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________________ ३०६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ ९ ३१२. तिरिक्खेसु मिच्छ० ओघं । णवरि भुज० - अप्प० जह० एगस०, उक्क० तिणि पलिदोवमाणि देणाणि । एवमणंताणु०४ । णवरि अवत्त० जह० अंतोमु०, उक्क० तिणि पलिदोवमाणि देणाणि । सम्म० - सम्मामि ० - अपच्चक्खाण ०४ - इत्थवे ०पुरिसवेद० ओघं । अटुक० - छण्णोक० भुज० - अप्प० - अवत्त० जह० एस ०, उक० अंतोमु० 1 अव० ओघं । णवंस० ओघं । णवरि भुज० - अप्प० जह० एगस०, उक० पुत्रको डिपुधत्तं । $ ३१३. पंचिंदियतिरिक्खतिये मिच्छ० भुज० - अप्प० तिरिक्खोघं । अवडि० - अवत्त० जह० एस० अंतोमु०, उक्क० सगट्ठिदी देखणा । सोलसक० - छण्णोक ० तिरिक्खोघं । णवरि अवद्वि० जह० एगस०, उक्क० सगहिदी देखना | सम्म० - सम्मामि० में जानना चाहिए । इसी प्रकार पहली पृथिवीसे लेकर छटी पृथिवी इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए । अरति और शोकका भंग भयके समान है । विशेषार्थ — प्रथमादि छह पृथिवियों में हास्य, रति, अरति और शोककी अन्तर्मुहूर्त के अन्तरसे नियमसे उदीरणा होती है, इसलिए इन पृथिवियों में इनके सभी पदोंके प्रदेश हीरकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल भयके समान बन जानेसे उसके समान जाननेकी सूचना की है। शेष कथन सुगम है । $ ३१२. तिर्यञ्चों में मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि इसके भुजगार और अल्पतर प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तीन पल्योपम है । इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि इनके अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तीन पल्योपम है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अप्रत्याख्यान कपायचतुष्क, स्त्रीवेद और पुरुषवेदका भंग ओघके समान है। आठ और छह नोकपायोंके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित प्रदेश उदीरकका भंग ओघ के समान है । नपुंसकवेदका भंग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि इसके भुजगार और अल्पतर प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्व - कोटिपृथक्त्व प्रमाण है । विशेषार्थ - यहाँ पर नपुंसकवेदके भुजगार और अल्पतर प्रदेश उदीरकका जो उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण कहा है सो वह पचेन्द्रिय तिर्यों को ख्यालमें रख कर ही कहा है, क्योंकि उन्हीं में यह उत्कृष्ट अन्तरकाल बनता है । शेष कथन सुगम है । अपने-अपने स्वामित्व और कालको जानकर वह घटित कर लेना चाहिए । $ ३१३. पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चत्रिक में मिथ्यात्वके भुजगार और अल्पतर प्रदेश उदीरकका भंग सामान्य तिर्यञ्चों के समान है । अवस्थित प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय और अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है । सोलह कषाय और छह नोकषायोंका भंग सामान्य तिर्योंके समान है । इतनी विशेषता है कि इनके अवस्थित प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल तक जानना चाहिए । तथा इनमें हास्य, रति,
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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