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________________ २६३ ग० ६२] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए पोसणं वेद० जह० पदेसुदी० लोग० असंखे०भागो अट्ठ तेरह चोदस० । अजह० लोग० असंखे०भागो अटु चोइस० सव्वलोगो वा । १९२. आदेसेण णेरइय० सम्म०-सम्मामि० खेत्तं । सेसपय० जह० अजह लोग० असं०भागो छ चोदस० । एवं विदियादि जाव सत्तमा त्ति । णवरि सगपोसणं । पढमाए खेत्तभंगो। $ १९३. तिरिक्खेसु मिच्छ०-सोलसक-सत्तणोक० जह० लोग. असंखे० भागो असंख्यातवें भाग तथा त्रसनालोके कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेषार्थ-मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंकी जघन्य प्रदेश उदीरणा उत्कृष्ट या ईषत् मध्यम संक्लेश परिणामवाले संज्ञो मिथ्यादृष्टि जीव करते हैं। यतः ऐसे जीवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग और यथा सम्भव पदोंकी अपेक्षा अतीत स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम तेरह बटे चौदह भागप्रमाण होनेसे यह उक्त प्रमाण कहा है। इनके अजघन्य प्रदेश उदीरकोंका स्पर्शन सर्व लोकप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। यहाँ नपुंसक वेदके विषयमें इतना विशेष जानना चाहिए कि नपुंसकवेदके उदीरक देव नहीं होते, इसलिए इसके जघन्य प्रदेश उदीरकोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग और अतीत स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण बननेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। वेदकसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंके वर्तमान और अतीत स्पर्शनको ध्यानमें रख कर यहाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरकोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग और अतीत स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण कहा है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदके जघन्य प्रदेश उदीरकोंके स्पर्शनका खुलासा मिथ्यात्व आदि पूर्वोक्त प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेश उदीरकोंके स्पर्शनके समान ही है। मात्र इनके अजघन्य प्रदेश उदीरकोंके स्पर्शनमें कुछ अन्तर है । बात यह है कि ऐसे का वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन स्वस्थान विहार आदि यथा सम्भव पदोंकी अपेक्षा त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण और मारणान्तिक तथा उपपाद पदकी अपेक्षा सर्व लोकप्रमाण बन जानेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। ६ १९२. आदेशसे नारकियोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग क्षेत्रके समान है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य प्रदेश उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपना-अपना स्पर्शन कहना चाहिए । पहली पृथिवीमें क्षेत्रके समान भंग है। विशेषार्थ—यहाँ सामान्यसे नारकियोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अतिरिक्त शेष प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेश उदीरकोंका अतीत स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण मारणान्तिक पदकी अपेक्षा कहा है तथा अजघन्य प्रदेश उदीरकोंका अतीत स्पर्शन सनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण मारणान्तिक और उपपाद पदकी अपेक्षा कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। ६ १९३. तिर्यञ्चोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंके जघन्य प्रदेश
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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