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________________ १३६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ $ ३७७. देवाणमोघं । णवरि णस० णत्थि । इत्थिवेद-पुरिसवेद० अवत्त० णत्थि । एवं भवण०-वाणवे०-जोदिसि०-सोहम्मीसाण । एवं सणकुमारादि णवगेवजा त्ति । णवरि इत्थिवेदो णत्थि । अणुद्दिसादि सव्वट्ठा ति सम्म०-बारसक०सत्तणोक० ओघं । णवरि पुरिस० अवत्त० पत्थि । एवं जाव० । $ ३७८. सामित्ताणु० दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ० अणंताणु०४ सव्वपदा कस्स ? अण्णद० मिच्छाइट्ठि० । सम्म० सव्वपदा कस्स ? अण्णद० सम्माइढि० । सम्मामिच्छ० सव्वपदा कस्स ? अण्ण० सम्मामि । बारसक०-णवणोक० सव्वपदा कस्स ! अण्णद० सम्माइडिस्स वा मिच्छाइटिस्स वा । ६३७९. आसेदेण णेरहय० मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि०-सोलसक०-सत्तणोक० ओघं । गवरि णस० अवत्त० णस्थि । एवं सव्वणिरय० । तिरिक्खेसु ओघं । णवरि तिण्णवेद. अवत्त० मिच्छाइट्ठिः । एवं पंचिंदियतिरिक्खतिये । णवरि वेदा $ ३७७. देवोंमें ओघके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनमें नपुसकवेद नहीं है । स्त्रीवेद और पुरुषवेदको अवक्तव्य अनुभाग उदीरणा नहीं है। इसी प्रकार भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और सौधर्म-ऐशान कल्पके देवोंमें जानना चाहिए । इसी प्रकार सनत्कुमार कल्पसे लेकर नौ ग्रेवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद नहीं है । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सम्यक्त्व, बारह कषाय और सात नोकषायोंका भंग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि इनमें पुरुषवेदकी अवक्तव्य अनुभाग उदीरणा नहीं है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ—आगे भुजगार, पदनिक्षेप और वृद्धि अनुयोगद्वारों में जहाँ मुजगारादि पदोंका उल्लेख करते समय मूलमें और उसके अनुवादमें 'अनुभाग उदीरणा' पदका निर्देश नहीं किया गया है वहाँ वह प्रकरणसे समझ लेना चाहिए। ६३७८. स्वामित्वानुगमको अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके सब पद किसके होते हैं ? अन्यतर मिथ्यादृष्टिके होते हैं । सम्यक्त्वके सब पद किसके होते हैं ? अन्यतर सम्यग्दृष्टिके होते हैं। सम्यग्मिध्यात्वके सब पद किसके होते हैं ? अन्यतर सम्यग्मिध्यादृष्टिके होते हैं। बारह कषाय और नौ नोकषायोंके अनुभाग उदीरणासम्बन्धी सब पद किसके होते हैं ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टिके होते हैं। ६३७९. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंका भंग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि इनमें नपुंसकवेदका अवक्तव्य पद नहीं है । इसी प्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए । तिर्यञ्चोंमें ओघके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि तीन वेदोंका अवक्तव्य पद मिथ्यादृष्टिके होता है। इसी प्रकार पश्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपने-अपने वेद जान लेन चाहिए। योनिनियोंमें स्त्रीवेदका अवक्तव्य पद नहीं है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त, मनुष्य
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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