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________________ गा० ६२] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए अप्पाबहुअं १३३ * पच्चक्खाणावरणजहण्णाणुभागउदीरणा अण्णदरा अणंतगुणा । $ ३६६. कुदो ! दोण्हमेदेसि सामित्तभेदाभावे वि देस-सयलसंजमपडिबंधित्तमस्सियूण तहामावसिद्धीए णिप्पडिबंधमुवलंभादो। * सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागुदीरणा अगंतगुणा । ३६७. कुदो ? सव्वघादिविट्ठाणियत्ताविसेसे वि सम्माइट्ठिविसोहीदो सम्मामिच्छाइट्ठिविसोहीए अणंतगुणहीणत्तमस्सियूण तहाभावोवलंभादो। * अणंताणुबंधीणं जहण्णाणुभागउदीरणा अण्णदरा अणंतगुणा । $ ३६८. कुदो ? सम्मामिच्छाइट्ठिविसोहीदो अणंतगुणहीणमिच्छाइद्विविसोहीए जहण्णसामित्तपडिलंभादो। * मिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागुदीरणा अणंतगुणा। ३६९. सुगममेदं । एवं णिरयोघो समत्तो। ६ ३७०. एवं पढमाए । विदियादि सत्तमि त्ति एवं चेव, विसेसाभावादो। तिरिक्खेसु पंचिंदियतिरिक्खतिए एसो चेव जहण्णप्पाबहुआलावो कायव्यो । णवरि अप्पप्पणो उदीरणापयडीओ जाणियवाओ। अण्णं च अपच्चक्खाणादो हेट्ठा * उससे प्रत्याख्यानावरण कर्मोकी अन्यतर जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी है। $३६६. क्योंकि इन दोनोंके स्वामित्वमें भेद नहीं होनेपर भी ये क्रमसे देशसंयम और सकलसंयमका प्रतिबन्ध करते हैं, इसलिए इनके उक्त प्रकारसे अल्पबहुत्वकी सिद्धि निःप्रतिबन्धरूपसे पाई जाती है। * उससे सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी है । $३६७. क्योंकि सर्वघाति द्विस्थानीयपनेकी अपेक्षा विशेषता न होनेपर भी सम्यग्दृष्टिकी विशुद्धिसे सम्यग्मिथ्यादृष्टिकी विशुद्धिके अनन्तगुणे हीनपनेका आलम्बन लेकर प्रत्याख्यानावरणकी अन्यतर प्रकृतिकी जघन्य अनुभाग उदीरणासे सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी उपलब्ध होती है। ___* उससे अनन्तानुबन्धियोंकी अन्यतर जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी है । $ ३६८. क्योंकि सम्यग्मिथ्यादृष्टिकी विशुद्धिसे अनन्तगुणी हीन मिथ्यादृष्टिकी विशुद्धिद्वारा इसका जघन्य स्वमित्व उपलब्ध होता है। * उससे मिथ्यात्वकी जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी है । ६३६९. यह सूत्र सुगम है। __इस प्रकार नरकगतिकी अपेक्षा ओघ अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। $ ३७०. इसी प्रकार पहली पृथिवीमें जानना चाहिए। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक इसी प्रकार अल्पबहुत्व है, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है । तिर्यञ्चोंमें और पश्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें यही जघन्य अल्पबहुत्व आलाप करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी उदीरणा प्रकृतियाँ जाननी चाहिए। अन्य विशेषता यह है कि अप्रत्या
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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