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________________ १३४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ पनक्खाणजहण्णाणुभागुदीरणा अणंतगुणहीणा होदूण णिवददि, संजदासंजदविसोहिपाहम्मादो । पंचिंदियतिरिक्खअपजत्त-मणुसअपञ्जत्तएसु णारयभंगो । णबरि सम्मत्त०सम्मामि० णत्थि । मणुसतिये ओघभंगो । णवरि वेदविसेसो जाणियव्यो । $ ३७१. संपहि देवगदीए वि एसो चेव णिरयोघप्पाबहुआलावो किं चि विसेसाणुविद्धो अणुगंतव्वो त्ति पदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तं भणइ * एवं देवगदीए वि। ३७२. सुगममेदमप्पणासुत्तं, विसेसाभावणिबंधणत्तादो। णवरि देवोधप्पहुडि जाव सव्वट्ठसिद्धि त्ति अप्पप्पणो पयडीओ जाणियव्वाओ । एवं जाव अणाहारि ति । एवमप्पाबहुए समत्ते उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए चउवीसमणियोगद्दाराणि समत्ताणि । $ ३७३. संपहि एत्थ भुजगारादिपरूवणा पत्तावसर त्ति तप्परूवणट्ठमुवरिमसुत्तमाह * भुजगार-उदीरणा उवरिमगाहाए परूविहिदि, पदणिक्खेवो वि तत्थेव, वड्ढी वि तत्थेव । ख्यानसे पहले संयतासंयत गुणस्थानमें प्राप्त होनेवाली विशुद्धिकी प्रधानतावश प्रत्याख्यानकी जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी हीन होकर निपतित होती है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें नारकियोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियोंकी उदीरणा नहीं है। मनुष्यत्रिकमें ओघके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि वेदविशेष जान लेने चाहिए । ६२७१. अब देवगतिमें भी यही नारक ओघ अल्पबहुत्वालाप कुछ विशेषताको लिये हुए जान लेना चाहिए ऐसा कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * इसी प्रकार देवगतिमें भी जानना चाहिए। $३७२. यह अर्पणासूत्र सुगम है, क्योंकि नारक सामान्यकी अपेक्षा कहे गये अल्पबहुत्वसे इस अल्पबहुत्वमें कारणसम्बन्धी अन्य कोई विशेषता नहीं है। इतनी विशेषता है कि सामान्य देवोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें अपनी-अपनी प्रकृतियाँ जान लेनी चाहिए । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। इस प्रकार अल्पबहुत्वके समाप्त होनेपर उत्तरप्रकृति अनुभाग ___ उदीरणासम्बन्धी चौबीस अनुयोगद्वार समाप्त हुए। $ ३७३. अव यहाँपर भुजगारादि प्ररूपणा अवसर प्राप्त है, इसलिए उसका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * भुजगार-अनुभाग उदीरणाकी उपरिम गाथा द्वारा प्ररूपणा करेंगे, पदनिक्षेप की भी वहीं पर प्ररूपणा करेंगे और वृद्धिकी भी वहीं पर प्ररूपणा करेंगे । १. आप्रतौ -तिरिक्खमणस
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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