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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ एवं मणुसतिए । आदेसेण रइय० मोह० जह० अणुभागुदी० कस्स० १ अण्णद० सम्माइट्ठिस्स सव्वविसुद्धस्स । एवं सव्वणेरइय-सव्वदेवाणं । तिरिक्खेसु मोह० जह० अणुभागुदी० कस्स० ? अण्णद० संजदासंजदस्स सव्वविसुद्धस्स । एवं पंचिंदियतिरिक्खतिए । पंचि० तिरिक्खअपज्ज०-मणुसअपज्ज० मोह० जह• अणुभागुदी. कस्स० ? अण्णद० तप्पाओग्गविसुद्धस्स । एवं जाव० । $ १९. कालो दुविहो-जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० उक्क० अणुभागुदी० केव० ? जह० एगस०, उक्क० बेसमया । अणुक्क० जह० एगस० उक्क० अणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । एवं तिरिक्खा । अं णिमें एक समय अधिक एक आवलिकाल शेष है उस अन्यतर जीवके मोहनीय कर्मकी जघन्य अनुभाग उदीरणा होती है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। आदेशसे नारकियोंमें मोहनीय कर्मकी जघन्य अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि सर्वविशुद्ध नारकीके होती है। इसी प्रकार सब नारकी और सब देवोंमें जानना चाहिए। तिर्यञ्चोंमें मोहनीय कर्मको जघन्य अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? अन्यतर संयतासंयत सर्वविशुद्ध तिर्यञ्चके होती है । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें जानना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मोहनीय कर्मकी जघन्य अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? अन्यतर तत्प्रायोग्य विशुद्ध उक्त जीवोंके होती है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए। १९. काल दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीय कर्मके उत्कृष्ट अनुभाग उदीरकका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनके बराबर है। इसी प्रकार तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। विशेषार्थ--उत्कृष्ट संक्लेशका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। इसलिए यहाँ मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय कहा है । अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाका जघन्य काल एक समय इसलिए है, क्योंकि जो जीव उत्कृष्ट अनुभागबन्धके योग्य उत्कृष्ट संक्लेश परिणामसे परिणमकर उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करके परिणाम वश एक समय तक अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा करता है उसके मोहनीय कर्मकी अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। यद्यपि उत्कृष्ट संक्लेशसे प्रतिभग्न हुआ जीव अन्तमुहूर्त हुए बिना पुनः उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त नहीं होता ऐसा नियम है। परन्तु अनुभागबन्धाध्यवसान स्थानोंमें इस प्रकारका नियम नहीं है, इसलिए यहाँ अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाका जघन्य काल एक समय बन जाता है । इसका उत्कृष्टकाल असंख्यात पुद्गल परिवर्तनके बराबर अनन्त काल है यह स्पष्ट ही है, क्योंकि संज्ञी पञ्चेन्द्रियोंके योग्य उत्कृष्ट संक्लेशके विना इतने काल तक एकेन्द्रियोंमें परिभ्रमण देखा जाता है। तिर्यञ्चोंमें यह ओघप्ररूपणा अविकल घटित हो जाती है, इसलिए उनमें ओघके समान जाननेकी सूचना की है। आगे आदेशप्ररूपणाको भी उक्त नियमोंको ध्यानमें रखकर
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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