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________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए भुजगारो ३०५ $ ३११. आदेसेण णेरइय० मिच्छ० - सम्म० - सम्मामि ० - अनंताणु ०४ - हस्सरदि० भुज ० - अप्प ० - अवट्ठि ० - अवच० जह० एस० अंतोमु०, उक्क० तेचीसं सागरोवमाणि देणाणि । एवमरदि -- सोग । णवरि भुज० - अप्प० जह० एस ०, उक्क० अंतोमु० | एवं बारसक० - भय - दुगु छ० - ण स० । णवरि अवत० जहण्णुक० अंतोमु० । वरि ण स ० अव० णत्थि । एवं सचमाए । एवं पढमादि जाव छट्टिति । णवरि सट्ठी देणा । इस्स - रदि - अरदि - सोगाणं भयभंगो । कम अन्तर्मुहूर्त कालके अन्तरसे और अधिकसे अधिक कुछ कम दो छयासठ सागरोपम कालके अन्तरसे हो यह सम्भव होनेसे इनके अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम दो छयासठ सागरोपमप्रमाण कहा है। अविरत सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिके उत्कृष्ट अन्तरकालको ध्यान में रखकर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण कहा है। तथा वेदकसम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्व गुणकी दो बार प्राप्ति अन्तर्मुहूर्त कालके अन्तरसे होना सम्भव है, इसलिए उक्त प्रकृतियोंके अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है । अप्रत्याख्यान कषाय चतुष्क और प्रत्याख्यान कषायचतुष्कके अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त अनन्तानुवन्धीकषायचतुष्कके समान घटित कर लेना चाहिए । तथा संयमासंयम और सकलसंयमका उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण होनेसे इनके भुजगार अल्पतर और अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त कालप्रमाण कहा है, क्योंकि पाँचवें आदि गुणस्थानोंमें अप्रत्याख्यान कषायकी उदीरणा नहीं होती और छटे आदि गुणस्थानों में प्रत्याख्यान कषायकी उदीरणा नहीं होती । मात्र जो संयतासंयत आदि गुणस्थानोंमें अन्तर्मुहूर्त रह कर नीचे उतरा है । पुनः अन्तर्मुहूर्त के बाद संयतासंयत या संयत होकर और अपने उत्कृष्ट काल तक वहाँ रह कर पुनः नीचे उतरा है उसके अप्रत्याख्यान कषाय चतुष्ककी अपेक्षा यह उत्कृष्ट अन्तरकाल कहना चाहिए। तथा जो अन्तर्मुहूर्त काल तक संयत हो कर नीचे उतरा है । पुनः अन्तर्मुहूर्त में संयत होकर और अपने उत्कृष्ट कालतक वहाँ रहकर नीचे उतरा है उसके प्रत्याख्यान कषाय चतुष्कको अपेक्षा यह उत्कृष्ट अन्तरकाल कहना चाहिए। इन आठों प्रकृतियों के अवस्थित प्रदेश उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है यह स्पष्ट ही है । इसी प्रकार शेष प्रकृतियों के अपने-अपने पदोंका अन्तरकाल घटित कर लेना चाहिए । विशेष वक्तव्य न होनेसे यहाँ सबका अलग-अलग स्पष्टीकरण नहीं किया है । $ ३११. आदेशसे नारकियोंमें मिध्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, हास्य और रतिके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम है। इसी प्रकार अरति और शोककी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके भुजगार और अल्पतर प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुर्तप्रमाण है । इसी प्रकार बारह कषाय, भय, जुगुप्सा और नपुंसकवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । इतनी और विशेषता है कि नपुंसकवेदका अवक्तव्य पद नहीं है । इसी प्रकार सातवीं पृथिवीं ३९
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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