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________________ गा० ६२] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए भुजगारो ३१७ ३३७. मणुसाणं पंचिंदियतिरिक्खभंगो । णवरि सम्म०--सम्मामि०--इत्थिवेपुरिसवे. संखेजगुणं कायव्वं । एवं पजत्त-मणुसिणीसु । णवरि सव्वत्थ संखेजगुणं कायव्यं । पजत्त० इत्थिवेदो पत्थि । णवुस० पुरिसवेदभंगो । मणुसिणीसु पुरिसवे०गवुस० गस्थि । इस्थिवेद० सव्वत्थोवा अवत्त०पदेसुदी० । अवट्टि उदीरगा संखेजगुणा । सेसं तं चेव । $३३८. देवाणं पंचिंदियतिरिक्खभंगो। णवरि णस० णत्थि । इत्थिवे०पुरिसवे० अवत्त०पदेसुदी० णत्थि । एवं भवणादि जाव सोहम्मा त्ति । एवं सणक्कुमारादि जाव गवगेवजा त्ति । णवरि इत्थिवेदो पत्थि । अणुदिसादि जाव सव्वट्ठा त्ति सम्मत्त० सव्वत्थोवा अवत्त०पदेसुदीरगा। अवढिदपदेसुदीरगा असंखेज्जगुणा । उवरि ओघं । बारसक०-सत्तणोक० आणदभंगो । एवं सव्वट्ठे। णवरि संखेज्जगुणं कादव्वं । एवं जाव। एवं भुजगारउदीरणा समत्ता $ ३३९. पदणिक्खेवो वडिउदीरणा च चिंतियण णेदव्वा । तो पदेसुदीरणा समत्ता । एवं विदियगाहापुव्वद्धस्स अत्थपरूवणा समत्ता । ६३३७. मनुष्योंमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी अपेक्षा अल्पवहुत्व कहते समय असंख्यातगुणेके स्थानमें संख्यातगुणा करना चाहिए। इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यहाँ सर्वत्र असंख्यातगुणेके स्थानमें संख्यातगुणा करना चाहिए। मनुष्य पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेद नहीं है तथा नपुंसकवेदका भंग पुरुषवेदके समान है। मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं है तथा इनमें स्त्रीवेदके अवक्तव्य प्रदेश उदीरक जीव सबसे स्तो हैं । उनसे अवस्थित प्रदेश उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। शेष अल्पबहुत्व वही है। $ ३३८. देवोंमें पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनमें नपुंसकवेद नहीं है तथा इनमें स्त्रीवेद और पुरुषवेदके अवक्तव्यप्रदेशउदीरक जीव नहीं हैं। इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर सौधर्म-ऐशान कल्पतकके देवोंमें जानना चाहिए। इसी प्रकार सनत्कुमार कल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद नहीं है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवों में सम्यक्त्वके अवक्तव्य प्रदेश उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थित प्रदेश उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। आगे ओघके समान भंग है । बारह कषाय और सात नोकषायोंका भंग आनत कल्पके समान है। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि असंख्यात गुणेके स्थानमें संख्यातगुणा करना चाहिए । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। इस प्रकार मुजगार प्रदेश उदीरणा समाप्त हुई। ६३३९. पदनिक्षेप और वृद्धि प्रदेश उदीरणाको विचार कर जानना चाहिए। ___इसके बाद प्रदेश उदीरणा समाप्त हुई। इस प्रकार दूसरी गाथाके पूर्वार्धकी अर्थप्ररूपणा समाप्त हुई।
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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