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________________ गां० ६२ ] मूलपयडिपदेसउदीरणाए भुजगारे भंगविचओ २०३ सट्ठिी देखणा । एवं मणुसतिये । णवरि अवत्त० जह० अंतोमु०, उक्क० पुव्वकोडिपुधत्तं । पंचि०तिरिक्खअपज ० - मणुसअपञ्ज० मोह० भुज० - अप्प ० - अवट्ठि० जह० एगस ०, उक्क० अंतोमु० । देवाणं णारयभंगो । एवं भवणादि जाव सव्वट्ठा ति । वरि सगहिदी देणा । एवं जाव० । $ ५४. णाणाजीवेहि भंगविचयाणु० दुविहो णि० - ओषेण आदेसेण य । ओघेण मोह ० ० भुज ० - अप्प ० - अवट्ठि० णिय० अत्थि, सिया एदे च अवत्तव्वगो च, सिया एदे च अवत्तव्वगा च । आदेसेण णेरइय० मोह० ज० - अप्प० णिय० अत्थि, सिया एदे च अवदिउदीरगो च, सिया एदे च अवट्ठिदउदीरगा च । एवं सव्वणिरय - सव्वपंचि ० तिरि० - सव्वदेवाति । तिरिक्खेसु सव्वपदा णियमा अत्थि । मणुसतिये मोह ० भुज ० - अप्प० णिय ० अत्थि । सेसपदा भयणिजा । मणुसअपज० सव्वपदा भयणिजा भंगा सव्वत्थ वत्तव्वा । एवं जाव० । जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटि पृथक्त्वप्रमाण है । पचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में मोहनीयके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । सामान्य देवोंमें नारकियों के समान भंग है। इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवस्थित पदके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण कहना चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ — नारकियों और देवोंमें अपनी-अपनी भवस्थिति तक ही उस उस पर्याय में रहना बनता है । किन्तु तिर्यों और मनुष्योंमें अपनी-अपनी कायस्थिति तक पुनः पुनः वही वही पर्याय प्राप्त होनेसे उस उस पर्यायमें निरन्तर रहना बन जाता है। यही कारण है कि यहाँ सर्वत्र अवस्थित पदके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है । $ ५४. नाना जीवोंका अवलम्बन लेकर भंगविचयानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदोंके उदीरक जीव नियमसे हैं, कदाचित् ये नाना जीव हैं और एक अवक्तव्य पदका उदीरक जीव है, कदाचित् ये नाना जीव हैं और नाना अवक्तव्य पदके उदीरक जीव हैं। आदेशसे नारकियों में मोहनीयके भुजगार और अल्पतर पदके उदीरक जीव नियमसे हैं, कदाचित् ये नाना जीव हैं और एक अवस्थित पदका उदीरक जीव है, कदाचित् ये नाना जीव हैं और नाना अवस्थित पदके उदीरक जीव हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पश्चेन्द्रिय तिर्यन और सब देवों में जानना चाहिए। तिर्यों में सब पदोंके उदीरक जीव नियमसे हैं। मनुष्यत्रिकमें मोहनीयके भुजगार और अल्पतर पदों के उदीरक जीव नियमसे हैं। शेष पद भजनीय हैं । मनुष्य अपर्याप्तकों में सब पद भजनीय हैं। भंग सर्वत्र कहने चाहिए । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए ।
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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