SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 294
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७५ गा० ६२] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए परिमाणं वा अणुक्कस्सं वा उदीरेदि, सामित्तभेदाभावे पि अप्पणो विसेसपञ्चयमस्सियूण तहाभावसिद्धीए.विरोहाभावादो । तथाणुकस्समुदीरेमाणो केत्तिएहिं वियप्पेहिं अणुक्कस्समुदीरेदि त्ति पुच्छिदे तण्णिण्णयकरणमुत्तरसुत्तमाह * उकस्सादो अणुक्कस्सा चउट्ठाणपदिदा । २१२. कुदो ? मिच्छत्तुक्कस्सपदेसुदीरगस्साणंताणुबंधीणं चउट्ठाणपदिदपदेसुदीरणाकारणपरिणामाणं पि संभवे विरोहाभावादो। तदो मिच्छत्तुक्कस्सपदेसुदीरगो अणंताणुबंधीणमणुक्कस्समुदीरेमाणो असंखे०भागहीणं संखे०भागहीणं संखे०गुणहीणं असंखे०गुणहीणमुदीरेदि ति सिद्धं । एवं मिच्छत्तुक्कस्सपदेसुदीरणं णिरुद्धं कादण तत्थाणताणुबंधाणं सण्णियासो कओ । सेसाणं पि कम्माणमेदेण बीजपदेण सण्णियासो णेदव्यो त्ति जाणावणट्ठमाह * एवं णेदव्वं । 5 २१३. जहा मिच्छत्तस्साणंताणुबंधीहि सह णीदं एवं सेसेहिं मि कम्मेहि सह णेदव्वं । अणंताणुबंधिकोहादीणं पि पादेक्कणिरुंभणं कादण सेसकम्मेहि सह सण्णियासो जाणिय कायव्यो । जहण्णसण्णियासो वि चिंतिय णेदव्यो त्ति एसो एदस्स मुत्तस्स नियमसे उदीरक है। इस प्रकार उदीरणा करने वाला उत्कृष्ट या अनुत्कृष्टकी उदीरणा करता है, क्योंकि स्वामित्वका भेद नहीं होनेपर भी अपने विशेष प्रत्ययका आश्रय कर उस प्रकारकी सिद्धिमें कोई विरोध नहीं है। उस प्रकार अनुत्कृष्टको उदीरणा करनेवाला कितने भेदोंके द्वारा अनुत्कृष्टकी उदीरणा करता है ऐसा पूछनेपर उसका निर्णय करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा चतुःस्थान पतित होती है । २१२. मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करनेवाले जीवके अनन्तानुबन्धियोंकी चतुःस्थान पतित प्रदेश उदीरणाके कारणभूत परिणामोंके भी सम्भव होनेमें कोई विरोध नहीं आता। इसलिए मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करनेवाला जीव अनन्तानुबन्धियोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता हुआ असंख्यात भागहीन, संख्यात भागहीन, संख्यात गुणहीन या असंख्यात गुणहीन प्रदेश उदीरणा करता है यह सिद्ध हुआ। इस प्रकार मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाके साथ वहाँ अनन्तानुबन्धियोंका सन्निकर्ष बतलाया। इसी प्रकार शेष कर्मोंका भी इसी बीजपद से सन्निकर्ष जानना चाहिए इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * इसी प्रकार शेष कर्मोंका भी जानना चाहिए । ६२१३. जिस प्रकार मिथ्यात्वका अनन्तानुबन्धियोंके साथ संन्निकर्ष बतलाया है उसी प्रकार शेष कर्मों के साथ भी जानना चाहिए। अनन्तानुबन्धी क्रोधादिमेंसे भी प्रत्येकको विवक्षित कर शेष कर्मों के साथ सन्निकर्ष जानकर करना चाहिए। जघन्य सन्निकर्षका भी
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy