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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ ५२. अंतराणु० दुविहो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह ० भुज ० - अप्प ० जह० एस ०, उक्क० अंतोमु० । अवट्ठि० जह० एगस०, उक० असंखेजा लोगा । अवत्त० जह० अंतोमु०, उक्क० उवड्डपो० परियङ्कं । एवं तिरिक्खा ० । णवरि अवत्त० णत्थि । २०२ $ ५३. आदेसेण णेरइय० मोह० भुज० - अप्प० ओघं । अवडि० जह० एस ०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देभ्रूणाणि । एवं सव्वणिरय० । णवरि सगट्ठिदी देखणा । पंचिदियतिरिक्खतिये मोह० भुज० - अप्प० ओघं । अवट्ठि० जह० एस ०, उक० या मोहनीय अनुदीरकके मरकर देव होने पर एक समयके लिए होता है, इसलिए इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। मनुष्यत्रिकमें यह काल प्ररूपणा इसी प्रकार बन जानेसे उसे ओघके समान जाननेकी सूचना की है। शेष गतियों में अवक्तव्य पद नहीं है। शेष प्ररूपणा वहाँ भी ओघके समान बन जानेसे उसे भी ओघ के समान जाननेकी सूचना की है। $ ५२. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश | ओघसे मोहनीयके भुजगार और अल्पतर पदके उदीरकका जघन्य अन्तर काल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित पदके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है । अवक्तव्य पदके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्ध पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। इसी प्रकार तिर्यश्वोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पद नहीं है । विशेषार्थ — भुजगार और अल्पतर प्रदेशोंकी उदीरणाके योग्य परिणामोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त होनेके कारण यहाँ भुजगार और अल्पतर पदके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त कहा है । अवस्थित पदके योग्य परिणाम कमसे कम एक समयके अन्तरसे और अधिकसे अधिक असंख्यात लोकप्रमाण कालके अन्तरसे हों यह सम्भव है, इसलिए ओघसे अवस्थित पदके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। एक जीवके उपशमश्रेणिके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालको देख कर अवक्तव्य पदके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्ध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण कहा है । तिर्यों में मोहनीयका अवक्तव्य पद नहीं होता, इसके सिवाय अन्य सब प्ररूपणा सामान्य तिर्यों में ओघके समान बन जानेसे उनमें उसे ओघके समान जाननेकी सूचना की है। $ ५३. आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयके भुजगार और अल्पतरपदका भंग ओघके समान है । अवस्थित पदका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम है । इसी प्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए । पचेन्द्रिय तिर्यञ्च त्रिकमें मोहनीयके भुजगार और अल्पतर पदका भंग ओघके समान है । अवस्थितपदके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिक में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पदके उदीरकका
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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