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________________ २०४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [ वेदगो ७ ५५. भागाभागाणु० दुविहो णि०--ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० भुज० दुभागो देसूणो । अप्प० दुभागो सादिरेओ । अवढि० असंखे भागो । अवत्त. अणंतभागो । एवं सव्वणिरय-सव्वतिरिक्ख-मणुसअपज०-देवा भवणादि जाव अवराजिदा त्ति । णवरि अवत्त० णस्थि । मणुसेसु ओघं । णवरि अवत्त० असंखे०भागो। एवं मणुसपज०-मणुसिणी० । णवरि अवढि०-अवत्त० संखे०भागो। सव्वढे देवोघं । णवरि अवढि० संखे भागो । एवं जाव० । ५६. परिमाणाणु० दुविहो गिद्देसो-ओपेण आदेसेणय । ओघेण मोह० अवत्त० केत्तिया १ संखेजा । सेसपदा के० १ अणंता । एवं तिरिक्खा० । णवरि अवत्त० णत्थि । सव्वणिरय-सव्वपंचिंतिरिक्ख-मणुसअपज०-देवा जाव अवराजिदा ति मोह० सव्वपदा के० १ असंखेजा । एवं मणुसा० । णवरि अवत्त० केत्ति ? संखेज्जा । मणुस विशेषार्थ—मनुष्यत्रिकमें चार पद होते हैं। उनमेंसे भुजगार और अल्पतर ये दो पद ध्रुव हैं तथा अवस्थित और अवक्तव्य ये दो पद भजनीय हैं। ध्रुव पदके साथ इन दोनों भजनीय पदोंके एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा कुल आठ भंग होते हैं तथा इनके सिवा एक ध्रुव भंग और होता है, जो अवस्थित और अवक्तव्य पदके अभावमें भी पाया जाता है। अतएव मनुष्यत्रिकमें कुल नौ भंग हुए। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें भुजगार, अल्पतर और अवस्थित ये तीन पद हैं जो सभी भजनीय हैं, अतः इनमें एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा कुल छब्बीस बीस भंग होते हैं। मनुष्य अपर्याप्त यह सान्तर मार्गणा है, इसलिए इसमें सभी पद भजनीय कहे हैं । शेष कथन सुगम है। ५५. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयके भुजगार पदके उदीरक जीव कुछ कम द्वितीय भागप्रमाण हैं। अल्पतर पदके उदीरक जीव साधिक द्वितीय भागप्रमाण हैं। अवस्थित पदके उदीरक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं और अवक्तव्य पदके उदीरक जीव अनन्तवें भागप्रमाण हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यश्च, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पद नहीं है। मनुष्योंमें ओघके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्त व्य पदके उदीरक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवस्थित और अवक्तव्य पदके उदीरक जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं। सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें सामान्य देवोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि नम अवास्थत पदक उदोरक जीव संख्यातवं भागप्रमाण है । इसी प्रकार अनाहारक मागणा तक जानना चाहिए। .: ६५६. परिमाणानुगमको अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मोहनीयके अवक्तव्य पदके उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। शेष पदोंके उदीरक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं । इसी प्रकार तिर्यञ्चों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पद नहीं है। सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त और सामान्य देवोंसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें मोहनीयके सब पदोंके उदीरक जीव कितने हैं १ . असंख्यात हैं । इसी प्रकार सामान्य मनुष्योंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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