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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ वेदगो ७
६ ४७. भावाणु० मोह० उक्क० अणुक्क० जह० अजह० पदेसुदी० ओदइओ भावो । एवं जाव० ।
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$ ४८. अप्पा बहुअं दुविहं - जह० उक्क० । उक्क० पयदं । दुविहो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० सव्वत्थो० उक्क ० पदेसुदी ० । अणुक्क० पदे ० अनंतगुणा । एवं तिरिक्खोघं । आदेसेण णेरइय० मोह० सव्वत्थोवा उक्क० पदे० । अणुक्क० असंखे॰गुणा । एवं सव्वणिरय - सव्वपंचिं ० तिरिक्ख - मणुस - मणुसअपञ्ज० – देवा भवणादि जव अवराजिदा ति । मणुसपञ्जत्त - मणुसिणी - सव्वदेवा० सव्वत्थो० मोह० उक्क० पदे० । अणुक्क० पदे ० संखे० गुणा । एवं जाव० । एवं जहण्णयं पि णेदव्वं । णवरि जह० अजह० भाणिदव्वं । एवं जाव० ।
$ ४९. एत्तो भुजगारपदे सुदीरणाए तत्थ इमाणि तेरस अणिओगद्दाराणि - समुक्कित्तणा जाव अप्पा बहुए त्ति । समुक्कित्तणाणु० दुविहो णि० -- ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० अत्थि भुज० - अप्प०-३ ० - अवद्वि० ६० - अवत्त० पदे ० उदीरणा । एवं मणुसतिये । आदेसेण णेरइय० मोह० अत्थि भुज० - अप्प०-२ ० - अवट्ठि० । एवं सव्वणिरय - सव्वतिरिक्खे -: - मणुसपञ्ज० सव्वदेवा - ति । एवं जाव० ।
$ ४७. भावानुगमकी अपेक्षा मोहनीयके उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य प्रदेशोंके उदीरकोंका औदयिक भाव है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । ४८. अल्पबहुत्व दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीय के उत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं | उनसे अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक जीव अनन्तगुणे हैं । इसी प्रकार सामान्य तिर्योंमें जानना चाहिए। आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पचेन्द्रिय तिर्य, सामान्य मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर अपराजित विमान तकके देवों में जानना चाहिए । मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार जघन्य अल्पबहुत्व भी जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि . उत्कृष्ट और अनुत्कृष्टके स्थान पर जघन्य और अजघन्य कहना चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए ।
$ ४९. आगे भुजगार प्रदेश उदीरणाका प्रकरण है । वहाँ ये तेरह अनुयोगद्वार हैंसमुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तक । समुत्कीर्तनानुगमकी अपेक्ष। निर्देश दो प्रकारका है - - ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य प्रदेश उदीरणा है । इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। आदेशसे नारकियों में मोहनीयकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थित प्रदेश उदीरणा है । इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, अपर्याप्त और सब देवोंमें जानना चाहिए । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए ।
१. आ०प्रतौ - णिरयतिरिक्ख इति पाठः ।