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________________ [8] . .... उदीरणा एक स्थानीय है, द्विस्थानीय है, त्रिस्थानीय है और चतुःस्थानीय भी है। इसका विशेष विचार महाबन्ध और कर्मकाण्ड आदि सिद्धान्त ग्रन्थोंके आधारसे कर लेना चाहिए। यह सामान्यसे मोहनीय कर्मकी अनुभाग उदीरणाको ध्यानमें रखकर चूर्णसूत्र और उच्चारणाके अनुसार स्यष्टीकरण किया गया है । आगे सर्व और नोसर्व आदि अनुयोगद्वारोंका आलम्बन लेकर इसीका उच्चारणाके अनुसार विशेष व्याख्यान किया गया है। ३. उत्तर प्रकृति अनुभाग उदीरणा यहाँ मोहनीय उत्तर प्रकृति अनुभाग उदीरणाका विचार २४ अनुयोगद्वारोंका आलम्बन लेकर किया गया है । पूर्वोक्त २३ अनुयोगद्वारोंमें एक सन्निकर्षके मिला देने पर कुल २४ अनुयोगद्वार होते हैं। उनमेंसे सर्व प्रथम संज्ञाका विचार करते हुए उसके दो भेदोंका निर्देश किया गया है। वे ये हैं-घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा । . घातिसंज्ञाके दो भेद है-सर्वघाति और देशघाति । स्थानसंज्ञा लतासदृश आदिके भेदसे चार प्रकारको है। उत्तर प्रकृतियोंमेंसे कौन प्रकृति किसरूप है इसका स्पष्टीकरण करते हुए बतलाया है कि मिथ्यात्व और प्रारम्भको बारह कषायोंकी अनुभाग उदीरणा सर्वघाति है । इन प्रकृतियोंकी अनुभाग उदीरणा द्वारा सम्यक्त्व और संयमका निरवशेष विनाश होता है, इसलिए वह सर्वघाति है । यद्यपि प्रत्याख्यान कषायोंकी अनुभाग उदीरणा के होने पर भी संयमासंयम गुणकी प्राप्ति होती है, फिर भी वह सकल संयमको प्रतिबन्धी होनेके कारण सर्वघाति ही है। इनकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा नियमसे चतु:स्थानीय होती है तथा अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा चतुःस्थानीय, त्रिस्थानीय, और द्विस्थानीय होती है। जिस प्रकार मिथ्यात्वको अनुभाग उदीरणासे सम्यक्त्व संज्ञावाली जीव पर्यायका अत्यन्त उच्छेद होता है उस प्रकार सम्यक्त्व प्रकृतिको अनुभाग उदीरणा द्वारा उसका अत्यन्त उच्छेद नहीं होता, इसलिये सम्यक्वकी अनुभाग उदीरणा देशघाति तथा एकस्थानीय और द्विस्थानीय है । किन्तु सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुभाग उदोरणा द्वारा सम्यक्त्व संज्ञावाली जीवपर्यायका अत्यन्त उच्छेद हो जाता है, इसलिए वह सर्वघाति और द्विस्थानीय है। चार संज्वलन और तीन वेदोंकी अनुभाग उदीरणा देशघाति और सर्वघाति दोनों प्रकारकी है, क्योंकि इनको उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा नियमसे सर्वघाति है, जघन्य अनुभाग उदीरणा नियमसे देशघाति है तथा अजघन्य और अनुष्कृष्ट अनुभाग उदीरणा दोनों प्रकारकी है। तात्पर्य यह है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक उक्त कर्मोंकी अनुभाग उदीरणा संक्लेश परिणामवश सर्वघाति होती है और विशुद्धिरूप परिणाम वश देशघाति होती है। तथा संयतासंयतसे लेकर आगे सर्वत्र अपने-अपने उदीरणा स्थल तक नियमसे देशघाति होती है। वहाँ इनको सर्वघाति अनुभाग उदीरणाके होनेका विरोध है । इस प्रकार इनको अनुभाग उदीरणाके देशघाति और सर्वघाति दोनों प्रकारको होनेके कारण वह यथासम्भव एकस्थानीय, द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय और चतुःस्थानीय होती है। अन्तरकरण करनेके बाद नियमसे एकस्थानीय होती है । तथा गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंमें द्विस्थानीय होती है और मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय तथा चतुःस्थानीय होती है . अब रहीं छह नोकषाय सो इनकी अनुभाग उदीरणा भी देशघाति और सर्वघाति दोनों प्रकारकी होती है, क्योंकि चौथे गुणस्थान तक तो इनकी अनुभाग उदीरणाकी देशघाति और सर्वघाति दोनों प्रकारसे प्रवृत्ति देखी जाती है। मात्र पाँचवें गुणस्थानसे लेकर उसकी प्रवृत्ति देशघातिरूपसे ही होती है। इनकी अनुभाग उदीरणा एकस्थानीय तो बन नहीं सकती, क्योंकि अपूर्वकरण गुणस्थान तक ही इनको उदयउदोरणा होती है । अतः वह द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय और चतुःस्थानीय होती है । देशसंयत गुणस्थानसे लेकर आगेके गुणस्थानोंमें तो वह देशघाति द्विस्थनीय ही होती है । मात्र पिछले चारों गुणस्थानोंमें वह यथासम्भव देशघाति और सर्वघाति दोनों प्रकारकी पाई जानेके कारण द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय और चतु:स्थानीय तीनों
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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