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________________ २६२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ $ १९०. सणक्कुमारादि जाव सहस्सारे ति सव्वपय उक्क० अणुक्क० पदेसुदी० लोग असं०भागो अट्ठ चोद्दस० देसूणा । णवरि सम्म० उक्क० खेत्तं । आणदादि जाव अच्चुदाति सव्वपय० उक्क० अणुक्क० पदेसुदी० लोग० असंखे० भागो छ चोदस० देसूणा । णवरि सम्म उक्क० पदे० खेत्तं । उवरि खेत्तभंगो । एवं जाव० । $ १९१. जह० पदं । दुविधो णिद्देसो-- ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०सोलसक० - सत्तणोक० जह० लोग० असंखे० भागो अट्ठ तेरह चोद्दस ० | अजह० सव्वलोगो | णवरि णवंस० जह० पदे० लोग० असंखे० भागो छ चोद्दस० देसूणा । सम्म० - सम्मामि० जह० अजह० लोग० असं०भागो अट्ठ चोदस० । इत्थिवेद - पुरिस $ १९१०. सनत्कुमार कल्पसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवों में सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है। आनत कल्पसे लेकर अच्युत कल्प तकके देवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इनसे ऊपर के देवोंमें स्पर्शनका भंग क्षेत्रके समान है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । T विशेषार्थ -- बारहवें कल्प तकके देवोंका गमन तीसरी पृथिवी तक और तेरहवें कल्पसे लेकर सोलहवें कल्प तकके देवोंका गमन मेरुके मूल भाग तक ही सम्भव है । इसी कारण यहाँ सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा विहार आदि सम्भव पदोंकी अपेक्षा अतीत स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण कहा है । तथा आरणादि चार कल्पोंके देवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन विहार आदि सम्भव पदोंकी अपेक्षा त्रसनालोके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण कहा है। किन्तु यहाँ सर्वत्र सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है यह स्पष्ट ही है। इसी प्रकार नौ ग्रैवेयक आदिके सभी देवों में स्पर्शन क्षेत्रके समान है यह भी स्पष्ट है । $ १९१. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश | ओघसे मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंके जघन्य प्रदेश उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा सनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम तेरह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य प्रदेश उदीरकोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेदके जघन्य प्रदेश उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्व के जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । खीवेद और पुरुषवेदके जघन्य प्रदेश उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा त्रसनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम तेरह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य प्रदेश उदीरकोंने लोकके
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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