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________________ उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए अप्पाबहुअं बंधोदयाणमुवरिमभणिस्समाणअप्पा बहुअसुत्तादो । तत्थ जदि सम्मत्तजहण्णाणुभागुदीरणादो पुरिसवेदचरिमसमयजहणणबंधस्स वि अनंतगुणत्तसंभवो तो तत्तो अनंतगुणपुरिसवेदजहण्णाणुभागुदीरणा णिच्छयेणाणंतगुणा होदि ति णत्थि एत्थ संदेहो । * इत्थिवेदे जहण्णाणुभागुदीरणा अनंतगुणा । गा० ६२ ] १२९ ३५०. किं कारणं ? पुरिसवेदजहण्णसामित्तविसयादो हेट्ठा अंतो मुहुत्तमोदरियूण समयाहियावलियचरिमसमयइत्थि वेदखवगम्मि जहण्णसामित्तपडिलंभादो । * णवुंसयवेदे जहण्णाणुभागउदीरणा असंतगुणा । ६ ३५१. जइ वि दोहमेदेसिं सामित्तविसयो समाणो एगट्ठाणिया च, दोहमणु भागुदीरणा पडिसमयमणंतगुणहाणीर पडिलद्वजहण्णभावा तो वि पुव्विल्लादो एदस्स पयडिमाहप्पेणानंतगुणत्तमविरुद्धं दट्ठव्वं । * हस्से जहण्णाणुभागुदीरणा अनंतगुणा । $ ३५२. किं कारणं १ अणियट्टिपरिणामादो अर्णतगुणहीणचरिमसमयापुव्वकरणविसोहीe देसघादिविट्ठाणियसरूवेण हस्साणुभागुदीरणाए जहण्णभावोवलंभादो । * रदीए जहाण्णाणुभागुदीरणा अनंतगुणा । शंका—यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान—क्षपकश्रेणिमें बन्ध और उदयके आगे कहे जानेवाले अल्पबहुत्व सूत्रसे जाना जाता है । वहाँ यदि सम्यक्त्वकी जघन्य अनुभाग उदीरणा से पुरुषवेदके अन्तिम समयवर्ती जघन्य बन्धका भी अनन्तगुणापना सम्भव है तो उससे अनन्तगुणे पुरुषवेदकी जघन्य अनुभाग उदीरणा निश्चयसे अनन्तगुणी होती है इसमें सन्देह नहीं है । * उससे स्त्रीवेदकी जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी है । . $ ३५०. क्योंकि पुरुषवेदके जघन्य स्वामित्वके विषयसे नीचे अन्तर्मुहूर्त उतर कर एक समय अधिक एक आवलिके अन्तिम समयमें स्थित स्त्री वेद क्षपकके जघन्य स्वामित्व उपलब्ध होता है। * उससे नपुंसकवेदकी जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी है । $ ३५९. यद्यपि इन दोनोंका स्वामित्वका विषय समान है और इन दोनोंकी एकस्थानीय अनुभाग उदीरणा प्रति समय अनन्तगुणी हानिद्वारा जघन्यभावको प्राप्त हुई है तो भी पूर्वोक्त प्रकृति से इसका प्रकृतिके माहात्म्यवश अनन्तगुण।पना अविरुद्ध जानना चाहिए । * उससे हास्यकी जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी है । ९ ३५२. क्योंकि अनिवृत्तिपरिणामसे अन्तिम समयवर्ती अपूर्वकरणकी अनन्तगुणी ही विशुद्धिसे होनेवाली हास्यकी अनुभाग उदीरणाका देशघाति द्विस्थानीयरूपसे जघन्यपना उपलब्ध होता है । * उससे रतिकी जघन्य अनुभाग उदीरणा अनन्तगुणी है । १७
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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