिक एक पल्योपम है। सौधर्म और ऐशान कल्पमें स्त्रीवेदका भंग सामान्य देवोंके समान है । आगेके देबोंमें स्त्रीवेद नहीं है। विशेषार्थ-सामान्य देवोंमें सम्यक्त्व प्रकृतिकी उदीरणा तेतीस सागरोपम काल तक बन जाती है, इसलिए इनमें उसके अवस्थित प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम बन जानेसे वह उक्त काल प्रमाण कहा है। अरति और शोककी उदीरणाका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होनेसे यहाँ हास्य और रतिके अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है। तथा हास्य और रतिकी उदीरणाका उत्कृष्ट काल छह महीना होनेसे यहाँ इन्हींके अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना कहा है। इतना अवश्य है कि दोनों जगह प्रारम्भ और अन्तमें अवक्तव्य पद करा कर यह अन्तरकाल घटित करना चाहिए। अरति और शोककी कमसे कम एक समयके अन्तरसे भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्य उदीरणा हो और अधिकसे अधिक छह महीनेके अन्तरसे हो यह सम्भव है, इसलिए यहाँ इनके भुजगार अल्पतर और अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना कहा है । शेष कथन स्पष्ट ही है। $ ३१७. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सम्यक्त्वके भुजगार और अल्पतर प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहर्त है। अवस्थित प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है। अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका अन्तरकाल नहीं है । इसी प्रकार पुरुषवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसका अवक्तव्य पद नहीं है। इसी प्रकार बारह कषाय और छह नोकषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार अनाहारक मागेणातक जानना चाहिए। .. ३१८. नाना जीवोंका अवलम्बन लेकर भंगविचयानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व और नपुंसकवेदके तीन पद प्रदेशउदीरक जीव Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ वेदगो ७ ३१० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे देय अवतन्त्रगाय । सम्म० - इत्थि वे ० - पुरिसवे० भुज० - अप्प० णिय० अत्थि, सेसपदा भणिज्जा | सम्मामि० सव्वपदा भयणिजा । सोलसक० - छण्णोक० सव्वपदा णियमा अत्थि । एवं तिरिक्खोघं । $ ३१९. सव्वणिरय - पंचिदियतिरिक्खतिय- मणुसतिय देवा जाव णवगेवजा ति सम्मामि० ओघं । सेसपयडीणं भुज० - अप्प० णियमा अत्थि । सेसपदा भयणिजा । पंचिदियतिरिक्खअपज ० - अणुद्दिसादि सव्वट्टा त्ति सव्वपयडी० भुज० - अप्प० निय० अन्थि, सेसपदा भणिजा । मणुसअपज्ज० सव्वपयडीणं सव्वपदा भयणिजा । एवं जाव० । $ ३२०. भागाभागाणुगमेण दुविहो णिदेसो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ० - णव स० भुजगार० दुभागो देसूणो । अप्पद० दुभागो सादिरेओ । अवट्ठि ० असंखे ० भागो । अवत्त० अनंतभागो । एवं सम्म० - सम्मामि ० - सोलसक० - अट्ठणोक० । वरि अवत्त० असंखे ० भागो । एवं तिरिक्खा० । $ ३२१. सव्वणिरय - सव्यपंचिदियतिरिक्ख - मणुसंअपज० – देवा जाव अवराजिदा ति सव्वपयडी० भुज० - अप्पद० ओघं । सेसपदा० असंखे० भागो । मणुसा० नियमसे हैं, कदाचित् ये नाना जीव हैं और एक अवक्तव्य प्रद ेश उदीरक जीव है, कदाचित् ये नाना जीव हैं और नाना अवक्तव्य प्रदेश उदीरक जीव हैं । सम्यक्त्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदके भुजगार और अल्पतरप्रदेश उदीरक जीव नियमसे हैं, शेष पद भजनीय हैं । सम्यग्मिथ्यात्वके सब पद भजनीय हैं | सोलह कषाय और छह नोकषायोंके सब पद नियमसे हैं । इसी प्रकार सामान्य तिर्यों में जानना चाहिए । $ ३१९. सब नारकी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक, मनुष्यत्रिक और सामान्य द ेवोंसे लेकर नौ मैवेयकतकके द ेवोंमें सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघ के समान है । शेष प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर प्रदेश उदीरक जीव नियमसे हैं, शेष पद भजनीय हैं। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितक के द वोंमें सब प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर प्रद ेश उदीरक जीव नियमसे हैं। शेष पद भजनीय हैं। मनुष्य अपर्याप्तकों में सब प्रकृतियोंके सब पद भजनीय हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए | $ ३२०. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश | ओघ मिथ्यात्व और नपुंसक वेदके भुजगार प्रदेश उदीरक जीव सब जीवोंके कुछ कम द्वितीय भागप्रमाण हैं । अल्पतर प्रद ेश उदीरक जीव सब जीवोंके साधिक द्वितीय भागप्रमाण है । अवस्थित प्रदेश उदीरक जीव सब जीवोंके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं और अवक्तव्य प्रदेश उदीरक जीव सब जीवोंके अनन्तवें भागप्रमाण हैं । इसी प्रकार सम्यक्त्व, सम्याग्मिध्यात्व, सोलह कषाय और आठ नोकषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अवक्तव्य प्रदेश उदीरक जीव सब जीवोंके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । इसी प्रकार सामान्य तिर्यों में जानना चाहिए । $ ३२१. सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त और सामान्य देवोंसे लेकर अपराजित विमान तकके द ेवोंमें सब प्रकृतियोंके भजगार और अल्पतर प्रदेश उदीरकोंका भंग ओघके समान है। शेष पद प्रदेश उदीरक जीव सब जीवोंके असंख्यातवें भागप्रमाण Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए भुजगारो ३११ पंचिंदियतिरिक्खभंगो। णवरि सम्म०--सम्मामि०--इत्थिवे०--पुरिसवे० अबढि०अवत्त० संखे०भागो ! मणुसपज्ज० मणुसिणी०--सव्वट्ठदेवा० भुज०--अप्प० ओघं । सेसपदा० संखे०भागो । एवं जाव० ।। ३२२. परिमाणाणुगमेण दुविहो णिद्देसो--ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०-- सोलसक०--सत्तणोक० सम्बपदा० के० ? अणंता । णवरि मिच्छ०-णस० अवत्त० के० ? असंखेजा। सम्म०--सम्मामि०--इथिवे०-पुरिसवे० सव्वपदा केत्तिया ? असंखेजा । एवं तिरिक्खा० । ३२३. सव्वणिरय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख--मणुसअपज०-देवा जाव णवगेवजा त्ति सव्वपयडीणं सव्वपदा० के० १ असंखेजा । मणुसा पंचिंदियतिरिक्खभंगो । णवरि मिच्छ०-णस० अवत्त० सम्म०--सम्मामि०-इत्थिवेद--पुरिसवेद. सव्वपदा के० ? संखेजा। पजत्त-मणुसिणी--सव्वट्ठदेवा० सव्वपयडी० सव्वपदा० के० ? संखेजा। अणुदिसादि--अवराजिदा त्ति सव्वपयडी० सव्वपदा० के० १ असंखेज्जा । णवरि सम्म० अवत्त० के० ? संखेज्जा । एवं जाव० । ३३२४. खेत्तं पोसणं भुजगारअणुभागउदीरणाए भंगो । हैं । सामान्य मनुष्योंमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान भंग है। इतनो विशेषता है कि सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदके अवस्थित और अवक्तव्य पदके उदीरक जीव सब जीवोंके संख्यातवें भागप्रमाण हैं। मनुष्यपर्याप्त, मनुष्यिनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें भुजगार और अल्पतर प्रदेश उदीरकोंका भंग ओघ के समान है। शेष पद प्रदेश उदीरक जीव सब जीवोंके संख्यातवें भागप्रमाण हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए। 5 ३२२. परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंके सब पद प्रदेशउदीरक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व और नपुंसकवेदके अवक्तव्य प्रदेश उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेद के सब पद प्रदेश उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। .६ ३२३. सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च, मनुष्य अपर्याप्त और सामान्य देवोंसे लेकर नौ प्रैवेयक तकके देवोंमें सब प्रकृतियोंके सब पद प्रदेश उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । सामान्य मनुष्योंमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व और नपुंसकवेदके अवक्तव्य प्रदेश उदीरक जीव तथा सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदके सब पद प्रदेश उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात है। मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें सब प्रकृतियोंके सब पद प्रदेश उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । अनुदिशसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें सब प्रकृतियोंके सब पद प्रदेश उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वके अवक्तव्य प्रदेश उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ३२४. क्षेत्र और स्पर्शनका भंग भुजगार अनुभाग उदीरणाके समान है। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे 1 [वेदगो ७ __$३२५. कालाणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण सव्वपयडीणंसव्वपदा सम्बद्धा । णवरिमिच्छ०--गवंस०अवत्त० सम्म०--सम्मामि०-इत्थिवे०-- पुरिसवे० अवढि०--अवत्त० जह०एयस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो । सम्मामि० भुज०--अप्प० जह० एगस०,उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । एवं तिरिक्खा० । $ ३२६. सव्वणिरय-पंचिंदियतिरिक्खतिय-देवा जाव णवगेवजा त्ति सम्मामिच्छ. ओघं । सेसपयडी० भुज-अप्प० सव्वद्धा । सेसपदाणं जह० एगस०, उक्क० आवलि. असंखे०भागो। पंचिं०तिरि०अपज. सव्वपय० भुज०--अप्प० सव्वद्धा। सेसपदा० जह० एगस०, उक्क० आवलि. असंखे०भागो। एवं मणुसअपज्ज० । णवरि भुज०--अप्प० जह० एयस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। मणुसा० पंचिंदियतिरिक्खभंगो । णवरि मिच्छ०--सम्म०-सम्मामि०-तिण्णिवेद० अवत्त० जह० एयस०, ६ ३२५. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे सब प्रकृतियोंके सब पदोंके प्रदेश उदीरकोंका काल सर्वदा है । इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व और नपुंसकवेदके अवक्तव्य प्रदेश उदीरकोंका तथा सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदके अवस्थित और अवक्तव्य प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगार और अल्पतर प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार तिर्यश्चोंमें जानना चाहिए। विशेषार्थ-मिथ्यात्व और नपुंसकवेदकी अवक्तव्य उदीरणा क्रमसे संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीव ही करते हैं, इसलिये इनके अवक्तव्य प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण बन जानेसे वह उक्त प्रमाण कहा है । इसी प्रकार सम्यक्त्व आदि चार प्रकृतियोंके अवस्थित और अवक्तव्य प्रदेश उदीरक जीवोंके जघन्य और उत्कृष्ट कालके विषयमें विचार कर उसे घटित कर लेना चाहिए । सम्यग्मिथ्यात्व गुण यह सान्तर मागंणा है, इसलिए उसके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालको ध्यानमें रख कर यहाँ सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगार और अल्पतर प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है । शेष कथन स्पष्ट ही है। ३२६. सब नारकी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिक और सामान्य देवोंसे लेकर नौ अवेयक सकके देवोंमें सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर प्रदेश उदीरकोंका काल सर्वदा है। शेष पद प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण । पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर प्रदेश उदीरकोंका काल सर्वदा है। शेष पद उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें सब प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर प्रदेश उदीरककोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। मनुष्योंमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि इनमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और तीन वेदोंके Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए भुजगारो ३१३ उक्क० संखेजा समया । सम्मामि० भुज ० -- अप्प० जह० एयस०, उक्क० अंतोमुहुत्तं । एवं मणुसपञ्जत - मणुसिणीसु । णवरि वेदा जाणियव्वा । ९३२७. अणुदिसादि अवराजिदा चि सम्म० -- बारसक० -- सत्तणोक० आणदभंगो । णवरि सम्म० अवत्त० जह० एयस०, उक्क० संखेज्जा समया । एवं सवट्टे । णवरि सव्वपयडीणं अवत्त० जह० एयस०, उक्क० संखेज्जा समया । एवं जाव० । $ ३२८. अंतराणुगमेण दुविहो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०सोलसक० - सत्तणोक० सव्वपदाणं णत्थि अंतरं निरंतरं । णवरि मिच्छ० अवत्त० अवक्तव्य प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । तथा सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगार और अल्पतर प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि अपने-अपने वेद जान लेने चाहिए | विशेषार्थ- - सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियों में संख्यात जीव ही मियात्व आदि छह प्रकृतियोंकी अवक्तव्य प्रदेश उदीरणा करते हैं, इसलिए इस पढ़के प्रद ेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय बन जानेसे वह तत्प्रमाण कहा है। यद्यपि पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यिनियोंका परिमाण ही संख्यात है फिर भी इनमें उक्त प्रकृतियोंके शेष पदोंके प्रदेश उदीरकोंका तथा अन्य शेष प्रकृतियोंके सब पदोंके प्रदेश उदीरकोंका काल पञ्चेन्द्रिय तिर्यनोंके समान बन जानेसे उसे उनके समान जाननेकी सूचना की है । मात्र उक्त तीनों प्रकारके मनुष्यों में सम्यग्मिथ्यात्वका नाना जीवोंकी अपेक्षा भी उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है, इसलिए इनमें इसके भुजगार और अल्पतर प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बन जाने से वह तत्प्रमाण कहा है। शेष सब कथन स्पष्ट ही है । $ ३२७. अनुदिशसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें सम्यक्त्व, बारह कषाय और सात नोकषायका भंग आनतकल्प के समान है । इतनी विशेषता है कि यहाँ सम्यक्त्वके अबक्तव्य प्रदेश उदीरकों का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय । इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यहाँ सब प्रकृतियोंके अवक्तव्य प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ – अनुदिश आदिके सब देवोंमें जो द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि जीव मर कर उत्पन्न होते हैं उन्हीं के सम्यक्त्वकी अवक्तव्य प्रदेश उदीरणा होती है, ऐसे जीव यदि वहाँ लगातार उत्पन्न हों तो वे संख्यात ही होंगे । यही कारण है कि यहाँ सम्यक्त्वके अवक्तव्य प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है । सर्वार्थसिद्धिके सब देव ही संख्यात हैं, इसलिए यहाँ सब प्रकृतियोंके अवक्तव्य प्रदेश उदीरकों का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय बन जानेसे यह तत्प्रमाण कहा है । शेष कथन स्पष्ट ही है । $ ३२८. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिध्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंके सब पदोंके प्रदेश उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं ४० Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ जह० एयस०, उक्क० सत्त रादिदियाणि । णQसवेद० अवत्त० जह० एयस०, उक्क० चउवीसं मुहुत्तं । सम्मत्त० मिच्छत्तभंगो। णवरि अवढि० जह० एगस०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। एवमित्थिवेद-पुरिसवेद० । णवरि अवत्त० णqसयवेदभंगो । सम्माभि० सुजगार०-अप्पद०-अवत्त० जह० एगस०, उक० पलिदो० असखे०भागो। अवढि० जह० एयस०, उक्क. असंखेज्जा लोगा। ६३२९. आदेसेण णेरइएसु मिच्छ० ओघं । णवरि अवढि० जह० एयस०, उक० असंखेज्जा लोगा । एवं णस० । णवरि अवत्त० णस्थि । एवं सोलमक०छण्णोक० । णवरि अवत्त० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । सम्म०-सम्मामि० ओघं । एवं सव्वणिरय०। है, निरन्तर हैं । इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वके अवक्तव्य प्रदेश उदीरकोंका जघन्य अन्तर काल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल सात दिन-रात है। नपुंसकवेदके अवक्तव्य प्रदेश उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल चौबीस मुहूर्त है। सम्यक्त्वका भंग मिथ्यात्वके समान है। इतनी विशेषता है कि इसके अवस्थित प्रदेश उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर काल असंख्यात लोकप्रमाण है। इसी प्रकार स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसके अवक्तव्य प्रदेश उदीरकोंका भंग नपुंसकवेदके समान है। सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्य प्रदेश उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवस्थित प्रदेश उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोक प्रमाण है। विशेषार्थ-नाना जीवोंकी अपेक्षा उपशमसम्यक्त्वके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालको ध्यानमें रखकर यहाँ पर मिथ्यात्वके अवक्तव्य प्रदेश उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल सात दिन-रात्रि कहा है । सम्यक्त्वके अवक्तव्य प्रदेश उदीरकोंका अन्तरकाल इसी प्रकार जानना चाहिए। कोई अविवक्षित अन्य वेदवाला जीव मरकर नपुंसकवेदी, स्त्रीवेदी या पुरुषवेदी न हो तो वह कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक २४ मुहूर्त तक नहीं होता। यही कारण है कि यहाँ पर इन तीनों वेदोंकी अपेक्षा अवक्तव्य प्रदेश उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल २४ मुहूते कहा है। शेष कथन सुगम है। $३२९. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि इसके अवस्थित प्रदेश उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है। इसी प्रकार नपुंसकवेद की अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यहाँ इसका अवक्तव्य पद नहीं है। इसी प्रकार सोलह कषाय और छह नोकषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके अवक्तव्य प्रदेश उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार सब नारकियों में जानना चाहिए । Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०६२] ३१५ __- उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए भुजगारो ३३०. तिरिक्खेसु ओघं । पंचिंदियतिरिक्खतिये णारयभंगो । णवरि णस० अवत्त० ओघं । इत्थिवेद-पुरिसवेद० ओघं । पज्जत्त० इत्थिवेदो णत्थि । जोणिणीसु पुरिस०-णवुस० णत्थि । इथिवे. अवत्त० णत्थि । पंचिं०तिरिक्खअपज्ज० मिच्छ०सोलसक०-सत्तणोक० णारयभंगो। णबरि मिच्छ० अवत्त० णत्थि । $ ३३१. मणुसतिये पंचिदियतिरिक्खतियभंगो । णवरि मणुसिणी० इात्थवेद. अवत्त० जह० एयस०, उक्क. वासपुधत्तं । मणुसअपज्ज० मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोक० अवढि० णारयभंगा । सेसपदा० जह० एयस०, उक्क० पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो। ३३२. देवाणं पंचिं०तिरिक्खभंगो । णवरि णबुसय० णत्थि। इत्थिवे०-- पुरिसवे० अवत्त० णत्थि । एवं भवणादि जाव सोहम्मा ति । एवं सणकुमारादि णवगेवेजा त्ति । णवरि इथिवे० पत्थि । अणुदिसादि सव्वट्ठा ति सम्म०-बारसक०--सत्तणोक० देवोध । णवरि सम्म० अवत्तव्व० जह• एगस०, उक्क० वासपुधत्तं । सव्वढे पलिदो० संखे० भागी। एवं जाव० । $३३०. तिर्यञ्चोंमें ओघके समान भंग है । पञ्चेन्द्रियतिर्यश्चत्रिक में सामान्य नारकियोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है की इनमें नपुंसकवेदके अवक्तव्य प्रदेश उदीरकोंका भंग ओघके समान है । स्त्रीवेद और पुरुषवेदका भंग ओवके समान है। तिर्थश्च पर्याप्तकों में स्त्रीवेद नहीं है और तिर्यञ्चथोनिनियोंमें पुरुषवेद तथा नपुंसकवेद नहीं है, तथा इनमें स्त्रीवेदका अवक्तव्य पद नहीं है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंका भंग सामान्य नारकियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि इनमें मिथ्यात्वका अवक्तव्य पद नहीं है। $ ३३१. मनुष्यत्रिकमें पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चत्रिकके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यिनियोंमें स्त्रीवेदके अवक्तव्य प्रदेश उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षप्रथक्त्वप्रमाण है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंके अवस्थित पदका भंग नारकियोंके समान है। शेष पद-प्रदेश उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। $ ३३२. देवोंमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चोंके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि इनमें नपुंसकवेद नहीं है । तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेदका अवक्तव्य पद नहीं है । इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर सौधर्म-ऐशान, कल्प तकके देवोंमें जानना चाहिए। इसी प्रकार सनत्कुमार कल्पसे लेकर नौ प्रैवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद नहीं है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सम्यक्त्व बारह कषाय और सात नोकषायोंका भंग सामान्य देवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्वके अवक्तव्य प्रदेश उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल नौ अनुदिश और चार अनुत्तर विमानों में वर्षपृथक्त्वप्रमाण है तथा सर्वार्थसिद्धि में पल्योममके संख्यातवें भागप्रमाण है। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे $ ३३३. भावानुगमेण सव्वत्थ ओदइओ भावो । $ ३३४. अप्पा बहुआणुगमेण दुविहो णिसो – ओघेण आदेसेण य । ओघेण अवट्ठि० उदीरगा अनंतगुणा । भुजगार० सम्म० -- सम्मामि० -- सोलसक० --अटुणोक ० असंखे० गुणा । भुजगार० असंखे ० गुणा । मिच्छ०--णव स० सव्वत्थोबा अवत्त० । असंखे० गुणा । अप्पदर० विसेसाहिया सव्वत्थोवा अवट्टिउदी० । अवत्त० पदेसुदी० अप्पदर० विसेसाहिया । एवं तिरिक्खाणं । । ३१६ [ वैदगो ७ $ ३३५. आदेसेण णेरइय० सव्वत्थोवा मिच्छ० अवत्त० । अवडि० असंखे ० गुणा । उवरि ओघं । सम्म० -- सम्मामि ० - सोलसक० -- सत्तणोक० ओघं । णवरि ण स ० अवत्त ० णत्थि । एवं सव्वणिरय० । $ ३३६. पंचिदियतिरिक्खतिये ओघं । णवरि मिच्छ० -- णवुंस० सव्वत्थोवा अवस० । अवट्ठि० असंखे० गुणा । उवरि ओघं । णवरि पज्ज० इस्थिवे ० णत्थि । व स० पुरिसवेदभंगो । जोणिणीसु पुरिसवे० - ण स ० णत्थि । इत्थिवेद० अबस ० णत्थि । पंचिं० तिरि० अपज ० - मणुसअपज० मिच्छ० - सोलसक० - सत्तणोक० ओघं । वरि मिच्छ०-- णव स० अवत्त० णत्थि । $ ३३३. भावानुगमकी अपेक्षा सर्वत्र औदयिक भाव है । $ ३३४. अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओ से मिथ्यात्व और नपुंसकवेदके अवक्तव्य प्रदेश उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थित प्रदेश उदीरक जीव अनन्तगुणे हैं। उनसे भुजगार प्रदेश उदीक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अल्पतर प्रदेश उदीरक जीव विशेष अधिक हैं । सम्यक्त्व, सम्यग्मिध्यात्व. सोलह कषाय और आठ नोकषायोंके अवस्थित प्रदेश उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवक्तव्य प्रदेश उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे भुजगार प्रदेश उदीरक जीव असंख्यात - गुणे हैं। उनसे अल्पतर प्रदेश उदीरक जीव विशेष अधिक हैं । ३३५. आदेशसे नारकियों में मिथ्यात्वके अवक्तव्यप्रदेशउदीरक जीव सबसे स्तोक हैं । उनसे अवस्थित प्रदेशउदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। आगे ओघके समान भंग है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंका भंग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेदका अवक्तव्य पद नहीं है। इसी प्रकार सब नारकियों में जानना चाहिए । $ ३३६. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चनिकमें ओघके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि इनमें मिथ्यात्व और नपुंसकवेदके अवक्तव्यप्रदेश उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थित प्रदेशउदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। आगे ओघके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्च पर्याप्तकों में स्त्रीवेद नहीं है तथा नपुंसकवेदका भंग पुरुषवेदके समान है । तिर्यख योनिनियों में पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं है तथा इनमें स्त्रीवेदका अवक्तव्य पद नहीं है । पचेन्द्रियतिर्यअपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायों का भंग ओघ के समान है । इतनी विशेषता है कि इनमें मिथ्यात्व और नपुंसकवेदका अवक्तव्यपद नहीं है । Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए भुजगारो ३१७ ३३७. मणुसाणं पंचिंदियतिरिक्खभंगो । णवरि सम्म०--सम्मामि०--इत्थिवेपुरिसवे. संखेजगुणं कायव्वं । एवं पजत्त-मणुसिणीसु । णवरि सव्वत्थ संखेजगुणं कायव्यं । पजत्त० इत्थिवेदो पत्थि । णवुस० पुरिसवेदभंगो । मणुसिणीसु पुरिसवे०गवुस० गस्थि । इस्थिवेद० सव्वत्थोवा अवत्त०पदेसुदी० । अवट्टि उदीरगा संखेजगुणा । सेसं तं चेव । $३३८. देवाणं पंचिंदियतिरिक्खभंगो। णवरि णस० णत्थि । इत्थिवे०पुरिसवे० अवत्त०पदेसुदी० णत्थि । एवं भवणादि जाव सोहम्मा त्ति । एवं सणक्कुमारादि जाव गवगेवजा त्ति । णवरि इत्थिवेदो पत्थि । अणुदिसादि जाव सव्वट्ठा त्ति सम्मत्त० सव्वत्थोवा अवत्त०पदेसुदीरगा। अवढिदपदेसुदीरगा असंखेज्जगुणा । उवरि ओघं । बारसक०-सत्तणोक० आणदभंगो । एवं सव्वट्ठे। णवरि संखेज्जगुणं कादव्वं । एवं जाव। एवं भुजगारउदीरणा समत्ता $ ३३९. पदणिक्खेवो वडिउदीरणा च चिंतियण णेदव्वा । तो पदेसुदीरणा समत्ता । एवं विदियगाहापुव्वद्धस्स अत्थपरूवणा समत्ता । ६३३७. मनुष्योंमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी अपेक्षा अल्पवहुत्व कहते समय असंख्यातगुणेके स्थानमें संख्यातगुणा करना चाहिए। इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यहाँ सर्वत्र असंख्यातगुणेके स्थानमें संख्यातगुणा करना चाहिए। मनुष्य पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेद नहीं है तथा नपुंसकवेदका भंग पुरुषवेदके समान है। मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं है तथा इनमें स्त्रीवेदके अवक्तव्य प्रदेश उदीरक जीव सबसे स्तो हैं । उनसे अवस्थित प्रदेश उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। शेष अल्पबहुत्व वही है। $ ३३८. देवोंमें पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनमें नपुंसकवेद नहीं है तथा इनमें स्त्रीवेद और पुरुषवेदके अवक्तव्यप्रदेशउदीरक जीव नहीं हैं। इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर सौधर्म-ऐशान कल्पतकके देवोंमें जानना चाहिए। इसी प्रकार सनत्कुमार कल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद नहीं है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवों में सम्यक्त्वके अवक्तव्य प्रदेश उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थित प्रदेश उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। आगे ओघके समान भंग है । बारह कषाय और सात नोकषायोंका भंग आनत कल्पके समान है। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि असंख्यात गुणेके स्थानमें संख्यातगुणा करना चाहिए । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। इस प्रकार मुजगार प्रदेश उदीरणा समाप्त हुई। ६३३९. पदनिक्षेप और वृद्धि प्रदेश उदीरणाको विचार कर जानना चाहिए। ___इसके बाद प्रदेश उदीरणा समाप्त हुई। इस प्रकार दूसरी गाथाके पूर्वार्धकी अर्थप्ररूपणा समाप्त हुई। Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ $ ३४०. संपहि विदियगाहापच्छिमद्धस्स अत्थविहासा कायव्या, पत्तावसरत्तादो । सा बुण हेट्ठदो चैव गया त्ति पदुष्पायणट्टमुत्तरमुत्तमोइणं ३१८ * 'सांतर - निरंतरो वा कदि वा समया दु बोद्धव्वा' त्ति । एत्थ अंतरं च कालो चट्ठदो विहासिया । $ ३४१. गयत्थमेदं सुत्तं, 'सांतर - णिरंतरो वा' त्ति एदेण गाहासुत्तात्रयवेण सूचिकालंतराणं हेट्ठियोवरिमसे साणिओगद्दाराविणाभावीणं पयडि- डिदि - अणुभागपदेसुदीरणासु सवित्थरमणुमग्गियत्तादो | एवं विदियगाहाए अत्थपरूवणं समाणिय संपहि तदिगाहाए जहावसरपत्तमत्थविहासणं कुणमाणो तिस्से वि दो चैव विहासियत्तादो वित्थर परूवणमुज्झिग्रूण संखेवत्थपरूवणमुवरिमं सुत्तपबंधमाह - * 'बहुगदरं बहुगदरं से काले को णु थोवदरगं वा' त्ति एत्तो भुजगारो कायो । $ ३४२. एसा ताव तदियगाहाभुजगारुदीरणाए कथं पडिबद्धा त्ति पुच्छाए frorst करके । तं जहा -' 1 - 'बहुगदरं बहुगदरं' इच्वेदेण सुत्तावयवेण भुजगारसण्णिदो असे सूचिदो | 'से काले को णु थोवदरगं वा' त्ति एदेण वि अप्पदरसणिदो ६ ३४०. अब दूसरी गाथा के उत्तरार्ध के अर्थके विशेष व्याख्यानका अवसर प्राप्त होनेसे उसका व्याख्यान करना चाहिए । किन्तु उसका विशेष व्याख्यान पहले ही कर आये हैं इस वातका कथन करने के लिए आगेका सूत्र आया है * 'सांतर - णिरंतरो वा कदि वा समया दुबोद्धव्वा' इस प्रकार इस गाथांशमें सूचित हुए अन्तर और कालका विशेष व्याख्यान पहले ही कर आये हैं । $ ३४१. यह सूत्र गतार्थ है, क्योंकि 'सांतर - णिरंतरो वा' इस प्रकार गाथा सूत्रके इस tara द्वारा सूचित हुए पिछले और आगे के शेष अनुयोगद्वारोंके अविनाभावी काल और अन्तर अनुयोगद्वारोंका प्रकृति उदीरणा, स्थिति उदीरणा, अनुभाग उदीरणा और प्रदेश उदीरणा व्याख्यानके समय विस्तार के साथ अनुमार्गण कर आये हैं । इस प्रकार दूसरी गाथाके अर्थका कथन समाप्त कर अब तीसरी गाथाके अवसर प्राप्त अर्थका व्याख्यान करते हुए उसका भी पहले ही व्याख्यान कर आये हैं, इसलिए विस्तार पूर्वक उसके व्याख्यानको छोड़ कर संक्षेपसे अर्थका कथन करनेके लिए आगेका सूत्रप्रबन्ध कहते हैं * 'बहुदरं बहुगदरं से काले को णु थोवदरगं वा' इस प्रकार इस तीसरी गाथा द्वारा भुजगार उदीरणाका व्याख्यान करना चाहिए । $ ३४२. यह तीसरी गाथा भुजगार उदीरणामें किस प्रकार प्रतिबद्ध है ऐसी पृच्छा होने पर उसका निर्णय करते हैं । यथा - 'बहुगदरं बहुगदर' इस प्रकार इस सूत्रावयव द्वारा भुजगार संज्ञावाली अवस्था विशेष सूचित की गई है । काले को णु थोवदरगं वा' इस Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधादिपंचपदप्पाबहुअणिदेसो गा० ६२ ] अवत्थाविसेसो सूचिदो । दोण्हमेदेसिं देसामासयभावेणावट्ठिदावत्तव्य सण्णिदाणमवत्थंतराणमेत्थेव संगहो दट्ठव्वो । पुणो 'अणुसमयमुदीरेंतो' इच्चेदेण गाहापच्छद्वेण भुजगारविसयाणं समुक्कित्तणादिअणियोगद्दाराणं देसामासयभावेण कालाणियोगो परूविदो । तदो एवंविहो भुजगारो एत्थ विहासियव्वो ति एसो एदस्स सुत्तस्स भावत्थो । सो वुण भुजगारो पयडिभुजगारादिभेदेण चउव्विहो होदि त्ति जाणावणमाह ३१९ * पयडिभुजगारो ट्ठिदिभुजगारो अणुभागभुजगारो पदेसभुजगारो । $ ३४३. एवमेसो पयडि-ट्ठिदि- अणुभाग-पदेसुदीरणाविसयो चउव्विहो भुजगारो एत्थ विहासिव्यो त्ति भणिदं होड़ । ण केवलं भुजगारो चैव एत्थ विहासियन्वो, किंतु गारविलक्खो पदणिक्खेवो, पदणिक्खेवविसेसलक्खणा वड्डिउदीरणा च विहासियव्वा, तेसिं तत्थेवं तन्भावादो त्ति । एदं च सव्वं पयडि - डिदि - अणुभाग-पदेसुदीरणासु जावसरमेव विहासियं त्ति दाणि तप्पवंचो कीरदे | * एवं मग्गणाए कदाए समत्ता गाहा भवदि । $ ३४४. सुगममेदं पयदत्थोवसंहारवकं । एवं पयदत्थमुवसंहरिय संपहि चउत्थीए गाहा अत्थविहासमुवरिमसुत्तपबंधमोदारइस्सामो प्रकार इस द्वारा भी अल्पतर संज्ञावाली अवस्थाविशेष सूचित की गई है। इन दोनोंके देशामर्श कभाव से अवस्थित और वक्तव्य संज्ञावाले अवस्थाविशेषोंका यहीं पर संग्रह कर लेना चाहिए । पुनः 'अणुसमयमुदीरेंतो' इस प्रकार उक्त गाथाके इस उत्तरार्धद्वारा भुजगारविषयक समुत्कीर्तनादि अनुयोगद्वारोंके देशामर्पकरूपसे काल अनुयोगद्वारका कथन किया है । इसलिए इस प्रकार भुजगारका यहाँ पर व्याख्यान करना चाहिए यह इस सूत्रका भावार्थ है । परन्तु वह भुजगार प्रकृति भुजगार आदिके भेदसे चार प्रकारका है यह ज्ञान कराने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं— * वह भुजगार चार प्रकारका है - प्रकृतिभुजगार, स्थितिभुजगार, अनुभागभुजगार और प्रदेशभुजगार | $ ३४३. इस प्रकार प्रकृतिउदीरणा, स्थितिउदीरणा, अनुभागउदीरणा और प्रदेश उदीरणाको विषय करनेवाले चार प्रकारके उस भुजगारका यहाँ व्याख्यान करना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यहाँ पर केवल भुजगारका ही व्याख्यान नहीं करना चाहिए, किन्तु भुजगारविशेष है लक्षण जिसका ऐसे पदनिक्षपका तथा पढ़निक्षेपविशेष है लक्षण जिसका ऐसी वृद्धि उदीर-. णाका व्याख्यान करना चाहिए, क्योंकि उनका उसीमें अर्थात् भुजगारउदीरणा में ही अन्तर्भा होता है । परन्तु इस सबका प्रकृति उदीरणा, स्थिति उदीरणा, अनुभाग उदीरणा और प्रदेशउदीरणाके समय यथावसर ही व्याख्यान कर आये हैं, इसलिए इस समय उनका विस्तार नहीं करते हैं । * इस प्रकार भुजगारका अनुमार्गण करने पर तीसरी गाथाका अर्थ समाप्त होता है । $ ३४४. प्रकृत अर्थका उपसंहार करनेवाला यह वाक्य सुगम है । इस प्रकार प्रकृत Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ ___ जो जं संकामेदि य ज बंधदि जं च जो उदीरेदि। तं होइ केण अहियं डिदि-अणुभागे पदेसग्गे ॥३२॥ त्ति $३४५. पुन्विल्लेहिं तीहिं गाहासुत्तेहिं पयडि-द्विदि-अणुभाग-पदेसविसयासु उदयोदीरणासु सवित्थरं विहासिय समत्तासु किमट्ठमेसा चउत्थी गाहा समोइण्णा त्ति ? तासिं चेव उदयोदीरणाणं पयडि-द्विदि-अणुभाग-पदेसविसयाणं बंध-संकम-संतकम्मेहिं सह जहण्णुकस्सपदेहि अप्पाबहुअं परूवणट्ठमेसा गाहा समागदा । तं जहा. ३४६. 'जो जं संकामेदि य' इच्चेदेण सुत्तावयवेण संकमो गहिदो। 'जं बंधदि' त्ति एदेण वि बंधो गहेयव्यो । एदेणेव संतकम्मस्स वि गहणं कायव्यं, बंधस्सेव विदियादिसमएसु संतकम्मववएसोववत्तीदो । 'जं च जो उदीरेदि' त्ति एदेण वि उदयोदीरणाणं दोण्हं पि संगहो कायव्यो, उदीरणाणिद्देसस्स देसामासयत्तादो। एदेसिं च पंचण्हं पदाणं जहण्णुक्कस्सभावविसेसिदाणमेक्कमेक्केण सह अप्पाबहुअं कायव्वमिदि जाणावणटुं 'तं केण होइ अहियं' ति भणिदं । एदेसिं च संकमादिपदाणं पयडि-द्विदिअणुभाग-पदेसविसयत्तजाणावणटुं 'हिदि-अणुभागे पदेसग्गे' त्ति विसेसणं । ण च एत्थ अर्थका उपसंहार करके अब चौथी गाथाके अर्थका व्याख्यान करनेके लिए आगेके सूत्रप्रबन्धका अवतार करेंगे * जो जीव स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंमें से जिसे संक्रमित करता है, जिसे बाँधता है और जिसे उदीरित करता है वह किससे अधिक होता है ॥६२॥ $३४५. शंका-पूर्वकी तीन गाथाओं द्वारा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशविषयक उदय-उदीरणाका विस्तारके साथ व्याख्यान समाप्त होने पर यह चौथी गाथा किसलिए आई है। समाधान-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशविषयक उन्हीं उदय और उदीरणाके बन्ध, संक्रम और सत्कर्म के साथ जघन्य और उत्कृष्ट विशेषण सहित अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिए वह गाथा आई है । यथा $ ३४६. उक्त गाथामें आये हुए 'जो जं संकामेदि' इस सूत्रवचन द्वारा संक्रमको ग्रहण किया है। 'जं बंधदि' इस पदद्वारा भी बन्धको ग्रहण करना चाहिए। तथा इसी पदद्वारा सत्कर्मको भी ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि बन्धकी ही द्वितीयादि समयोंमें सत्कर्म संज्ञा बन जाती है। 'जं च जो उदोरेदि' इस पद द्वारा भी उदय और उदीरणा इन दोनोंका भी संग्रह करना चाहिए, क्योंकि यहाँ पर उदीरणा पदका निर्देश देशामर्षक है। जघन्य और उत्कृष्ट विशेषण युक्त इन्हीं पाँचों पदोंका एकका एकके साथ अल्पबहुत्व करना चाहिए इस बातका ज्ञान कराने लिए उक्त गाथामें 'तं केण होइ अहियं' यह पद कहा है। तथा ये संक्रमादिक प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशविषयक होते हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिए उक्त गाथामें हिदि अनुभागे पदेसग्गे' यह विशेषण दिया है। यहाँ पर उक्त पदमें 'प्रकृति' पदका Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] बंधादिपंचपदप्पाबहुअं ३२१ पयडिणिद्देसो पत्थि त्ति आसंकणिज्जं, द्विदि-अणुभाग-पदेसाणं तदविणाभावित्तेण तदुवलद्धीदो। तदो पयडि-द्विदि-अणुभाग-पदेसविसयबंध-संकम-संतकम्मोदयोदीरणाणं जहण्णुकस्सपदप्पाबहुअपरूवणट्ठमेदं गाहामुत्तमोइण्णं ति सिद्धं । णेदमेत्थासंकणिज्जं, वेदगपरूवणाए उदयोदीरणाओ मोत्तण बंध-संकम-संतकम्माणं परूवणा असंबद्धा त्ति ? किं कारणं ? उदयोदीरणविसयणिण्णयजणणद्वमेव तेसि पि परूवणे विरोहाभावादो । विहत्ति-संकम-वेदगाहियारेसु वुत्तसव्वत्थोवसंहारमुहेण चूलियापरूवणटुं गाहासुत्तमेदमोइण्णं ति भावत्थो । एवमेदिस्से गाहाए चउत्थीए अत्थं' परूविय संपहि एत्थेव णिण्णयजणणहँ चुण्णिसुत्ताणुगमं कस्सामो * एदिस्से गाहाए अत्थो-बंधो संतकम्मं उदयोदीरणा संकमो एदेसिं पंचण्हं पदाणं उक्कस्समुक्कस्सेण जहण्णं जहण्णण अप्पाबहुअं पयडीहिं हिदीहिं अणुभागेहिं पदेसेहिं । $३४७. एत्थ सुत्तत्थसंबंधे कीरमाणे पयडीहिं द्विदीहिं अणुभागेहिं पदेसेहिं य एदेसिं पंचण्हं पदाणमप्पाबहुअमेदिस्से चउत्थीए सुत्तगाहाए अत्थो ति पदसंबंधी कायव्यो । तत्थ काणि ताणि पंच पदाणि त्ति वुत्ते 'बंधो संतकम्ममुदयोदीरणा संकमो' निर्देश नहीं किया है ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि स्थिति, अनुभाग और प्रदेशके अविनाभावी होनेसे उसका ग्रहण हो जाता है। इसलिए प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशविषयक बन्ध, संक्रम, सत्कर्म, उदय और उदीरणाके जघन्य और उत्कृष्ट विशेषणयुक्त अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिए यह गाथा सूत्र आया है यह सिद्ध हुआ। ___ वेदकप्ररूपणामें उदय और उदीरणाके सिवाय बन्ध, संक्रम और सत्कर्मकी प्ररूपणा असम्बद्ध है ऐसी आशंका यहाँ नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उदय और उदीरणाविषयक निर्णयके करनेके लिए ही उनका भी यहाँ कथन करने में कोई विरोध नहीं आता। विभक्तिअधिकार, संक्रम अधिकार और वेदक अधिकारमें जो अर्थ कहा गया है उस सब अर्थके उपसंहार द्वारा चूलिकाका कथन करनेके लिए यह गाथा सूत्र आया है यह उक्त कथनका भावार्थ है। इस प्रकार इस चौथी गाथाके अर्थका कथन करके अब इसी विषयमें निर्णय करनेके लिए चूर्णिसूत्रका अनुगम करेंगे * इस गाथाका अर्थ-बन्ध, सत्कर्म, उदय, उदीरणा और संक्रम इन पाँचों पदोंका प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंका आवलम्बन लेकर उत्कृष्टका उत्कृष्टके साथ और जघन्यका जघन्यके साथ अल्पबहुत्व करना चाहिए। $ ३४७. यहाँ पर सूत्र और अर्थका सम्बन्ध करनेपर प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंकी अपेक्षा इन पाँच पदोंका अल्पबहुत्व करना चाहिए यह इस चौथी सूत्रगाथाका अर्थ है ऐसा यहाँ पदसम्बन्ध करना चाहिए। प्रकृतमें वे पाँच पद कौन हैं ऐसी पृच्छा १. आ०-ता०प्रत्योः च उत्थाणत्थं इति पाठः। ४१ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [वेदगो७ त्ति तेसिं णामणिदेसो कओ। कथं तेसिमप्पाबहुअं कायव्वमिदि पुच्छिदे 'उक्कस्समुक्कस्सेण जहण्णं जहण्णेणे' त्ति भणिदं । पयडि-द्विदि-अणुभाग-पदेसविसयजहण्णुकस्सबंध-संकमसंतकम्मोदयोदीरणाणं सत्थाणप्पाबहुअमेत्थ कायव्वमिदि वुत्तं भवदि । तदो एदेसिं च जहाकम परूवणं कुणमाणो सुत्तयारो पयडीहिं ताव उक्स्सप्पाबहुअपरूवणट्ठमाह___ * पयडीहिं उक्कस्सेण जाओ पयडीओ उदीरिज्जंति ओदिण्णाओ च ताओ थोवाओ। ६३४८. एत्थ 'पयडीहिं' ति णिद्देसो डिदि-अणुभाग-पदेसवुदासफलो । 'उक्कस्सेणे' त्ति णिद्दसो जहण्णपदपडिसेहट्ठो। 'जाओ पयडीओ उदीरिजंति ओदिण्णाओ च ताओ थोवाओ' ति वयणमुदयोदीरणपयडीणं समाणभावपदुप्पायणदुवारेण उवरि भणिस्समाणासेसपदेहितो थोवभावविहाणफलं । कुदो एदासिं थोवभावणिण्णयो चेव ? दससंखावच्छिण्णपमाणत्तादो। * जाओ बझंति ताओ संखेजगुणाओ। $३४९. कुदो ? वावीससंखावच्छिण्णपमाणत्तादो।' होनेपर बन्ध, सत्कर्म, उदय, उदीरणा और संक्रम इस प्रकार उनका नामनिर्देश किया है । उनका अल्पबहुत्व किस प्रकार करना चाहिए ऐसी पृच्छा होनेपर उत्कृष्टका उत्कृष्टके साथ और जघन्यका जघन्यके साथ यह कहा है। प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशविषयक जघन्य और उत्कृष्ट विशेषण युक्त बन्ध, संक्रम, सत्कर्म, उदय और उदीरणाका स्वस्थान अल्पबहुत्व यहाँ पर करना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इसलिए इनका क्रमसे कथन करते हुए सूत्रकार प्रकृतियोंकी अपेक्षा सर्व प्रथम उत्कृष्ट अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिए सूत्र कहते हैं * प्रकृतियोंकी अपेक्षा जो प्रकृतियाँ उदीरित होती हैं या उदयमें आती हैं वे स्तोक हैं। $३४८. इस सूत्रमें 'पयडीहिं' पदका निर्देश स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंके निराकरण करनेके लिए किया है। 'उक्कस्सेण' पदका निर्देश जघन्य पदके निराकरण करनेके लिए किया है । 'जाओ पयडीओ उदीरिऑति ओदिण्णाओ च ताओ थोवाओं' पदका निर्देश उदय और उदीरणारूप प्रकृतियोंकी समानताके कथनके द्वारा आगे कहे जानेवाले समस्त पदोंसे स्तोकपनेका विधान करनेके लिए किया है। शंका-इनके स्तोकपनेका निर्णय है ही यह कैसे ? समाधान-क्योंकि इनका दस संख्यारूप परिमितप्रमाण है। * जो प्रकृतियाँ बँधती हैं वे उनसे संख्यातगुणी हैं। $ ३४९. क्योंकि उनका बाईस संख्यारूप परिमित प्रमाण है। १. मूलप्रतौ मध्ये 'संखाव' इति पाठः त्रुटितः । Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधादिपंचपदप्पा बहुअं * जाओ संकामिज्जंति ताओ विसेसाहियाओ । $ ३५० कुदो १ सत्तावीसपर्यडिपमाणत्तादो । * संतकम्मं विसेसाहियं । $ ३५१ कुदो ? अट्ठावीस मोहपयडीण मुकस्ससंतकम्मभावेण समुवलंभादो | एवं पयडीहि उकस्सप्पाबहुअं समत्तं । $ ३५२. संपहि पयडीहि जहण्णप्पा बहुअगवेसणट्टमाह- * जहण्णाओ जाओ पयडीओ बज्भंति संकामिज्जति उदीरिज्जंति उदण्णाओ संतकम्मं च एक्का पयडी । गा० ६२ ] - $ ३५३. तं जहा – बंधेण ताव जहण्णेण लोहसंजलणसण्णिदा एक्का चैव पयडी होदि, अणियट्टम्म मायासंजलणबंधवोच्छेदे तदुवलंभादो । संकमो वि मायासंजलणसदा किस्से चैव पयडीए होइ, माणसंजलणसंकमवोच्छेदे तदुवलंभादो | उदयोदीरण-संतकम्माणं पि जहण्णभावो अणियट्टि -सुहुमसांपराइएस घेत्तव्वो । एवमेदासिं जहणणबंध - संकम- संतकम्मोदयदीरणाणमेयपयडिपमाणत्तदो णत्थि अप्पाचहुअ * जो प्रकृतियाँ संक्रमित होती हैं वे उनसे विशेष अधिक हैं । $ ३५० क्योंकि वे सत्ताईस प्रकृतिप्रमाण हैं । * उनसे सत्कर्मरूप प्रकृतियाँ विशेष अधिक हैं । ३२३ $ ३५१. क्योंकि उत्कृष्ट सत्कर्मरूपसे अट्ठाईस मोहप्रकृतियोंकी उपलब्धि होती है । इस प्रकार प्रकृतियों की अपेक्षा उत्कृष्ट अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । $ ३५२. अब प्रकृतियोंकी अपेक्षा जघन्य अल्पबहुत्वका अनुसन्धान करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * जघन्यरूपसे जो प्रकृतियाँ बँधती हैं, संक्रमित होती हैं, उदीरित होती हैं, उदयको प्राप्त होती हैं तथा सत्कर्मरूपमें हैं वह एक प्रकृति है । $ ३५३. खुलासा इस प्रकार है - बन्धकी अपेक्षा तो कमसे कम लोभसंज्वलन संज्ञावाली एक ही प्रकृति है, क्योंकि अनिवृत्तिकरणमें मायासंज्वलनकी बन्धव्युच्छित्ति होने पर उसकी उपलब्धि होती है । संक्रमरूप भी मायासंज्वलन संज्ञावाली एक ही प्रकृति है, क्योंकि मानसंज्वलनके संक्रमकी व्युच्छित्ति होने पर उसकी उपलब्धि होती है । उदय, उदीरणा और सत्कर्मका भी जघन्यपना अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्पराय में ग्रहण करना चाहिए । इस प्रकार इन जघन्य बन्ध, जघन्य संक्रम, जघन्य सत्कर्म, जघन्य उदय और Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ३२४ मिदि जाणविदमेदेण सुत्तेण । [ वेदगो ७ एवं जहण्णप्पा बहुए समचे पयडिविसयप्पा बहुअं समचं । ३५४. संपहि विदिप्पा बहुअपरूवणमुत्तरमुत्तपबंधमाह - * द्विदीहिं उक्कस्सेण जाओ द्विदीओ मिच्छुत्तस्स बज्भंति ताओ थोवाओ । ३५५. एत्थ ठिदिविसयमप्पाबहुअं भणामि त्ति जाणावणङ्कं 'द्विदीहिं' ति . णिसो । तत्थ वि जहण्णुकस्स भेदेण दुविहप्पाचहुअसंभवे उक्कस्सप्पाबहुअं ताव उच्चदि त्ति पदुप्पायणट्ठमुक्कस्सेणे ति णिसो कओ । तं च पयडिपरिवाडिमस्सियूण परूवेमि त्ति जाणावणङ्कं 'मिच्छत्तस्से' ति णिद्देसो । तदो मिच्छत्तस्स जाओ द्विदीओ उकस्सेण बज्झति ताओ थोवाओ ति सुत्तत्थसंबंधो । किंपमाणाओ मिच्छत्तस्स उकस्सेण झमाणद्विदीओ ? आबाहूणसत्तरिसागरोवमकोडा कोडिमेत्ताओ । कुदो १ णिसेयद्विदीर्ण चैव विवक्खियत्तादो । * उदीरिज 'ति संकामिज्जति च विसेसाहियाओ । ९ ३५६. मिच्छत्तस्स उक्कस्सेण जाओ द्विदीओ त्ति पुव्वसुत्तादो अणुवट्टदे । तदो मिच्छत्तस्स संकामिजमाणोदीरिजमार्णाट्ठदीओ समाणाओ होदूण पुव्विल्लबज्झमाण जघन्य उदीरणाके एक प्रकृतिप्रमाण होनेसे अल्पबहुत्व नहीं है इस बातका ज्ञान इस सूत्र द्वारा कराया गया है । इस प्रकार जघन्य अल्पबहुत्व के समाप्त होने पर प्रकृतिविषयक अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । $ ३५४. अब स्थिति अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं* स्थितियोंकी अपेक्षा उत्कृष्टरूपसे मिथ्यात्वकी जो स्थितियाँ बँधती हैं वे स्तोक हैं । $ ३५५. यहाँ स्थितिविषयक अल्पबहुत्वको कहते हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिए 'द्विदीहिं' पदका निर्देश किया है । उसमें भी जघन्य और उत्कृष्टके भेदसे दो प्रकारके अल्पबहुत्वके सम्भव होनेपर सर्वप्रथम उत्कृष्ट अल्पबहुत्वका कथन करते हैं इस बातका कथन करनेके लिए ‘उक्कस्सेण' पदका निर्देश किया है । और उसे प्रकृतियोंकी परिपाटीका आश्रय कर कहते हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिए 'मिच्छत्तस्स' पदका निर्देश किया है । इसलिए मिथ्यात्वकी जो स्थितियाँ उत्कृष्टरूपसे बँधती हैं वे स्तोक हैं इस प्रकार सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध है । मिध्यात्वकी उत्कृष्टरूपसे बध्यमान स्थितियोंका क्या प्रमाण है ? वे आबाधासे न्यून सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपमप्रमाण हैं, क्योंकि यहाँ पर निषेकस्थितियाँ ही विवक्षित हैं। * उनसे उदीर्यमाण और संक्रमित होनेवाली स्थितियाँ विशेष अधिक हैं । $ ३५६. ‘मिच्छत्तस्स जाओ द्विदीओ' इसकी पूर्व सूत्रसे अनुवृत्ति होती है, इसलिए Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] बंधादिपंचपदप्पाबहुअं ३२५ द्विदीहितो विसेसाहियाओ त्ति सुत्तत्थसंबंधो। कुदो एदासि विसेसाहियत्तं ? बंधावलियाए उदयावलियाए च ऊणसत्तरिसागरोवमकोडाकोडिपमाणत्तादो । * उदिण्णाओ विसेसाहियाओ। . . 5 ३५७. तं कथं ? उदीरिजमाणद्विदीओ सव्वाओ चेव उदिण्णाओ। पुणो तत्कालवेदिजमाणउदयद्विदी वि उदिण्णा होइ, पत्तोदयकालत्तादो। तदो एगट्ठिदिमेत्तेण विसेसाहियत्तमेत्थ घेत्तव्यं । । * संतकम्मं विसेसाहियं । $ ३५८. कुदो ? संपुण्णसत्तरिसागरोवमकोडाकोडिपमाणत्तादो। केत्तियमेत्तो विसेसो ? समयूणदोआवलिमेत्तो, बंधावलियाए सह समयूणुदयावलियाए एत्थ पवेसुवलंभादो। * एवं सोलसकसायाणं । ३५९. सुगममेदमप्पणासुत्तं, अप्पाबहुआलावकयविसेसाभावणिबंणत्तादो । * सम्मत्तस्स उक्कस्सेण जाओ हिदीओ संकामिज ति उदीरिज ति च ताओ थोवाओ। मिथ्यात्वकी संक्रमित होनेवाली और उदीरित होनेवाली स्थितियाँ समान होकर पूर्व की बध्यमान स्थितियोंसे विशेष अधिक हैं इस प्रकार स्त्रका अर्थके साथ सम्वन्ध है। शंका-इनका विशेषाधिकपना किस कारणसे है ? समाधान—क्योंकि ये क्रमसे बन्धावलि और उदयावलिसे न्यून सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपमप्रमाण हैं। * उनसे उदयरूप स्थितियाँ विशेष अधिक हैं। $ ३५७. वह कैसे ? क्योंकि उदीर्यमाण सभी स्थितियाँ उदयरूप हैं। तथा तत्काल वेद्यमान स्थिति भी उदयरूप है, क्योंकि उसका उदयकाल प्राप्त है। इसलिए उदीर्यमाण स्थितियोंसे उदयरूप स्थितियाँ एक स्थितिमात्र विशेष अधिक हैं ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। * उनसे सत्कर्म विशेष अधिक है। $ ३५८. क्योंकि सत्कर्मरूप स्थितियोंका प्रमाण पूरा सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम है। शंका-विशेषका प्रमाण कितना है ? समाधान—एक समय कम दो आवलिप्रमाण है, क्योंकि बन्धावलिके साथ एक समय कम उदयावलिका यहाँ प्रवेश उपलब्ध होता है। ___ * इसी प्रकार सोलह कषायोंके विषयमें जानना चाहिए। - ३५९. यह अर्पणासूत्र सुगम है, क्योंकि अल्पबहुत्व आलापकृत विशेषभाव इसका कारण है। ___ * सम्यक्त्वकी उत्कृष्टरूपसे जो स्थितियाँ संक्रमित होती हैं और उदीरित होती हैं वे स्तोक हैं। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ ____३६० मिच्छत्स्स उक्स्सद्विदि बंधिय अंतोमुहुनपडिभग्गेण वेदगसम्म पडिवण्णे सम्मनस्स उक्कस्सटिदिसंतकम्ममंतोमुहुत्तूणसत्तरिसागरोवमकोडाकोडिमेत्तं होइ। पुणो तं संतकम्मं सम्माइट्ठिविदियसमए उदयावलियबाहिरादो ओकट्टियण वेदमाणस्स उकस्सहिदिउदीरणा उक्कस्सहिदिसंकमो च होदि । तेण कारणेणंतोमुहुत्तणसत्तरिसागरोवमकोडाकोडीओ आवलियूणाओ सम्मत्तस्स संकामिजमाणोदीरिजमाण द्विदीओ होति ति थोवाओ जादाओ। * उदिण्णाओ विसेसाहियाओ। $ ३६१. केचियमेत्तो विसेसो ? एगट्ठिदिमेत्तो । किं कारणं ? तत्कालवेदिजमाणुदयविदीए वि एत्थंतब्भावदसणादो। * संतकम्मं विसेसाहियं । ३६२. केत्तियमेत्तो विसेसो ? संपुण्णावलियमेत्तो । किं कारणं ? सम्माइट्ठिपढमसमए गलिदेगट्टिदीए सह समयूणुदयावलियाए एत्थ पवेसुवलंभादो। * सम्मामिच्छत्तस्स जाओ द्विदीओ उदीरिजति ताओ थोवाओ। $३६०. मिथ्यात्वको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कर अन्तर्मुहूर्तमें प्रतिभग्न हुए जीवके वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होनेपर सम्यक्त्वका उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म अन्तर्मुहूर्त कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपमप्रमाण होता है। पुनः उस सत्कर्मका सम्यग्दृष्टिके दूसरे समयमें उदयावलिके बाहरसे अपकर्षण कर वेदन करनेवाले जीवके उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा और उत्कृष्ट स्थिति संक्रम होता है। इस कारण अन्तर्महर्त कम सत्तर कोडाकोडी सागरोपममेंसे एक आवलिकम सब स्थितियाँ सम्यक्त्वकी संक्रमित होनेवाली और उदीर्यमाण स्थितियाँ होती हैं, इसलिए वे स्तोक हैं। * उनसे उदयरूप स्थितियाँ विशेष अधिक हैं । $ ३६१. शंका-विशेषका प्रमाण कितना है ? समाधान—एक स्थितिमात्र है, क्योंकि तत्काल वेद्यमान उदय स्थितिका भी यहाँ पर अन्तर्भाव देखा जाता है। * उनसे सत्कर्म विशेष अधिक है। $ ३६२. शंका-विशेषका प्रमाण कितना है ? समाधान-सम्पूर्ण आवलिमात्र है, क्योंकि सम्यग्दृष्टिके प्रथम समयमें गलित हुई एक स्थितिके साथ एक समय कम उदयावलिका यहाँ प्रवेश देखा जाता है। विशेषार्थ-तात्पर्य यह है कि जो मिथ्यात्वकी अन्तर्मुहूर्तकम उत्कृष्ट स्थितिके साथ वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होता है उसके सम्यक्त्वको प्राप्त करनेके प्रथम समयमें पूर्वमें कहे अनुसार स्थितियाँ उदीरित होती हैं वे स्तोक हैं। * सम्यग्मिथ्यात्वकी जो स्थितियाँ उदीरित होती हैं वे स्तोक हैं । Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] - बंधादिपंचपदप्पाबहुअं ३२७ ३६३. किंपमाणाओ ताओ ? दोहिं अंतोमुहुत्तेहिं उदयावलियाए च ऊणसत्तरिसागरोवमकोडाकोडिपमाणाओ। तं कथं ? मिच्छत्तस्स उक्कस्सट्ठिदि बंधिगणंतोमुहुत्तपडिभग्गो सव्वलहुं सम्मत्तं घेत्तण सम्मामिच्छत्तस्स उकस्सद्विदिसंतकम्ममुप्पाइय पुणो सव्वजहण्णेणंतोमुहुत्तेण सम्मामिच्छत्तमुवणमिय तं संतकम्ममुदयावलियबाहिरमुदीरेदि त्ति एदेण कारणेणाणंतरणिहिट्ठपमाणाओ होदूण थोवाओ जादाओ। * उदिण्णाओ हिदीओ विसेसाहियाओ। ६३६४. केत्तियमेत्तो विसेसो ? एगहिदिमेत्तो। कुदो ? तत्कालवेदिजमाणुदयट्टिदीए वि एत्थतन्भूदत्तादो। * संकामिजति द्विदीओ विसेसाहियाओ। ६३६५. केत्तियमेत्तो विसेसो ? अंतोमुत्तमेत्तो। कुदो ? मिच्छत्तक्कस्सद्विदि बंधियूण सम्मत्तं पडिवण्णविदियसमए चेव सम्मामिच्छत्तस्सुक्कस्सट्ठिदिसंकमावलंबणादो । * संतकम्महिदीओ विसैसाहियाओ। $३६६. केत्तियमेत्तो विसेसो ? संपुण्णावलियमेत्तो । कुदो १ सम्माइट्ठिपढमसमए $ ३६३. शंका-उनका प्रमाण क्या है ? समाधान—दो अन्तर्मुहूर्त और उदयावलि कम सत्तर कोडाकोड़ी सागरोपमप्रमाण है। शंका-वह कैसे ? समाधान मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धकर अन्तर्मुहूर्तमें प्रतिभग्न हुआ जो जीव अतिशीघ्र सम्यक्त्वको ग्रहण करनेके साथ सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मको उत्पन्नकर पुनः सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त कालके बाद सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्तकर उदयावलिके बाहर स्थित उस सत्कर्मकी उदीरणा करता है उस जीवके इस कारण वे उदीयमाण स्थितियाँ अनन्तर निर्दिष्ट प्रमाण होनेसे सबसे स्तोक हैं। * उनसे उदयरूप स्थितियाँ विशेष अधिक हैं । ६३६४. शंका-विशेषका प्रमाण कितना है ? समाधान--एक स्थितिमात्र है, क्योंकि तत्काल वेद्यमान उदयस्थितिकी इन स्थितियों में सम्मिलित है। * उनसे संक्रमित होनेवाली स्थितियाँ विशेष अधिक हैं । $ ३६५. शंका-विशेषका प्रमाण कितना है ? समाधान–अन्तर्मुहूर्तमात्र है, क्योंकि मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधकर सम्यक्त्वको प्राप्त होनेके दूसरे समयमें ही सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितियोंके संक्रमका यहाँ अवलम्बन है। * उनसे सत्कर्मस्थितियाँ विशेष अधिक हैं । $ ३६६. शंका-विशेषका प्रमाण कितना है ? Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ चेव उक्कस्सविदिसंतकम्मावलंबणादो। * णवणोकसायाणं जाओ हिदीओ बजझंति, ताओ थोवाओ। ६३६७. कुदो ? आबाहूणसगसगुक्कस्सट्ठिदिबंधपमाणत्तादो। * उदीरिजति संकामिन ति य संखेजगुणाओ। $ ३६८. कुदो ? सव्वासिं बंध-संकमणावलियाहिं उदयावलियाए च परिहीणचत्तालीससागरोवमकोडाकोडीमेत्तद्विदीणं संकामिजमाणोदीरिजमाणाणमुवलंभादो । * उदिण्णाओ विसेसाहियाओ। $३६९. केत्तियमेत्तो विसेसो ? एगहिदिमेत्तो। * संतकम्महिदीओ विसेसाहियाओ। ६ ३७० केत्तियमेत्तो विसेसो ? समयूणदोआवलिमेनो । किं कारणं ? समयूणुदयावलियाए सह संकमणावलियाए एत्थ पवेसुवलंभादो। एवमुक्कस्सटिदिअप्पाबहुअं समनं । समाधान-सम्पूर्ण आवलिमात्र है, क्योंकि सम्यग्दृष्टिके प्रथम समयमें ही उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मका यहाँ अवलम्बन है। विशेषार्थ-उदयावलिप्रमाण स्थितियोंका संक्रम नहीं होता, किन्तु सत्कर्मस्थितियोंमें उनका अन्तर्भाव हो जाता है। इसलिए यहाँ संक्रमित होनेवाली स्थितियोंसे सत्कर्मरूप स्थितियाँ आवलिमात्र अधिक कहीं है। * नौ नोकषायोंकी जो स्थितियाँ बँधती हैं वे स्तोक हैं। $ ३६७. क्योंकि वे आबाधा कम अपने-अपने उत्कृष्ट स्थितिबन्धप्रमाण हैं। * उनसे उदीर्यमाण और संक्रमित होनेवाली स्थितियाँ संख्यातगुणी हैं। ___$ ३६८. क्योंकि बंधावलि, संक्रमणावलि और उदयावलिसे न्यून चालीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण सम्पूर्ण स्थितियाँ संक्रमित होती हुई और उदीरित होती हुई उपलब्ध होती हैं। * उनसे उदयरूप स्थितियाँ विशेष अधिक हैं। . $ ३६९. शंका-विशेषका प्रमाण कितना है ? समाधान-एक स्थितिमात्र है। * उनसे सत्कमें स्थितियाँ विशेष अधिक हैं। $ ३७०. शंका-विशेषका प्रमाण कितना है। समाधान—एक समय कम दो आवलिप्रमाण है, क्योंकि एक समय कम उदयावलिके साथ संक्रमणावलिका इनमें प्रवेश उपलब्ध होता है। विशेषार्थ-सोलह कषायोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होकर बन्धावलिके बाद उनकी उदयावलिप्रमाण स्थितियोंको छोड़ कर अन्य सब स्थितियोंका नौ नोकषायरूप संक्रम होने पर नौ नोकषायोंका उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म एक आवलि कम चालीस कोड़ाकोड़ो सागरोपम पाया जाता है। यही बात यहाँ अल्पबहुत्वके प्रसंगसे बतलाई गई है। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] बंधादिपंचपदप्पाबहुअणिहेसो ३२९ 5 ३७१. संपहि जहण्णद्विदिअप्पाबहुअपरूवणट्ठमाह* जहणणेण मिच्छत्तस्स एगा हिदी उदीरिजदि उदयो संतकम्मं च । $ ३७२. तं जहा—उदीरणा ताव पढमसम्मत्ताहिमुहमिच्छाइद्विस्स समयाहियावलियमेत्तमिच्छत्तपढमद्विदीए सेसाए एगहिदिमेत्ता होदूण जहणिया होइ । उदयो वि तस्सेवावलियपविट्ठपढमहिदियस्स जहण्णओ होइ । संतकम्म पुण दंसणमोहक्खवगस्स एगट्ठिदी दुसमयकालमत्तमिच्छत्तद्विदिसंतकम्मं घेत्तूण जहण्णयं होइ । तदो मिच्छत्तस्स जहणिया द्विदिउदीरणा उदयो संतकम्मं च एगहिदिमेत्तणि होदूण थोवाणि जादाणि। * जहिदिउदयो च तत्तियो चेव । $ ३७३. किं कारणं ? मिच्छत्तपढमद्विदीए आवलियपविट्ठाए आवलियमेत्तकालं जहण्णओ हिदिउदओ होइ । तत्थ जट्ठिदिउदयो वि तचियो चेव, तम्हा जट्ठिदिउदयो तचियो चेवे चि भणिदं । * जहिदिसंतकम्मं संखेज्जगुणं । $ ३७१. अब जघन्य स्थिति अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिए कहते हैं * जघन्यरूपसे मिथ्यात्वकी एक स्थिति प्रमाण उदीरणा है, उदय है और सत्कर्म है । 5 ३७२. यथा-उदीरणा तो प्रथम सम्यक्त्वके अभिमुख हुए मिथ्यादृष्टिके एक समय अधिक आवलिमात्र मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिके शेष रहने पर एक स्थितिमात्र हो कर जघन्य होती है । उदय भी आवलि प्रविष्ट प्रथम स्थितिवाले उसी जीवके जघन्य होता है। तथा सत्कर्म भी दर्शनमोह-क्षपक मिथ्यादृष्टि जीवके दो समयप्रमाण एक स्थिति सत्कर्मको ग्रहण कर एक स्थितिरूप जघन्य होता है। इसलिए मिथ्यात्वको जघन्य स्थिति उदीरणा, जघन्य स्थिति उदय और जघन्य स्थिति सत्कर्म एक स्थितिमात्र होकर सबसे स्तोक होते हैं। विशेषार्थ—जो जीव दर्शनमोहनीयकी उपशमना कर रहा है उसके मिथ्यात्वकी प्रयम स्थितिमें एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण स्थितियोंके शेष रहने पर उदयावलिके बाहरकी एक स्थितिकी उदीरणा होने पर उदीरणा एक स्थितिप्रमाण होती है। उसीके उदयावलिमें प्रवेश करने पर प्रत्येक समयमें एक आवलिकाल तक मिथ्यात्वकी एक स्थितिका उदय होता है। तथा जिस दर्शनमोहनीयके क्षपकके मिथ्यात्वकी दो समयप्रमाण एक स्थिति शेष रहती है उसके मिथ्यात्वकी एक स्थितिका सत्त्व होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * यस्थिति उदय उतना ही है । $ ३७३. क्योंकि मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिके आवलिके भीतर प्रविष्ट होनेपर आवलिप्रमाण काल तक जघन्य स्थिति उदय होता है। वहाँपर यत्थिति उदय भी उतना ही है, इसलिए यस्थिति उदय उतना ही है यह कहा है। * उससे यत्स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा है । ४२ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [वेदगो ७ ६ ३७४. किं कारणं ? एगद्विदीदो दुसमयकालद्विदीए दुगुणत्तुवलंभादो । * जहिदिउदीरणा असंखेनगुणा। $ ३७५ कुदो १, समयाहियावलियपमाणसादो। * जहण्णओ हिदिसंतकम्मो असंखेनगुणो। ३७६. कुदो ? पलिदो० असंखे०मागपमाणचादो। * जहण्णओ हिदिबंधो असंखेजगुणो। 5 ३७७ किं कारणं ? सव्वविसुद्धबादरेइंदियपजलस्स पलिदोवमासंखेजमागपरिहीणसागरोवममेराजहण्णहिदिबंधग्गहणादो । * सम्मत्तस्स जहण्णगं ठिविसंतकम्मं संकमो उदीरणा उदयो च एगा विट्ठी। $३७४. क्योंकि एक स्थितिसे दो समयकालवाली स्थिति दुगुनी उपलब्ध होती है। * उससे यस्थितिउदीरणा असंख्यातगुणी है। ३७५. क्योंकि वह एक समय अधिक एक आकलिप्रमाण है। विशेषार्थ- यहाँ पर मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिउदय और जघन्य यत्स्थितिउदय ये दोनों एक ही हैं, क्योंकि यहाँ पर जो उदयरूप निषेक है उसकी कालकी अपेक्षा स्थिति भी एक ही समयप्रमाण है, इसलिए प्रकृतमें जघन्य यस्थिति उदयको पूर्वोक्त जघन्य स्थिति उदीरणा आदिके समान कहा है। मात्र जघन्य स्थितिसत्कर्मका निषेक तो एक है और उसकी कालकी अपेक्षा स्थिति दो समय है, इसलिए प्रकृतमें यस्थितिउदयसे यस्थितिसत्कर्मको संख्यातगुणा कहा है। इसी प्रकार जघन्य स्थिति उदीरणा एक निषेकप्रमाण है और उसकी कालकी अपेक्षा स्थिति एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण है, इसलिए प्रकृतमें जघन्य यस्थितिसत्कर्मसे जघन्य यत्स्थितिउदीरणा असंख्यातगुणी कही है। यहाँ सर्वत्र यस्थितिपदसे निषेकस्थितिको ग्रहण न कर यथास्थान विवक्षित निषेकोंकी कालकी अपेक्षा स्थिति ली गई है। * उससे जघन्य स्थितिसत्कर्म असंख्यातगुणा है । ६३७६. क्योंकि वह पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। * उससे जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। $ ३७७. क्योंकि सर्व विशुद्ध बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवके पल्योपमके असंख्यातवें भागहीन सागरोपमप्रमाण जघन्य स्थितिबन्धका यहाँ पर ग्रहण किया है। - विशेषार्थ—यहाँ पर जघन्य स्थितिसत्कर्मसे दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके समय मिथ्यात्वका जो जघन्य स्थितिसत्कर्म प्राप्त होता है उसका ग्रहण किया गया है। जघन्य स्थितिबन्धका स्पष्टीकरण मूलमें किया ही है। . ____ * सम्यक्त्वका जघन्य स्थितिसत्कर्म, संक्रम, उदीरणा और उदय एक स्थितिप्रमाण है। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] बंधादिपंचपदप्पाबहुअणिदेसो ___६३७८.तं जहा-कदकरणिज्जचरिमसमये सम्मनस्स जहण्णट्ठिदिसंतकम्ममेगट्ठिदिमेत्तमुवलब्मदे। जहण्णट्ठिदिउदयो वि तत्थेव गहेयव्यो। अथवा कदकरणिञ्जचरिमावलियाए सव्वत्थेव जहण्णढिदिउदयो व समुवलब्भदे, तेचियमेनकालमेकिस्सेव द्विदीए उदयदंसणादो। पुणो कदकरणिजस्स समयाहियावलियाए द्विदिउदीरणा जहणिया होइ, एगहिदिविसयत्तादो । संकमो वि तत्थेव गहेयव्वो । एवमेदेसिमेगट्ठिदिपमाणनादो थोवामिदि सिद्धं । * जट्ठिविसंतकम्मं जट्ठिविउदयो च तत्तियो चेव । 5 ३७९. कुदो ? कदकरणिजचरिमसमए तेसिं पि एगद्विदिपमाणत्तदंसणादो । * सेसाणि जहिदिगाणि असंखेजगुणाणि । ३८०. कुदो ? समयाहियावलियपमाणत्तादो। ६३७८. यथा-कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिके अन्तिम समयमें सम्यक्त्वका जघन्य स्थितिसत्कर्म एकस्थितिमात्र उपलब्ध होता है। जघन्य स्थितिउदय भी वहीं पर ग्रहण करना चाहिए । अथवा कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिकी अन्तिम आवलिमें सर्वत्र ही जघन्य स्थिति उदय उपलब्ध होता है, क्योंकि उतने काल तक एक ही स्थितिका उदय देखा जाता है। तथा कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिके सम्यक्त्वकी एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण स्थितिके शेष रहनेपर स्थिति उदीरणा जघन्य होती है, क्योंकि प्रकृतमें जघन्य स्थितिउदीरणा एक उदयावलिके बाहरकी एक स्थितिकी ही होती है। संक्रमको भी वहीं पर ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार इन सबके एक स्थितिप्रमाण होनेसे स्तोकपना है यह सिद्ध हुआ। विशेषार्थ-कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिके जब सम्यक्त्वकी अन्तिम आवलिप्रमाण स्थिति शेष रहती है तब उसके प्रत्येक समयमें एक आवलि काल तक उदयस्वरूप एक ही स्थितिका उदय होता है, इसलिए यहाँ जघन्य स्थिति उदयको प्रकारान्तरसे एक स्थितिप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है। * यस्थितिसत्कर्म और यस्थितिउदय उतना ही है । ६ ३७९. क्योंकि कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिके अन्तिम समयमें ये दोनों भी एक स्थितिप्रमाण देखे जाते हैं। विशेषार्थ—पूर्वमें मिथ्यात्वके जघन्य यस्थितिउदयका जिस प्रकार स्पष्टीकरण किया है उसी प्रकार यहाँ पर इन दोनोंका स्पष्टीकरण कर लेना चाहिए। * उनसे शेष यत्स्थितिक असंख्यातगुणे हैं। ६ ३८०. क्योंकि वे समयाधिक एक आवलिप्रमाण हैं। विशेषार्थ—यहाँ पर 'शेष' पदसे यस्थितिउदीरणा, और यस्थितिसंक्रम लिया गया प्रतीत होता है, क्योंकि कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिके एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण स्थितिके शेष रहनेपर जिस उपरितन स्थितिकी उदीरणा होती है, वह अपकर्षणपूर्वक होती है और अपकर्षण संक्रमका एक भेद है, इसलिए यत्स्थितिसंक्रम भी उतना ही जानना चाहिए। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे * सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णयं द्विदिसंतकम्मं थोवं । $ ३८१ कुदो ? एगट्ठिदिपमाणत्तादो । * जट्ठिदिसंतकम्मं संखेज्जगुणं । $ ३८२ कुदो ? दुसमयकालट्ठिदिपमाणतादो । * जहण्णओ ट्ठिदिसंकमो असंखेज्जगुणो । ९ ३८३. कुदो ? पलिदोवमासंखेज्जभागपमाणत्तादो । * जहणिया द्विदिउदीरणा असंखेज्जगुणा । ९ ३८४. कुदो १ देणसागरोवमपमाणत्तादो । [ वैदगो ७ * जहण्णओ ट्ठिदिउदओ विसेसाहिओ । ९ ३८५. केचियमेत्तो विसेसो ! एगट्ठिदिमेत्तो । किं कारणं ? उदयट्ठिदीए वि एत्थ पवेसदंसणादो | * सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसत्कर्म स्तोक है । $ ३८१. क्योंकि वह एक स्थितिप्रमाण है । * उससे यत्स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा है । $ ३८२. क्योंकि वह दो समय कालस्थितिप्रमाण है । विशेषार्थ — सम्यग्मिथ्यात्वकी क्षपणाके समय जब उसकी दो समय कालवाली एक निषेक स्थिति शेष रहती है तब इन दोनोंका यह अल्पबहुत्व बन जाता है । * उससे जघन्य स्थितिसंक्रम असंख्यातगुणा है । ३८३. क्योंकि वह प्रल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । * उससे जघन्य स्थिति उदीरणा असंख्यातगुणी है । $ ३८४. क्योंकि वह कुछ कम एक सागरोपमप्रमाण है । * उससे जघन्य स्थिति उदय विशेष अधिक है । ९ ३८५. शंका – विशेषका प्रमाण कितना है ? समाधान - एक स्थितिमात्र है, क्योंकि उदय स्थितिका भी इसमें प्रवेश देखा जाता है। विशेषार्थ — जघन्य स्थितिसंक्रम सम्यग्मिथ्यात्वकी क्षपणाके समय यथास्थान होता है जो पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए इसे यत्स्थितिसत्कर्मसे असंख्यातगुणा बतलाया है । जघन्य स्थिति उदीरणा वेदक प्रायोग्य जघन्य स्थिति सत्कर्मवाले मिथ्यादृष्टि जीवके सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त करनेके बाद उसके अन्तिम समय में होती है । इसका प्रमाण कुछ कम एक सागरोपम है, इसलिए इसे जघन्य स्थितिसंक्रमसे असंख्यातगुणा बतलाया है । तथा इसमें उदयस्थितिके मिला देनेपर उससे जघन्य स्थिति उदय विशेष अधिक हो जानेसे उससे विशेष अधिक कहा है। इस प्रकार यहाँ तक स्थिति अल्पबहुत्वका जो स्पष्टीकरण किया उसी प्रकार आगे भी कर लेना चाहिए । जहाँ कहीं विशेष वक्तव्य होगा उसका अवश्य ही स्पष्टीकरण करेंगे । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधादिपंचपदप्पाबहुअणि सो * बारसकसायाणं जहण्णयं द्विदिसंतकम्मं थोवं । $ ३८६. कुदो १ एमडिदिपमाणत्तादो । * जट्ठिदिसंतकम्मं संखेज्जगुणं । गो० ६२ ] $ ३८७ कुदो ? दुसमयकालट्ठिदिपमाणत्तादो । * जहण्णगो द्विदिसंकमो असंखेज्जगुणो । ९ ३८८. कुदो ? पलिदोवमासंखेज्जभागपमाणचादो । * जहण्णगो ट्ठिदिबंधो असंखेज्जगुणो । § ३८९. किं कारणं १ सव्वविसुद्ध बादरे इंदियजहण्णट्ठिदिबंधस्स गहणादो । * जहण्णिया ट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया । ९. ३९० कुदो ! सव्वविद्धबदिरेइंदियस्स जहण्णडिदिबंधादो विसेसाहियहद समुप्पत्तियजहण्णट्ठिदिसंतकम्मविसयत्तेण पडिलद्धजहण्णभावत्तादो । * जहण्णगो ठिदिउदयो विसेसाहियो । $ ३९१. केचियमेचो विसेस १ एगट्ठिदिमेचो । कुदो ? उदयट्ठिदीए वि एत्थंतभावदंसणादो । * तिन्हं संजलणाणं जहण्णिया ठिदिउदीरणा थोवा । * बारह कषायोंका जघन्य स्थितिसत्कर्म स्तोक है । ९ ३८६. क्योंकि उसका प्रमाण एक स्थिति 1 * उससे यत्स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा है । ३३३ $ ३८७. क्योंकि वह दो समय कालस्थितिप्रमाण है । * उससे जघन्य स्थितिसंक्रम असंख्यातगुणा है । $ ३८८, क्योंकि वह पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । * उससे जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । $ ३८९. क्योंकि सर्व विशुद्ध बादर एकेन्द्रियके जघन्य स्थितिबन्धका ग्रहण किया है। * उससे जघन्य स्थिति उदीरणा विशेष अधिक है । $ ३९०. क्योंकि सर्व विशुद्ध बादर एकेन्द्रियके जघन्य स्थितिबन्धसे विशेष अधिक इतसमुत्पत्तिक जघन्य स्थिति सत्कर्म इसका विषय है । वह यहाँ जघन्यपनेको प्राप्त है । * उससे जघन्य स्थिति उदय विशेष अधिक है । ९ ३९१. शंका – विशेषका प्रमाण कितना है ? समाधान ——- एक स्थितिमात्र है, क्योंकि उदयस्थितिका भी यहाँ अन्तर्भाव देखा जाता है । * तीन संज्वलनोंकी जघन्य स्थिति उदीरणा स्तोक है । Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ 5 ३९२. किं कारणं ? एगढिदिपमाणत्तादो । ___ * जहण्णगो द्विदिउदयो संखेजगुणो । ३९३. कुदो ? दोडिदिपमाणनादो । णेदमसिद्धं, तम्मि चेव विसए उदयद्विदीए सह उदीरिजमाणट्ठिदीए जहण्णोदयभावेण विवक्खियत्तादो । * जहिदिउदयो जहिदिउदीरणा च असंखेनगुणो। 5 ३९४. कुदो ? समयाहियावलियपमाणत्तादो। * जहण्णगो हिदिबंधो ठिदिसंकमो ठिदिसंतकम्मं च संखेजगुणाणि । $ ३९५. कुदो ? आवाहूणवेमास-मास-पक्खपमाणचादो। किमट्ठमावाहाए ऊणामेस्थ कीरदे ? ण, जहण्णबंध-संकम-संतकम्माणं णिसेयपहाणत्तावलंबणादो। * जट्ठिदिसंकमो विसेसाहियो । 5 ३९६. केशियमेत्तो विसेसो ? अंतोमुहुत्तमेलो । कुदो ? समयूणदोआवलियाहिं परिहीणजहण्णाबाहाए एत्थ पवेसदसणादो । तं जहा–कोहसंजलणादीणं चरिमसमयणयकबंधं बंधावलियादिक्कतं संकमणावलियचरिमसमए संकामेमाणस्स जडिदिसंकमो $ ३९२. क्योंकि वह एक स्थितिप्रमाण है। * उससे जघन्य स्थितिउदय संख्यातगुणा है। $ ३९३. क्योंकि वह दो स्थितिप्रमाण है । यह असिद्ध नहीं है, क्योंकि उसी स्थल पर उदय स्थितिके साथ उदीर्यमाण स्थिति जघन्य उदयरूपसे विवक्षित है। * उससे यत्स्थिति उदय और यस्थितिउदीरणा असंख्यातगुणी है । 5 ३९४. क्योंकि वह एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण है। * उनसे जघन्य स्थितिबन्ध, स्थितिसंक्रम और स्थितिमत्कर्म संख्यातगुणे है । $ ३९५. क्योंकि वे क्रमसे आबाधा कम दो माह, एक माह और एक पक्षप्रमाण है। शंका-यहाँ पर आबाधासे कम क्यों किया जाता है ? . समाधान नहीं, क्योंकि जघन्य स्थितिबन्ध, जघन्य स्थितिसंक्रम और जघन्य स्थितिसत्कर्म इनके निषेकप्रधानपनेका अवलम्बन है । * उनसे यत्स्थितिसंक्रम विशेष अधिक है। 5 ३९६. शंका-विशेषका प्रमाण कितना है ? समाधान–अन्तर्मुहूर्तमात्र है, क्योंकि एक समय कम दो आवलिसे न्यून जघन्य आबाधाका यहाँ प्रवेश देखा जाता है । यथा-क्रोध संज्वलन आदिके अन्तिम समयसम्बन्धी नवकबन्धका बन्धावलिके बाद संक्रमणावलिके अन्तिम समयमें संक्रमण करनेवाले जीवके यस्थितिसंक्रम जघन्य होता है। इस कारणसे जघन्य आबाधामेंसे एक समय कम दो Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] बंधादिपंचपदप्पाबहुआणिद्देसो ३३५ जहण्णो होदि । एदेण कारणेण जहण्णाबाहाए समयूणदोआवलियाणमवणयणं काढूण अवणिदसेसमेत्रेण विसेसाहियत्तमेत्थ दट्ठव्वमिदि सिद्धं । * जट्ठिदिसंतकम्मं विसेसाहियं ९ ३९७. केचियमेतो विसेसो १ एगट्ठिदिमेत्तो ! किं कारणं १ संकमणावलियाए चरिमसमयम्मि जट्ठिदिसंकमो जहण्णो जादो । जडिदिसंतकम्मं पुण तो हेट्ठिमातरसमए वट्टमाणस्स जहण्णं होइ । तेण कारणेण संकमणावलियाए दुचरिमसमयपवेसेण विसेसाहियचमेत्थ गहेयव्वं । * जट्ठिदिबंधो विसे साहिओ । $ ३९८. केचियमेत्तो विसेसो ? दुसमयूणदोआवलियमेचो । किं कारणं ? संपुण्णाबाहाए सह जट्ठिदिबंधस्स जहण्णभावदंसणादो । * लोहसंजलस्स जहण्णट्ठिदिसंकमो संतकम्ममुदयोदीरणा च तुल्ला थोवा । $ ३९९. कुदो ? सव्वेसि मेगट्ठिदिपमाणत्तादो । तं कथं ? सुहुमसांपराइयस्स समयाहियावलियाए द्विदिसंकमो ट्ठिदिउदीरणा च जहण्णिया होइ। तस्सेव चरिमसमए द्विदिआवलियोंको कम करनेसे शेष बचा आबाधा काल यहाँ अधिक जानना चाहिए यह सिद्ध हुआ । * उससे यत्स्थितिसत्कर्म विशेष अधिक है । ९ ३९७. शंका - विशेषका प्रमाण कितना है ? समाधान - एक स्थितिमात्र है, क्योंकि संक्रमणावलिके अन्तिम समय में यत्स्थितिसंक्रम जघन्य हुआ है । किन्तु यत्स्थितिसत्कर्म उससे अनन्तर पूर्व समय में वर्तमान जीवके जघन्य होता है। इस कारण संक्रमणावलिके द्विचरम रूमयका प्रवेश हो जानेके कारण यहाँ विशेष अधिकपना ग्रहण करना चाहिए । * उससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । ९ ३९८. शंका – विशेषका प्रमाण कितना है ? समाधान – दो समय कम दो आवलिप्रमाण है, क्योंकि सम्पूर्ण आबाधा साथ यत्स्थितिबन्धका जघन्यपना देखा जाता है । * लोभसंज्वलनका जघन्य स्थिति संक्रम, सत्कर्म, उदय और उदीरणा ये परस्पर तुल्य होकर स्तोक हैं । $ ३९९. क्योंकि ये सब एक स्थितिप्रमाण है । शंका- वह कैसे ? समाधान — सूक्ष्मसाम्परायिक जीवके एक समय अधिक एक आवलि प्रमाण कालके Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [वेदगो ७ संतकम्ममुदयो च जहण्णभावं पडिवजदे। तदो सव्वेसिमेयद्विदिपमाणशादो थोवत्तमिदि सिद्धं । * जट्ठिदिउदयो जट्ठिदिसंतकम्मं च तत्तियं चेव। 5 ४००. किं कारणं ? उहयत्थ जहण्णहिदीदो जट्ठिदीए भेदाणुवलंभादो। * जहिदिउदीरणा संकमो च असंखेजगुणा। $ ४०१ कुदो ? समयाहियावलियपमाणात्तादो । * जहण्णगो हिदिवंधो संखेजगुणो । $ ४०२. किं कारणं ? अणियट्टिकरणचरिमद्विदिबंधस्स अंतोमुहुत्तपमाणस्साबाहाए विणा गहिदत्तादो। * जहिदिबंधो विसेसाहियो। $ ४०३. कुदो ? जहण्णाबाहाए वि एत्थंतब्भावदंसणादो। * इत्थि-णवंसयवेदाणं जहण्णहिदिसंतकम्ममुदयोदीरणा च थोवाणि । ४०४. कुदो ? एगहिदिपमाणत्तादो । * जट्ठिदिसंतकम्मं जट्ठिदिउदयो च तत्तियो चेव । $ ४०५. किं कारणं ? एत्थ जट्ठिदीए जहण्णहिदीदो भेदाणुवलंभादो । शेष रहने पर स्थितिसंक्रम और स्थितिउदीरणा ये जघन्य होते हैं तथा उसी जीवके अन्तिम समयमें स्थितिसत्कर्म और स्थिति उदय. जघन्यपनेको प्राप्त होते हैं, इसलिए सबके एक स्थितिप्रमाण होनेसे स्तोकपना है यह सिद्ध हुआ। * यस्थिति उदय और यस्थितिसत्कर्म उतना ही है । ६४८०. क्योंकि उभयत्र जघन्य स्थितिसे यस्थितिमें भेद नहीं पाया जाता। * उनसे यत्स्थितिउदीरणा और यत्स्थितिसंक्रम असंख्यातगुणे हैं। ६४०१. क्योंकि ये एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण हैं। * उससे जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। ६४०२. क्योंकि अनिवृत्तिकरणका आबाधा कम अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अन्तिम स्थितिबन्ध यहाँ लिया गया है। * उससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। $ ४०३. क्योंकि जघन्य आबाधाका भी इसमें अन्तर्भाव देखा जाता है। * स्त्रीवेद और नकवेदके जघन्य स्थितिसत्कर्म, उदय और उदीरणा स्तोक हैं। $ ४०४. क्योंकि ये एक स्थितिप्रमाण हैं। * यत्स्थितिसत्कर्म और यत्स्थिति उदय उतने ही हैं। ६४०५. क्योंकि यहाँ यत्स्थितिका जघन्य स्थितिसे भेद नहीं पाया जाता। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] बंधादिपंचपदप्पाबहुअं ३३७ * जहिदिउदीरणा असंखेजगुणा । ४०६. कुदो ? समयाहियावलियपमाणत्तादो । * जहण्णगो हिदिसंकमो असंखेजगुणो । ४०७. कुदो १ पलिदोवमासंखेजदिभागमेत्तचरिमफालिविसयत्तादो । * जहण्णगो हिदिबंधो असंखेजगुणो । ६४०८. कुदो १ एइंदियजहण्णढिदिबंधस्स पलिदोवमासंखेजमागपरिहीणसागरो-. वमवे-सत्तभागपमाणस्स गहणादो। * पुरिसवेदस्स जहण्णगो हिदिउदयो द्विविउदीरणा च थोवा । ४०९. कुदो ? एगहिदिपमाणत्तादो । * जहिदिउदयो तत्तियो चेव । . $ ४१०. सुगमं । * जट्ठिविउदीरणा समयाहियावलिया सा असंखेनगुणा । ४११. सुगमं । * जहण्णगो ट्ठिदिबंधो हिदिसंकमो हिदिसंतकम्मं च ताणि संखेजगुणाणि । * उनसे यत्थिति उदीरणा असंख्यातगुणी है। ६४०६. क्योंकि वह एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण है। * उससे जघन्य स्थितिसंक्रम असंख्यातगुणा है । 5 ४०७. क्योंकि वह पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र अन्तिम फालिको विषय करता है। * उससे जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। $ ४०८. क्योंकि एकेन्द्रिय जीवके पल्योपमके असंख्यातर्षे भाग कम ऐसे सागरोपमके दो बटे सात भागप्रमाण स्थितिबन्धको यहाँ पर ग्रहण किया है। * पुरुषवेदका जघन्य स्थिति उदय और स्थिति उदीरणा स्तोक हैं । ६४०९. क्योंकि वे एक स्थितिप्रमाण है। * उनसे यत्स्थितिउदय उतना ही है । ६४१०. यह सूत्र सुगम है।। * उससे यस्थितिउदीरणा एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण है, वह असंख्यातगुणी है। ६४११. यह सूत्र सुगम है। * उससे जघन्य स्थितिबन्ध, स्थितिसंक्रम और स्थितिसत्कर्म ये तीनों संख्यात गुणे हैं। १. ताप्रती असंखेजगुणाणि इति पाठः। . Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ ४१२. कुदो ? पुरिसवेदचरिमद्विदिबंधस्स अट्ठवस्सपमाणस्स आबाहाए विणा गहणादो। * जट्ठिदिसंकमो विसेसाहियो । 5 ४१३. कुदो १ समयूणदोआवलियाहिं परिहीणजहण्णाबाहाए एत्थ पवेसदसणादो। * जहिदिसतकम्मं विसेसाहियं । ६४१४. केत्तियमेत्तो विसेसो ? एगहिदिमेत्तो। किं कारणं ? पुन्विल्लसामित्तविसयादो हेडिमाणंतरसमए द्विदिसंतकम्मस्स जहण्णसामित्तदंसणादो। * जहिदिबंधो विसेसाहिओ। $ ४१५. केत्तियमेत्तो विसेसो ? दुसमयूणदोआवलियमेत्तो । * छण्णोकसायाणं जहण्णगो डिदिसंकमो संतमम्मं च थोवं । $ ४१६. कुदो ? खवगस्स चरिमट्ठिदिखंडयविसये पडिलद्धजहण्णभावत्तादो । * जहण्णगो डिदिपंधो असंखेजगुणो । $४१७. किं कारणं १ एइंदियजहण्णद्विदिबंधस्स पलिदोवमासंखेजभागपरिहीणसागरोवमवेसत्तभागपमाणस्स गहणादो । ४१२. क्योंकि पुरुषवेदके आठ वर्षप्रमाण अन्तिम स्थितिबन्धका आबाधाके बिना यहाँ ग्रहण किया है * उससे यस्थितिसंक्रम विशेष अधिक है। $ ४१३. क्योंकि एक समय कम दो आवलि हीन जघन्य आबाधाका इसमें प्रवेश देखा जाता है। * उससे यत्स्थितिसत्कर्म विशेष अधिक है। $ ४१४. शंका-विशेषका प्रमाण कितना है ? समाधान-एक स्थितिमात्र है, क्योंकि यस्थितिसंक्रमके स्वामीसे अनन्तरपूर्व समयमें यत्स्थितिसत्कर्मका जघन्य स्वामीपना देखा जाता है । * उससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। 5 ४१५. शंका-विशेषका प्रमाण कितना है ? समाधान—वह दो समय कम दो आवलिप्रमाण है। * छह नोकषायोंका जघन्य स्थितिसंक्रम और सत्कर्म स्तोक हैं। $ ४१६. क्योंकि झपकके जघन्य स्थितिकाण्डकके समय इनका जघन्यपना प्राप्त होता है। * उससे जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । ६४१७. क्योंकि एकेन्द्रिय जीवके पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग कम ऐसा सागरोपमका दो बटे सात भागप्रमाण जघन्य स्थितिबन्धका यहाँ पर ग्रहण किया है। Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधादिपंचपदप्पाबहुअं * जहण्णिया ट्ठिदिउदीरणा संखेज्जगुणा' । $ ४१८. किं कारणं १ पलिदोवमासंखेजभागपरिहीण सागरोवमचदुसत्तभागमेत्तजहणट्ठिदिसंतकम्मविसयत्तेण द्विदिउदीरणाए जहण्णसामित्तपवृत्तिदंसणादो । * जहण्णओ ट्ठिदिउदयो विसेसाहियो । गा० ६२ ] $ ४१९. केत्तियमेत्तो विसेसो १ एगहिदिमेत्तो । एवं जहण्णट्ठिदिविसयमप्पा बहुअं समत्तं । $ ४२०. देणेव बीजपदेणादेसो वि जाणिय णेदव्वो । एवं ट्ठिदिअप्पा बहुअं समत्तं । ३३९ * एत्तो अणुभागेहिं अप्पाबहुगं । $ ४२१. कीरदि ति वक्कज्झाहारो कायव्वो । तं च दुविहमप्पा बहुअं जहण्णुक्कस्समेण । तत्थुक्क सप्पा बहुअं ताव परूवेमि त्ति जाणावण माह - * उक्कस्सेण ताव । ९४२२. सुगममेदं, उक्कस्सप्पाबहुएण ताव पयदमिदि जाणावणफलत्तादो | * उससे जघन्य स्थिति उदीरणा संख्यातगुणी है । $ ४१८. क्योंकि प्रकृतमें पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग कम ऐसा सागरोपमका चार बटे सात भागप्रमाण जघन्य स्थितिसत्त्वको विषय करनेवाला होनेसे स्थिति उदीरणाके जघन्य स्वामिपकी प्रवृत्ति देखी जाती है । * उससे जघन्य स्थिति उदय विशेष अधिक है । S ४१९. शंका -- विशेषका प्रमाण कितना है ? समाधान -- एक स्थितिमात्र है । इस प्रकार जघन्य स्थितिविषयक अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । $ ४२०. इसी बीजपदके अनुसार आदेशका भी जान कर कथन करना चाहिए । इस प्रकार स्थिति अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । * आगे अनुभागकी अपेक्षा अल्पबहुत्व करते 1 $ ४२१. इस सूत्र में 'कीरदि' इस वाक्यका अध्याहार करना चाहिए। वह अल्पबहुत्व जघन्य और उत्कृष्टके भेदसे दो प्रकारका है । उनमें से सर्व प्रथम उत्कृष्ट अल्पबहुत्वका कथन करते हैं इसका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * उसमें सर्व प्रथम उत्कृष्टका प्रकरण है । $ ४२२. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि सर्व प्रथम उत्कृष्टका प्रकरण है इसका ज्ञान कराना इसका प्रयोजन है। १. ता०प्रतौ असंखेजगुणा इति पाठः । Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ * मिच्छत्त-सोलसकसाय - णवणोकसायाणमुक्कस्सअणुभागउदीरणा उदयो च थोवा। $ ४२३. कुदो ? उक्कस्साणुभागबंधसंतकम्माणमणंतिमभागे चेव सव्वकालमुदयोदीरणाणं पवुत्तिदंसणादो। * उक्कस्सओ बंधो संकमो संतकम्मं च अणंतगुणाणि । ४२४. कुदो ? सण्णिपंचिंदियमिच्छाइद्विस्स सव्वुक्कस्ससंकिलेसेण बद्धक्कस्साणुभागस्स अणूणाहियस्स गहणादो । ___ * सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्सअणुभागउदओ उदीरणा च थोवाणि। 5 ४२५. कुदा ? एदेसिमुक्कस्साणुभागसंतकम्मचरिमफद्दयादो अणंतगुणहीणफद्दयसरूवेण सव्वद्धमुदयोदीरणाणं पवुत्तिदंसणादो । * उक्कस्सओ अणुभागसंकमो संतकम्मं च अणंतगुणाणि । ___४२६. कुदो ? किंचि वि घादमपावेयूण द्विदसगुक्कस्साणुभागसरूवेण पत्तुक्कस्सभावत्तादो। एवमुक्कस्सप्पाबहुअं समत्तं । * एत्तो जहण्णयमप्पाबहुभं । * मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा और उदय स्तोक हैं। $ ४२३. क्योंकि उत्कृष्ट अनुभागबन्ध और उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मके अनन्तवें भागरूपसे ही सर्वदा उदय और उदीरणाकी प्रवृत्ति देखी जाती है। . * उनसे उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध, संक्रम और सत्कर्म अनन्तगुणे हैं। $ ४२४. क्योंकि संज्ञी पञ्चेन्द्रिय मिथ्यादृष्टिके सर्वोत्कृष्ट संक्लेशसे बन्धको प्राप्त न्यूनाधि कतासे रहित उत्कृष्ट अनुभागका यहाँ पर ग्रहण किया है। * सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभाग उदय और उदीरणा स्तोक हैं। __$ ४२५. क्योंकि इनके उत्कृष्ट अनुभाग और उत्कृष्ट सत्कर्मके अन्तिम स्पर्धकसे अनन्तगुणे हीन स्पर्धकरूप उदय और उदीरणाकी सर्वदा प्रवृत्ति देखी जाती है। * उनसे उत्कृष्ट अनुभाग संक्रम और सत्कर्म अनन्तगुणे हैं । $ ४२६. क्योंकि कुछ भी घातको प्राप्त किये विना स्थित अपने-अपने उत्कृष्ट अनुभागरूपसे इन्होंने उत्कृष्टपना प्राप्त किया है। इस प्रकार उत्कृष्ट अनुभाग समाप्त हुआ। * इसके आगे जघन्य अन्पबहुत्व प्रकृत है । Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०६२] बंधादिपंचपदप्पाबहुअं ३४१ ३४२७. सुगममेदं पयदसंभालणवकं । * मिच्छत्त-बारसकसायाणं जहण्णगो अणुभागबंधो थोवो । ४२८. कुदो ? मिच्छत्ताणताणुबंधीणं संजमाहिमुहचरिमसमयमिच्छाइट्ठिणा सव्वुक्कस्सविसोहीए बद्धजहण्णाणुभागग्गहणादो । अपच्चक्खाण-पच्चक्खाणकसायाणं पि संजमाहिमुहचरिमसमयअसंजदसम्माइट्ठिसंजदासंजदाणमुक्कस्सविसोहिणिबंधणाणुभागबंधम्मि जहण्णसामित्तावलंबणादो। * जहण्णयो उदयोदीरणा च अणंतगुणाणि । ६४२९. किं कारणं ? संजमाहिमुहचरिमसमयमिच्छाइट्ठिअसंजदसम्माइट्ठिसजदासंजदेसु जहण्णबंधेण समकालमेव पत्तजहण्णभावाणं पि उदयोदीरणाणं चिराणसंतसरूवेण तत्तो अणंतगुणत्तदंसणादो। * जहष्णगो अणुभागसंकमो संतकम्मं च अणंतगुणाणि । ६४३०. किं कारणं ? मिच्छत्त-अट्ठकसायाणं सुहुमेइंदियहदसमुप्पत्तियजहण्णाणुभागविसयत्तेण अणंताणुबंधीणं पि विसंजोयणापुव्यसंजोगपढमसमयजहण्णणवकबंधविसयत्तेण संकम-संतकम्माणं जहण्णसामित्तावलंबणादो । ण च एवं विहसामित्तावलंबणे पुम्विन्लादो एदस्साणंतगुणतं संदिद्धं, परिप्फुडमेव तहाभावोवलंभादो । तं जहा६४२७. प्रकृतकी सम्हाल करनेवाला यह वाक्य सुगम है। * मिथ्यात्व और बारह कषायोंका जघन्य अनुभागबन्ध स्तोक है । ६४२८. क्योंकि संयमके अभिमुख हुए अन्तिम समयवती मिथ्यादृष्टिके द्वारा सर्वोत्कृष्ट विशुद्धिसे मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धियोंके बद्ध जघन्य अनुभागका यहाँ पर ग्रहण किया है । अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान कषायोंकी अपेक्षा भी संयमके अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंवतके उत्कृष्ट विशुद्धिनिमित्तक अनुभागबन्धमें जघन्य स्वामित्वका अवलम्बन लिया है। * उनसे जघन्य अनुभाग उदय और उदीरणा अनन्तगुणी हैं। ६४२९. क्योंकि संयमके अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयतोंके जघन्य बन्धके समकालमें ही जघन्यपनेको प्राप्त उदय और उदीरणाके पुराने सत्त्वमें स्थित अनुभागस्वरूप होनेसे तन्काल होनेवाले अनुभागबन्धकी अपेक्षा अनन्तगुणापना देखा जाता है। * उनसे जघन्य अनुभागसंक्रम और सत्कर्म अनन्तगणे हैं । $ ४३०. क्योंकि मिथ्यात्व और आठ कषायोंका जघन्य अनुभाग सूक्ष्म एकेन्द्रिय सम्बन्धी हतसमुत्पतिक जघन्य अनुभागको विषय करता है तथा अनन्तानुबन्धियोंका भी जघन्य अनुभाग विसंयोजनापूर्वक संयोगके प्रथम समयके नवकबन्धको विषय करता है, इसलिए यहाँ संक्र म और सत्कर्मके जघन्य स्वामित्वका अवलम्बन लिया है। और इस Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे - [वेदगो संजमाहिमुहचरिमसमयुक्कस्सविसोहीए उदीरिजमाणजहण्णाणुमागं पेक्खियूण हदसमुप्पत्तियं कादणावद्विदसव्वविसुद्धसुहमेइंदियविसोहीए उदीरिजमाणजहण्णाणुभागो अणंतगुणो, पुग्विल्लविसोहीदो एत्थतणविसोहीए अणंतगुणहीणत्तदंसणादो । एदम्हादो पुण तस्सेव सुहुमेइंदियस्स हदसमुप्पत्तियजहण्णाणुभागसंतकम्ममणंतगुणं, संतकम्माणंतिमभागे चेव सव्वत्थ उदयोदीरणाणं पवुत्तिदंसणादो । तदो एवंविहसुहुमेइंदियहदसमुप्पत्तियजहण्णाणुभागविसयत्तादो मिच्छत्त-अट्ठकसायाणं जहण्णसंकमसंतकम्माणि अणंतगणाणि त्ति सिद्धं । अणंताणुबंधीणं पुण संजुत्तपढमसमयजहण्णबंध'विसयो अणुभागो जहण्णसंकम-संतकम्मसरूवो जइ वि सुहुमाणुभागादो अणंतगुणहीणो तो वि संजमाहिमुहचरिमसमयजहण्णोदयोदीरणाहिंतो अणंतगुणो चेय, संजमाहिमुहचरिमविसोहिं पेक्खियूण संजुत्तपढमसमयविसोहीए अणंतगुणहीणत्तदंसणादो। * सम्मत्तस्स जहण्णयमणुभागसंतकम्ममुदयो च थोवाणि । ४३१. कुदो ? अणुसमयोवट्टणाघादेण सुटु घादं पावियूण द्विदकदकरणिजचरिमसमयजहण्णाणुभागसरुवत्तादो। * जहणिया अणुभागुदीरणा अणंतगुणा। प्रकारके स्वामित्वका अवलम्बन लेने पर पूर्वके जघन्य अनुभाग उदय और उदीरणाके स्वामीसे इसका अनन्तगुणत्व संदिग्ध भी नहीं है, क्योंकि स्पष्टरूपसे यह अनन्तगुणा उपलब्ध होता है । यथा-संयमाभिमुख अन्तिम समयवर्ती उत्कृष्ट बिशुद्धिसे उदीर्यमाण जघन्य अनुभागको देखते हुए हदसमुत्पत्ति करके अवस्थित सर्वविशुद्ध सूक्ष्म एकेन्द्रियसम्बन्धी विशुद्धिसे उदीर्यमाण जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है, क्योंकि पूर्वकी विशुद्धिसे यहाँकी विशुद्धि अनन्तगुणी होन देखी जाती है। तथा इस उदीयमाण जघन्य अनुभागसे उसी सूक्ष्म एकेन्द्रियका हतसमुन त्पत्तिक जघन्य अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा है, क्योंकि सत्कर्मोके अनन्तवें भागमें ही सर्वत्र उदय और उदीरणाकी प्रवृत्ति देखी जाती है। इसलिए इस प्रकारके सूक्ष्म एकेन्द्रियसम्बन्धी जघन्य अनुभागको विषय करनेवाला होनेसे मिथ्यात्व और आठ कषायोंके जघन्य अनुभाग संक्रम और जघन्य अनुभाग सत्कर्म अनन्तगुणे हैं यह सिद्ध हुआ। तथा अनन्तानुबन्धियोंका संयुक्त प्रथम समयके जघन्य बन्धको विषय करनेवाला अनुभाग जघन्य संक्रम और सत्कर्मस्वरूप होकर भी यद्यपि सूक्ष्म एकेन्द्रियके अनुभागसे अनन्तगुणा हीन है तो भी संयमके अभिमुख हुए जीवके अन्तिम समयवर्ती उदय और उदीरणारूप अनुभागसे अनन्तगुणा ही है, क्योंकि संयमाभिमुख अन्तिम विशुद्धिको देखते हुए संयुक्त प्रथम समयकी विशुद्धि अनन्तगुणी देखी जाती है। -- * सम्यक्त्वके जघन्य अनुभाग सत्कर्म और उदय स्तोक हैं । $ ४३१. क्योंकि प्रति समय अपवर्तनाघातके द्वारा प्रचुर घातको पाकर स्थित हुआ वह कृतकृत्यवेदकके अन्तिम समयमें जघन्य अनुभागस्वरूप है। * उनसे जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी है । Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४३ गा०६२] बंधादिपंचपदप्पाबहुवे ६ ४३२. किं कारणं ? हेट्ठा समयाहियावलियमेत्तमोसरिद्ण पडिलद्धजहण्णभावत्तादो। * जहण्णओ अणुभागसंकमो अणंतगुणो । ६४३३. जइ वि जहण्णोदीरणाविसये चेव ओकडुणावसेण जहण्णाणुभागसंकमो जादो तो वि तत्तो एसो अणंतगुणो। किं कारणं ? ओकड्डिजमाणाणुभागस्स अणंतभागसरूवेण उदयोदोरणाणं तत्थ पवुत्तिदंसणादो। * सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णगो अणुभागसंकमो संतकम्मं च थोवाणि। ४३४ कुदो ? दंसणमोहक्खवयअपुब्वाणियट्टिकरणपरिणामेहि सुदृ घादं पावेयूण द्विदचरिमाणुभागखंडयविसयत्तेण पडिलद्धजहण्णभावत्तादो। * जहण्णगो अणुभागउदयोदीरणा च अणंतगुणाणि। ४३५. कुदो १ घादेण विणा सम्मत्ताहिमुहचरिमसमयसम्मामिच्छाइद्विस्स तप्पाओग्गुकस्सविसोहीए उदीरिजमाणजहण्णाणुभागविसयत्तेण पयदजहण्णसामित्तावलंबणादो। . * कोहसंजलणस्स जहण्णगो अणुभागबंधो संकमो संतकम्मं च थोवाणि । $ ४३२. क्योंकि जघन्य अनुभाग सत्कर्म और उदयसे पीछे समयाधिक एक आवलिमात्र जाकर इसने जघन्यपना प्राप्त किया है। * उससे जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है। ..$ ४३३. यद्यपि जघन्य अनुभाग उदीरणारूप स्थानमें ही अपकर्षणवश जघन्य अनुभागसंक्रम प्राप्त हो जाता है तो भी उससे यह अनन्तगुणा है, क्योंकि अपकर्षित होनेवाले अनुभागके अनन्तवें भागरूप उदय और उदीरणाकी वहाँ पर प्रवृत्ति देखी जाती है। * सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागसंक्रम और सत्कर्म स्तोक हैं । $ ४३४. क्योंकि दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण परिणामोंके द्वारा अच्छी तरह घातको प्राप्तकर स्थित हुए अन्तिम अनुभागकाण्डकको विषय करनेवाला होनेके कारण उसने जघन्यपना प्राप्त किया है। * उनसे जघन्य अनुभाग उदय और उदीरणा अनन्तगुणे हैं । $ ४३५. क्योंकि घातके विना सम्यक्त्वके अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टिके तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट विशुद्धिके द्वारा उदीर्यमाण जघन्य अनुभागको विषय करनेवाला होनेके कारण उसने प्रकृत जघन्य स्वामित्वका अवलम्बन लिया है। * क्रोधसंज्वलनके जघन्य अनुभागबन्ध, संक्रम और सत्कर्म स्तोक हैं । Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ $ ४३६. कुदो ? कोधवेदगचरिमसमयजहण्णाणुभागबंधविसयत्तेण तिण्हमेदेसिं जहणसामित्तोवलंभादो । ३४४ * जहण्णाणुभागउदयोदीरणा च अनंतगुणाणि । $ ४३७. तं जहा -- कोधवेदगपढमट्ठिदीए समयाहियावलियमेत्तसेसाए जहण्णबंधे समकालमेव उदयोदीरणाणं पि जंहण्णसामित्तं जादं । किंतु एसो चिराणसंतकम्मसरूवो होदूणानंतगुणो जादो । * एवं माण- मायासंजलणाणं $ ४३८. जहा कोहसंजलणस्स जहण्णप्पाबहुअं कयमेवं माणमायासंजलणाणं पि काय, विसेसाभावादो । * लोहसंजलणस्स जहण्णगो अणुभागउदयो संतकम्मं च थोवाणि । $४३९. कुदो ? सुहुमसांपराइयखवगचरिमसमयम्मिल जहण्णभावत्तादो | * जहण्णिया अणुभागउदीरणा अनंतगुणा । $ ४४०. किं कारणं ? तत्तो समयाहियावलियमेतं हेट्ठा ओसरिदूण तकालभाविउदय सरूवेणुदीरिजमाणाणुभागस्स गहणादो । * जहण्णगो अणुभागसंकमो अनंतगुणो । $ ४३६. क्योंकि क्रोधवेदकके अन्तिम समय के जघन्य अनुभागबन्धको विषय करनेवाला होनेके कारण इन तीनोंका जघन्य स्वामित्व उपलब्ध होता है। * उनसे जघन्य अनुभाग उदय और उदीरणा अनन्तगुणे हैं । $ ४३७. यथा - क्रोधवेदककी प्रथम स्थितिके समयाधिक एक आवलिमात्र शेष रहने पर जघन्य बन्धके सम कालमें ही उदय और उदीरणाका भी जघन्य स्वामित्व हुआ है । किन्तु यह प्राचीन सत्कर्मस्वरूप होनेसे अनन्तगुणा हो गया है । * इसी प्रकार मान और मायासंज्वलन के विषय में जानना चाहिए | $ ४३८. जिस प्रकार क्रोधसंज्वलनका जघन्य अल्पबहुत्व किया है उसी प्रकार मान और मायासंज्वलनका भी करना चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है । * लोभसंज्वलनका जघन्य अनुभाग उदय और सत्कर्म स्तोक हैं । $४३९. क्योंकि सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपकके अन्तिम समय में, इसने जघन्यपना प्राप्त किया है । * उससे जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी है। 1 $ ४४०. क्योंकि उससे समयाधिक एक आवलि पीछे जाकर तत्कालभावी उदयस्वरूप उदीर्यमाण अनुभागका प्रकृतमें ग्रहण दिया है । * उससे जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है । Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४५ गां० ६२ ] बंधादिपंचपदप्पाबहुअणिद्देसो $ ४४१. तं कथं उदीरणा णाम उदयसरूवेण सुट्ठ ओहड्डियूण पदिदाणुभागं घेण जहण्णा जादा । संकमो पुण तत्तो अनंतगुणोकड्डिजमाणाणुभागं घेत्तूण जहण्णो जादो । तेण कारणेणाणंतगुणत्तमेदस्स ण विरुज्झदे । * जहण्णगो अणुभागबंधो अनंतगुणो । $ ४४२. कुदो ? बादर किट्टिसरूवेणाणियट्टिकरणचरिमसमये बज्झमाणजहण्णाभागधस्स गणादो । * इत्धि-णवु सयवेदाणं जहण्णगो अणुभागउदयो संतकम्मं च थोवाणि । $ ४४३. कुदो १ देसघादिए गट्ठाणियसरूवत्तादो | * जहण्णिया अणुभागुदीरणा अणंतगुणा । ४४४. कुदो ? एसा वि देसघादिएगट्ठाणिय सरूवा चेय, किंतु हेट्ठा समयाहियावलियमेत्तो ओसरियूण जहण्णा जादा । तदो उवरिमावलियमेत्तकालमपत्तघादत्तादो एसा अनंतगुणाति सिद्धं । * जहण्णगो अणुभागबंधो अनंतगुणो । $ ४४५. किं कारणं १ बिट्ठाणियसरूवत्तादो । तं जहा –सम्मत्तं संजमं च जुगवं गेहमाणो मिच्छाइट्ठि अंतोमुहुत्तकालं पुव्वमेव इत्थि - णवं सयवेदे णो बंधदि । तेण $ ४४१. शंका वह कैसे ? समाधान-- उदीरणा तो अच्छी तरह अपवर्तित होकर उदयरूपसे प्राप्त हुए अनुभागको ग्रहण कर जघन्य हुई है । परन्तु संक्रम उससे अनन्तगुणे अपकर्षित होनेवाले अनुभागको ग्रहण कर जघन्य हुआ है। इस कारणसे इसका अनन्तगुणापना विरोधको प्राप्त नहीं होता । * उससे जघन्य अनुभागबन्ध अनन्तगुणा है । $ ४४२. क्योंकि अनिवृत्तिकरणमें बादर कृष्टिरूपसे बँधनेवाले जघन्य अनुभागबन्धको प्रकृतमें ग्रहण किया है । * स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका जघन्य अनुभाग उदय और सत्कर्म स्तोक हैं । $ ४४३. क्योंकि वह देशघाति एकस्थानीय है । * उनसे जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी है । $ ४४४. क्योंकि यह भी देशघाति एकस्थानीयस्वरूप ही है, किन्तु यह उदय समय से एक समय अधिक एक आवलिमात्र पीछे जाकर जघन्य हुई है । इसलिए यह उपरिम आवलिमात्रकाल तक घातको प्राप्त न होनेसे अनन्तगुणी है यह सिद्ध हुआ । * उससे जघन्य अनुभागबन्ध अनन्तगुणा है । $ ४४५. क्योंकि यह द्विस्थानीयस्वरूप है । यथा - सम्यक्त्व और संयमको युगपत् ग्रहण करनेवाला मिथ्यादृष्टि जीव अन्तर्मुहूर्तकाल पहलेसे ही स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका बन्ध नहीं ४४ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगा ७ कारणेण सत्थाणमिच्छाइट्ठिस्स तप्पाओग्गुक्कस्सविसोहीए बद्धाणुभागं घेत्तूण जहण्णसामित्तमेत्थ जादं । एसो च देसघादिबिट्ठाणियसरूवो सुहुमेइंदियजहण्णाणुभागबंधादो अणंतगुणहीणो होदूण पुग्विल्लादो देसघादिएयट्ठाणियसरूवादो अणंतगुणो त्ति णत्थि संदेहो। ___ * जहण्णगो अणुभागसंकमो अणंतगुणो । $ ४४६. एत्थ कारणं वुच्चदे । तं जहा–सुहुमेइंदियजहण्णाणुभागसंतकम्मादो तस्सेव जहण्णाणुभागवंधो अणंतगुणहीणो होइ । एदम्हादो बादरेइंदियजहण्णाणुभागबंधो अणंतगुणहीणो। एवं बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिदिय-असण्णिपंचिंदिया ति एदेसिं जहण्णबंधा जहाफममणंतगुणहीणा होति, तव्विसोहीणमणंतगुणाहियकमेण वड्डिदंसणादो । एवंविहमेदं पंचिंदियजहण्णबंधं घेत्तण पुबिल्लसामित्तं जादं । संपहि जहण्णसंकमो णाम अंतरकरणे कदे सुहुमेइंदियजहण्णाणुभागसंतकम्मादो हेट्टा अणंतगुणहीणो होदूण पुणो वि संखेजसहस्साणुभागखंडएसु धादिदेसु चरिमफालिसरूवेण जहण्णो जादो । एवंविधादं पत्तो वि चिराणसंतकम्मं होदूण पुन्बुत्तबंधादो संकमाणुभागो अणंतगुणो जादो। * पुरिसवेदस्स जहण्णगो अणुभागबंधो संकमो संतकम्मं च थोवाणि। ४४७. कुदो ? चरिमसमयसवेदजहण्णाणुभागबंधं देसघादिएयट्ठाणियसरूवं करता । इस कारण स्वस्थान मिथ्यादृष्टिके तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट विशुद्धिको निमित्तकर बन्धको प्राप्त हुए अनुभागको ग्रहण कर जघन्य स्वामित्व यहाँ पर प्राप्त हुआ है। देशघाति द्विस्थानीयस्वरूप यह अनुभाग सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवके जघन्य अनुभागबन्धसे अनन्तगुणाहीन है फिर भी देशघाति एकस्थानीयस्वरूप जघन्य अनुभागउदीरणासे अनन्तगुणा है इसमें सन्देह नहीं। * उससे जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है। $४४६. यहाँ पदकारणका कथनकरते हैं । यथा-सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवके जघन्य अनुभागसत्कर्मसे उसीके जघन्य अनुभागबन्ध अनन्तगुणा हीन होता है। उससे बादर एकेन्द्रिय जीवके जघन्य अनुभागबन्ध अनन्तगुणाहीन होता है। इसी प्रकार द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय और संज्ञी पञ्चन्द्रिय इन जीवोंके जघन्य अनुभागबन्ध क्रमसे अनन्तगुणे हीन होते हैं, क्योंकि उनके विशुद्धियोंकी अनन्तगुण अधिकके क्रमसे वृद्धि देखी जाती है। इस प्रकार पश्चेन्द्रियके इस जघन्यबन्धको ग्रहण कर पूर्वोक्त स्वामित्व हुआ है। किन्तु यह जघन्य संक्रम अन्तरकरण करने पर सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवके जघन्य अनुभाग सत्कमसे अनन्तगुणा हीन होकर फिर भी संख्यात हजार अनुभागकाण्डकोंके घातित होने पर अन्तिम फालिरूपसे जघन्य हुआ है। यद्यपि वह इस प्रकार घातको प्राप्त हुआ है फिर भी वह प्राचीन सत्कर्मरूप है, इसलिए पूर्वोक्त बन्धसे संक्रमानुभाग अनन्तगुणा होता है। . . * पुरुषवेदका जघन्य अनुभाग बन्ध, संकम और सत्कर्म स्तोक हैं। $ ४४७. क्योंकि सवेदभागके अन्तिम समयमें होनेवाले देशघाति और एक स्थानीय Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] बंधादिपंचपदप्पाबहुअणिहेसो ३४७ घेत्तण तिण्हमेदेसिं जहण्णसामित्तावलंबणादो । * जहण्णगो अणुभागउदयो अणंतगुणो । 5 ४४८. कुदो ? देसघादिएयटाणियत्ताविसेसे वि संपहिबंधादो उदयो अणंतगुणो त्ति णायमस्सियूण पुचिल्लाणुभागादो एदस्स तहाभावसिद्धीए णिव्वाहमुवलंभादो। * जहणिया अणुभागउदीरणा अणंतगुणा । ४४९. एसा वि देसघादिएयवाणियसरूवा चेय, किंतु समयाहियावलियमेत्तं हेट्ठा ओसरियूण जहण्णा जादा । तेण पुग्विल्लादो एदिस्से अणंतगुणत्तं ण विरुज्झदे । . * हस्स-रदि-भय-दुगुछाणं जहण्णाणुभागबंधो थोवो।। ४५०. कुदो ? अपुव्वकरणचरिमसमयणवकबंधस्स देसघादिविट्ठाणियसरूवस्स गहणादो। * जहण्णगो अणुभागउदयोदीरणा च अणंतगुणा । ४५१. कुदो ? एदेसि पि तत्थेव जहण्णसामित्ते संते वि संपहिबंधादो संपहियउदयस्साणंतगुणत्तमस्सियूण तहाभावसिद्धीदो । * जहण्णगो अणुभागसंकमो संतकम्मं च अणंतगुणाणि । स्वरूप जघन्य अनुभागबन्धके ध्यानमें रखकर यहाँ इन तीनोंके जघन्य स्वामित्वका अवलम्बन लिया है। * उनसे जघन्य अनुभाग उदय अनन्तगुणा है। ४४८. देशघाति और एक स्थानीयपनेकी अपेक्षा विशेषता न होनेपर भी साम्प्रतिक बंधसे उदय अनन्तगुणा है इस न्यायका आश्रयकर पूर्वोक्त बन्धके जघन्य अनुभागसे इसके उस प्रकारकी सिद्धि निर्बाध पाई जाती है। * उससे जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी है । ६४४९. यह भी देशघाति एक स्थानीय स्वरूप ही है । किन्तु समयाधिक एक आवलिमात्र पीछे जाकर जघन्य हुई है, इसलिए जघन्य अनुभाग उदयसे इसका अनन्तगुणापना विरोधको प्राप्त नहीं होता। * हास्य, रति, भय और जुगुप्साका जघन्य अनुभागबन्ध स्तोक है। $४५०. क्योंकि अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें होनेवाले देशघाति द्विस्थानीयस्वरूप नवकबन्धको यहाँ पर ग्रहण किया है। __* उससे जघन्य अनुभाग उदय और उदीरणा अनन्तगुणे हैं । ४५१. क्योंकि इनका भी जघन्य स्वामित्व होनेपर भी साम्प्रतिक बन्धसे साम्प्रतिक उदय अनन्तगुणा है, इसलिए उससे इसका अनन्तगुणपना सिद्ध होता है। * उनसे जघन्य अनुभाग संक्रम और सत्कर्म अनन्तगुणे हैं । Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ $ ४५२. किं कारणं ? खवगसेढिम्मि चरिमाणुभागखंडयचरिमफालीए सव्वघा - दिट्ठाणि सरुवाए पयदजहण्णसामित्तोवलंभादो । ३४८ * अरदि-सोगाणं जहण्णगो अणुभागउदयो उदीरणा च थोवाणि । ४५३. किं कारणं ? अपुव्यकरणचरिमसमयम्मि देसघादिविट्ठाणियसरूवेण तदुभयसामित्तावलंबणादो । * जहण्णगो अणुभागबंधो अनंतगुणो । ४५४. किं कारणं ? पमत्तसंजदतप्पा ओग्गविसोहीए बद्धदेसघादिबिट्ठाणियसरूवणवकबंधावलंबणेण पयदजहण्णसामित्तविहाणादो । * जहण्णाणुभागसंकमो संतकम्मं च अनंतगुणाणि । ४५५. कुदो १ सव्वघादिविट्ठाणियचरिमफालिविसयत्तेण पडिलजहण्णभा वादो | एवं जहण्णप्पाबहुअं समत्तं । दो अणुभागविसयमप्पा बहुअं समत्तं होदि । * पदेसेहिं उक्कस्समुक्कस्सेण । ४५६. एत्तो पदेसेहिं उक्कस्समुकस्सेण ढोएदूण पुव्वुत्तपंचपदाणयप्पा बहुअं कस्सामो ति पयदसंभालणवक्कमेदं । $ ४५२. क्योंकि क्षपकश्रेणिमें अन्तिम अनुभागकाण्डकको अन्तिम फालि सर्वघाति द्विस्थानीय स्वरूप उपलब्ध होती है । * अरति और शोकका जघन्य अनुभाग उदय और उदारणा स्तोक हैं । $ ४५३. क्योंकि अपूर्वकरणके अन्तिमसमयमें देशघाति और द्विस्थानीयरूपसे इन दोनोंके स्वामित्वका अवलम्बन लिया है । * उनसे जघन्य अनुभागबन्ध अनन्तगुणा है I $ ४५४. क्योंकि प्रमत्तसंयतकी तत्प्रायोग्य विशुद्धिको निमित्त कर बद्ध देशघाति द्विस्थानीयस्वरूप नवकबन्धके अवलम्बन द्वारा प्रकृत जघन्य स्वामित्वका विधान किया है । * उससे जघन्य अनुभाग संक्रम और सत्कर्म अनन्तगुणे हैं । ४५५. क्योंकि ये सर्वघाति द्विस्थानीय अन्तिम फालिको विषय करनेवाले होनेसे जघन्यपनेको प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार जघन्य अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । इसके बाद अनुभागविषयक अल्पबहुत्व समाप्त होता है । * अब प्रदेशोंकी अपेक्षा उत्कृष्टका उत्कृष्टके साथ अल्पबहुत्व करते हैं । $ ४५६. जघन्य अनभागविषयक अल्पबहुत्वका कथन करनेके बाद अब प्रदेशोंकी अपेक्षा उत्कृष्टको उत्कृष्ट के साथ स्वीकार कर पूर्वोक्त पाँच पदोंके अल्पबहुत्वको करेंगे इस प्रकार प्रकृतकी सम्हाल करनेवाला यह वाक्य है । Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] बंधादिपंचपदप्पाबहुअणिहेसो ३४९ * मिच्छत्तबारसकसायछण्णोकसायाणमुक्कस्सिया पदेसुदीरणा थोवा । ४५७. कुदो ? अप्पप्पणो सामित्तविसये उक्कस्सविसोहीए उदीरिजमाणासंखेजलोगपडिभागियदव्वस्स गहणादो । * उक्कस्सगो बंधो असंखेजगुणो। ४५८. कुदो १ सण्णिपंचिंदियपजत्तेणुक्कस्सजोगिणा बज्झमाणुकस्सस्स समयपबद्धस्स अणूणाहियस्स गहणादो । को गुणगारो ? असंखेज्जा लोगा। * उकस्सपदेस दयो असंखेजगुणो । $ ४५९ कुदो १ असंखेजसमयबद्धपमाणात्तादो | तंजहा–मिच्छत्ताणताणुबंधीणं संजदासंजद-संजदगुणसेढिसीसयाणि एक्कदो कादण मिच्छत्तं पडिवण्णपढमसमयमिच्छाइद्वितदुदयसमकालमुकस्ससामित्तं जादं । अट्ठकसायाणंच संजमासंजम-संजम-दसणमोहक्खवयगुणसेढिसीसयाणं तिण्हमेकलग्गाणमुदयेणुकस्ससामित्तं गहिदं। छण्णोकसायाणं पि अपुवकरणचरिमसमए वेदिजमाणगुणसेढिगोवुच्छं घेत्तणुकस्ससामित्तं दिग्णं । तदो गुणसेढिमाहप्पेणासंखेजपंचिंदियसमयपबद्धपमाणत्तादो पुव्विल्लं पेक्खियण एसो असंखेजगुणो त्ति सिद्धं । को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो। * मिथ्यात्व, बारह कषाय और छह नोकषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा स्तोक है। ६४५७. क्योंकि उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा विषयक अपने-अपने स्वामित्वको ध्यानमें रखकर उत्कृष्ट विशुद्धिवश उदीर्यमाण असंख्यात लोकप्रतिभागी द्रव्यको प्रकृतमें ग्रहण किया है। - * उससे उत्कृष्ट अनुभागबन्ध असंख्यातगुणा है। $ ४५८. क्योंकि उत्कृष्ट योगसे युक्त संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीव द्वारा न्यूनाधिकतासे रहित बँधनेवाले उत्कृष्ट समयप्रबद्धको प्रकृतमें ग्रहण किया है। शंका-गुणकार क्या है ? । समाधान-असंख्यात लोक गुणकार है। * उससे उत्कृष्ट प्रदेश उदय असंख्यातगुणा है । ६४५९. क्योंकि वह असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण है। यथा-मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धियोंका संयतासंयत और संयतसम्बन्धी गुणश्रेणिशीर्षों को एकत्रितकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुए प्रथम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिके उदयसमकालीन उत्कृष्ट स्वामित्व हुआ है । और आठ कषायोंका संयमासंयम, संयम और दर्शनमोहक्षपकसम्बन्धी परस्पर संलग्न तीन गुणश्रेणिशीर्षों के उदयसे उत्कृष्ट स्वामित्व ग्रहण किया है । छह नोकषायोंको भी अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें वेद्यमान गुणश्रेणिगोपुच्छको ग्रहणकर उत्कृष्ट स्वामित्व दिया है। इसलिए गुणश्रेणियोंके माहात्म्यवश पश्चेन्द्रिय सम्बन्धी असंख्यात समयप्रबद्ध प्रमाण होनेसे पिछलेको देखते हुए यह असंख्यातगुणा है यह सिद्ध हुआ। १. ताप्रतौ -इट्टि [ स्स ] तदुदय-इति पाठः । Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ * उक्कस्सपदेसर्सकमो असंखेज्जगुणो । णेदमसिद्धं, $ ४६०. किं कारणं ? किंचूणसगसगुक्कस्सदव्वपमाणत्तादो । गुणिदक संसियस सव्वसंकमेण पयदुक्कस्ससामित्तावलंबणेण सिद्धत्तादो। एत्थ गुणगारो असंखेजाणि पलिदोवम पढमवग्गमूलाणि । * उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । ६ ४६१. कुदो ? गुणिदकम्मंसियलक्खणेणुक्कस्ससंचयं काढूणावट्ठिदचरिमसमयइम्मि पयदुकरससामित्तविहाणादो । केत्तियमेत्तो विसेसो १ णिरयादो उच्चट्टिय मणुसगदिमागतूण सव्वलहुं सव्वसंकमेण परिणममाणस्स अंतराले पर्याडिगोवुच्छसरूवेण गुणसेढिणिजए गुणसंकमेण च णट्ठदव्यमेत्तो | * सम्मतस्स उक्कस्सपदेससंकमो थोवो । $ ४६२. किं कारणं ? अधापवत्तसंक्रमेण पडिलद्ध कस्स भावत्तादो । * उक्कस्सपदेसुदीरणा असंखेज्जगुणा । ९ ४६३. कुदो १ दंसणमोहक्खवयस्स समयाहियावलियमेतट्ठिदिसंतकम्मे सेसे शंका -- गुणकार क्या है ? समाधान -- पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार है । * उससे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम असंख्यातगुणा है । $ ४६०. क्योंकि गुणितकर्माशिक जीवके सर्वसंक्रमके द्वारा प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्वका अवलम्बन लेनेसे यह सिद्ध है । यहाँ पर गुणकार पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण है। * उससे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । $ ४६१. क्योंकि गुणित कर्माशिक लक्षण द्वारा उत्कृष्ट संचय करके अवस्थित हुए अन्तिम समयवर्ती नारकीके प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्वका विधान किया है। शंका - विशेषका प्रमाण कितना है ? समाधान — नरक से निकल कर और मनुष्यगति में आकर अतिशीघ्र सर्वसंक्रम द्वारा परिणमन करने वाले जीवके अन्तराल में प्रकृति गोपुच्छरूप से तथा गुणश्रेणिनिर्जरा और गुणसंक्रम द्वारा जितना द्रव्य नष्ट होता है उतना है । * सम्यक्त्वका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम स्तोक है । ४६२. क्योंकि अधःप्रवृत्त संक्रम द्वारा इसने उत्कृष्टपना प्राप्त किया है । $ उससे उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा असंख्यातगुणी है । $ ४६३. क्योंकि दर्शनमोह क्षपक के समयाधिक आवलिमात्र स्थितिसत्कर्मके शेष रहनेपर Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] बंधादिपंचपदप्पाबहुअणिहेसो ३५१ उदीरिजमाणदव्वस्स किंचूण मिच्छत्तुक्कस्सदव्यमोकडणभागहारेणे खंडेयूण तत्थेयखंडपमाणस्स गहणादो । को गुणगारो ? अधापवत्तभागहारस्स असंखेजदिभागो। " __ * उक्कस्सपदेसुदयो असंखेजगुणो । ६४६४. किं कारणं ? उदीरणा णाम गुणसेढिसीसयस्स असंखेजदिभागो । उदयो पुण गुणसेढिसीसयं सव्वं चेव भवांदे। तेणासंखेजगुणत्तमेदस्स ण विरुज्झदे । को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो। . * उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । ४६५. केत्तियमेत्तो विसेसो ? हेढा दुचरिमादिगुणसेढिगोवुच्छासु णट्ठदव्वमेत्तो। * सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सपदेसुदीरणा थोवा । ६४६६. कुदो ? सम्मत्ताहिमुहचरिमसमयसम्मामिच्छाइट्ठिणा तप्पाओग्गुक्कस्सबिसोहीए उदीरिजमाणातसंखेजलोगपडिभागियदव्वस्स गहणादो । * उक्कस्सपदेसुदयो असंखेजगुणो । उदीर्यमाण द्रव्यको प्रकृतमें ग्रहण किया है । वह मिथ्यात्त्रके उत्कृष्ट द्रव्यको अपकर्षणभागहारके द्वारा खण्डित करने पर वहाँ जो एक खण्डप्रमाण प्राप्त हो उतना है। शंका-गुणकार क्या है ? समाधान-अधःप्रवृत्त भागहारका असंख्यातवाँ भाग गुणकार है। * उससे उत्कृष्ट प्रदेश उदय असंख्यातगुणा है। $ ४६४. क्योंकि उदीरणा गुणश्रेणिशीर्षके असंख्यातवें भागप्रमाण है । परन्तु उदय सम्पूर्ण गुणश्रेगिशीर्षरूप होता है । इसलिए उदीरणासे उदय असंख्यातगुणा है यह विरोधको प्राप्त नहीं होता। शंका-गुणकार क्या है ? समाधान—पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग गुणकार है। * उससे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। ६ ४६५. शंका-विशेषका प्रमाण कितना है ? समाधान-अधस्तन द्विचरम आदि गुणश्रेणिगोपुच्छाओं जितना द्रव्य नष्ट हुआ है उतना है। * सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा स्तोक है। $४६६. क्योंकि सम्यक्त्वके अभिमुख हुआ अन्तिम समयवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव तत्प्रायोग्य विशुद्धिवश असंख्यात लोक प्रतिभागीय द्रव्यकी उदीरणा करता है, उसे यहाँ उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणारूपसे ग्रहण किया है। * उससे उत्कृष्ट प्रदेश उदय असंख्यातगुणा है । १. ता प्रत्तौ-मोकड्डियूण भागहारेण इति पाठः । Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे 1 [वेदगो 5 ४६७. किं कारणं ? असंखेजसमयपबद्धपमाणगुणसेढिगोवुच्छसरूवत्तादो । एत्थ गुणगारो असंखेज्जा लोगा। * उक्कस्सपदेससंकमो असंखेनगुणो । $ ४६८. कुदो ? थोवर्णादवड्डगुणहाणिमेत्तुक्कस्ससमयपबद्धपमाणत्तादो। एत्थ गुणगारो ओकड्डुक्कडणभागहारादो असंखेजगुणो ! * उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । ४६९. केत्तियमेत्तो विसेसो १ मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तम्मि पक्खिविय पुणो सम्मामिच्छत्तं खवेमाणो जाव चरिमफालिं ण पादेदि ताव एदम्मि अंतरे गुणसेढीए गुणसंकमेण च विणट्ठदव्वमेत्तो। * तिसंजलणतिवेदाणमुक्कस्सपदेसबंधो थोवो। ४७०. किं कारणं ? सण्णिपंचिंदियपञ्जत्तेणुकस्सजोगेण बद्धसमयवबद्धपमाणदो * उक्कस्सिया पदेसु दीरणा असंखेनगुणा। ४७१. कुदो ? णववसेढीयअप्पप्पणो पढमविदोए समयाहियावलियमेत्तसेसाए उदीरिजमाणमसंखेजसमयपबद्धाणमिहग्गहणादो। एत्थ गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेजदिमागमेतो। $ ४६७. क्योंकि वह असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण गुणश्रेणीगोपुच्छास्वरूप है । यहाँ पर गुणकार असंख्यात लोकप्रमाण है। ___ * उससे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम असंख्यातगुणा है। $ ४६८. क्योंकि वह कुछ कम डेढ़ गुणहानिमात्र उत्कृष्ट समयप्रबद्धप्रमाण है। यहाँ पर गुणकार अपकर्षण उत्कर्षणभागहारसे असंख्यातगुणा है । * उससे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। $ ४६९, शंका-विशेषका प्रमाण कितना है ? समाधान-मिथ्यात्वको सम्यग्मिथ्यात्वमें प्रक्षिप्त करके पुनः सम्यग्मिध्यात्वका क्षयं करता हुआ जब तक अन्तिम फालिका पतन नहीं करता है तब तक इस अन्तरालमें गुणश्रेणि और गुणसंक्रम द्वारा जितना द्रव्य नष्ट होता है उतना है। * तीन संज्वलन और तीन वेदोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध स्तोक है। ___$ ४७०. क्योंकि वह संज्ञी पश्चेन्द्रिय पर्याप्त जीव द्वारा उत्कृष्ट योगको निमित्तकर बद्ध समयप्रबद्धप्रमाण है। .. * उससे उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा असंख्यातगुणी है। $ ४७१. क्योंकि क्षपकश्रेणिमें अपनी-अपनी प्रथम स्थिति समयाधिक आवलि मात्र शेष रहने पर उदीर्यमाण असंख्यात समयप्रबद्धोंको यहाँ ग्रहण किया है, यहाँ पर गुणकार पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। १. आ० प्रतौ पावेदि इति पाठः। Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५३ गा०६२] बंधादिपचपदप्पाबहुअं * उक्कस्सपदेसुदयो असंखेजगुणो । $ ४७२. किं कारणं ? उदीरणा णाम गुणसेढिसीसयदव्वस्सासंखेजभागमेत्ती होइ । उक्कस्सुदयो पुण अप्पप्पणो चरिमोदयमणणाहियगुणसेढिगोवुच्छसरूवं घेत्तूण जादो । तदो सिद्धमखेसंज्जगुणत्तमेदस्स पुबिन्लादो।को गुणगारो? पलिदोवमस्से असंखेजदिभागमेत्तो। * उक्कस्सपदेससंकमो असंखजगणो । $ ४७३. को गुणगारो ? असंखेजाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि । किं कारणं ? अप्पप्पणो सव्वुक्कस्ससव्वसंकमदव्वस्स गहणादो। * उक्कस्सपदेससंतकम्मं विस साहियं । ४७४. केत्तियमेत्त विसेसो ? अप्पप्पणो दव्यमुक्कस्सं कादूण पुणो जाव सव्वसंकमेण ण परिणमइ ताव एदम्मि अंतराले गट्ठासंखे०भागमेत्तो। * लोभसंजलणस्स उक्कस्सपदेसबंधो थोवो । $ ४७५. सुगमं । * उक्कस्सपदेससंकमो असंखेजगुणो। * उससे उत्कृष्ट उदय असंख्यातगुणा है । $ ४७२. क्योंकि उदीरणा गुणश्रेणिशीर्ष द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होती है। परन्तु उत्कृष्ट उदय अपने-अपने न्यूनाधिकतासे रहित गुणश्रेणि गोपुच्छस्वरूप अन्तिम उदयरूपसे विवक्षित है । इसलिए उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणासे इसका असंख्यात गुणापना सिद्ध है। शंका-गुणकार क्या है ? समाधान—पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। * उससे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम असंख्यातगणा है । .६४७३. शंका-गुणकार क्या है ? । समाधान—पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण गुणकार है, क्योंकि अपने-अपने सर्वोत्कृष्ट सर्वसंक्रम द्रव्यको प्रकृतमें ग्रहण किया है। * उससे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। $ ४७४. शंका -विशेषका प्रमाण कितना है ? समाधान—अपना-अपना द्रव्य उत्कृष्टकर पुनः जब तक वह सर्वसंक्रम रूपसे परिणत नहीं होता तब तक इस अन्तरालमें जो असंख्यातवें भागप्रमाण द्रव्य नष्ट होता है उतना है। * लोभसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध स्तोक है। ४७५. यह सूत्र सुगम है। * उससे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम असंख्यातगुणा है । १. आ०--ता० प्रत्योः गुणगारो च पलिदोवमस्स इति पाठः Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ ___ ४७६. कुदो ? अंतरकरणकारयचरिमसमपम्मि अधापवत्तसंकमेण संकमंताणमसंखेजाणं समयपबद्धणमेत्थ सामित्तविसईकयाणमुवलंभादो । एत्थ गुणगारो असंखेजाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि । * उकस्सपवेसुदीरणा असंखेजगुणा। ४७७. किं कारणं ? उक्कस्ससंकमो णाम अणियट्टिकरणम्मि अंतरं करेमाणो से काले लोभस्स असंकामगो होहिदि त्ति एत्थुद्देसे अधापवत्तसंकमेण जादो । उदीरणा पुण सव्वं मोहणीयदव्वं पडिच्छिय सुहुमसांपराइयखवगस्स पढमद्विदीए समयाहियावलियमेत्तसेसाए उदोरिजमाणाए असंखेजसमयपबद्धे' घेत्तणुकस्सा जादा, तेणासंखेजगुणा भणिदा । अधापवत्तभागहारं पेक्खियूणुदीरणाहेदुभूदोकडणाभागहारस्सासंखेजगुणहीणत्तादो। * उक्कस्सपदेसुदयो असंखेजगुणो। $ ४७८. कुदो ? सुहुमसांपराइयखवगचरिमगुणसेढिसीसयसम्बदव्वस्स गहणादो। एत्थ गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेजदिमागमेत्तो। * उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । ४७६. क्योंकि अन्तरकरण करनेवालेके अन्तिम समयमें अधःप्रवृत्तसंक्रम द्वारा संक्रमको प्राप्त हुए असंख्यात समयप्रबद्ध स्वामित्वके विषयरूपसे यहाँ पर उपलब्ध होते हैं । यहाँ पर गुणकार पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है । * उससे उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा असंख्यातगुणी है । $ ४७७. क्योंकि उत्कृष्ट संक्रम अनिवृत्तिकरणमें अन्तरको करता हुआ जब तदनन्तर समयमें लोभका असंक्रामक होगा ऐसे स्थलपर अधःप्रवृत्त संक्रमके द्वारा हुआ है। परन्तु उदीरणा तो मोहनीयके समस्त द्रव्यको लोभसंज्वलनमें संक्रमित कर सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपककी प्रथम स्थितिमें समयाधिक एक आवलिमात्र शेष रहने पर उदीर्यमाण असंख्यात समयप्रबद्धको ग्रहण कर उत्कृष्ट हुई है इसलिए उसे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमसे असंख्यातगुणी कही है, क्योंकि अधःप्रवृत्त भागहारको देखते हुए उदीरणाका हेतुभूत अपकर्षण भागहार असंख्यातगुणा हीन है। * उससे उत्कृष्ट प्रदेश उदय असंख्यातगुणा है । ३ ४७८. क्योंकि सूक्ष्मसाम्परायिक झपकके अन्तिम गुणश्रेणिशीर्षके समस्त द्रव्यको प्रकृतमें ग्रहण किया है । यहाँ पर गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भागप्रमाण है। * उससे उत्कृष्ट प्रदेश सत्कर्म विशेष अधिक है। १. आ०--ता०प्रत्योः संखेज्जसमयपबद्ध इति पाठः। Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०६२ बंधादिपंचपदप्पाबहुअं ३५५ $ ४७९. केत्तियमेत्तो विसेसो ? मायादव्वं पडिच्छियूण जाव चरिमसमयसुहुमसांपराइयो ण होइ, ताव एदम्मि अंतराले भट्ठदव्वमेत्तो । एवमुक्कस्सपदेसप्पाबहुअं समत्तं * जहण्णयं । ४८० सुगममेदमहियारसंभालणवक्कं । * मिच्छत्त-अट्ठकसायाणं जहणिया पदसदीरणा थोवा । ४८१. कुदो ? मिच्छाइद्विणा सव्वुक्कस्ससंकिलेसेणुदीरिजमाणासंखेजलोगपडिभागियदव्वस्स सव्वत्थोवत्तं पडि विरोहाभावादो। * उदयो असंखजगुणो। ६४८२. तं जहा-मिच्छत्तस्स ताव उवसमसम्माइट्ठी सासणगुणं पडिवजिय छावलियाओ अच्छियूण मिच्छत्तं गदो। तस्स आवलियमिच्छाइडिस्स असंखेजलागपडिभागेणोक्कड्डिय णिसित्तदव्वं घेत्तण जहण्णोदयो जादो। जेण सत्थाणमिच्छाइट्ठिसव्वुक्कस्ससंकिलेसादो एत्थतणसंकिलेसो अणंतगुणहीणो तेणेदं दव्वं पुन्विन्लदव्वादो असंखेजगणं जादं । अट्ठकसायाणं पुण उवसंतकसायो कालं कादूण देवेसुववण्णो, तस्स असंखेजलोगपडिभागेणुदयावलियम्भंतरे णिसित्तदव्वस्स चरिमणिसेयं घेत्तण जहण्ण ६४७९. शंका-विशेषका प्रमाण कितना है ? समाधान-मायाके द्रव्यको संक्रमित कर जब तक अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक नहीं होता तब तक इस अन्तरालमें जो द्रव्य नष्ट होता है तत्प्रमाण है। इस प्रकार उत्कृष्ट प्रदेश अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। * अब जघन्यका प्रकरण है। 5 ४८०. अधिकारको सम्हाल करनेवाला यह वाक्य सुगम है। * मिथ्यात्व और आठ कषायोंकी जघन्य प्रदेश उदीरणा स्तोक है। ६४८१. क्योंकि मिथ्यादृष्टिके द्वारा सर्वोत्कृष्ट संक्लेश परिणामोंसे उदीर्यमाण असंख्यात लोक प्रतिभागीय द्रव्यके सबसे स्तोकपनेके प्रति विरोधका अभाव है। ___ * उससे उदय असंख्यातगुणा है। ६ ४८२. यथा-सर्व प्रथम मिथ्यात्वकी अपेक्षा कहते हैं, उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सासादन गुणस्थानको प्राप्त कर और छह आवलिप्रमाण काल तक वहाँ रह कर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। एक आवलि काल तक मिथ्यादृष्टि रहे हुए उस जीवके असंख्यात लोक प्रतिभाग के क्रमसे अपकर्षित होकर निक्षिप्त हुए द्रव्यको ग्रहण कर मिथ्यात्वका जघन्य उदय हुआ है । यतः स्वस्थान मिथ्यादृष्टि जीवके सबसे उत्कृष्ट संक्लेशसे इस जीवका संक्लेश अनन्तगुणा हीन है, इसलिए यह द्रव्य पूर्वके द्रव्यसे असंख्यातगुणा है, तथा आठ कषायोंका, उपशान्तकषाय जीवके मर कर देवोंमें उत्पन्न होने पर उसके असंख्यात लोक प्रतिभागके क्रमसे उदयावलिके भीतर निक्षिप्त हुए द्रव्यके अन्तिम निषेकको ग्रहण कर जघन्य स्वामित्व हुआ है । इसलिए Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ सामित्तं जादं । एसो च असंजदसम्माइट्ठिविसोहिणिबंधणो उदीरणोदयो सत्थाणमिच्छाइट्ठस्स सन्बुकस्ससंकिलेसेणुदीरिददव्वादो असंखेजगुणो ति णत्थि संदेहो । एत्थ गुणा तपाओग्गासंखेञ्जरुवाणि / * संकमो असंखेज्जगुणो । $ ४८३. पुव्वुत्तुदयो णाम असंखेजलोगमेत्तभागहारेण जादो । इमो पुण अंगुलस्सासंखेज्जदिभागमेत्तभागहारेण जादो । तदो सिद्धमसंखेजगुणत्तं । को गुणगारो ? • असंखेजा लोगा । * बंधो असंखेज्जगुणो । $ ४८४. किं कारणं १ सुहुमणिगोदजहण्णोववादजोगेण बद्धेगसमयपबद्धपमाणत्तादो | एत्थ गुणगारो अंगुलस्सासंखेजदिभागो * संतकम्ममसंखेज्जगुणं । $ ४८५. कुदो ? खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण खवणाए एगडिदिदुसमय काल सेसे असंखेज्जपंचिंदियसमयपबद्धसंजुत्तगुण सेढिगोवुच्छावलंबणेण जहण्णसामित्त गहणादो । तदो सिद्धमसंखेजगुणतं । गुणगारो च पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमे तो । * सम्मत्तस्स जहण्णिया पदेस दीरणा थोवा । असंयतसम्यग्दृष्टिके विशुद्धिनिमित्तक यह उदीरणोदयरूप द्रव्य स्वस्थान मिथ्यादृष्टिके सर्वोत्कृष्ट संक्लेशवश प्राप्त हुए उदीरणाद्रव्यसे असंख्यातगुणा है इसमें सन्देह नहीं है । यहाँ पर गुणकार तत्प्रायोग्य असंख्यात रूप प्रमाण है । * उससे संक्रम असंख्यातगुणा है । $ ४८३. पूर्वोक्त उदय असंख्यात लोकप्रमाण भांगहारसे उत्पन्न हुआ है, परन्तु यह संक्रम अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण भागहारसे उत्पन्न हुआ है, इसलिए यह असंख्यातगुणा है यह सिद्ध हुआ । गुण्णकार क्या है ? असंख्यात लोक गुणकार है । * उससे बन्ध असंख्यातगुणा है । $ ४८४. क्योंकि वह सूक्ष्मनिगोद जीवके जघन्य उपपाद योगसे बद्ध एक समयप्रबद्धप्रमाण है । यहाँ पर गुणकार अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है । * उससे सत्कर्म असंख्यातगुणा है । $ ४८५. क्योंकि क्षपितकर्मांशिकलक्षणसे आकर क्षपणामें दो समय कालप्रमाण एक स्थितिके शेष रहने पर पश्र्चेन्द्रिय सम्बन्धी असंख्यात समयप्रबद्धसंयुक्त गुणश्रेणि गोपुच्छाका अवलम्बन कर जघन्य स्वामित्वका ग्रहण किया है । इसलिए यह असंख्यातगुणा है यह सिद्ध हुआ । यहाँ पर गुणकार पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । * सम्यक्त्वकी जघन्य प्रदेश उदीरणा स्तोक है । Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५७ गा० ६२ ] बंधादिपंचपदप्पाबहुअं ९ ४८६. कुदो ? मिच्छत्ता हिमुह असंजदसम्माट्टिणा उकस्ससंकिलेसेणुदीरिजमाणासंखेज्जलोगपडिभागियदव्वस्स गहणादो । * उदयो असंखेज्जगुणो । $ ४८७. किं कारणं ? उवसमसम्मत्तपच्छायदवेदयसम्माइट्ठिस्स पढमावलियचरिमसमये उदीरणोदयदव्वं घेत्तूण जहण्णसामित्तावलंबणादो । एसो वि असंखेज्जलोगपडिभागिओ चेत्र । किंतु पुव्विल्लसंकिलेसा दो संपहियसंकिलेसो अनंतगुणहीणो, तेणुदयो असंखेञ्जगुणो ति सिद्धं । को गुणगारो ? तप्पा ओग्गासंखेजवाणि । * संकमो असंखेजगुणो । $ ४८८. किं कारणं ? खविदकम्संसियलक्खणेणागंतू णुव्वेल्लेमाणस्स दुचरिमखंडयचरिमफालीए उव्वेल्लणभागहारेण जहण्णसामित्तावलंबणादो। एत्थ असंखेजलोगमेत्तो गुणगारो । * संतकम्ममसंखे जगुणं । $ ४८९. किं कारणं ? सम्मत्तमुव्वेल्लेमाणखविदकम्मंसियस्स एयट्ठिदिदुसमयकालसेसे जहण्णसामित्तपडिलंभादो । एदं च सम्मत्तचरिमुव्वेलण खंडयचरिमफालीजहण्णदव्वं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण खंडिदेयखंडमेत्तं । जहण्णसंकमदव्वं पुण तं चैव $ ४८६. क्योंकि मिथ्यात्वके अभिमुख हुए असंयतसम्यग्दृष्टिके द्वारा उत्कृष्ट संक्लेशवश उदीर्यमाण असंख्यात लोक प्रतिभागीय द्रव्यको प्रकृतमें ग्रहण किया है । * उससे उदय असंख्यातगुणा है । $ ४८७. क्योंकि उपशमसम्यक्त्वके अनन्तर जो वेदकसम्यग्दृष्टि हुआ है उसके प्रथम आवलिके अन्तिम समय में उदीरणोदयरूप द्रव्यको ग्रहण कर प्रकृतमें जघन्य स्वामित्वका अवलम्बन लिया है । यह भी असंख्यात लोकका भाग देनेपर एक भागप्रमाण ही है । किन्तु पूर्वके संक्लेश से साम्प्रतिक संक्लेश अनन्तगुणा हीन है, इसलिए उदय असंख्यातगुणा है यह सिद्ध हुआ । गुणकार क्या है ? तत्प्रायोग्य असंख्यातरूप गुणकार है । * उससे संक्रम असंख्यातगुणा है । $ ४८८. क्योंकि क्षपितकर्माशिकलक्षणसे आकर उद्बलना करनेवाले जीवके उद्बोलना भागहारद्वारा द्विचरमकाण्डककी अन्तिम फालिके प्राप्त होनेपर जघन्य स्वामित्वका अवलम्बन लिया है । यहाँ पर गुणकार असंख्यात लोकप्रमाण है । * उससे सत्कर्म असंख्यातगुणा है । $ ४८९. क्योंकि सम्यक्त्वकी उद्वेलना करनेवाले क्षपितकर्माशिकके दो समय कालप्रमाण एक स्थितिके शेष रहनेपर जघन्य स्वामित्वकी उपलब्धि होती है । और यह द्रव्य सम्यक्त्वके अन्तिम उद्वेण्डलनकाण्डककी अन्तिम फालिस्वरूप जघन्य द्रव्यको पल्योपमके असंख्यातवें भागसे खण्डित करनेपर एक खण्डप्रमाण है । परन्तु जघन्य संक्रम द्रव्य उसी जघन्य सत्कर्मको Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेद्गो ७ जहण्णसंतकम्ममंगुलस्सासंखे ० भागमेत्तुब्वेल्लणभागहारेण खंडिदेयखंडपमाणं होइ । तेण संकमादो संतकम्ममसंखेजगुणमिदि सिद्धं । एत्थ गुणगारो अंगुलस्सासंखे ० भागो । ३५८ * एवं सम्मामिच्छत्तस्स । $ ४९०. सुगममेदमप्पणासुतं । * अणंताणुबंधीणं जहणिया पद सुदीरणा थोवा । $ ४९१. कुदो १ सव्त्रसंकिलिट्ठमिच्छाइट्टिणा असंखेजलोगपडिभागेणुदीरिजमाणदव्वस्स गहणादो । * संकमो असंखेज्जगुणो । $ ४९२. कुदो ? खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण तसकाइएसुप्पञ्जिय सव्वलहुमताणुबंधीणं विसंजोयणापुव्वसंजोगेणं तोमुडुत्तमच्छिय वेदगसम्मत्तपडिवत्तिपुरस्सरं वेवसागरोवमकालम्मि असंखेजगुणहाणीओ गालिय पुणो गलिदसेससंतकम्मं विसं - जो माणअधापवत्तकरणचरिमसमयम्मि अंगुलस्सासंखे० भागमेत्तविज्झादभागहारेण संकामिददव्यस्स पुव्विल्लासंखेजलोग पडिभागिय दव्वादो असंखेज्जगुणत्तं पडि विरोहाभावाद । एत्थ गुणगारो असंखेजा लोगा । अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण उद्वेलन भागहारसे खण्डित करनेपर एक खण्डप्रमाण है, इस कारण संक्रम द्रव्यसे सत्कर्मका द्रव्य असंख्यातगुणा है यह सिद्ध हुआ । यहाँ पर गुणकार अंगलके असंख्यातवें भागप्रमाण है । * इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा अल्पबहुत्व जानना चाहिए । $ ४९०. यह अर्पणा सूत्र सुगम है । * अनन्तानुबन्धियोंकी जघन्य प्रदेश उदीरणा स्तोक है । –S ४९१ · क्योंकि सर्वसंलेशयुक्त मिथ्यादृष्टिके द्वारा असंख्यात लोकप्रमाण भागहारके आश्रयसे उदीर्यमाण द्रव्यको प्रकृतमें ग्रहण किया है। * उससे संक्रम असंख्यातगुणा है । $ ४९२. क्योंकि क्षपितकर्माशिकलक्षणसे आकर तथा त्रसकायिकों में उत्पन्न होकर अतिशीघ्र अनन्तानुबन्धियोंकी विसंयोजनपूर्वक उनके संयोगके साथ अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर वेदकसम्यक्त्वकी प्राप्तिपूर्वक दो छयासठ सागरोपम प्रमाण कालके भीतर असंख्यात गुणहानियोंको गलाकर पुनः गलित होनेसे शेष बचे हुए सत्कर्मकी विसंयोजना करते हुए अधप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण विध्यात भागहारके द्वारा संक्रमित हुआ द्रव्य असंख्यात लोकप्रमाण भागहारके आश्रय से प्राप्त हुए पूर्वद्रव्यसे असंख्यातगुणा है इसे स्वीकार करने में कोई विरोध नहीं है । यहाँ पर गुणकार असंख्यात लोकप्रमाण है । Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] बंधादिपंचपदप्पाबहुअं ३५९ * उदयो असंखेजगुणो। $ ४९३. तं कथं ? दिवड्डगुणहाणिगुणिदमेगमेइंदियसमयपबद्धं ठ विय तम्मि ओकड्डुक्कड्डणभागहारमधापयत्तभागहारं बेछावट्ठिअण्णोण्णब्भत्थरासिं च अण्णोण्णगुणं करिय भागे हिदे बेच्छावट्ठीसु गलिदसेसमणंताणु० जहण्णदव्वं होइ । पुणो एदम्मि दिवड्डगुणहाणीहि ओवडिदे उदयजहण्णदव्वमागच्छइ । जेणेसो दिवड्डगुणहाणिमेत्तभागहाररासी पलिदो० असंखे०भागपमाणो होदण विज्झादभागहारादो असंखे०गुणहीणो तेण पुयिन्लसंकमदव्वादो एदस्सासंखेजगुणत्तमविप्पडिवत्तिसिद्धं । एत्थ गुणगारो विज्झादमागहारस्सासंखे०भागो। *बंधो असंखेजगुणो। ६४९४. किं कारणं ? उदयजहण्णदव्वं णाम सामित्तसमयजहण्णसंतकम्मस्स पलिदोवमासंखेजभागपडिभागियं होदूण पुणो अणंताणुबंधीणमंतोमुहुत्तसंचिदजहण्णदव्वं पेक्खिय अंगुलस्सासंखे०भागेण खंडिदेयखंडमेत्तं होइ । जहण्णदव्वं पि पेक्खियूण पलिदो० असंखे०भागपडिभागिओ होइ, जोगगुणगारपदुप्पण्णदिवड्डगुणहाणीहि तम्मि ओवट्ठिदे तदागमणदंसणादो । एवं होइ त्ति कादण असंखेजगुणत्तमेदस्स सिद्धं । को * उससे उदय असंख्यातगुणा है। $ ४९३. शंका-वह कैसे ? समाधान-डेढ़गुणहानिसे गुणित एकेन्द्रियसम्बन्धी समयप्रबद्धको स्थापितकर उसमें अपकर्षण उत्कर्षण भागहार, अधःप्रवृत्तभागहार तथा दो छयासठ सागरोपमकी अन्योन्याभ्यस्तराशि इन तीनोंका परस्पर गुणा करके जो लब्ध आवे उसका भाग देनेपर दो छयासठ सागरोपमके भीतर गलकर शेष बचा हुआ अनन्तानुबन्धियोंका जघन्य द्रव्य होता है। पुनः इसमें डेढ़ गुणहानिका भाग देनेपर उदय स्वरूप जघन्य द्रव्य आता है। अतः यह डेढ़ गुणहानिप्रमाण भागहार राशि पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण होकर विध्यात भागहारसे असंख्यातगुणी हीन है, इसलिए पूर्वके संक्रम द्रव्यसे यह द्रव्य असंख्यातगगा है यह विना विवादके सिद्ध है। यहाँ पर गुणकार विध्यातभागहारका असंख्यातवां भागप्रमाण है। * उससे बन्ध असंख्यातगुणा है। ६४९४. क्योंकि उदयसम्बन्धी जघन्य द्रव्य अपने स्वामित्वके समयमें प्राप्त जघन्य सत्कर्ममें पल्योपमके असंख्यातवें भाग देने पर जो एक भाग प्राप्त हो उतना है फिर भी अनन्तानुबन्धियोंके अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर सञ्चित हुए जघन्य द्रव्यको देखते हुए अंगुलके असंख्यातवें भाग देने पर एक भागप्रमाण है। परन्तु जघन्य बन्ध स्वस्थान क्षपितकमांशिकके जघन्य द्रव्यकी अपेक्षा भी पल्योपमके असंख्यातवें भागसे भाजित करनेपर एक भागप्रमाण है, क्योंकि योगगुणकारसे प्रत्युत्पन्न डेढ़ गुणहानियोंके द्वारा उसके अपवर्तित करनेपर उसका आगमन देखा जाता है । इस प्रकार होता है ऐसा समझकर असंख्यातगुणा १. आ प्रतौ ओकड्डुक्कड्डुणभागहारेहि इति पाठः । Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ गुणगारो ? पलिदो • असंखे भागो। ओकड्डक्कड्डण-अधापवत्त-भागहारेहि पदुप्पप्रणबेछावडिअण्णोण्णब्भत्थरासिस्स असंखे०भागो जोगगुणगारपडिभागिओ एत्थ गुणगारो त्ति भणिदं होइ। * संतकम्ममसंखोजगुणं । $ ४९५. किं कारणं ? असंखेजपंचिंदियसमयपबद्धसंजुत्तगुणसेढिगोवुच्छसरूवत्तादो। को गुणगारो १ दिवड्डगुणहाणीए असंखे०भागो। * कोहसंजलणस्स जहणिया पदेसुदीरणा थोवा । 5 ४९६. कुदो ? मिच्छाइद्विणा सव्वुक्कस्ससंकिलिडेणुदीरिजमाणासंखे०लोगपडिभागियदव्वस्त गहणादो। * उदयो असंखेजगुणो। ६४९७. किं कारणं ? उवसमसेढीए अंतरकरणं समाणिय कालं कादण देवेसुप्पण्णस्स असंखे०लोगपडिभागेणुदयावलियम्भंतरे णिसित्तदव्वस्स चरिमणिसेयमस्सियूण पयदजहण्णसामित्तावलंबणादो । को गुणगारो ? तप्पाओग्गासंखे० रूवाणि । ___ * बंधो असंखेजगुणो। है यह सिद्ध हुआ। शंका-गुणकार क्या है ? समाधान--पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग गुणकार है । अपकर्षण-उत्कर्षण भागहार और अधःप्रवृत्तभागहारसे प्रत्युत्पन्न दो छयासठ सागरोपमकी अन्योन्याभ्यस्तराशिका असंख्यातवां भाग योगगणकारका भागहाररूप यहाँ गुणकार है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * उससे सत्कमें असंख्यातगुणा है। $ ४९५. क्योंकि वह पञ्चेन्द्रियसम्बन्धी असंख्यात समयप्रबद्धसंयुक्त गुणश्रेणिके गोपुच्छस्वरूप है। शंका--गुणकार क्या है ? समाधान-डेढ़ गुणहानिका असंख्यातवा भागप्रमाण गुणकार है। * क्रोधसंज्वलनकी जघन्य प्रदेश उदीरणा स्तोक है। $ ४९६. क्योंकि मिथ्यादृष्टिके द्वारा सर्वोत्कृष्ट संक्लेश परिणामोंसे उदीर्यमाण द्रव्य असंख्यात लोकका भाग देने पर एक भागप्रमाण प्रकृतमें लिया गया है। * उससे उदय असंख्यातगुणा है। ६४९७. क्योंकि उपशमश्रेणिमें अन्तरकरणको समाप्तकर और मर कर देवोंमें उत्पन्न हुए जीवके असंख्यात लोकका भाग देने पर जो एक भागप्रमाण द्रव्य उदयावलिमें निक्षिप्त होता है उसके अन्तिम निषेकको ग्रहण कर प्रकृत जघन्य स्वामित्वका यहाँ अवलम्बन लिया है। गुणकार क्या है ? तत्प्रायोग्य असंख्यात रूप गुणकार है। * उससे बन्ध असंख्यातगुणा है। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६१ गा०६२] बंधादिपंचपदप्पाबहुअं 5 ४९८. किं कारणं ? सुहुमेहंदियउववादजोगेण बद्धसमयपबद्धस्स गहणादो। एत्थ गुणगारो असंखेजलोगा। संकमो असंखजगुणो । ४९९. किं कारणं ? जहण्णबंधो णाम एइंदियजहण्णोववादजोगेण वद्धेयसमय पबद्धमेत्तो । संकमो पुण पंचिंदियघोलमाणजहण्णजोगेण बद्धकोहसंजलणचरिमणवकबंधस्स असंखे०भागमेत्तो, बंधसमयादो समयणदोआवलियमेत्तं गंतूण असंखे० भागे सत्थाणेचेव उवसामिय तदसंखे०भागमेत्तदव्बमधापत्तसंकमेण संकामेमाणमुवसामियम्मि पयदजहण्णसामित्तदंसणादो। तदो घोलमाणजहण्णजोगेण बद्धेयसमयपबद्धस्स असंखे० भागमेत्तो होदण एसो पुग्विन्लदव्यादो' असंखेज्जगुणो त्ति घेत्तव्वं । जोगगुणगारादो अधापवत्तभागहारस्स असंखे०गुणहीणचादो जोगगुणगारस्स असंखे०भागमेत्तो एत्थ गुणगारो वत्तव्यो । * संतकम्ममसंखेजगुणं । $ ५०० किं कारणं ? अणियट्टिखवगम्मि कोधवेदगचरिमसमयघोलमाण जहण्णजोगेण बद्धणवकबंधस्स असंखेज्जे भागे घेत्तण चरिमफालिविसए जहण्णसामित्तावलंबणादो । एत्थ गुणगारो पलिदो० असंखे० भागो । $ ४९८. क्योंकि सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवके उपपाद योगसे बद्ध समयबद्धको यहाँ ग्रहण किया है । यहाँ पर गुणकार असंख्यात लोकप्रमाण है । * उससे संक्रम असंख्यातगुणा है । ६४९९. क्योंकि जघन्य बन्ध एकेन्द्रियजीवके जघन्य उपपाद योगसे बद्ध एक समयप्रबद्ध प्रमाण है । परन्तु संक्रम पञ्चेन्द्रिय जीवके घोलमान जघन्य योगसे बद्ध क्रोधसंज्वलनके अन्तिम नवकबन्धके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि बन्धसमयसे एक समय कम दो आवलिमात्र जाकर असंख्यातवें भाग में यो स्वस्थानमें ही उपशान्तकर उसके असंख्यातवें भाग मात्र द्रव्यको अधःप्रवृत्त संक्रमके द्वारा संक्रम करते हुए उपशामकके प्रकृत जघन्य स्वामित्व देखा जाता है। इसलिए घोलमाण जघन्य योगसे बद्ध एक समयप्रबद्धका असंख्यातवाँ भाग होकर यह पूर्वके द्रव्यसे असंख्यात गुणा है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। योगगुणकारसे अधःप्रवृत्त भागहार असंख्यातगुणा हीन होनेके कारण योगगुणकारका असंख्यातवां भाग गुणकार यहाँ पर कहना चाहिए। * उससे सत्कर्म असंख्यातगुणा है । ६५००. क्योंकि अनिवृत्तिकरण क्षपकके क्रोधवेदकके अन्तिम समयसम्बन्धी घोलमान जघन्य योगसे बद्ध नवकबन्धके असंख्यात बहुभागको ग्रहणकर अन्तिम फालिके आश्रयसे जघन्य स्वामित्वका अवलम्बन लिया है । यहाँ पर गुणकार पल्योपमके असंख्यातव भागप्रमाण है। १. ता०प्रतौ पुन्विल्लादो इति पाठः । ४६ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ ___ * एवं माणमायासंजलणपुरिसवेदाणं वंजणदो च अत्थदो च कायव्वं । ५०१ जहा कोहसंजलणस्स जहण्णपदेसप्पाबहुअं कदमेवमेदेसि पि कम्माणं कायव्वं विसेसाभावादो । तं पुण कथं कायव्वमिदि भणिदे 'वंजणदो च अत्थदो च कादव्वं' इति युत्तं। शब्दतश्चार्थतश्च कर्तव्यमित्यर्थः न शब्दगतोऽर्थगता वा कश्चिद्विशेषोऽस्तीत्यमिप्रायः। तदो कोहसंजलणजहण्णप्पाबहुआलावो अणणाहिओ एदेसि पि कम्माणमणुगंतव्यो त्ति सिद्धं । * लोहसंजलणस्स वि एसो चेव आलावो । णावरि अत्थेण णाणत्त, वंजणदो ण किंचि णाणत्तमत्थि। ६५०२ अत्थदो वुण को विसेससंभवो अस्थि सो जाणियव्वो त्ति भणिदं हाइ । को वुण सो अत्थगओ विसेसो चे? जहण्णसंकमसंतकम्मेसु दबगओ विसेसो त्ति भणामो । तं जहा-लोहसंजलणस्स जहणिया पदेसुदीरणा थोवा । उदयो असंखे० गुणो । बंधो असंखे गुणो। एत्थ पुव्वं व गुणगारो वत्तव्यो, विसेमाभावादो । संकमो असंखेजगुणो । कुदो ? खविदकम्मसियलणणेणागंतूण खवणाए अब्भुट्टिदस्स अपुन्व ____* इसी प्रकार मानसंज्वलन, मायासंज्वलन और पुरुषवेदका व्यञ्जन और अर्थ दोनों प्रकारसे अल्पबहुत्व करना चाहिए। ६५०१. जिस प्रकार क्रोधसंज्वलनका जघन्य प्रदेश अल्पबहुत्व किया है उसी प्रकार इन कोंका भी करना चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है । परन्तु वह कैसे करना चाहिए ऐसी पृच्छा होने पर, 'व्यञ्जन और अर्थ दोनों प्रकारसे करना चाहिए' यह कहा है। शब्द रूपसे और अर्थरूपसे करना चाहिए यह उक्त कथनका अर्थ है। शब्दगत और अर्थगत कोई विशेषता नहीं है यह उक्तवचनका अभिप्राय है। इसलिए क्रोधसंज्वलनका न्यूनाधिकतासे रहित जघन्य अल्पबहुत्वालाप इन कर्मोंका भी जानना चाहिए यह सिद्ध हुआ। * लोभसंज्वलनका भी यही आलाप है । इतनी विशेषता है कि अर्थकी अपेक्षा नानात्व है, व्यञ्जनकी अपेक्षा कुछ भी नानात्व नहीं है। $ ५०२. अर्थकी अपेक्षा तो जो विशेष सम्भव है वह जान लेना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका-वह अर्थगत विशेष क्या है ? समाधान—जघन्य संक्रम और जघन्य सत्कर्म इनमें द्रव्यगत विशेष है ऐसा हम कहते हैं। यथा-लोभसंज्वलनकी जघन्य प्रदेश उदीरणा स्तोक है। उससे उदय असंख्यातगुणा है। उससे बन्ध असंख्यातगुणा है । यहाँ पर गुणकारका कथन पूर्वके समान करना चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई भेद नहीं है। उससे संक्रम असंख्यातगुणा है, क्योंकि क्षपितकर्मा १. आ० प्रतौ चेर इति पाठः। Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] बंधादिपंचपदप्पा बहुअं ३६३ करणावलियचरिमसमये वट्टमाणस्स अधापवत्तसंकमजहण्णदव्वग्गहणादो । को गुणगारो १ पलिदो० असंखे०भागो, असंखेजाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि । $ ५०३. संतकम्ममसंखेज्जगुणं । कुदो १ खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण खवगसेटिं चढणुम्हस अधापवत्तकरणचश्मिसमये दिवढगुणहाणिमेत्ते इंदियसमयपवद्धे घेत्तण जहणसामित्तविहाणादो। एत्थ गुणगारो अधापवत्तभागहारो एवमेसो अत्थविसेसो एत्थ जाणेयव्वोत्ति एसो सुत्तस्स भावत्थो । * इत्थि-णवुंसयवेद-अरइ-सो गाणं जहण्णिया पदेसुदीरणा थोवा । ९.५०४. किं पमाणमेदं दव्वं ? असंखेजलोगपडिभागिय मिच्छाइट्ठिउदीरिददव्वमेत्तं । तदो सव्वत्थोत्तमेस्स ण विरुज्झदे | * संकमो असंखेज्जगुणों । ६५०५. किं कारणं १ अप्पप्पणो पाओग्गखविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण खवणाए अदिस अधापवत्तकरणचरिमसमये विज्झादसंकमेण जहण्णसामित्तपाडलंभादो | एत्थ गुणगारो असंखेजा लोगा । शिकलक्षणसे आकर क्षपणाके लिए उद्यत हुए तथा अपूर्वकरणसम्बन्धी आवलिके अन्तिम समय में विद्यमान जीवके अधःप्रवृत्तसंक्रमरूपसे जघन्य द्रव्यको ग्रहण किया है । शंका- गुणकार क्या है ? समाधान- - पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग गुणकार है जो पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है । $ ५०३. लोभसंज्वलनके जघन्य संक्रमसे उसका जघन्य सत्कर्म असंख्यातगुणा है, क्योंकि क्षपितकर्माशिकलक्षणसे आकर क्षपकश्रेणिपर चढ़नेके लिए सन्मुख हुए जीवके अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें डेढ़ गुणहानिमात्र एकेन्द्रिय सम्बन्धी समयप्रबद्धोंको ग्रहणकर जघन्य स्वामित्वका विधान किया है। यहाँ पर गुणकारअधः प्रवृत्त भागहारप्रमाण है। इसलिए यह अर्थविशेष यहाँ पर जानना चाहिए यह सूत्रका भावार्थ है । * स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति और शोककी जघन्य प्रदेश उदीरणा स्तोक है । $ ५०४. शंका इस द्रव्यका कितना प्रमाण है ? - समाधान—असंख्यात लोकका भाग देने पर जो एक भागकी मिध्यादृष्टि जीव उदीरणा करता है तत्प्रमाण है । इसलिए इसका सबसे स्तोकपना विरोधको नहीं प्राप्त होता । * उससे संक्रम असंख्यातगुणा है । $ ५०५. क्योंकि अपने-अपने प्रायोग्य क्षपितकर्माशिकलक्षणसे आंकर क्षपणाके लिए उद्यत हुए जीवके अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें विध्यातसंक्रमणके द्वारा जघन्य स्वामित्व प्राप्त - होता है । यहाँ पर गुणकार असंख्यात लोकप्रमाण है । Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ * बंधो असंखे जगुणो । ९४०६. किं कारणं ? सुहु मणिगोदजहण्णोववादजोगेण बद्धसमयपबद्धपमाणत्तादो । एत्थ गुणगारो अंगुलस्सासंखेज्जदिभागमेत्तो । * उदयो असंखेज्जगुणो । $ ५०७. किं कारणं ? इत्थवेद - अरदि - सोगाणं खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण देसूणपुञ्चकोडिं संजमगुणसेढिणिज्जरमणुपालिय तदो समयाविरोहेण वैमाणियदेवेसु देवेसु च जहाकममुप्पण्णस्स अपजत्तद्धं बोलाविय उक्कस्ससंकिलेसं गंतूण परिभग्गस्सावलियपडिभग्गावत्थाए उदयगदगोवच्छं घेत्तूण जहण्णसामित्तावलंबणादा । णवुंसयवेदस्स वि तेणेव लक्णणेणागंतूण अपच्छिमे मणुसभवग्गहणे देणपुव्वकोडिं संजमगुणसेटिणिञ्जरमणुपालिय तदो अंतोमुहुत्तावसेसे मिच्छत्तं गंतूण दसवस्ससहस्साउअदेवेसुववज्जिय सव्वलहुं पञ्जत्तयदभावेण सम्मत्तं पडिवजिय पुणो अंतोमुहुत्तावसेसे जीवि - दव्वए त्तिमिच्छत्तं गंत्तूण संकिलेसमावरिय एइंदिएसुदवण्ण- पढमसमए वट्टमाण जीवम्मि तक्कालपडिबद्धउदय गदगो वुच्छावलंबणेण जहण्णसामित्त - विहाणादो । एत्थुदयगदगोवुच्छदव्त्रं जड़ वि सव्वपयत्तेण जहण्णीकयं तो वि एइंदिय-परिणामजोगेण बद्धजहण्णसमयपत्रद्धमेत्तमत्थि खविदकम्मंशियसंचयगोकुच्छाणं जहाखयागदाणं पि तप्पमाणत्तोवएसादो । तदो पुव्विल्लादो उववादजोगेण बद्धजह - * उससे बन्ध असंख्यातगुणा है । $ ५०६. क्योंकि वह सूक्ष्म निगोदके जघन्य उपपाद योगसे बद्ध समयप्रबद्धप्रमाण है । यहाँ गुणकार अंगुल असंख्यातवें भागप्रमाण है । * उससे उदय असंख्यातगुणा है । $ ५०७. क्योंकि क्षपितकर्माशिकलक्षणसे आकर कुछ कम एक पूर्वकोटि कालतक संयमगुणश्रेणिनिर्जराका पालनकर तदनन्तर समयके अविरोधपूर्वक वैमानिक देवों और देवों में क्रमसे उत्पन्न हुए तथा अपर्याप्तकालको वितानेके बाद तथा उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्तकर प्रतिभग्न हुए जीवके एक आवलि कालतक प्रतिभग्न अवस्थाके प्राप्त होनेपर उदयगत गोपुच्छको ग्रहणकर स्त्रीवेद, अरति और शोकके जघन्य स्वामित्वका अवलम्बन लिया है। तथा इसी लक्षणसे अन्तिम मनुष्य भव में कुछकम एक पूर्वकोटि कालतक संयमसम्बन्धी गुणश्रेणिनिर्जराका पालनकर तदनन्तर अन्तर्मुहुर्त काल शेष रहनेपर मिथ्यात्व में जाकर तथा दशहजार आयुवाले देवोंमें उत्पन्न होकर पर्याप्त होनेके बाद अतिशीघ्र सम्यक्त्वको प्राप्तकर पुनः जीवन में अन्तर्मुहुर्त काल शेष रहनेपर मिथ्यात्वको प्राप्तकर और संक्लेशको आपूरित कर एकेन्द्रियों में उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें विद्यमान जीवके तत्काल प्रतिबद्ध उदयगत गोपुच्छाका अवलम्बन लेकर नपुंसकवेदके जघन्य स्वामित्वका विधान किया है। यहाँ पर उदयगत गोपुच्छासम्बन्धी द्रव्य यद्यपि सब प्रकारके प्रयत्नसे जघन्य किया है तो भी एकेन्द्रिय जीवके परिणामयोगसे बद्ध जघन्य समयप्रबद्धप्रमाण है, क्योंकि क्षपितकर्मांशिक जीवके यथा क्रमसे क्षयको प्राप्त हुई संचयगोपुच्छाओंके तत्प्रमाण होनेका उपदेश है। इसलिए पूर्वके उपपाद योगद्वारा बद्ध जघन्य समय Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] बंधादिपंचपदप्पा बहुअं ३६५ समयबद्धदव्वादो एसो जहण्णोदयो असंखेज्जगुणो ति सिद्धं । गुणगारो च जोगगुणगारमेत् । * संतकम्ममसंखेज्जगुणं । $ ५०८. किं कारणं ? इत्थि - णपुंसयवेदाणं खविदकम्मंसियखवगस्स चरिमफालिविदणाणंतर मेगडिदिएगसमयमेत्तकालावसेसे उदयगदगुण सेढिगो वुच्छावलंबणेण जहसामितविहाणादो । अरदि-सोगाणं च खविदकम्ससियखवगस्स सव्वसंकमचरिमफालिमस्सियूण जहण्णसामित्तपदुष्पायनादो । तदो सिद्धमसंखेज्जगुणां । एत्थ गुणगारो पलिदो० असंखे ० भागो । * हस्स-रदि-भय-दुगुं छाणं जहण्णिया पदेसुदीरणा थोवा । $ ५०९. कुदो १ सव्वुक्कस्ससंकिलिट्ठमिच्छाइट्ठिजहण्णोदीरणादव्वग्गहणादो । * उदयो असंखेज्जगुणो । $ ५१०. किं कारणं १ उवसामयपच्छायददेवस्स उदीरणोदयदव्बं घेत्तूणावलियचरिमसमये जहण्णसामित्तावलंबणादो। एत्थ गुणगारो तप्पा ओग्गासंखे०रूवाणि । * बंधो असंखेज्जगुणो । प्रबद्धप्रमाण द्रव्यसे यह जघन्योदय असंख्यातगुणा है यह सिद्ध हुआ । यहाँपर गुणाकार योग के गुणकारप्रमाण है । * उससे सत्कर्म असंख्यातगुणा है । $ ५०८. क्योंकि क्षपितकर्माशिक क्षपकके अन्तिम फालिके पतनके बाद एक समय प्रमाण एक स्थितिके शेष रहनेपर उदयगत गुणश्रेणिगोपुच्छाका अवलम्बन लेकर स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके जघन्य स्वामित्वका विधान किया है। तथा क्षपितकर्माशिकक्षपकके सर्वसंक्रमकी अन्तिम फालिका आश्रयकर अरति और शोकके जघन्य स्वामित्वका प्रतिपादन किया है । इसलिए इनका सत्कर्म असंख्यातगुणा है यह सिद्ध हुआ । यहाँपर गुणकार पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । * हास्य, रति, भय और जुगुप्साकी जघन्य प्रदेश उदीरणा स्तोक है । $ ५०९. क्योंकि सबसे उत्कृष्ट संक्लिष्ट मिथ्यादृष्टिके जघन्य उदीरणा द्रव्यको प्रकृतमें प्रण किया है। * उससे उदय असंख्यातगुणा है । $ ५१०. क्योंकि उपशामनासे आकर जो देव हुआ है उसके उदीरणोदय द्रव्यको प्रहणकर आवलिकालके अन्तिम समय में जघन्य स्वामित्वका अवलम्बन लिया है । यहाँ पर गुणकार तत्प्रायोग्य असंख्यात रूप हैं । * उससे बन्ध असंख्यातगुणा है । Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ ___५११. कुदो ? सुहुमणिगोदुववादजोगेण बद्धजहण्णसमयपबद्धपमाणत्तादो । एत्थ गुणगारो असंखेजा लोगा। * संकमो असंखेजगुणो। ५१२. किं कारणं ? अपुव्यकरणावलियपविदुचरिमसमये अधापवत्तसंकमेण जहण्णभावावलंबणादो। एत्थ गुणगारो असंखेजाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि । जोगगुणगारगुणिददिवड्डगुणहाणीए अधापवत्तभागहारेणोवट्टिदाए पयदगुणगारुप्पत्तिदंसणादो। संतकम्ममसंखेजगुणं । ६५१३. को गुणगारो ? अधापवत्तभागहारो । किं कारणं १ खविदकम्मंसियलक्खणेणागदखवगचरिमफालीए किंचूणदिवड्डगुणहाणिमेत्तएइंदियसमयपबद्धपडिबद्धाए पयदजहण्णसामित्तावलंबणादो। एवमप्पाबहुए समत्ते 'जो जं संकामेदि य एदिस्से चउत्थीए सुत्तगाहाए अत्थो समत्तो होइ । एवं 'वेदगे' त्ति अणियोगद्दारे चउण्हं सुत्तगाहाणमत्थविहाणं समत्तं । तदो वेदगेत्ति समत्तमणिओगद्दारं । णमो अरहंताणं० णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं । णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्यसाहूणं ।। ६५११. क्योंकि वह सूक्ष्म निगोद जीवके उपपाद योगसे बद्ध जघन्य समयप्रबद्धप्रमाण है। यहाँपर गुणकार असंख्यात लोक है। * उससे संक्रम असंख्यातगुणा है। $५१२. क्योंकि अपूर्वकरणके आवलि प्रविष्ट अन्तिम समयमें अधःप्रवृत्त संक्रम द्वारा जघन्यपनेका अवलम्बन लिया है। यहाँपर गुणकार पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है, क्योंकि योगगुणकारसे गुणित डेढ़ गुणहानिके अधःप्रवृत्तभागहारसे भाजित करनेपर प्रकृत गुणकारकी उत्पत्ति देखी जाती है। . * उससे सत्कर्म असंख्यातगुणा है । $ ५१३. शंका-गुणकार क्या है ? समाधान-अधःप्रवृत्त भागहारप्रमाण गुणकार है, क्योंकि क्षपितकर्माशिकलक्षणसे आकर कुछ कम डेढ़ गुणहानिप्रमाण एकेन्द्रियसम्बन्धी समयप्रबद्धप्रतिबद्ध क्षपककी अन्तिम फालिरूपसे प्रकृत जघन्य स्वामित्वका अवलम्बन लिया है। इस प्रकार अल्पबहुत्वके समाप्त होनेपर 'जो जं संकामेदि य' इस चौथी सूत्रगाथाका अर्थ समाप्त हुआ । इस प्रकार 'वेदक' इस अनुयोगद्वारमें चार सूत्रगाथाओंका कथन समाप्त हुआ। इस प्रकार वेदक अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ वेदगअत्याहियारचुण्णिसुत्ताण वेदगे ति अणियोगद्दारे दोणि अणियोगदाराणि । तं जहा- उदयो च उदीरणा च । तत्थ चत्तारि सुत्तगाहाओ । तं जहा कदि आवलियं पवेसेइ कदिन पविस्संति कस्स आवलियं । खेत्त-भव-काल-पोग्गल- ट्रांद ववागोदयखयो दु ।।५९।। 3को कदमा टिदै ए ई कोव के य अणुभागे सांतर-णिरंतरं वा क द वा समया दुबो द्धन्वा ॥६॥ ४बहुगदरं बहुगदर से काले को णु थावदरगं वा । अणुप्पमयमुदीरतो कदि वा समयं उदीरे।दे ॥६१। 'जो जं संकामंदि य जं बंधदि जं च जो उदीरे द । तं केण होइ अहियं ट्ठिदि अणुभागे पदसग्गे ।।६२ ।। 'तत्थ पढमिल्ल गाहा पयडि उदीरणाए पयडिउदये च बद्धा । कदि आवलियं पवेसेदि त्ति एस गाहाए पढमपादा पयडिउदीरणाए । एदं पुण सुत्त पयडिट्ठाणउदीरणाए बद्धं । एदं ताव दुवणीयं । एगेगपयडिउदीरणा दुविहा–एगेगमूलपयडिउदीरणा च एगेगुत्तरपयडिउदीरणा च । एदाणि वे वि पत्तेगं चउबीसमणियोगद्दारेहिं मग्गिऊणा । तदो पयडिट्ठाणउदीरणा कायव्या । तत्थ द्वाणसमुकित्तणा। अत्थि एकिस्से पयडीए पवेसगो । दोण्हं पयडीणं पवेसगो । तिण्हं पयडीणं पवेसगो णस्थि । चउण्हं पयडीणं पवेसगो। एत्तो पाए णिरंतरमत्थि जाव दसण्हं पयडीणं पवेसगो । 'एदेसु हाणेसु पयडिणिद्देसो कायव्यो भवदि । एयपयडिं पवेसेदि सिया कोहसंजलणं वा सिया माणसंजलणं वा सिया मायामंजलणं वा सिया लोभसंजलणं वा । "एवं चत्तारि भंगा । दोण्हं-पयडीणं पवेसगस्स बारस भंगा। चउण्हं पयडीणं पवेसगस्स चदुशीसं भंगा । पंचण्हं पयडीणं पवेसग्गस्स चत्तारि चउवीसं भंगा।"छण्हं पयडीणं पसगस्स सत्त चउदीस भंगा । "सत्तण्हं पयडीणं पवेसगस्स दस चउवीस भंगा। " हं पयडीणं पवेसगस्स एकारस चउवीस भंगा । गवण्हं पयडीणं पवेसगस्स छ चदुवीस भंगा। "दसण्हं पयडीणं पवेसगस्स एक चवोस भंगा एदेसिं भंगाणं गाहा दसण्हमुदीरणमादि कादूण । तं जहा एक्कग छक्केक्कारम दस सत्त चउक्ग एक्कगं चेव। . दोस च बारस मंगा एक्कम्हि य होंनि चत्तारि ॥१।। (१) पृ०२ । (२) पृ०३ । (३) पृ०६ । (४) पृ०७ । (५) पृ०८ । (६) पृ.९ । (७) पृ०१० । (८) पृ०४२ । (९) पृ०४३ । (१०) पृ०४४ । (५१) पृ०४५ । (१२) पृ०४६ । (१३) पृ०४७ । ।१४) पृ०४८ । (१५) पृ०४९ । (१६) पृ०५० । (१७) पृ०५१ । (१८) पृ०५२ । Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ 'सामित्तं । सामित्तस्स साहणट्ठमिमाओ दो सुत्तगाहाआ । तं जहा सत्तादि दसुक्कस्सा मिच्छत्ते मिस्सए णउक्कस्सा। छादी णव उक्कस्सा अविरदसम्मे दु आदिस्से ।।२।। २पचादि अटुणिहणा विरदाविरदे उदीरणट्ठाणा । एगादी तिगरहिदा सत्तुक्कस्सा च विरदेसु ॥३॥ 'एदासु दोसु गाहासु विहासिदासु सामित्तं समत्तं भवदि । एयजीवेण कालो । एक्किस्से दोण्हं चदुण्हं पंचण्हं छण्हं सत्तण्हं अट्ठण्हं णवण्हं दसण्हं पयडीणं पवेसगो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एयसमओ । उक्कस्सेणंतोमुहुत्तं । “एगजीवेण अंतरं । एकिस्से दोण्हं चउण्हं पयडीणं पवेसगंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । 'उक्कस्सेण उवड्डपोग्गलपरियट्ट । पंचण्हं छण्हं सत्तण्हं पयडीणं पवेसगंतरं केवचिरं कालादो होइ ? जहण्णेण एयसमओ । उक्कस्सेण उवड्डपोग्गलपरियढें । अट्ठण्हं णवण्हं पयडीणं पवेसगंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एयसमओ । 'उक्कस्सेण पुन्यकोडी देसूणा । दसण्हं पयडीणं पवेसगस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? "जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण वेछावद्विसागरोवमाणि सादिरेयाणि । "णाणाजीवेहि भंगविचयो । "सव्वजीवा दसण्हं णवण्हमट्टण्हं सत्तण्हं छण्हं पंचण्हं चदुण्हं णियमा पवेसगा । दोण्हमेक्किस्से पवेसगा भजियव्वा । "णाणाजीवेहि कालो । एकिस्से दोण्हं पवेसगा केवचिरं कालादो होति ? जहगणेण एयसमओ । “उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । सेसाणं पयडीणं पवेसगा सव्वद्धा । "णाणाजीवेहि अंतरं । एक्किस्से दोण्हं पवेसगंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एयसमओ । उक्कस्सेण छम्मासा । सेसाणं पयडीणं पवेसगाणं णत्थि अंतरं । __ "सण्णियासो । एक्किस्से पवेसगो दोण्हमपेसगो। "एवं सेसाणं ।। अप्पावहुअं । सव्वत्थोवा एक्किस्से पवेसगा । दोण्हं पवेसगा संखेजगुणा । चउण्हं पयडीणं पवेसगा संखेजगुणा । "पंचण्डं पयडीणं पवेसगा असंखेजगुणा । छण्हं पयडीणं पवेसगा असंखेजगुणा । सत्तण्हं पयडीणं पवेसगा असंखेजगुणा । दसण्हं पयडीणं पवेसगा अणंतगुणा । णवण्हं पयडीणं पवेसगा संखेजगुणा । "अट्ठण्हं पयडीणं पवेसगा संखेजगुणा । णिरयगदीए सव्वत्थोवा छण्हं पयडीणं पवेसगा । सत्तण्हं पयडीणं पवेसंगा असंखेजगुणा । दसण्हं पयडीणं पवेसगा असंखेजगुणा । णवण्हं पयडीणं पवे. (१) पृ०५३ । (२) पृ०५४ । (३) पृ०५७ । (४) पृ०५९ । (५) पृ०६० । (६) पृ०६१ । (७) पृ०६२(क) प०६३ । (९) पृ०६४। (१०) पृ०६५। (११) प्र०६९। (१२) १०७०। (१३) ५० १) पृ०६९ । (१२) पृ०७० । (१३) पृ०७५ । (१४) पृ०७६ । (१५) पृ०७७ । (१६) पृ०७८ । (१७) पृ०७९ । (१८) पृ०८० । (१९) पृ०८१ । Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसिट्ठाणि गुणा । अट्टहं पयडीणं पवेसगा असंखेजगुणा । तो भुजगारपवेसगो । तत्थ अट्ठपदं कायव्वं । तदो सामित्तं । भुजगार - अप्पसगो को होइ ? अण्णदरो । अवत्तव्यपवेसगो को होइ ? अण्णदरो उवसामणादो परिवदमानगो । ३६९ एगजीवेण कालो । भुजगारपवेसगो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एयसमओ । 'उक्कस्सेण चत्तारि समया । अप्पदरपवेसगो केवचिरं कालादो होदि १ जहण्णेण एयसमओ । उक्कस्सेण तिण्णि समया । अवट्ठिपवेसगो केवचिरं कालादो होदि ? जहणेण एगसमओ । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । अवत्तन्वपवेसगो केवचिरं कालादो होदि १ जहण्णुकस्सेण एयसमओ । " एयजीवेण अंतरं । भुजगार- अप्पदर अवट्ठिदपवेसगंतरं केवचिरं कालादो होदि १ जहणेण एयसमओ । 'उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । "अवत्तव्यपवेसगंतरं केवचिरं कालादो होदि १ जण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण उवडपोग्गलपरियङ्कं । १२ " णाणाजीवेहि भंगविचयादि अणियोद्दाराणि अप्पा बहुअवआणि कायव्वाणि । "अप्पा बहुअं । सव्वत्थोवा अवत्तव्यपवेसगा । भुजगारपवेसगा अनंतगुणा । अप्पदरपवेसगा विसेसाहिया । अवदिपवेसगा असंखेजगुणा । "पदणिक्खेव वड्डीओ कादव्वाओ । १४ १५ "कदि च पविसंति कस्स आवलियं ति । "एत्थ पुव्वं गमणिजा ठाणसमुक्कित्तणा पयडिणिसो च । ताणि एक्कदो भणिस्संति । अट्ठावीसं पयडीओ उदयावलियं पविसंति । सत्तावीसं पयडीओ उदयावलियं पविसंति सम्मत्ते उव्वेल्लिदे । " छव्वीसं पयडीओ उदयावलियं पविसंति सम्मत्त - सम्मामिच्छत्तेसु उव्वेल्लिदेसु । पणुवीसं पयडीओ उदयावलियं पविसंति दंसणतियं मोत्तूण । अनंताणुबंधीणमविसंजुत्तस्स उवसंतदंसणमोहणीयस्स । णत्थि अण्णस्स कस्स वि । चउवीसं पयडीओ उदयावलियं पविसंति तबंध वज्ज । तेवीसं पयडीओ उदयावलियं पविसंति मिच्छत्ते खविदे | 'बावीसं पयडीओ उदयावलियं पविसंति सम्मामिच्छत्ते खविदे | "एक्कवीसं पयडीओ उदयावलियं पविसंति दंसणमोहणीए खविदे । एदाणि द्वाणाणि असंजदपाओग्गाणि । एतो उवसामगपाओग्गाणि ताणि भणिस्सामो । उवसामणादो परिवदंतेण (१) पृ०८२ । (२) पृ०८३ । (३) पृ० ८४ । (४) १०८५ । (५) पृ०८६ । (६) पृ०८७ । (७) पृ०८८ (८) पृ०८९ । ( ९ ) पृ० ० । (१०) पृ०९२ । ( ११ ) पृ०९३ । (१२) पृ०९९ । (१३) पृ०१०० । (१४) पृ०११२ । (१५) पृ० ११३ । (१६) पृ०११४ | (१७) पृ०११५ । (१८) पृ०११६ । (१९) पृ० ११७/ (२०) पृ०११८ । ४६ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ तिविहो लोहो ओकड्डिदो । तत्थ लोभसंजलणमुदए दिण्णं, दुविहो लोहो उदयावलियबाहिरे fuftaar | ता एका पयडी पविसदि । से काले तिष्णि पयडीओ पविसंति । तदो तोमुत्ण तिविहा माया ओकड्डिदा । तत्थ मायासंजलमुदए दिण्णं, दुविहमाया उदयावलियबाहिरे णिक्खित्ता । ताधे चत्तारि पयडीओ पविसंति । से काले छप्पयडीओ पविसंति । तदो अंतोमुहुत्तेण तिविहो माणो ओकडिदो । तत्थ माणसंजलणमुदए दिण्णं दुवि माणो उदयालयबाहिरे णिक्खित्तो । ताघे सत्त पयडीओ पविसंति । से काले णव पयडीओ पविसंति । तदो अंतोमुहुत्तेण तिविहो कोहो ओकड्डिदो । तत्थ कोहसंजलणमुददिणं, दुविहो कोहो उदयावलियबाहिरे णिक्खित्तो । ताधे दस पयडीओ पविसंति । से काले वारसपयडीओ पविसंति । तदो अंतोमुहुत्तेण पुरिसवेद-छण्णोकसाय वेणीयाणि ओडिदाणि । तत्थ पुरिसवेदो उदय दिण्णो, छण्णोकसाय- वेदणीयाणि उदयावेलियबाहिरे णिक्खित्ताणि । ताधे तेरसपयडीओ पविसंति । से काले एगूणवीसं पडीओ पविसंति । तत्तो अंतोमुहुत्तेण इत्थवेदमोकड्डिऊण उदयावलियबाहिरे णिक्खिवदि । से काले वीसं पयडीओ पविसंति । ताव जाव अंतरं ण विणस्सदि । अंतरं विणासिजमाणे णjसयवेदमोकडिदूण उदयावलियबाहिरे णिक्खिवदि । से काले एक्कावी सं पडीओ पविसंति । एत्तो पाए जइ खीणदंसणमोहणीयो एदाओ एक्कवीसं पयडीओ पविसंति जाव अक्खवग - अणुवसामगो ताव । एदस्स चैव कसायोवसामणादो परिवदमा ! यस्स । जाधे अंतरं विणङ्कं तत्तो पाए एकवीसं पयडीओ पविसंति जाव सम्मत्तमुदीरें तो समत्तमुदए देदि, सम्मामिच्छत्तं मिच्छत्तं च आवलियबाहिरे णिक्खिवदि । ताधे बावीसं पडीओ पविति । से काले चउवीसं पयडीओ पविसंति । जड़ सो कसाय उवसामणादो परिवदिदो दंसणमोहणीयउवसंतद्धाए अचरिमेसु समएसु आमाणं गच्छ तदो आसागमणादो से काले पणुवीसं पयडीओ पविसंति । जांघे मच्छत्तमुदोरेदि ताधे छब्बीसं पयडीओ पविसंति । तदो से काले अट्ठावीसं पयडीओ पविसंति । अँह सो कसा उवसामणादो परिवदिदो दंसणमोहणीयस्स उवसंतद्धाए चरिमसमए आसाणं गच्छ, से काले मिच्छत्तमोकडुमाणयस्स छव्वीसं पयडीआ पविसंति । तदो से काले अट्ठावीसं पयडीओ पविसंति । एदे वियप्पा कसायउवसामणादो परिवदमाणगादो । 1 'एतो खवगादो मग्गियव्त्रा कदि पवेसद्वाणाणि ति । 'तं जहा- - दमण मोहणीए विदे एकावीसं पयडीओ पविसंति । अडकसाएसु खविदेसु तेग्स पयडीओ पविसंति । अंतरे कदे दो पयडीओ पविसंति । पुरिसवेदे खविंदे एक्का पयडी पविसदि । कोघे १) पृ० ११० । ( २ ) पृ० २० । (३ पृ०१२१ । (४) पृ० २२ । (५) प्र०१२३ (६) पृ० १२४ । (७) पृ० ०२५ । ८) पृ० १२६ । (९) पृ. १२७ । (१०) पृ०१२८ । Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ३७१ परिसिट्ठाणि खविदे माणो पविसदि । माणे खविदे माया पविसदि । मायाए खविदे लोभो पविसदि । लोभे खविदे अपवेसगो। 'एवमणुमाणिय सामित्तं णेदव्वं । एयजीवेण कालो। एक्किस्से दोण्हं तिण्हं छण्हं णवण्हं बारसण्हं तेरसण्हं एगूणबीसण्हं बीसण्हं पयडोणं पवेसगो केवचिरं कालादो होइ ? जहण्णेण एयसमओ।' उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ! चदुण्हं सत्तण्हं दसण्हं पयडीणं पवेसगो केवचिरं कालादो होइ ? जहण्णुक्कस्सेण एयसमओ । “पंच-अट्ठएक्कारस-चोद्दसादि जाव अट्ठारसा ति एदाणि सुण्णट्ठाणाणि । एक्कबीसाए पयडीणं पवेसगो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । 'उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । बावीसाए पणुवीसाए पयडीणं पवेसगो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एयसमओ । 'उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं । तेवीसाए पयडीणं पवेसगो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुक्कसेण अंतोमुहुत्तं । चउवीसाए पयडीणं पवेसगो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण बेछावद्विसागरोवमाणि देसूणाणि । छब्बीसाए पयडीणं पवेसगो केवचिरं कालादो होदि १ तिण्णि भंगा। तत्थ जो सो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स जहण्णेण एयसमओ। उक्कस्सेण उबड्डपोग्गलपरियढें । सत्तावीसार पयडीणं पबेसगो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एयसमजो । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स अंतामुहुत्तं । "उक्कस्सेण बेछावट्टिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । "अंतरमणुचिंतियण णेदव्वं । २णाणाजीवेहि भंगविचयो। अट्ठावीस-सत्तावीस-छव्वीस-चवीस-एक्कवीसाए पयडीओ णियमा पविसंति । सेसाणि "द्वाणाणि भजियव्वाणि । "णाणाजीवेहि कालो अंतरं च अणुचिंतिऊण णेदव्वं । अप्पाबहुअं। चउण्हं सत्तण्हं दसण्हं पयडीणं पवेसगा तुल्ला थाया । तिण्हं पवेसगा संखेज्जगुणा । छण्हं पवेसगा विसेसाहिया। "णवण्हं पवेसगा विसेसाहिया । बारसण्हं पवेसगा विसेसाहिया । एगूणवीसाए पवेसगा विसेसाहिया । वीमाए पवेसगा विसेसाहिया । दोण्ह पवेसगा संखेजगणा। एक्कवीसाए पवेसगा असंखेञ्जगुणा । "तेरसण्हं पवेसगा संखेज्जगणा । तेवीसाए पवेसगा संखेज्जगणा । बासीसाए पवेसगा असंखेज्जगणा।सत्तावीसाए पवेसगा असंखेज्जगुणा । एक्कवीसाए पवेसगाअसंखेज्जगुणा। 'चउवीसाए पवेसगा असंखेज्जगुणा । अट्ठावीसाए पवेसगा असंखेजगुणा । छव्यासाए (१) पृ०१३० । (२) पृ०१३१ ।(३) पृ०१३३ । (४) पृ. १३४। ५) पृ० १३५ । (६) पृ० १३६ । (७) पृ० १३७ । (८) पृ०१३८ । (९) पृ० १३९ । (१०) पृ० १४०। (११) पृ० १४१। (१२) पृ० १४७ । (१३) पृ० १४८ । (१४) पृ० १५३। (१५) १० १५८। (१६) प. १५९ (१७) पृ० १६० । (१८) पृ० १६१ । (१९) पृ० १६२ । Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ .. जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ पवेसगा अणंतगुणा। . भुजगारो कायव्यो । पदणिक्खेवो कायव्यो । वड्डी कायव्वा । 'खेत्त-भव-काल-पोग्गल-द्विदिविवागोदयखयो दु' त्ति एदस्स विहासा । कम्मोदयो खेत्त-भव-काल-पोग्गल-हिदिविवागोदयक्खओ भवदि । को कदमाए द्विदीए पवेसगो त्ति पदस्स द्विदिउदीरणा कायव्वा । “एत्व द्विदिउदीरणा दुविहा—मूलपयडिट्ठिदिउदीरणा उत्तरपयडिट्ठिदिउदीरणा च । तत्थ इमाणि अणियोगद्दाराणि । तं जहा–पमाणाणुगमो सामित्तं कालो अंतरं गाणाजीवेहि भंगचियो कालो अंतरं सण्णियासो अप्पाबहुअं भुजयारो पदणिक्खेवो वड्डी हाणाणि च । "एदेसु अणियोगद्दारेसु विहासिदेसु 'को कदमाए हिदीए पवेसगो' त्ति पदं समत्तं । भाग ११ 'को व के य अणुभागे त्ति अणुभागउदीरणा कायव्वा । तत्थ अट्ठपदं । तं जहाअणुभागा पयोगेण ओकडियण उदये दिअंति सा उदीरणा । तत्थ जं जिस्से आदिफ यं तं ण ओकड्डिजदि । एवमणंताणि फहयाणि ण ओकडिजंति । केत्तियाणि ? जत्तिगो जहण्णगो णिक्खेवो जहणिया च अइच्छावणा तत्तिगाणि । आदीदो पहुडि एत्तियमेत्ताणि फद्दयाणि अइच्छिण तं फद्दयमोकड्डिजदि । तेण परमपडिसिद्धं । एदेण अट्ठपदेण अणुभागुदीरणा दुविहा—मूलपयडिअणुभागउदीरणा च उत्तरपयडिअणुभागउदीरणा च । एत्थ मूळपयडिअणुभात्गउदीरणा भाणियव्या । उत्तरपयडिअणुभागुदीरणं वत्तहस्सामो । तत्थेमाणि चउवीसमणियोगद्दाराणिसण्णा सव्बउदीरणा एवं जाव अप्पाबहुए त्ति भुजगार-पदणिक्खेववड्डि-ठाणाणि च । 'तत्थ पुव्वं गमणिजां दुविहा सण्णा-घाइसण्णा ठाणसण्णा च । ताओ दो वि एक्कदो वत्तइस्सामो। तं जहा मिच्छत्त-बारसकसायाणमणुभागउदीरणा सव्व घादी। दुट्ठाणिया तिहाणिया चउट्ठाणिया वा । सम्मत्तस्स अणुभागमुदीरणा देसघादी । एयट्ठाणिया वा दुट्टाणिया वा । सम्मामिच्छत्तस्स अणुभागउदीरणा सव्वघादी विट्ठाणिया। ''चदुसंजलण-तिवेदाणमणुभागुदीरणा देसघादी वा सव्वघादी वा । एगट्ठाणिया वा दुट्ठाणिया तिहाणिया चउहाणिया वा। छण्णोकसायाणमणुभागउदीरणा देसघादी वा सव्वषादी वा। "दुट्ठाणिया वा तिढाणिया वा चउट्ठाणिया वा । चदुसंजलणणवणोकसायाणमणुभागउदीरणा एइंदिए वि देसघादी होइ ।। एगजीवेण सामित्त । तं जहा–मिच्छत्तस्स उक्कस्साणुभागुदीरणा कस्स ? (१) पृ० १६८ । (२) पृ० ३८७ । (३) पृ० १८८ । (४) पृ० १८९। (५) पृ० १९० । (६) पृ० १। (७) पृ० २। (८) पृ० ३। (९) पृ० ४। (१०) पृ० ३६ । (११) पृ० ३७ । (१२) पृ० ३८ । [१३] पृ० ३९ । [१४] ४० । [१५] पृ० ४६ । । Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिसिट्ठाणि - ३७३ मिच्छाइट्ठिस्स सण्णिस्स सव्वाहिं पजत्तीहिं पत्तत्तयदस्स उक्कस्ससंकिलिट्ठस्स । एवं सोलसकसायाणं । सम्मत्तस्स उक्कस्साणुभागुदीरणा कस्स ? मिच्छत्ताहिमुहचरियसमय असंजदसम्मादिहिस्स सव्वसंकिलिट्ठस्स । 'सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्साणुभागुदीरणा कस्स ? मिच्छत्ताहिमुहचरिमसमयसम्मामिच्छाइट्ठिस्स सव्वसंकिलिट्ठस्स । इत्थवेद-पुरिसवेदाणमुक्कस्साणुभागुदोरणा कस्स ? 'पंचिंदियतिरिक्खस्स अट्ठवासजादस्स करहस्स सव्वसंकिलिट्ठस्स । सयवेद-अरदि-सोग-भय-दुगुंछाणमुक्कस्साणुभागुदीरणा कस्स ? सत्तमाए पुढवीए गेरइयस्स सब्वसंकिलिट्ठस्स । हस्स-रदीणमुक्कस्साणुभाग उदीरणा कस्स ? सदारसहस्सारदेवस्स सव्वसंकिलिट्ठस्स । 'एत्तो जहणिया उदीरणा । मिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागुदीरणा कस्स ? संजमाहिमुहचरिमसमयमिच्छाइद्विस्स सव्वविसुद्धस्स । सम्मत्तस्स जहण्णाणुभागुदीरणा कस्स ? समयाहियावलिय अक्खीणदंसणमोहणीयस्स । सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णाणभागुदीरणा कस्स ? सम्मत्ताहिमुहचरिमसमयम्मामिच्छाइद्विस्स सव्वविसुद्धस्स । अणंताणुबंधीणं जहण्णाणुभाग उदीरणा कस्स ? संजमाहिमुचरिमसमयमिच्छाइद्विस्स सव्वविसुद्धस्स । अपच्चक्खाणकसायस्स जहण्णाणुभाग उदीरणा कस्स ? 'संजमाहिमुहचरिमसमयअसंजदसम्माहहिस्स सव्वविसुद्धस्स । पच्चक्खाणकसायस्स जहण्णाणुभागमुदीरणा कस्स ? संजमाहिमुहचरिमसमयसंजदासंजदस्स सव्वविसुद्धस्स । कोहसंजलणस्स जहण्णाणुभागउदीरणा कस्स ? खवगस्स चरिमसमयमाणवेदगस्स । मायासंजलणस्स जहण्णाणुभागउदीरणा कस्म ? खवगस्स चरिमसमयमायावेदगस्स । लोहसंजलणस्स जहण्णाणुभागउदीरणा कस्स ? "खवगस्स समयाहियावलियचरिमसमयसकसायरस । इत्थिवेदस्स जहण्णाणुभागउदीरणा कस्स ?. इत्थिवेदखवगस्स समयाहियावलियचरिमसमयसवेदस्स | पुरिसवेदस्स जहण्णाणुभागउदीरणा कस्स ? पुरिसवेदखवगस समयाहियापलिय चरिमसमयसवेदस्स । णवंसयवेदस्स जहण्णाणुभागुदीरणा कस्स ? णqसयवेदखवयस्स समयाहियावलियचरिमसमयसवेदस्स । "छण्णोकसायाणं जहणाणुभागुदीरणा कस्स ? खवगस्स चरिमसमयअपुव्वकरणे बट्टमाणस्स । "एगजीवेण कालो। मिच्छत्तस्स उक्कस्साणुभागउदीरगो केवचिरं कालादो (१) पृ० ४८ । (२) पृ० ४९ । (३) पृ० ५० । (४) पृ० ५१ । (५) पृ० ५२ । (६) पृ० ५४ । (७) पृ०५५ । (८) पृ०५६ । (९) पृ०५७ । (१०) पृ०५८ । (११) पृ०५९ । (१२) पृ०६० । (१५) पृ० ६२ । Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ होदि ? जहण्णेण एयसमओ । 'उक्कस्से वे समया । अणुक्कस्साणुभागुदीरगो केवचिरं कालादो होदि ? जहणेण एगसमओ । उक्कस्सेण असंखेजा पोग्गलपरियट्टा । सम्मत्तस्स उक्कस्साणुभागुदीरगो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ । अणुक्कस्साणुभाग उदीरगो के चिरं कालादो होदि १ जहणणेण अंतोमुहुतं उक्कस्सेण छावट्टिसागरोवमाणि आवलियूणाणि । सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्साणुभाग उदीरगो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुकस्सेण एयसमयो । अणुक्कस्साणुभागुदीरगो केवचिरं Arora sa ? Gooणुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । सेसाणं कम्माणं मिच्छत्तभंगो । णवरि अणुक्कस्साणुभागुदीरगउक्कस्सकालो पयडिकालो कादव्वो । " एतो जहण्णगो कालो । सव्वासि पयडीणं जहण्णाणुभागउदीरगो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुक्कस्सो एगसमओ । अजहण्णाणुभागुदीरणा पयउदीरणाभंग | अंतरं । मिच्छत्तस्स उक्कस्साणुभागुदीरगंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहणणेण एगसमओ । 'उक्कस्सेण असंखेजा पोग्गलपरियट्टा । अणुक्कस्साणुभागुदीरगंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहणेण एगसमओ । उक्कस्सेण वे छावट्टिसागरोवमाणि सादिरेयाणि एवं सेसाणं कम्माणं सम्मत्त - सम्मामिच्छत्तवजाणं । णवरि अणुक्कसाणुभागुदीरगंतरं पयडिअंतरं कादव्वं । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुकस्साणुक्कस्साणुभागुदीरगंतरं केवचिरं कालादो होदि ? " जहणेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियङ्कं देखणं । "जहण्णाभागुदीरगंतरं केसिंचि अत्थि, केसिंचि णत्थि । णाणजीवेहि भंगविचओ भागभागो परिमाणं खेत्तं फोसणं कालो अंतरं सण्णियासो च एदाणि कादव्वाणि । १३ १४ 'अप्पा बहुअं । सव्वतिव्वाणुभागा मिच्छत्तस्स उक्कस्साणुभागुदीरणा । " अणंताबंधी मण्णदरा उकस्साणुभागुदीरणा तुल्ला अतगुणहीणा । संजलणामण्णदरा उकस्साणुभागुदीरणा अनंतगुणहीणा । पच्चक्खाणावरणीयाणमुक्कस्साभागुदीरणा अण्णदरा अतगुणहीणा । "अपश्चक्खाणावरणीयाणमुकस्साणुभागमुदीरणा अण्णदरा अनंतगुणहीणा । णधु सयवेदस्स उक्कस्साणुभागुदीरणा अनंतगुणहीणा । अरदीए उक्कस्साणुभागुदीरणा अनंतगुणहीणा । सोगस्स उकस्साणुभागु (१) पृ० ६३ । (२) पृ० ६४ । (३) पृ० ६५ | (४) पृ० ६६ । (५) पृ० ७० । (६) पृ० ७१ । (७) पृ९ ७२ । (८) पृ० ७५ । (९) पृ० ७६ । (१०) पृ० ७७ । ( ११ ) पृ० ८१ । ( १२ ) पृ० ८७ । (१३) पृ० १२३ । (१४) पृ० १२४ । (१५) पृ० १२५ । Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसिट्ठाणि ३७५ १ दीरणा अनंतगुणहीणा । भए उक्कस्साणुभागुदीरणा अनंतगुणहीणा | दुगुछाए उक्कस्साणुभागुदीरणा अणंतगुणहीणा । इत्थि वेदस्स उकस्साणुभागुदीरणा अनंतगुणहीणा पुरिसवेदस्स उकस्साणुभागुदीरणा अनंतगुणहीणाारदीए उकस्सा णुभागुदीरणा अनंतगुणा । हस्से उकस्साणुभागुदीरणा अनंतगुणहीणा । सम्मामिच्छत्तस्स उकस्साणुभागुदीरणा अनंतगुणहीणा सम्मत्ते उकस्साणुभागुदीरणा अनंतगुणहीणा | 1 जहणाणुभागुदीरणा । सव्वमंदाणुभागा लोभसंजलणस्स जहण्णाणुभागुदीरणा । मायासंजणस्स जहण्णाणुभागउदीरणा अनंतगुणा । माणसंजणस्स जाणुभागुदीरणा अनंतगुणा । कोहसंजलणस्स जहण्णाणुभागुदीरणा अनंतगुणा । सम्मत्ते जहण्णाणुभागुदीरणा अणं तगुणा । पुरिसवेदे जहण्णाणुभागुदीरणा अनंतगुणा । " इत्थवेदे जहण्णाणुभागुदीरणा अनंतगुणा । णवुंसयवेदे जहण्णाणुभागउदीरणा अतगुणा । हस्से जहण्णाणुभागुदीरणा अनंतगुणा । रदीए जहण्णाणुभागुदीरणा अनंतगुणा । दुर्गुछाए जहण्णाणुभागुदीरणा अनंतगुणा । भये जहण्णाणुभागुदीरणा अनंतगुणा । सोगस्स जहण्णाणुभागुदीरणा अनंतगुणा । अरदीए जहण्णाणुभागुदीरणा अतगुणा । पच्चक्खाणावरणजहण्णाणुभागुदीरणा अण्णदरा अनंतगुणा । अपच्चक्खाणावरणजहण्णाणुभागुदीरणा अण्णदरा अनंतगुणा । सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागुदीरणा अनंतगुणा । 'अणंताणुबंधीणं जहण्णाणुभागुदीरणा अण्णदरा अनंतगुणा । मिच्छतस्स जहण्णाणुभागुदीरणा अनंतगुणा । एवमोघजहण्णओ सम्मत्तो | णिरयगदीए सव्वमंदाणुभागा सम्मत्तस्स जहण्णाणुभागुदीरणा । इस्सस्स जहण्णाणुभागउदीरणा अनंतगुणा । रदीए जहण्णाणुभागुदीरणा अनंतगुणा । दुगुं छाए जहण्णाणुभागुदीरणा अनंतगुणा । सोगस्स जहण्णाणुभागुदीरणा अनंतगुणा । अरदीए जहण्णाणुभागुदीरणा । णव सयवेदे जहण्णाणुभागुदीरणा अनंतगुणा । संजणस्स जहण्णाणुभागुदीरणा अण्णंदरा अनंतगुणा । अपच्चक्खाणावरण जहण्णाणुभागुदीरणा अण्णदरा अणंतगुणा । पच्चक्खाणावरणाजहण्णाणुभागुदीरणा अण्णदरा अनंतगुणा । सम्मामिच्छत्तस्सजहण्णाणुभागदोरणा अनंतगुणा । अणंताणुबंधीणं जहण्णाणुभाग उदीरणा अण्णदरा अनंतगुणा । मिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागुदीरणा अनंतगुणा । एवं देवगदी वि । भुजगारउदीरणा उवरिमगाहाए परूविहिदि, पदणिच्खेवो वि तत्थेव, बड्डी वि तत्थेव | पदेसुदीरणा दुविहा – मूलपयडिपदेसुदीरणा उत्तरपयडिवदेसुदीरणा च । म्लप - (१) पृ० १२६ । (२) पृ० १२७ । (३) पृ० १२८ । (४) पृ० १२९ । ( ५ ) पृ० १३० । (६) पृ० १३१ | (७) पृ० १३२ । (८) पृ० १३३ । (९) पृ० १३४ । Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ यडिपदेसुदीरणं मग्गियूण त्वदो उत्तरपयडिपदेसुदीरणा च समुक्त्तिणादि अप्पावहुअअंतेहि अणिओगद्दारेहि मग्गियव्या । तत्थसामित्तं । ' मिच्छत्तस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा कस्स ? संजमाहिमुहचरिसमयमिच्छाइद्विस्स से काले सम्मत्तं संजमं च पडिवजमाणगस्म । सम्मत्तस्स डक्कस्सिया पदेसुदीरणा कस्स ? समयाहियावलिय अक्खीणदंसणमोहणीयस्स । "सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा कस्स ? सम्मत्ताहिमुहारसमयसम्मामिच्छाइद्विस्स सव्वविसुद्धस्स । 'अणंताणबंधीणं उक्कस्सिया पदेसुदीरणा कस्स ? संजमाहिमुहचरिमसमयमिच्छाइद्विस्स सव्वविसुद्धस्स । अपच्चक्खाणकसायाणमुक्कस्सिया पदेसुदीरणा कस्स ? संजमाहिमुहचरिम मयअसंजदसम्माइद्विस्स सव्वविसुद्धस्स ईसिमज्झिमपरिणामस्स वा । पच्चक्खाणकसायाणमुक्कस्सिया पदेसुदीरणा कस्स ? संजमाहिमुहचरिमसमय संजदासंजदस्स सव्वविसुद्धस्स ईसिमज्झिमपरिणामस्स वा। कोह संजलणस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा कस्स ? खवगस्स चग्मिस्मयकोधवेदगस्स । एवं माण-मायासंजलणाणं । लोहसंजलणस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा कस्स ? खवगस्स समयाहियावलियचरिमसमयसकसायस्स । इत्थिवेदस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा कस्स ? खवगस्स समयाहियावलियचरियसमय इत्थिवेदगस्स । पुरिसवेदस्स उक्सस्सिया पदेसुदीरणा कस्स ? खवगस्स समयाहियावलियचरिमसमयपुरिसवेदगस्स । णqसयवेदस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा कस्स ? खवगस्स समयाहियावलिय चरिमसमयणसयवेदगस्स। छण्णोकसायाणमुक्कस्सिया पदेसुदीरणा कस्स ? खवगस्स चरिमसमयअपुव्वकरणे वट्टमाणगस्स । "जहण्णमामित्तं । "मिच्छत्तस्स जहणिया पदेसुदीरणा कस्स ? सण्णि-मिच्छाइहिस्स उक्कस्ससंकिलिट्ठस्स इसिमज्झिमपरिणामस्स वा । सम्मत्तस्स जहणिया पदेसुदीरणा कस्स ? "मिच्छत्ताहिमुहचरिमसमयसम्माइडिस्स सव्वसंकिलिट्ठस्स ईसिमज्झिमपरिणामस्सवा । सम्मामिच्छत्तस्स जहणिया पदेसुदीरणा कस्स ? मिच्छत्ताहिमुहचरिमसमयसम्मामिच्छाइद्विस्स सव्यसंकिलिट्ठस्स ईसिमज्झिमपरिणामस्स वा सोलसकसायणवणोकसायाणं जहणिया पदेसुदीरणा मिच्छत्तभंगो। ___ "एयजीवेण कालो । "मिच्छत्तस्स उक्कस्सपदेसुदीरगो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुक्कस्सेण एयसमओ। अणुक्कस्सपदेसुदीरगो केवचिरं कालादो होदि १ एत्थ (१) पृ० २०८ । (२) पृ० २०८ । (३) पृ० २१० (४) पृ० २११ । ५) पृ० २१२ । (६) पृ० २१३ । (७) पृ० २१४ । (८) पृ० २१५ । (९) पृ० २१६ । (१०) पृ० २१७ । (११) पृ० २१८ । (१२) पृ० २२० । (१३) पृ० २२१ । (१४) पृ० २२२ । (१५) पृ० २२३ । (१६) पृ० २२४ । Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसिट्ठाणि तिण्णि भंगा। जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण उवड्डपोग्गलपरियटुं। सेसाणं कम्माणमुक्कस्सपदेसुदीरगो केवचिरं कालादो हादि ? जहण्णुक्कस्सेण एयसमओ । अणुकस्सपदेसुदीरगो पयडिउदीरणाभंगो। णिरयगदीए मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणताणुबंधीणमुक्कस्सपदेसुदीरगो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुक्कस्सेण एयसमओ। 'अणुक्कस्सपदेसुदीरगो पयडिउदीरणाभंगो । सेसाणं कम्माणमित्थि-पुरिसवेदवजाणमुक्कस्सिया पदेसुदीरणा केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एगसमओ। उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागो। अणुक्कस्सपदेसुदीरगो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एगसमओ। उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । 'णवरि गवंसयवेद-अरइ-सोगाणमुदीरगो उक्कस्सादो तेत्तीसं सागरोवमाणि । एवं सेसासु गदीसु उदीरगो साहेयव्यो । "एत्तो जहण्णपदेसुदीरगाणं कालो । सव्वकम्माणं जहण्णपदेसुदीरगो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एगसमओ। उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागो । 'अजहण्णपदेसुदीरगो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एयसमओ । उक्कस्सेण पयडिउदीरणाभंगो। णबरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं जहण्णपदेसुदीरगो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुक्कस्सेण एयसमओ। अजहण्णपदेसुदीरगो जहा पयडिउदीरणाभंगो। “एगजीवेण अंतरं । मिच्छत्तुक्कस्सपदेसुदीरगंतरं केवचिरं कालादो होदि १ जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्टू देसूणं । सेसेहिं कम्मेहिं अणुमग्गियूण णेदव्वं । __णाणाजीवेहि भंगविचयो भागाभागो परिमाणं खेत्तं पोसणं कालो अंतरं च एदाणि भाणिदव्वाणि। तदो सण्णियासो। मिच्छत्तस्स उक्कस्सपदेसुदीरगो अणंताणुबंधीणमुक्कस्सं वा उदीरेदि । 'उक्कस्सादो अणुक्कस्सा चउट्ठाणपदिया । एवं णेदव्वं । १२ अप्पाबहुअं । सव्वत्थोवा मिच्छत्तस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा । अणंताणुबंधीणमुक्कस्सिया पदेसुदीरणा अण्णदरा तुल्ला संखेजगुणा । ७ सम्मामिच्छत्तमुक्कस्सिया पदेसुदीरणा असंखेजगुणा । अपच्चक्खाणचउक्कस्स उक्कस्सिया पदेसुदोरणा अण्णदरा तुल्ला असंखेजगुणा ।" पच्चक्खाणचक्कस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा अण्णदरा तुल्ला असं (१) पृ० २२५.। (२) पृ० २२६ । (३) पृ० २२७ । (४) पृ० २२८ । (५) पृ. २३३ । (६) पृ० २३४ । (७) पृ० १३५ । (८) पृ० २३९ । (२) पृ० २५३ । (१०) पृ. २७४ । (११) पृ० २७५ । (१२) पृ० २८८ । (१३) पृ० २८९ । (१४) पृ० २९० ।। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो खेजगुणा । सम्मत्तस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा असंखेजगुण । भय-दुगुंछाणमुक्कस्सिया पदेसुदीरणा तुल्ला अणंतगुणा । हस्स-सोगाणमुकस्सिया पदेसुदीरणा विसेसाहिया । 'रदि-अरदीणमुक्कस्सिया पदेसुदीरणा विसेसाहिया। 'इत्थि-णqसयवेदाणं उकस्सिया पदेसुदीरणा असंखेजगुणा । पुरिसवेदे उक्कस्सिया पदेसुदीरणा असंखेजगुणा । कोहसंजलणस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा असंखेजगुणा । माणसंजलणस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा असंखेजगुणा । मायासंजलणस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा असंखेजगुणा । लोहसंजलणस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा असंखेजगुणा । णिरयगदीए सव्यत्थोवा मिच्छत्तस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा । अणंताणुबंधीणमुक्कस्सिया पदेसुदीरणा अण्णदरा संखेज्जगुणा। सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा असंखेजगुणा । अपच्चक्खाणकसायाणमुक्कस्सिया पदेसुदीरणा. अण्णदरा असंखेज्जगुणा। पच्चक्खाणकसायाणमुक्कस्सिया पदेसुदीरणा अण्णदरा विसेसाहिया । सम्मत्तस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा असंखेजगुणा । णqसयवेदस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा अणंतगुणा । भय-दुगुंछाणमुक्कस्सिया पदेसुदीरणा विसेसाहिया । 'हस्ससोगाणमुक्कस्सिया पदेसुदीरणा विसेसाहिया । रदि-अरदीणमुक्कस्सिया पदेसुदीरणा विसेसाहिया । संजलणाणमुक्कस्सिया पदेसुदीरणा संखेजगुणा । एत्तो जहणिया । सव्वत्थोवा मिच्छत्तस्स जहणिया पदेसुदीरणा। अपच्चक्खाणकसायाणं जहणिया पदेसुदीरणा अण्णदरा तुल्ला संखेजगुणा । पच्चक्खाणकसायाणं जहणिया पदेसुदीरणा अण्णदरा तुल्ला विसेसाहिया । अणंताणुबंधीणं जहणिया पदेसुदीरणा अण्णदरा तुल्ला विसेसाहिया। सम्मामिच्छत्तस्स जहणिया पदेसुदीरणा असंखेजगुणा । सम्मत्तस्स जहणिया पदेसुदीरणा असंखेजगुणा । दुगुंछाए जहणिया पदेसुदीरणा अणंतगुणा । भयस्स जहणिया पदेसुदीरणा विसेसाहिया । 'हस्स-सोगाणं जहणिया पदेसुदीरणा विसेसाहिया । रदि-अरदीणं जहणिया पदेसुदीरणा विसेसाहिया । तिण्हं वेदाणं जहणिया पदेसुदीरणा अण्णदरा विसेसाहिया। संजलणाणं जहण्णिया पदेसुदीरणा अण्णदरा संखेजगुणा । भुजगारउदीरणा उवरिमाए गाहाए परूविहिदि । पदणिक्खेवो वड्डी वि तत्थेव ! ''सांतर-णिरंतरो वा कदि वा समया दु बोद्धव्या' ति एत्थ अंतरं च कालो च हेह्रदो विहासिया । 'वहुगदरं बहुगदरं से काले को णुथोवदरगं वा' त्ति एसो भुजगारो (१) पृ० २६१ । (२) पृ० २९२ । (३) पृ० २९३ । (४) पृ० २९४ । ( ) पृ. २९५ । (६) पृ० २९६ । (७) पृ० २९७ । (८) पृ० २९८ । (६) पृ० २९९ । (१०) पृ० ३००। (११) पृ० १३८ । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसिट्ठाणि कायब्वो। पयडिभुजगारो द्विदिभुजगारो अणुभागभुजगारो पदेसभुजगारो। एवं मग्गणाए कदाए समत्ता गाहा । जो जं संकामेदि य जंबंधदि जं च जो उदीरेदि । तं होइ केण अहियं द्विदि अणुभागे पदेसग्गे ॥ एदिस्से गाहाए अत्थो-बंधो संतकम्मं उदयोदीरणा संकमो एदेसिं पंचण्हं पदाणं उक्कस्समुक्कस्सेण जहण्णं जहण्णेण अप्पाबहुअं पयडीहिं द्विदीहिं अणुभागेहिं पदेसेहिं । पयडीहिं उक्कस्सेण जाओ पयडीओ उदीरिजंति उदिण्णाओ च ताओ थोवाओ । जाओ बझंति ताओ संखेज्जगुणाओ। जाओ संकामिज्जति ताओ विसेसाहियाओ । संतकम्सं विसेसाहियं । जहण्णाओ जाओ पयडीओ बझंति संकामिज्जंति उदीरिज्जंति उदिण्णाओ संतकम्मं च एक्का पयडी । "द्विदीहिं उक्कस्सेण जाओ द्विदीओ मिच्छत्तस्स बझंति ताओ थोवाओ। उदीरिजंति संकामिज्जति च विसेसाहियाओ। "उदिण्णाओ विसेसाहियाओ। संतकम्म विसेसाहियं । एवं सोलसकसायाणं । सम्मत्तस्स उक्कस्सेण जाओ द्विदीओ संकामिजंति उदीरिज्जति च ताओ थोवाओ । 'उदिण्णाओ विसेसाहियाओ। संतकम्मं विसेसाहियं । सम्मामिच्छत्तस्स जाओ द्विदीओ उदीरिजंति ताओ थोवाओ। "उदिण्णाओ द्विदीओ विसेसाहियाओ । संकामिजंति द्विदीओ विसेसाहियाओ। संतकम्मट्टिदीओ विसेसाहियाओ । णवणोकसायाणं जाओ द्विदीओ बज्झंति ताओ थोवाओ। उदीरिजंति संकामिजंति य संखेजगुणाओ। उदिण्णाओ विसेसाहियाओ। संतकम्मद्विदीओ विसेसाहियाओ। 'जहण्णेण मिच्छत्तस्स एगा द्विदी उदीरिजदि । उदयो संतकम्मं च । जदिदिउदयो च तत्तियो चेव । जढिदिसंतकम्मं संखेज्जगुणं । जद्विदिउदीरणा असंखेजगुणा । जहण्णओ हिदिसंतकम्मो असंखेजगुणो। जहण्णओ हिदिबंधो असंखेजगुणो।। सम्मत्तस्स जहण्णगं द्विदिसंतकम्मं संकमो उदीरणा उदयो च एगा हिदी । "जट्ठिदिसंतकम्मं जछिदिउदयो च तत्तियो चेव । सेसाणि असंखेजगुणाणि "सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णयं द्विदिसंतकम्मं थोवं । जट्ठिदिसंतकम्मं संखेजगुणं । जहण्णओ द्विदिसंकमो असंखेजगुणो। जहणिया द्विदिउदीरणा असंखेजगुणा । जहण्णओ द्विदिउदओ विसेसाहिओ। (१) पृ० ३१९ । (२) पृ० ३२० । (३) ३२३ । (४) पृ० - ३२४। ५. पृ० ३२५ । (६) पृ० ३२६ । (७) पृ० १२७ । (८) पृ० ३२८। (९) ३२९। (१०) पृ० ३३० । ' (११) पृ० ३३१ । (१२) पृ० ३३२।। Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [ वेदगो ७ 'बारसकसायाणं जहण्णयं द्विदिसंतकम्मं थोवं । जट्ठिदिसंतकम्मं संखेजगुणं । जहण्णओ हिदिसंकमो असंखेजगुणो। जहण्णगो द्विदिबंधो असंखेजगुणो । जहण्णिया डिदिउदीरणा विसेसाहिया । जहण्णगो ठिदिउदयो विसेसाहियो। तिण्हं संजलणाणं जहणिया द्विदिउदीरणा थोवा । जहण्णगो डिदिउदयो संखेजगुणो । जट्ठिदिउदयो जट्ठिदिउदीरणा च असंखेजगुणो। जहण्णगो ठिदिबंधो ठिदिसंकमो डिदिसंतकम्मं च संखेजगुणाणि । जट्ठिदिसंकमो विसेसाहिओ। 'जट्ठिदिमंतकम्मं विसेसाहियं । जट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ। लोहसंजलणस्स जहण्णट्ठिदिसंतकम्ममुदयोदीरणा च तुल्ला थोवा । 'जट्ठिदिउदयो जट्ठिदिसंतकम्मं च तत्तियं चेव । जट्ठिदिउदीरणा संकम्मो च असंखेजगुणा । जट्ठिदिबंधो विसेसाहियो। इत्थि-णqसयवेदाणं जहण्णढिदिसंतकम्ममुदयोदोरणा च थोवाणि । जट्ठिदिसंतकम्मं जट्ठिदिउदयो च तत्तियो चेव । "जहिदिउदीरणा असंखेजगुणा । जहण्णगो द्विदिसंकमो असंखेजगुणो । जहण्णगो ट्ठिदिबंधो असंखेजगुणो । पुरिसवेदस्स जहण्णगो डिदिउदयो डिदिउदीरणा च थोवा । जट्ठिदिउदयो तत्तियो चेव । जट्ठिदिउदीरणा समयाहियावलिया सा असंखेजगुणा। जहण्णगो डिदिबंधो द्विदिसंकमो डिदिसंतकम्मं च ताणि संखेजगुणाणि । 'जट्ठिदिसंकमो विसेसाहियो । जट्ठिदिसंतकम्मं विसेसाहियं । जट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ । छण्णोकसायाणं जहण्णगो डिदिसंकमो संतकम्मं च थोवं । जहण्णगो द्विदिबंधो असंखेजगुणो । जहणिया द्विदिउदीरणा संखेजगुणा । जहण्णओ द्विदिउदयो विसेसाहियो। __एत्तो अणुभागेहिं अप्पाबहुगं । उक्कस्सेण ताव । 'मिच्छत्त-सोलस कसायणवणोकसायाणमुक्कस्सअणुभागउदीरणा उदयो च थोवा । उक्कस्सओ बंधो संकमो संतकम्मं च अणंतगुणाणि । सम्मत्त-सम्मामिच्छताणमुक्कस्सअणुभागउदयो उदीरणा च थोवाणि । उक्कस्सओ अणुभागसंकमो संतकम्मं च अणंतगुणाणि । __एत्तो जहण्णयमप्पाबहुअं। मिच्छेत्त-बारसकसायाणं जहण्णगो अणुभागबंधो थोवो । जहण्णयो उदयो उदीरणा च अणंतगुणाणि । जहण्णगो अणुभागसंकमो संतकम्मं च अणंतगुणाणि । (१) पृ० ३३३ । (२) पृ० ३३४ । (३) पृ० ३३५ । (४) पृ० ३३६ । (५) पृ० ३३७। (६) पृ० ३३८ । (७) पृ० ३३९ । (८) पृ० ३४० । (९) पृ० ३४१ ।। Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८१ परिसिठ्ठाणि 'सम्मत्तस्स जहण्णयमणुभागसंतकम्ममुदयो च थोवाणि । जहणिया अणुभागुदीरणा अणंतगुणा । जहण्णओ अणुभागसंकमो अणंतगुणो। सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णगो अणुभागसंकमो संतकम्मं च थोवाणि । जहण्णगो अणुभागउदयोदीरणा च अणंतगुणाणि । - कोहसंजलणस्स जहण्णगो अणुभागबंधो संकमो संतकम्मं च थोवाणि । 'जहण्णाणुभागउदयोदीरणा च अणंतगुणाणि ! एवं माण-मायासंजलणाणं । लोहसंजलणस्स जहण्णगो अणुभागउदयो संतकम्मं च थोवाणि । जहणिया अणुभागउदीरणा अणंतगुणा । जहण्णगो अणुभागसंकमो अणंतगुणो। जहण्णगो अणुभागबंधो अणंतगुणो। इत्थि-णवंसयवेदाणं जहण्णगो अणुभागउदयो संतकम्मं च थोवाणि । जहणिया अणुभागुदीरणा अणंतगुणा। जहण्णगो अणुभागबंधो अणंतगुणो। जहण्णगो अणुभागसंकमो अणंतगुणो। पुरिसवेदस्स जहण्णगो अणुभागबंधो संकमो संतकम्मं च थोवाणि । जहण्णगो अणुभागउदयो अणंतगुणो । जहणिया अणुभागउदीरणा अणंतगुणा। हस्स-रदि-भय-दुगुंछाणं जहण्णाणुभागबंधो थोवो। जहण्णगो अणुभागउदयोदीरणा च अणंतगुणा । जहण्णगो अणुभागसंकमो संतकम्मं च अणंतगुणाणि । "अरदि-सोगाणं जहण्णगो अणुभागउदयो उदीरणा च थोवाणि । जहण्णगो अणुभागबंधो अणंतगुणो । जहण्णाणुभागसंकमो संतकम्मं च अणंतगुणाणि । पदेसेहिं उक्कस्समुक्कस्सेण । मिच्छर्त्त-बारसकसाय-छण्णोकसायाणमुक्कस्सिया पदेसुदीरणा थोवा । उक्कस्सगो बंधो असंखेजगुणो । उक्कस्सपदेसुदयो असंखेजगुणो। 'उक्कस्सपदेससंकमो असंखेजगुणो । उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । सम्मत्तस्स उक्कस्सपदेससंकमो थोवो । उक्कस्सपदेसुदीरणा असंखेजगुणा । "उक्कस्सपदेसुदयो असंखेज्जगुणो । उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सपदेसुदीरणा थोवा । उक्कस्सपदेसुदयो असंखेन्जगणो। 'उक्कस्सपदेससंकमो असंखेज्जगणो । उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । तिसंजलण-तिवेदाणमुक्कस्सपदेसबंधो थोवो। उक्कस्सिया पदेसुदीरणा असंखज्जगुणा । "उक्कस्सपदेसुदयो असंखेज्जगुणो । उक्कस्सपदेससंकमो असंखेज्जगुणो। उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । __ (१) पृ० ३४२ । (२) पृ० ३४३ । (३) पृ० ३ ४४ । (४) पृ० ३४५ । (५) पृ० ३४६ । (६) पृ० ३४७ । (७) ३४८ । (८) पृ० ३४९ (९) पृ० ३५० (१०) पृ० ३५१ । (११) पृ० ३५२। (१२) पृ. ३५३ । Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ ___लोभसंजलणस्स उक्कस्सपदेसबंधो थोयो । उक्कस्सपदेससंकमो असंखेज्जगुणो । 'उक्कस्सपदेसुदीरणा असंखेज्जगुणा। उक्कस्सपदेसुदयो असंखेज्जगुणो । उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । जहण्णयं । मिच्छत्त अट्ठकसायाणं जहणिया पदेसुदीरणा थोवा । उदयो असंखेज्जगुणो। संकमी असंखेज्जगुणो। बंधो असंखेज्जगुणो। संतकम्ममसंखेज्जगुणं । सम्मत्तस्स जहणिया पदेसुदीरणा थोवा । "उदयो असंखेज्जगुणो । संकमो असंखेज्जगुणो । संतकम्ममसंखेज्जगुणं । एवं सम्मामिच्छत्तस्स । ___ अणंताणुबंधीणं जहणिया पदेसुदीरणा थोवा । संकमो असंखेज्जगणो। 'उदयो असंखेज्जगुणो । बंधो असंखेज्जगुणो । संतकम्ममसंखेज्जगुणं । कोहरालणस्स जहणिया पदेसुदीरणा थोवा । उदयो असंखेजगुणो। बंधो असंखेजगुणो। संकमो असंखेजगुणो। संतकम्ममसंखेजगणं । एवं माणमायासंजलण-पुरिसवेदाणं वंजणदो च अत्थदो च कायव्वं । लोहसंजलणस्स वि एसो चेव आलावो । णवरि अत्थेण णाणत्तं, वंजणदो ण किंचि णाणत्तमत्थि । "इत्थि-णधुसयवेद-अरइ-सोगाणं जहणिया पदेसुदीरणा थोवा । संकमो असंखेगुणो। "बंधो असंखेजगुणो । उदयो असंखेजगुणो "संतकम्ममसंखेजगुणं । ___ हस्स-रदि-भय-दुगुछाणं जहण्णिया पदेसुदीरणा थोवा । उदयो असंखेज्जगुणो । बंधो असंखेज्जगुणो । "संकमो असंखेज्जगुणो । संतकम्ममसंखेज्जगुणं । (१) पृ० ३५४ । (२) पृ० ३५५ । (३) पृ० ३५६ । ४) पृ० ३५७ । (५) पृ० ३५८ । (६) पृ० ३५९ । (७) पृ. ३६०। (८) पृ० ३६१ । (९) पृ० ३६२। (१०) पृ० ३६३ । (११) पृ० ३६४ । (१२) पृ० ३६५ । (१३) पृ० ३६६ । vsmwwwww Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ ऐतिहासिक नाम सूची २ अवतरण सूची पुस्तक १० पुस्तक ११ क्रमांक पृ०। क्रमांक पृ० क्रमांक पृ० अ १. अपक्वयाचनमुदीरणा २ | क २. कालेन उवायेण २ | अ. १. अपक्वपाचनमुदीरणा २ ३ ऐतिहासिक नाम सूची पुस्तक १० पृ० उ उच्चारणाचार्य | च चूर्णिसूत्रकार ५, ९, ७१ | स सूत्रकार ४, १८७, १८८ . ग गुणधराचार्य ३ । व व्याख्यानाचार्य पुस्तक ११ पृ० । उ. उच्चारणाचार्य ४, ८७, | च चूर्णिसूत्रकार २०८ | स सूत्रकार १३५, १८१, ३०१ । ४ ग्रन्थनामोल्लेख पुस्तक १० पू० पृ० उ उच्चारणा ११, ६५, ७१, | उ उच्चारण ५२, ६०, ६६, | तदो उच्चारणा सामित्तं मोत्तूण ९३, १००, १२८, १४०, ७१, ७७, ८१, १८१, २०८ ! सुत्त सामित्तमण्णारिसं घेत्तण १४३, १४९, १६२ २१८, २२३, २२८, २३५, पयदप्पाबहुअसमत्थणमेदं कायक कषाय प्राभृत २ २४०, २५४, २७६, २६४ ब्वमिदि ण किंचि विरुद्धं च चूर्णिसूत्र ४, १४९, १८७ | च चूर्णिसूत्र २९४ पृ० । ५ न्यायोक्ति पुस्तक ११ पृ० जहा उद्देसो तहा णिद्देसो १८१ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्ण अण्णदर अपवेसग अप्पदरपवेसग अ. अक्खवग अचरिम अट्ठकसाय अट्ठपद अणियोगद्दार २, १०, ९३, १८९, १९० अणुभाग ६,८ अणुवसामग १२१ ७ अणुसमय अनंतगुण ८०, ९९, १६२ ११५ ११५ ८४ ६ गाथा - चूर्णि सूत्रगत शब्दसूची पुस्तक १० १२१ १२३ १२७ इ. इत्थवेद असं जदपाओग्ग अह अंतर आ. आवलिय ८९,६९ अप्पा बहुअ ७९, ९३, ९९, १५८, १८९ अवट्टिदपवेसग ८४, ८७, ७८ ८४, ८६ ८९.९९ अवत्तव्यपवेसग ८४, ८८, ९२, ९९ अविरदसम्म ५३ अविसंजुत्त ११५ असंखेज्जगुण ८०, ८१, ९९ आ. ११७ १२५ ७७,९९, १२०, १२२ आ. अंतोमुहुत्त ६०, ६४, ७६, ८७ आ. ४. उ. उक्कस्स ५९, ६१, ६३, आसाण आसाणगमण ३, ९, ११२ आवलियबाहिर १२२ १२३, १२५ १२३ १२० ६४ आ. उत्तरपयडिट्ठिदिउदीरणा १८९ उदय उदयक्खय २, ११८ ग. ३ च. उदयावलिय ११३, ११४आ छ. उदयावलिय बाहिर ११८, ११९ उदीराण ५२ ज. २ ट. उदीरणा उदीरें उवड्ढपोग्गलपरिवट्ट १२२ ६१, ६३ आ. ११३ ११८ ८४, १८ ठ १२५ ण ११५ ६०, ८५ एगेगउदीरणा १० एगेगमूलपय डिउदीरणा एगे गुत्तरपयडिउदीरणा एयजीव १० १० १३१, १३३ एयसमय ६२, ६३, ७५ आ. ओ. ओकडुमाणय ओदि ११८, १९९, १२१ १२५ कदम १२७ १८८, १९० कम्मोदय. १८७ कसायउवसामणा १२३, १२५ कसायोवसामणा १२१ ३, ५७, ६० आ. उब्वेल्लिद उवसामगपाओग्ग उवसामणा वसंतद्धा उवसंतदंसणमोहणीय ए. एगजीव क. कद काल १२८ ११९ कोहसंजलण ४५, ११९ ख. खविद ११५, ११३ आ. खीणदंसणमोहणीय १२१ खेत्त ३, १८७. गाहा ५२, ५७. चरिमसमय १२५ छण्णोकसायवेदणीय ११६ त. थ. द. कोध कोह प. छम्मास जहण्ण ट्ठाण ७७ ५७, ६२ आ. ४५, ११७ आ. समुत्तिणा ४३ द्विदि ६, ८, ११, ८८ ट्ठिदिउदीरणा १८८, १८६ ट्ठिदिविभाग ३ ट्टिदिविवागोदय, ३, १८७ ठाणसमुक्कित्तणा ११३ १२० णवसंयवेद णाणाजीव ६९, ७५ आ. णिक्खित्त णिरयगदि ११८, ११९ ८१ ६ निरंतर हिण तुल्ल थोव ५४ १५८ १५८ ७ ११८ ६४ थोवदरग दिण्ण देसू ११४ दंसणतिय दंसणमोहणीय ११७, १२५ दंसणमोहणीय वसंतद १२३ पढमपाद पढमिल्लगाहा ९ ९ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८५ भव पद १८८, १९०भ पदणिक्खेव १०, १६४, १८९ पदेसग्ग ८ पमाणाणुगम १८९ पयडि ४३, ४४, ४५, पयडिउदय पयडिउदीरणा ९ पयडिहाण उदीरणा १०, ४२ पयडिणिद्देस ११३ परिवदमाणग ८४, १२५ परिवदमाणय १२१ परिवदिद १२३, १२५ परिवदंत ११८ पलिदोवम १३९ पवेसग ४३, ४४, ४५ पवेसगंतर ६०, ६१, व परिसिट्ठाणि भजियव्व ७०,१४८ ३,१८७ भुजगार १६४, १८९ भुजगारपवेसग ८३, ८४, ८५ मा० भंग ४६, ४७, ५२ भंगविचय ६९,९३ आ माण ११९, १२८ माणसंजलण माया ११९, १२८ मायासंजलण ४५, ११९ मिच्छत्त ५, ११५ आ मिस्स मूलपयडिटिदिउदोरणा १८९ लोभ १२८ लोभसंजलण ४५, ११८ लोह वट्ठि १००,१६४ विट्ठ १२२ विणासिज्जमाण १२० वियप्प विरद विरदाविरद ५४ विसेसाहिय ९९, १५९ । विहासा १८७ विहासिद ५७, १९० वेछावट्टिसागरोवम ६५, १३७ वेदग सण्णियास १८९ सपज्जवसिद समत्त १६० सम्मत्त ११३, ११४ सम्मामिच्छत्त ११४,११६ सव्वजीव ७० सव्वत्थोवा ७९, ८१ सव्वद्धा ७६ संखेजगुण ७६,८० सामरोवम सादिम १३८ सादिरेय ६५, १३५ सामित्त ५३, ५७, आ सांतर सुण्णट्ठाण १३४ सुत्त सुत्तगाहा से ११८, ११९ आ १२१, १२२ १२५ पाए पुरिसवेद पुवकोडि पोग्गल बहुगदर ६४ ३,१८७ ब ३१६ व बच्छावणा अक्खीणदंसणमोहणीय ५५ २११ अजहण्णाणुभागुदीरणा ७१ अट्ठपद २,४ अट्ठवासजाद ५१ अणियोगद्दार ३६,२०० अणुक्कस्स २७४ अणुक्कस्सपदेसुदीरग २२५ अणुक्कस्साणुभागुदीरग ६२ ६४, आ अणुभाग २, ३२१ अणुभाग उदय ३४१ । पुस्तक ११ अणुभागबंध अणुभागभुजगार अणुभागसंकम अणुभागसंतकम्म ३४१ अणुभागुदीरणा ४, २७, ३४१ अणंत अणंतगुण १२७, १२८ आ अणंतगुणहीण १२४, १२५, मा अणंताणुवंधि ५६, १२४ मा अदपोग्गलपरियट्ट २४० अपच्चक्खाणकसाय ५६,२१३ अपच्चक्खाणावरण १३०, १३२ अपच्चक्खाणावरणीय १२५ अपुवकरण ६०, २१८ अपडिसिब अप्पाबहुम ३६, १२३ आ. अरवि ५१, १२५ मा. असंखेज असंखेज्जगुण २८८ आ. असंखेज्जदिभाग २२७ आ. असंजदसम्माइट्ठि ४९ मा. अंतर ७४, ८१ मा. अंतोमुत्त ६४,६६मा, Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वाण ३८६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे आ. आदिफद्दय छावद्धिसागरोवम ६५, ७५ | प. पओग आवलियूण ६५ | ज जट्ठिदिउदय ३२९, ३३६ पच्चक्खाणकसाय इ इत्थिवेद ५०, ५९ आ. जट्टिदि उदीरणा ३३०, ३३६ ५७, २१४ इत्थिवेदखवग . ५९ जट्ठिदिग पच्चक्खाणावरण इत्थिवेदग २१७ जदिदिबंध ३३५, ३३६ १३०, १३२ ई ईसिमज्झिमपरिणाम जट्ठिदिसंकम ३३४ पज्जत्तय २१३ आ. जट्टिदिसंतकम्म ३२६,३३१ पज्जत्ति उक्कस्स ६३, ६४ आ. जहण्ण ६३, ६४ मा. पदणिक्खेव ३६, १३४ ६६ उक्कस्सकाल जहण्णग ३,७० पदेसउदय ३२१ जहण्णट्टिदिसंकम पदेसउदीरणा उक्कस्साणुभागउदीरग ३३५ ३५२ पदेसग्ग ६२, ६४ आ. जहण्णाणुभागउदीरग ७०, ८१ उक्कस्साणुभागुदीरणा जहण्णाणुभागुदीरणा पदेसबंध ५४ जहण्णसामित्त २२० पदेसभुजगार पदेससंकम उक्कस्ससंकिणि?४६ २२१|ट पदेससंतकम्म उत्तरपडिअणुभागुदीरणा दिदि ३२१, ३२४ टिदिउवा ३३२ पयडि ७०, ३२१ दिदीउदीरणा उत्तरपयडिपदेसुदीरणा ३३२ पयडिउदीरणाभंग ७१, टिदिबंध १८१, २०८ ३३० २२५ उदय पयडिअंतर २, ३२९ ट्ठिदिभुजगार ३१९ उदिण्ण ट्टिदिसंकम ३२३ पयडिकाल ३३२ परिमाण द्विदिसंतकम्ग उदीरणा ८७, २५३ २, ५४ ३३०, ३३२ उवरिमगाहा |ठ ठाणसण्णा १३४ पुढवी ३७ पुरिसवेद ओ ओघजहण्णव | ण णवणोकसाय ५०,५९ १३१ ४०, २२२ पुरिसवेदखवग ओदिण्ण ___३२८ ५९ ३२२ णवंसयवेद पुरिसवेदग क कम्म ५१, २१७ ६६, ६७ आ. २१७ णqसयवेदखवग पोग्गलपरियट्ट ६४, ७५ काल णवुसयवेदग पोषण ६२, १३ आ, २.८ २५॥ कोहवेदग णाणाजीव पंचिदितिरिक्ख . ५१ ५७, २१५ २५३ कोहसंजलण ५७,१२८ आ. णिक्खेव फ. फद्दय ख खवग ५७,५८ मा. णिरयगदि १३१, २२५ फोसण णिरंतर ३१८ ब. बारसकसाय ३७ ग गदि २२८ | त तिट्राणिय ३८,३९ बहुदरग गाहा ३००.३१९ तिवेद भ. भय ५१, १२५ मा. घ घाइसण्णा ३७ भागाभाग ८७,२५३ च चउट्ठाणपदिद २७५ | थ. थोवदरंग भुजगार ३६, ११८ चउट्ठाणिय . ३८, १९, द. दुगुंछा भुजगार उदीरणा ११४, चदुसंजलण . ३९, ३८, ३६ चरिमसमय ४९, ५० आ. देवगदि भंगविचअ ८७, २५३ छ छण्णोकसाय ३९, ६० आ. I देसघादि ३९, ४० / म. मग्गणा करह खेत ८७, २५३ ५ १२४ दुट्ठाणिय Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसिट्ठाणि ३८७ माणवेदग ५८ | स. सकसाय ५९,२१६ सव्वसंकिलिट्ठ ४९, ५० माणसंजलण ५८, १२८ सण्णा ३६, ३७ सब्बुदोरणा ३६ मायावेदन ५८,२१६ सण्णि ४६ संखेज्जगुण २८८ मायासंजलण ५८, १२७ सणियास ८५, २७४ संजदासंजद ५७, २१४ मिच्छत्त ३७,४६ आ. सदारसहस्सारदेव ५२ संजम २१० मिच्छत्तभंग ६६, २२२ समय संजमाहिमुह ५५, ५६ मिच्छत्ताहिमुह ४९,५० समयाहियावलिय ५५, ५६ संजलण १२४, १३२ मिच्छाइट्ठि ४६, ५४ आ. सम्मत ४९, ५६ संतकम्म ३२३, ३२५ मूलपयडिअणुभागुदीरणा४ सम्मामिच्छत्त ३८, ५० संत कम्मट्टिदि ३२७ मूलपडिपदेसुदोरणा १८१ सम्मामिच्छाइट्टि ५०,५६ सादिरेय र. रदि ५२, १२६ आ. समुक्कित्तणा २०८ सामित्त ४६, २०६ ल, लोभसंजलण १२७ सवेद सांतर ३१८ लोहसंजलण ५८, २१६ सम्वधादि ३७, २८ सेस ३३१ बट्टमाण सम्वत्तिव्वाणुभाग १२३ सोग ५१, १२५ विटाणिय ३८ सम्वमंदाणुभाग १२७, सोलसकसाय ४८, २२२ बढि ३६, १३४ ३२५ विसेसाहिय २९०, ३२३ सव्वविसुद्ध ५५, ५६ । ह. हस्स ५२, १२६ सूचना-इस शब्दसूची में कधं, कहं, एव, च, य, धाव, ताव, केवडियं, केवचिरं, वि, मि इत्यादि शब्दोंका संग्रह नहीं किया गया है। ७. जयधवलागत-पारिभाषिकशब्दसूची सूचना-यहाँ मात्र वे पारिभाषिक शब्द लिए गये हैं जिन की मूल में परिभाषा दी है अ. अवट्टिदपवेसग अवत्तवपवेसग अप्पदरपवेसग पुस्तक १० ८३ | उ. उदय ४, ५, १८७ | पयडिपवेस ११२ ८३ | उदीरणा २, ४, १८८] भ. भुजगारपवेसग ८३ ८३ | प. पयडिट्ठाणउदोरणा ४३ । . पुस्तक ११ प. पदणिक्खेव ३६६ | व. वड्ढि उदीरणा ३१६ २.४ | म. मज्झिमपरिणाम २१४ | स. सव्वविसुद्धपरिणाम २१४ मिच्छत्तुक्कस्सपदेसुदीरग ३७४ संतकम्भ ३२० अ. अट्ठपद ई. ईसिपरिणाम उ. उदीरणा Page #407 --------------------------------------------------------------------------  Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SB E