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________________ ३०४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ उक्क० पुव्वकोडी देखणा । अवट्ठि० मिच्छत्तभंगो । चदुसंज० - भय - दुगुंछ० एवं चैव । वरि भुजगार - अप्पदर - अवतव्व० जह० एगस० अंतोमु०, उक्क० अंतोमु० | एवं इस्स - रदि० । णवरि भुज० - अप्प० - अवच० जह० एस० अंतोमु०, उक्क० तेचीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । एवमरदिसोग० । णवरि भुजगार - अप्पद ० जह० एस ०, उक्क० छम्मासं । एवं णवं स० । णवरि भुज ० - अप्प ० जह० एस ०, उक्क० सागरोवमसदपुधतं । अवच० जह० अंतोमु०, उक्क० अनंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । इत्थवे ० - पुरिसवे० भुज ० - अप्प ० - ० - अवट्ठि०० - अवत० जह० एयस० अंतोमु०, उक्क० अनंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । तथा तीनोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है । अवस्थित प्रदेश उदीरकका भंग मिध्यात्वके समान है। चार संज्वलन, भय और जुगुप्साका भंग इसी प्रकार है । इतनी विशेषता है कि इनके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल दो पदोंका एक समय और अन्तिमका अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार हास्य और रतिकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके भुजगार और अल्पतर प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय और अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है तथा सत्रका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तेतीस सागरोपमप्रमाण है। इसी प्रकार अरति और शोककी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके भुजगार और अल्पतर प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है तथा सबका उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है। इसी प्रकार नपुंसकवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसके भुजगार और अल्पतर प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है। और उत्कृष्ट अन्तरकाल सौ सागरोपमपृथक्त्व प्रमाण है । इसके अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । स्त्रीवेद और पुरुषवेदके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय तथा अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । विशेषार्थ – यहाँ सब प्रकृतियोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित प्रदेश उदीरककाजघन्य अन्तरकाल एक समय स्पष्ट ही है, क्योंकि इन पदोंके एक समयके अन्तर से होनेमें कोई बाधा नहीं आती । तथा मिथ्यात्व गुणस्थानका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम दो छयासठ साग रोपम होनेसे मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कके भुजगार और अल्पतर प्रदेश उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम दो छयासठ सागरोपम कहा है। इनकी अवस्थित प्रदेश उदीरणा अधिक से अधिक असंख्यात लोकप्रमाण काल तक नहीं होती, इसलिए इन पाँचों प्रकृतियोंके अवस्थित प्रदेश उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। अब रहा इन पाँचों प्रकृतियोंके अवक्तव्य प्रदेश उदीरकके अन्तरकालका विचार सो जो सम्यक्त्व से च्युत होकर मिध्यादृष्टि हुआ है उसके पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त कर मिध्यादृष्टि होनेमें कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल लगता है तथा वह अधिक-से-अधिक उपार्ध पुद्गल परिवर्तन प्रमाण काल तक मिथ्यादृष्टि रहकर सम्यक्त्वको प्राप्तकर पुनः मिध्यादृष्टि हो सकता है, इसलिए तो मिथ्यात्वके अवक्तव्य प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्धपुद् - गल परिवर्तनप्रमाण कहा है। तथा अनन्तानुबन्धियोंका दो बार अवक्तव्यपद कमसे
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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