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________________ १३७ गा० ६२] उत्तरपयतिअणुभागउदीरणाए भुजगारे कालो जाणियव्वा । जोणिणीसु इत्थिवेद० अवत्त० णत्थि । पंचिंदियतिरिक्खअपज०मणुसअपज०-अणुदिसादि सव्वट्ठा त्ति सव्वपय० सव्वपदा कस्स ? अण्णद० । ३८०. मणुसतिये ओघं । णवरि वेदा जाणियव्वा । मणुसिणी० इत्थिवेद० अवत्त० सम्माइट्टि । देवेसु ओघं । णवरि णस० पत्थि । इत्थिवेद-पुरिसवेद. अवत्त० णत्थि। एवं भवण-वाण-०-जोदिसि०-सोहम्मीसाणे ति । एवं सणकुमारादिणवगेवजा त्ति । णवरि इत्थिवेदो पत्थि । एवं जाव०।। $ ३८१. कालाणु० दुविहो णिदेसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण सव्वपय० भुज०-अप्प० जह• एयस०, उक्क० अंतोमु० । अवढि० जह० एगस०, उक्क० संखेजा समया । अवत्त० जहण्णुक० एगस० । सव्वासु गदीसु अप्पप्पणो पयडीणं जाणि पदाणि तेसिमोघं । एवं जाव० । अपर्याप्त और अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सब प्रकृतियोंके अनुभाग उदीरणासम्बन्धी सब पद किसके होते हैं ? अन्यतरके होते हैं। $ ३८०. मनुष्यत्रिकमें ओघके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि अपने अपने वेद जान लेने चाहिए। मनुष्यिनियोंमें स्त्रीवेदका अवक्तव्य पद सम्यग्दृष्टियोंके होता है। देवोंमें ओघके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनमें नपुंसकवेद नहीं है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी अवक्तव्य उदीरणा अनुभाग नहीं है। इसी प्रकार भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और सौधर्म-ऐशान कल्पके देबोंमें जानना चाहिए। इसी प्रकार सनत्कुमार कल्पसे लेकर नौ प्रैवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद नहीं है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ३८१. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे सब प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर अनुभाग उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूत है। अवस्थित अनुभागक उदारकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अवक्तब्य अनुभागके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । सब गतियोंमें अपनी-अपनी प्रकृतियोंके जो पद हैं उनका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। - विशेषार्थ—आगे वृद्धि अनुयोगद्वारमें सव प्रकृतियोंकी अनन्तगुणवृद्धि और अनन्त गुणहानिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बतलाया है। तथा अवस्थित पदका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल सात-आठ समय बतलाया है। तदनुसार यहाँ सब प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर पदके उदीरकका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त तथा अवस्थित पदके उदीरकका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल संख्यात समय बन जानेसे वह उक्त कालप्रमाण कहा है। ओघसे सब प्रकृतियोंके अवक्तव्य पदके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है यह स्पष्ट ही है। सब गतियोंमें जहाँ जिन प्रकृतियोंकी उदीरणा हो वहाँ उन उन प्रकृतियोंके अपने-अपने पदोंका यह काल इसी प्रकार घटित हो जाता है, इसलिए उसे ओघके समान जाननेकी सूचना की है।
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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