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________________ गा० ६२] उत्तरपयडिअणुभागउदोरणाए भुजगारे समुक्कित्तणा १३५ $ ३७४. एदेणाणुभागुदीरणाविसयभुजगारादिअणियोगद्दाराणमेत्थुद्देसे परूवणाजोग्गाणं सुत्तणिबद्धत्तं परविदं, उवरिमगाहासुत्तपडिबद्धत्तेण तेसिं परूवणावलंबणादो। का सा उवरिमगाहा णाम ? वुच्चदे—'बहुदरगं बहुदरगं से काले को णु थोवदरगं वा' ति एसा सा उवरिमगाहा । संपहि एदेण चुण्णिसुत्तावयवेण उवरिमगाहासुत्तावेक्खेण समप्पिदभुजगारादिअणियोगद्दाराणमुच्चारणाइरियोवदेसबलेण पयासणमिह कस्सामो। ३७५. भुजगारउदीरणाए तत्थेमाणि तेरस अणियोगद्दाराणि--समुक्कित्तणा जाव अप्पाबहुए त्ति । समुक्त्तिणाए दुविहोणिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण सव्वपय० अस्थि भुज०-अप्प-अवट्ठि-अवत्त० । आदेसेण णेरइय० मिच्छ-सम्म०-सम्मामि०सोलसक०-छण्णोक० . ओघं । णqस. ओघं । णवरि अवत्त० णत्थि । एवं सव्वणिरय० । ३७६. तिरिक्खेसु ओघं । एवं पंचिंदियतिरिक्खतिये । णवरि वेदा जाणियव्वा । जोणिणीसु इत्थिवेद० अवत्त० णत्थि। पंचिंदियतिरिक्खअपज०-मणुसअपज० मिच्छ-णस. ओघं । णवरि अवत्त० णत्थि । सोलसक०-छण्णोक. ओघं । मणुसतिये ओघं । णवरि वेदा जाणियव्वा । $ ३७४. इस सूत्र द्वारा इस स्थानपर प्ररूपणा योग्य अनुभाग उदीरणाविषयक भुजगार आदि अनुयोगद्वार सूत्रनिबद्ध हैं यह प्रतिपादित किया है, क्योंकि उपरिम गाथासूत्रसे प्रतिबद्ध होनेके कारण उनकी प्ररूपणाका यहाँपर अवलम्बन लिया है । वह उपरिम गाथा कौनसी है ? कहते हैं-बहुदरगं बहुदरगं से काले को णु थोवदरगं वा।' यह वह उपरिम गाथा है। अब उपरिम गाथासूत्रकी अपेक्षा रखनेवाले चूर्णिसूत्रके अवयवरूप इस वचन द्वारा समर्पित भुजगारादि अनुयोगद्वारोंका उच्चारणाचार्यके उपदेशके बुलसे यहाँपर प्रकाशन करेंगे । यथा३७५. भुजगार अनुभाग उदीरणाका द्वार होते हैं-समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तक । समुत्कीर्तनाकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओघ और आदेश । ओघसे सब प्रकृतियोंकी भुजगार, अल्पतर, अस्थित और अवक्तव्य अनुभाग उदीरणा है। आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषायोंका भंग ओघके समान है। नपुसकवेदका भंग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि इसकी अवक्तव्य अनुभाग उदीरणा नहीं है। इसी प्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए। ६३७६. तिर्यश्चोंमें ओघके समान भंग है। इसी प्रकार पश्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें है। इतनी विशेषता है कि इनमें अपने-अपने वेद जान लेने चाहिए। योनिनियोंमें स्त्रीवेदफी अवक्तव्य अनुभाग उदीरणा नहीं है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व और नपुंसकवेदका भंग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि इनकी अबक्तव्य अनुभाग उदीरणा नहीं है। सोलह कषायों और छह नोकषायोंका भंग ओघके समान है। मनुष्यत्रिकमें ओघके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि अपने-अपने वेद जान लेने चाहिए।
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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